1st Year

अध्ययन विषयों की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। अध्ययन विषयों की प्रकृति एवं रूप का वर्णन करते हुए इसकी सीमाएँ लिखिए।

प्रश्न – अध्ययन विषयों की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। अध्ययन विषयों की प्रकृति एवं रूप का वर्णन करते हुए इसकी सीमाएँ लिखिए। 
या
अध्ययन विषयों का अर्थ बताते हुए अध्ययन विषयों की प्रकृति, विशेषताएँ एवं रूप बताइए। 
या
डिसिप्लिन से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रकृति एवं प्रकारों का वर्णन कीजिए। 
या
डिसिप्लिन की प्रकृति एवं प्रकारों का वर्णन कीजिए। दार्शनिक परिपेक्ष्य से डिसिप्लिन के आविर्भाव के सम्बन्ध में व्याख्या कीजिए | 
उत्तर- अध्ययन विषयों की अवधारणा
शिक्षा की वर्तमान अवधारणा के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए विद्यालयी पाठ्यचर्या को विषयों से सम्बन्धित ज्ञान से युक्त करने की आवश्यकता है तथा पाठ्यचर्या निर्माताओं को बालक की प्रकृति, उनके विकास, विकास के विभिन्न स्तरों पर उसकी आवश्यकताओं, अभियोग्यताओं, रुचियों, क्षमताओं, आकांक्षाओं तथा मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की अन्य प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या को निर्मित तथा संगठित करने की आवश्यकता है।

इसके साथ ही पाठ्यचर्या निर्माताओं के लिए अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली ढंग से गतिमान बनाए रखने के लिए तथा उपयुक्त अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए विषयों के ज्ञान की आवश्यकता होती है। विषयों के ज्ञान की उपेक्षा करके अधिगम को प्रभावी नहीं बनाया जा सकता है। विद्यालयी पाठ्यचर्या वह नींव होती है जिस पर बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व आधारित होता है। उसी के माध्यम से छात्र सामाजिक मूल्यों, परम्पराओं, नैतिकता, मानक सामाजिक अपेक्षाएँ, रीति-रिवाजों से परिचित होता है। सामाजिक ज्ञान के साथ-साथ पाठ्यचर्या निर्माताओं को मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का भी ज्ञान होना चाहिए जिसका प्रयोग सभी शिक्षक किसी न किसी रूप में करते हैं। विभिन्न देशों के शैक्षिक इतिहास में इसके प्रयोग मिलते हैं। नैतिकता की जानकारी हम विभिन्न सुन्दर पौराणिक कहानियों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित करके दे सकते हैं किन्तु मनोविज्ञान तथा विशेष रूप से बाल मनोविज्ञान एवं अधिगम मनोविज्ञान के विकास के बाद ही इस ओर ध्यान दिया गया है।

यह मनोविज्ञान के प्रभाव का ही परिणाम है कि अब बालकों को ऐसी खाली बाल्टी नहीं समझा जाता है जिसमें ज्ञान भरना है बल्कि उसे जीवन्त, सृजनशील विचार युक्त संवेदनशील प्राणी के रूप में तैयार किया जाना चाहिए। इसके लिए बालक की इच्छाओं, मूलप्रवृत्तियों, अभिरुचियों तथा आकांक्षाओं एवं बौद्धिक तथा शारीरिक क्षमताओं के अनुकूल शिक्षा के विभिन्न अंगों का स्वरूप निर्धारित किया जाना चाहिए। विद्यालयी पाठ्यचर्या मनोविज्ञान से सर्वाधिक प्रभावित हुई है। मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति ने शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण पद्धति, पाठ्यक्रम, शिक्षा के संगठन तथा विषयों की अवधारणा, शिक्षक की भूमिका, अनुशासनिक ज्ञान की भूमिका आदि सभी पक्षों को नया आयाम प्रदान किया है। मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के अनुसार शिक्षा बाल केन्द्रित होनी चाहिए तथा शिक्षा के द्वारा बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन आना चाहिए। मनोविज्ञान के विकास के परिणामस्वरूप अनेक देशों में बालकों की आवश्यकताओं के आधार पर पाठ्यचर्या निर्माण का प्रयास किया जा रहा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में तो पाठ्यचर्या के विकास की आवश्यकता के रूप में एक नई दृष्टि विकसित हुई है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण बालकों के सामान्य विकास और उसे प्रदान करने वाली स्थितियों के लिए आवश्यक जैविक एवं मनोवैज्ञानिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। पाठ्यचर्या के निर्माण में बालक के अध्ययन को भी महत्त्व दिया जाने लगा है। इस कारण आज पाठ्यचर्या निर्माण के लिए पाठ्यचर्या निर्माताओं को बालकों के बारे में सही जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हो गया है। पाठ्यचर्या शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है जिसके द्वारा छात्र का पूरा व्यक्तित्त्व विकसित होता है। पाठ्यचर्या के आधार पर बालक का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं चारित्रिक सभी प्रकार का विकास करने पर बल दिया जाता है। इसी कारण विद्यालयी पाठयचर्या में विषयों के ज्ञान की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है।

अध्ययन विषय का अर्थ एवं परिभाषाएँ
Discipline अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘डिसाइपुलस’ (Discipules ) शब्द से हुई है जिसका हिन्दी में अर्थ है ‘सीखना’ या ‘आज्ञापालन (To learn or obedience ) । कुछ शिक्षाविदों का मत है कि Discipline शब्द अंग्रेजी भाषा के डिसाइपिल शब्द से उत्पन्न हुआ है और ‘डिसाइपिल’ का अर्थ है ‘शिष्य’ या छात्र (Pupil) | Discipline शब्द की उत्पत्ति Disciplina से भी मानी जाती है जिसका अर्थ है- अध्यापन (Teaching) |
The term ‘discipline’ originates from the english words disciples, which means pupil and disciplina which means teaching.

वर्तमान में शिक्षा के क्षेत्र को अध्ययन विषय (Discipline) के रूप में व्यक्त किया जाता है। अध्ययन विषय वस्तुओं तथा घटनाओं के किसी विशिष्ट क्षेत्र सम्बन्धी ज्ञान का संगठन है। इन वस्तुओं तथा घटनाओं के अन्तर्गत वे तथ्य, प्रदत्त, पर्यवेक्षण, अनुभूतियाँ आदि सम्मिलित रहती हैं जो उस ज्ञान के आधारभूत घटकों को निर्मित करते हैं। कोई ज्ञान किसी अध्ययन विषय के क्षेत्र में आता है या नहीं, इसका निर्धारण करने के लिए आधारित नियम एवं परिभाषाएँ निर्मित कर ली जाती है।

इस आधार पर अध्ययन विषयों में कुछ विशिष्ट लक्षण परिलक्षित होते हैं। ये लक्षण विश्लेषणात्मक, सरलीकरण, संश्लेषणात्मक, समन्वय एवं गत्यात्मकता आधारित होते है। इसकी दिशा संकल्पनात्मक तथा संश्लेषणात्मकं होती है साथ ही प्रत्येक अध्ययन विषयों की एक मान्य संरचना तथा अपना पाठ्यक्रम होता है जिसमें नवीन ज्ञान को समाहित किया जाता है अर्थात् उसके विस्तार क्षेत्र में वृद्धि करके उसे और अच्छा बनाने, अधिक वैध बनाने के सम्बन्ध में निश्चित नियम होते हैं। चूँकि प्रत्येक अध्ययन विषय का अपना इतिहास एवं परम्पराएँ होती हैं। यही बात उसकी संरचना तथा उसके नियमों के निर्धारण के लिए उत्तरदायी होती है।

शैक्षिक विषय विश्वविद्यालय के शैक्षिक विभाग की एक शाखा या क्षेत्र है, जो कि अनुसंधान और विद्वत्ता की उन्नति के लिए सूत्रित है Academic Disciplines is a field or branch of learning affiliated with an academic department of a university formulated for the advancement of research and scholarship.

शैक्षिक विषय शोधार्थी, शैक्षिक क्रिया-कलापों और विशेषज्ञों के पेशेवर प्रशिक्षण के लिए सूत्रित है। Academic Discipline is formulated for the professional training of researchers, academics and specialists.”

शैक्षिक विषय या अध्ययन का क्षेत्र ज्ञान की एक शाखा है जो कि उच्च शिक्षा के एक भाग के रूप में पढ़ाई जाती है और जिसका अनुसंधान भी किया जाता है। An academic disciplines or field of study is a branch of knowledge that is taught and researched as part of higher education.

शैक्षिक विषय के उदाहरण हैं मानव विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, पुरातत्त्व विज्ञान और शिक्षा आदि । Examples of academic disciplines are anthropology. space science, psychology. sociology, archeology. education, etc.

एंथनी बिगलेन के अनुसार, “शैक्षिक विषय या अध्ययन का क्षेत्र ज्ञान की एक शाखा है जो कि उच्च शिक्षा के एक भाग के रूप में पढ़ाई जाती है और जिसका अनुसंधान भी किया जाता है।” According to Anthony Biglan, “An academic disciplines or field of study is a branch of knowledge that is taught and researched as part of Higher education.”

डेंग जेड अनुसार, “शैक्षिक विषय विश्वविद्यालय के शैक्षिक विभाग की एक शाखा है या क्षेत्र है जो कि अनुसंधान और विद्वता की उन्नति के लिए सूत्रित है। ये शोधार्थी, शैक्षिक क्रिया-कलापों और विशेषज्ञों के पेशेवर प्रशिक्षण के लिए सूत्रित है।”

शैक्षिक विषय सीखने या अध्ययनशील अनुसंधान की एक शाखा है (मुख्यतः स्नातक और स्नात्कोत्तर स्तरों में) जो विद्यार्थियों के लिए अध्ययन के कार्यक्रम (Program of study) का ढाँचा प्रदान करती है। An academic disciplines is a branch of learning or scholarly investigation that provides a structure for the students (program of study) especially in the graduate and post graduate levels.

ग्लोसबे के अनुसार, “ज्ञान या सीखने की एक शाखा जो महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयी स्तर पर पढ़ाई जाती है या जिस पर शोध किया जाता है”।
According to Glosbe, “A branch of knowledge or learning which is taught or researched at college or university level.”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि –
  1. प्रत्येक विषयों की अपनी अध्ययन एवं अनुसन्धान विधियाँ होती हैं जो दूसरों से पृथक होती हैं।
  2. अध्ययन विषय एक मौखिक, अशाब्दिक एवं अनुपालन की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य विषय अध्ययन अथवा संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करना है।
  3. प्रत्येक अध्ययन विषयों का एक निश्चित क्षेत्र निश्चित विधि, निश्चित इतिहास एवं परम्परा होती है साथ ही प्रत्येक विषयों का अपना मूल्य एवं चिन्तन क्षेत्र होता है।
  4. प्रत्येक अध्ययन विषय में गत्यात्मकता पाई जाती है। अतः कोई भी विषय पूर्णतः स्थिर नहीं होता है। इसमें नवीन ज्ञान का समावेश होता है और उसमें परिवर्तन आते रहते हैं।
अध्ययन विषय की प्रकृति एवं विशेषताएँ 
  1. विषयों में सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण का एक विशेष आधार होता है- विषयों में केवल सूचनात्मक ज्ञान का समूह ही नहीं होता बल्कि इसमें सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण का एक निश्चित आधार होता है। प्रत्येक विषयों की कुछ आधारभूत परिकल्पनाएँ होती हैं तथा ज्ञान का समूहीकरण इन्हीं कल्पनाओं की परिधि में किया जाता है। ये आधारभूत संकल्पनाएँ ही विषयों की संरचना का निर्माण करती हैं। यह संरचना ही उसे अपना सत्य तथा सौन्दर्य प्रदान करती है तथा इसकी प्रकृति को समझने पर ही हम विषयों के वास्तविक अर्थ को ठीक ढंग से समझ पाते हैं ।
  2. प्रत्येक विषयों के विशेष उपागम, उपकरण एवं विधियाँ होती हैं- सूचनात्मक ज्ञान की खोज करने एवं उसे व्यवस्थित करने के लिए प्रत्येक विषयों के अपने विशिष्ट उपागम, विशिष्ट उपकरण एवं विशिष्ट विधियाँ होती हैं। ये उन विषयों की विधि कहलाती है। विषयों का पाठ्यक्रम पक्ष उसके विधि पक्ष से इतनी गहराई से जुड़ा होता है कि उन्हें अलग रूप में देखा और समझा नहीं जा सकता है। विषयों की भाँति पारस्परिक संगति एवं समन्वय ज्ञान का एक अनिवार्य तथ्य है ।
  3. विषयों में नवीन ज्ञान का स्वागत होता है – तीसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि विषयों में कोई स्थिरता नहीं होती। उसमें सदैव नवीन ज्ञान का समावेश होता रहता है तथा उसमें निरन्तर बदलाव आते रहते हैं। इस प्रकार की गत्यात्मकता विषयों का आवश्यक लक्षण होती है। तकनीकी के प्रभाव तथा ज्ञान के विस्तार के कारण गत्यात्मकता विषयों में सदैव बनी रहती है। विषयों में गत्यात्मकता होने के कारण ही विकास की सम्भावनाएँ निहित होती हैं ।
नवीन सूचनात्मक ज्ञान के समावेश के कारण होने वाले परिवर्तनों से भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन वे होते हैं जो नवीन तथ्यों के प्रकाश में आने या प्राचीन तथ्यों के नए अर्थ विकसित होने से हो जाते हैं। इन परिवर्तनों के कारण नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी जरूरी हो जाता है। इसके अलावा प्रायः पुरानी समस्याओं का समाधान भी नई समस्याओं को जन्म देता है। इस तरह के परिवर्तन समस्त विषयों में होते हैं। यह पृथक बात है कि कुछ विषयों में इन परिवर्तनों की गति धीमी होती है और कुछ में तीव्र होती है परन्तु यह सम्भव नहीं है कि परिवर्तन न हों।

उपर्युक्त तर्कों के आधार पर वर्तमान समय में विषयों की सर्वमान्य परिभाषा इस प्रकार हैं –

“वस्तुओं तथा घटनाओं के किसी विशिष्ट क्षेत्र सम्बन्धी ज्ञान के संगठन को विषय कहा जाता है। इन वस्तुओं तथा घटनाओं के अन्तर्गत वे तथ्य, प्रदत्त, पर्यवेक्षण अनुभूतियाँ भी सम्मिलित रहती हैं जो उस ज्ञान की आधारभूत घटनाओं को निर्मित करती हैं। कोई ज्ञान विषयों के क्षेत्र में आता है या नहीं, इसका निर्धारण करने के लिए उस पर आधारित नियम एवं परिभाषाएँ निर्मित कर ली जाती हैं।” इस परिभाषा के आधार पर विषयों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हो सकती हैं –
  1. विषयों का अपना मूल्य एवं विशिष्ट चिन्तन क्षेत्र होता है। कुछ विषय आध्यात्मिक क्षेत्र से सम्बन्धित चिन्तन रखते हैं तो कुछ आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं ।
  2. विषयों की मान्य संरचना होती है। उसकी परिधि उसी संरचना से सम्बन्धित होती है ।
  3. विषयों का अपना इतिहास एवं परम्परा होती है तथा यही बात उसकी संरचना करने तथा उसके नियमों के निर्धारण के लिए उत्तरदायी होती है। प्रत्येक अध्ययन विषय दूसरे अध्ययन विषय से अपने इतिहास तथा परम्पराओं के कारण भिन्न महत्त्व रखते हैं ।
  4. विषयों का अपना पाठ्यक्रम (Syllabus Subjects ) होता है तथा उसमें नवीन ज्ञान को समाहित करने के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम होते हैं विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम (syllabus) भिन्न-भिन्न होते हैं उसमें सभी प्रकार के ज्ञान को सम्मिलित नहीं किया जा सकता है उसके सम्बन्ध में कुछ नियम होते हैं जिनका पाठ्यचर्या निर्माताओं को पालन करना पड़ता है।
  5. विषयों की अपनी अध्ययन सामग्री तथा अनुसन्धान विधियाँ होती हैं जो दूसरे विषयों से भिन्न होती हैं ।
अध्ययन विषय के प्रकार / रूप
  1. बहु – अध्ययन विषय (Multi-Disciplinary ) – इसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक अध्ययन विषयों का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए- एम.बी.ए., एम.सी.ए. बी. टेक. एवं विधि ।
  2. अन्तः – अध्ययन विषय (Inter-Disciplinary ) – अध्ययन विषय के मध्य या उससे परे ज्ञान में विस्तार अन्तः अध्ययन विषय के अन्तर्गत रखा जाता है। उदाहरण के लिए – गृह विज्ञान, वाणिज्य |
  3. ट्रान्स अध्ययन विषय (Trans Disciplinary) – ट्रान्स अध्ययन विषय से अभिप्राय सभी अध्ययन विषयों के संयुक्त प्रयास द्वारा नवीन ज्ञान का निर्माण करना ।
  4. क्रॉस अध्ययन विषय ( Cross Disciplinary) – यह वह ज्ञान है जो किसी एक अध्ययन विषय को स्पष्ट करता है परन्तु यह किसी अन्य अध्ययन विषय से सम्बन्धित होता है। जैसे-संगीत की भौतिकी (Physics of Music) एवं साहित्य की राजनीति (Politics of Literature)
अध्ययन विषय की सीमाएँ (Limitations of Disciplines) 
  1. विषयों की संरचना का कोई ठोस एवं निश्चित आधार न होने के कारण सिद्धान्त तथा व्यवहार में अन्तर बढ़ जाता है। रह गयी है |
  2. ज्ञान के असीम भण्डार को देखते हुए पाठ्यचर्या में ज्ञान के सभी प्रमुख उपखण्डों को समाहित कर पाना सम्भव नहीं है। अतः इसके दो विकल्प दिखाई पड़ते हैं या तो चयन प्रक्रिया के माध्यम से कुछ उपखण्डों को छोड़ दिया जाए और कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण उपखण्डों को शामिल कर लिया जाए अथवा उन्हें व्यापक क्षेत्रीय इकाइयों में व्यवस्थित किया जाए ।
  3. पाठ्यचर्या में भिन्न-भिन्न विषयों का ही महत्त्व रह जाने के कारण पाठ्यचर्या के सामान्य विशेषज्ञों की इनके निर्माण तथा विकास कार्य में कोई प्रभावशाली भूमिका नहीं दूसरी ओर किसी क्षेत्र विशेष में विशेषज्ञता प्राप्त होने से ही, कोई व्यक्ति पाठ्यचर्या विकास कार्य में सहभागी होने का अधिकारी नहीं होता है। अतः इससे पाठ्यचर्या के संगठन में शिथिलता एवं बिखराव आने की अधिक सम्भावना है।
  4. इसमें शामिल किए जाने वाले विभिन्न विषयों के मध्य पारस्परिक समन्वय में कमी की सम्भावना रहती है। इस कारण यह पाठ्यचर्या ज्ञान के अत्यधिक असम्बद्ध उपखण्डों का एक पुंज मात्र बनकर रह जाएगा।
  5. इस प्रकार की पाठ्यचर्या में विभिन्न विषयों के बीच अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान के लिए खींचतान भी हो सकती है जिससे पाठ्यचर्या में असन्तुलन उत्पन्न हो सकता है।
  6. यह उपागम, पाठ्यचर्या में पृथक-पृथक विषयों पर अधिक बल देता है। चूँकि विभिन्न विषयों के साथ-साथ सम्पूर्ण पाठ्यचर्या का भी अपना महत्त्व है तथा सम्पूर्ण पाठ्यचर्या विभिन्न विषयों का केवल समूह ही नहीं होता है । अतः इस उपागम में सम्पूर्ण पाठ्यचर्या पर केवल सामान्य ध्यान देने या उसकी पूर्ण उपेक्षा हो जाने का भय है।

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