Hindi 10

UP Board Class 10 Hindi Chapter 1 – मित्रता (गद्य खंड)

UP Board Class 10 Hindi Chapter 1 – मित्रता (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड)

जीवन-परिचय

हिन्दी भाषा के उच्चकोटि के साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की गणना प्रतिभासम्पन्न निबन्धकार, समालोचक, इतिहासकार, अनुवादक एवं महान शैलीकार के रूप में की जाती है। गुलाबराय के अनुसार, ” उपन्यास साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचन्द का है, वही स्थान निबन्ध साहित्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है । “
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 1884 ई. में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रबली शुक्ल था। इण्टरमीडिएट में आते ही इनकी पढ़ाई छूट गई। ये सरकारी नौकरी करने लगे, किन्तु स्वाभिमान के कारण नौकरी छोड़कर ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला अध्यापक हो गए। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान इन्होंने स्वाध्याय से प्राप्त किया। बाद में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी से जुड़कर इन्होंने ‘शब्द-सागर’ के सहायक सम्पादक का कार्यभार सँभाला। इन्होंने काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष का पद भी सुशोभित किया।
शुक्ल जी ने लेखन का शुभारम्भ कविता से किया था। नाटक लेखन की ओर भी इनकी रुचि रही, पर इनकी प्रखर बुद्धि इनको निबन्ध लेखन एवं आलोचना की ओर ले गई। निबन्ध लेखन और आलोचना के क्षेत्र में इनका सर्वोपरि स्थान आज तक बना हुआ है।
जीवन के अन्तिम समय तक साहित्य साधना करने वाले शुक्ल जी का निधन वर्ष 1941 में हुआ।
प्रमुख रचनाएँ
  • निबन्ध चिन्तामणि (दो भाग), विचारवीथी।
  • आलोचना रसमीमांसा, त्रिवेणी (सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ)।
  • इतिहास हिन्दी साहित्य का इतिहास ।
  • कहानी ग्यारह वर्ष का समय।
  • सम्पादन तुलसी ग्रन्थावली, जायसी ग्रन्थावली, हिन्दी – शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार, आनन्द कादम्बिनी आदि।
  • काव्य रचनाएँ अभिमन्यु वध ।
भाषा-शैली
शुक्ल जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। इन्होंने एक ओर अपनी रचनाओं में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया तथा संस्कृत की तत्सम शब्दावली को प्रधानता दी, वहीं दूसरी ओर अपनी रचनाओं में उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया। शुक्ल जी की शैली विवेचनात्मक और संयत है। इनकी शैली निगमन शैली भी कहलाती है। शुक्ल जी की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि वे कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहने में सक्षम थे।
हिन्दी साहित्य में स्थान
हिन्दी निबन्ध को नया आयाम प्रदान करने वाले शुक्ल जी हिन्दी साहित्य के आलोचक, निबन्धकार एवं युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। इनके समकालीन हिन्दी गद्य के काल को ” शुक्ल युग’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इनकी साहित्यिक सेवाओं के फलस्वरूप हिन्दी को विश्व साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सका।
पाठ का सार
परीक्षा में ‘पाठ के सारांश’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाएगा। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।
सच्चे मित्र का चयन : एक बड़ी समस्या
जब कोई युवा अपनी किशोरावस्था के बाद घर की चहारदीवारी से निकलकर बाहर की दुनिया में कदम रखता है, तो उस समय उसके सामने सबसे बड़ी समस्या एक सच्चा मित्र बनाने की होती है। यदि वह थोड़ा-सा सामाजिक है, बोलचाल में कुशल है, तो शीघ्र ही उसकी जान-पहचान बहुत-से लोगों से हो जाती है और उनमें से कुछ उसके मित्र भी बन जाते हैं, लेकिन जब वह युवा दुनियादारी में कदम रखता है, तब उसे समाज व संसार का कोई अनुभव नहीं होता। उस समय उसका मस्तिष्क व मन निर्मल होता है, उसका व्यक्तित्व कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होता है। बनाने वाला चाहे उसे राक्षस बनाए, चाहे देवता अर्थात् मित्रता का प्रभाव उसके चरित्र को किसी भी रूप में ढाल सकता है।
सच्चे मित्र के गुण
एक विश्वासपात्र मित्र जीवन में औषधि के समान होता है, जो हमें बुराइयों से बचाता है और सत्य, मर्यादा, पवित्रता के प्रति प्रेम को मजबूत बनाता है। सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य जैसी निपुणता और परख होती है, माता-सा धैर्य होता है, कोमलता होती है, जो हमें कुमार्ग पर जाने से रोकती है, निराश होने पर हमारे मन में आशा का संचार करती है। हमें ऐसी ही मित्रता करने का प्रयास करना चाहिए।
सच्चे मित्र का कर्त्तव्य
एक सच्चे मित्र का कर्तव्य है कि वह हमारा सही मार्गदर्शन करे। वह हमारा प्रेम पात्र होना चाहिए, जिसमें एक अच्छे भाई के गुण हों। दोनों मित्रों में सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए, जो एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना मानें, एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे, जिनमें अधिक आत्मबल हो, प्रतिष्ठित व शुद्ध हृदय हो, जो सत्यनिष्ठ व परिश्रमी हो, जिनसे हमें धोखा खाने का डर न हो, लेकिन हमें उन जान-पहचान वालों से भी सावधान रहना चाहिए, जिनमें अच्छाइयाँ कम और बुराइयाँ अधिक हों।
विपरीत स्वभाव होने पर भी मित्रता सम्भव
यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्रों की प्रकृति और आचरण समान हों। वे एक-सा कार्य करते हों या समान रुचि के हों। भिन्न-भिन्न स्वभाव के लोगों में भी मित्रता व भाईचारा बना रह सकता है; जैसे- श्रीराम धीर, गम्भीर व शान्त स्वभाव के थे, जबकि लक्ष्मण उग्र व उद्धत स्वभाव के थे, फिर भी दोनों भाइयों में अत्यन्त घनिष्ठ प्रेम था। इसी प्रकार उदार व स्वाभिमानी कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभाव बिल्कुल अलग होने पर भी उनकी मित्रता जग विदित है।
कुसंगति जीवन के लिए हानिकारक
कुसंगति एक सबसे बड़ा दुर्गुण है। कुसंग का ज्वर व्यक्ति की नीति, सद्वृत्ति व बुद्धि का नाश कर देता है। यह व्यक्ति को अवनति के गड्ढे में गिराता है, घड़ी भर का कुसंग भी व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है, जबकि अच्छी संगति से व्यक्ति दिन-प्रतिदिन उन्नति करता है। उसका चरित्र उज्ज्वल व निष्कलंक हो जाता है। अतः हमें बुरे लोगों की संगति से बचना चाहिए तथा उत्तम, सच्चरित्र, सच्चे, ईमानदार, विवेकशील लोगों के साथ ही रहना चाहिए और उन्हीं से मित्रता करनी चाहिए।
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
परीक्षा में पाठ्य-पुस्तक के गद्य खण्ड के पाठों के दो गद्यांशों में से किसी एक का सन्दर्भ, रेखांकित अंश की व्याख्या व एक तथ्यपरक प्रश्न पूछा जाएगा। परीक्षा में एक ही तथ्यपरक प्रश्न पूछा जाएगा, किन्तु कुछ स्थानों पर एक से अधिक तथ्यपरक प्रश्न भी दिए गए हैं, जिससे विद्यार्थी गद्यांश से सम्बन्धित सभी सम्भावित प्रश्नों का उत्तर दे सकें।
1. हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप का चाहे उस रूप का करे/चाहे राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ देना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। Imp [2018, 14]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) लेखक के अनुसार, हमें किन लोगों की संगति में नहीं रहना चाहिए?
उत्तर
(क) सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित ‘मित्रता’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ हैं।
(ख) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं कि जब हम किशोरावस्था के पश्चात् युवावस्था में प्रवेश करने पर घर की सीमाओं से बाहर निकलकर समाज में कार्य करना आरम्भ करते हैं, तब हमें संसार व समाज के लोगों के साथ रहने का अनुभव बिल्कुल नहीं होता, हमें दुनियादारी की बिल्कुल समझ नहीं होती। उस समय हमारा मन बहुत कोमल होता है, जो किसी प्रकार के अच्छे या बुरे संस्कार ग्रहण करने के योग्य होता है। हमारी बुद्धि इतनी विकसित नहीं होती कि उसे उचित – अनुचित का ज्ञान हो पाए। उस समय हमारी बुद्धि कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होती है, जिस पर अच्छी या बुरी किसी भी बात का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। उस समय हम जैसे स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं, उनके विचारों का हमारे मन पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। यदि किसी सुयोग्य व्यक्ति के सम्पर्क में हम आ जाते हैं, तो हममें देवताओं जैसे अच्छे गुण व संस्कार आ जाते हैं। यदि किसी दुश्चरित्र व दुष्ट व्यक्ति का साथ मिल जाता है, तो उसके सम्पर्क में रहकर हम भी दुर्गुण, बुरे संस्कार व घृणित कार्य करने वाले बनवर समाज में अपमानित होते हैं।
शुक्ल जी कहते हैं कि यदि हम ऐसे लोगों की संगति में रहने लग जाते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति हमसे प्रबल होती है तथा वह अधिक दृढ़ निश्चय वाने होते हैं, तब हम उनके सामने कुछ भी बोल नहीं पाते और हमें उन्हीं के विचारों व आदर्शों पर चुपचाप चलना पड़ता है।
(ग) हमें उन लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, जो हमसे अधिक दृढ संकली हैं और सदैव हमारी उचित या अनुचित बातों में सहमति बनाए रखते हैं।
2. विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों में हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता की-सी धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए। M. Imp [2023, 20, 18, 16, 13, 11]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए ।
(ग) व्यक्ति को अपने मित्र से क्या उम्मीद करनी चाहिए?
(घ) एक सच्चा मित्र किसे कहा गया है?
(ङ) लेखक ने विश्वासपात्र मित्र की तुलना किससे और क्यों की है ?
(च) लेखक ने अच्छे मित्र के क्या-क्या कर्त्तव्य बताए हैं?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
(ख) आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि विश्वासपात्र मित्र दवा के समान होता है। जिस प्रकार अच्छी दवा लेने से व्यक्ति का रोग दूर हो जाता है, उसी प्रकार विश्वासपात्र मित्र हमारे जीवन में आकर हमारे बुरे संस्कार व दुर्गुणरूपी रोगों से हमें मुक्ति दिलवाता है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे हमें दोषों, अवगुणों व बुराइयों से बचाएँ और हमारे विचारों व संकल्पों को मजबूत बनाने में हमारी सहायता करें। हमारे हृदय में अच्छे विचारों को उत्पन्न करें तथा हमें हर प्रकार की बुराइयों से बचाते रहें । हमारे मन सत्य, मर्यादा व पवित्रता के प्रति प्रेम विकसित करें। यदि हम किसी कारणवश या लोभवश किसी गलत मार्ग पर चल पड़े हैं, तब वे हमारा मार्गदर्शन करके हमें गलत मार्ग पर चलने से बचाएँ । यदि हम निराश व हताश हो जाएँ, तो वह हमें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करें। तात्पर्य यह है कि वे हमें हर प्रकार से उत्तम जीवन जीने के लिए प्रेरित करें।
लेखक सच्चे मित्र के गुण बताते हुआ कहता है कि सच्चा मित्र एक कुशल वैद्य के समान होता है। जिस प्रकार एक उत्तम वैद्य रोगी की नब्ज देखकर ही उसके रोग का पता लगा लेता है, उसी प्रकार एक सच्चा मित्र भी मित्र के हाव-भाव व उसके लक्षणों को देखकर उसके गुण-दोषों की परख कर लेता है तथा उसका सही मार्गदर्शन करके उसको भटकने से बचा लेता है। जिस प्रकार एक अच्छी माता पुत्र के सभी कष्टों को धैर्य से स्वयं सहन करके अपने पुत्र को सभी मुसीबतों से बचाती है तथा कोमलता से उसे समझा-बुझाकर सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, ठीक उसी प्रकार के मित्र की खोज मनुष्य को करनी चाहिए।
(ग) व्यक्ति को अपने मित्रों से यह उम्मीद करनी चाहिए कि वे उसे संकल्पवान बनाएँगे, अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे, मन में अच्छे विचार उत्पन्न करेंगे, बुराइयों और गलतियों से बचाकर मानवीय गुण प्रगाढ़ करने तथा अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे।
(घ) एक सच्चा मित्र उसे कहा गया है, जो उत्तम वैद्य के समान हमारे दुर्गुणों को पहचानकर हमें उनसे मुक्ति दिलाए । उसमें अच्छी माता जैसा धैर्य हो तथा जो किसी भी स्थिति में कोमलता न छोड़े।
(ङ) लेखक ने विश्वासपात्र मित्रों की तुलना खजाने और जीवन की औषधि से की है। जिस प्रकार खजाना और औषधि विपत्ति और बीमारी में व्यक्ति की रक्षा करते हैं और जीवन – निर्वाह करने में उसकी सहायता करते हैं, उसी प्रकार विश्वासपात्र व सच्चा मित्र भी अपने मित्र की विपत्ति में सहायता करता है।
(च) लेखक के अनुसार, अच्छे मित्र के कर्त्तव्य हैं कि वह अपने मित्र की विपत्ति में रक्षा करे, उत्तम संकल्पों में दृढ़ता प्रदान करें, मित्र को दोषों और त्रुटियों से बचाए, सत्य और मर्यादा पर अटल रहे और कुमार्ग की ओर चलने पर मित्र को सचेत करे।
3. सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें होनी चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति पात्र बना सकें; हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए – ऐसी सहानुभूति, जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार के कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। Imp[2017, 11]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) लेखक ने अच्छे मित्र की क्या विशेषताएँ बताई हैं?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
(ख) शुक्ल जी के अनुसार, सच्चा मित्र वह नहीं हो सकता, जिसके गुणों व कार्यों की हम प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन अपने मन से उसे प्रेम नहीं करते। सच्चे मित्र को हृदय से प्रेम करना आवश्यक हो जाता है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है, जिससे हम अपने छोटे-मोटे काम तो निकलवाते रहते हैं, किन्तु हृदय में कहीं उससे घृणा करते रहे हों, तो उसे हम अपना मित्र नहीं कह सकते। उसे तो हमने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मित्र बनाया था। शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र के प्रति हमारे हृदय में सच्चा व निष्कपट प्रेम होना चाहिए तथा मित्र भी हमारा सच्चा मार्गदर्शक होना चाहिए, जिस पर हम पूर्ण रूप से विश्वास कर सकें। दोनों मित्रों में परस्पर सहानुभूति हो तथा भाई के समान नि:स्वार्थ प्रेम हो । एक-दूसरे की बात को सहन करने, की शक्ति हो । मित्रता में दोनों मित्रों में ऐसे गुण होने चाहिए कि वे एक-दूसरे लाभ-हानि को अपना ही लाभ-हानि समझें और एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना ही सुख-दुःख मानकर उसकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहें। आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि सच्ची मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक-सा कार्य करते हों, समान रुचि के हों।
(ग) लेखक ने अच्छे मित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं।
(i) अच्छा मित्र ऐसा होना चाहिए, जो व्यक्ति को सच्चे पथ-प्रदर्शक की भाँति सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे ।
(ii) अच्छा मित्र वह होता है, जिससे हम प्रेम करते हैं।
(iii) अच्छा मित्र वैद्य के समान हितकारी होता है, जो हमारे दुर्गुणों को पहचानकर हमें उनसे मुक्ति दिलाता है।
(iv) अच्छे मित्र में अपने मित्र के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है ।
(v) अच्छा मित्र विश्वसनीय होता है।
4. यह कोई बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का । [2023]
प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) व्यक्ति एक-दूसरे की ओर क्या देखकर आकर्षित होते हैं?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
(ख) प्रस्तुत गद्यांश के रेखांकित अंश में यह बताया गया है कि एकसमान रुचि व स्वभाव के लोगों में ही मित्रता नहीं हो सकती है, बल्कि समाज में इसके विपरीत दो भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्तियों में भी मित्रता देखने को मिलती है।
(ग) प्रस्तुत गद्यांश के अनुसार, व्यक्ति समाज में विभिन्नता देखकर ही एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। वस्तुत: जिस व्यक्ति में जो गुण नहीं होता, जब वह उस गुण को दूसरे व्यक्ति में पाता है, तो वह उसकी ओर आकर्षित हो जाता है; जैस-कमजोर व्यक्ति शक्तिशाली का तथा धीर व्यक्ति उत्साही का साथ पाकर खुश हो जाता है।
5. मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य 5 करते हों या एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यकं या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे। दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। [2023]
प्रश्न
(क) प्रस्तुत अवतरण का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) राम और लक्ष्मण के स्वभाव में क्या अन्तर था?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
(ख) प्रस्तुत गद्यांश के रेखांकित अंश के अनुसार, लेखक यह बताना चाहते हैं कि सच्ची मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक-सा कार्य करते हों या समान रुचि के हों, भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति व स्वभाव वाले व्यक्ति भी आपस में मित्र हो सकते हैं।
(ग) राम और लक्ष्मण के स्वभाव में यही अन्तर है कि राम धैर्यशाली और शान्त प्रवृत्ति के थे, परन्तु लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, फिर भी दोनों में अत्यन्त गहरा प्रेम था।
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि यह आवश्यक नहीं है कि मित्रता में परस्पर विचार, कार्य या रुचि मिलते हों। भले ही दो व्यक्तियों के स्वभाव अलग-अलग हों, लेकिन मित्रता में यह सब नहीं देखा जाता। मित्रता किन्हीं भी भिन्न-भिन्न विचारों के व्यक्तियों के बीच हो सकती है।
6. मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है- “उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।” यह कर्त्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़-चित्त और सत्य संकल्प का हों। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए, जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हो, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम स्वयं को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा। M. Imp. [2022, 18, 14, 12]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) ‘मित्र का कर्तव्य स्पष्ट कीजिए।
(घ) हमें किस प्रकार के मित्र को महत्त्व देना चाहिए?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत्।
(ख) शुक्ल जी कहते हैं कि सहायता करना, उत्साहित करना व मनोवल बढ़ाने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, जो स्वयं भी दृढ़ इच्छाशक्ति वाला, परिश्रमी तथा सत्य संकल्पों वाला हो। अतः मित्र बनाते समय हमें ऐसे ही व्यक्ति को ढूँढना चाहिए, जो हमसे भी अधिक साहसी, परिश्रमी, दृढ़ इच्छाशक्ति वाला व उच्च आत्मबल वाला हो। यदि ऐसा मित्र मिल जाता है, तो फिर हमें उसका साथ इस प्रकार देना चाहिए; जैसे – वानरराज सुग्रीव ने श्रीराम का आश्रय ग्रहण किया और फिर कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। मित्र का चयन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मित्र ऐसा हो, जिसकी समाज में प्रतिष्ठा व सम्मान हो, जो निश्छल व निष्कपट हृदय का हो, स्वभाव से मृदुल हो, परिश्रमी हो, सभ्य आचरण वाला हो, सत्यनिष्ठ हो अर्थात् सत्य का आचरण करने वाला हो। ऐसे व्यक्ति पर हम यह विश्वास कर सकते हैं कि हमें उससे किसी प्रकार का धोखा नहीं मिलेगा।
(ग) सच्चे मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र को निम्नलिखित गुणों से अवगत कराए
(i) शिष्ट आचरण करने की सीख दे ।
(ii) सत्यनिष्ट बनने की प्रेरणा दे।
(iii) आलस्य छोड़ उद्यमी बनने में सहयोग दे ।
(iv) बुरे मार्ग से हटाकर अच्छे मार्ग पर ले जाए।
(घ) जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो, प्रतिष्ठित हों और शुद्ध हृदय वाले हों, मृदुल, पुरुषार्थी, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, साथ ही विश्वासपात्र भी हों, हमें ऐसे मित्रों को महत्त्व देना चाहिए।
7. उनके लिए न तो बड़े-बड़े वीर अद्भुत कार्य कर गए हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर-तरंगों में गम्भीर रहस्य का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषय में ही लिप्त है, जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा, जो तरस न खाएगा? Imp [2020, 19]
प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) लेखक किस व्यक्ति पर तरस खाने की बात कह रहा है?
(घ) हमें किस प्रकार के प्राणियों का साथ नहीं देना चाहिए?
उत्तर
सन्दर्भ पूर्ववत् । (ख) शुक्ल जी कहते हैं कि ऐसे हृदयहीन लोग प्रकृति के सौन्दर्य का भी आनन्द नहीं ले सकते, जिनको बाग-बगीचों में खिले सुन्दर फूलों का सौन्दर्य व कल-कल ध्वनि से बहने वाले झरनों व नदियों की मधुर ध्वनि भी अपनी ओर आकृष्ट नहीं करती, जो सागर में उठने वाली अनन्त तरंगों के रहस्यों से भी अनजान हैं, जो लोग परिश्रम करने में भी प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते, जिनके हृदय में प्रेम की भावना नहीं है तथा जिनके मन में सुख, सहयोग तथा स्नेह से प्राप्त होने वाली शान्ति का सर्वथा अभाव रहता है, ऐसे लोग मित्रता करने के योग्य नहीं होते हैं। जो लोग केवल विषयवासनाओं में फँसे हैं तथा इन्द्रिय-सुख को ही सर्वोपरि मानकर उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, जिनका हृदय गन्दे व घृणित विचारों से सदैव युक्त रहता है, ऐसे लोग दिन-प्रतिदिन अपने बुरे विचारों व बुरे आचरण के कारण विनाश की ओर ही अग्रसर होते हैं तथा अवनति व अज्ञान के दल-दल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं, जिन्हें देखकर सभी को उन पर दया आती है। ऐसे विनाश व पतन की ओर जाने वाले लोगों के साथ कभी भी मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने गन्दे विचारों से दूसरों को केवल मार्ग से भटका ही सकते हैं। ऐसे भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति का साथ नहीं देना चाहिए।
(ग) लेखक ऐसे व्यक्तियों पर ही तरस खाने की बात कह रहा है, जो केवल विषय-वासनाओं में फँसे हैं तथा इन्द्रिय-सुख को ही सर्वोपरि मानकर उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जिनका हृदय गन्दे व घृणित विचारों से सदैव युक्त रहता है, ऐसे लोग अपने बुरे विचारों व आचरण के कारण विनाश की ओर अग्रसर होते हैं तथा अवनति व अज्ञान के दलदल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं, जिन्हें देखकर सभी को उन पर दया (तरस ) आती है।
(घ) जिन व्यक्तियों की आत्मा इन्द्रिय विषयों में लिप्त है, जो स्वार्थी हैं और जिनका हृदय कुटिलता तथा कुत्सित विचारों से परिपूर्ण है, हमें इस प्रकार के नाशोन्मुख प्राणियों का साथ नहीं देना चाहिए।
8. कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी, तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-प्रतिदिन अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी, तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी। M. Imp [2024, 19, 17, 15]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) युवा पुरुष की संगति के बारे में क्या कहा गया है?
अथवा युवा पुरुष की बुरी तथा अच्छी संगति का क्या प्रभाव पड़ता है?
(घ) अच्छी संगति के लाभों का वर्णन कीजिए ।
(ङ) कुसंग का क्या प्रभाव होता है?
अथवा कुसंग का ज्वर सबसे भयानक क्यों होता है ?
(च) ‘सुदृढ बाहु’ का क्या अर्थ है?
(छ) कुसंग की तुलना किससे की गई है?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश में सत्संगति की क्या विशेषता बताई गई है ?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत्।
(ख) आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि मानव जीवन पर संगति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। बुरे और दुष्ट लोगों की संगति घातक बुखार की तरह हानिकारक होती है । जिस प्रकार भयानक ज्वर व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्ति व स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है तथा कभी-कभी रोगी के प्राण भी ले लेता है, उसी प्रकार बुरी संगति में पड़े हुए व्यक्ति की बुद्धि, विवेक, सदाचार, नैतिकता व सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा वह उचित – अनुचित व अच्छे-बुरे का विवेक भी खो देता है। मानव जीवन में युवावस्था सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था होती है । कुसंगति किसी भी युवा पुरुष की सारी उन्नति व प्रगति को उसी प्रकार बाधित करती है, जिस प्रकार किसी व्यक्ति के पैर में बँधा हुआ भारी पत्थर उसको आगे नहीं बढ़ने देता, बल्कि उसकी गति को अवरुद्ध करता है। उसी प्रकार कुसंगति भी हमारे विकास व उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करके अवनति व पतन की ओर धकेल देती है तथा दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर अग्रसर करती है। दूसरी ओर, ‘यदि युवा व्यक्ति की संगति अच्छी होगी, तो वह उसको सहारा देने वाली बाहु (भुजा) के समान होगी, जो अवनति के गर्त में गिरने वाले व्यक्ति की भुजा पकड़कर उठा देती है तथा सहारा देकर खड़ा कर देती है और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर देती है।
(ग) युवा पुरुष यदि बुरी संगति करता है, तो विकास की अपेक्षा उसका विनाश होना तय है। यदि वह अच्छी संगति करेगा, तो उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता जाएगा।
(घ) अच्छी संगति के लाभ निम्नलिखित हैं
(i) व्यक्ति को पतन से बचाती है।
(ii) मानवीय गुणों का विकास करती है।
(iii) व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठा दिलाती है।
(iv) जीवन की रक्षा करने वाली औषधि ( दवा) के समान होती है।
(ङ) कुसंग / कुसंगति का व्यक्ति के जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है
(i) व्यक्ति पतन के गड्ढे में गिर जाता है।
(ii) व्यक्ति का सदाचार नष्ट हो जाता है तथा वह दुराचार करने लगता है।
(iii) व्यक्ति की बुद्धि व विवेक का नाश हो जाता है।
(च) ‘यहाँ ‘सुदृढ़ बाहु’ का अर्थ सहारा देने वाली उस मजबूत भुजा से है, जो मनुष्य को अवनति के गहरे गड्ढे में गिरने से बचाती है और उसे सहारा देती है।
(छ) गद्यांश में कुसंग की तुलना एक घातक बुखार से की गई है, जो मनुष्य के स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश में सत्संगति की यह विशेषता बताई गई है कि वह मनुष्य को सहारा देने वाली एक मजबूत भुजा के समान होती है, जो मनुष्य को पतनोन्मुखं नहीं होने देती । वह उसे निरन्तर उन्नति के पथ पर ले जाती है।
9. बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता, जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होती। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ीभर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं । [2017]
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(ग) ‘बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते।’ यहाँ पर ‘इसे’ शब्द द्वारा किस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर
(क) सन्दर्भ पूर्ववत्।
(ख) आचार्य शुक्ल जी कहते हैं कि जल्दी समाज में बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिनका कुछ देर का साथ भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, क्योंकि अच्छी बातों की अपेक्षा बुरी बातों का प्रभाव चंचल मन पर बहुत जल्दी पड़ता है और अधिक देर तक रहता है। कुछ लोग थोड़ी ही देर में ऐसी-ऐसी घिनौनी बातें कह डालते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के कहने या सुनने योग्य नहीं होती। उनकी बातें सामान्य व्यक्ति की बुद्धि को भी भ्रष्ट कर देती हैं और मन की पवित्रता को भी नष्ट कर देती हैं तथा हमारे मन में भी बुरे विचार पनपने लगते हैं।
(ग) प्रस्तुत पंक्ति में ‘इसे’ शब्द द्वारा उस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है, जब इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राजदरबारियों में स्थान प्राप्त नहीं हुआ, तब उसने इस प्रकार का स्थान न मिलना अपना दुर्भाग्य नहीं माना, पर दूसरे लोग इसे दुर्भाग्य मानते थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *