स्थलमण्डल
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स्थलमण्डल
◆ पृथ्वी की सम्पूर्ण बाह्य परत जिस पर महाद्वीप एवं महासागर स्थित है, स्थलमण्डल (Lithosphere) कहलाती है। पृथ्वी के कुल 29% भाग पर स्थल तथा 71% भाग पर जल स्थित है।
◆ पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध का 61% तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के 81% क्षेत्रफल पर जल का विस्तार है।
◆ पृथ्वी पर सर्वाधिक ऊँचाई माउंट एवरेस्ट (8848 मी.) की तथा सर्वाधिक गहराई मेरियाना गर्त (11,033 मी.) की है। इस प्रकार पृथ्वी की ऊँचाई एवं सर्वाधिक गहराई में लगभग 20 किमी. का अंतर है।
◆ स्थलमंडल महाद्वीपीय क्षेत्रों में अधिक मोटी (40 किमी.) एवं महासागरीय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत पतली (20 – 12 किमी.) है।
चट्टानें
◆ बनावट के आधार पर यह तीन प्रकार की होती है –
1. आग्नेय चट्टान (Igneous Rock )
2. अवसादी चट्टान (Sedimentary Rock )
3. कायांतरित चट्टान (Metamorphic Rock )
1. आग्नेय चट्टान
◆ इनका निर्माण ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले लावा (Magma) के पृथ्वी के अंदर या बाहर ठंडा होकर जम जाने से होता है।
◆ ये चट्टानें सभी चट्टानों में सबसे ज्यादा (95%) मिलती हैं।
◆ इन्हें प्राथमिक या मातृ ( Primary or Mother ) चट्टानें भी कहा जाता है।
◆ आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती है। आर्थिक रूप से आग्नेय चट्टान बहुत ही सम्पन्न चट्टान है। इसमें चुम्बकीय लोहा, निकिल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज, सोना तथा प्लेटिनम पाये जाते हैं।
◆ बेसाल्ट में लोहे की मात्रा सर्वाधिक होती है। इस चट्टान के क्षरण से काली मिट्टी का निर्माण होता है।
◆ उत्पत्ति के आधार पर आग्नेय चट्टानें तीन प्रकार की होती हैं –
1. ग्रेनाइट ( Granite) : इन चट्टानों के निर्माण में मैग्मा धरातल के ऊपर न पहुँचकर अंदर ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है। मैग्मा के ठंडा होने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है क्योंकि अंदर का तापमान अधिक होता है और बनने वाले क्रिस्टल (Crystal) काफी बड़े होते हैं ।
2. बेसाल्ट (Basalt) : जब मैग्मा धरातल पर आकर ठंडा होता है, तब तीव्र गति से ठंडे होने के कारण चट्टानों के रवे (Crystal) बहुत बारीक होते हैं। इन्हें ही बेसाल्ट कहा जाता है। बेसाल्ट चट्टान के क्षरण के कारण ही काली मिट्टी का निर्माण होता है।
3. ज्वालामुखीय (Volcanic) : ज्वालामुखी विस्फोट के कारण मैग्मा के बाहर आकर जमने से इन चट्टानों का निर्माण होता है।
◆ पृथ्वी के आंतरिक भाग में पिघले हुए मैग्मा (Magma) से निर्मित चट्टानों को भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है –
1. डाइक (Dyke) : जब मैग्मा किसी लम्बवत् दरार में जमता है तो डाइक कहलाता है। झारखंड के सिंहभूम जिले में अनेक डाइक दिखायी देते हैं।
2. सिल (Sill) : जब मैग्मा भू-पृष्ठ के समानांतर परतों में फैलकर जमता है, तो उसे सिल कहते हैं। इसकी मोटाई एक मीटर से लेकर सैकड़ों मीटर तक होती है। छत्तीसगढ़ तथा झारखंड में सिल जाये जाते हैं। एक मीटर से कम मोटाई वाले सिल को शीट (Sheet) कहते हैं ।
3. लैकोलिथ (Lacolith) : पृथ्वी की धरातल के निकट परतदार चट्टानों के बीच गुंबदाकार संरचना में मैग्मा के जमने के कारण इसका निर्माण होता है। इस गुंबदाकार संरचना का आकार छतरीनुमा दिखायी देता है। लैकोलिथ बहिर्वेधी ज्वालामुखी पर्वत का ही एक अंतर्वेधी प्रतिरूप है।
4. बैथोलिथ (Batholith) : ये प्राय: गुंबद के आकार के होते हैं, जिनके किनारे तीव्र ढाल वाले एवं आधार तल अधिक गहराई में होता है । वास्तव में यह एक पाताली (Plutonic) चट्टान है। इनका ऊपरी भाग अत्यधिक असमान (Irregular) एवं उबड़-खाबड़ होता है। ये सैकड़ों किलोमीटर लंबे, 50 से 80 किमी चौड़े एवं काफी अधिक मोटे होते हैं। यह मूलत: ग्रेनाइट से बनता है।
5. स्टॉक (Stock) : छोटे आकर के बैथोलिथ को स्टॉक कहते हैं। इसका ऊपरी भाग गोलाकार गुंबदनुमा होता है। स्टॉक का विस्तार 100 वर्ग किमी से कम होता है।
6. लैपोलिथ (Lapolith) : जब मैग्मा जमकर तश्तरीनुमा आकार ग्रहण कर लेता है तो उसे लैपोलिथ कहते हैं। लैपोलिथ दक्षिण अमेरिका में मिलते हैं।
7. फैकोलिथ (Phacolith) : जब मैग्मा लहरदार आकृति में जमता है, तो फैकोलिथ कहलाता है।
2. अवसादी चट्टान
◆ पृथ्वी तल पर आग्नेय व रूपांतरित चट्टानों के अपरदान व निक्षेपण के फलस्वरूप निर्मित चट्टानों को अवसादी चट्टान कहते हैं।
◆ इन पुनर्निर्मित चट्टानों में परतों का विकास होने के कारण इन्हें प्रस्तरित या परतदार चट्टान भी कहा जाता है।
◆ इन चट्टानों के निर्माण में जैविक अवशेषों का भी योगदान होता है। सम्पूर्ण क्रस्ट (Crust) के लगभग 75% भाग पर अवसादी चट्टान फैले हुए हैं पर क्रस्ट के निर्माण में इसका योगदान मात्र 5% है।
◆ अवसादी चट्टानें परतदार होती हैं। इनमें वनस्पति एवं जीव-जंतुओं का जीवाश्म (Fossils) पाया जाता है। इन चट्टानों में लौह-अयस्क, फास्फेट, कोयला एवं सीमेंट बनाने की चट्टान पायी जाती है ।
◆ खनिज तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है। अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाये तो खनिज तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है।
◆ दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है।
◆ आगरा का किला एवं दिल्ली का लाल किला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों का बना है।
◆ चूना पत्थर, बलुआ पत्थर, स्लेट, कांग्लोमरेट, नमक की चट्टानें एवं शेलखड़ी आदि अवसादी चट्टानों के उदारहरण हैं।
विभिन्न चट्टानों की रूपांतरण क्रिया
अवसादी चट्टानों के रूपान्तरण से बनी शैलें |
शैल | स्लेट |
चूना पत्थर | संगमरमर |
चॉक एवं डोलोमाइट | संगमरमर |
बालुका पत्थर | क्वार्टजाइट |
कांग्लोमेरेट | क्वार्टजाइट |
आग्नेय चट्टानों के रूपांतरण से बनी शैलें |
ग्रेनाइट | नीस |
बेसाल्ट | एम्फीबोलाइट |
बेसाल्ट | सिस्ट |
रूपांतरित चट्टानों के पुनः रूपांतरण से बनी शैलें |
स्लेट | फाइलाइट |
फाइलाइट | सिस्ट |
गैब्रो | सरपेंटाइन |
3. कायांतरित चट्टान
◆ ताप एवं दाब के कारण आग्नेय तथा अवसादी चट्टानों के संगठन तथा स्वरूप में परिवर्तन या रूपांतरण हो जाता है। इसे रूपांतरित या कायांतरित चट्टान कहते हैं।
◆ कायांतरित चट्टान सर्वाधिक है तथा इसमें जीवाश्म नहीं मिलते हैं।
पर्वत
◆ धरातल के 27 प्रतिशत भाग पर पर्वतों का विस्तार है।
◆ आयु के आधार पर पर्वतों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है –
1. प्राचीन पर्वत (Old Mountain) : लगभग तीन करोड़ वर्ष पूर्व हुए महाद्वीपीय विस्थापन (Continental Drift) से पूर्व के पर्वत प्राचीन पर्वतों में आते हैं। जैसे- पेनाइन (यूरोप), अप्लेशियन (अमेरिका), अरावली (भारत) । अरावली विश्व का सबसे प्राचीन पर्वत माना जाता
2. नवीन पर्वत (Young Mountains) : जो पर्वत महाद्वीपीय विस्थापन के बाद अस्तित्व में आये हैं, ये नवीन पर्वतों की श्रेणी में आते हैं। जैसे- हिमालय, रॉकी, एंडीज, आल्पस आदि। हिमालय विश्व का सबसे नवीन पर्वत माना जाता है।
◆ उत्पत्ति के आधार पर पर्वत मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं –
वलित / मोड़दार पर्वत (Fold Mountains)
◆ पृथ्वी की विवर्तनिक (Tectonic) शक्तियों जैसे- दबाव, संपीड़न उभार, तनाव आदि के कारण चट्टानों के स्तर में व्यापक मोड़ या वलन का विकास होने से इन पर्वतों को निर्माण होता है।
◆ हिमालय, आल्पस, रॉकी, एंडीज, यूराल, एटलस आदि बड़ी श्रेणियों के पर्वत ही वलित पर्वत हैं।
अवरोधी पर्वत (Block Mountains )
◆ ये पृथ्वी के धरातल के ऊपर उठने या नीचे धँसने की वजह से बनते हैं।
◆ धरातल के नीचे लावा के ठंडा होने की वजह से तनाव या खिंचाव के कारण धरातल में भ्रंश व दरार (Faults) का विकास हो जाता है, जिससे कुछ भाग ऊपर उठ जाता है और कुछ भाग धँस जाता है।
◆ ऊपर उठा भाग भ्रंशोत्थ (Block Mountain or Horsts ) तथा धंशा भाग भ्रंश घाटी (Rift Valley or Garben) कहलाता है।
◆ नर्मदा, ताप्ती व दामोदर घाटी (भारत), वास्जेस व ब्लैक फौरेस्ट पर्वत (यूरोप), वासाच रेंज (अमेरिका), साल्ट रैंज (पाकिस्तान) आदि प्रमुख भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain) है।
अवशिष्ट पर्वत ( Residual or Relict Mountains)
◆ अत्यधिक अपरदन या अनाच्छादन के कारण ( नदी, हिमनद, तुषार, वायु आदि कारकों के कारण से) पर्वत अपने प्रारंभिक स्वरूप को खोकर अवशिष्ट पर्वत का रूप धारण कर लेते हैं।
◆ विंध्याचल, अरावली, सतपुड़ा, नीलगिरी, पारसनाथ, राजमहल, पूर्वी घाट, पश्चिमी घाट (भारत), हाइलैंड्स (स्कॉटलैंड), कैटस्किल (न्यूयार्क) आदि इस श्रेणी के पर्वत हैं।
संग्रहित पर्वत (Mountains of Accumulation)
◆ ज्वालामुखी के उद्गार से निस्सृत लावा, विखंडित पर्वत तथा राखचूर्ण आदि के क्रमबद्ध अथवा असंबद्ध एकत्रीकरण के फलस्वरूप इन पर्वतों का निर्माण होता है। अतः इन्हें ज्वालामुखी पर्वत भी कहा जाता है। जापान का फ्यूजीयामा और इक्वेडोर का कोटोपैक्सी इसके प्रमुख उदाहरण है।
विश्व के प्रमुख पर्वत
नाम | स्थिति | सर्वोच्च चोटी | अधिकतम ऊँचाई |
हिमालय | एशिया | माउण्ट एवरेस्ट | 8848 |
एण्डीज | दक्षिण अमेरिका | एकांकगुआ | 6960 |
रॉकी | उत्तरी अमेरिका | माउण्ट एल्बर्ट | 4400 |
काराकोरम | एशिया | गाडविन ऑस्टिन (K2) | 8611 |
ग्रेट डिवाईडिंग रेंज | ऑस्ट्रेलिया | माउण्ट कोसिस्को | 2228 |
टिएनशॉन | एशिया | पीके पोबेडा | 7439 |
अल्टाई | एशिया | बेलुखा | 4505 |
यूराल | रूस | नैरोडनाया | 1894 |
एटलस | अफ्रीका | टाउब्काल | 4165 |
आल्प्स | यूरोप | माउण्ट ब्लैक | 4807 |
अप्लेशियम | अमेरिका | माउण्ट मिचेल | 2037 |
एपेनाइन | इटली | कोनोग्रांडे | 2931 |
कास्केड श्रेणी | उत्तरी अमेरिका | माउण्ट रेनियर | 4392 |
अलास्का श्रेणी | अलास्का | माउण्ट मेकिन्ले | 6194 |
काकेशस श्रेणी | यूरोप | एलब्रुश | 5633 |
पठार
◆ पठार पर्वतों से नीचे और मैदानों से ऊँचे भू-भाग हैं जिनका ऊपरी (शीर्ष ) भाग मेज की तरह चौरस और सपाट होता है।
◆ पृथ्वी के सम्पूर्ण धरातल के लगभग 33 प्रतिशत भाग पर पठारों का विस्तार है।
◆ पठारों की रचना या तो पृथ्वी की भूगर्भिक हलचलों के कारण समतल भू-भाग के ऊपर उठ जाने से होती है या फिर उसके आस-पास के भू-भाग के नीचे धँस जाने से होती है।
◆ सामान्यतः पठार की ऊँचाई 300 से 1000 मीटर होती है।
◆ विश्व में अनेक पठार ऐसे भी हैं जिनकी ऊँचाई 2000 मीटर से भी अधिक है, जैसे कोलोरैडो पठार (2500 मीटर) तथा तिब्बत का पठार (5000 मीटर से भी अधिक ) ।
◆ तिब्बत का पठार क्षेत्रीय विस्तार की से विश्व में सबसे बड़ा है।
◆ जम्मू-कश्मीर में हिमानी निक्षेप से छोटे-छोटे पठारों का निर्माण होता है। इन पठारों को मर्ग / मार्ग कहा जाता है। सोनमर्ग, गुलमर्ग आदि ऐसे ही पठार हैं।
◆ जीर्ण या वृद्ध पठार की पहचान उन पर अवस्थित ‘मेसा’ से होती है। मेसा कठोर चट्टानों से निर्मित सपाट संरचनाएँ हैं जो पठार पर अवशेष रूप में अपरदन के प्रभाव के बावजूद बची रह जाती है।
◆ भौगोलिक स्थिति, निर्माण प्रक्रिया, आकृति, धरातलीय रचना, जलवायु तथा विकास की अवस्था के अनुसार पठारों के कई प्रकार हैं। इनमें मुख्य निम्न प्रकार से हैं –
1. अन्तर्पर्वतीय पठार (Intermontace Plateau) : ये पठार चारों ओर से पर्वतों से घिरे होते हैं। विश्व का सबसे ऊँचा पठार, तिब्बत का पठार इस प्रकार के पठारों का सर्वप्रमुख उदाहरण है जो उत्तर में क्युनलुन व दक्षिण में हिमालय पर्वतों से घिरा हुआ है।
2. गिरिपद पठार (Piedmont Plateau) : उच्च पर्वतों की तलहटी में स्थित पठारों को गिरिपद या पर्वतपदीय पठार के नाम से जाना जाता है। ये एक ओर उच्च पर्वतों से तथा दूसरी ओर से सागर या मैदान से घिरे होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का पीडमांट पठार व दक्षिण अमेरिका का पेटागोनिया का पठार ऐसे पठारों के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
3. पठार तटीय (Coastal Plateau) : समुद्रतटीय क्षेत्रों के समीप स्थित पठारों को तटीय पठार कहा जाता है तथा इनकी उत्पत्ति समीपवर्ती भाग के उत्थान से ही होती है। प्रायद्वीपीय भारत का कोरोमंडल का पठार एक ऐसा ही पठार है।
4. गुंबदाकार पठार (Dome Shaped Plateau ): पृथ्वी की आंतरिक हलचलों के कारण जब किसी भाग में गुंबद के आकार का उभार हो जाता है तब ऐसे पठारों की उत्पत्ति होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका का ओजार्क पठार, भारत का छोटानागपुर पठार एवं रामगढ़ पठार इसी के उदाहरण हैं।
5. महाद्वीपीय पठार (Continental Plateau ): ये प्रायः पर्वतीय भागों से दूर किन्तु सागरीय तटों या मैदानों से घिरे होते हैं। इनकी उत्पत्ति धरातल के ऊपर उठने या लावा के अपरिमित निक्षेप से होती है। इन पठारों को शील्ड भी कहा जाता है। भारत का प्रायद्व पीपीय पठार इनका सर्वोत्तम उदाहरण है। इस प्रकार के अन्य पठार हैं- ऑस्ट्रेलिया का पठार, अरब का पठार, दक्षिण अफ्रीका का पठार आदि, जिन्हें प्राचीन महाद्वीपीय पठारों के अंतर्गत रखा जाता है। इसके विपरीत अण्टार्कटिका तथा न्यूजीलैंड के पठारों को नवीन महाद्वीपीय पठारों के अंतर्गत रखा जाता है।
प्रमुख पठार व उनकी स्थिति
नाम | स्थिति |
एशिया माइनर | तुर्की |
अनातोलिया का पठार | तुर्की |
मेसेटा पठार | आइबेरिया प्रायद्वीप (स्पेन) |
चियापास पठार | दक्षिण मैक्सिको |
अलास्का/यूक्रॉन पठार | सं. रा. अमेरिका |
कोलम्बिया पठार | सं. रा. अमेरिका |
ग्रेट बेसिन पठार | सं. रा. अमेरिका |
कोलोरेडो पठार | सं. रा. अमेरिका |
ग्रीनलैंड पठार | ग्रीनलैंड |
मैदान
◆ लगभग 500 फीट से कम ऊँचाई वाले भूपृष्ठ के समतल भाग को मैदान कहते हैं।
◆ ये पृथ्वी के धरातल पर द्वितीयक क्रम के सबसे सरल उच्चावच तथा अपेक्षाकृत समतल व निम्न भू-भाग हैं।
◆ निर्माण की प्रक्रिया के आधार पर मैदान तीन प्रकार के होते हैं –
1. रचनात्मक या पटलविरूपणी मैदान (Constructive or Diastrophic Plains)
2. अपरदनात्मक या विनाशात्मक मैदान (Erosional or Destructional Plains)
3. निक्षेपात्मक मैदान (Depositional Plains)
1. रचनात्मक या पटलविरूपणी मैदान
◆ भू-संचलन के फलस्वरूप जब कोई स्थलखंड का सागर से निर्गमन (Emergence) होता है, तो संरचनात्मक मैदान का निर्माण होता है। जैसे- सं. रा. अमेरिका का विशाल मैदान एवं रूस का रूसी प्लेटफार्म। निर्गमन के पश्चात् इन मैदानों के विकास में जल एवं हिमानी के अपरदन तथा निक्षेपण का भी योगदान है।
◆ सागरीय तट के पास स्थलमंडल के सागर तल से ऊपर उठने के फलस्वरूप तटीय मैदान का निर्माण होता है। जैसे- सं. रा. अमेरिका का अटलांटिक तटीय मैदान |
◆ सागरीय तट यदि भू-संचलन के फलस्वरूप निमज्जित (Submerge) हो जाता है, तो वह निक्षेपण के फलस्वरूप मैदान में परिवर्तित हो जाता है। जैसे- भारत का कर्नाटक एवं पूर्वी तटीय मैदान |
2. अपरदनात्मक या विनाशात्मक मैदान
◆ ऐसे मैदानों का निर्माण अपक्षय तथा अपरदन की क्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है । इस क्रिया द्वारा निर्मित होने वाले प्रमुख मैदान हैं –
(i) समप्राय मैदान (Peneplains) : धरातल के पर्वतीय एवं पठारी भागों में बहते हुए जल, वायु अथवा हिमानी प्रक्रम द्वारा अपरदित हो जाने से ऐसे मैदानों की रचना होती है। इनके निर्माण में बहते हुए जल या नदियों का सबसे अधिक योगदान रहता है । इस प्रकार के मैदान के विशिष्ट उदाहरण हैं- पेरिस बेसिन, अमेजन बेसिन का दक्षिणी भाग, मिसीसिपी बेसिन का ऊपरी भाग, रूस का मध्यवर्ती मैदान, पूर्वी इंग्लैण्ड का मैदान तथा भारत का अरावली क्षेत्र।
(ii) हिमानी निर्मित मैदान (Glacial Plains) : धरातल पर हिमानी के प्रवाह से निर्मित मैदानों को इस वर्ग में रखा जाता है। उत्तरी अमेरिका में कनाडा तथा संयुक्त राज्य एवं यूरोप के फिनलैण्ड तथा स्वीडेन के मैदानी भागों की उत्पत्ति इसी क्रिया के द्वारा हुई ।
(iii) कार्स्ट मैदान (Karst Plains) : चूना पत्थर (Lime Stone) वाली शैलों पर जल का प्रवाह होने से अपरदन एवं घुलनशीलता के कारण संपूर्ण भू-भाग एक समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता है, जिससे कार्स्ट मैदानों की उत्पत्ति होती है। ऐसे मैदानों का सर्वोत्तम उदाहरण है- यूगोस्लाविया में एड्रियाटिक सागर के समीप कार्स्ट मैदान।
(iv) मरुस्थलीय मैदान ( Desert Plains) : ऐसे मैदानों का निर्माण विश्व के मरुस्थलीय भागों में वायु की क्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ है। ऐसे मैदानों में अंतःप्रवाह ( Inland Drainage) पाया जाता है क्योंकि वर्षाकाल में छोटी-छोटी जलधाराएँ अंदर की ओर प्रवाहित हो जाती हैं तथा बाद में सूख जाती है।
3. निक्षेपात्मक मैदान (Depositional Plains)
◆ अपरदन के कारकों द्वारा धरातल के किसी भाग से अपरदित पदार्थों को परिवर्तित करके उन्हें दूसरे स्थान पर निक्षेपित कर देने से ऐसे मैदानों की उत्पत्ति होती है।
◆ विश्व के अधिकांश मैदान निक्षेपात्मक मैदान की श्रेणी में आते हैं।
◆ निक्षेप के साधन एवं स्थान के आधार पर ऐसे मैदानों को निम्न वर्गों में रखा जाता है –
(i) जलोढ़ मैदान (Alluvial Plains) : ऐसे मैदानों का निर्माण पर्वतीय भागों से निकलने वाली नदियों द्वारा अपने साथ बहाकर लाये गये निक्षेपों के जमाव के परिणामस्वरूप होता है। ये मैदान काफी बड़े क्षेत्र पर विस्तृत एवं बहुत उपजाऊ होते हैं। विश्व के अधिकांश मैदान जलोढ़ मैदान ही हैं। मिसीसिपी का मैदान (संयुक्त राज्य अमेरिका), गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान (ऊपरी भारत), वांगहो तथा यांगटिसीक्यांग का मैदान (चीन), नील नदी का मैदान (मिस्र), बोल्गा तथा डेन्यूब का मैदान आदि ऐसे ही मैदान हैं।
(ii) अपोढ़ मैदान ( Drift Plains) : ऐसे मैदानों की रचना पर्वतीय भागों से हिमानियों के नीचे उतरते समय उनके द्वारा बहाकर लाये गये निक्षेपों के जमाव से होती है। इन जमावों में बड़ी मात्रा में कंकड़, पत्थर, शिलाखंड, बालू, बजरी आदि शामिल होते हैं। ऐसे मैदानों के प्रमुख उदाहरण उत्तरी-पश्चिमी यूरोप तथा कनाडा के मध्यवर्ती भागों में मिलते हैं।
(iii) झीलीय मैदान (Lacustrine Plains) : झीलों में गिरने वाली नदियों द्वारा अपने साथ बहाकर लाये गये पदार्थों का उनमें निक्षेपण होते रहने से वे धीरे-धीरे भरती रहती हैं तथा कालांतर में एक मैदान में बदल जाती है। आगे चलकर ये मैदान सूख जाती हैं। ऐसे मैदान भी जलोढ़ मैदानों के समान समतल तथा उपजाऊ होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा तथा उत्तरी पश्चिमी यूरोप में ऐसे मैदान पाये जाते हैं।
(iv) लावा मैदान (Lava Plains) : ऐसे मैदानों का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले लावा तथा अन्य पदार्थों के निक्षेपण से होता है। ऐसे मैदान अत्यधिक उपजाऊ होते हैं क्योंकि इनमें खनिज पदार्थों की अधिकता होती है। भारत का प्रायद्वीपीय भाग लावा निर्मित मैदान का मुख्य उदाहरण है।
(v) लोयस मैदान (Loess Plains) : ऐसे मैदानों का निर्माण पवन के अपरदनात्मक कार्यों के पश्चात् किसी स्थान पर उसके साथ उड़ाकर लायी गयी बालू, रेत आदि के निक्षेपण से होता है। ऐसे मैदान समतल एवं विस्तृत होते हैं। इनमें पर का सर्वथा अभाव होता है। लोयस के मैदान उत्तरी चीन, तुर्कमेनिस्तान तथा मिसीसिपी नदी के किनारे पाये जाते हैं।
मरुस्थल
◆ स्थलमंडल के शुष्क व अर्द्धशुष्क भग मरुस्थल (Desert ) कहलाते हैं। ये मुख्यतः उपोष्ण उच्च दाब क्षेत्रों में जहाँ वायु उतरती है व तापीय प्रतिलोमन की स्थिति मिलती है।
◆ महाद्वीपीय अवस्थिति या तट से दूरी भी इसकी उत्पत्ति का कारण है, क्योंकि आंतरिक भागों में बढ़ने पर वर्षा की मात्रा में कमी आती है।
◆ ठंडी महासागरीय धाराएँ भी इनके निर्माण के उत्तरदायी लिए कारक हैं। कालाहारी, पैटागोनिया व अटाकामा इसके उदाहरण हैं।
◆ मरुस्थल चट्टानी, पथरीला या रेतीला तीनों प्रकार के हो सकते हैं। सहारा का हमद मरुस्थल, अल्जीरिया के रेग एवं लीबिया व मिस्र के सेरिर मरुस्थल तथा सहारा क्षेत्र के एर्ग मरुस्थल क्रमश: चट्टानी, पथरीले या रेतीले मरुस्थल के उदाहरण हैं।
◆ मरुस्थलीय क्षेत्रों में एक वर्ष में औसतन 25 से.मी. से कम वर्षा होती है।
◆ सामान्यत: रेगिस्तान / मरुस्थल गर्म स्थल होते हैं, परन्तु महाद्वीपों के आंतरिक भाग में पाये जाने वाले मरुस्थल हमेशा गर्म नहीं होते हैं।
प्रमुख व उनकी स्थिति
नाम | स्थिति | नाम | स्थिति |
सहारा (लीबिया तथा नूलियन मरुस्थल ) | उत्तरी अफ्रीका | नामिब | नामीबिया |
बारबर्डन, सिम्पसन, गिब्सन, स्टुअर्ट-स्टोनी, ग्रेट विक्टोरिया, ग्रेट सैंडी | ऑस्ट्रेलिया | काराकुम | तुर्केमनिया |
नाफूद, हमद, रब-अल- खाली | सऊदी अरब | थार मरुभूमि | उ. प. भारत व पाकिस्तान |
गोबी | मंगोलिया व चीन | सोमाली मरुभूमि | सोमालिया |
कालाहारी | बोत्सवाना | अटाकामा | उत्तरी चिली |
तकला माकन | सीक्यांग प्रान्त (चीन) | काइजिल कुम | उजबेकिस्तान |
सोनोरान | सं. रा. अमेरिका तथा मैक्सिको | दस्त-ए-लुत | पूर्वी ईरान |
दस्त-ए- कबीर | दक्षिण ईरान | मोजेब या मोहावे सेंचुरा, सियरा नेवादा | सं. रा. अमेरिका |
पेंटागोनिया | अर्जेंटीना | दस्त – ए – कबीर | दक्षिणी ईरान |
ज्वालामुखी
◆ ज्वालामुखी भूपटल पर वह प्राकृतिक छेद या दरार है, जिससे होकर पृथ्वी का पिघला हुआ पदार्थ लावा, राख, भाप तथा अन्य गैसें बाहर निकलती है। बाहर हवा में उड़ा हुआ लावा शीघ्र ही ठंडा होकर छोटे ठोस टुकड़ों में बदल जाता है, जिसे सिंडर कहते हैं ।
◆ ज्वालामुखी उद्गार में निकलने वाली गैसों में 80 से 90% भाग वाष्प (हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन) का होता है। अन्य गैसें हैं- कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि।
◆ ज्वालामुखी उद्गार के तरल पदार्थों में लावा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, जो बाहर निकलकर फैल जाता है। लावा दो प्रकार का होता है – एक गाढ़ा जिसमें सिलिका की मात्रा (75%) होती है एवं जिसे अम्लीय लावा (Acid Lava) कहा जाता है तथा दूसरा लावा पतला होता है, जिसमें सिलिका की मात्रा कम होती है, क्षारीय लावा (Alkaline Lava) कहा जाता है।
◆ उद्गार अवधि के अनुसार ज्वालामुखी तीन प्रकार की होती है- 1. सक्रिय ज्वालामुखी 2. प्रसुप्त ज्वालामुखी और 3. मृत या शांत ज्वालामुखी ।
1. सक्रिय ज्वालामुखी (Active Volcano): वैसे ज्वालामुखी जिनसे लावा, गैस तथा विखंडित पदार्थ सदैव निकला करते हैं। वर्तमान समय में उनकी संख्या लगभग 500 है। इनमें प्रमुख है, इटली का एटना तथा स्ट्राम्बोली ।
स्ट्राम्बोली भूमध्य सागर सिसली के उत्तर में लिपारी द्वीप पर अवस्थित है। इसमें सदा प्रज्वलित गैस निकला करती है, जिससे इसके आस-पास का भाग प्रकाशित रहता है, इस कारण इस ज्वालामुखी को भूमध्य सागर का प्रकाश स्तंभ कहा जाता है।
2. प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant Volcano): वैसे ज्वालामुखी जो वर्षों से सक्रिय नहीं है, पर कभी भी विस्फोट कर सकते हैं। इनमें इटली का विसुवियस, जापान का फ्यूजीयामा, इंडोनेशिया का क्राकाताओं तथा अंडमान-निकोबार के नारकोंडम द्वीप के ज्वालामुखी उल्लेखनीय हैं। दिसंबर 2004 के सुनामी के बाद नारकोंडम द्वीप में सक्रियता के लक्षण दिखायी पड़े हैं।
3. मृत या शांत ज्वालामुखी (Dead or Extinct Volcano) : इसके अंतर्गत वैसे ज्वालामुखी शामिल किये जाते हैं जिनमें हजारों वर्षों से कोई उद्भेदन नहीं हुआ है तथा भविष्य में भी इसकी कोई संभावना नहीं है। अफ्रीका के पूर्वी भाग में स्थित केनिया व किलिमंजारों, इक्वेडोर का चिम्बाराजो, म्यांमार का पोपा, ईरान का देमबंद व कोहसुल्तान और एण्डीज पर्वतश्रेणी का एकांकगुआ इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
ज्वालामुखी से सम्बन्धित अन्य प्रमुख तथ्य
◆ क्रेटर (Crator) : यह ज्वालामुखी शंकु के ऊपर सामान्यतः मिलने वाले कीपाकार गर्तनुमा आकृति है। इसमें यदि जल भर जाये तो क्रेटर झील बन जाती है। जैसे महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में लोनार झील |
◆ काल्डेरा (Caldera) : जब क्रेटर का आकार काफी विस्तृत हो जाता है, तब उसे काल्डेरा की संज्ञा दी जाती है। यह क्रेटर में धंसाव अथवा विस्फोट उद्गार से निर्मित स्थलरूप माना जाता है।
◆ धुंआरे (Fumaroles ) : ज्वालामुखी क्रिया से सीधे सम्बन्धित छिद्र जिससे निरंतर गैस तथा वाष्प निकला करती है, धुंआरा कहलाता है।
◆ गेसर (Geyser) : बहुत से ज्वालामुखी क्षेत्रों में उद्गार के समय दरारों तथा सुराखों से होकर जल तथा वाष्प कुछ अधिक ऊँचाई तक निकलने लगते हैं। इसे ही गेसर कहा जाता है। जैसे- ओल्ड फेथफुल गेसर, यह अमेरिका के यलोस्टोन पार्क में है। इसमें प्रत्येक मिनट उद्गार होता रहता है।
◆ अधिकांश सक्रिय ज्वालामुखी का प्रशांत महासागर के तटीय भाग में पाया जाता है। प्रशांत महासागर के परिमेखला को अग्नि वलय (Fire Ring of the Pacific) भी कहते हैं।
◆ सबसे अधिक सक्रिय ज्वालामुखी अमेरिका एवं एशिया महाद्वीप के तटों पर स्थित है।
◆ ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में एक भी ज्वालामुखी नहीं है।
◆ विश्व का सबसे ऊँचा ज्वालामुखी पर्वत कोटापैक्सी (इक्वेडोर) है, जिसकी ऊँचाई 19,613 फीट है।
◆ विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित सक्रिय ज्वालामुखी ओजस डेल सालाडो (6885 मी.), एंडीज पर्वतमाला में अर्जेंटीना-चिली देश के सीमा पर स्थित है।
◆ विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित शांत ज्वालामुखी एकांकगुआ (Aconcagua) एंडीज पर्वतमाला पर ही स्थित है, जिसकी ऊँचाई 6960 मी. है।
◆ पश्चिमी अफ्रीका का एकमात्र जाग्रत या सक्रिय ज्वालामुखी कैमरून पर्वत है।
◆ अलास्का (संयुक्त राज्य अमेरिका) के कटमई ज्वालामुखी क्षेत्र में दस हजार धूम्रों की घाटी (A Valley of Ten Thousand Smokes) पायी जाती है।
विश्व के कुछ प्रमुख ज्वालामुखी
नाम | देश |
ओजसडेल सालाडो | अर्जेंटीना-चिली |
कोटोपैक्सी | इक्वेडोर |
पोपोकैटेपिटल | मैक्सिको |
मोनालोआ | हवाईद्वीप |
माउंट कैमरून | कैमरून (अफ्रीका) |
माउंट इरेबस | रॉस (अंटार्कटिका) |
माउंट एटना | सिसली (इटली) |
माउंट पीली | मार्टिनीक द्वीप |
हेक्ला व लाकी | आइसलैंड |
विसुवियस | नेपल्स की खाड़ी (इटली) |
स्ट्रॉम्बोली | लिपारी द्वीप (भूमध्यसागर) |
क्राकाताओ | इंडोनेशिया |
कटमई | अलास्का (अमेरीका) |
माउंट रेनियर | अमेरीका |
माउंट शस्ता | अमेरीका |
चिम्बारेजो | इक्वेडोर |
फ्यूजीयामा | जापान |
माउंट ताल | फिलीपींस |
माउंट पिनाटुबो | फिलीपींस |
देमबंद | ईरान |
कोहसुल्तान | ईरान |
माउंट पोपा | म्यांमार (बर्मा) |
किलिमंजारो | तंजानिया |
मेयाना | फिलीपींस |
भूकंप
◆ पृथ्वी के भूपटल में किसी ज्ञात या अज्ञात, अंतर्जात या बाह्य, प्राकृतिक या कृत्रिम कारणों से होने वाला कंपन ही भूकंप (Earthquake) कहलाता है। यह भूपटल पर असंतुलन की दशा का परिचायक होता है तथा धरातल पर विनाशकारी प्रभावों का जनक भी होता है।
◆ भूगर्भशास्त्र की एक विशेष शाखा, जिसमें भूकंपों का अध्ययन किया जाता है, भूकंप विज्ञान (Seismology) कहलाता है।
◆ भूकंप की तीव्रता की माप रिचर स्केल (Richter Scale) पर की जाती है।
◆ भूकंप मूल (Focus) : धरातल के नीचे जिस स्थान पर भूकंप की घटना का प्रारंभ होता है, उसे भूकंप की उत्पत्ति केन्द्र या भूकंप मूल कहा जाता है।
◆ भूकंप अधिकेन्द्र (Epicentre) : भूकंप उत्पत्ति केन्द्र के ठीक ऊपर लंबवत् स्थान जहाँ सबसे पहले भूकंपीय तरंगों का पता चलता है, अधिकेन्द्र कहलाता है। भूकंप से प्रवाहित क्षेत्रों में अधिकेन्द्र ही ऐसा बिन्दु है, जो उत्पत्ति केन्द्र के सबसे समीप स्थित होता है।
भूकंप के प्रकार
◆ भूकंप मूल की गहराई के आधार पर भूकंपों को तीन वर्गों में रखा जाता है।
(i) सामान्य भूकंप – 0-50 किमी
(ii) मध्यवर्ती भूकंप – 50-250 किमी
(iii) गहरे या पातालीय भूकंप – 250-700 किमी
◆ भूकंप के दौरान जो ऊर्जा भूकंप मूल से निकलती है, उसे ‘प्रत्यास्थ ऊर्जा’ (Elastic Energy) कहते हैं। भूकंप के दौरान निकलने वाली भूकंपीय तरंगों (Seismic Waves) को मुख्यतः तीन श्रेणियों में रखा जाता है –
(i) प्राथमिक अथवा लंबात्मक तरंगें (Primary or Longitudinal Waves) : इन्हें ‘P’ तरंगें भी कहा जाता है। ये अनुदैर्ध्य तरंगें (Longitudinal Waves) एवं ध्वनि तरंगों (Sound Waves) की भाँति चलती हैं। यह तरंग पृथ्वी के अंदर प्रत्येक माध्यम से होकर गुजरती है। इसकी गति सभी तरंगों से अधिक होती है, जिससे ये तरंगें किसी भी स्थान पर सबसे पहले पहुँचती है । ‘P’ तरंगों की गति ‘S’ तरंगों की तुलना में 66% अधिक होती है।
(ii) द्वितीय तरंगें (Secondary Waves) : इन्हें ‘S’ अथवा अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves) भी कहा जाता है। यह तरंग केवल ठोस माध्यम से होकर गुजरती है । ‘S’ तरंगों की गति ‘p’ तरंगों की तुलना में 40% कम होती है।
(iii) एल तरंगें (L-Waves) : इन्हें धरातलीय या लंबी तरंगों (Surface or Long Period Waves) के नाम से भी पुकारा जाता है। ये तरंगें मुख्यतः धरातल तक ही सीमित रहती है। ये ठोस, तरल तथा गैस तीनों माध्यमों में से गुजर सकती है। इसकी औसत वेग 1.5-3 किमी प्रतिसेकंड है।
भूकंपों का विश्व वितरण
◆ विश्व की प्रमुख भूकंप पेटियाँ निम्न हैं –
(i) प्रशांत महासागर तटीय पेटी (Circum Pacific Belt ) : इस पेटी में सम्पूर्ण विश्व के 66 प्रतिशत भूकंपों का अनुभव किया जाता है। इस पेटी के तहत तीन प्रमुख क्षेत्र शामिल हैं- (a) सागर तथा स्थल भागों के मिलन बिन्दु (b) नवीन मोड़दार पर्वतीय क्षेत्र तथा (c) ज्वालामुखी क्षेत्र।
(ii) मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid-Continental Belt) : इस पेटी में विश्व के 21% भूकंप आते हैं। इसमें आने वाले अधिकांश भूकंप संतुलन मूलक तथा भ्रंशमूलक भूकंप हैं। भारत का भूकंप क्षेत्र इसी पेटी के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।
(iii) मध्य एटलांटिक पेटी (Mid-Atlantic Betl) : इस पेटी का विस्तार मध्य एटलांटिक कटक के सहारे पाया जाता है। इसमें भूमध्य रेखा के समीपवर्ती क्षेत्रों में सर्वाधिक भूकंप आते हैं।
(iv) अन्य क्षेत्र : विश्व में भूकंप के अन्य क्षेत्र हैं- (a) नील नदी से लगाकर संपूर्ण अफ्रीका का पूर्वी भाग (b) अदन की खाड़ी से अरब सागर तक का क्षेत्र तथा (c) हिन्द महासागरीय क्षेत्र।