Haryana Board 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम्
Haryana Board 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम्
HBSE 10th Class Sanskrit शुचिपर्यावरणम् Textbook Questions and Answers
शुचिपर्यावरणम् Summary in Hindi
शुचिपर्यावरणम् पाठ परिचय:
मनुष्य के सामने पर्यावरण की सुरक्षा आज सबसे बड़ी समस्या है। महानगरीय जीवन शैली की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दिन-प्रतिदिन कल-कारखाने बढ़ते चले जा रहे हैं। कारखानों की चिमनियों तथा वाहनों से उगलते धुएँ ने समस्त वायुमण्डल दूषित कर दिया है। फ्रिज, एयरकंडीशनर आदि से उत्सृजित घातक गैसों ने प्राणवायु को विषैला बना दिया है। कारखानों से निकलने वाले कचरे तथा एसिड ने नदी, नाले, समुद्र आदि के जल को प्रदूषित कर दिया है। ध्वनिप्रसारक यन्त्रों की प्रयोग-बहुलता, वाहनों तथा कारखानों के भयंकर शोर ने मनुष्य-मन को अशान्त तथा रोगी बना दिया है। घातक कीटनाशकों तथा रसायनों की अधिकता ने अन्न, फल तथा सब्जियों को विषमय कर दिया है। पर्यावरण के प्रहरी वृक्ष-वनों पर निर्दयतापूर्वक कुल्हाड़ी चलाई जा रही है। तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। फलतः समुद्रों का जल स्तर बढ़ने से समुद्र तटों के निकटवर्ती क्षेत्र के जलमग्न हो जाने का खतरा बढ़ गया है।
आज न श्वास लेने के लिए शुद्ध प्राणवायु उपलब्ध है, न पीने के लिए शुद्ध जल। मनुष्य, पशु-पक्षी, जल-जन्तुओं सभी का जीवन संकट में पड़ गया है। हम भूल गए हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में ही हमारी सुरक्षा का रहस्य छिपा है। अतः आवश्यकता पर्यावरण-सुरक्षा के प्रति जागरूक होने की है। यही ‘शुचिपर्यावरणम्’ कविता की रचना में कवि का उद्देश्य है।
प्रस्तुत पाठ ‘शुचिपर्यावरणम्’ आधुनिक संस्कृत कवि हरिदत्त शर्मा के रचना संग्रह ‘लसल्लतिका’ से संकलित है। इसमें कवि ने महानगरों की यांत्रिक-बहुलता से बढ़ते प्रदूषण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा है कि यह लौहचक्र तनमन का शोषक है, जिससे वायुमण्डल और भूमण्डल दोनों मलिन हो रहे हैं। कवि महानगरीय जीवन से दूर, नदी-निर्झर, वृक्षसमूह, लताकुञ्ज एवं पक्षियों से गुञ्जित वनप्रदेशों की ओर चलने की अभिलाषा व्यक्त करता है।
शुचिपर्यावरणम् पाठस्य सारांश:
‘शुचिपर्यावरणम्’ पाठ पर्यावरण प्रदूषण पर आधारित है। कवि हरिदत्त शर्मा नगरीय वातावण से व्याकुल है। महानगरों के बीच रात-दिन चलती हुई मशीनों के पहिये मनुष्य के तन को ही नहीं उसके मन को भी पीस रहे हैं। कवि को चिंता है कि मानव जाति कहीं इनका ग्रास न बन जाए। अत: शुद्ध पर्यावरण वाली प्रकृति की शरण में जाना चाहता है।
मोटर, रेलगाड़ियाँ धुआँ छोड़कर और शोर करके प्रदूषण फैला रही हैं। न साँस लेने के लिए शुद्ध वायु है न पीने के लिए शुद्ध जल, खाद्य वस्तुओं में मिलावट की भरमार है। इसीलिए कवि इस वातावरण से खिन्न होकर गाँव और वन में घूम फिर कर जीवन का आनन्द लेना चाहता है। जहाँ जल से परिपूर्ण झरने, नदी-नाले हरे-भरे वृक्ष, सुन्दर लताएँ हों। जहाँ नगर में होने वाले कोलाहल से व्याकुल लोगों के लिए पक्षियों के समूह से गुंजायमान वन प्रदेश सुख का सन्देश दे रहे हैं। जहाँ नगर में पाई जाने वाली चकाचौंध जीवन के आनन्द का विनाश नहीं करती है।
कवि कामना करता है कि कहीं लता, वृक्ष और झाड़ियाँ पत्थर की शिलाओं के नीचे न समा जाए। लगातार सड़कों, भवनों और कारखानों के निर्माण से भूमि पथरीली बनती चली जा रही है। कृषि योग्य भूमि घट रही है। कवि की चिंता है कि प्रकृति में इस पत्थर दिल सभ्यता का स्थायी निवास न हो जाए। कवि कहता है कि यदि ऐसा हो गया तो यह मनुष्य समाज के लिए जीते-जी मरण के तुल्य होगा और मुझे मानव का मरण नहीं अपितु जीवन अपेक्षित है। इसीलिए हमें बढ़-चढ़कर अपने पर्यावरण को प्रदूषण से रहित बनाना चाहिए तथा अधिक से अधिक प्राकृतिक वातावरण में जीने का प्रयास करना चाहिए।
शुचिपर्यावरणम् पाठ के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(क) कविः किमर्थ प्रकृतेः शरणम् इच्छति ?
(ख) कस्मात् कारणात् महानगरेषु संसरणं कठिनं वर्तते ?
(ग) अस्माकं पर्यावरणे किं किं दूषितम् अस्ति ?
(घ) कविः कुत्र सञ्चरणं कर्तुम् इच्छति ?
(ङ) स्वस्थजीवनाय कीदृशे वातावरणे भ्रमणीयम् ?
(च) अन्तिमे पद्यांशे कवेः का कामना अस्ति ?
उत्तराणि:
(क) महानगरस्य जीवनं दुर्वहं जातम्, अतः कविः प्रकृतेः शरणम् इच्छति।
(ख) महानगरेषु यानानाम् अनन्ताः पङ्क्तयः भवन्ति, अतः तत्र संसरणं कठिनं वर्तते।
(ग) अस्माकं पर्यावरणे वायुमण्डलं, जलं, भक्ष्यं धरातलं च दूषितम् अस्ति।
(घ) कवि: ग्रामान्ते एकान्ते कान्तारे च सञ्चरणं कर्तुम् इच्छति। (ङ) स्वस्थजीवनाय प्रदूषणरहित वातावरणे भ्रमणीयम्।
(च) अन्तिमे पद्यांशे कवे: कामना अस्ति यत् निसर्गे पाषाणी सभ्यता समाविष्टा न स्यात्।
शुचिपर्यावरणम् HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 2.
सन्धिं/सन्धिविच्छेदं कुरुत …………..
(क) प्रकृतिः + ………….. = प्रकृतिरेव
(ख) स्यात् + ……….. + …………. = स्यान्नैव
(ग) ………. + अनन्ताः = हानन्ताः
(घ) बहिः + अन्तः + जगति = …………………
(ङ) ……………… + नगरात् = अस्मान्नगरात्
(च) सम् + चरणम् = ……………
(छ) धूमम् + मुञ्चति
उत्तराणि:
(क) प्रकृतिः + एव = प्रकृतिरेव
(ख) स्यात् +न +एव = स्यान्नैव
(ग) हि + अनन्ताः = ह्यनन्ताः
(घ) बहिः + अन्तः + जगति = बहिरन्तर्जगति
(ङ) अस्मात् + नगरात् = अस्मान्नगरात्
(च) सम् + चरणम् = सञ्चरणम्
(छ) धूमम् + मुञ्चति = धूमं मुञ्चति।
शुचिपर्यावरणम् पाठ का भावार्थ HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 3.
अधोलिखितानाम् अव्ययानां सहायतया रिक्तस्थानानि पूरयत:
भृशम्, यत्र, तत्र, अत्र, अपि, एव, सदा, बहिः
(क) इदानीं वायुमण्डलं ……………. प्रदूषितमस्ति।
(ख) …………….जीवनं दुर्वहम् अस्ति ।
(ग) प्राकृतिक-वातावरणे क्षणं सञ्चरणम् ……… लाभदायकं भवति।
(घ) पर्यावरणस्य संरक्षणम् … … प्रकृतेः आराधना।
(ङ) ……………समयस्य सदुपयोगः करणीयः।
(च) भूकम्पित-समये……………गमनमेव उचितं भवति।
(छ) ……….हरीतिमा ………… शुचि-पर्यावरणम्।
उत्तराणि:
(क) इदानीं वायुमण्डलं भृशं प्रदूषितमस्ति।
(ख) अत्र जीवनं दुर्वहम् अस्ति।
(ग) प्राकृतिक-वातावरणे क्षणं सञ्चरणम् अपि लाभदायकं भवति।
(घ) पर्यावरणस्य संरक्षणम् एव प्रकृतेः आराधना।
(ङ) सदा समयस्य सदुपयोगः करणीयः।
(च) भूकम्पित-समये बहिः गमनमेव उचितं भवति।
(छ) यत्र हरीतिमा तत्र शुचि-पर्यावरणम्।।
Shuchiparyavaranam HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 4.
उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखित-पदेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागं/संयोगं कुरुतयथा:
जातम् = जन् + क्त
(क) प्र + कृ + क्तिन् = ……………….
(ख) नि + सृ + क्त + टाप = ……………
(ग) …………………… + क्त = दूषितम्
(घ) …………………… + …………………. = करणीयम्
(ङ) ……………… + यत् = भक्ष्यम्
(च) रम् + …………………… + ……………… = रमणीया
(छ) ……………. + …………………… + ……………… = वरणीया
(ज) पिष् + …………………. = पिष्टाः।
उत्तराणि:
(क) प्र + कृ + क्तिन् = प्रकृतिः
(ख) नि + सृ + क्त + टाप् = निसृता
(ग) दूष् + क्त = दूषितम्
(घ) कृ + अनीयर् = करणीयम्
(ङ) भक्ष् + यत् = भक्ष्यम्
(च) रम् + अनीयर् + टाप = रमणीया
(छ) वृ + अनीयर् + टाप् = वरणीया
(ज) पिष् + क्त = पिष्टाः।
शुचिपर्यावरणम् Solutions HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 5.
अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदं लिखत
(क) सलिलम् ……………….
(ख) आम्रम् ……………….
(ग) वनम् ……………….
(घ) शरीरम् ……………….
(ङ) कुटिलम् ……………….
(च) पाषाणम् ……………….
उत्तराणि
(क) सलिलम् – जलम्
(ख) आम्रम् – रसालम्
(ग) वनम् – कान्तारम्
(घ) शरीरम् – तनुः ।
(च) पाषाणम् – प्रस्तरम्।
प्रश्न 6.
उदाहरणमनुसृत्य पाठात् चित्वा च समस्तपदानि लिखतय:
उत्तराणि
प्रश्न 7.
रेखाङ्कित-पदमाधुत्य प्रश्ननिर्माणं करुत:
(क) शकटीयानं कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति।
(ख) उद्याने पक्षिणां कलरवं चेतः प्रसादयति।
(ग) पाषाणीसभ्यतायां लतातरुगुल्माः प्रस्तरतले पिष्टाः सन्ति।
(घ) महानगरेषु वाहनानाम् अनन्ताः पतयः धावन्ति।
(ङ) प्रकृत्याः सन्निधौ वास्तविकं सुखं विद्यते।
उत्तराणि – (प्रश्ननिर्माणम्)
(क) शकटीयानं कीदृशं धूमं मुञ्चति ?
(ख) उद्याने केषां कलरवं चेतः प्रसादयति ?
(ग) पाषाणीसभ्यतायां के प्रस्तरतले पिष्टाः सन्ति ?
(घ) कुत्र वाहनानाम् अनन्ताः पङ्क्तयः धावन्ति ?
(ङ) कस्याः सन्निधौ वास्तविकं सुखं विद्यते ?
योग्यताविस्तारः
समास – समसनं समासः
समास का शाब्दिक अर्थ होता है-संक्षेप। दो या दो से अधिक शब्दों के मिलने से जो तीसरा नया और संक्षिप्त रूप बनता है, वह समास कहलाता है। समास के मुख्यत: चार भेद हैं
- अव्ययीभाव समास
- तत्पुरुष
- बहुब्रीहि
- द्वन्द्व
1. अव्ययीभाव
इस समास में पहला पद अव्यय होता है और वही प्रधान होता है।
यथा – निर्मक्षिकम् मक्षिकाणाम् अभावः ।
यहाँ प्रथमपद निर् है और द्वितीयपद मक्षिकम् है। यहाँ मक्षिका की प्रधानता न होकर मक्षिका का अभाव प्रधान है, अत: यहाँ अव्ययीभाव समास है। कुछ अन्य उदाहरण देखें
(i) उपग्रामम् – ग्रामस्य समीपे – (समीपता की प्रधानता)
(ii) निर्जनम् – जनानाम् अभावः – (अभाव की प्रधानता)
(iii) अनुरथम् – रथस्य पश्चात् – (पश्चात् की प्रधानता)
(iv) प्रतिगृहम् – गृहं गृहं प्रति – (प्रत्येक की प्रधानता)
(v) यथाशक्ति – शक्तिम् अनतिक्रम्य – (सीमा की प्रधानता)
(vi) सचक्रम् – चक्रेण सहितम् – (सहित की प्रधानता)
2. तत्पुरुष:
‘प्रायेण उत्तरपदप्रधान: तत्पुरुषः’ इस समास में प्राय: उत्तरपद की प्रधानता होती है और पूर्व पद उत्तरपद के विशेषण का कार्य करता है। समस्तपद में पूर्वपद की विभक्ति का लोप हो जाता है।
यथा – राजपुरुषः अर्थात् राजा का पुरुष। यहाँ राजा की प्रधानता न होकर पुरुष की प्रधानता है, और राजा शब्द पुरुष के विशेषण का कार्य करता है।
(i) ग्रामगत: – ग्रामं गतः।
(ii) शरणागतः – शरणम् आगतः।
(ii) देशभक्तः – देशस्य भक्तः।
(iv) सिंहभीत: – सिंहात् भीतः।
(v) भयापन्न: – भयम् आपन्नः।
(vi) हरित्रातः – हरिणा त्रातः ।
तत्पुरुष समास के दो भेद हैं-कर्मधारय और द्विगु।
(i) कर्मधारय:
इस समास में एक पद विशेष्य तथा दूसरा पद पहले पद का विशेषण होता है।
यथा:
पीताम्बरम् – पीतं च तत् अम्बरम्।
महापुरुषः – महान् च असौ पुरुषः।
कज्जलमलिनम् – कज्जलम् इव मलिनम्।
नीलकमलम् – नीलं च तत् कमलम्।
मीननयनम् – मीन: इव नयनम्।
मुखकमलम् – कमलम् इव मुखम्।
(ii) द्विगु:
‘संख्यापूर्वो द्विगुः’ इस समास में पहला पद संख्यावाची होती है और समाहार (अर्थात् एकत्रीकरण या समूह) अर्थ की प्रधानता होती है।
यथा-त्रिभुजम् – त्रयाणां भुजानां समाहारः। इसमें पूर्वपद ‘त्रि’ संख्यावाची है।
पञ्चपात्रम् – पञ्चानां पात्राणां समाहारः।
पञ्चवटी – पञ्चानां वटानां समाहारः।
सप्तर्षिः – सप्तानाम् ऋषीणां समाहारः।
चतुर्युगम् – चतुर्णा युगानां समाहारः।
3. बहुब्रीहि-‘अन्यपदप्रधान: बहुब्रीहिः’
इस समास में पूर्व तथा उत्तर पदों की प्रधानता न होकर किसी अन्य पद की प्रधानता होती है।
यथा –
पीताम्बरः – पीतम् अम्बरम् यस्य सः (विष्णुः)। यहाँ न तो पीतम् शब्द की प्रधानता है और न अम्बरम् शब्द को अपितु पीताम्बरधारी किसी अन्य व्यक्ति (विष्णु) की प्रधानता है।
नीलकण्ठः – नीलः कण्ठः यस्य सः (शिवः)।
दशाननः – दश आननानि यस्य सः (रावणः)।
अनेककोटिसारः – अनेककोटि: सारः (धनम्) यस्य सः।
विगलितसमृद्धिम् – विगलिता समृद्धिः यस्य तम्।
प्रक्षलितपादम् – प्रक्षालितौ पादौ यस्य तम्।
4. द्वन्द्व:
‘उभयपदप्रधान: द्वन्द्वः’ इस समास में पूर्वपद और उत्तरपद दोनों की समान रूप से प्रधानता होती है।
पदों के बीच में ‘च’ का प्रयोग विग्रह में होता है।
यथा:
रामलक्ष्मणौ – रामश्च लक्ष्मणश्च।
पितरौ – माता च पिता च।
धर्मार्थकाममोक्षाः – धर्मश्च, अर्थश्च, कामश्च, मोक्षश्च।
वसन्तग्रीष्मशिशिराः – वसन्तश्च ग्रीष्मश्च शिशिरश्च।
कविपरिचय:
प्रो० हरिदत्त शर्मा सम्प्रति इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में संस्कृत में आचार्य हैं। इनके कई संस्कृत काव्य प्रकाशित हो चुके हैं। जैसे-गीतकंदलिका, त्रिपथगा, उत्कलिका, बालगीताली, आक्रन्दनम्, लसल्लतिका इत्यादि। इनकी रचनाओं में समाज की विसंगतियों के प्रति आक्रोश तथा स्वस्थ वातावरण के प्रति दिशानिर्देश के भाव प्राप्त होते हैं।
भावविस्तारः
पृथिवी, जलं, तेजो वायुराकाशश्चेति पञ्चमहाभूतानि प्रकृतेः प्रमुखतत्त्वानि। एतैः तत्त्वैरेव पर्यावरणस्य रचना भवति। आवियते परितः समन्तात् लोकोऽनेनेति पर्यावरणं परिष्कृतं प्रदूषणरहितं च पर्यावरणमस्मभ्यं सर्वविधजीवनसुखं ददाति। अस्माभिः सदैव तथा प्रयतितव्यं यथा जलं स्थलं गगनञ्च निर्मलं स्यात्। पर्यावरणसम्बद्धाः केचन श्लोकाः अधोलिखिताः सन्ति
यथा
पृथिवीं परितो व्याप्य तामाच्छाद्य स्थितं च यत्
जगदाधाररूपेण, पर्यावरणमुच्यते॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश में पाँच महाभूत प्रकृति के मुख्य तत्त्व है। इन्हीं तत्त्वों से ही पर्यावरण की रचना होती है। ‘आवियते परितः समन्तात् लोकः अनेन इति पर्यावरणम्’ – यह सारा संसार इन तत्त्वों के द्वारा चारों ओर से आवरण कर लिया जाता है, इसीलिए यह पर्यावरण कहलाता है।
शुद्ध एवं प्रदूषण रहित पर्यावरण हमें सब प्रकार का जीवन सुख देता है। हमें भी सदा वैसा ही प्रयत्न करना चाहिए ; जिससे जल, स्थल और आकाश स्वच्छ रहें। पर्यावरण से सम्बन्धित कुछ श्लोक निम्नलिखित हैं. जैसे – पृथिवी को चारों ओर से व्याप्त कर और उसे आच्छादित करके जो स्थित रहता है, संसार का आधार रूप होने से उसे ही ‘पर्यावरण’ कहा जाता है।
प्रदूषणविषये
सृष्टौ स्थितौ विनाशे च नृविज्ञैर्बहुनाशकम्।
पञ्चतत्त्वविरुद्धं यत्साधितं तत्प्रदूषणम्॥
प्रदूषण के विषय में:
सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश प्रक्रिया में बुद्धिमान् मनुष्यों द्वारा जिसे पाँच तत्त्वों के विरुद्ध तथा विनाशकारी जाना गया, उसे ही ‘प्रदूषण’ कहा जाता है।
वायुप्रदूषणविषये:
प्रक्षिप्तो वाहनैधूमः कृष्णो बह्वपकारकः ।
दुष्टै!सायनैर्युक्तो घातकः श्वासरुग्वहः॥
वायु प्रदूषण के विषय में:
वाहनों द्वारा उगल दिया गया काला धुंआ बहुत अपकारी, दूषित (विषैला) रसायनों से युक्त, घातक तथा श्वासजन्य रोगों को उत्पन्न करने वाला होता है।
जलप्रदूषणविषये:
यन्त्रशाला – परित्यक्तैर्नगरे दूषितद्रवैः ।
नदीनदौ समुद्राश्च प्रक्षिप्तैर्दूषणं गताः ॥
जलप्रदूषण के विषय में-नगर में कारखानों द्वारा छोड़े गए तथा डाले गए दूषित द्रव्यों (जलों) से नदी-नाले और समुद्र प्रदूषित हो गए हैं।
प्रदूषण-निवारणाय संरक्षणाय च:
शोधनं रोपणं रक्षा वर्धनं वायुवारिणः ।
वनानां वन्यवस्तूनां भूमेः संरक्षणं वरम्॥
(एते श्लोकाः पर्यावरणकाव्यात् संकलिताः सन्ति।)
प्रदूषण के निवारण और संरक्षण के लिए:
वायु और जल को शुद्ध रखना, वृक्षारोपण करना और रक्षापूर्वक उनकी वृद्धि करना-ये वनों, वन्य वस्तुओं तथा भूमि के संरक्षण के लिए श्रेष्ठ उपाय हैं।
(ये श्लोक पर्यावरण काव्य से संकलित किए गए हैं।)
तत्सम-तद्भव-शब्दानामध्ययनम्:
अधोलिखितानां तत्समशब्दानां तदुद्भूतानां च तद्भवशब्दानां परिचयः करणीयः
(अधोलिखित तत्सम शब्दों और उनसे उत्पन्न तद्भव शब्दों का परिचय करना चाहिए-)
तत्सम – तद्भव
प्रस्तर – पत्थर
वाष्प – भाप
दुर्वह – दूभर
वक्र – बाँका
कज्जल – काजल
चाकचिक्य – चकाचक, चकाचौंध
धूमः – धुआँ
शतम् – सौ (100)
बहिः – बाहर
छन्दः परिचयः
अस्मिन् गीते शुचि पर्यावरणम् इति ध्रुवकं (स्थायी) वर्तते। तदतिरिक्तं सर्वत्र प्रतिपक्ति 26 मात्राः सन्ति। इदं गीतिकाच्छन्दसः रूपमस्ति।
छन्द-परिचय:
इस गीत में ‘शुचिपर्यावरणम्’ यह ध्रुव (स्थायी) स्वर पंक्ति है। इसके अतिरिक्त पूरे गीत में प्रत्येक पङ्क्ति में 26 मात्राएँ हैं। यह ‘गीतिका’ छन्द का स्वरूप है।
HBSE 10th Class Sanskrit शुचिपर्यावरणम् Important Questions and Answers
शुचिपर्यावरणम् पठित-अवबोधनम्
1. निर्देश:-अधोलिखितं पद्यांशं पठित्वा तदाधारितान् प्रश्नान् उत्तरत
दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्।
शुचि-पर्यावरणम्॥
महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।
मनः शोषयत् तनुः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥
दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि……. ॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) अत्र जीवितं कीदृशं जातम् ?
(ii) पर्यावरणं कीदृशं भवितव्यम् ?
(ii) अनिशं किं चलत् अस्ति ?
(iv) कालायसचक्रं कुत्र भ्रमति ?
(v) दुर्दान्तैः दशनैः किं न स्यात् ?
उत्तराणि:
(i) दुर्वहम्।
(ii) शुचि।
(iii) कालायसचक्रम्।
(iv) महानगरमध्ये।
(v) जनग्रसनम्।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) प्रकृतिरेव शरणं किमर्थमस्ति ?
(ii) कालायसचक्रं कथं भ्रमति ?
(iii) जनग्रसनं केन न स्यात् ?
उत्तराणि:
(i) अत्र जीवितं दुर्वहं जातम्, अतः प्रकृतिरेव शरणम् अस्ति।
(ii) कालायसचक्रम् अनिशं चलत्, मनः शोषयत, तनुः पेषयत् सदा वक्रं भ्रमति।
(iii) अमुना कालायसचक्रेण दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनं न स्यात्।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘कठिनम्’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘प्रदूषितम्’ इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं विपरीतार्थकपदं किम् ?
(iii) ‘दुर्दान्तैर्दशनैः’-अत्र विशेष्यपदं किमस्ति ?
(iv) ‘प्रकृतिरेव’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(v) ‘जातम्’-अत्र प्रकृति-प्रत्ययौ विभजत।
उत्तराणि:
(i) दुर्वहम्।
(ii) शुचि।
(iii) दशनैः।
(iv) प्रकृतिः + एव।
(v) √जन् + क्त।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः अत्र जीवितं दुर्वहं जातम्, प्रकृतिः एव शरणम्। शुचि-पर्यावरणम् (एव शरणम्)। महानगरमध्ये अनिशं चलत् कालायसचक्रं मनः शोषयत्, तनुः पेषयत् सदा वक्रं भ्रमति। अमुना दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनम् एव न स्यात् (अतः शुचि-पर्यावरणम् एव शरणम्)॥
शब्दार्थाः दुर्वहम् = (दुष्करम्) कठिन, दूभर। जीवितम् = (जीवनम्) जीवन। अनिशम् = (अहर्निशम्) दिनरात। कालायसचक्रम् = (लौहचक्रम्) लोहे का चक्र।शोषयत् = (शुष्कीकुर्वत्) सुखाते हुए। तनुः = (शरीरम्) शरीर। पेषयद् = (पिष्टीकुर्वत्) पीसते हुए। वक्रम् = (कुटिलम्) टेढ़ा। दुर्दान्तः = (भयकरैः) भयानक से। दशनैः = (दन्तैः) दाँतों से। अमुना = (अनेन) इससे।
भावार्थ: इस नगरीय वातावरण में आज जीवन दूभर हो गया है। प्रकृति ही एक मात्र शरण है। शुद्ध-पर्यावरण ही एकमात्र शरण है। महानगरों में दिन-रात चलता हुआ लौह-चक्र (कारखानों और वाहनों के पहिए) मन का शोषण करता हुआ तथा तन को पीसता हुआ निरन्तर टेढ़ी गति से घूम रहा है। कहीं इसके दुर्दान्त दाँतों द्वारा मनुष्यों को खा ही न लिया जाए। (अतः इस मानव-नाश से बचने का एक ही उपाय है-शुद्ध पर्यावरण की शरण)।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में पर्यावरण की भयावहता पर प्रकाश डालते हुए कवि कहता है कि आज नगरीय वातावरण इतना अधिक प्रदूषित हो चुका है कि जिसमें जीवन धारण करना दुष्कर हो गया। महानगरों में दिन-रात लौह चक्र चल रहा है। यहाँ लौह चक्र से कवि का तात्पर्य कारखानों की मशीनों के चक्रों, रेलगाड़ियों के चक्रों तथा सभी प्रकार के वाहनों के चक्रों से है।
जो न केवल ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं अपितु इन वाहनों तथा कारखानों से निकलने वाला गैसीय धुआँ भी वायुमण्डल को दूषित करता है, इसका दुष्प्रभाव मन और शरीर दोनों पर पड़ता है। कवि को यह चिन्ता है कि कहीं इस दूषित वातावरण रूप भयानक दानव के दाँतों से मानव समुदाय कुचल न दिया जाए इसलिए कवि की कामना है कि इस महाविनाश से बचने का उपाय समय रहते ही कर लेना चाहिए अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा और वह उपाय है शुद्ध पर्यावरण वाली प्रकृति की शरण में जाना।
2. कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्।
वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्॥
यानानां पड्क्तयो ह्यनन्ताः कठिनं संसरणम्। शुचि……. ॥2॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) शतशकटीयानं किं मुञ्चति ?
(ii) कज्जलमलिनं किमस्ति ?
(iii) ध्वानं का वितरति ?
(iv) संसरणं कीदृशम् अभवत् ?
(v) अनन्ताः काः सन्ति ?
उत्तराणि:
(i) धूमम्।
(ii) धूमम्।
(iii) वाष्पयानमाला।
(iv) कठिनम्।
(v) पक्तयः।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) शतशकटीयानं किं करोति ?
(ii) वाष्पयानमाला कथं संधावति ?
(iii) केषां पतयः अनन्ताः सन्ति।
उत्तराणि
(i) शतशकटीयानं कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति।
(ii) वाष्पयानमाला ध्वानं वितरन्ती संधावति।
(iii) यानानां पतयः अनन्ताः सन्ति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘त्यजति’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘धूमम्’ इति पदस्य प्रयुक्तं विशेषणं किम् अस्ति ?
(iii) ‘कोलाहलम्’ इति पदस्य प्रयुक्तं पर्यायपदं किम् अस्ति ?
(iv) ‘सरलम्’ इति पदस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(v) ‘मुञ्चति’ इति क्रियापदस्य प्रयुक्तं कर्तृपदं किमस्ति ?
उत्तराणि:
(i) मुञ्चति।
(ii) कज्जलमलिनम्।
(iii) ध्वानम्।
(iv) कठिनम्।
(v) शतशकटीयानम्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः शतशकटीयानं कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति । वाष्पयानमाला ध्वानं वितरन्ती संधावति। यानानां हि अनन्ताः पतयः (धावन्ति, अतः) संसरणम् (अपि) कठिनं (भवति)। शुचि……….।
शब्दार्थाः जनग्रसनम् = (जनभक्षणम्) मानव विनाश। कज्जलमलिनम् = (कज्जलम् इव मलिनम्) काजल-सा मलिन (काला)।धूमः = (वाष्पः) धुआँ । मुञ्चति = (त्यजति) छोड़ता है। शतशकटीयानम् = (शकटीयानानां शतम्) सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ। वाष्पयानमाला = (वाष्पयानानां पंक्तिः) रेलगाड़ी की पंक्ति। वितरन्ती = (ददती) देती हुई। ध्वानम् = (ध्वनिम्) कोलाहाल। संसरणम् = (सञ्चलनम्) चलना।
भावार्थ: सैंकड़ों मोटर गाड़ियाँ काजल जैसा मलिन धुआँ छोड़ रही हैं। रेलगाड़ियाँ शोर करती हुई दौड़ी चली जा रही हैं। वाहनों की अनगिनत पंक्तियाँ सड़कों पर दौड़ रही हैं। जिनके कारण चलना-सरकना भी कठिन हो गया है। अब तो शान्तिमय एवं स्वस्थ जीवन के लिए पवित्र पर्यावरण ही एक मात्र शरण है। – व्याख्या-दूषित पर्यावरण से चिन्तित कवि कहता है कि महानगरीय सुविधा भोगी जीवन शैली में सड़कों को मोटर गाड़ियों का गढ़ बना दिया गया है। रेलगाड़ियों की संख्या दिन प्रतिदिनि बढ़ रही है। इनसे निकलने वाला धुआँ और शोर दोनों ही जनजीवन को त्रस्त कर रहे हैं। सड़क पर वाहन इतनी मात्रा में हो गए कि चलना तो दूर सरकना भी कठिन हो गया है। शायद पैदल चलने वाले का जीवन कोई मानव जीवन न होकर कीट पतंगों का जीवन बन गया, जिसकी कोई परवाह ही नहीं करता। अत: जीवन रक्षा का एक ही उपाय है, शुद्ध पर्यावरण। जिसके लिए हम सबको प्रयत्नशील होना चाहिए।
3. वायुमण्डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्।
कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम्॥
करणीयं बहिरन्तर्जगति तु बहुशुद्धीकरणम्। शुचि…॥3॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) भृशं किं दूषितम् ?
(ii) निर्मलं किं न अस्ति ?
(iii) भक्ष्यं कीदृशम् अभवत् ?
(iv) समलं किमस्ति ?
(v) बहु किं करणीयम् ?
उत्तराणि:
(i) वायुमण्डलम्।
(ii) जलम्।
(iii) कुत्सितवस्तुमिश्रितम्।
(iv) धरातलम्।
(v) शुद्धीकरणम्।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) वायुमण्डलं जलं च कीदृशे अभवताम् ?
(ii) जगति किं करणीयम् अस्ति ?
उत्तराणि
(i) वायुमण्डलं भृशं दूषितं जलं च समलम् अभवताम्।
(ii) जगति बहिरन्त: बहुशुद्धिकरणं करणीयम् अस्ति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘अत्यधिकम्’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘समलम्’ इत्यस्य अत्र प्रयुक्तं विलोमपदं किमस्ति ?
(iii) ‘धरातलम्’ इत्यस्य अत्र प्रयुक्तं विशेषणं किम् अस्ति ?
(iv) ‘करणीयम्’ अत्र प्रकृति-प्रत्ययविभागं कुरुत।
(v) ‘जगति’ अत्र का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
उत्तराणि:
(i) भृशम्।
(ii) निर्मलम्।
(iii) समलम्।
(iv) कृ + अनीयर् ।
(v) सप्तमी विभक्तिः।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः वायुमण्डलं भृशं दूषितम्, न हि निर्मलं जलम् । भक्ष्यं कुत्सितवस्तुमिश्रितं, धरातलं समलं (जातम्) । जगति तु बहिः-अन्तः बहुशुद्धीकरणं करणीयम्। शुचि…… ॥
शब्दार्थाः भृशम् = (अत्यधिकम्) बहुत अधिक। निर्मलम् = (अमलम्) स्वच्छ। कुत्सित-वस्तुमिश्रितम् = (कुत्सितैः वस्तुभिः मिश्रितम्, निन्दनीय-पदार्थमिश्रितम्), निन्दनीय वस्तु की मिलावट से युक्त। जगति = (संसारे) संसार में। करणीयम् = (कर्तव्यम्) करना चाहिए, करना उचित है। समलम् = (मलयुक्तम्) गन्दा। धरातलम् = धरती का ऊपरी उपजाऊ भाग।
भावार्थ: यहाँ नगरों में वायुमण्डल अत्यधिक दूषित हो गया है, न ही स्वच्छ जल है। भक्ष्य पदार्थों में निन्दनीय वस्तुओं की मिलावट है। धरातल गंदगी से व्याप्त है। संसार में अब तो बाहर-अंदर बहुत प्रकार के शुद्धीकरण की आवश्यकता है (क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध पर्यावरण ही एकमात्र शरण है)।
व्याख्या: दूषित पर्यावरण से व्याकुलचित्त कवि कहता है कि नगरीय वातावरण आज पूरी तरह से दूषित हो चुका है, जिसमें साँस लेना भी कठिन है। दूसरी ओर स्वच्छ पेयजल का संकट खड़ा हो गया है। बाज़ार में मिलने वाली सभी खाने की चीजें मिलावट से भरी हुई हैं। शुद्ध वस्तु पैसा खर्च करके भी नहीं मिल पाती। धरती के कण-कण में प्रदूषण समा गया है, इसलिए कवि आह्वान करता है कि अब तो समस्त संसार के लोगों को वातावरण की शुद्धता के प्रयास में लग जाना चाहिए। घर के बाहर, घर के अन्दर, पृथ्वी आदि पदार्थों के बाहर, उनके अन्दर तथा मनुष्य के बाहर और अन्दर अनेक प्रकार के शुद्धिकरण की आवश्यकता है क्योंकि शुद्ध पर्यावरण ही जीवन का आधार है।
4. कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगराद् बहुदूरम्।
प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरम्॥
एकान्ते कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्। शुचि… ॥4॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) कविः नगरात् कुत्र गन्तुम् इच्छति ?
(ii) कविः निर्झर-नदी-पयःपूरं कुत्र द्रष्टुम् इच्छति ?
(iii) क्षणमपि किं स्यात् ?
(iv) एकान्तः कः कथितः ?
उत्तराणि:
(i) बहुदूरम्।
(ii) ग्रामान्ते।
(ii) सञ्चरणम्।
(iv) कान्तारः।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) कविः किं नेतुं कथयति ?
(ii) कवि: ग्रामान्ते किं प्रपश्यति ?
(ii) क्षणमपि सञ्चरणं कुत्र स्यात् ?
उत्तराणि
(i) कविः नगरात् बहुदूरं कञ्चित् कालं नेतुं कथयति।
(ii) कविः ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरं प्रपश्यति।
(iii) क्षणमपि सञ्चरणम् एकान्ते कान्तारे स्यात्।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘ग्रामान्ते’-अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(ii) ‘नय’-अत्र कः लकारः प्रयुक्तः ।
(iii) ‘एकान्ते कान्तारे’-अत्र विशेष्यपदं किमस्ति ?
(iv) ‘क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्’-इति वाक्ये ‘मे’ इति सर्वनामपदं कस्मै प्रयुक्तम् ?
(v) ‘नय’ इति क्रियापदस्य अत्र प्रयुक्तं कर्मपदं किमस्ति ?
उत्तराणि:
(i) ग्राम + अन्ते।
(ii) लोट्लकारः ।
(iii) कान्तारे।
(iv) कवये।
(v) माम्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः कञ्चित् कालं माम् अस्मात् नगरात् बहुदूरं नय। ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरं प्रपश्यामि। एकान्ते कान्तारे मे क्षणम् अपि सञ्चरणं स्यात्। शुचि…… ॥
शब्दार्था: प्रपश्यामि = (अवलोकयामि) देखू। ग्रामान्ते = गाँव की सीमा पर। निर्झरः = झरना। जलाशयम् = तालाब। पयःपूरम् = जल से लबालब भरा हुआ। कान्तारे = (वने) जंगल में। सञ्चरणम् = चलना-फिरना, घूमना।
भावार्थ: (कवि नगरीय वातावरण से संत्रस्त है, वह इसे छोड़कर कहीं दूर गाँव और वन में प्रकृति का आनन्द लेना चाहता है।) कवि कहता है कि कुछ समय के लिए मुझे इस नगर से बहुत दूर ले जाओ, जिससे मैं गाँवों की सीमा पर जल से परिपूर्ण झरने, नदी और तालाब को देख सकूँ। एकान्त वन प्रदेश में क्षण भर के लिए मेरा चलना-फिरना हो सके (क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध-पर्यावरण ही एकमात्र शरण है)।
व्याख्या: कवि नगरीय वातावरण में रहकर थक चुका है। वह शान्ति और विश्राम पाने के लिए किसी गाँव या वन की शरण में जाना चाहता है। कवि कहता है कि नगरीय वातावरण में मेरा दम घुट रहा है चाहे थोड़े समय के लिए ही परन्तु मुझे इस नगर से बहुत दूर किसी ऐसे स्थान पर ले चलो, जहाँ गाँव की सीमा से जुड़ी हुई नदी, झरने, जल से परिपूरित तालाब मेरे मन को आनन्दित कर सकें। जहाँ के एकान्त वन में क्षण भर के लिए ही सही मुझे स्वतन्त्रता पूर्वक विहरण करने का अवसर प्राप्त हो; क्योंकि शुद्ध पर्यावरण ही मानव समुदाय के जीवन का एकमात्र आधार है।
5. हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया।
कुसमावलिः समीरचालिता स्यान्मे वरणीया॥
नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्। शुचि… ॥5॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) ललित-लतानां माला कीदृशी अस्ति ?
(ii) वरणीया का कथिता ?
(iii) का रसालं मिलिता ?
(iv) रुचिरं किम् अस्ति ?
(v) हरिततरूणां का रमणीया ?
उत्तराणि:
(i) रमणीया।
(ii) कुसुमावलिः।
(iii) नवमालिका।
(iv) संगमनम्।
(v) माला।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) केषां माला रमणीया अस्ति ?
(ii) कीदृशी कुसुमावलिः वरणीया स्यात् ?
(iii) रुचिरं संगमनं किमस्ति ?
उत्तराणि
(i) हरिततरूणां ललितलतानां च माला रमणीया अस्ति।
(ii) समीरचालिता कुसुमावलिः वरणीया स्यात्।
(iii) नवमालिका रसालं मिलिता-इति एव रुचिरं संगमनम् अस्ति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘रमणीया’-अत्र प्रकृति-प्रत्यय-विभागं निर्दिशत।
(ii) ‘रुचिरं संगमनम्’ अत्र विशेषणपदं किमस्ति ?
(iii) ‘आम्रवृक्षम्’-इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किमस्ति ?
(iv) ‘कुसुमावलिः’-अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(v) ‘स्यान्मे वरणीया’-अत्र ‘मे’ इति सर्वनाम कस्मै प्रयुक्तम् ?
उत्तराणि:
(i) √रम् + अनीयर् + टाप्।
(ii) रुचिरम्।
(iii) रसालम्।
(iv) कुसुम + अवलिः ।
(v) कवये।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः (यत्र वने) हरिततरूणां ललितलतानां (च) रमणीया माला (स्यात्) । समीरचालिता कुसुमावलिः मे वरणीया स्यात्। नवमालिका रसालं मिलिता (स्यात्), (यत्र मम) रुचिरं संगमनं (स्यात्)। शुचि ……. ॥
शब्दार्थाः कान्तारे = (वने) जंगल में। कुसुमावलिः = (कुसुमानां पंक्तिः) फूलों की पंक्ति । समीरचालिता = (वायुचालिता) हवा से चलाई हुई। रसालम् = (आम्रम्) आम। रुचिरम् = (सुन्दरम्) सुन्दर। संगमनम् = (संगमः, सञ्चरणम्, विहरणम्) मेल, विचरण।
भावार्थ: (कवि ऐसे एकान्त वन में विहरण करना चाहता है, जिस वन में) हरे-भरे वृक्षों और सुन्दर लताओं की रमणीय पंक्ति हो। वायु से आन्दोलित की जा रहे पुष्पों का ऐसा समूह हो, जिसका मैं वरण कर सकूँ। ‘नवमालिका’ नामक लता आम के वृक्ष से गले मिल रही हो और मेरा रुचिपूर्ण संगमन हो सके (क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध पर्यावरण ही एकमात्र शरण है)।
व्याख्या: नगरीय वातावरण से व्यथित कवि कामना करता है कि मुझे तो किसी ऐसे एकान्त वन में चले जाना चाहिए जहाँ हरे-भरे वृक्ष हों, सुन्दर लताओं की पंक्तियाँ हों, जिन्हें देखते ही मन पुलकित हो जाए। वायु के संग डोलता हुआ ऐसा पुष्प समूह हो जिसे देखते ही उसे छू लेने को मन मचल उठे। ऐसे आमों के वृक्ष हों, जिनसे नवमालिका नामक लता लिपटी हुई हो, मानो कोई प्रेमी-प्रेमिका लिपटकर सुन्दर संगम कर रहे हों। कवि कहता है मुझे भी ऐसा वन मिले जहाँ मैं भी अपनी इच्छानुसार संगमन अर्थात् विहरण कर सकूँ क्योंकि शुद्ध पर्यावरण वाला ऐसा प्राकृतिक वातावरण ही मुझे जीवन दान दे सकता है। .
6. अयि चल बन्धो ! खगकुलकलरव-गुञ्जितवनदेशम्।
पुर-कलरव-सम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्॥
चाकचिक्यजालं नो कुर्याजीवितरसहरणम्। शुचि….॥6॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) कलरवः कस्य अस्ति ?
(ii) वनदेशः केन गुञ्जितः ?
(iii) जनाः केन सम्भ्रमिताः ?
(iv) चाकचिक्यजालं किं न कुर्यात् ?
उत्तराणि:
(i) खगकुलस्य।
(ii) खगकुल-कलरवेण।
(iii) पुर-कलरवेण।
(iv) जीवितरसहरणम्।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) कविः कुत्र गन्तुम् इच्छति ?
(ii) वनदेशः केभ्यः धृतसुखसन्देशः अस्ति ?
(iii) कविः नगरात् कथं गन्तुम् इच्छति ?
उत्तराणि
(i) कविः खगकुलरव-गुञ्जित-वनदेशं गन्तुम् इच्छति।
(ii) वनदेशः पुर-कलरव-सम्भ्रमित-जनेभ्यः धृतसुखसन्देशः अस्ति।
(iii) क्वचित् नगरस्य चाकचिक्यजालं जीवितरसहरणं न कुर्यात्-अतएव कविः नगरात् वनदेशं गन्तुम् इच्छति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘चल’-अत्र कः लकारः प्रयुक्तः ?
(ii) ‘न’ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः प्रयुक्तः ?
(iii) ‘नगर-कोलाहलः’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तः शब्दः कोऽस्ति।
(iv) ‘सम्भ्रमितः’ इत्यस्य प्रकृति-प्रत्यय-निर्देशं कुरुत।
(v) ‘कुर्यात्’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किमस्ति ?
उत्तराणि:
(i) लोट्लकारः ।
(ii) नो।
(iii) पुर-कलरवः ।
(iv) सम् + √भ्रम् + क्त।
(v) चाकचिक्यजालम्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः अयि बन्धो ! पुर-कलरव-सम्भ्रमितजनेभ्यः धृतसुखसंदेशं खगकुल-कलरव-गुञ्जित-वनदेशं चल। (नगरस्य) चाकचिक्यजालं जीवितरसहरणं नो कुर्यात्। शुचि……….. ॥
शब्दार्थाः खगकुलकलरवः = (खगकुलानां कलरवः, पक्षिसमूहध्वनिः) पक्षियों के समूह की ध्वनि। चाकचिक्यजालम् = (कृत्रिमं प्रभावपूर्ण जगत्) चकाचौंध भरी दुनिया। नो = (नहि) नहीं। जीवित-रसहरणम् = (जीवनानन्दविनाशम्) जीवन से आनन्द का हरण। पुर-कलरवः = (नगरे भवः कोलाहलः) नगर में होने वाला कोलाहल।
भावार्थ: (कवि अपने मित्र को पुकारते हुए कहता है-) हे मित्र ! नगरों के शोरगुल से सम्भ्रमित लोगों के लिए जहाँ धारण करने योग्य सुख की झलक मिलती है, ऐसे पक्षिसमूह के कलरव से गुञ्जायमान वन-स्थल की ओर मुझे ले चल। कहीं नगर की चकाचौंध हमारे जीवन के आनन्द का हरण न कर ले (क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध पर्यावरण ही एक मात्र शरण है।
व्याख्या: कवि अपने मित्र को पुकारते हुए कहता है कि नगरीय वातावरण के शोरगुल से मानव समुदाय की सोचने
और समझने की शक्ति क्षीण हो गई है। गाँव और वन की ओर लौटने जाने का सन्देश ही सुख प्रदान करने वाला है। ऐसे गाँव और वन जहाँ पक्षियों की चहचाहट से सारा वातावरण गुंजायमान हो रहा हो। हे मित्र ! हमें शीघ्रता से ऐसे सुखमय शुद्ध पवित्र वातावरण वाले वन समूह से व्याप्त स्थान की ओर प्रस्थान कर देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि नगरीय जीवन की चकाचौंध का यह जाल हमारे जीवन के आनन्द रूपी हिरण का हरण कर ले। इस जीवन नाश से पहले ही हमें शुद्ध पर्यावरण की शरण में चले जाना चाहिए।
7. प्रस्तरतले लता तरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः।
पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा॥
मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्। शुचि…..॥7॥ .
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर:
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) पिष्टाः के न भवन्तु ?
(ii) पाषाणी-सभ्यता कुत्र समाविष्टा न स्यात् ?
(iii) कविः जीवनं कस्मै कामयते ?
(iv) कविः किं न कामयते ?
(v) सभ्यता कीदृशी कथिता ?
उत्तराणि:
(i) लतातरुगुल्माः ।
(ii) निसर्गे।
(iii) मानवाय।
(iv) जीवन्मरणम्।
(v) पाषाणी।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) लतातरुगुल्माः कुत्र पिष्टाः न भवन्तु ?
(ii) निसर्गे कस्याः समावेशः न स्यात् ?
(iii) कविः किं कामयते ?
उत्तराणि
(i) लतातरुगुल्माः प्रस्तरतले पिष्टाः न भवन्तु।
(ii) निसर्गे पाषाणी-सभ्यतायाः समावेश: न स्यात्।
(iii) कविः मानवाय जीवनं कामयते।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) “शिलातले’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘प्रकृतौ’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किमस्ति ?
(iii) ‘मरणम्’ इति पदस्य विशेषणं किमस्ति ?
(iv) ‘समाविष्टा’-अत्र प्रकृति-प्रत्ययनिर्देशं कुरुत।
(v) ‘जीवनम्’-इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) प्रस्तरतले।
(ii) निसर्गे।
(iii) जीवत्।
(iv) सम् + आ + √विश् + क्त + टाप्।
(v) मरणम्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः लतातरुगुल्मा प्रस्तरतले पिष्टाः नो भवन्तु। निसर्गे पाषाणी सभ्यता समाविष्टा न स्यात्। मानवाय जीवनं कामये न जीवन्मरणं (कामये)। शुचि……….।
शब्दार्था: प्रस्तरतले = (शिलातले) पत्थरों के तल पर। लतातरुगुल्माः = (लताश्च तरवश्च गुल्माश्च) लता, वृक्ष और झाड़ी। पाषाणी = (पर्वतमयी) पथरीली। निसर्गे = (प्रकृत्याम्) प्रकृति में। जीवन्मरणम् = जीते-जी मृत्यु, चलती फिरती लाश।
भावार्थ: लता, वृक्ष और झाड़ियाँ कहीं पत्थरों के नीचे पिस न जाएँ। संसार में कहीं पाषाणी सभ्यता का समावेश न हो जाए। मैं तो मनुष्य के जीवन की कामना करता हूँ, जीते-जी मरण की नहीं (क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध पर्यावरण ही एकमात्र शरण है)।
व्याख्या: आज घास-फूस और वनस्पतियों वाली धरती का दर्शन भी दुर्लभ हो गया । कहीं मकान हैं तो कहीं फैक्ट्रियाँ और इनसे जो भाग बच गया उस पर कंकरीट से बनी सड़कें बिछी पड़ी हैं। वृक्ष लता और झाड़ियाँ इस पथरीली सभ्यता के नीचे पिसकर रह गई हैं। प्रकृति में कहीं इस पाषाणप्रिय सभ्यता का समावेश न हो जाए। क्योंकि ऐसी पत्थर
दिल सभ्यता प्रदूषण के नित्य नये अम्बार खड़े करके कोमल प्रकृति को ही नष्ट कर देगी। जिसमें मनुष्य एक चलतीफिरती लाश की तरह होगा। कवि कहता है कि मुझे मृत्यु से कोई भय नहीं है, परन्तु प्रदूषित पर्यावरण के कारण जो जीते-जी मरण की स्थिति बन रही है वह भी मुझे स्वीकार नहीं है। मैं तो मनुष्य समुदाय के लिए जीवन की कामना करता हूँ, जो शुद्ध पर्यावरण में ही संभव है।