GSEB Std 9 Hindi Rachana विचार-विस्तार
GSEB Std 9 Hindi Rachana विचार-विस्तार
GSEB Class 9 Hindi Rachana विचार-विस्तार
निम्नलिखित विचार-विस्तार लिखिए :
प्रश्न 1.
जो बीत गई सो बात गई।
उत्तर :
इसमें संदेह नहीं कि बीता हुआ समय मनुष्य के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाता है, परंतु उस छाप का क्या महत्त्व है। भूतकाल की बीती बातों की जुगाली करने से कोई लाभ नहीं होता। बीती बातों पर अधिक सोचने से हमारी मानसिक शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। हम अपनी क्रियाशक्ति खो देते हैं। पुरानी असफलताओं को याद करने से भविष्य भी अंधकारमय दिखने लगता है। सामने कर्तव्य पड़े होते हैं, पर उन्हें करने का उत्साह नहीं रहता । इसलिए बीती बातों को भूल जाने में ही भलाई है।
पुरानी शत्रुता, पुरानी कडवाहटें दिमाग से निकाल दें और वर्तमान में चैन से जीने की कोशिश करें। हम आशा का आँचल थामकर मन में नया उत्साह लाएं। इससे हम एक नए जीवन का अनुभव करेंगे । इसलिए ‘जो बीत गई सो बात गई’ उक्ति का यही आशय है कि हम विगत के सूखे-मुरझाए फूलों को फेंककर अनागत के पुष्पों की सुगंध का आनंद लें।
प्रश्न 2.
कर भला, होगा भला।
उत्तर :
कहते हैं कि जैसी करनी, वैसी भरनी। जैसा हम करेंगे, वैसा ही पाएंगे। आम के बीज बोएंगे तो आम के मीठे स्वादिष्ट फल मिलेंगे और बबूल बोएंगे तो काटे मिलेंगे। देने और पाने की यह शाश्वत परम्परा है, इसलिए यदि हम किसी का भला करेंगे तो निश्चित रूप से हमारा भी भला होगा। भलाई का बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता।
यदि हमने भलाई का बीज बोया है तो हमें उसके वृक्ष से भलाई के फल ही मिलेंगे। चींटी ने शिकारी के पैर में काटकर तोते की जान बचाई, तो तोते ने उसे डूबने से बचाया। एक ग्रीक गुलाम ने सिंह के पैर से काटा निकालकर उसे राहत दी तो सिंह ने उस पर आक्रमण न करके उसे गुलामी के जीवन से मुक्त करवा दिया। इस प्रकार की हुई भलाई, भलाई के रूप में ही वापस आती है।
प्रश्न 3.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।।
उत्तर :
बड़प्पन वही है जिसमें उदारता हो, परोपकार की भावना हो। केवल अधिक धन-दौलत से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता । खजूर का पेड़ बहुत ऊंचा होता है। भूखे पथिक को न उसके फल खाने को मिलते हैं और न थके राही को वह पर्याप्त शीतल छाया दे पाता है। उसके ऊँचा होने से किसी को कोई लाभ नहीं होता। कवि बड़ा उसी को कहते हैं जो दूसरों का भला करे और परोपकार में ही अपने जीवन की सार्थकता अनुभव करे।
प्रश्न 4.
पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं।।
उत्तर :
पराधीनता का अर्थ है अपनी इच्छाएं मारकर दूसरे की इच्छा के अनुसार काम करना। पिंजरे में बंद तोता क्या आकाश में उड़ने की चाहत पूरी कर सकता है? चिड़ियाघर में पिंजड़ों में बंद प्राणी क्या जंगल के अपने स्वाभाविक जीवन का आनंद लुट सकते हैं? पराधीनता की यह पीड़ा ही गुलाम देशों को आजादी के लिए तड़पाती थी। पराधीनता की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए ही महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल जैसे नेताओ ने आंदोलन किये, लाठियां खाई और जेल गए।
अपनी मातृभूमि को पराधीनता के नरक से मुक्त करके स्वतंत्रता के स्वर्ग में ले जाने के लिए ही भगतसिंह, बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद जैसे व्यक्ति फांसी के फंदे पर लटक गए । व्यक्ति का विकास स्वतंत्रता में ही होता है। स्वतंत्र राष्ट्र हो गौरवपूर्ण ढंग से जी सकता है। इसलिए पराधीनता में सुख पाने की आशा करना व्यर्थ है।
प्रश्न 5.
आवत ही हरषे नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसै मेह।।
उत्तर :
जिस घर के लोग मेहमान को आया देखकर प्रसन्न न हों और जिनकी आखों में मेहमान के लिए स्नेह न हो, ऐसे घर में यदि सोना बरसता हो, तो भी नहीं जाना चाहिए।
हमारे सामाजिक संबंध प्रेम और आदर को शुद्ध भावना पर टिके हुए हैं, धन-संपत्ति पर नहीं। पैसों पर टिके हुए संबंधों के पीछे लोभ और स्वार्थ की भावना रहती हैं। ऐसे खोखले संबंधों को हमें महत्व नहीं देना चाहिए और न ही इस तरह के लोगों के घर जाना चाहिए। ऐसे लोगों के यहा जाने से केवल उपेक्षा और अपमान ही मिलेगा। अतः उनसे दूर रहना ही अच्छा है।
प्रश्न 6.
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काड़े खोट।
भीतर हाथ सहार दै, बाहर बांहैं चोट।।
उत्तर :
कुम्हार मिट्टी का घड़ा बनाते समय उसका बेलंगापन दूर करता रहता है। बाहर से वह घड़े पर हाथ से चोट करता है, परंतु भीतर वह हाथ से उसे सहारा देता है। गुरु भी कुम्हार के समान होता है। वह बाहर से कठोर रहकर शिष्य के दोषों तथा बुरी आदतों को दूर करता है, परंतु भीतर से वह उसके प्रति बहुत ही सहदय रहता है। शिष्य भी गुरु के स्नेह का अनुभव करता है। इसीलिए वह गुरु के कठोर व्यवहार को सहन कर लेता है। बाहर से कठोर और भीतर से कोमल – यही आदर्श पिता और आदर्श गुरु का लक्षण है।
प्रश्न 7.
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु सीतल होय।
उत्तर :
हमारे जीवन-व्यवहार में वाणी का बहुत महत्त्व है। वाणी के सदुपयोग से हमारे विरोधी भी हमारे समर्थक बन सकते हैं और वाणी के दुरुपयोग से हमारे मित्र भी हमारे शत्रु बन सकते हैं। इसलिए हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिसमें अहंकार का भाव न हो, क्योंकि अहंकार से ही वाणी में कटुता आती है। हमारी वाणी अहंकाररहित होनी चाहिए। जिस वाणी में अहंकार नहीं होता, उसी में अपनेपन की मिठास होती है। ऐसी वाणी बोलने से वक्ता और श्रोता दोनों को सुख मिलता है।