कला समेकित शिक्षा
कला समेकित शिक्षा
कला समेकित शिक्षा
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कला शिक्षण की आवश्यकता या महत्त्व को संक्षेप में बताएँ ।
उत्तर―कला शिक्षण की आवश्यकताएँ निम्नलिखित है :
(i) यह छात्रों को विभिन्न नवीन गतिविधियों से परिचित करवाकर उनमें नवीन व उपयोगी
रुचियों के विकास में सहायक है।
(ii) यह छात्रों के सृजनशील कौशलों को अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान कर उनकी
जिज्ञासा को बढ़ावा देने में उपयुक्त है।
(iii) यह छात्रों को भविष्य में अपने लिए एक रोजगार या व्यवहार चुनने में पृष्ठभूमि
प्रदान करने में सार्थक है।
(iv) यह छात्रों की विभिन्न व्यवहारगत लक्षणों या कमजोरियों को नियंत्रित कर उन्हें
सुधारने में लाभप्रद सावित होता है, उदाहरण के तौर पर यदि कक्षा में कोई विद्यार्थी
शर्मीले स्वभाव का व दूसरे से कम मिलजुल कर रहने वाला है तो विभिन्न कला
शिक्षण की क्रियाएँ ऐसे अवसर प्रदान करने में उपयोगी हैं, जिससे कि उस बालक
में वांछनीय परिवर्तनों को लाया जा सके।
प्रश्न 2. ललित कला व उपयोगी कला में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―ललित कला व उपयोगी कला में निम्नलिखित अंतर है:
क्र.सं. ललित कलाएँ उपयोगी कलाएँ
1. ललित कलाओं का सम्बन्ध मनुष्य के उपयोगी कलाओं का सम्बन्ध सभ्यता
सांस्कृतिक विकास, भावों को सौन्दर्यात्मक के क्रमिक विकास व लौकिक जीवन
अभिव्यक्ति व लोकोत्तर जीवन से है। से है।
2. ललित कलाएँ हमारी मानसिक उपयोगी कलाएँ हमारी दैनिक जीवन
आवश्यकताओं की सम्पूर्ति करती हैं। की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति
करती हैं।
3. ललित कलाएँ मनुष्य के जीवन को आत्मिक उपयोगी कलाएँ मनुष्य के भौतिक जीवन
आनन्द व सुख से भर देती है। के अभावों की पूर्ति करती हैं।
4. ललित कलाएँ मनुष्य को ऐसी स्थिति से उपयोगी कलाओं का व्यवहार पूर्णतया
मिलती है, जिसे परम सत्य या परमानन्द की व्यावसायिक है व केवल भौतिक जगत
स्थिति कहा जा सकता है। से ही सम्बन्धित है।
5. ललित कलाएँ आनन्द की निधि व उपयोगी कलाएँ मनुष्य के भौतिक जीवन
पारलौकिक सौंदर्य की संवाहक हैं, जो को सजाती, संवारती व जीवित रखती है।
लोकोत्तर जीवन को संवारती हैं।
6. ललित कलाएँ कल्पना के सहयोग से रूप उपयोगी कलाओं का मूल उद्देश्य
का सृजन करती हैं। सृजन ही इन कलाओं उत्पादक व उपभोक्ता के मध्य सेतु
का सार है। का कार्य करना है। यह व्यवसाय,
उत्पादक एवं बिक्री से सम्बन्धित हैं।
प्रश्न 3. त्रि-आयामी दृश्य कला क्या है? इसमें कौन-सी सामग्री का उपयोग किया
जाता है?
उत्तर―त्रि-आयामी दृश्य कलाएँ-त्रिआयामी अर्थात् तीन आयाम-लम्बाई, चौड़ाई और
गहराई (मोटाई, उभार) । मूर्ति के त्रिआयामी होने के कारण ही दर्शक शिल्प को सभी कोणों
से देख सकता है। शिल्पं निर्माण हेतु कलाकार प्राचीन काल से ही अनेक माध्यमों को प्रयुक्त
करता आया है, जिनमें मिट्टी, लकड़ी, पत्थर, लोहा, काँसा, सिरेमिक आदि प्रमुख हैं और
वर्तमान में कलाकार सृजन के प्रयास के साथ ही नवीन माध्यमों को प्रयुक्त करने हेतु भी
प्रयासरत रहा है। फाइबर, काँच, सीमेंट, कंकरीट, कपड़े, रस्सी, कागज आदि अनुपयोगी
सामग्रियों को माध्यम बनाकर भी शिल्पी शिल्पाकृतियों का सृजन कर रहा है।
प्रश्न 4. प्रदर्शन कला क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर―विद्यालयी स्तर पर छात्रों के व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन लाने के लिए प्रदर्शन
कला एक महत्त्वपूर्ण विषय है। प्रदर्शन कला द्वारा छात्रों में निम्न जीवन मूल्यों व आदर्शों
का विकास हो सकता है:
आत्मविश्वास की भावना का विकास, आत्म अभिव्यक्ति या स्वच्छन्द अभिव्यक्ति,
सौंदर्यानुभूति, सृजनात्मक की प्रवृत्ति का विकास, सहभागिता व सहयोग की भावना, दल रूप
में कार्य करने का महत्त्व, आत्म अनुशासन, सांस्कृतिक मूल्यों का विकास, सदैव अग्रसर रहने
व पहल करने की भावना का विकास, जिम्मेदारी का एहसास, समझ व सूझबूझ के साथ
कार्य करने की भावना का विकास, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास, राष्ट्रीय एकता
की भावना का विकास, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों की समझ, नैतिक मूल्यों व अच्छी आदतों की प्राप्ति
आदि । इन कौशलों के विकास को देखते हुए हम कह सकते हैं कि प्रदर्शन कला महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 5. बच्चों के लिए कला शिक्षण क्यों आवश्यक है?
उत्तर―कला सिखाने का मतलब केवल हाथ के काम में दक्षता हासिल करना नहीं होता
या कुछ चित्र और दस्तकारी की खुबसूरत चीजों का निर्माण उसका ध्येय नहीं होता है अथवा
कला-शिक्षा का अर्थ व्यक्ति के चरित्र, उसका ध्येय नहीं होता बल्कि कला-शिक्षा का अर्थ
व्यक्ति के चरित्र, उसके सामाजिक बोध और सौन्दर्य-बोध का विकास करना होता है। कला
शिक्षा में हाथ का काम (कला-कौशल) तो साधन मात्र है, साध्य तो गुण-विकास है।
कला के द्वारा हमारे जीवन में सौन्दर्य-निर्माण होता है। कला में एक नया वर्गीकरण
शुरू हुआ। कला की उस प्रवृत्ति को, जिसके द्वारा उपयोगी वस्तुएँ नहीं बनती, फाईन-आर्ट’
(ललित-कला) कहा जाने लगा। इसमें चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, कविता और वास्तुकलाएँ
आती है। वह कला जिसके द्वारा उपयोगी वस्तुओं का निर्माण होता है, उसे ‘अप्लाइट आर्ट’
(उपयोगी कला) नाम मिला। कला शिक्षण के द्वारा बालक को प्रकृति की जानकारी होती
है। वह प्रकृति को समझने लगता है। कला शिक्षण के द्वारा बालकों में संचेतना की भावना
का विकास होता है अर्थात् उसके चारों और क्या घटना घटित हो रही है, इसकी जानकारी
उसे हर पल रहती है। इससे बालकों के आँखों की शक्ति का भी विकास होता है, जिससे
उसका व्यवहारिक जीवन भी उन्नत होता है। कला शिक्षण के द्वारा बालकों में लावण्य निर्माण
भी होता है अर्थात् इसके द्वारा बच्चों को सुन्दरता का ज्ञान हो जाता है और बिना सुन्दरता
के ज्ञान के मनुष्य का जीवन निरर्थक होता है। क्योंकि सुन्दरता का ज्ञान होने पर व्यक्ति
उसे व्यर्थ नष्ट नहीं होने देता।
कला शिक्षण से बच्चों में सृजनात्मक एवं रचनात्मक क्षमता का विकास होता है। किसी
भी वस्तु को देखकर उसका चित्र बनाते हैं या आपस में चर्चा करते हैं। बच्चों की कला
को आकार देने के लिए कला शिक्षण आवश्यक है। कला शिक्षण के द्वारा बच्चा एक अच्छा
कलाकार और अच्छा इंसान बन.सकता है। इसलिए बच्चों में कला शिक्षण आवश्यक है।
प्रश्न 6. बच्चों को स्वतंत्र छोड़कर हमेशा चित्र बनाने का मौका दिया जाए तो
उनके चित्रों में किस तरह का विकास होगा?
उत्तर―बच्चों के चित्रों में क्रमशः परिवर्तन होता रहता है। उसकी अवस्थाएँ बदलती
रहती हैं। इसका कारण यह है कि बच्चा हर समय कुछ न कुछ नयी बात ग्रहण करता रहता
है। उसके हर अनुभव उसके विकास की अवस्था को थोड़ा-थोड़ा बदलते रहते हैं। कला-आल्प
प्रकरण है। कलाकार अपनी कला के जरिये अपने अंदर के अनुभव, विचार आदि को प्रकट
करता है। जिस अनुभव या विचार को वह सोचता है कि दूसरों को भी देना चाहिए, वह
अपनी कला के जरिये देने का प्रयत्न करता है। कुछ अनुभव ऐसे होते हैं, जो स्वयं हो जात
हैं। बच्चे के लिए यह भी स्वाभाविक है कि जो कुछ उसे अनुभव हो, वह उसे दूसरों को
बताये। बच्चे का और भी एक गुण है और वह है-कुछ न छिपाओं का गुण । वह जो कहना
चाहता है, कह देता है। कम उम्र में बच्चे की शब्दों की भाषा भी अविकसित रहती है।
इसलिए कला ही उसके आत्म-प्रकटन का एक मुख्य साधन हो जाती है। उसके बनाये हुए
चित्रों के द्वारा उसके भीतरी विकास का दर्शन होता है और उसका स्वगुण हमें पता चल
जाता है।
इस प्रकार बच्चों को स्वतंत्र छोड़कर हमेशा चित्र बनाने का मौका दिया जाए तो उनके
चित्रों में भीतरी गुण का विकास होता है।
प्रश्न 7.”संगीत में अपार क्षमताएँ होती है।” सिद्ध कीजिए।
अथवा, “संगीत कला, वस्तु कला और मूर्तिकला की अपेक्षा सर्वोच्च है।” कैसे ?
उत्तर―संगीत में अपार क्षमताएँ होती हैं। वह मनुष्य रुला सकता है, हँसा सकता
है, हृदय में आनन्द की हिलोरें उठा सकता है, शोक-सागर में डूबो सकता है। संगीत के
द्वारा उत्पन्न किए गए प्रभाव के माध्यम से हम क्रोध या उद्वेग के वशीभूत भी हो सकते
हैं। संगीत के द्वारा भिन्न-भिन्न भावों या दृश्यों का अनुभव कानों के माध्यम से मन को
कराया जा सकता है। पक्षियों का कलरव, पत्तियों की खड़खड़ाहट और तलवारों की झंकार
को संगीत ही हमारे कानों तक पहुंच पाता है। परन्तु अभी भी वायु का प्रचण्ड वेग. विजली
की चमक, मेघों की गड़गड़ाहट और समुद्र की लहरों के आघात आदि की पहचान संगीत
कला की परिचित सीमा से परे हैं। संगीत के द्वारा हमारी आत्मा प्रभावित होती है। संगीत
हमारे मन को अपनी इच्छानुसार चंचल अथवा शान्त कर सकता है। संगीत मन के विशेष
भावों का संचार कर सकता है। इसी कारण संगीत कला वास्तुकला और मूर्तिकला की अपेक्षा
सर्वोच्च है।
प्रश्न 8. गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर―गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों की विशेषताएँ निम्नलिखित है:
(i) गगनेन्द्रनाथ ठाकुर एक प्रगतिशील चित्रकार थे। उन्होंने डॉ. स्टैला क्रैमरिश के
प्रभाव में आकर 1923 के लगभग अनेक घनवादी प्रयोग आरंभ किए।
(ii) उन्होंने घनवादी तथा स्वप्निल शैली आदि अनेक शैलियों में चित्र बनाए।
(iii) इन चित्रों में काले फाख्ताई तथा हल्के भूरे रंगों का प्रयोग हुआ है।
(iv) उनके चित्रों में पाश्चात्य प्रभाव अधिक है और समसामयिक यूरोपीय कला की
छाप है।
(v) ‘स्वप्निल देश’ उनका प्रसिद्ध चित्र है।
प्रश्न 9.चित्रांकन में पेंसिल के महत्व को बताएं।
अथवा, विभिन्न प्रकार की पेंसिलों की विशेषताओं को बताएँ।
उत्तर―तान के शिक्षण एवं महत्त्व को समझने के लिए यदि कोई यंत्र है तो वह है
‘पेंसिल’ हलके स्लेटी रंग से प्रारम्भ होकर काजल के समान कालेपन तक इसके रंग की
क्षमता है। विशेष बात यह है कि केवल पंसिल के दबाव मात्र से हम अपनी मन पसंद
रेंज मिल जाती है, जिसकी हमें आवश्यकता है। यदि हमें अत्यन्त शीघ्रता से अपने मनोभाव
को प्रकट करना है तो हाथ की पसिल भी उतनी ही चतुराई से अपना कार्य करेगी और यदि
अत्यन्त साधना से और गम्भीरता से कार्य करना है तो पेंसिल भी उसी गांभीरता से चलेगा।
यह सारा जादू है, केवल हाधों की उंगलियों एवं उसके दबाव का।
यदि रंग करना है तो पसिल मुख्य विषयों के रेखांकनमें केवल आधार का काम करेगी।
इसके लिए केवल एच. बी. पेसिल का प्रयोग करना चाहिए। यह रेखांकन केवल मुख्य विषय
को बाँधने का कार्य करता है। यह रेखांकन केवल चित्र को पूर्व पीठिका होती है। इसमें
सिल से चित्र को पूर्णता देना नहीं होता है बल्कि केवल मानस पटल पर आए मूल चित्र
को रेखांकित किया जाता है।
इसके अतिरिक्त चित्र में तान, धरातलीय परिप्रेक्ष्य को पूर्ण महत्त्व देना है जो पेंसिल
द्वारा हल्के दबाव व पूर्ण दबाव से अत्यन्त सुन्दर छाया प्रकाश देकर चित्र बनाया जा सकता
है। ये चित्र पूर्ण बनकर किसी भी जलीय या तैलीय चित्रण से महत्व में कम नहीं होंगे!
पेंसिल अपने आप में पूर्ण है, इसे किसी सहारे की आवश्यकता नहीं । पेंसिल कार्य में जब
हम छाया प्रकाश देते हैं तो टू बी०, श्री बी., और सिक्स वी० की आवश्यकता पड़ती है।
पेंसिल एक प्रारंभिक उपकरण है, जिसके द्वारा डिजाइनर अपने विचारों की प्रथम अभिव्यक्ति
दृश्य रूप में कागज के ऊपर रेखांकित करते हैं। लिखिज (LEAD) की कोमलता और
कठोरता के आधार पर विभिन्न प्रकार की पेंसिलें होती हैं। सबसे कोमल पेंसिल B से 6B,
EB, EE श्रृंखला की पेंसिलों की कोमलता क्रमानुसार बढ़ती जाती है। HB मध्य स्तर की
पेंसिल है तथा H से 9 H शृंखला तक की पेंसिलें कठोर पेंसिल होती हैं, जो अंक बढ़ने
के साथ-साथ कठोर हो जाती है। परम्परागत छीलने वाली पेंसिलों के स्थान पर आजकल
आधुनिक क्लच पेंसिलों का प्रयोग भी किया जाता है। इन पेंसिलों में अलग से लिखिज
डाला जाता है। इन पेंसिलों में डाले जाने वाले लिखिज भी सख्त एवं नरम अलग-अलग
प्रकार के होते हैं।
प्रश्न 10. दृश्य कला की वस्तु कलम (पैन) एवं स्याही (इंक) पर संक्षिप्त टिप्पणी
करें।
उत्तर―कला अपने काल के अनुसार विविध माध्यमों तथा प्रविधियों को जन्म देती है।
इन सभी प्रविधियों को कलाकार विभिन्न माध्यमों के साथ प्रयोग करता आया है। उन्हीं में
से एक ‘पेन एंड इंक’ विधि है। इंक पेन अनेक प्रकार के होते हैं। इंक पेनों का इस्तेमात
आउट-लाइनों और छाया के लिए किया जाता है। ये अनेक प्रकार के होते हैं। उत्तम किस्म
के पेन टेक्निकल पेन कहलाते हैं, जो काफी कीमती होते हैं । सस्ते पेनों में आजकल प्लास्टिक
टिप वाले पेन भी उपलब्ध हैं, जिनके द्वारा फाइन रेखाएँ खींची जा सकती हैं। आउट लाइन
तथा छाया प्रकार के लिए इनका प्रयोग किया जाता है।
इनके अलावा फ्री हैण्ड लैटरिंग के लिए विभिन्न आकार-प्रकार के स्पीडबॉल पेन भी
आवश्यक हैं। ये डिप-इन-इंक टाइप के होते हैं। जिनको पेन होल्डर में लगाकर इस्तेमाल
किया जाता है। अन्य प्रकार के पेनों में “फाउंटेन पेन बिल्ट-इन इंक भी हैं। इनमें इंक भरी
जाती है या इंक कार्टिज प्रयोग किये जाते हैं। ये विभिन्न आकारों और प्रकारों में इंटरचेंजेविल
निबों के साथ उपलब्ध होते हैं।
राइटिंग पेन, बाल-पाइंट पेन, फेल्ट-टिप्ड पेन, ब्रॉड-टिप्ड फेल्ट पेन अब वाटर प्रुफ रंगों
में भी उपलब्ध हैं, जो सस्ते हैं और चलने में रुकते नहीं और किसी भी पेपर सर्फेस पर
इस्तेमाल किये जा सकते हैं। सामान्यतः पारदर्शक रंगों (इंक्स) के लिए आइवरी कार्ड या
स्कॉलर पेपर प्रयोग किए जाते हैं।
प्रश्न 11. पेस्टल चित्रों को कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है?
उत्तर―साधारणतया जिन चित्रों के वर्ण तथा पोत को अक्षुण्ण रखना होता है, उसका
स्थायीकरण नहीं किया जाता और इस प्रकार विशेष प्रकार से शीशे लगे चौखटे में लगाया
जाता है कि चित्र को शीशा स्पर्श न कर पाये। इस तरह चित्र खराब नहीं हो पाता । ऐसा
कोई भी स्थायीकरण माध्यम नहीं है जो पेस्टल के प्रभावों को यथावत् रख सके, परन्तु अच्छे
स्थायीकरण माध्यम इस प्रभाव को बहुत कम प्रभावित करते हैं।
साधारण माध्यम जो बाजार में मिलते हैं, वे लाख, कोपाल, सुन्दरस इत्यादि का एल्कोहॉल
में पतला घोल होता है। इनसे चॉक तथा चारकोल को ड्राइंग का स्थायीकरण भी किया जाता
है। एकैलिक रंगों के माध्यम को पतला करके स्प्रे करने पर भी स्थायीकरण सम्भव है।
इसमें जरा भी शक नहीं कि सच्ची कलाकृतियों का सौन्दर्य शाश्वत होता है, सार्वभौम
होता है, देश-काल के परिवर्तनों से परे होता है। उनका उत्कृष्ट सौंदर्य सचमुच नयनाभिराम
होता है।
प्रश्न 12. चित्राकन में रंगों का चयन किस प्रकार किया जाता है ?
अथवा, विभिन्न रंगों की प्रकृति बताएँ।
उत्तर―रंगों का चयन–रंग दृश्य चित्रण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत होता है। किसी
भी वस्तु को सफेद या काला देखने की अपेक्षा यदि उसे रंगीन देखा जाये तो पहचानना आसान
होता है। चित्र की ओर ध्यान आकर्षिक रंग का मान होता है। रंगीन चित्र, श्वेत श्याम की
अपेक्षा 15 गुणा अधिक प्रभावशाली होता है। रंगों का भी प्रतीकात्मक अर्थ एवं मनोविज्ञान
होता है, जो दृश्यात्मकता के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, जैसे-
(i) लाल रंग सबसे आकर्षक होता है। यह उत्तेजना, वीरता, क्रोध, प्यार एवं शृंगार
को व्यक्त करता है।
(ii) नीला रंग ईमानदारी, निष्क्रियता, आशा एवं विस्तार का प्रतीक है।
(iii) हरा रंग प्रकृति, शन्त; सुरक्षा, विश्राम एवं यौवन का द्योतक होता है।
(iv) पीला रंग आशावाद, प्रसन्नता, प्रकाश, बुद्धिमत्ता एवं दिव्यता का प्रतीक माना जाता
है।
(v) श्वेत रंग शुद्धता, पवित्रता, सत्य और शान्ति का प्रतीक माना जाता है।
(vi) काला रंग गम्भीरता, अवसाद और अँधेरे का प्रभाव पैदा करता है।
प्रश्न 13. मिश्रित कोलाज क्या है ? मिश्रित कोलाज की विधि बताएँ।
उत्तर―मिश्रित कोलाज–विभिन्न वस्तुओं के मिश्रण से जब कोलाज चित्र का निर्माण
किया जाता है तो उसे मिश्रित कोलाज कहते हैं।
आवश्यक सामग्री–सूखे फूल, पत्ते, पोस्टर रंग, नारियल की छाल, पेड़ों की छाल, सूखी
पंखुड़ियाँ, ऊन के धागे, तौलियाँ, सितारे, मोती, रंगीन, कागज, झाडू की तिलियाँ, ड्राइंग शीट,
स्केच पैन, पेंसिल, पोस्टर कागज आदि ।
मिश्रित कोलाज विधि―चित्र की आवश्यकता एवं अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार
सर्वप्रथम पेंसिल से पोस्टर कागज पर चित्र बनाकर तत्पश्चात् उपलब्य सामग्री को
आवश्यकतानुसार चिपका कर स्वाभाविक व वास्तविक रूप प्रदान किया जाना चाहिए जो
चित्रकार की वास्तविक कल्पना का परिचायक होगा।
प्रश्न 14.कागज के मखौटे बनाने की विधि को संक्षेप में बताएँ।
उत्तर―मुखौटे बनाने के लिए आवश्यक सामग्री-कागज (थोड़ा मोटा), कैंची, रंग,
ब्रश, रबर, पेंसिल, कटर आदि ।
विधि―कागज का मुखौटा बनाने के लिए सर्वप्रथम जिस व्यक्ति, बच्चे अथवा जानवर
का मुखौटा बनाना है, उसका नाप लेकर कागज पर नाप लेना चाहिए। निश्चित नाप लेकर
कागज पर आँखों पर निशान लगा दिया जाएगा और आँखों के आकार को कैंची से काट
कर कान के नीचे से दो छेद कर दिया जाएगा, जिससे पीछे बाँधा जा सके । तत्पश्चात् पात्र
के अनुरूप दाढ़ी, मूंछे, तिलक, चेहरे, नाक, आँखों पर भावाभिव्यक्ति की जाये। इस प्रकार
इच्छानुसार मुखौटे तैयार हो सकेंगे।
प्रश्न 415. कठपुतली बनाने की विधि को बताएँ।
उत्तर―कठपुतली बनाने की विधि-इनका मुख लकड़ी का बना होता है तथा इन्हें
हाथ व डोरी से संचालित किया जाता है। यदि सम्भव हो बाजार से एक सुन्दर कठपुतली
खरीदें तथा उनका साँचा मिट्टी में पकाकर उतार लेना चाहिए। इसके बाद तैयार साँचे में
प्लास्टर ऑफ पेरिस भरकर चेहरा तैयार करना चाहिए—फिर कागज के छोटे-छोटे टुकड़े वैसलीन
लगाकर चेहरे पर चिपका देना चाहिए । आरंभ आँखों से करके, गोंद की हल्की परत चढानी
चाहिए। फिर गोंद की परत चढ़ाकर सफेद कागज के छोटे-छोटे परत चढ़ाकर सफेद कागज
चिपकाना चाहिए। आँखों की जगह गड्ढे गहरे रहें । नाक आगे की ओर और मुख चिरा
रहे । चेहरे को सुखाकर कपड़े की बैण्डेज (पट्टियों) को चेहरे पर चिपकाएँ–फिर खड़िया
मिट्टी के गोंद मिश्रित घोल को.लगाकर सूखने के लिए रख देना चाहिए– तत्पश्चात् ब्रुश
एवं रंग आदि से आँख, नाक, कान आदि बनाने चाहिए। कठपुतली की देह बनाने के लिए
बच्चों के ऊनी मोजे लेकर अच्छी तरह फंस भरकर केवल डेढ़ इंच लम्बी दो खपच्ची से
हाथ बनाना चाहिए । हाथ कपड़े के सीने चाहिए, हाथों में भी फंस भरकर उसमें कपड़े पहनाना
चाहिए । इस प्रकार एक सुन्दर कठपुतली का निर्माण होता है।
प्रश्न 16. कला अनुभव क्या हैं? इसके महत्व एवं उपयोगिता बताइए।
उत्तर―कला अनुभव से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें बच्चे को विभिन्न
कलाओं-चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाटक के अनुभव से गुजारते हुए सभी कलाओं से परिचय
कराया जाए। अनुभव से हमारा तात्पर्य एक ऐसी एकीकृत प्रक्रिया से है, जिसमें बच्चे की
सीखने-सीखाने की प्रक्रिया में शरीर, मन और मस्तिष्क की बराबर से भागीदारी हो । कला
के क्षेत्र में बच्चों की भागीदारी से आशय यह है कि बच्चों द्वारा एक मनमोहक चित्र का
पूर्ण बन जाना, दर्शकों को लुभाने वाला एक नृत्य या गीत तैयार हो जाना उतना महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना इसकी सृजन की प्रक्रिया । प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए विभिन्न
कलाओं से परिचय पाना, उनमें अपनी अभिव्यक्ति ढूँढ पाना और साथ ही अपनी सांस्कृतिक
विरासत से रिश्ता बनाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
कला-अनुभव का महत्व या उपयोगिता–कला अनुभव के दौरान प्रारंभिक कक्षाओं
में बच्चों को विभिन्न कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति के अवसर उपलब्ध कराना अधिक
महत्वपूर्ण है। इसके दौरान बच्चे सभी कलाओं के विभिन्न रूपों से अपने ढंग से दोस्ती कर
बड़े उमंग और उत्साह से सीखने की राह पर खुद-ब-खुद चल पड़ते हैं। विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों
को शामिल कर लेने के गुण के कारण कलाओं में सीखने सीखाने की अनगिनत गांठे खोल
दन की क्षमता अन्तर्निहित है। कला अनुभव योजनाबद्ध और लचीली, दोनों होनी चाहिए ताकि
सभी बच्चों के सीखने-सीखाने की गति और रुचि का ख्याल रखा जा सकें । पूरे कला-अनुभव
के दौरान बच्चों को यह स्वतंत्रता होती है कि वो अपनी कृति को अपना एक अर्थ दे सके।
कला अनुभव में यच्चों पर यह दबाव नहीं होता कि वे अपनी कलाकृति को तत्काल पूरी
करं। इन्हें जब चाहे, तब-तब चाहें पूरी कर सकते हैं।
प्रश्न 17. वाद्य किसे कहते हैं? उदाहरण द्वारा इसके प्रकारों को समझाइए।
अथवा, विभिन्न वाद्य तंत्रों का परिचय दें।
उत्तर―वाद्य यंत्रों का परिचय-आदिमानव द्वारा जब प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं की सहायता
से ध्वनि उत्पन्न कर आनन्द की अनुभूति की गई, तभी से वाद्यों का सूत्रपात हुआ।
धीरे-धीरे इनका रूप निखरता गया । लकड़ी, पत्थर, काँच, चमड़ा, सूखे फल तथा धातु (लोहा,
पीतल, ताँबा) आदि की सहायता से मानव ने अनगिनत, वाद्यों की रचना कर डाली। इन
वाद्यों से उत्पन्न नाद (ध्वनि) हमारे हृदय के तारों को पूरी तरह से झंकृत कर देता है।
मनुष्य के पृथ्वी पर जन्म लेने से मृत्युपर्यन्त संगीत उसके जीवन से जुड़ा रहता है।
वाद्यों में इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यदि देखा जाए तो हमारे
आराध्यों के हाथों में अनेकानेक वाद्ययंत्र दिखाई देते हैं, जैसे भगवान शिव के हाथ में डमरू,
श्रीकृष्ण के अधरों पर मुरली, विद्या की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती के हाथों में वीणा, भगवान
विष्णु के हाथों में शंख आदि । वाद्य हमारे भावों की अभिव्यक्ति का साधन भी है। सामान्यतः
वाद्यों को उनकी संरचना एवं बजाने की विधि के आधार पर निम्नलिखित चार श्रेणियों में
विभाजित किया जा सकता है―
1. तत् वाद्य या तन्तु वाद्य―इस श्रेणी के वाद्यों में तारों के द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती
है। इनके भी दो प्रकार हैं (i) तत् वाद्य, (ii) वितत् वाद्य । तत् वाद्यों की श्रेणी में तार के
वे साज आते हैं, जिन्हें मिजराब या अन्य किसी वस्तु की टंकार देकर बजाया जाता है। जैसे―
वीणा, सितार, सरोद, तानपूरा, इकतारा, दुतारा आदि । दूसरे प्रकार के वितत् वाद्यों की श्रेणी
में गज की सहायता से बजने वाले साज होते हैं, जैसे-इसराज, सारंगी, वायलिन आदि ।
2. सुषिर वाद्य―सुषिर वाद्यों की श्रेणी में फेंक या हवा से बजने वाले वाद्य आते हैं।
जैसे—बाँसुरी, हारमोनियम, क्लारनेट, शहनाई, बीन, शंख आदि ।
3. अवरुद्ध वाद्य–अवरुद्ध वाद्य की श्रेणी में चमड़े से मढ़े हुए ताल वाद्य आते हैं।
जैसे―मृदंग, तबला, ढोलक, खंजरी, नगाड़ा, डमरू, ढोल आदि ।
4.घन वाद्य―घन वाद्यों की श्रेणी में वाद्यों को चोट या आघात के द्वारा बजाया जाता
है। जैसे–जल तरंग, मंजीरा, झांझ, करताल, घंटातरंग, पियानो आदि ।
प्रश्न 18. भाषा शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए नाटक का क्या योगदान है ?
उत्तर―भाषा शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए नाटक का योगदान महत्त्वपूर्ण है। नाटक
का मतलब सिर्फ उसका उत्पाद (प्रदर्शन) ही नहीं होता, बल्कि यह तो भाषा सीखने की
प्रक्रिया का हिस्सा है। कक्षा में हम अक्सर बच्चों को पूरे वाक्यांशों या खण्डों के बजाय भाषा
के छोटे-छोटे टुकड़ों जैसे कि स्वतंत्र शब्दों से परिचित कराते हैं। बोलते समय बच्चों से आमतौर
पर उनके द्वारा सीखी जा रही विभिन्न वाक्य संरचनाओं को जोड़ने के लिए नहीं कहा जाता।
नाटक किसी दिए गए संदर्भ में किसी अनजानी भाषा के अर्थ का अनुमान लगाने के लिए
बच्चों को प्रोत्साहित करने का एक ऐसा आदर्श तरीका है, जिससे अक्सर अर्थ स्पष्ट हो जाता
है। इसी तरह, बच्चे सफलतापूर्वक संवाद कर पाएँ, इसके लिए जरूरी है कि वे कई तरह
के भाषायी ढाँचों और कारकों का इस्तेमाल करें। नाटक में जीवन से जुड़ी हुई बातें होती
हैं, जिसे बच्चें देखकर उसका अनुकरण करते हैं। नाटक से अभिनय करना और भाषा सीखते
हैं। नाटक में संवाद करना और हाव-भाव के साथ अभिनय करना महत्त्वपूर्ण होता है।
नाटक के पात्र के अनुसार अभिनय एवं संवाद करने में भाषा का उचित प्रयोग किया
जाता है। जिसके द्वारा बच्चों में शब्दों के अर्थ, उच्चारण एवं प्रयोग किस प्रकार करना है,
वह सीख जाते हैं। साथ ही नाटक विभिन्न भाषाओं में किया जाता है जिससे बच्चों को बहुभाषा
का ज्ञान प्राप्त होता है।
भाषा शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए नाटक का विशेष योगदान है। नाटक के
द्वारा बच्चे छोटे-छोटे अभिनय कर संवाद करना एवं भाषा सीखते हैं। बच्चों में सृजनात्मक
क्षमता होती है। किसी चीज का बच्चे जल्दी अनुकरण कर लेते और उसका प्रदर्शन भी करते
हैं। बच्चों में भाषायी कौशल का विकास होता है। साथ ही साथ भाषा सीखने के प्रति रुचि
जागृत होती है। अतः भाषा शिक्षण को नाटक के द्वारा प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
प्रश्न 19. किसी मंचीय कार्यक्रम में रंगमंच की भूमिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर–किसी भी मंचीय कार्यक्रम चाहे वह नाटक, प्रहसन, नृत्य नाटिका आदि हो इसमें
रंगमंच की भूमिका बहुत ही महत्त्वपर्ण होती है। बिना रंगमंच के वह कार्यक्रम कुछ अधूरापन
लिये हुए लगता है। रंगमंच पर ही वह कार्यक्रम जीवंत सा प्रतीत होता है। अतएव सर्वप्रथम
रंगमंच ऐसा हो जो कि दिखने में बहुत ही आकर्षक लगे। प्रकाश की समुचित व्यवस्था हो
ताकि कलाकारों को आसानी से देखा जा सके। अगर रंगीन प्रकाशन की व्यवस्था हो तो यह
‘सोने पे सुहागा’ वाली बात हो जाएगी।
रंगमंच का आकार इतना विशाल हो कि जितने भी कलाकार उस कार्यक्रम को प्रस्तुत
करने जा रहे हैं, वे बिना व्यवधान के उस कार्यक्रम को प्रस्तुत कर सकें। रंगमंच में ग्रामीण
परिवेश को दर्शाना हो तो ग्रामीण वस्तुओं से सजा कर ग्रामीण माहौल पैदा करने की कोशिश
की जानी चाहिए ताकि नाटक में सजीवता का अनुभव हो।
माइक की रंगमंच पर उचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि श्रोता कलाकारों की आवाज
स्पष्टतः सुन सकें। रंगमंच एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन
करते समय उस भूमिका में समा जाता है। अतएव रंगमंच की किसी भी मंचीय कार्यक्रम में
महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
प्रश्न 20. बच्चे आपस में स्वांग (रोल प्ले) के माध्यम से मम्मी-पापा,
डॉक्टर-मरीज, शिक्षक-स्कूल का खेल खेलते हैं। इसके माध्यम से बच्चों में किस प्रकार
की क्षमताओं का विकास होता है? उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर―बच्चे आपस में स्वांग (रोल प्ले) के द्वारा कई प्रकार के खेल-खेलते हैं। जैसे―
मम्मी-पापा, डॉक्टर-मरीज, शिक्षक-स्कूल। जिसके माध्यम से बच्चे में सामाजिक और
पारिवारिक जीवन की भावना का विकास होता है। बच्चें, किसके साथ कैसा व्यवहार करना
चाहिए, ये सीखते हैं। बच्चे विभिन्न प्रकार का स्वांग करते हैं और उनमें विभिन्न प्रकार की
क्षमताओं का विकास होता है।
1. मम्मी-पापा–इस प्रकार के स्वांग करने पर बच्चों में उत्तरदायित्व की भावना का
विकास होता है। बच्चों के प्रति मम्मी-पापा के क्या-क्या उत्तरदायित्व है, बच्चे उसे जान
जाते हैं। मम्मी से दया, प्रेम, स्नेह की भावना और पापा से उत्तरदायित्व की भावना जागृत
होती है। परिवार के प्रति पिता का क्या-क्या उत्तरदायित्व है, इसके ज्ञान से बच्चों में क्षमता
का विकास होता है।
2. डॉक्टर-मरीज―इस प्रकार के स्वांग से बच्चे में दूसरों के प्रति सहानुभूति और सेवा
की भावना जागृत होती है। डॉक्टर की मरीज के प्रति क्या-क्या उत्तरदायित्व है, उसे जान
जाते हैं। इस प्रकार बच्चों में सेवा करने की भावना का विकास होता है।
3. शिक्षक-स्कूल―इस प्रकार के स्वांग से बच्चों में विद्यालय और समाज के प्रति
उत्तरदायित्व की भावना जागृत होती है। बच्चें, शिक्षक के प्रति, विद्यालय के प्रति, छात्र के
प्रति और राष्ट्र के प्रति क्या-क्या उत्तरदायित्व हैं, जान जाते हैं।
इस प्रकार बच्चों में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, उत्तरदायित्व की भावना, देश-प्रेम,
व्यवहार-कुशलता, प्रेम की भावना का विकास होता है।
इस प्रकार बध्चे आपस में स्वांग के द्वारा कई प्रकार की भूमिका निभाते हैं। जिससे बच्चों
में सामाजिक, पारिवारिक, भापायी क्षमता, सेवा करना, संवाद करने की क्षमता, देश-प्रेम,
उत्तरदायित्व की भावना, दया, प्रेम, सहानुभूति, मातृ-प्रेम की क्षमता का विकास होता है।
प्रश्न 21. “नाटक का मतलब सिर्फ उत्पाद या प्रदर्शन ही नहीं बल्कि यह तो भाषा
सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है?” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―नाटक एक अभिनय कला है। नाटक करने वाला व्यक्ति विभिन्न प्रकार के पात्रो
का अभिनय करता है, जिससे भाटक में संवाद करने की क्षमता का विकास होता है तब
आत्मविश्वास की भावना बढ़ती है। नाटक का मतलब सिर्फ उत्पाद या प्रदर्शन ही नहीं बल्कि.
यह तो भाषा सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है, अतः यह भाषा सीखने में सहायक होता है,
जो निम्न प्रकार से हैं―
(i) नाटक करने वाले नाटक करते समय कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिनका
अर्थ उन्हें मालूम नहीं होता है। लेकिन नाटक में शब्द और क्रियाकलाप साथ-साथ
चलते हैं, जिसके कारण वे कठिन से कठिन शब्दों का अर्थ समझ जाते हैं।
(ii) शब्दों का प्रयोग किस संदर्भ में कैसे करना है, इसकी जानकारी भी हमें नाटक
के माध्यम से हो जाती है।
(iii) भाषा का अर्थ होता है–बोलना, पढ़ना, समझना और सुनना। जब नाटक में पात्रों
द्वारा संवाद बोले जाते हैं, तो नाटक करने वाले में बोलने की क्षमता का विकास
होता है।
(iv) नाटक में श्रव्य और दृश्य दोनों सामग्री का प्रयोग होता है, जिसके कारण संवाद
को समझाने में आसानी होती है।
(v) नाटक के माध्यम से बच्चों में भामा का उच्चारण एवं प्रयोग करने में आसानी होती
है।
(vi) नाटक के द्वारा विभिन्न भाषाई कौशल का विकास होता है, जिससे नाटक के भावों,
विचारों तथा तथ्यों को अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है।
(vii) नाटक के द्वारा बच्चों में सृजनात्मक क्षमता का विकास होता है। बच्चों में कल्पना
एवं तर्क शक्ति का विकास होता है।
(viii) नाटक के माध्यम से बच्चों में संवाद करने की क्षमता का विकास होता है। वार्तालाप
वाद-विवाद तथा भाषा को स्पष्ट एवं शुद्ध बोलना, भावों के अनुसार स्वर का प्रयोग
करना आदि बातों का बच्चों में विकास होता है।
(ix) बच्चों में नाटक के माध्यम से विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने का अवसर प्राप्त
होता है, जिसके द्वारा बच्चे अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार नाटक का मतलब सिर्फ उत्पाद या प्रदर्शन ही नहीं बल्कि यह तो भाषा सीखने
की प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें नाटक करने वाले व्यक्ति में भाषायी कौशल तथा ज्ञान के
पूर्ण विकास के साथ-साथ व्यक्तित्व का विकास होता है एवं वह एक अच्छा कलाकार बनता है।
प्रश्न 22. चैक लिस्ट के बारे में संक्षेप मे बताएँ।
उत्तर―चैक लिस्ट किसी खास व्यवहाराक्रिया के बारे में सुव्यवस्थित तरीके से दर्ज
किए गए उल्लेख हमें किसी भी खास पहलू की तरफ ध्यान आकर्षित करने में मदद करते
हैं। सीखे गए का परिणाम आकलित करने, सीखने की Performance को आकलित करने
के लिए चैक लिस्ट एक उपयोगी उपकरण है। निश्चित लक्ष्य को आधार मानकर अपेक्षित
विवरण प्राप्त करने, सीखने-सिखाने के महत्त्वपूर्ण घटकों को आकलित करने के लिए चैक
लिस्ट को इस्तेमाल किया जा सकता है। कुछ चैक लिस्ट कक्षा में कार्य की आवश्यकता
को देखते हुए बच्चों के साथ मिलकर तैयार की जा सकती है। जैसे-समूह आकलन, परस्पर
आकलन, किसी खास अवलोकन, भ्रमण, सामूहिक कार्य आदि जबकि कुछ अन्य प्रकार की
चैक लिस्ट शिक्षक द्वारा बच्चों के सतत आकलन के लिए नियोजित कर सकते हैं। प्रत्येक
चरण का उद्देश्य भिन्न होने पर उपकरण में भिन्नता भी होगी।
प्रश्न 23. बैक लिस्ट को उदाहरणसहित समझाएँ।
उत्तर―चैक लिस्ट के उदाहरण इस प्रकार हैं:
1.परस्पर आकलन चैकलिस्ट―बच्चों द्वारा अपने काम के परस्पर आकलन के लिए
कक्षा में किए जा रहे कार्य के अनुरूप तैयार की गई चैकलिस्ट । एक कक्षा में प्रयोग कार्य
के समूह आकलन के लिए तैयार की गई चैक लिस्ट इस प्रकार है:
टास्क समूह 1 समूह 2
समूह ने अलग-अलग प्रयोग करके देखे हैं?
समूह को प्रस्तुति कितनी सफल रही है?
समूह प्रयोग से संबंधित प्रतिवेदन ठीक प्रकार से लिखा है?
रिपोर्ट में चित्रों का इस्तेमाल किया है ?
अन्य समूह द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दे पाये हैं?
2.समूह सदस्यों का आपस में आकलन चैक लिस्ट―एक विशेष कार्य/व्यवहार था।
कौशल को लेकर समूह में कार्यरत बच्चे अपनी सहमति से चैक लिस्ट तैयार कर सकते हैं।
इस प्रकार की चैक लिस्ट निम्न प्रकार से तैयार की जा सकती है:
कक्षा 4 की मीना द्वारा अपने समूह के अन्य सदस्यों के अवलोकन कौशल के लिए
इस्तेमाल की गई चैक लिस्ट निम्नवत् हैं:
क्र.सं. अवलोकन मेरे समूह के सदस्य
राधा कवि मीरा निशा सुरेश
1. अवलोकन के लिए समस्या ✓ ✓ × ✓ ✓
समाधान के लिए आवश्यक
सबूत एकत्रित किए हैं।
2. वस्तुओं के बीच के फर्क समझ ✓ ✓ ✓ ✓ ×
गए हैं।
3. वस्तुओं के बीच समानता को ✓ ✓ × ✓ ✓
खोज पाए हैं।
4. अधिक विशेषताओं को पहचान ✓ ✓ × × ✓
पाए हैं।
5. विवरणों को क्रमबद्ध रूप से नोट ✓ × ✓ ✓ ✓
किया है।
6. दर्ज करने में एक अधिक ✓ × × × ×
तरीके अपनाए हैं। (चित्र/तालिका)
शिक्षक द्वारा तैयार की गई चैक लिस्ट― इस प्रकार के चैक लिस्ट में पाठ्यक्रम के
अनुसार अधिगम क्षेत्रों के अन्तर्गत विभिन्न सूचकों/ कौशलों को निर्धारण किया जाता है।
कक्षा-कक्ष में कार्य करवाने के दौरान बच्चों के सीखने के आए परिवर्तनों को प्रत्येक सूचक
के संदर्भ में आकलन माह में 2 से 3 बार कर सकते हैं।
इस प्रकार के चैक लिस्ट से शिक्षक को:
□ अवधारणा में बच्चे को सीखने की स्थिति को समझने में तथा उसे किस प्रकार
मदद की आवश्यकता है, इसे पता करने में मदद मिलती है।
□ विशिष्ट स्थिति के अनुरूप नियोजन करने में सहायता मिलती है।
प्रश्न 24. रेटिंग स्केल क्या है? इसकी गतिविधियों को बताएँ।
उत्तर―रेटिंग स्केल-इसका इस्तेमाल विद्यार्थी के काम की गुणवत्ता दर्ज करने और
निर्धारित मानदण्डों के आधार पर गुणवत्ता तय करने के लिए किया जाता है। समग्र रूप
से तैयार रेटिंग स्केल एक अकेले काम के एक अंश का पूरा आकलन कर सकता है।
इसकी निम्नलिखित गतिविधियाँ हैं :
□ निष्कर्ष, व्याख्याएँ या निर्णय देने से बचें जो देखा गया है कि उस पर ध्यान केन्द्रित करें।
□ अवलोकनकर्ता के कौशल ही सुनिश्चित करें कि किस बारे में अवलोकन करना है ?
□ अवलोकन के समय संवेदनशील तो बने हो, प्रत्यक्ष रूप से सामने भी न आएँ । इनका
तात्पर्य यह कदापि नहीं कि एक बड़ी दूरी बनाकर रखी जाए ।
□ समय की भिन्न-भिन्न अवधियों और अलग-अलग गतिविधियों तथा परिवेश में
अवलोकन किया जाए।
□ विकास के बहुत से पहलुओं का आकलन किया जा सकता है।
□ व्यक्तिगत रूप से और समूह में दोनों ही तरीकों को आकलन करने के लिए इस्तेमाल
में लाया जा सकता है ।
□ अलग-अलग समय अवधि के दौरान और भिन्न-भिन्न पर्यावरणीय परिवेश में आकलन
किया जा सकता है
□ बच्चे के प्रदर्शन/ज्ञान के प्रमाण/साक्ष्य ‘स्थल’ (जहाँ काम किया जा रहा हो) से
प्राप्त रिकॉडों पर आधारित होते हैं।
□ अतिरिक्त समय व्यवहार, रुचियों, चुनौतियों का बारीकी से अध्ययन आदि प्रतिमान।
प्रवृत्तियाँ शिक्षक को बच्चे के बारे में सारगर्भित तस्वीर प्रस्तुत करने में मदद करती है।
□ उन बारीकियों को भी दर्ज करें जो सिर्फ क्रियाओं का ही उल्लेख नहीं करती अपितु यह
भी स्पष्ट करती है कि काम के दौरान वह कैसा महसूस कर रही/रहा था।
□ उपचारात्मक तरीके भी सुझाएँ।
□ टिप्पणियों को दर्ज किया जा सकता है, जिनके आधार पर बाद में प्रक्रियाओं का
निर्धारण किया जा सकता है।
प्रश्न 25. पोर्टफोलियो से क्या समझते हैं ?
उत्तर―पोर्टफोलियो― समय की एक निश्चित अवधि में बच्चों द्वारा किए गए कार्यो
का संग्रह, ये रोजमर्रा के काम भी हो सकते हैं या फिर बच्चों के कार्य के नमूने भी हो
सकते हैं। इससे उसकी सालभर में हुई प्रगति को बताया जा सके। पोर्टफोलियों के द्वारा
बच्चे को वास्तव में क्या उपलब्धियाँ रही हैं, इस बारे में अध्यापक दोनों की समझ बनती
है। हम पोर्टफोलियो में बच्चों के शैक्षिक कार्य से सम्बन्धित निम्नलिखित तथ्यों को शामिल
कर सकते हैं, जैसे―
□ अवलोकन टिप्पणी, प्रयोग की टिप्पणी ।
□ फील्ड रिपोर्ट, साक्षात्कार-प्रश्नावली, रिपोर्ट, चित्र, तालिका, ग्राफ ।
□ सर्वे-फॉरमेट, प्रतिवेदन, प्रगति आकलन पत्रक ।
□ प्रतिक्रिया टिप्पणी/ स्व आकलन टिप्पणी, सृजनात्मक कार्य।
प्रश्न 26. मूल्यांकन में प्रदर्शन (डिस्प्ले/प्रजेंटेशन) को समझाएँ।
उत्तर―प्रदर्शन-इसका उपयोग बच्चे द्वारा किए गए कार्यों को प्रदर्शित करने के लिए
किया जा सकता है। कार्यों के प्रदर्शन के लिए उपयुक्त स्थान का चुनाव शिक्षक अपनी
सुविधानुसार कर सकते हैं, जहाँ पर दृश्य कला का प्रदर्शन आसानी से हो सके। प्रदर्शन कला
के प्रदर्शन के लिए विद्यालयी का कोई भी उपर्युक्त जगह का चुनाव किया जा सकता है।
इससे बच्चे को कला का प्रदर्शन करने का मौका मिलेगा और शिक्षक इस प्रदर्शन के आधार
पर मूल्यांकन कर सकते हैं।
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