कार्य और शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi
कार्य और शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi
S-3 कार्य और शिक्षा
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. कार्य शिक्षा किस प्रकार बच्चों का कौशल विकास करती है
अथवा,
कार्य शिक्षा का उद्देश्य बच्चों का कौशल विकास है। कैसे ?
अथवा,
कार्य शिक्षा के साथ बच्चों के कौशल विकास के उद्देश्य साथ-साथ चलते हैं। कैसे?
उत्तर―विभिन्न शोध यह दर्शाते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में जहाँ शिक्षा कार्य
से जुड़ी नहीं है, अधिकांश छात्र स्कूली शिक्षा के बाद वास्तविक जीवन में असफल साबित
होते हैं। कार्य आधारित शैक्षिक अनुभव बच्चों में समालोचनात्मक चिंतन उत्पन्न कर उनके
विकास को प्रभावी बनाते हैं। शिक्षा का महत्वपूर्ण तथा वास्तविक उद्देश्य छात्रों को जीवन
में चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना है । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए
ही शिक्षा में जीवन, हस्तशिल्प व अन्य कौशलों को शामिल किया जाना आवश्यक है। शिक्षा
द्वारा ऐसी क्षमताएँ बच्चों में विकसित की जानी चाहिए जो बच्चों को जीवन की मांग तथा
चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाए। यह तभी संभव है जब बच्चे किताबी
जानकारियों से बाहर आकर कार्य की दुनियाँ में प्रवेश करें। कार्य के साथ उनका संबंध उन्हें
सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण के समीप लाता है तथा उनका परिचय प्राकृतिक
संसाधनों से कराता है। यह उन्हें भावी पेशेवर जीवन के लिए तैयार कर उनमें विभिन्न
कौशलों का विकास करता है
कार्य शिक्षा उद्देश्यपूर्ण तथा अर्थपूर्ण शारीरिक श्रम मानी जाती है । यह शैक्षिक प्रक्रिया
का अंतर्निहित भाग है । यह सामुदायिक सेवा तथा अर्थपूर्ण सामग्री के उत्पादन के रूप में
समझी जाती है । जिसमें बच्चे आनंद और खुशी को प्रदर्शित कर सकें। कार्य शिक्षा, शैक्षिक
गतिविधियों में ज्ञान, समझ, व्यावहारिक कौशलों को शामिल करने पर जोर देती है। यह
बच्चों में उत्पादन कार्य हेतु व्यावसायिक तैयारी तथा दक्षता विकसित करती है। तथा विभिन्न
उपकरणों, तकनीकों, प्रक्रियाओं, सामग्रियों और दस्तुओं से परिचित कराती है ।
प्रश्न 2. पाठ्यचर्या में कार्य की क्या भूमिका है ?
अथवा,
पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम में कार्य केंद्रित शिक्षणशास्त्र के समावेश को लेकर अपनी समझ विकसित करें।
उत्तर―कार्य शिक्षा, शिक्षा का अभिन्न अंग है। यह विद्यार्थियों में ज्ञान तथा कौशल
दोनों के विकास पर केन्द्रित है । यह उन्हें कार्य के संसार में प्रवेश हेतु तैयार करती है। कार्य
शिक्षा विद्यार्थियों को सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों (कक्षा के भीतर तथा बाहर) में
भाग लेने के अवसर प्रदान करती है। यह विभिन्न कार्यों के वैज्ञानिक सिद्धांतों तथा विधियों
की समझ बनाने में सहायक है । इसलिए पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों के विषय
वस्तु में कार्य अनुभव को कार्य शिक्षा के रूप में देखा गया है।
पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम की विभिन्न विषयवस्तुओं में बच्चों की आयु व योग्यता को ध्यान
में रखकर तैयार किया गया उपयोगी काम उनके सामान्य विकास में तो योगदान देता ही है,
साथ ही जब उसे विद्यार्थियों के जीवन पर लागू किया जाता है, तो वह उनके लिए मूल्यों,
बुनियादी वैज्ञानिक अवधारणाओं, कौशलों और रचनात्मक अभिव्यक्ति के कारक के रूप
में काम करता है। बच्चे काम के द्वारा अपनी अस्मिता पाते हैं और स्वयं को उपयोगी और
महत्वपूर्ण समझते हैं क्योंकि काम उनको अर्थवान बनाता है और इसके माध्यम से वे समाज
का हिस्सा बनते हैं और ज्ञान के निर्माण में सक्षम हो पाते हैं। शैक्षिक प्रक्रिया के दौरान
अलग-अलग विषयों में नए-नए तरीकों से कार्य शिक्षा का समावेश करने से अध्यापक के
शिक्षण कौशल के साथ-साथ सामाजिक गुणों तथा मूल्यों का भी विकास होता है। इस प्रकार
विषयों में अवधारणाओं का सैद्धांतिक ज्ञान देने की बजाय उसे किसी कार्य से जोड़कर
समझाया जाना छात्रों तथा शिक्षकों दोनों के लिए लाभकारी होता है। यदि हम कार्यकेंद्रित
शिक्षणशास्त्र की भूमिका पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों के विषयवस्तुओं में देखें
तो कार्य द्वारा शिक्षण से बच्चों में विभिन्न कौशलों का विकास स्वतः किया जा सकता है।
जैसे―
◆ पर्यावरण अध्ययन में बच्चों द्वारा अपने घरों से स्कूल आते समय अपने दिखने
वाले पेड़-पौधे आदि का अवलोकन करना । अपनी पसंद के किसी एक पेड़ को
अपना मित्र पेड़ बनाकर उसकी देखभाल करना तथा उसके संबंध में जानकारी
एकत्र करना। यह प्रक्रिया उन्हें संवेदनशील बनाती है और वे स्वयं को उनसे
संबंधित कार्य करते हैं।
◆ गणित में कार्य शिक्षा क्रियाकलापों से प्राप्त अनुभवों को संख्यात्मक योग्यता के
साथ समकालित किया जा सकता है। प्रतिदिन हम अनेकों कार्य करते हैं। कुछ
कार्य बच्चे स्वयं करते हैं। कागज को विभिन्न आकृतियों में काटना, दुकान से
चाकलेट खरीदना और उसे अपने मित्रों के साथ बांटना, बड़ों के साथ बाजार
जाकर उन्हें सब्जी या अन्य चीजों की खरीदारी करते हुए देखना। ये कार्य
आनंददायक है साथ ही साथ गणित की संकल्पनाओं को स्पष्ट करने में उपयोगी
सिद्ध हो सकते हैं।
1. विज्ञान शिक्षा के दौरान दैनिक जीवन के कार्यों को करने में प्रयुक्त उपकरणों या
प्रक्रियाओं में निहित वैज्ञानिक सिद्धांतों को भी समझाया जा सकता है जैसे-
कुंए की घिरनी कैसे काम करती है?
लौ के किस भाग का तापमान अधिक होता है ? इत्यादि ।
प्रश्न 3. कार्य शिक्षा की अवधारणात्मक समझ विकसित करें तथा इसके उद्देश्यों की चर्चा करें।
उत्तर―प्रत्येक देश में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ऐसी शैक्षिक प्रणाली का विकास करना
है जो कि प्रत्येक बच्चे में प्रतिभा और कौशलों के विकसित होने के अवसर प्रदान कर सके।
अत: यह अनिवार्य है कि कार्य को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाए। कार्य शिक्षा
उद्देश्यपूर्ण तथा अर्थपूर्ण शारीरिक श्रम मानी जाती है। यह शैक्षिक प्रक्रिया का अंतर्निहित
भाग है। यह सामुदायिक सेवा तथा अर्थपूर्ण सामग्री के उत्पादन के रूप में समझी जाती है।
जिसमें बच्चे आनंद और खुशी को प्रदर्शित कर सकें । कार्य शिक्षा, शैक्षिक गतिविधियों में
ज्ञान, समझ, व्यवहारिक कौशलों को शामिल करने पर जोर देती है। कार्य शिक्षा की
अवधारणा को निम्नांकित कारकों के आधार पर समझा जा सकता है-
कार्य शिक्षा-
◆ हाथ तथा मस्तिष्क में समन्वय द्वारा।
◆ शैक्षिक गतिविधियों में सामाजिक रूप से उपयोगी शारीरिक श्रम को सम्मिलित करके।
◆ किसी कार्य में संलग्न रहना सीखने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण घटक है।
◆ समुदाय के लिए उपयोगी सेवाओं तथा उत्पादक कार्य के रूप में सभी पहलुआ में
एक आवश्यक कारक के रूप में।
◆ यह “करके सीखना” सिद्धांत पर आधारित है।
शिक्षा में कार्य को स्थान दिए जाने के उद्देश्य हैं कि बच्चे―
◆ कार्य की अवधारणा शैक्षिक संदर्भ में समझ सकेंगे।
◆ श्रम की गरिमा से परिचित हो सकेंगे।
◆ कार्य और आजीविका, खुशी तथा संतुष्टि के मध्य संबंध को समझ सकेंगे।
◆ कार्य शिक्षा की आवश्यकता, अर्थ और महत्व से परिचित हो सकेंगे।
◆ कार्य शिक्षा की दार्शनिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि को समझ सकेंगे।
◆ कार्य शिक्षा के वर्तमान स्वरूप के प्रति समालोचनात्मक दृष्टिकोण तथा उससे जुड़े
मिथकों को समझ सकेंगे।
प्रश्न 4.कार्य शिक्षा की अवधारणा के ऐतिहासिक संदर्भ की समझ विकसित करें।
अथवा,
कार्य शिक्षा के ऐतिहासिक संदर्भ को बुनियादी शिक्षा, शिक्षा आयोग व शिक्षा
नीतियों मान्यताओं के आलोक में व्याख्या करें।
उत्तर―पिछले 70 वर्षों में मुख्यतः पिछले 30 वर्षों में कार्य शिक्षा को स्कूली शिक्षा
के प्रत्येक स्तर पर एक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक भाग के रूप में प्रस्तुत किए जाने पर बल
दिया गया है । यह सभी प्रकार के हस्त कार्यों के प्रति सम्मान और गरिमा के दृष्टिकोण का
निर्माण करती है । यह हस्तकार्यों तथा प्रतिष्ठापूर्ण कार्यों में संलग्न व्यक्तियों के भेद को दूर
करती है। अपनी प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने में विद्यार्थियों को सक्षम बनाती
है।
यह समाज के लिए उपयुक्त कार्य कौशलों का विकास करती है। कार्य शिक्षा काम
के प्रति उचित व्यवहार, काम के अनुकूल आदतों तथा मूल्यों का विकास करती है। यह
व्यक्ति को काम से संबंधित आवश्यक ज्ञान प्रदान कर उत्पाद कार्य द्वारा आर्थिक विकास में
मदद करती हैं । इस प्रकार यह विद्यार्थियों को सामाजिक कार्यों से जोड़कर सामाजिक गुणों
का विकास करती है। कार्य शिक्षा विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक है।
इसलिए यह समस्त योजनाओं, रिपोर्टों तथा दस्तावेजों का आवश्यक अंग रही है। गाँधीजी
की बुनियादी शिक्षा, कोठारी कमीशन रिपोर्ट, एन.सी.ई.आर.टी. की दस वर्षीय पाठ्यचर्या की
रूपरेखा, ईश्वर भाई पटेल समिति की रिपोर्ट, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या
की रूपरेखा 2000 तथा 2005 ने इसे शिक्षा का आवश्यक अंग माना है। इन दस्तावेजों
में कार्य शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं को नीचे दिया जा रहा है-
(क) गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा–गाँधीजी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में
बच्चे, समाज तथा देश की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए क्रियाशील पाठ्यक्रम का
निर्माण किया। उनके द्वारा प्रस्तावित नई तालीम या बुनियादी शिक्षा के लिए उन्होंने शिल्प
या हस्त उद्योग (कताई-बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठकला, चर्म कार्य, मिट्टी का काम आदि
में से कोई एक) को स्थान दिया। उन्होंने कार्य के माध्यम से शिक्षा पर जोर दिया। गाँधीजी
ने बुनियादी शिक्षा पाठ्यक्रम के अंतर्गत आधारभूत शिल्प जैसे—कृषि, कताई, बुनाई,
लकड़ी, चमड़े, मिट्टी का काम, मछली पालन, फल व सब्जी की बागवानी, बालिकाओं हेत
गृह विज्ञान तथा स्थानीय एवं भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षाप्रद हस्तशिल्प को
रखा था। इसके अलावा मातृभाषा, गणित, सामाजिक अध्ययन एवं सामान्य विज्ञान, कला,
हिन्दी, शारीरिक शिक्षा आदि को रखा । शिक्षण विधि को शिक्षण के वास्तविक कार्यकलापों
और अनुभवों पर अनिवार्य रूप से आधारित किया। उनके अनुसार शिक्षण विधि व्यावहारिक
हो व विभिन्न विषयों की शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प के माध्यम से दी जाए। उन्होंने करके
सीखना, अनुभव द्वारा सीखना तथा क्रिया के माध्यम से सीखने पर बल दिया।
बुनियादी शिक्षा के अंतर्गत उन्होंने सीखने की समवय पद्धति का उपयोग किया, जिसमें
समस्त विषयों की शिक्षा को किसी कार्य या हस्तशिल्प के माध्यम से दिया जाता था।
(ख) कोठारी आयोग (1964-66)―इस आयोग ने सुझाव दिया कि शिक्षा के
अनिवार्य अंग के रूप में समाज सेवा और कार्यानुभव, जिसमें हाथ से काम करने तथा
उत्पादन अनुभव सम्मिलित हों, को आरंभ किया जाए।
(ग) नई शिक्षा नीति (1986)―इसमें कार्यानुभव को उद्देश्यपूर्ण, सार्थक, संगठित
हस्तकार्य के द्वारा सीखने की प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में माना गया है । इसे पाठ्यक्रम
के प्रत्येक स्तर पर उपयोगी सामुदायिक सेवा के रूप में शामिल करने की अनुशंसा की है।
(घ) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000―इसके अनुसार कार्य शिक्षा की
गतिविधियों का संयोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनसे कार्य शिक्षा के उद्देश्यों के
साकार किया जा सके, जैसे—शारीरिक श्रम के प्रति छात्रों को सम्मान की भावना पैदा करना,
आत्मनिर्भरता के लिए मूल्य, सहकारिता की भावना, आध्यावासाय, सहायता करने की
भावना, सहिष्णुता और कार्य आचरण ।
(ङ) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005―इसके अनुसार काम के द्वारा व्यक्ति
समाज में अपना स्थान बना पाता है। यह एक शैक्षणिक गतिविधि है जिसमें सबको शामिल
करने की संभावना अंतर्निहित होती है। अकादमिक शिक्षा और काम को जब साथ-साथ
जोड़ दिया जाए तो उससे अकादमिक ज्ञान में रचनात्मकता और काम के क्षेत्र में भी अधिक
सहजता आएगी।
प्रश्न 5. बाल कार्य और बाल श्रम में क्या अंतर है?
अथवा,
उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें कि बाल कार्य सीखने-सिखाने के उद्देश्य के साथ
संचालित होता है जबकि बाल श्रम बच्चों के शोषण एवं बाल अधिकारों के हनन
का द्योतक है।
उत्तर—बाल कार्य विद्यार्थियों को सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों (कक्षा के भीतर
तथा बाहर) में भाग लेने के अवसर प्रदान करती है। बाल कार्य से बच्चों को कार्य की
परिस्थितियों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इससे उनमें अपने आस-पास के
वातावरण एवं घटनाओं को जानने की जिज्ञासा बढ़ती है। जैसे-
1. विभिन्न रंगों से कागज पर अलग-अलग डिजाइन बनाना।
2. आमंत्रण पत्र, लिफाफा, कागज से विभिन्न वस्तुएँ आदि बनाना ।
3. मिट्टी/पेपर मेशी/प्लास्टर ऑफ पेरिस/मोम के खिलौने बनाना ।
4. पत्ते, कंकड़, फूलों और फलों से बीज एकत्रित करना ।
5. पौधों की देखभाल करना।
6. स्कूलों की साफ-सफाई से संबंधित कार्य आदि ।
7. शाला/घर में जीवक खाद बनाना।
8. विभिन्न घरेलू उपकरणों को ठीक करना, इत्यादि ।
बाल-श्रम का मतलब यह है कि जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित
आयु सीमा से छोटा होता है। बाल श्रम आमतौर पर मजदूरी के भुगतान के बिना या भुगतान
के साथ बच्चों से शारीरिक कार्य कराना है। बाल श्रम केवल भारत तक ही सीमित नहीं
है, ये एक वैश्विक घटना है । इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संघठनों ने शोषित करने
वाली प्रथा माना है। बाल श्रमिक सामान्य रूप से शारीरिक, शैक्षणिक तथा बौद्धिक
दृष्टिकोण से प्रभावित (अथवा पीड़ित) होते हैं, जब बच्चे किसी भी प्रारंभिक आयु से ही
खतरनाक कामों में लग जाते हैं तो वास्तविक अर्थों में शिक्षा प्राप्त करने अथवा कामवाली
मेघा की विकास करने के अवसर उनके लिए सिकुड़ से जाते हैं। वे बुरी तरह अपंग हो
जाते हैं, वे अच्छे रोजगार प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं, वे अधिक वेतन तथा अधिक
दक्षता प्राप्त नहीं कर पाते और इस प्रकार सामाजिक प्रगति की किसी भी आशा का गला
घोंट दिया जाता है।
प्रश्न 6. कार्य और अकादमिक ज्ञान की दुनिया का जुड़ाव किस प्रकार बच्चों को
पाठ्यपुस्तक केंद्रित शिक्षण से आगे ले जाता है ?
अथवा,
कार्य और अकादमिक ज्ञान की दुनिया के जुड़ाव पर चर्चा करें।
उत्तर–कार्य शिक्षा के द्वारा छात्रों में अनिवार्य जीवन कौशलों को विकसित किया जाता
है। इसलिए कार्य शिक्षा का पाठ्यक्रम पाठ्यकेंद्रित शिक्षण से आगे बच्चों के दैनिक जीवन
व उनके परिवेश पर आधारित होता है। इस विषय के माध्यम से मुख्य रूप से छः क्षेत्रों
में की जाने वाली गतिविधियों का चुनाव किया जाता है जो पाठ्यपुस्तक में मौजूद सूचना
को बच्चों को अपने कार्य और ज्ञान की दुनिया से जोड़ते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 ने सामाजिक रूप से उपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW) की
अवधारणा को स्वीकार किया और इसे उद्देश्यपूर्ण एवं अर्थपूर्ण शारीरिक कार्य माना। इसमें
यह सिफारिश की गयी है कि इसे प्रचलित शिक्षा के सभी स्तरों पर एक महत्वपूर्ण घटक
माना जाना जाए और इसे अच्छी तरह से संगठित और व्यवस्थित कार्यक्रम के रूप में प्रस्तुत
किया जाए । इसमें उत्पादक शारीरिक श्रम को अपनाए जाने के लिए मुख्यतः छः क्षेत्रों का
सुझाव दिया गया था― स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान, भोजन और पोषण, आवास, कपड़े,
संस्कृति और मनोरंजन तथा सामुदायिक कार्य व समाज सेवा ।
कार्य शिक्षा का पाठयक्रम सामग्री, उपकरण और तकनीक से परिचय कराता है तथा
छात्रों को अपने पाठ्यपुस्तक केंद्रित ज्ञान से आगे जाकर अपने दैनिक जीवन के काम-काज
के अनुभव हेतु अवसर उपलब्ध कराता है। विभिन्न दस्तावेजों ने समय-समय पर शिक्षा के
स्वरूप में बदलाव की आवश्यकता पर जोर दिया है। वे प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर
पर विभिन्न विषयों जैसे-गणित, पर्यावरण अध्ययन, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि को
परिवेश के कार्यों से जोड़ कर पढ़ाए जाने पर जोर देते हैं । विषयगत शिक्षण के समय कार्य
शिक्षा को महत्व देने हेतु परिवेश और उसमें उपलब्ध सामग्रियों, उपकरणों के प्रयोगों द्वारा
बच्चों को शिक्षण दिए जाने से वे अपने आस-पास किये जाने वाले उत्पादक कार्यो में
भागीदार बनेंगे और इन सेवाओं में श्रम के महत्व को समझ सकेंगे। अकादमिक शिक्षा और
काम को जब साथ-साथ जोड़ दिया जाए तो उससे अकादमिक ज्ञान में रचनात्मकता और
काम के क्षेत्र में भी अधिक सहजता आएगी।
प्रश्न 7.दैनिक जीवन के विभिन्न कार्यों की सूची बनाएं तथा इनकी कार्य योजना
तैयार करें। साथ ही इनकी समझ तथा विशेषताओं व महत्व पर भी प्रकाश डालें।
उत्तर-दैनिक जीवन के विभिन्न कार्यों का वर्णन तथा उनकी योजना निम्नलिखित है―
(क) साफ-सफाई-व्यक्तिगत स्वच्छता, साफ-सफाई और दैनिक जीवन में वस्तुओं
की देखभाल के प्रति जागरूकता लाने से संबंधित गतिविधियाँ जैसे―
◆ किताबों और कॉपियों की बाईडिंग करना।
◆ विद्यालय और घर में साफ-सफाई रखना।
◆ किताबों के रेक, चार्ट, पोस्टर तथा अन्य समाग्रियों का रख रखाव ।
(ख) खाना पकाना–भोजन एक ऐसा विषय है, जिसमें विद्यार्थियों को रुचि होती
है। यह उनके दिन-प्रतिदिन के जीवन का हिस्सा है और उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक
महत्वपूर्ण भाग है। भोजन के विषय को विद्यार्थियों के अनुभव तथा उनके भावी जीवन के
साथ जोड़ना अपेक्षाकृत आसान है। घर के प्रसंग में छोटे विद्यार्थियों को भोजन से परिचित
कराया जा सकता है। भोजन पकाते समय उसमें होने वाले बदलावों व अवलोकन करने को
उन्हें कह सकते हैं। उनमें रुचि जागृत करने के लिए तथा वे ज्यादा ध्यान से अवलोकन करें,
इसके लिए विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे-चावल, पालक, रोटी और सब्जियों को पकाने का
एक प्रयोग प्रदर्शन करेंगे। सबसे पहले उनके सामग्रियों की सूची बनाएं व पकाने का तरीका
बताएं। खाद्य-पदार्थों को पकाने से पहले विद्यार्थियों से कहें कि उन्हें देखें और उनका वर्णन
करें। भोजन पकाने के प्रयोग प्रदर्शन के दौरान, विद्यार्थियों से प्रश्न पूछे ताकि उनका ध्यान
केंद्रित रहे और उनकी रुचि बनी रहे।
उदाहरण—पके आम का जैम आवश्यक सामग्री-
◆ पके आम 1. किलोग्राम
◆ शक्कर 1.250 किलोग्राम
◆ साइट्रिक अम्ल 1-3 ग्राम
◆ पानी बनाने की विधि―
1.पके हुए 1 किलोग्राम आम के फलों को धोकर टुकड़े करें। टुकड़ों को तौलकर
एक लीटर पानी डालकर गलाएं । गले हुए टुकड़ों को मैशकर छान लें। उसमें 1-250
किलोग्राम शक्कर मिलाकर गर्म करें। 3 ग्राम साइट्रिक अम्ल मिलाएं तथा इसे अंतिम स्थिति
तक गर्म करें।
परीक्षण―
(i) गति परीक्षण―तैयार जैम को चम्मच द्वारा गिराने पर जैम पर्त में टूट-टूट कर गिरता है।
(ii) प्लेट परीक्षण―खाली प्लेट में कुछ बूंदे जैम डालकर ठण्डा करें । प्लेट को
तिरछा करने पर यदि बूंद सरकती है तो और पकाएं। जब द स्थिर रहे तो जैम तैयार है।
2.तैयार जैम को चौड़े मुँह की बोतल में भरकर मोम से सील कर दें। ठण्डा होने पर
ढक्कन लगा दें।
(ग) घरेलू सामानों की मरम्मत―घरेलू सामानों की मरम्मत संबंधी कार्यों से बच्चों
में सामानों के रखरखाव के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित होंगी । उनकी मरम्मत की
जानकारी होने से वे छोटे-मोटे सामानों की मरम्मत स्वयं ही घर पर या किसी की मदद से
कर सकते हैं। घरेलू बचत तथा बच्चों में कार्य के प्रति रुचि और सामाजिक भावना विकसित
करने के लिए ऐसे कार्य महत्वपूर्ण है। जैसे―
◆ फर्नीचर का रख रखाव तथा सही ढंग से उपयोग करना ।
◆ फर्नीचर को समय-समय पर पॉलिश करवाना ।
◆ घर में उपयोग होने वाले बिजली के उपकरणों की साफ सफाई व रख रखाव की
जानकारी रखना।
◆ घरेलू औजारों का रख रखाव तथा सही ढंग से उपयोग करना ।
ऐसे अन्य कार्य करने से बच्चों को घरेलू सामानों के उपयोगिता व महत्व व रख रखाव
की जानकारी मिलेगी।
(ङ) घरेलू जिम्मेदारियों में भागीदारी के कार्य-बच्चों को घरेलू कार्यों की जिम्मेदारियों से
अवगत कराने के लिए व उनका महत्व समझाने के लिए उन्हें निम्न प्रकार के कार्य करवाए
जा सकते हैं और उनकी जानकारी दी जा सकती है-
◆ बैंक में खाता खोलने की जानकारी देना ।
◆ ए.टी.एम. मशीन की जानकारी देना। और उपयोग करने के कार्य देना।
◆ व्यक्तिगत तथा घरेलू बजट बनाने की उपयोगिता समझाने के साथ-साथ उपयोग में
आने वाली सामग्री की सूची तैयार करना ।
◆ घरेलू गैस सिलेंडर के उपयोग की जानकारी देना तथा उसे लाने से जाने के कार्य करना।
◆ बिजली के उपयोग तथा बिजली बिल की जानकारी देना तथा बिजली बिल जमा करने
के कार्य करना।
◆ पानी की टंकी की सफाई कर उसमें क्लोरीन डालना ।
◆ अलमारी को व्यवस्थित जमाना व उसकी धूल साफ करना।
◆ पशुओं के रखरखाव पर ध्यान देने, इत्यादि कार्यों से उनमें घरेलू कार्यों के प्रति
जिम्मेदारी की भावना का विकास किया जा सकता है।
(ङ) घरेलू बजट बनाना―बच्चों को घर की आय और व्यय की जानकारी होनी
आवश्यक है। घरेलू बजट बनाने में बच्चों को भी शामिल करना चाहिए जिससे उनमें
संसाधनों का समुचित तथा न्यायोचित उपयोग करने की समझ विकसित हो । वे पैसों की
महत्व को समझें तथा फिजूलखर्ची से बचने की भी समझ उन्हें हों, इसके लिए उनसे निम्न
कार्य करवाये जा सकते हैं―
◆ व्यक्तिगत तथा घरेलू बजट बनाने की उपयोगिता ।
◆ उपयोग में आने वाली सामग्री की सूची तैयार करना ।
◆ प्रत्येक सामग्री के मूल्य की जानकारी प्राप्त करना ।
◆ आय व आवश्यकता के अनुसार परिवार का बजट बनाना।
◆ आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना व महत्व समझाना ।
◆ वर्तमान आय-व्यय के लेखों की पिछले से तुलना करना।
(च) अपने आसपास के परिवेश का रख रखाव― अपने आस-पास किया जाने
वाले उत्पादक कार्य और सेवाओं में कार्यानुभव बहुत महत्वपूर्ण है। अपने परिवेश की
साफ-सफाई व रख रखाव न सिर्फ पर्यावरण और स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि
यह बच्चों में स्वच्छता के महत्व और परिवेश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की भावना से
अवगत भी कराता है। इसके लिए बच्चों को निम्न कार्यों को करने के लिए प्रेरित किया
जा सकता है―
◆ बच्चों को बड़ों के साथ मिलकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहयोग करना जैसे
आसपास के पार्क से कचरा व पालीथिन एकत्रित करना, ठहरे हुए पानी की
निकासी, खरपतवार को निकालना, आवारा पशुओं द्वारा अव्यवस्था फैलाने के
संबंध में संबंधित संस्था को सूचित करना आदि ।
◆ अपनी शाला व घर के बगीचे में पौधों को नियमित पानी देना, खरपतवार उखाड़ना
तथा अन्य आवश्यक गतिविधियाँ करना, इत्यादि ।
प्रश्न 8. कार्य द्वारा शिक्षा में कौन-कौन-सी गतिविधियाँ शामिल की जानी
चाहिए जिससे बच्चों के कौशल विकास का उद्देश्य इसके साथ-साथ चले? कुछ
गतिविधियों का वर्णन करें।
उत्तर―कार्यानुभव की गतिविधियों और परियोजनाओं का वास्तविक चयन उस स्थान
विशेष के प्राकृतिक, भौतिक, मानव संसाधन तथा सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार
पर किया जाना चाहिए । इन गतिविधियों और योजनाओं के चयन में विविधता होनी चाहिए।
कुछ गतिविधियाँ निम्नानुसार हैं―
◆ अपने आस-पास के पेड़ों के नाम और उनकी उपयोगिता जानना और उनकी देखभाल करना।
◆ पोस्ट ऑफिस, बैंक, अस्पताल आदि में चल रही विभिन्न गतिविधियों का अवलोकन करना।
◆ संस्कृति एवं धार्मिक पर्वो के कार्यक्रम में सहभागिता एवं गतिविधियों का अवलोकन करना।
◆ मिट्टी, पुराने कागजात, पुराने समाचार पत्र, बाँस, पत्ती, कपास, पुराने कपड़ों को
काटना और उनके साथ खेलना तथा उनसे उपयोगी चीजें बनाना ।
◆ रसोई और घरेलू कार्यों में प्रयुक्त सामग्रियों के उपयोग के बारे में जानना व उनका
उपयोग करना।
◆ मिट्टी/पेपर मेशी/प्लास्टर ऑफ पेरिस/मोम के खिलौने बनाना ।
◆ विभिन्न प्रकार के बीजों, वनोत्पाद, खाद एवं मिट्टी की पहचान करना।
◆ खाद्यान्न एवं फल संरक्षण करना।
◆ कम्पोस्ट पिट बनाना, फूलों की क्यारियाँ बनाना, अच्छी गुणवत्ता के बीजों का चयन व
बीज बोना आदि।
◆ स्कूल के डिस्प्ले बोर्ड के लिए सामग्री की तैयारी करना ।
◆ विभिन्न प्रकार के मिट्टी के खिलौने, पक्षी, जानवर आदि बनाना ।
◆ विभिन्न स्थानों की हस्तकला की जानकारी एकत्र करना, इत्यादि ।
प्रश्न 9. प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालय में बायोडिग्रेडेबल तथा नॉनबायोडिग्रेडेबल
कचरे का प्रबंधन किस प्रकार करेंगे? कार्य योजना का निर्माण करें।
उत्तर–बायोडिग्रेडेबल एंड नॉनबायोडिग्रेडेबल कचरे का प्रबंधन निम्न प्रकार से किया
जा सकता है―
(क) कचरे को इकट्ठा करते समय ही इस बात की सावधानी बरती जाती है कि
निस्तारित करने योग्य गीला कचरा जैसे कि खाद्य अपशिष्ट अलग जगह पर और रीसायकल
करने योग्य सूखे कचरे को अलग जगह पर इकट्ठा किया जाए । गीले कचरे से बायो कपोस्ट
बनाया जा सकता है।
(ख) सूखे कचरे को जमीन में डंप किया जा सकता है। इसके लिए खाली जगह
पर बड़े से गड्ढे बनाकर उचित गहराई तक सूखे कचरे को मिट्टी से भर कर जमीन में गाड़
देना चाहिए या फिर नगर पालिका द्वारा ऐसे कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था होती है।
(ग) जैव अनिम्नीकरण कचरे जैसे की धातु, शीशा इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, कंप्यूटर
पार्ट्स इत्यादि को कभी भी इधर-उधर नहीं फेंकना चाहिए। बल्कि इन्हें जमा करके
रिसाइकल करने या जमीन में डंप करने के लिए उचित संस्थानों को सौंप देना चाहिए।
(घ) कचरे में फेंके गए अनुपयोगी पदार्थ जिनका बाद में उपयोग किया जा सकता है।
उन्हें जमा करके कबाड़ से जुगाड़ विधि द्वारा शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में फिर से
इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रश्न 10. प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालयी परिवेश को साफ-सुथरा तथा आकर्षक
बनाने के लिए कार्य योजना का निर्माण करें।
उत्तर―साफ सफाई के कार्य के लिए निम्नांकित उपकरण आवश्यक है―
◆ झाडू-खजूर की, सींक की, लकड़ी से बंधी 5-7 फीट लंबी।
◆ ब्रश-शौचालय, मूत्रालय, बाथरूम, फर्श की सफाई हेतु ।
◆ सर्फ, टायलेट क्लीनर, फिनाइल, साबुन ।
◆ गरम पानी, ठंडा पानी।
◆ सूपड़ी, तगाड़ी, फावड़ा, तराता, डस्टाबिन, खुरपी।
◆ फटे, पुराने सूती कपड़े।
◆ लकड़ी के डंडे से बंधा कपड़ा (झटकनी)।
कार्ययोजना―
◆ सफाई झाडू से करना।
◆ फर्श पर पोछा लगाना ।
◆ बड़ी वाली झाडू की सहायता से जाले साफ करना।
◆ दरवाजे, खिड़की, फर्नीचर आदि को कपड़े से सफाई करना । अंदर रखे सामान
को हटाकर उसके नीचे से कचरा निकालना।
◆ पानी के स्थानों की सफाई, गड्ढों को भरना, कूड़े का प्रबंधन आदि ।
◆ परिसर की रंगाई, पुताई तथा उपकरण और फर्नीचर आदि सामानों के टूट-फूट
होने पर उनके मरम्मत के कार्य करवाना ।
◆ शौचालय की साफ-सफाई, नालियों में दवाइयों का छिड़काव इत्यादि ।
प्रश्न 11. प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालय में बिजली से संबंधित उपकरणों के
रखरखाव तथा मरम्मत में सहयोग किस प्रकार करेंगे?
उत्तर―प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालय में कई तरह के बिजली के उपकरणों से खतरों
के प्रति सजग रहकर और अधिक इनके इस्तेमाल में सावधानी बरत कर हम सुविधा और
आराम पहुंचाने वाले इन उपकरणों का सही उपयोग कर सकते हैं। बिजली और बिजली
के उपकरणों के कामकाज के तरीकों के बारे में अधिक जानकारी स्वयं को और स्वजनों
को बिजली से सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका है। जैसे―
◆ पावर प्वाइंटस को कभी भी ओवरलोड न करें।
◆ एक ही सॉकेट में कई प्लग न लगाएं, क्योंकि यह खतरनाक हो सकता है। ऐसा
करने के बजाय स्थायी समाधान के लिए पावर बोर्ड का प्रयोग करें।
◆ पावर प्वाइंटस को कवर करके रखें। यदि घर में छोटे बच्चे हों तो सभी प्वाइंट्स
में प्लग प्रोटेक्टर्स लगाकर रखें।
◆ गीले हाथों से बिजली के किसी भी उपकरण को न चलाएं । बाथरूम में बिजली
के उपकरणों का प्रयोग करते समय विशेष तौर पर सावधानी बरतें । हेयर ड्रायर्स
और शेवर्स को पानी से दूर रखें।
◆ गीले या सीलन भरे स्थान में बिजली के उपकरणों या एक्सटेंशन लीड्स का प्रयोग
करने से बचें।
◆ यदि किसी उपकरण में खराबी होने के कारण आपको बिजली का झटका महसूस
हो तो ऐसे उपकरण को तत्काल हटा दें। इलैक्ट्रीशियन से उपकरण की मरम्मत
कराएं।
◆ कम और मध्यम वोल्टेज के साधन और तंत्र पर काम केवल अधिकृत व्यक्ति
द्वारा किया जाना चाहिए और सभी साधन और उपकरण काम शुरू करने से पहले
बिजली के सभी स्रोतों से पृथक किया जाना चाहिए।
◆ विद्युत उपकरणों की मरम्मत से संबंधित छोटे-मोटे काम जैसे—स्विच बदलना,
सॉकेट बदलना, बल्ब ठीक करना आदि काम छोटे-मोटे टूल्स से स्वयं भी किए
जा सकते हैं। पर इनके लिए उचित सावधानी बरतना जरूरी है, इत्यादि ।
प्रश्न 12. प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालय में कृषि बागवानी के कार्य की योजना बनाएं।
उत्तर―गार्डन निर्माण के चरण―
◆ स्थान चयन
◆ मिट्टी तैयारी
◆ रोपण हेतु पौधों का चयन
◆ पौधों का रोपण
◆ पर्याप्त जल उपलब्धता—सिंचाई कार्य
◆ मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिये खाद दिया जाना ।
◆ पीड़कों (दीमक, कीट, फफूंद आदि) से बचाव हेतु उचित उपाय किया जाना ।
◆ पशु-पक्षी (गाय, बैल, बकरी, मुर्गी आदि) से सुरक्षा हेतु फेंसिंग/बाउंड्रीवाल निर्माण।
मिट्टी तैयारी-
◆ मिट्टी में से खरपतवार आदि को जड़ से निकाल कर पृथक कर समतलीकरण
कर लें। आवश्यकतानुसार मिट्टी परिवर्तन कार्य, खाद देने का कार्य एवं दीमक/फफूंदनाशक
का उपयोग करें।
◆ पौधों के चयन उपरान्त अनुकूलता की दृष्टिकोण से कौन सा पौधा कहाँ लगाया
जाना चाहिए इसका रोडमैप तैयार कर सावधानी से पौधों को मिट्टी में रोपित करें।
पौधों की देखभाल के कार्य―
पौधों के रोपण उपरांत पौधों की सही देख-रेख आवश्यक है जिसके लिए निम्नलिखित
बातों पर ध्यान देना चाहिए―
◆ साफ-सफाई व सिंचाई कार्य किया जाना—गार्डन में नियमित रूप से साफ-सफाई
व सिंचाई कार्य किया जाना चाहिए।
◆ मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिये खाद दिया जाना—समय-समय
पर पौधों में वृद्धि/पोषण का आकलन कर खाद दिया जाना चाहिए। हर्बल पौधों
के लिये जैविक खाद उपयुक्त होती है।
◆ इन कार्यों के लिए कृषि औजारों जैसे फावड़ा, कुदाल आदि को उपयोग में लाया
जाना चाहिए।
प्रशिक्षण केंद्र तथा विद्यालय में निम्न प्रकार की कृषि/बागवानी के कार्य किए जा सकते हैं―
I. शाक-माजी एवं पुष्प उत्पादन–इस प्रकार की बागवानी में सब्जियाँ और पुष्प
दोनों उगाए जाते हैं। इसे मिश्रित बागवानी (mixed gardening) कहते हैं।
II. सब्जियाँ उगाना (vegetable garden)–इसमें केवल शाक-सब्जियाँ ही उगार
जाते हैं। इसमें सब्जियों के साथ-साथ नींबू, केला, पपीता आदि छोटे कद के पौधे उगाए
जा सकते हैं।
III. पुष्प उगाना (flower garden)―इस प्रकार की बागवानी में केवल पुष्प उगाए
जाते हैं । परिसर में सजावटी पौधे, लॉन, हेज, बास्केट आदि लटका कर उसमें पौधे लगा
कर शोभित किया जाता हैं । परिवेश के अनुसार झाड़ियाँ लताएँ भी लगाई जाती है।
प्रश्न 13. अपने सहकर्मियों तथा विद्यार्थियों के साथ मिट्टी का काम करने की कोई योजना बनाएँ।
उत्तर―फलावर पॉट बनाना―
सामग्री―
◆ मिट्टी का पॉट
◆ फेवीकोल
◆ फेब्रिक कलर
◆ स्टोन
◆ काँच
◆ ब्रश (तीन प्रकार के)
pH
विधि―
1. पॉट तैयार करने के लिये सबसे पहले एक मिट्टी का पॉट ।
2. उस मिट्टी के पॉट को काले रंग से पेंट करें। सूख जाने पर फिर उसे दूसरी बार
काले रंग से फिर पेन्ट करें और सूखने दें।
3. मिट्टी से फूल-पत्तियाँ आदि बनाएँ तथा उन्हें रंग कर फेविकॉल से चिपका दें।
4. काँच, स्टोन आदि से पॉट को सजाएँ । आपका फ्लावार पॉट तैयार है।
इसी प्रकार अलग-अलग आकार और रंगों से अलग-अलग सजावट कर फ्लावर पॉट
तैयार करें।
प्रश्न 14. बायोडिग्रेडेबल तथा नॉनबायोडिग्रेडेबल कचरे के प्रबंधन की कुछ
आधुनिक विधियों का वर्णन करें।
उत्तर—अपशिष्ट प्रबंधन के कई तरीके हैं और कुछ सामान्य तरीके निम्न हैं―
(क) लैंडफिल लैंडफिल में कचरा और कचरा फेंकना कचरे के निपटान का सबसे
आम तरीका है । इस प्रक्रिया में, कचरे के गंध और खतरे समाप्त हो जाते हैं। फिर कचरे
को लैंडफिल साइटों पर दफन किया जाता है । लैंडफिल भी ग्लोबल वार्मिंग का कारण है
जिसके कारण कई देश लैंडफिल के उपयोग पर पुनर्विचार कर रहे हैं।
(ख) भस्मीकरण―इस विधि में, नगरपालिका ठोस अपशिष्टों को अवशेषों, गर्मी,
राख, भाप और गैसों में बदलने के लिए दफन किया जाता है । यह वास्तविक मात्रा के 30%
तक ठोस अपशिष्ट की मात्रा को कम करता है।
(ग) पुनर्चक्रण—यह वह प्रक्रिया है जिसमें हुई वस्तुओं का पुन: उपयोग के
लिए पुनर्नवीनीकरण किया जाता है। अपशिष्ट पदार्थों को संसाधनों को निकालने या बिजली,
गर्मी या ईंधन के रूप में ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए पुनर्नवीनीकरण किया जाता है।
(घ) खाद बनाना—यह एक जैव-क्षरण प्रक्रिया है जिसमें कार्बनिक अपशिष्ट यानी
के अवशेष और रसोई के कचरे को पौधों के लिए पोषक तत्वों से भरपूर भोजन में
बदल दिया जाता है । खाद, जैविक-खेती के लिए प्रयोग की जाने वाली विधि है जो मिट्टी
की उर्वरता को भी बेहतर बनाती है।
(ङ) एनारोबिक पाचन―यह भी प्रक्रिया है जो जैविक प्रक्रियाओं के माध्यम से
कार्बनिक पदार्थों को विघटित करती है। यह ऑक्सीजन और बैक्टीरिया मुक्त वातावरण का
उपयोग डीकंपोज करने के लिए करता है। कंपोस्टिंग को रोगाणुओं के विकास में सहायता
के लिए हवा की आवश्यकता होती है।
(च) अपशिष्ट ऊर्जा के लिए―इस प्रक्रिया में, गैर-पुर्चक्रण योग्य अपशिष्ट करें।
स्रोतों जैसे गर्मी, ईंधन या बिजली के परिवर्तित हो जाता है। यह ऊर्जा का नवीकरणीय स्रोत
है क्योंकि गैर-पुर्चक्रण योग्य कचरे का उपयोग बार-बार ऊर्जा बनाने के लिए किया जा सकता
है।
(छ) अपशिष्ट न्यूनतमकरण―अपशिष्ट प्रबंधन का सबसे सरल तरीका कम
अपशिष्ट बनाना है। अपशिष्ट निर्माण और रीसाइक्लिंग को कम करके और पुरानी सामग्रियों
का पुन: उपयोग कररके आपके और मेरे द्वारा अपशिष्ट में कमी की जा सकती है। पर्यावरण
के अनुकूल उत्पादों का उपयोग करना और प्लास्टिक, कागज आदि का उपयोग कम करना
महत्वपूर्ण है । सामुदायिक भागीदारी का कचरा प्रबंधन प्रणाली पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
(ज) गैसीयकरण और पायरोलिसिस―इन दो तरीकों का उपयोग कार्बनिक
अपशिष्ट पदार्थों को ऑक्सीजन और उच्च तापमान की कम मात्रा में उजागर करने के लिए
किया जाता है। पाइरोलिसिस की प्रक्रिया में किसी भी ऑक्सीजन का उपयोग नहीं किया
जाता है और गैसीयकरण की प्रक्रिया में ऑक्सीजन की बहुत कम मात्रा का उपयोग किया
जाता है। गैसीयकरण सबसे लाभप्रद प्रक्रिया है क्योंकि जलने की प्रक्रिया से ऊर्जा को
पुनर्माप्त करने के लिए कोई वायु प्रदूषण पैदा नहीं होता है, इत्यादि ।
प्रश्न 15. बायोडिग्रेडेबल तथा नॉनबायोडिग्रेडेबल कूड़ा (Biodegradable and
Nonbiodegradablewaste) किसे कहते हैं ? कूड़ा संग्रह एवं प्रबंधन के नवाचारी
तरीकों की चर्चा करें। उनकी व्यवस्था की समझ विकसित करें।
उत्तर―वे पदार्थ जो जैविक प्रक्रमों से अपघटित हो जाते हैं जैव निम्नीकरणीय पदार्थ
कहलाते हैं । ये पदार्थ जीवाणुओं द्वारा स्रावित किए जाने वाले एंजाइमों की मदद से कुछ
समय के अंतराल में सरल अणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं । उदाहरण के लिए जैविक खाद,
सड़े गले पत्ते, फूल-फल जैसे कचरे आदि ।
जैव अनिम्नीकरणीय या अजैव निम्नीकरणीय पदार्थ जैविक प्रक्रमों से अपघटित नहीं
होते । ये पदार्थ सामान्यतः अक्रिय हैं और पर्यावरण में लंबे समय तक बने रहते हैं। उदाहरण
के लिए मानव निर्मित प्लास्टिक कचरे, रासायनिक बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक कचरे आदि ।
कूड़ा संग्रह के नवाचारी तरीके और उनकी व्यवस्था (waste management)―
कूड़े-कचरे का सही प्रकार से निष्पादन न होने से पर्यावरण गन्दा होता है। दर्गन्ध फैलने
के अतिरिक्त इसमें कीटाणु भी पनपते हैं जो कि विभिन्न रोगों के कारक होते हैं। कूड़े का
संग्रह एवं प्रबंधन नवाचारी तरीकों द्वारा अब व्यवस्थित प्रक्रिया बन गया है जिसमें संग्रहण,
परिवहन और कचरा, सीवेज और अन्य अपशिष्ट उत्पादों का उचित निपटान को शामिल
कर दिया गया है। ये कचरे का ठीक तरीके से उपयोग तथा पुनरुपयोग के लिए विभिन्न
समाधान भी प्रदान करता है। कचरे के संग्रह के कुछ नवाचारी तरीके एवं उनका प्रबंधन
निम्नलिखित हैं―
◆ अनुपयोगी जैविक पदार्थों की पुनरावृत्ति करना और खाद तैयार करना ।
◆ कचरे को घरों से इकट्ठा करते समय ही इस बात की सावधानी बरती जाए कि
निस्तारित करने योग्य गीला कचरा जैसे कि खाद्य अपशिष्ट अलग जगह पर और
रिसायकल करने योग्य सूखे कचरे को अलग जगह पर इकट्ठा किया जाए । गीले
कचरे को अलग जमा कर उससे बायो कंपोस्ट बनाया जा सकता है।
◆ फिलहाल सूखे कचरे को जमा कर जमीन में डंप किया जा रहा है, लेकिन इसे
भी रिसायकल करने या बिजली बनाने जैसे उपायों पर विचार किया जा रहा है।
◆ जैव अनिम्नकरणीय पदार्थों जैसे प्लास्टिक कचरे, बिजली के उपकरण, इलेक्ट्रॉनिक
सामान आदि को जमीन में गाड़ने या इधर-उधर फेकने के बजाय संग्रह कर कचरे
वाले को दे देना । जिससे इनका सही प्रबंधन और रिसाइकिल किया जा सके,
इत्यादि । शहरी क्षेत्रों में यह कार्य नगरपालिका द्वारा किया जाता है।
कचरा प्रबंधन के अन्य नवाचारी तरीके हैं महासागर डंपिंग, स्वच्छ भराव क्षेत्र,
भस्मीकरण, खाद, अपशिष्टों का पृथक्करण, पुनर्नवीनीकरण और पुनःप्राप्ति, अपशिष्टों का
मैकेनिकल और जैविक उपचार, अपशिष्टों का मैकेनिकल वर्गीकरण इत्यादि ।
प्रश्न 16. शिक्षण से संबंधित एक ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग्स का निर्माण किस
प्रकार करेंगे?
उत्तर―ऑडियो-वीडियो क्लिप के माध्यम से शिक्षण कार्य ई-शिक्षा के अंतर्गत आता
है। ई-शिक्षा इलेक्ट्रॉनिक अनुप्रयोगों और सीखने की प्रक्रियाओं के उपयोग को संदर्भित
करता है। ई-शिक्षा के अनुप्रयोगों और प्रक्रियाओं में वेब-आधारित शिक्षा, कंप्यूटर-आधारित
शिक्षा, आभासी कक्षाएँ और डिजीटल सहयोग शामिल है। पाठ्य-सामग्रियों का वितरण
इंटरनेट, इंद्रानेटाएक्स्ट्रानेट, ऑडियो या वीडियो टेप, उपग्रह टीवी और सीडी-रोम (CD&ROM)
के माध्यम से किया जाता है । इसे खुद ब खुद या अनुदेशक के नेतृत्व में किया जा सकता
है और इसका माध्यम पाठ, छवि, एनीमेशन, स्ट्रीमिंग वीडियो और ऑडियो है।
ई-लर्निंग हेतु उपलब्ध, मोबाइल, कैमरा या ऑडियो या विडियो उपकरणों की सहायता
से 5 मिनट की किसी भी विषय पर डाक्यूमेंटरी/लघु फिल्म का निर्माण करके जैसे—उन्हें
विभिन्न प्रकार के चट्टानों और उनके बनने के तरीकों की वीडियो क्लिप्स दिखाकर उन्हें
चट्टानों की बनावट तथा उनकी जानकारी दे सकते हैं। बागवानी से संबंधित किसी एक सब्जी
या फूल के बीज बोने से लेकर उसकी देखभाल, कटनी, सिंचाई, कलम बांधना आदि का
ऑडियो निर्देशों के साथ वीडियो तैयार करके सब्जी की पैदावार बागवानी के द्वारा सब्जी की
पैदावार की विधि से प्रत्यक्ष रूप से परिचित कराया जा सकता है।
प्रश्न 17. कृषि एवं बागवानी से संबंधित कार्य शिक्षा की विभिन्न गतिविधियों का वर्णन करें।
अथवा,
बच्चों में कृषि एवं बागवानी से संबंधित कार्य योजना का निर्माण करें तथा इसके महत्व की
चर्चा करें।
उत्तर―कृषि एवं बागवानी से संबंधित कार्यों के द्वारा बच्चों में स्थानीय फल-फूल,
सब्जी, वनस्पति एवं फसलों की जानकारी, उनको उगाने के तरीके व उनके महत्व के बारे
में शिक्षा दी जा सकती है। बागवानी पौधों की खेती का विज्ञान है, यह फलों, वनस्पति/सब्जियों,
फूलों, गिरीदार फलों, मसालों और सजावटी पौधों के उत्पादन से संबंधित है। इसके लिए
निम्न चरणों में गतिविधि कराई जा सकती है―
◆ स्थान चयन
◆ मिट्टी तैयारी
◆रोपण हेतु पौधों का चयन
◆ पौधों का रोपण
◆ पर्याप्त जल उपलब्धता-सिंचाई कार्य
◆ मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिये खाद दिया जाना ।
◆ पीड़कों (दीमक, कीट, फफूंद आदि) से बचाव हेतु उचित उपाय किया जाना।
◆ पशु-पक्षी (गाय, बैल, बकरी, मुर्गी आदि) से सुरक्षा हेतु फेंसिंग/बाउंड्रीवाल निर्माण।
कृषि कार्य में उपयोगी आधुनिक विधियाँ हैं―बेहतर बीजों का प्रयोग, उचित सिंचाई
तथा रासायनिक खादों के प्रयोग से पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की आपूर्ति व
कीटनाशकों के प्रयोग से पौधों को लगने वाली बीमारियों व कीटाणुओं का नियंत्रण।
आधुनिक कृषि में ट्रैक्टर, कम्बाइन हार्वेस्टर व सिंचाई के लिये ट्यूबवेलों द्वारा आधुनिक जुताई
(खेती) की विधियों का प्रयोग किया है। उच्च उत्पादकता वाले बीजों के माध्यम से
खाद्य उत्पादन में भारी वृद्धि होती है । इसके माध्यम से बच्चों में यह समझ विकसित होनी
चाहिए कि आधुनिक कृषि का मुख्य उद्देश्य अच्छी फसल के साथ-साथ वायु, जल, भूमि
व मानवीय स्वास्थ्य का संरक्षण करना भी है।
प्रश्न 18. कृषि एवं बागवानी के कार्यों के लिए उपयुक्त जमीन का निर्माण,
स्थानीय फल-फूल, सब्जी वनस्पति एवं फसलों की जानकारी तथा उनको उगाना,
सिंचाई और खेतों के बारे में समझ, वृक्षारोपण आदि का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर―कृषि एवं बागवानी के लिए मौसम एवं मिट्टी के लिए उपयुक्त फसलों व पौधों
का चुनाव सर्वप्रथम कर लेना चाहिए। उसके बाद निम्न चरणों में प्रक्रिया संपन्न होनी
चाहिए―
(क) उपयुक्त जमीन का निर्माण―
◆ गड्डे तैयार करने के पूर्व एक निश्चित कार्य योजना बनाई जानी चाहिए, जिससे
गड्डे चिह्नित स्थान पर ही खोदे जा सकें।
◆ गड्डे सीधी लाईन में हो तथा उनके बीच की दूरी एक समान होना चाहिए।
◆ सामान्यतः वर्षाकाल के कुछ माह पूर्व गड्डे खोदने की प्रक्रिया आरंभ की जाती है।
◆ गड्डे का आकार पौधे की आवश्यकता के अनुरूप रखा जाना चाहिए।
◆ गड्डे को लगभग 30 से 45 दिन तक धूप में खुला छोड़ दिया जाना चाहिए।
◆ गड्डों की आपसी दूरी भी पौधे या बीज के फैलाव के अनुसार रखी जाती है।
◆ भूमि के चयन के आधार पर क्यारियों का आकार निश्चित किया जाता है । क्यारी
की चौड़ाई भी इतनी रखी जाए ताकि किनारे से सफाई-गुड़ाई करने में दिक्कत
न हो । क्यारियों की लम्बाई आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है। चयनित स्थानों
पर ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिये जहाँ पानी भराने की समस्या न हो और
न ही कीचड़युक्त जगह हो।
(ख) बुआई―
◆ पौधे लगाने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए।
◆ जिन क्यारियों को पूर्व में तैयार किया गया, उनमें बीज बोने की प्रक्रिया आरंभ की
जा सकती है।
◆ क्यारियों की खुदाई/जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बना लिया जाता है । इसके बाद
उसमें गोबर की खाद मिलाई जाती है। इन क्यारियों में बारीक बीजों को मिट्टी में मिलाकर
समान रूप से बिखरे दिये जाते हैं।
◆ बीज की बुआई के तत्काल बाद क्यारियों को झारे की सहायता से गीला किया जाता है।
(ग) स्थानीय फल-फूल, सब्जी, वनस्पतियों एवं फसलों की जानकारी तथा
उनको उगाना―उदाहरण के लिए बिहार में मक्के की खेती बहुतायत में की जाती है।
इसकी खेती हमारे यहाँ खरीफ रखी एवं गरमा सभी मौसमों में की जाती है। हमारे यहाँ रबी
मक्के की खेती वृहत पैमाने पर सिंचित अवस्था में मुख्यतः दियारा एवं टाल क्षेत्रों में की
जाती है।
खेत की तैयारी―
◆ मक्का की बोआई के लिये एक-दो गहरी जुताई करके पाटा चला देना चाहिए
जिससे कि खेत ढेले रहित एवं मिट्टी भूरभूरी हो जाय । बोआई से पहले प्रति
हेक्टेयर 10-15 टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट का व्यवहार करें।
◆ बुआई से पूर्व बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित करना आवश्यक है।
◆ दाना बनने तक खेत में पर्याप्त नमी का रहना अत्यन्त आवश्यक है। खरीफ में
सिंचाई की आवश्यकता प्राय: नहीं पड़ती है बल्कि जल निकास का प्रबध अत्यंत
आवश्यक है। सूखा पड़ने पर दोनों में दूध बनते समय नमी के लिए सिंचाई
आवश्यक है।
◆ 50 से 55 दिनों में खरीफ और गरमी के मौसम में 35-40 दिनों बाद भुट्टे परिपक्व
हो जाने पर कटनी कर लेनी चाहिए।
(घ) सिंचाई और खाद के बारे में समझ―पौधों की सिंचाई के लिए उचित विधि
अपनाना आवश्यक होता है। पौधों की सिंचाई आवश्यक मात्रा में ही करना उचित होता
है अन्यथा अधिक जल पौधों को हानि पहुंचा सकता है।
◆ छोटे पौधों एवं क्यारियों में झारे द्वारा पानी देना चाहिए जिससे मिट्टी का क्षरण न
हो तथा पौधों की जड़ें भी खुली न रहे।
◆ बड़े पौधों व वृक्षों में नाली बनाकर अथवा नाला बनाकर पानी देना उचित होता है।
◆ फूलों, सब्जियों एवं मौसमी पौधों की छोटी-छोटी क्यारियों में रबर के पाईप द्वारा
क्यारी के एक सिरे पर पानी छोड़कर सिंचाई की जा सकती है। अलग-अलग
पौधों की आवश्यकताओं के आधार पर खाद तथा जैविक खाद का प्रबंध किया
जा सकता है। जैसे―
◆ गोबर की खाद
◆ कूड़े कचरे से तैयार कम्पोस्ट खाद
◆ हरी खाद
◆ खलियों के चूर्ण से बनी खाद
◆ मछली के चूर्ण की खाद
◆ वर्मी कम्पोस्ट खाद
◆ मुर्गियों की बीट से तैयार खाद
◆ फास्फोरस व पोटेशियम युक्त रासायनिक उर्वरक इत्यादि ।
प्रश्न 19. मिट्टी के विभिन्न कामों से जुड़ी कार्य शिक्षा के लिए कार्य योजना बनाएं। इनके महत्व
व विधियों की भी चर्चा करें।
उत्तर―ग्रामीण अंचलों के बच्चों का मिट्टी से सीधा संबंध होता है। ये आपस में खेलने
के लिये मिट्टी से छोटे-छोटे बर्तन, गिलास, चूल्हा आदि खिलौने बचपन से ही बनाते रहते
हैं और यह काम वे बड़े ही सहज ढंग से करते हैं। इसके अलावा ग्रामीण परिवेश में मिट्टी
आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अत: इसके माध्यम से बच्चों में सरलतापूर्वक सृजनात्मकता
का विकास किया जा सकता है, उदाहरण के लिए―
(क) मिट्टी के बर्तन―सिरेमिक पॉट (ceramic pot)
आवश्यक सामग्री―
◆ मिट्टी का पॉट
◆ सिरेमिट
◆ पेपर मैसी
◆ ब्रश, फेविकाल
◆ आयल पेंट
बनाने की विधि―
1. सर्वप्रथम मिट्टी के पॉट पर आयल पेंट कर उसे सूखने दें।
2.फिर उस पर मनचाही आकृति बनाने के लिए सिरेमिक पाउडर, पेपर मैसी को
फेविकॉल में मिलाकर आटे के समान गूथ लें।
3.फिर उससे पॉट पर मनचाहे आकार में आकृति बनाएं।
4. पॉट पर फेविकॉल लगाकर उस पर सिरेमिक से छोटे-छोटे आकार के विभिन्न
डिजाइन लगा सकते हैं
5. सूखने के बाद कलर कर दें।
(ख) मिट्टी के खिलौने-मिट्टी का कछुआ ।
आवश्यक सामग्री―
◆ अलग-अलग साइज के मिट्टी के दीये
◆ सिरेमिक पाउडर या शिल्पकार मिट्टी
◆ फेविकॉल
◆ कलर या पेंट
◆ ब्रश
बनाने की विधि―
1. मिट्टी का कछुआ बनाने के लिए सर्वप्रथम मिट्टी के दीये को उल्टा रखें।
2. सिरेमिट पावडर में फेविकॉल मिक्स कर आटे के समान गूंथ लें या शिल्पकार मिट्टी
को मिक्स कर छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर रख लें।
3. मिट्टी के दिये में फेविकॉल लगाकर उसे चिपका लें।
4. चेहरे तथा पैर का निर्माण उसी पदार्थ से करें।
5. सूख जाने पर इस पर कलर कर लें इस प्रकार कछुआ तैयार है।
प्रश्न 20. चाक के माध्यम से मिट्टी के बर्तन बनाने की प्रक्रिया को समझाएं तथा
तरह-तरह की मिट्टीयों का वर्णन करें।
उत्तर―चाक एक प्रकार के भारी, चपटे गोलाकार पत्थर होते हैं । घूर्णन से इनमें ऊर्जा
उत्पन्न होती है। इसे किसी डंडे या पैर या हाथ से तेजी से घुमाने पर अपकेंद्रीय बल पैदा
होता है। तेजी से चलने वाले इस चाक ने बर्तन बनाने की नई कला को जन्म दिया । इस
चाक के बीचो-बीच मिट्टी का एक गोला रख दिया जाता है और चलते हुए चाक पर इस
मिट्टी को हाथ से दाबकर, उठाकर अपेक्षित आकार में ढाल दिया जाता है । इस प्रक्रिया में
बनने वाले मिट्टी के बर्तनों के अंदरूनी हिस्से में चक्राकार उभार उत्पन्न हो जाते हैं । यही
चक्राकार उभार चाक पर निर्मित बर्तनों को हाथ से निर्मित बर्तनों से अलग आकार व रूप
देते हैं । इस प्रक्रिया का इस्तेमाल कम मोटाई वाले तथा सुराहीदार बर्तनों सहित विभिन्न प्रकार
के पात्र को बनाने के लिए किया जाता है । बने मिट्टी के बर्तनों को धूप या आंच में पकाकर
तथा पेंट कर उपयोग के लिए तैयार किया जाता है। उदाहरण―
मिट्टी के प्रकार―
(क) जलोढ़ मिट्टी―जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil) को दोमट और कछार मिट्टी के
नाम से भी जाना जाता है। नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी को जलोढ़ मिट्टी कहते हैं । यह भुरभुरा
अथवा ढीला होता है अर्थात् इसके कण आपस में सख्ती से बंधकर कोई ‘ठोस’ शैल नहीं
बनाते । जलोढ़ मिट्टी प्रायः विभिन्न प्रकार के पदार्थों से मिलकर बनी होती है जिसमें गाद
(सिल्ट) तथा मृत्तिका के महीने कण तथा बालू तथा बजरी के अपेक्षाकृत बड़े कण भी होते
है। यह मिट्टी हमारे देश के समस्त उत्तरी मैदान में पाई जाती है। यह मिट्टी कृषि के लिए
बहुत उपयोगी है।
(ख) काली मिट्टी–काली मिट्टी (Black Soil) में एक विशेषता यह है कि यह नमी
को अधिक समय तक बनाये रखती है। इस मिट्टी को कपास की मिट्टी या रेगड़ मिट्टी भी
कहते हैं। इससे पोटास की बहुलता होती है। इस मिट्टी का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइड
एवं जीवांश (Humus) की उपस्थिति के कारण होता है । काली मिट्टी कपास की उपज के
लिए महत्त्वपूर्ण है । यह मिट्टी लावा प्रदेश में पाई जाती है।
(ग) लाल मिट्टी― लाल मिट्टी प्राचीन रवेदार और परिवर्तित चट्टानों की टूट-फूट से
बनती है और यह मिट्टी पानी के संपर्क में आने से हल्की-हल्की पीली दिखती है । इस मिट्टी
में लोहा, ऐल्युमिनियम और चूना अधिक होता है । यह चट्टानों की कटी हुई मिट्टी है। यह
मिट्टी अधिकतर दक्षिणी भारत में मिलती है।
(घ) लैटेराइट मिट्टी―यह लेटेराइट चट्टानों की टूट-फूट से बनती है। लैटेराइट मिट्टी
(Laterite Soil) के क्षेत्र दक्षिणी प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्व की ओर पतली पट्टी के रूप में
मिलते हैं।
(ङ) रेगिस्तानी मिट्टी—यह रेतीली मिट्टी राजस्थान के थार प्रदेश में, पंजाब के
दक्षिणी में और राजस्थान के कुछ अन्य भागों में मिलती है।
प्रश्न 21. गृह वाटिका या किचन गार्डेन किसे कहते हैं ? इसके क्या लाभ हैं?
इसे बनाने की कार्य योजना स्पष्ट करें।
उत्तर―घर के आसपास के वातावरण को मनमोहक बनाने के उद्देश्य से आसपास की
खुली जमीन पर फल, फूल, सब्जी वाले पौधे उगाने के लिए गृहवाटिका (किचन गार्डन)
तैयार की जाती है। बाजार में उपलब्ध फल व सब्जियाँ विभिन्न जहरीले रासायनिक पदा
का उपयोग कर उत्पादित की जाती है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। गृह वाटिका
हमें स्वच्छ एवं जहरीले पदार्थरहित सब्जियाँ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर
सकती है।
इसके अन्य कई लाभ हो सकते है―
◆ प्रतिदिन ताजी सब्जियाँ, फल, फूल आदि घरेलू उपयोग के लिए प्राप्त होते हैं।
◆ परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त समय का सदुपयोग होता है।
◆ घर/विद्यालय/संस्थान के बेकार पानी क उपयोग लगाये गये पौधों में किया जा सकता है।
◆ घरेलू कूड़ा कचरे को कम्पोस्ट कर उपयोगी खाद बनाया जा सकता है। किचन
गार्डन के प्रकार :
I. शाक-भाजी एवं पुष्प उत्पादन―इस प्रकार की बागवानी में सब्जियाँ और पुष्प दोनों
उगाए जाते हैं । इसे मिश्रित बागवानी (mixed gardening) कहते हैं।
II. सब्जियाँ उगाना (vegetable garden)―इसमें केवल शाक-सब्जियाँ ही उगाए
जाते हैं। इसमें सब्जियों के साथ-साथ नींबू, केला, पपीता आदि छोटे कद के पौधे उगाए
जा सकते हैं।
III. पुष्प उगाना (flower garden)―इस प्रकार की बागवानी में केवल पुष्प उगाए
जाते हैं। घर में सजावटी पौधे, लॉन, हेज, बास्केट आदि लटका कर उसमें पौधे लगा कर
घर सुशोभित किया जाता है। परिवेश के अनुसार झाड़ियाँ, लताएँ भी लगाई जाती हैं।
कार्ययोजना―
◆ गृहवाटिका के लिए सबसे पहले उपलब्ध भूमि का चयन करें लें।
◆ गृह वाटिका में बनाई जाने वाली क्यारियों, गमलों, कम्पोस्ट खाद, गड्डे, पौधों
आदि के लिए स्थान का निर्धारण करना चाहिए।
◆ सिंचाई एवं अतिरिक्त जल के निरंतर के लिए नालियों की जगह भी निर्धारित
करना चाहिए।
◆ फलदार पौधों की कम फैलने वाली किस्मों का चुनाव करना चाहिए ।
◆ मूली, शलजम इत्यादि जड़वाली फसलों को मेड़ों पर बोना चाहिए।
प्रश्न 22. विभिन्न प्रकार के पशुपालन संबंधी एवं लघु उद्योगों की समझ विकसित करें।
उनके महत्व की भी चर्चा करें।
अथवा,
पशुपालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन, रेशम उद्योग, दुग्ध उद्योग आदि की
समझ विकसित करें। उनके महत्व की भी चर्चा करें।
उत्तर―(क) पशुपालन-पशुपालन कृषि विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत
पालतू पशुओं के विभिन्न पक्षों जैसे भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य, प्रजनन आदि का अध्ययन
किया जाता है। व्यावसायिक दृष्टि से पशुपालन के द्वारा पशुओं से प्राप्त होने वाले दूध, अंडे,
मांस, खाल, बाल आदि के व्यापार के लिए पशुपालन केंद्रों में उन्हें पाला जाता है । पशुपालन
का कृषि से गहरा संबंध है, क्योंकि कृषि संबंधी विभिन्न क्रिया, जैसे-जुताई, बुआई, खाद
देना, दुलाई आदि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर पशुओं से ही कराई जाती है। वहीं पशुपालन
का चिकित्सा के क्षेत्र में भी अधिक उपयोग है। ऐसा माना जाता है कि पशओं के गोबर
व मूत्र में कीटाणुनाशक गुण पाये जाते हैं, इसलिए गोबर का प्रयोग लिपाई हेतु होता है।
पशुपालन से अनेक उद्योग जुड़े हुए हैं, जिनसे राष्ट्रीय आय में योगदान प्राप्त हो रहा है।
पशुओं के गोबर से गैस बनाकर नवीनतम ऊर्जा के स्रोत के रूप में अपनाया जा रहा है।
पशुपालन केंद्रों में पशुओं की देखभाल व प्रबंधन निम्नलिखित प्रकार से किया जाता है-
1. पशुओं के आवास की व्यवस्था सर्वसुविधायुक्त जिसमें हवा के लिए रोशनदान,
नालियाँ, चारे के लिए नद आदि उचित साधनों के साथ स्वच्छता हो ।
2. पौष्टिक आहार, ताजा चारा एवं स्वच्छ पानी का प्रबंध ।
3. गोबर, मूत्र एवं अन्य कचरे की नियमित साफ-सफाई ।
4.समय-समय पर पशुओं को नहलाने एवं खुरैरा की व्यवस्था ।
5. संक्रामक रोगों से बचाने हेतु टीकाकरण ।
6. पशुओं को अधिक सर्दी व गर्मी से बचाने हेतु समुचित व्यवस्था ।
(ख) मत्स्य पालन―मत्स्योद्योग (fisheries) या मत्स्य पालन आर्थिक लाभ के लिये
मछली पालने, पकड़ने व उनसे खाद्य और अन्य उत्पादन बनाने के उद्योग को कहते हैं।
यह अक्सर समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों की अर्थव्यवस्थाओं में बहुत महत्व रखता है। मत्स्योद्योग
कई प्रकार के होते हैं और उसकी गतिविधियाँ स्थान, मछली के प्रकार, मछली पालने व
पकड़ने के उपकरणों और नौकाओं के अनुसार भिन्न होती हैं। मछली, मांस, अण्डे, दूध,
दालों आदि का उपयोग संतुलित आहार में प्रमुख रूप से किया जा सकता है। कैल्शियम,
पोटैशियम, फास्फोरस, लोहा, सल्फर, मैग्नीशियम, तांबा, जस्ता, मैग्नीज, आयोडीन आदि
खनिज पदार्थ मछलियों में उपलब्ध होते हैं जिनके फलस्वरूप मछली का आहार काफ़ी
पौष्टिक माना गया है। इनके अतिरिक्त राइबोफ्लोविन, नियासिन, पेन्टोथेनिक एसिड,
बायोटीन, थाइमिन, विटामिन बी12,बी6 आदि भी पाये जाते हैं जोकि स्वास्थ्य लिए काफी
लाभकारी होते हैं। विश्व के सभी देशों में मछली के विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर उपयोग
में लाये जाते हैं।
विभिन्न प्रकार के तालाब, पोखरें और जल प्रणालियाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनमें
वैज्ञानिक रूप से मत्स्य पालन अपना कर मत्स्य उत्पादन में वृद्धि करके लोगों को पोषक
और संतुलित आहार उपलब्ध कराया जा सकता है। मछलीपालन हेतु तालाब में जो खाद,
उर्वरक, अन्य खाद्य पदार्थ इत्यादि डाले जाते हैं उनसे तालाब की मिट्टी तथा पानी की
उर्वरकता बढ़ती है, परिणामस्वरूप फसल की पैदावार भी बढ़ती है। इन वनस्पतिक फसलों
के कचरे जो तालाब के पानी में सड़ गल जाते हैं वह पानी व मिट्टी को अधिक उपजाऊ
बनाता है जिससे मछली के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक आहार प्लैकटान (प्लवक) उत्पन्न होता
है। मछलियों को आवश्यकतानुसार खाद्य की आपूर्ति, उनकी देखभाल तथा उचित प्रबंधन
द्वारा प्रतिमाह मछलियों का उत्पादन किया जा सकता है।
(ग) मधुमक्खी पालन–मधु, परागकण आदि की प्राप्ति के लिये मधुमक्खियाँ पाली
जाती हैं। यह एक क्रिषि आधारित उद्योग है। मधुमक्खियाँ फूलों के रस को शहद में बदल
देती हैं और उन्हें अपने छत्तों में जमा करती हैं। शहद एक स्वादिष्ट और पोषक खाद्य पदार्थ
है। बाजार में शहद और इसके उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण मधुमक्खी पालन अब एक
लाभदायक और आकर्षक उद्यम के रूप में स्थापित हो चला है। मधुमक्खी पालन के उत्पाद
के रूप में शहद और मोम आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
मधुमक्खी पालन का पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मधुमक्खियाँ कई
फूलवाले पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस तरह वे सूर्यमुखी और
विभिन्न फूलों की उत्पादन मात्रा बढ़ाने में सहायक होती हैं।
मधुमक्खी पालन किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा शुरू किया जा सकता है।
मधुमक्खियों को आसानी से लकड़ी के बक्सों में पाला जा सकता है। उत्तम रखरखाव से
मधुमक्खी परिवार शक्तिशाली एवं क्रियाशील बनाये रखे जा सकते है । मधुमक्खी परिवार
को विभिन्न प्रकार के रोगों एवं शत्रुओं का प्रकोप समय समय पर होता रहता है। जिनका
निदान उचित प्रबंधन द्वारा किया जा सकता है। देशी मधुमक्खी प्रतिवर्ष औसतन 5-10
किलोग्राम शहद प्रति परिवार तथा इटैलियन मधुमक्खी 50 किलोग्राम तक शहद उत्पादन
करती हैं।
(घ) रेशम उद्योग―रेशम (Silk) प्राकृतिक प्रोटीन से बना रेशा है। रेशम के कुछ
प्रकार के रेशों से वस्त्र बनाए जा सकते हैं। ये प्रोटीन रेशों में मुख्यतः फिब्रोइन (fibroin)
होता है। ये रेशे कुछ कीड़ों के लार्वा द्वारा बनाया जाता है। सबसे उत्तम रेशम शहतूत के
पत्तों पर पलने वाले कीड़ों के लार्वा द्वारा बनाया जाता है । ये कीड़े तितली की जाति के हैं।
इनके कई कार्याकल्प होते हैं। अंडा फूटने पर ये बड़े पिल्लू के आकार में होते हैं और रेंगते
है। इस अवस्था में ये पत्तियाँ बहुत खाते हैं । शहतूत की पत्ती इनका सबसे अच्छा भोजन
है। ये पिल्लू बढ़कर एक कोश बनाकर उसके भीतर हो जाते हैं । उस समय इन्हें ‘कोया’
कहते हैं । कोश के भीतर ही यह कीड़ा वह तंतु निकालता है, जिसे रेशम कहते हैं । कोश
के भीतर रहने की अवधि जब पूरी हो जाती है, तब कीड़ा रेशम को काटता हुआ निकलकर
उड़ जाता है। इससे कीड़े पालने वाले निकलने के पहले ही कोयों को गरम पानी में डालकर
कीड़ों को मार डालते हैं और तब ऊपर का रेशम निकालते हैं।
कच्चा रेशम बनाने के लिए रेशम के कीटों का पालन सेरीकल्चर या रेशम कीट पालन
कहलाता है। रेशम उत्पादन का आशय बड़ी मात्रा में रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम
उत्पादक जीवों का पालन करना होता है । इसने अब एक उद्योग का रूप ले लिया है। यह
कृषि पर आधारित एक कुटीर उद्योग है । इसे बहुत कम कीमत पर ग्रामीण क्षेत्र में ही लगाया
जा सकता है। कृषि कार्यों और अन्य घरेलू कार्यों के साथ इसे अपनाया जा सकता है। श्रम
जनित होने के कारण इसमें विभिन्न स्तर पर रोजगार का सृजन भी होता है और सबसे बड़ी
बात यह है कि यह उद्योग पर्यावरण के लिए मित्रवत है।
(ङ) दुग्ध उद्योग―दुग्ध कृषि (Dairy farming) या डेरी उद्योग या दुग्ध उद्योग कृषि
की एक श्रेणी है । यह पशुपालन से जुड़ा एक बहुत लोकप्रिय उद्यम है जिसके अंतर्गत दुग्ध
उत्पादन, उसकी प्रोसेसिंग और खुदरा बिक्री के लिए किए जाने वाले कार्य आते हैं। इसके
कास्ते गाय–भैसों, बकरियों या कुछेक अन्य प्रकार के पशुधन के विकास का भी काम किया
जाता है। डेरी फार्मिंग के अंतर्गत दूध देने वाले मवेशियों का प्रजनन तथा देखभाल, दूध की
खरीद और इसकी विभिन्न डेरी उत्पादोंके रूप में प्रोसेसिंग आदि कार्य सम्मिलित हैं।
दुग्धशाला या डेयरी में पशुओं का दूध निकालने तथा तत्सम्बन्धी अन्य व्यापारिक एवं
औद्योगिक गतिविधियों की जाती हैं । इसमें प्रायः गाय और भैंस का दूध निकाला जाता है
किन्तु बकरी, भेड़, ऊँट और घोड़ी आदि के भी दूध निकाले जाते हैं। छोटे डेयरी में दूध
निकालने के साथ-साथ एक संसाधन द्वारा दूध से मक्खन, चीज और दही बनाने का काम
होता है । डेयरी वह जगह भी हो सकती है जहाँ डेयरी उत्पादों का प्रसंस्करण, वितरण और
बिक्री होती है, या एक कमरा, भवन या स्थान होता है जहाँ दूध को संग्रहीत कर, संसाधित
कर मक्खन या चीज जैसे उत्पाद बनाए जाते हैं । एक डेयरी फार्म दूध का उत्पादन करता
है और एक डेयरी कारखाना संसाधन द्वारा कई किस्म के डेयरी उत्पाद तैयार करता है। ये
प्रतिष्ठान डेयरी उद्योग का गठन करते हैं जो खाद्य उद्योग का ही एक घटक है।
जब बड़ी संख्या में गायों को दुहना जरूरी होता है तब उन्हें शेड या बाड़े में ले आया
जाता है जहाँ उनके (स्टाल) में पुआल खाने की व्यवस्था रहती है और इसी बहाने उनका
दूध दुह लिया जाता है। पशुओं के झुंड का आकार बड़ा हो तो उसी के अनुपात में वहाँ
मशीन से दुहने की, दूध के भंडारण की सुविधाएँ (वैट), थोक दूध के परिवहन की, सफाई
क्षमताओं की और गायों को शेड से खलिहानों तक ले जाने और लाने की व्यवस्था होती है।
(च) कुक्कुट पालन―मांस अथवा अण्डे की प्राप्ति के लिये मुर्गी, टर्की, बत्तख
आदि जानवरों को पालन कुक्कुट पालन (Poultry farming) कहलाता है। छोटे स्तर पर
मुर्गी पालन से अतिरिक्त आय प्राप्त होती है साथ ही मुर्गी का मल (विष्ठा) का उपयोग
बटन मशरूम उत्पादन हेतु कम्पोस्ट बनाने तथा खाद के रूप में खेतों में प्रयोग से फसल
की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होती है । मुर्गी पालन से बहुत लाभ है, इससे परिवार को अतिरिक्त
आय, कम विनियोग पर ज्यादा लाभ प्राप्त होता है।
कुक्कुट पालन के लिये और बहुत सी जरूरी बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर व्यवसाय
प्रारंभ करना चाहिए जैसे कुक्कुट पालन के स्थान से निकट बाजार की स्थिति व मुर्गी उत्पादन
की मांग प्रमुख है। कुक्कुट पालन के स्थान मांस व अंडे की खपत वाले स्थान के पास
हो तो ठीक रहता है। मुर्गीशाला ऊँचाई पर व शुष्क जगह पर बनानी चाहिए । मुर्गी आवास
में दो प्रकार की विधियाँ प्रचलित हैं। पहली पिंजरा पद्धति तथा दूसरी डीपलिटर पद्धति ।
मुर्गियों में होने वाले घातक रोग जिनमें आन्तरिक व बाह्य-परजीवी रोग जिनका समय पर
ध्यान रखना आवश्यक है।
मुर्गी के आवास में विभिन्न प्रकार के उपकरण काम में आते हैं। जैसे―ब्रूडर कृत्रिम
प्रकार से गर्मी पहुँचने के पद्धति में लोहे के मोटे तार द्वारा बने हुए पिंजरों में दो या उससे
ज्यादा मुर्गियों को एक साथ रखा जाता है। डीपलिटर पद्धति में एक बड़े पूरे मकान के आंगन
पर चावल के छिलके, तुड़ी के टुकड़े या लकड़ी का बुरादा बिछा देने के काम आता है।
और दूसरा है दड़बा जो कि मुर्गियों के अंडे देने के लिये बनाया जाता है अन्य उपकरण जैसे
पर्च मुर्गियों के बैठने के लिए विशेष लकड़ी या लोहे से बनाया जाता है। आहार व पानी
के लिए बर्तन आदि।
प्रश्न 23. कचरे के उचित निपटारे, संग्रह एवं प्रबंधन में जागरूकता कार्यक्रमों
का क्या महत्व है ? इसकी चर्चा करें।
अथवा,
कचरे के प्रबंधन की समझ बच्चों या समाज में विकसित करने में जागरूकता
कार्यक्रम क्या भूमिका निभा सकते हैं ?
उत्तर―कचरे के प्रबंधन, उसके पुनः उपयोग व कचरे के प्रबंधन के महत्व से संबंधित
जागरूकता कार्यक्रम से कचरा प्रबंधन के प्रति बच्चों को जागरूक किया जाना आवश्यक
है। इससे सफाई की अहमियत और उसके फायदे के बारे में बच्चों को जानकारी होगी।
कचरा उत्सव जैसे कार्यक्रमों का आयोजन करके छात्र-छात्राओं को कचरा प्रबंधन और
सफाई से जुड़ी जानकारियों दी जा सकती हैं । उत्सव में सूखा और गीला कचरा की पहचान
और उन्हें अलग-अलग रखने की विधि की जानकारी, स्कूल के परिसर के आसपास के
समुदाय में रहने वाले लोगों को कचरा प्रबंधन के लिए जागरूक करना, छात्रों को संसाधन
विकसित करने की जानकारी दी जा सकती है। कचरा उत्सव के दौरान सूखा एवं गीला
कचरा के पुनर्चक्रण एवं पुनः व्यवहार के संबंध में छात्र-छात्राओं को जानकारी देना और
इनसे उपयोगी संसाधनों को विकसित करने की जानकारी दी जानी चाहिए। इससे छात्रों का
उत्साह भी बढ़ेगा। छात्र ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से यह भी जानेंगे कि यदि हम इन अपशिष्ट
पदार्थों का सही तरीके से प्रबंधन, निपटान तथा पुन: उपयोग करते हैं, तो यह हमें कई प्रकार
के लाभ दे सकते हैं, जैसे ये व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर पैसे बचाने में हमारी सहायता
कर सकते हैं साथ ही पर्यावरण को स्वच्छ एवं सुरक्षित रखने में भी लाभकारी हैं।
प्रश्न 24. कबाड़ से जुगाड़ की अवधारणा की समझ विकसित करें । इसके लाभ
अथवा महत्त्वों की चर्चा करें।
उत्तर―दैनिक जीवन में फेंक दिये जाने वाले कबाड़ से उपयोगी वस्तुओं के निर्माण
का तरीका ही कबाड़ से जुगाड़ है। कबाड़ या कम लागत की सामग्री में भी महंगे उपकरणों
के समान ही स्वनिर्मित उपकरण (या प्रतिरूप) का निर्माण किया जा सकता है जो सस्ते
होने के साथ-साथ अध्यापक एवं विद्यार्थियों में उत्साह भी उत्पन्न करेंगे। कबाड़ से जुगाड़
से कम लागत में शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण भी किया जा सकता है। ऐसी सामग्रियों
को, जो हमारे कोई काम के नहीं होते। जिन्हें हम कबाड़ कहते हैं और हम उन्हें घर के
बाहर फेंक देते हैं। ऐसे ही बेकार पड़ी चीजों से विज्ञान एवं अन्य विषयों की विषय वस्तु
को विद्यार्थियों को स्पष्ट करने के लिए उन्हीं वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए
दूरबीन का निर्माण-उसके लिए दो ऐसे बेलन के आकार के गत्ते प्राप्त करेंगे जिसमें एक
का व्यास दूसरे से कम हो ताकि दोनों गत्तों के बेलनों को एक दूसरे में चलाया जा सके।
इसमें एक बेलन के सामने अधिक फोकस दूरी (जैसे 50 सेमी) एवं अधिक व्यास का उत्तल
लेंस लगाएँगे यह वस्तु की तरफ रहेगा। इसी प्रकार दूसरे बेलन में कम फोकस दूरी (जैसे
5 सेमी) व कम व्यास का उत्तल लेंस लगाएँगे जिसे आँखों की तरफ रखेंगे । उक्त उदाहरण
के लेंसों से वस्तु का आवर्धन 10 होगा अर्थात् वस्तु 10 गुनी बड़ी दिखाई देगी । बेलनों को
एक दूसरे में आगे-पीछे चलाकर दूरबीन को समंजित किया जा सकता है।
ph
इस प्रकार हम देखते हैं कबाड़ से बने शिक्षण अधिगम सामग्री के उपयोग से शिक्षण
की प्रभावशीलता काफी अधिक बढ़ जाती है। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि शिक्षण
अधिगम सामग्री छोटी-छोटी दैनिक जीवन की वस्तुएँ कबाड़ एवं आसानी से प्राप्त हो जाने
वाली सामग्रियों से भी बनाया जा सकता है। साथ ही इनका उपयोग भी किया जा सकता
है। इनके उपयोग से न केवल अनुदेशन में सहायता मिलती है अपितु विद्यार्थी भी क्रियाशील
हो जाते हैं । कबाड़ से वस्तुओं का निर्माण करना न सिर्फ उपयोगी होता है बल्कि यह बच्चों
में नवाचारी तकनीकों व चिंतन का विकास करने और उनमें आनंद की अनुभूति व उत्साह
का संचार भी करता है।
प्रश्न 25. अपने घर के कूड़े का उचित निपटारा किस प्रकार करेंगे ? स्पष्ट करें।
अथवा,
कूड़े के संग्रह एवं प्रबंधन के नवाचारी तरीकों की व्यवस्था की समझ विकसित करें।
उत्तर―कूड़े-कचरे का छोटे स्तर पर निष्पादन के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए
जा सकते हैं―
(क) कम्पोस्टिंग (खाद बनाना)―यह वह प्रक्रिया है जिससे घरेलू कचरा जैसे
घास, पत्तियाँ, बचा खाना, गोबर वगैरह का प्रयोग खाद बनाने में किया जाता है। गड्ढे में
घरेलू कृषि, कूड़ा-कचरा एवं गोबर भूमि में गाड़ देना होता है। खाद करीब छह महीने के
अंदर तैयार हो जाती है। गड्ढे से खाद निकाल कर ढेर करके मिट्टी से ढक देनी चाहिए।
इसे खेती के उपयोग में ला सकते हैं।
(ख) वर्मीकल्चर―यह कचरे से खाद बनाने की एक प्रक्रिया है। इसमें केचुओं द्वारा
जैविक विघटन कचरा जैसे सब्जी का छिलका, पत्तियाँ, घास, बचा हुआ खाना इत्यादि से
खाद तैयार की जाती है। एक लड़की के बक्से या मिट्टी के गड्ढे में एक परत जैविक विघटन
कचरे की परत बिछाई जाती है और उसके ऊपर कुछ कचुएं छोड़ देते हैं। उसके ऊपर
कचरा डाल दिया जाता है और गीलापन बरकरार रखने के लिए पानी का छिड़काव किया
जाता है। कुछ समय के उपरान्त यह बहुत ही अच्छी खाद के रूप में परिवर्तित हो जाती
है।
शहरों में घरेलू कचरा निपटान की उचित व्यवस्था नगरपालिका द्वारा की जाती है। यहाँ
से जैविक और अजैविक कचरे को अलग-अलग ट्रीटमेंट प्लांट में ले जाकर उसका उपचार
किया जाता है। आज कल अपशिष्ट प्रबंधन में कई नवाचार उपलब्ध देखने को मिलते हैं
जैसे उपयोग करने योग्य उत्पादों का पुनर्नवीनीकरण, अपशिष्ट पदार्थों से मीथेन या ईंधन पैदा
करना, फर्नीचर आदि के लिए नए उत्पादों का निर्माण करना इत्यादि ।
प्रश्न 26. बिजली के विभिन्न कार्यों की समझ विकसित करते हुए उनकी कार्य
योजना तथा उपयोगिता की चर्चा करें।
उत्तर―(क) सामान्य वायरिंग की समझ–विद्युत-तार स्थापन या विद्युत वायरिंग
(Electrical Wiring) का सामान्य अर्थ है किसी भवन, किसी इंजीनियरिंग संरचना
(engineered structure) आदि में विद्युत के तार द्वारा विविध विद्युत उपकरणों को जोड़ना
ताकि साधारण प्रयोक्ता उसका आसानी से और सुरक्षित ढंग से उन उपकरणों को चला सके ।
जब भी हाउस वायरिंग शुरू करें तो इसे शुरू करने से पहले इस बात का अच्छी तरह से
फैसला कर लें कि घर में किस जगह पर कौन से मोरयल का इस्तेमाल करना आसान और
ज्यादा सुरक्षित होगा। ये निश्चित कर लें कि कहाँ पर बिजली मीटर लगवाना है, कहाँ पर
बोर्ड फिटिंग किया जाना है और बोर्ड में कौन-कौन से मेटेरियल कितनी संख्या में लगाना
है? इसका नक्शा बना लें।
(ख) विद्युत वायरिंग की विधि―सबसे पहले सीधी लाइन खीचें जिसके ऊपर
वायरिंग के लिए पाईप वायरिंग या केसिंग केपिंग करने में मदद मिलती है। इससे वायरिंग
की स्थिति सीधी बनी होती है। इसमें तीन तरह के तारों (वायरों) का उपयोग किया जाता
है-लाल, काला व हरा । लाल रंग के तार को हमेशा स्विच से ऑपरेट किया जाता।
काला तार न्यूट्रल के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह सॉकेट के बायीं ओर लगाया जाता
है। हरे रंग के तार को हमेशा अर्थ के लिए उपयोग किया जाता है, जो सॉकेट के ऊपर
वाले पिन से कनेक्ट किया जाता है।
(ग) स्विच बोर्ड लगाने की विधि―सबसे पहले एक स्विच बोर्ड ले, बाजार में कई
प्रकार के स्विच बोर्ड (चार स्विच एक सॉकेट या पाँच स्विच दो सॉकेट) उपलब्ध होते हैं।
सबसे पहले स्विच के नीचे के सभी पिनों को आपस में सेट करें। कोई भी एक स्विच के
पर वाले पिन से एक तार सेट करें, फिर उसी तार के दूसरे हिस्से को सॉकेट के दायीं ओर
कसें । सॉकेट के बायीं ओर न्यूट्रल तार कसें । इसके बाद स्विच बोर्ड के सॉकेट को स्विच
से ऑपरेट कर सकते हैं।
(घ) बिजली के घरेलू उपकरणों की मरम्मत–आमतौर पर हमें बिजली के घरेलू
उपकरणों की सामान्य तौर पर मरम्मत की जानकारी होनी चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने
पर स्वयं भी हम बिजली के छोटे-मोटे उपकरणों की मरम्मत कर सकें। जैसे—स्विच
बदलना, पंखों की ग्रिजिंग (oiling) करना, फ्यूज बदलना, सॉकेट बदलना, जले हुए तार
बदलना इत्यादि।
(ङ) बिजली बचाने के तरीकों की समझ―
◆ बिजली के पुराने बल्ब की जगह एलईडी बल्ब का इस्तेमाल । यह 80 फीसद तक
बिजली की बचत करता है।
◆ अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को पावर एक्सटेंशन कॉर्ड से जोड़ें और रात को
इस्तेमाल नहीं होने पर उसे बंद कर दें। यह कंप्यूटर, प्रिंटर, टीवी, डीवीडी प्लेयर
पर लागू होता है। पावर एक्सटेंशन कॉर्ड की मदद से दस फीसदी बिजली की
बचत कर सकते हैं।
◆ वॉटर हीटर के तापमान के स्तर को कम करके 48 डिग्री पर सेट कर दें। इसके
अलावा अगर वॉटर हीटर इनसुलेटेड नहीं है, तो उस पर इनसुलेशन की चादर
चढ़ाएँ।
◆ फ्रीजर अगर भरा हो तो वह अधिक कुशलता से काम करता है। मौसमी फल
और सब्जियाँ खरीदकर फ्रीजर में रखें जिसका इस्तेमाल साल भर तक किया जा
सकता है।
◆ पुरानी खिड़की की जगह कम ऊर्जा इस्तेमाल करने वाली खिड़की लगाना महंगा
साबित हो सकता है । एक सस्ता विकल्प है सौर फिल्म का । खिड़की पर सौर
फिल्म लगाना आसान है। इससे बिजली के बिल में गिरावट आएगी।
◆ वॉशिंग मशीन में कपड़े धोने के लिए डाले तो यह देख लें कि वॉशिंग मशीन की
क्षमता के हिसाब से कपड़े हों यानि कम कपड़े धोने के बजाय एकमुश्त धुलाई करें।
◆ बत्ती जलती हुई कभी न छोड़ें। जब कभी कमरे से बाहर जाएं तो पंखे और लाइट
का स्विच बंद कर दें।
(च) रोशनी करने के नए उपकरणों की समझ―
◆ L.E.D. लाइट्स-अगर बल्ब की जगह LED का इस्तेमाल किया जाए तो हर
माह 158 यूनिट तक बिजली की बचत हो सकती है। आजकल स्ट्रीट लाइट,
पार्किग लाइट, गार्डन लाइट व पूल लाइट आदि में भी एलइडी का इस्तेमाल होता
है।
(छ) विद्युत ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों की समझ एवं उनका उपयोग बढ़ती माँग के
कारण अनवीकरणीय परंपरागत ऊर्जा स्रोतों पर बहुत दबाव बढ़ा है और इससे हमारे लिये
यह आवश्यक हो गया है कि हम वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खोजने की कोशिश करें । सूर्य
और पवन जैसे स्रोत तो कभी खत्म ना होने वाले स्रोत हैं। अत: इन्हें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत
कहा जाता हैय ये किसी भी प्रकार की विषैली गैसों का उत्सर्जन नहीं करते हैं तथा ये स्थानीय
स्तर पर उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के ऊर्जा स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और ये साफ
सुथरी ऊर्जा का व्यापक स्रोत होते हैं। अधिकांश नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से सूर्य या सौर ऊर्जा से जुड़े होते हैं । नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत या गैर परंपरागत ऊर्जा
स्रोतों में सूर्य का प्रकाश, पवन, जल एवं बायोमास (जलावन की लकड़ी, पशु अपशिष्ट,
फसलों के अवशेष, कृषि अपशिष्ट, शहरों एवं नगरों का जैविक कचरा शामिल है)। सूर्य
से मिलने वाली ऊर्जा सौर ऊर्जा (Solar energy) कहलाती है, पानी से पैदा की गई ऊर्जा
को जल ऊर्जा (Hydel energy) कहते हैं एवं भूमिगत गर्म, सूखे पत्थरों, मैग्ना, गर्मपानी
के झरनों या प्राकृतिक गीजर से उत्पन्न ऊर्जा को भूतापीय ऊर्जा (Geotharmal energy)
कहा जाता है। ज्वारीय ऊर्जा (Tidal energy) समुद्र एवं महासागरों की लहरों एवं ज्वार
भाय से प्राप्त की जाती है।
उपयोग―
◆ सौर ऊर्जा का प्रयोग सोलर सेल के द्वारा ताप, प्रकाश एवं विद्युत के रूप में हो
सकता है।
◆ पवन चक्कियों का उपयोग जेनरेटरों को चलाने के लिये होता है जो विद्युत उत्पादन
करते हैं।
◆ सौर कुकर का प्रयोग सौर ऊर्जा के उपयोग से खाना पकाने के लिये होता है।
◆ सौर ऊर्जा का उपयोग प्रत्यक्ष रूप से इमारतों की तापन एवं प्रकाशन व्यवस्था के
लिये होता है। सौर ऊर्जा का सक्रिय तरीके से उपयोग घरेलू इस्तेमाल के लिये
गर्म पानी तैयार करने में होता है।
◆ पनबिजली,ज्वारीय ऊर्जा आदि का उपयोग बिजली पैदा करने में किया जाता है,
इत्यादि।
(ज) बिजली के उपकरणों (electrical tools)/औजार की समझ―विद्युत
संबंधी कार्य में बिना औजारों के किसी प्रकार का निर्माण अथवा मरम्मत कार्य कर पाना
कठिन होता है। किये गये कार्य की गुणवत्ता औजारों को प्रयोग करने का अभ्यास, औजारों
की श्रेष्ठता और उनकी कार्य-स्थिति पर निर्भर करती है। जैसे-पेचकस, फेस टेस्टर, टैस्ट
लैम्प, पोकर, कम्बीनेशन प्लायर, नोज प्लायर, इलैक्ट्रीशियन चाकू, हथौड़ा, सैन्टर पंच,
रावल प्लग टूल, छैनी, रेती, मापक फीता, टैनन-साँ, की-होल-सॉ, हैक्सा, हैन्ड ड्रिल मशीन
एवं बिट्स इत्यादि।
प्रश्न 27. फोटोग्राफी–रिपोर्टिंग–फिल्म बनाने के अंतर्गत कार्य शिक्षा हेतु
फोटो खींचने की कला, वीडियोग्राफी, सामान्य फिल्मों या ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग
को बनाने की विधि से संबंधित कार्ययोजना का वर्णन करें।
उत्तर―(क) फोटोग्राफी–किसी भौतिक वस्तु से निकलने वाले विकिरण को किसी
संवेदनशील माध्यम (जैसे फोटोग्राफी की फिल्म, एलेक्ट्रनिक सेंसर आदि) के उपर रेकार्ड
करके जब कोई स्थिर या चलायमान छबि (तस्वीर) बनायी जाती है तो उसे छायाचित्र
(फोटोग्राफ) कहते हैं । छायाचित्रण (फोटोग्राफी) की प्रक्रिया कुछ सीमा तक कला भी है।
इस कार्य के लिये जो युक्ति प्रयोग की जाती है उसे कैमरा कहते हैं । व्यापार, विज्ञान, कला
एवं मनोरंजन आदि में छायाचित्रकारी के बहुत से उपयोग हैं।
डिजिटल फोटोग्राफी, फोटोग्राफी की एक ऐसी विधा है जिसमें बहुत सारे एलेक्ट्रॉनिक
फोटोडिटेक्टेर्स वाले कैमरे का प्रयोग लेंस द्वारा निर्दिष्ट की गयी वस्तु का फोटो खिचने के
लिए करते हैं । यह फोटोग्रॉफिक फिल्म पर किसी वस्तु की अनावृत्ति से एकदम भिन्न है।
इसके द्वारा खींची गयीं फोटो को डिजिटल फॉर्म में किसी भी कंप्यूटर फाइल के रूप में रखा
जा सकता है। इस फाइल का उपयोग हम डिजिटल प्रोसेसिंग, डिजिटल पब्लिसिंग, फोटो
को देखने अथवा उसका प्रिंट आउट निकालने के लिए कर सकते हैं।
(ख) खींचने की कला से संबंधित कार्ययोजना―
◆ कैमरा–अच्छा फोटो खींचने के लिए किसी प्रोफेशनल कैमरे की आवश्यकता नहीं
होती। आजकल आम तौर पर छोटे छोटे डिजिटल कैमरे मार्केट में उपलब्ध हैं।
◆ सधा हुआ हाथ–अच्छी फोटो के लिए जरूरी है की फोटो खींचते समय हाथ स्थिर
रहे। जरा सी हरकत भी फोटो को धुंधला कर सकती है। लेकिन यह अभ्यास से ही आता
है।
◆ प्रकाश–फोटो लेते समय ध्यान रखें, सूरज आपके पीछे की ओर हो जिससे रौशनी
सब्जेक्ट के ऊपर पड़े।
किसी भी सब्जेक्ट जैसे किसी भवन, इमारत या प्राकृतिक स्थान का फोटो लेते समय
फोटो फ्रेम की सममिति (symmetry) जितनी सही होगी, फोटो देखने में उतना ही आनंद
आएगा। सब्जेक्ट के दाएं, बाएं, ऊपर और नीचे चारों ओर सामान एक अनुपात में स्थिर
रहना चाहिए। कहाँ कितना रिक्त स्थान रखना है यह हमारे अनुभव और पसंद पर निर्भर
करता है।
(ग) वीडियोग्राफी―चलचित्र और आवाज को रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया वीडियोग्राफी
कहलाती है। वीडियोग्राफी कला का ही एक रूप है। आजकल वीडियो रिकॉर्डिंग के कई
आधुनिक उपकरण बाजार में उपलब्ध हैं जैसे डिजिटल वीडियो कैमरा, मोबाइल फोन आदि।
वीडियोग्राफी करने के लिए साउंड कैमरे से जुड़ी जानकारियाँ, प्रकाश एवं तकनीक की
समझ, दृष्टि का पैनापन होना आवश्यक है।
(घ) सामान्य फिल्मों या ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग को बनाने की विधि से संबंधित कार्ययोजना
―लघु फिल्म बनाने के लिए पहली आवश्यकता है विडियो रिकार्डिंग
एवं एडिटिंग करना । विडियो रिकार्डिंग करने के लिए हम अपने मोबाइल कैमरा या डिजिटल
कैमरे का इस्तेमाल कर सकते हैं । अच्छी फिल्म बनाने के लिए कुछ सावधानियों का पालन
करना जरूरी है। रिकार्डिंग के लिए आवश्यक जानकारियाँ एवं सावधानियाँ प्रस्तुत है।
1. रिकार्डिंग करते समय मोबाइल हिलना नहीं चाहिए आवश्यकता पड़ने पर मोबाइल
अथवा कैमरा धीरे-धीरे पीछे या साइड करते हुए विडियो तैयार करें।
2. मोबाइल से रिकार्डिंग करते समय खड़ी विडियो तैयार न करें ऐसा करने से विडियो
स्क्रीन के आधे भाग पर ही दिखाई देगा एवं बाकी विडियो से अलग हो जाएगा।
3. प्रकाश स्रोत का विशेष ध्यान दें, प्रकाश हमेशा रिकार्ड करने वाले के पीछे या ऊपर
हो तो ज्यादा अच्छा होता है। प्रकाश स्रोत की दिशा में रिकार्ड करने पर दृश्य धुंधला एवं
चेहरे पर लाइट नहीं पड़ने के कारण काला आता है।
4. रिकार्ड करते समय कैमरा जूम कर बिगशाट, लांगशाट एवं मिडिल शाट भी लेना
चाहिए ताकि विषय वस्तु को दृश्य के माध्यम से ज्यादा स्पष्ट कर सकें।
5. अच्छी फिल्म के लिए कैमरा स्टैण्ड का उपयोग करें जिससे पिक्चर ज्यादा साफ
व स्पष्ट आये। रिकार्डिंग के समय बाहरी शोर न हो इस बात का ध्यान रखें अथवा सुविधा
हो तो माइक्रोफोन का इस्तेमाल करें।
6. रिकार्डिंग करते समय छोटी-छोटी क्लिपिंग (विडियो) का निर्माण करें बाद में
आवश्यकतानुसार कटिंग कर एडिट कर सकते हैं। ध्यान रखें लाइट की दिशा में भूल कर
भी फोटोग्राफी न करें ऐसा करने से लैंस खराब हो सकता है।
फिल्म एडिटिंग कार्य―
1. रिकार्ड होने के बाद अलग-अलग टुकड़ों में बनी फिल्म को सॉफ्टवेयर की मदद
से एडिट कर लें। यह सुविधा आपके मोबाइल में भी हो सकती है।
2. यदि एडिटिंग का अनुभव नहीं है तो किसी अनुभवी फोटोग्राफर से एडिटिंग करवाएँ।
3. लिक्विड, डाव पिनकैल एवं अन्य सॉफ्टवेयर का उपयोग कर बैकग्राउंड, साउण्ड
एवं वीडियो इफेक्ट का प्रयोग कर बेहतर वीडियो तैयार कर सकते हैं।
प्रश्न 28. स्थानीय कलाओं का वर्णन करें तथा उनके तैयार करने की विधि
बताएं अथवा कार्ययोजना का निर्माण करें।
उत्तर―(क) मधुबनी चित्रकारी-इसे मिथिला की कला (क्योंकि यह बिहार के
मिथिला प्रदेश में पनपी थी) भी कहा जाता है, की विशेषता चटकीले और विषम रंगों से
भरे गए रेखा-चित्र अथवा आकृतियाँ हैं । इस तरह की चित्रकारी पारम्परिक रूप से इस प्रदेश
की महिलाएँ ही करती आ रही हैं लेकिन आज इसकी बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के
लिए पुरुष भी इस कला से जुड़ गए हैं। ये चित्र अपने आदिवासी रूप और चटकीले और
मटियाले रंगों के प्रयोग के कारण लोकप्रिय हैं । इस चित्रकारी में शिल्पकारों द्वारा तैयार किए
गए खनिज रंजकों का प्रयोग किया जाता है । यह कार्य ताजी पुताई की गई अथवा कच्ची
मिट्टी पर किया जाता है । वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए चित्रकारी का यह कार्य अब कागज,
कपड़े, कैनवास आदि पर किया जा रहा है। काला रंग काजल और गोबर को मिश्रण से
तैयार किया जाता हैं, पीला रंग हल्दी अथवा पराग अथवा नींबू और बरगद की पत्तियों के
दूध से लाल रंग कुसुम के फूल के रसअथवा लाल चंदन की लकड़ी एसे हरा रंग कठबेल
(वुडसैल) वृक्ष की पत्तियों से, सफेद रंग चावल के चूर्ण से संतरी रंग पलाश के फूलों से
तैयार किया जाता है। रंगों का प्रयोग सपाट रूप से किया जाता है जिन्हें न तो रंगत (शेड)
दो जाती है और न ही कोई स्थान खाली छोड़ जाता है।
(ख) मंजूषा कला―बिहार के भागलपुर की कथा पर आधारित मंजूषा कला की
अपनी एक अलग पहचान है आइये हम देखते है बिहार की लोक कला चित्रकारिता का
रंग मंजूषा कला में । मंजुषा कला एक भारतीय कला पद्धति है। यह आठ स्तंभ से बना
मंदिरनुमा आकृति होती है। यह बांस, जुट और पेपर का बना होता है। इसमें हिन्दू
देवी-देवताओं को भी चित्रित किया जाता है । यह आकृति विषहरी पूजा में प्रयोग होती है।
यह पूजा सांपों के देवता को समर्पित होती है जोकि भागलपुर और उसके आस पास के शहरों
में माना जाता है। आजकल विभिन्न प्रकार के कपड़ों और प्रशासनिक भवनों की दीवारों
पर भी मंजूषा कला का इस्तेमाल किया जा रहा है।
मंजूषा कला की विशेषता―
1. इस कला में मुख्यतः तीन रंगों का ही प्रयोग होता है गुलाबी, हरा और पीला ।
2. मंजूषा कला में बॉर्डर की प्रमुखता है।
3. मंजूषा कला रेखाचित्र पर आधारित चित्रकला है।
4. मंजूषा कला पूर्णतः कथा आधारित कला है यह बिहुला बिसहरी की धार्मिक गाथा
पर आधारित है।
5. मंजूषा कला में पात्रों को अंग्रेजी के अक्षर की तरह दर्शाया जाता है।
6. मंजूषा कला के मुख्य चिह्न—सांप, चंपा फूल, सूर्य, कमल, हाथी, घोड़ा, मोर, मैना,
कछुवा, मछली, पेड़, कलश, तीर धनुष, शिवलिंग है।
टारगेट सीरिज डी.एल.एड. माइक्रो गाइड
7. मंजूषा कला के मुख्य पात्र-भगवान शिव, मनसा, चंदू सौदागर, बिहुला, बाला,
हनुमान जी इत्यादि है।
8. मंजूषा कला के मुख्य बॉर्डर–बेलपत्र, लहरिया, त्रिभुज, मोखा, सर्प की लड़ी।
कार्ययोजना–ऐसी लोक कलाओं से जुड़ी कार्य योजना के निर्माण के लिए पेन,
पेंसिल, रंगों आदि द्वारा कागज या कपड़े पर इन कलाओं को बनाने की प्रतियोगिता का
आयोजन किया जा सकता है जिसके लिए आवश्यक सामग्री जुटाई जा सकती है।
जैसे–मधुबनी पेंटिंग।
आवश्यक सामग्री―
◆ हैण्ड मेड शीट
◆ स्केल
◆ फेब्रिक कलर
◆ पेंसिल, रबर, शॉर्पनर
◆ मार्कर
◆ पॉइंट ब्रश (पतला जीरो नम्बर का)
◆ पर्ल कलर्स
बनाने की विधि―
1. सर्वप्रथम स्केल की सहायता से हैण्डमेड शीट में पेंसिल से बार्डर बनाएं।
2. अब पेंसिल से चित्रण करें (देवी-देवताओं की तस्वीर, प्राकृतिक दृश्य, मछली, शंख,
मयूर आदि)।
3. चित्रण होने के बाद मार्कर से आउट लाइन बना लें।
4. उसके बाद पतले ब्रश की सहायता से फैब्रिक कलर से रंग भरें।
5. आवश्यकतानुसार पानी का उपयोग कलर बनाने तथा मिलाने में किया जाता है।
6. फिनिशिंग के लिए मार्कर फिर से चला सकते हैं।
7. अब आपकी पेंटिंग तैयार है, इसे फ्रेम भी कराया जा सकता है।
प्रश्न 29. पौधे तैयार करने, सिंचाई, रोग तथा कीट नियंत्रण एवं बीस एवं पौधों
के चयन पर अपने विचार प्रकट करें।
उत्तर―पहले से तैयार क्यारियों में बीजारोपण कर पौधा तैयार कर लिया जाता है तथा
क्यारियों में BHC पाऊडर । एल्ड्रिन 5% का छिड़काव कर दिया जाता है जिससे पौधे में
जन्मजात रोग लगने से बचाव हो सके । टमाटर, बैगन, मिर्च, बंदगोभी, फूलगोभी आदि को
बीजरोपण पौधे तैयार कर लिये जाते हैं। बीजों को 1 से 1 सेमी. की गहराई पर 5 सेमी.
के अंतर से लाइन में लगाया जाता है। क्यारियों में अधिक पानी नहीं देना चाहिए। गर्मी
कड़ी सर्दी अथवा वर्षा की सुरक्षा की दृष्टि से ढंक देना चाहिए। यदि पौधे अंकुरित होकर
बाहर निकल आए हैं तो उन्हें खोल देना चाहिए, अन्यथा वे पीले हो जाएंगे। पौधे प्रत्यारोपण
के लिए 4 से 6 सप्ताह में तैयार हो जायेगे । क्यारियों में या गमलों में जहाँ भी पौधे तैयार
किए जा रहे हैं, मिट्टी सूखने पर झरने से पानी देना नहीं भूलना चाहिए।
सिंचाई―क्यारियों में पानी देने की सर्वोत्तम विधि यह है कि अनेक बार छिड़काव करने
के स्थान पर सप्ताह में एक बार क्यारी को पूरी तरह से डुबोकर ही पानी दें।
खर-पतवार निकालना―जब खर-पतवार अपनी प्रारंभिक अवस्था में हो तभी उसे
खुरपी से निकाल दें, अन्यथा वह वाटिका के स्वस्थ पौधे का भोजन लेकर उसे कमजोर कर देगा।
रोग तथा कीट नियंत्रण–प्रत्येक सप्ताह पौधे के चारों तरफ खुरपी से कोड़ाई करते
रहे ताकि भूमि को उचित प्रकाश और वायु मिल सके । प्रकाश और वायु भूमि को निरोग,
स्वस्थ एवं कीटरहित बनाने में सहायता प्रदान करते हैं।
फसलों में लगनेवाले अनेक रोगों को रोकथाम करने के लिए रोगयुक्त पौधे को
निकालकर फेंक दें, अन्यथा वह दूसरे पौधे को भी रोगी बना देगा।
बीज एवं पौधों का चयन―शुद्धता के लिए परीक्षित बीजों का ही प्रयोग करें। ऐसे
बीज जीवाणुओं से मुक्त होते हैं । वाटिका में केवल स्वस्थ एवं रोगमुक्त पौधों का ही
प्रत्यारोपण करें । बुआई के लिए रासायनिकों से उपचारित बीजों का ही प्रयोग करें, जिससे
पौधों को निकलने की स्थिति में कीटों एवं अन्य रोगों के आक्रमण का भय नहीं रहें।
कीट–यदि फसल पर कीट लग गए हैं और पौधे को हानि हो रही है तो बी.एच.सी.
5% से 10% धूल का छिड़काव करें।
फसल की कटाई― सब्जियों की तुड़ाई एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है । जब तक सब्जियाँ
पौधों पर रहती है, ताजी रहती है; क्योंकि सब्जियों को पौधों से पोषक तत्त्व प्राप्त होते रहते
हैं। सब्जियों को तोड़ते समय उनकी परिपक्वता देखकर तोड़ें तथा चोट या खरोंच से बचाएँ ।
तोड़ने समय किसी मुलायम पात्र में रखें । तोड़ने के बाद सड़ी-गली सब्जियों को फेंक दे
एवं अधिक पकी सब्जियों का प्रयोग पहले कर लें।
तोड़ने के बाद सब्जियों को शीतल जल से धो देना चाहिए।
प्रश्न 30. मुखौटे का प्रयोग शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में आप कैसे करेंगे ? कक्षा
शिक्षण में इसके सार्थक प्रयोग करने की योजना बनावें।
अथवा,
“मुखौटा बनाना अथवा सीखने की पद्धति में बच्चे का मानसिक संतुलन और
एकाग्रता बढ़ती ।” इस कथन की विवेचना करें।
अथवा,
कागज के लिफाफे से मुखौटा बनाने की विधि लिखें तथा इसके माध्यम से
भाषा, शिक्षण में एक नाटक का प्रदर्शन की तैयारी बतावें।
उत्तर―छात्रों को खेल-खेल में रोचक तरीके से शिक्षा प्रदान करने के लिए मुखौटा
एक अत्यन्त उपयोगी शिक्षण सहायक सामग्री है। मुखौटा बच्चों के मन में विचित्रता का
भाव उत्पन्न करता है। मुखौटों में अतीत और वर्तमान का एक समन्वय है, जो भविष्य को
भी अपनी कड़ियों में जोड़ लेता है। मुखौटा बचपन से ही बच्चों के मनोरंजन का एक श्रेष्ठ
साधन है। बच्चे उन्हें पहनकर आनन्दित हो उठते हैं। मुखौटे के माध्यम से अनेक प्रकार
के कार्यक्रम जैसे-नाटक, नृत्यनाटक आदि का आयोजन किया जाता है, जो बाल मनोरंजन
के साधन मानते हैं और नाटक करना बच्चों को स्वीकार भी होता है। बालक इनमें रुचि
भी लेते हैं।
मुखौटा बनाते समय बच्चे के मस्तिष्क के साथ-साथ उसके शरीर के अंग भी सम्मिलित
छोटे हैं तथा बच्चा स्वयं निर्णय भी लेता है कि उसको मुखौटा किस प्रकार बनाना है, मुखौटा
किस माध्यम द्वारा बनाया जाएगा, उसमें कौन-सा रंग किया जाएगा तथा उसे किस विधि द्बारा
बनाया जाएगा। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए बच्चा अपने मस्तिष्क और हाथों की
सहायता से मुखौटे की रचना करता है । अतः हम कहते हैं कि मुखौटे बनाने अथवा सीखने
की पद्धति में बच्चा का मानसिक संतुलन एवं एकाग्रता बढ़ती है।
कागज के लिफाफ से मुखौटा बनाना :
कक्षा-नर्सरी, आयु-वर्ग-4-5 वर्ष
पूर्वायोजना–शिक्षक कला के बच्चों से कुछ रोचक एवं सजावटी सामग्री को एकत्र
कर एक डिब्बा बना लें।
सामग्री–कागज का एक बड़ा लिफाफा जिसको पहना जा सके, कैंची सजावटी सामग्री।
विधिः
◆ कागज के मुखौटे के लिए कागज का ऐसा बड़ा लिफाफा ले जो बच्चे के सिर
में भली प्रकार आ जाए।
◆ यदि यह लिफाफा बड़ा है तो सिरे के दोनों पक्षों को औंधे U आकार में काट दें
ताकि वह बच्चे के कंधे पर टिक जाए और गिरे नहीं।
◆ बच्चा लिफाफे को पहन ले तथा हाथ के स्पर्श द्वारा आँखों की स्थिति का पता
लगाए एवं उसे चिह्नित कर लें।
◆ लिफाफे पर चिह्नित स्थान को आँखों के लिए काट दें ताकि लिफाफे पर नाक,
मुँह, बाल इत्यादि इच्छानुसार चिपका दे अथवा रंक कर दें।
◆ बच्चे अपनी कल्पनानुसार अनेक सामग्री, जैसे लकड़ी की छीलन, ऊन के
टुकड़े, मोती, गोटा, रिबन, बोतल के ढक्कन, इत्यादि का प्रयोग अपने मुखौटों को
सजाने के लिए कर सकते हैं।
◆ इस प्रकार का मुखौय बनाना, बच्चों के लिए सजा एवं प्रेरणा का स्रोत सिद्ध होता है।
सावधानियाँ―शिक्षक इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि वह बच्चे की वास्तविकता
से विचलन को हतोत्साहित न करें, क्योंकि छोटे बच्चों के साथ इस प्रकार का विचलन
सामान्य है।
मुखौटे का शिक्षण कार्य में शिक्षण सहायक सामग्री के रूप में उपयोग:
1. अध्यापक छात्रों को मुखौटा पहनवाकर उनसे अभिनय व नाटक करवा सकते हैं।
2. छात्र मुखौटा पहनकर उस वस्तु पर आधारित कविता का पाठ कर तथा उससे
सम्बन्ध स्थापित कर, उसे शीघ्रता से समझ सकेंगे। जैसे-सेब का मुखौटा पहनकर छात्र
उस पर कविता बोल सकता है।
3. छात्रों को मुखौटे की सहायता से पहचान करने व वस्तु का नाम बोलने के योग्य
बनाया जा सकता है।
4. छात्रों को कहानियाँ आदि ‘सुनाई जा सकती है तथा पाठ भी रोचक तरीके से पढ़ाए
जा सकते हैं।
मुखौटे के प्रदर्शन की तैयारी :
1. यह छात्रों द्वारा निभाए जा रहे किरदार के अनुरूप ही होनी चाहिए।
2. इनका चुनाव छात्रों की बौद्धिक व शारीरिक क्षमता, आयु आदि के अनुसार ही करना
चाहिए।
3. यह अधिक भारी व सख्त नहीं होनी चाहिए । उदाहरण के तौर पर यदि छात्र डंडी
पर लगे मुखौटे का प्रयोग करते हैं, तो डंडी की सतह खुरदरी व चुभने वाली नहीं होनी चाहिए
और यदि ऐसा है तो उस पर किसी कपड़े की पट्टी लपेट देनी चाहिए ।
4. मुखौटे आदि का अनुपात छात्र के चेहरे के अनुसार होना चाहिए।
5. यह मुखौटे आदि जब छात्रों के चेहरे पर पीछे से डोरी से गाँठ लगाकर बाँधे जाते
हैं तो यह न तो अधिक कसी हुई होनी चाहिए और न ही अधिक ढीली होनी चाहिए, क्योंकि
यदि यह डोरी अधिक कसी हुई होगी तो छात्र को हर समय चुभती रहेगी वह यही चाहेगा
कि इसे जल्दी से जल्दी उतारा जा सके तथा यदि यह अधिक ढीली होगी तो भी छात्र परेशान
ही रहेगा व सदैव यही सोचता रहेगा कि कहीं यह गिर तो नहीं पड़ेगी। इस प्रकार दोनों ही
स्थितियों में छात्र अपनी पूर्ण एकाग्रता से अपने मुख्य कार्य को नहीं कर सकेगा।
6. मुखौटे आदि को जहाँ तक सम्भव हो सरलता से इस्तेमाल में लाने के योग्य बनाना
चाहिए। जैसे कि मुखौटे के पीछे इलास्टिक लगाने से बार-बार गाँठ गलाने के झंझट से बचा
जा सकता है और इससे परिणाम भी अधिक बेहतर मिलते हैं, क्योंकि गाँठ तो ढीली हो जाती
है व अपना जगह से भी सरक जाती है, परंतु इलास्टिक आदि के प्रयोग से इन परेशानियों
से बचा जा सकता है।
7. मुखौटे आदि में देखने के लिए बनाए गए दोनों छेदों में दूरी पर्याप्त होनी चाहिए,
जिससे छात्रों को सामने की किसी वस्तु अथवा व्यक्ति को देखने में कोई कठिनाई न हो।
वह किसी से टकरा न जाएं तथा सहजता से अपना कार्य कर सके।
8. हल्की वस्तुओं का प्रयोग करके इन्हें बनाना चाहिए, जैसे―थर्मोकोल, कागज आदि
यह अधिक भारी न हो जाए।
9. मुखौटा लुभावना, स्पष्ट व वास्तविक दिखने वाला होना चाहिए।
10. मुखौटे आदि पर रासायनिक पदार्थों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह छात्रों
की त्वचा को छूते है व इससे उन्हें कोई त्वचा संबंधी तकलीफ न हो जाए।
11. नाटक मंचन में प्रत्येक किरदार के अनुसार छात्रों को स्वयं मुखौदे आदि बताकर
चरित्र को समझने में सहायता मिलती है।
प्रश्न 31. शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय से अपेक्षाओं एवं समकालीन बदलावों
की व्याख्या करें।
अथवा,
अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग-1996 ने 21वीं शताब्दी की शिक्षा के रिपोर्ट में किन
चार स्तंभों की चर्चा की गई है ? आपके अनुसार वे क्यों महत्त्वपूर्ण हैं ?
उत्तर―शिक्षा एक पीढ़ी द्वारा अर्जित अनुभव, ज्ञान, कौशल दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने
का माध्यम है। शिक्षा सतत रूप से चलने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात
शक्तियों के स्वाभाविक एवं सामंजस्यपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है । व्यक्ति की
वैयक्तिक का पूर्ण विकास करती है। उसे आस-पास के वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने
में सहायता प्रदान करती है और सफल जीवन एवं सभ्य नागरिक के कर्तव्यों एवं दायित्वों
के लिए तैयार करती है। साथ ही उसके व्यवहार विचार और दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन
करती है जो देश, समाज और विश्व के लिए हितकर होता है। संक्षेप में शिक्षा बालकों में
अंतर्निहित शक्तियों के प्रस्फुटन एवं विकसित होने में सहायता करती है। शिक्षा से समाज
की निम्नलिखित अपेक्षाएँ हैं―
एक व्यक्ति के रूप में शिक्षा से हमारी यह अपेक्षा होती है कि वह बालक के सवांगीण
विकास में सहायक हो, व्यक्ति शिक्षित होकर अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने
में सक्षम हो सके, बालकों की जन्मजात प्रवृत्तियों का समायोजित विकास हो तथा व्यक्ति
स्वयं अपनी जीविका कमाने के लिए तैयार हो सके । शिक्षा से यह अपेक्षा की जाती है कि
इसके द्वारा व्यक्ति का नैतिक विकास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो, व्यक्ति
को आत्मनिर्भर तथा आत्मविश्वासी बनाकर उसके उत्तम चरित्र का निर्माण करना, व्यक्ति
में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना, व्यक्ति के अंदर यह क्षमता विकसित करना कि
वह या तो वातावरण के अनुसार स्वयं को अनुकलित कर ले या वातावरण को स्वयं के
अनुसार परिवर्तित कर दे।
नई पीढ़ी को समाज की संस्कृति का ज्ञान कराना, समाज की शिक्षा से अपेक्षा है।
बालकों को सामाजिक नियमों से परिचित कराकर उसका समाजीकरण करना, सामाजिक
समस्याओं को दूर करने की भावना उत्पन्न करना, समाज के विभिन्न विश्वासों तथा धर्मों
के विषय में उदार दृष्टिकोण का निर्माण करना, समाज के प्रति निष्ठा की भावना का विकास
करना । राष्ट्र को शिक्षा से अपेक्षा होती है कि शिक्षा कुशल एवं निष्ठावान नागरिकों का बचा
जा सकता है। अत: आयोग के अनुसार शिक्षा को चाहिए कि वह व्यक्ति को अपने अस्तित्व
के लिए प्रशिक्षण दे। दूसरे शब्दों में, उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करे । इन सन्दर्भ
में आयोग ने निम्नलिखित बातों पर जोर दिया है―
(i) शिक्षा का आधारभूत सिद्धांत यह है कि वह व्यक्ति का पूर्ण विकास करे । दूसरे
शब्दों में, उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सौन्दर्य बोधात्मक एवं आध्यात्मिक
विकास करे ताकि वह एक पूर्ण मानव बन सके।
(ii) शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक ढंग से चिन्तन करने तथा अपने निर्णय
स्वयं लेने की योग्यता का विकास करे।
(iii) शिक्षा उसे इस रूप में तैयार करे कि वह एक व्यक्ति, एक परिवार व समाज के
सदस्य, एक भविष्य के सृजनशील स्वप्न द्रष्टा तथा नवीन तकनीकों के जन्मदाता के रूप
में अपने व्यक्तित्व को विकसित कर सके।
(iv) शिक्षा उसे अपनी समस्याओं का खुद समाधान करने एवं अपनी जिम्मेदारियों का
स्वयं निर्वाह करने के योग्य बनाए ।
(v) शिक्षा यह भी सुनिश्चित करे कि प्रत्येक व्यक्ति विचारों, भावनाओं, कल्पना एवं
निर्णय के सन्दर्भ में स्वतंत्र हों और अपनी क्षमताओं का पूर्ण विकास कर सकें।
किसी भी राष्ट्र की प्रगति में विद्यालय का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। विद्यालय को
सामाजिक परिवर्तन का आधार व पुनर्निर्माण के अभिकर्ता के रूप में देखा जाता है। पहले
विद्यालयों में बच्चों पर ज्ञान थोपा जाता था। वे शिक्षा को जन्मघुट्टी की तरह रट कर पी
जाते थे परंतु आज माहौल बदल गया है। बच्चों की जिज्ञासा, मौलिकता एवं सृजनात्मकता
को महत्व दिया जा रहा है जिससे बच्चे ज्ञान का सृजन स्वयं कर रहे हैं। विद्यालय बच्चों
की स्वतंत्रता का हनन करने का स्थल न हो बल्कि उसका वातावरण इस प्रकार निर्मित हो
कि बच्चे खुद खींचे चले आयें । उन्मुक्त पक्षी की तरह बच्चे स्वतंत्र विचरण करें। विद्यालय
की हर गतिविधि में उनके सीखने एवं ज्ञान को अर्जित करने की जगह हो । विद्यालय से
समाज की काफी अपेक्षाएँ होती हैं वह विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों में मानवीय मूल्यों की
झलक देखना चाहता है और उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाना चाहता है।
समाज द्वारा अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित करने के लिए शिक्षा संस्थाओं/विद्यालयों की
स्थापना की जाती है। कछ संस्थाएँ सरकार द्वारा स्थापित की जाती हैं। कुछ विभिन्न संगठनों,
संस्थाओं एवं व्यक्तियों द्वारा स्थापित की जाती है। विद्यालय की समुदाय से सबसे बड़ी अपेक्षा
यह होती है कि वे अपने बच्चों का विद्यालय में दाखिला करवाएँ एवं उनको नियमित रूप
से विद्यालय भेजें । शिक्षक-अभिभावक बैठकों में अनिवार्य रूप से शामिल होकर अपने बच्चों
की शैक्षिक प्रगति को जानकर आवश्यक सहयोग एवं मार्गदर्शन करें । बाल मेला, विज्ञान
मेला तथा गणित मेला आदि विभिन्न कार्यक्रमों में सहभागिता करें। विद्यालय के वार्षिक
समारोह एवं वार्षिक खेलकूद कार्यक्रम में शामिल होकर अपने बालक-बालिकाओं को
उत्साहवर्डन करें। विद्यालय से संबंधित सभी समितियों में शामिल विभिन्न समुदाय के लोगों
से वह अपेक्षा होती है कि वह इन समितियों में निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करते हुए
जिम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से करें । विशेष रूप से माता समिति से जुड़ी महिलायें ।
की जिम्मेदारी है कि वह भी सक्रिय रूप से विद्यालय जीवन में अपना सहयोग करें। शिक्षा ।
समिति से जुड़े लोगों से यह अपेक्षा की जाती है वह गुणवत्तापूर्ण पौष्टिक भोजन
बालक-बालिकाओं हेतु बनवाएँ।
इस बात से आप सहमत होंगे कि शिक्षा से अपेक्षाएं समय के साथ बदलती रही हैं।
समाज ने हमेशा अपनी वर्तमान आवश्यकताओं/माँगों एवं जीवन दर्शन के आधार पर शिक्षा
के उद्देश्य निर्धारित किए हैं। प्राचीन काल के वैदिक समाज ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के
माध्यम से ऐसे लोगों को तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षा की सौंपी थी जिनमें धार्मिकता
का समावेश हो । उस समय धर्म पर अधिक बल था । व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं का
अभाव था।

