1st Year

अध्ययन विषयों के आधार प्रस्तुत करते हुए शैक्षिक विषयों की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए | Presenting the basis of Disciplines, highlight the need and importance of Disciplines.

प्रश्न  – अध्ययन विषयों के आधार प्रस्तुत करते हुए शैक्षिक विषयों की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए |
Presenting the basis of Disciplines, highlight the need and importance of Disciplines.
या
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए – 
Write short notes on the following
(1) शिक्षक के लिए  अध्ययन विषयों का महत्त्व (Importance of Disciplines for Teacher)
(2)  शिक्षार्थी के लिए अध्ययन विषयों का महत्त्व (Importance of Disciplines for Student)
(3) पाठ्यचर्या के लिए अध्ययन विषयों का महत्त्व (Importance of Disciplines for Curriculum) 
उत्तर – अध्ययन विषयों के आधार (Basis of Disciplines) 
  1. परम्परागत आधार एवं विषय- अध्ययन विषयों के परम्परागत आधार के अनुसार अध्ययन विषयों को प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी वर्गों में रखा जाता है। इन वर्गों के कई उपखण्ड होते हैं जिन्हें अध्ययन विषयों के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वानों ने इसे दोषपूर्ण एवं भ्रामक कहा है। उनकी दृष्टि से ऐसे अनेक विषय हैं जिनके वर्ग का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है। उदाहरण के लिए- भूगोल विषय को कुछ लोग सामाजिक विज्ञान वर्ग में सम्मिलित करते हैं जबकि कुछ प्राकृतिक विज्ञान वर्ग में इसे शामिल करते हैं। इसी प्रकार इतिहास एक ऐसा विषय है जिसे कुछ लोग सामाजिक विज्ञान वर्ग का मानते हैं जबकि कुछ लोग मानविकी वर्ग का मानते हैं। इस विषय को सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी दोनों वर्गों में शामिल किया जाता है। इसी प्रकार की कठिनाइयाँ कुछ अन्य विषयों के वर्गों के निर्धारण में आती हैं। परम्परागत आधार पर तीन अध्ययन विषयक क्षेत्र निकलते हैं-
    1. प्राकृतिक विज्ञान वर्ग,
    2. सामाजिक विज्ञान,
    3. मानविकी वर्ग ।
  2. कार्यात्मक आधार एवं विषय-अध्ययन विषयों को कार्यों के आधार पर भी समझा जा सकता है। इसके अनुसार जो विषय मूलतः खोज पर आधारित होता है उसे प्राकृतिक विज्ञान वर्ग क्षेत्र के अन्तर्गत रखते हैं। इसके विपरीत जो विषय मुख्यतः गुण-अवगुण पर आधारित होता है उसे मानविकी वर्ग के अन्तर्गत रखते हैं। इसके अतिरिक्त जिन विषयों का निर्णय पक्ष अधिक प्रबल होता है उनको सामाजिक विज्ञान वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता हैं। कार्यात्मक आधार पर भी तीन विषय वर्ग माने जाते हैं-
    1. प्राकृतिक विज्ञान वर्ग,
    2. मानविकी वर्ग,
    3. सामाजिक विज्ञान वर्ग ।
  3. मानवीय व्यवहार का आधार यह विषय मानवीय व्यवहार पर आधारित है। इसके अन्तर्गत मानव के चार व्यवहार प्रतिमानों के अनुसार विषयों को चार वर्गों में बाँटा गया है-
    1. तर्कात्मक वर्ग (Logical Group) – इसमें तर्क को महत्त्व दिया जाता है इसके अन्तर्गत गणित तथा भाषाओं को रखा जाता है। दूसरे शब्दों में इस विषय का सम्बन्ध गणित एवं भाषा से माना जाता है।
    2. प्रयोगात्मक वर्ग (Experimental Group)- इसके अन्तर्गत परम्परागत प्राकृतिक विज्ञान को सम्मिलित किया गया है।
    3. नैतिकतात्मक वर्ग (Moral Group) – इसके अन्तर्गत इतिहास तथा धार्मिक विषय, साहित्य आदि विषय शामिल किए जाते हैं।
    4. सौन्दर्यात्मक वर्ग (Aesthetical Group) – विषय के इस वर्ग में संगीत एवं ललित कलाओं, साहित्य आदि विषयों को सम्मिलित किया गया है।
अतः स्पष्ट है कि अध्ययन विषयों के क्षेत्रों तथा विभिन्न विद्यालयी विषयों में सम्बन्ध पाया जाता है। अध्ययन विषयों के वर्ग निर्धारण में भी उसका इतिहास तथा उसकी परम्परा महत्त्वपूर्ण होती है तथा इसी आधार पर विषयों को विभिन्न वर्गों में रखा जाता है और प्रत्येक वर्ग के कई उपखण्ड होते हैं जो विषय कहलाते हैं। इन विषयों का अपने वर्गों से सह-सम्बन्ध पाया जाता है। यद्यपि कुछ विषय ऐसे भी होते हैं जो दो वर्गों में शामिल हो जाते हैं। इसी कारण कुछ विद्वान विषय के विभिन्न क्षेत्रों को अधिक तार्किक तथा वैज्ञानिक नहीं मानते हैं ।

अध्ययन विषयों की आवश्यकता (Need of Disciplines)

  1. आवश्यकताओं की पूर्ति राष्ट्रीय विचारशील, सामाजिक, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक विचारों की पूर्ति हेतु विषयों के ज्ञान की आवश्यकता होती हैं।
  2. उद्देश्यों का निर्धारण-विषयों के ज्ञान की आवश्यकता होती है क्योंकि इसकी सहायता से ही ग्रेड, विशिष्ट अवस्था एवं शिक्षा स्तर पर शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को निर्धारित किया जा सकता है।
  3. रूप देने में विषयों के ज्ञान की आवश्यकता विशेष रूप से क्रिया – केन्द्रित, छात्र केन्द्रित, अनुभव केन्द्रित, जीवनकेन्द्रित, विषय- केन्द्रित एवं सन्तुलित पाठ्यचर्या के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  4. उपयुक्तता मिलान-विषयों के ज्ञान का विकास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक संसाधनों, शिक्षण-अधिगम स्थितियों एवं छात्रों की आवश्यकता के अनुसार निर्मित किया जाता है।
  5. अधिगम अनुभवों का चयन एवं गठन विषयों के ज्ञान के द्वारा अधिगम अनुभवों के उचित चयन एवं गठन को पाठ्यक्रम एवं अन्य क्रियाओं को रूप देने के लिए गठित किया जाता है।
  6. नियोजकों तथा प्रशासकों का सुझाव-विषयों के ज्ञान नियोजकों तथा प्रशासकों को विषयों के ज्ञान के क्रियान्वयन के लिए मानवीय एवं भौतिक संसाधनों की व्यवस्था करने तथा शिक्षण-अधिगम वातावरण को प्रभावी बनाने के लिए सहायता प्रदान करता है।
  7. शिक्षण अधिगम विधियाँ, सामग्री एवं रीतियाँ- छात्रों को उपयुक्त शिक्षण-अधिगम विधियों, नीतियों, प्रविधियों तथा रीतियों को निर्धारित करने में सहायता प्रदान करता है।
अध्ययन विषयों का महत्त्व (Importance of Disciplines)
विद्यालय प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विषयों के ज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है। एक विद्यालय का उत्थान तथा पतन दोनों ही विषयों के ज्ञान पर निर्भर है। जिन विद्यालयों में विषयों का अभाव होता है, वहाँ शिक्षा सुचारू रूप से क्रियान्वित नहीं की जा सकती है। विषयों के ज्ञान की आवश्यकता शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यचर्या तीनों को होती है तथा विषयों के ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य इनकी कार्य व्यवस्था में उन्नति एवं सुधार करना है। अतः विषयों के ज्ञान के महत्त्व को इन तीनों के सन्दर्भ में निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है

शिक्षक के लिए अध्ययन विषयों का महत्त्व

  1. शैक्षिक समस्याओं के समाधान की योग्यता- विषयों के ज्ञान के माध्यम से ही एक शिक्षक शैक्षिक समस्याओं का समाधान कर सकता है। अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि किसी प्रकरण को स्पष्ट करने में उसी संकाय के अन्य विषयों की सहायता की आवश्यकता होती है या किसी अन्य संकाय के विषयों की सहायता की आवश्यकता होती है। इस स्थिति में अन्तः विषयों की प्रक्रिया का उपयोग करके शिक्षक उस प्रकरण को सरल एवं स्वाभाविक रूप में छात्रों को समझा देता है।
  2. शिक्षण कला में प्रभावशीलता आधुनिक युग में ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हो गया है। ऐसे में जब एक शिक्षक द्वारा शिक्षण कार्य किया जाता है तो छात्र द्वारा उससे वह प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं जो कि अन्य विषय से सम्बन्धित हो। इस स्थिति में यदि शिक्षक ने अन्य विषयों के विषय में ज्ञानार्जन किया है तभी वह छात्र के प्रश्नों का उत्तर है सकेगा तथा अपनी शिक्षण कला को प्रभावी बना सकेगा।
  3. प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का विकास-विषयों के ज्ञान के आधार पर ही प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का जन्म होता है। विभिन्न विषयों में शिक्षक द्वारा उन शिक्षण विधियों का उपयोग किया जाता है जो कि क्रमबद्ध एवं सुसंगठित रूप में स्तरानुकूल होती है एवं अधिगम गतिविधियों के निर्धारण में सहायक होती है जिससे छात्रों का अधिगम स्तर उच्च तथा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावी रूप में सम्पन्न होती है।
  4. स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास-विषयों के ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य शिक्षकों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास करना होता है। एक शिक्षक से जब कोई छात्र प्रश्न करता है तो वह यह नहीं जानता है कि उसके शिक्षक का विषय क्या है? वह मात्र अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहता है। प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर यह तथ्य व्यापक रूप से देखा जा सकता है। इस स्थिति में एक शिक्षक तमी सफल हो सकता है जब वह विभिन्न विषयों का अध्ययन करता हो।
  5. सर्वोत्तम दायित्व निर्वहन की योग्यता का विकास-विषयाँ के ज्ञान के आधार पर शिक्षक द्वारा अपने दायित्व का ठीक से निर्वहन किया जा सकता है। अपने ज्ञान के आधार पर ही एक शिक्षक विभिन्न विषयों के मध्य सह-सम्बन्ध स्थापित करता है तथा किसी भी प्रकरण को स्पष्ट करता है। जैसेसामाजिक अध्ययन का शिक्षक इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र एवं समाजशास्त्र के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए शिक्षण अधिगम को प्रभावी बनाता है।
  6. ज्ञान के प्रति व्यापक दृष्टिकोण का विकास-विषयों के ज्ञान के माध्यम से ही शिक्षक का ज्ञान के प्रति व्यापक दृष्टिकोण विकसित होता है। उसको विविध प्रकार के प्रकरणों को स्पष्ट करने तथा सामाजिक एवं शैक्षिक समस्याओं के समाधान में विविध विषयों एवं संकार्यों का सहारा लेना पड़ता है जिससे शिक्षक का ज्ञान के प्रति व्यापक दृष्टिकोण विकसित होता है। इसके आधार पर विज्ञान संकाय से सम्बन्धित शिक्षक कला संकाय तथा कला संकाय का शिक्षक विज्ञान संकाय के विषयों के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
  7. सामाजिक समस्याओं के समाधान की योग्यता- विद्यालय में सामान्यतः सामाजिक समस्याएँ कम ही आती हैं परन्तु जब आती हैं तो वे काफी विकट स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। ऐसे में शिक्षक को विषयों का सहारा लेना पड़ता है। विविध संकार्यों एवं उनके विषयों के समेकित ज्ञान से समस्या का समाधान सम्भव हो जाता है। जैसे- जातिवाद, छुआछूत, बाल-विवाह आदि की समस्या तथा उसका समाधान।
  8. सन्तुलित ज्ञान का अर्जन एवं शिक्षण विषयों के आधार पर ही सन्तुलित ज्ञान का अर्जन शिक्षक द्वारा किया जाता है। वह किसी भी शैक्षिक, व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्या के समाधान के लिए उसके विविध पक्षों का अध्ययन करता है इसके उपरान्त वह समस्या का समाधान करता है इस प्रकार वह ज्ञान का सन्तुलित रूप प्राप्त करता है तथा शिक्षण कार्य भी सन्तुलित रूप में करता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुशासनिक ज्ञान की आवश्यकता एक शिक्षक के लिए अनिवार्य रूप से होती है। इस प्रकार विषयों के ज्ञान द्वारा ही एक शिक्षक, सर्वोत्तम शिक्षक बनता है।

शिक्षार्थी के लिए अध्ययन विषयों का महत्त्व

  1. सरल एवं स्वाभाविक अधिगम-विषयों के ज्ञान के अन्तर्गत अधिगम गतिविधियों में क्रमबद्धता का समावेश होता है। जैसे- प्राथमिक स्तर पर खेल के माध्यम से, उच्च प्राथमिक स्तर पर परियोजना एवं प्रयोग विधि से तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर छात्रों को व्याख्यान विधि से अधिगम कराया जाता है। इससे सरल एवं स्वाभाविक अधिगम होता है।
  2. उपयोगी ज्ञान का अर्जन विषयों के ज्ञान के माध्यम से छात्रों को उपयोगी ज्ञान की जानकारी प्राप्त होती है क्योंकि विषयों के ज्ञान का प्रमुख आधार उपयोगिता में वृद्धि करना होता है। अतः सभी संकायों के मध्य एक विशेष सम्बन्ध होता है। जैसे- प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान एवं भाषाशास्त्र तीनों के मध्य एक ही सम्बन्ध तथा उद्देश्य है और वह है छात्रों को उपयोगी. ज्ञान प्रदान करना तथा उनका सर्वांगीण विकास करना ।
  3. अधिगम का स्थानान्तरण – छात्रों को यह ज्ञान होता है कि प्रत्येक विषय का सम्बन्ध अपने संकाय के अन्य विषयों से घनिष्ठ रूप से होता है तथा अनेक अवसरों पर इसका सम्बन्ध अन्य संकायों के विषयों से भी होता है इसलिए वह प्राप्त अधिगम को दूसरे विषयों में भी प्रयोग करते हैं। जैसे- गणित के ज्ञान का भौतिक विज्ञान के संख्यात्मक प्रश्नों को हल करने में उपयोग तथा विज्ञान के ज्ञान का समाज में प्रयोग। इससे एक ओर अधिगम में स्थायित्व आता है तो दूसरी ओर अधिगम के स्थानान्तरण की योग्यता छात्रों में विकसित होती है।
  4. विषयों के अध्ययन में सरलता- छात्रों के समक्ष जब एक अनुशासनिक व्यवस्था के आधार पर विषय प्रस्तुत किए जाते हैं तो उनको पढ़ने में सरलता का अनुभव होता है। जैसे- सामाजिक विज्ञान के विषयों का अध्ययन करने में विषयों के ज्ञान से सम्बन्धित विभिन्न गतिविधियों एवं तथ्यों का समावेश होता है जिसमें एक विज्ञान दूसरे विज्ञान से सह- सम्बन्ध रखता है।
  5. सामाजिक समस्याओं का समाधान – छात्र समाज में रहकर अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याओं का सामना करता है। विषयों के ज्ञान के आधार पर वह सामाजिक समस्याओं का समाधान कर सकता है। जैसेजाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत आदि ऐसी ही प्रवृत्तियाँ हैं जिसका छात्रों को भी सामना करना पड़ता है परन्तु अपने ज्ञान के द्वारा वह यह सिद्ध कर सकता है कि ये मात्र सामाजिक बुराइयाँ हैं और कुछ नहीं।
  6. व्यापक अधिगम-विषयों के ज्ञान के माध्यम से छात्रों के लिए व्यापक अधिगम की व्यवस्था की जाती है। विषयों के ज्ञान के आधार पर विविध विषयों के पाठ्यक्रम एवं उनसे सम्बन्धित गतिविधियों में अन्तः अनुशासनिक प्रवृत्ति पाई जाती है जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक गतिविधि किसी दूसरी गतिविधि से सम्बन्धित होती है तथा उनके मध्य एक सम्बन्ध पाया जाता है। इस प्रकार छात्रों को व्यापक स्तर पर अधिगम प्राप्त होता है।
  7. समन्वित अधिगम-विषयों के अन्तर्गत प्रत्येक विषय का सम्बन्ध दूसरे विषय से होता है तथा एक संकाय का सम्बन्ध दूसरे संकाय से होता है। जब किसी समस्या का समाधान खोजा जाता है या किसी नवीन सिद्धान्त, नियम या ज्ञान का सृजन किया जाता है तो इन सभी विषयों एवं संकायों का समन्वित अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन को समन्वित अध्ययन कहते हैं। विषयों की सर्वोत्तम उपयोगी विशेषता यही मानी जाती है।
  8. विषयों के चुनाव में उपयोगिता- विषयों के माध्यम से छात्रों को यह ज्ञात होता है कि किस संकाय में उसको कौन से विषय पढ़ने हैं। इस आधार पर वह अपने रुचिपूर्ण विषयों का चुनाव करते हैं। उसी ज्ञान के आधार पर ही छात्रों के समक्ष समानता एवं उपयोगिता के आधार पर विषयों का समूह प्रस्तुत किया जाता है जिसे विज्ञान संकाय, कला संकाय एवं वाणिज्य संकाय आदि के नामों से जाना जाता है। इनसे छात्रों को उचित एवं उपयोगी विषय चुनने में सहायता प्राप्त होती है तथा छात्रों का शैक्षिक विकास होता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि विषयों का प्रमुख उद्देश्य छात्रों के समक्ष ऐसी अधिगम परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है जिनसे उनका अधिगम स्तर उच्च हो तथा छात्रों के सर्वागीण विकास का मार्ग प्रशस्त हो ।

पाठ्यचर्या के लिए अध्ययन विषयों का महत्त्व Importance of Disciplines for Curriculum) 

  1. उपयोगी पाठ्यचर्या का विकास – विषयों के माध्यम से उपयोगी पाठ्यचर्या का विकास किया जाता है। विषयों के आधार पर पाठ्यचर्या में समसामयिक समस्याओं का समाधान करने वाली गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है तथा जागरूकता उत्पन्न करने वाले प्रकरणों को भी सम्मिलित किया जाता है। इसके साथ ही पाठ्यचर्या में सामाजिक अपेक्षाओं का भी ध्यान रखा जाता है क्योंकि उपयोगी तथ्य एक-दूसरे से सहसम्बन्ध रखते हैं।
  2. क्रमबद्ध पाठ्यचर्या का विकास क्रमबद्ध पाठ्यचर्या का श्रेय विषयों को ही जाता है। विषयों के आधार पर ही पाठ्यचर्या में तथ्य को किस प्रकार एवं किस स्थान पर रखना है, यह निर्धारित होता है। जैसे- लोकतन्त्र के सन्दर्भ में किसी तथ्य को स्पष्ट करने से पूर्व लोकतन्त्र का अर्थ, अवधारणा का ज्ञान होना आवश्यक है। इसके उपरान्त ही अन्य तथ्य प्रस्तुत किए जाने चाहिए।
  3. विषयवस्तु का समन्वयन विषयों के आधार पर विषयवस्तु में उचित समन्वयन स्थापित किया जाता है। जैसे- भौतिक एवं रासायनिक दोनों परिवर्तन रसायन विज्ञान के विषय हैं तो उनको रसायन विज्ञान के पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाएगा तथा रसायन विज्ञान को विज्ञान संकाय में सम्मिलित किया जाएगा। विज्ञान संकाय का प्रमुख उद्देश्य समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना है तथा इन प्रकरणों की व्याख्या सामाजिक सन्दर्भ में भी की जाती है।
  4. जीवन से सम्बन्धित पाठ्यचर्या का विकास विषयों के आधार पर पाठ्यचर्या में उन तथ्यों एवं घटनाओं का समावेश किया जाता है जो कि सामान्य रूप से छात्रों के जीवन से सम्बन्धित होती हैं। प्रत्येक छात्र का उद्देश्य जीवन की समस्याओं का समाधान करना होता है। उस कार्य के लिए वह अध्ययन करता है। अतः प्रत्येक पाठ्यचर्या का निर्माण जीवन की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता के सन्दर्भ में किया जाता है।
  5. सामान्य से विशिष्ट की ओर पाठ्यचर्या का विकास- सामान्य से विशिष्ट की ओर पाठ्यचर्या का विकास विषयों का ही परिणाम है। इसमें प्रत्येक सामान्य तथ्य को पहले प्रस्तुत किया जाता है इससे सामान्य तथ्यों के विषय में छात्रों की रुचि जाग्रत होगी क्योंकि छात्र इनके बारे में जानता है। इसके उपरान्त विशिष्ट तथ्यों को पाठ्यक्रम में स्थान प्रदान किया जाता है, जैसे- गणित के पाठ्यक्रम में पुनरावृत्ति के माध्यम से सामान्य गुणा, भाग, जोड़ एवं घटाव की क्रियाओं के प्रस्तुतीकरण के बाद अन्य नवीन तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है।
  6. सिद्धान्त एवं व्यवहार की समन्वित पाठ्यचर्या – विषयों के माध्यम से सिद्धान्त एवं व्यवहार की समन्वित पाठ्यचर्या का विकास सम्भव होता है। पाठ्यचर्या में समस्त प्रकरणों एवं तथ्यों का सैद्धान्तिक स्वरूप प्रस्तुत करने के बाद उनकी व्यावहारिक उपयोगिता एवं गतिविधियों का निश्चय किया जाता है। पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ व्यावहारिक गतिविधियों का स्वरूप मानी जाती हैं।
  7. स्तरानुकूल पाठ्यचर्या का विकास-विषयों के आधार पर ही प्रत्येक स्तर के छात्रों के लिए सर्वोत्तम पाठ्यचर्या तैयार की जाती है। प्राथमिक स्तर पर सामान्य पाठ्यचर्या, प्रतिभाशाली छात्रों के लिए पाठ्यचर्या एवं मन्दबुद्धि छात्रों के लिए पाठ्यचर्या तैयार करने में विशेष ध्यान रखा जाता है। इस प्रक्रिया में पाठ्यचर्या का कठिन स्तर निर्धारित करने में विषयवस्तु के स्वरूप को भी ध्यान में रखा जाता है। पाठ्यचर्या का उद्देश्य समान होता है परन्तु उसके स्वरूप में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जाता है।
  8. शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पाठ्यचर्या का विकास-विषयों के आधार पर ही ऐसी पाठ्यचर्या निर्मित की जाती है जो कि शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति करने में सहायक सिद्ध हो, जैसे- सामाजिक अध्ययन के विषय का उद्देश्य सामाजिक गतिविधियों का छात्रों को ज्ञान कराना है, तथा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने की योग्यता प्रदान करना है।
     इस आधार पर सामाजिक अध्ययन विषय के अन्तर्गत उन सभी विषयों को पाठ्यक्रम का अंग निर्धारित किया जाता है जो इन उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार विषयों द्वारा पाठ्यचर्या के सर्वोत्तम स्वरूप का निर्धारण करके शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यचर्या तीनों के लिए विषयों का ज्ञान आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। विषयों का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा व्यवस्था को सर्वोत्तम बनाना है जिससे कि राष्ट्र, समाज एवं प्रत्येक नागरिक का सर्वांगीण विकास हो सके तभी सभी अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेंगे।

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