परिवर्तन क्या है? परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका को स्पष्ट कीजिए । परिवर्तन अभिकर्ता के रूप में शिक्षक के समक्ष आने वाली बाधाओं की भी चर्चा कीजिए।
प्रश्न – परिवर्तन क्या है? परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका को स्पष्ट कीजिए । परिवर्तन अभिकर्ता के रूप में शिक्षक के समक्ष आने वाली बाधाओं की भी चर्चा कीजिए। What is Change ? Explain the role of Teacher in Change. Discuss the barriers Facing by Teacher as an Agent of Change.
या
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(1) बदलाव के प्रतिनिधि के रूप में अध्यापक की भूमिका पर चर्चा करें। Discuss the role of teacher as an agent of change.
(2) परिवर्तन हेतु विद्यालय में प्रयुक्त रणनीतियाँ। Strategies Used in School for Change.
उत्तर- परिवर्तन (Change)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है क्योंकि यदि परिवर्तन नहीं होगा तो जीवन एवं सृष्टि की गति अवरुद्ध हो जाएगी। परिवर्तन व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में होता है, जिसके परिणामस्वरूप नवीन व्यवस्था जन्म लेती है। परिवर्तन का सामान्य तात्पर्य है, किसी क्रिया या वस्तु की पहले की स्थिति में बदलाव आ जाना। परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए फिशर लिखते हैं, “संक्षेप में, परिवर्तन पहले की अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में अन्तर को कहते हैं।” परिवर्तन का सम्बन्ध प्रमुख रूप से तीन बातों से होता है-
(1) वस्तु,
(2) समय तथा
(3) भिन्नता ।
- वस्तु (Object) – परिवर्तन का सम्बन्ध किसी न किसी विषय या वस्तु से होता है। जब हम यह कहते हैं कि परिवर्तन आ रहा है तब हमें यह भी स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस वस्तु या विषय में आ रहा है, बिना वस्तु को बताए हम परिवर्तन का अध्ययन नहीं कर सकते।
- समय ( Time) – परिवर्तन का समय से घनिष्ट सम्बन्ध होता है। परिवर्तन को प्रकट करने के लिए हमारे पास कम से कम दो समय होने चाहिए। एक ही समय में परिवर्तन की चर्चा नहीं की जा सकती है। उदाहरण के लिएयदि हम यह कहते हैं कि वैदिक काल की तुलना में वर्तमान समय में भारत बहुत परिवर्तित हो गया है। समय के सन्दर्भ में ही परिवर्तन ज्ञात होता है। समय की अवधारणा को सम्मिलित किए बगैर किसी भी परिवर्तन के विषय में सोचा नहीं जा सकता है।
- भिन्नता (Variation) – विभिन्न समयों में यदि किसी वस्तु में भिन्नता नहीं आए तो परिवर्तन नहीं कहलाएगा। वस्तु के स्वरूप में यदि समय के साथ अन्तर न आए तो हम यही कहेंगे कि परिवर्तन नहीं हुआ है, अतः वस्तु के रंग-रूप, आकार – प्रकार, संरचना, कार्य या अन्य पक्षों में भिन्नता प्रकट होने पर ही हम परिवर्तन का अध्ययन कर सकते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु में दो समय में दिखाई देने वाली भिन्नता ही परिवर्तन है। परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो सभी कालों एवं स्थानों में घटित होती रहती है। परिवर्तन के कारण किसी वस्तु के समस्त ढाँचे में परिवर्तन आ सकता है या उसका कोई एक पक्ष ही बदल सकता है। परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है। परिवर्तन स्वतः आ सकता है या जानबूझकर योजनाबद्ध रूप से भी लाया जा सकता है।
परिवर्तन हेतु विद्यालय में प्रयुक्त रणनीतियाँ (Strategies Used in School for Change)
- अभिभावकों की सहभागिता (Participation of Parents) – विद्यालय को अपने द्वारा संचालित विभिन्न कार्यक्रमों में अभिभावकों का भी सहयोग लेना चाहिए। अभिभावक अपने बच्चों के शैक्षिक एवं कैरियर निर्माण में आपेक्षित सामग्रियों, सूचनाओं तथा भूमिका निर्माण महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। अभिभावक अपने बालकों एवं बालिकाओं की रुचियों, दुर्बलताओं एवं सबल पक्षों को जानता है। वह अध्यापकों से उसके विषय में चर्चा कर सकारात्मक अध्ययन की रणनीतियों के निर्माण में प्रभावी भूमिका निभा सकता है।
- शिक्षक प्रशिक्षण (Teachers’ Training) – शिक्षण की प्रक्रिया में सेवाकालीन एवं सेवापूर्व प्रशिक्षण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा उन्हें लैंगिक दृष्टिकोणों एवं व्यवहारों से अवगत कराकर उनमें एक समान लैंगिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। कुछ शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम मूल्यांकन के उपरान्त आशानुकूल परिणाम प्रस्तुत किए है। भारत में जी. ई.एम.एस. ( GEMS) कार्यक्रम लैंगिक एवं सामर्थ्य गतिशीलता पर शिक्षक कार्यशालाओं की एक श्रृंखला को सम्मिलित करता है। इसके द्वारा यह पता किया गया कि शिक्षक बच्चों के साथ किस प्रकार अन्तःक्रिया करते हैं ।
- खेल-कूद में समान भागीदारी (Equal Participations in Sports )- समाज में व्याप्त रूढ़िवादियों के परिणामस्वरूप कुछ शिक्षकों की मान्यता है कि लड़कियों के लिए गायन, नृत्य, पेन्टिग तथा रंगोली जैसी गतिविधियाँ एवं लड़कों के लिए खेलकूद, साहसिक कार्य होते हैं परन्तु एक अध्यापक को इस बात से जागरूक होना चाहिए कि इस प्रकार की मान्यताएँ बच्चों में लैंगिक रूढ़िवादिता को विकसित करती है। स्पोर्ट्स एवं खेल-कूद शारीरिक विकास के साथ-साथ सहयोग की भावना विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। फिर वह चाहे लड़की हो अथवा लड़का। इस प्रकार खेल-कूद में लैंगिक भेद को त्यागते हुए समान भागीदारी को अवसर उपलब्ध कराना शिक्षक का कर्तव्य है।
- समूहों का गठन (Formation of Groups) – अधिगम को प्रभावी बनाने के लिए समूहों का गठन अति आवश्यक होता है क्योंकि अधिगम समूहों का गठन त्वरित गति से किया जा सकता है। समूहों में रहकर विद्यार्थी समस्याओं पर परिचर्चा करते हैं तथा उसके निदान के लिए विविध विधियाँ ढूँढ लेते हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि समूहों में लड़के नेतृत्व की भूमिका में रहते हैं जबकि लड़कियाँ मात्र उनका अनुसरण करती हैं। उन्हें लड़कों की अपेक्षा कम बोलने का अवसर दिया जाता है तथा कभी-कभी उनके विचारों पर सभी की सम्मति नहीं दिखाई देती। अध्यापक को समूहों का निर्णय करते समय ध्यान देना चाहिए कि दोनों को समान भागीदारी समान अवसर तथा उनके विचारों को समान मान्यता प्रदान की जाए।
- लैंगिक तटस्थ भाषा का प्रयोग (Use of Gender Neutral Language) – लैंगिक तटस्थ भाषा के प्रयोग से अभिप्राय शिक्षक को विद्यार्थियों से कक्षा-कक्ष में सामूहिक भाषा का प्रयोग करने से है। उनको ऐसे शब्दों अथवा भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो सामूहिक रूप से सम्बोधित करता हो । शब्द अथवा भाषा लड़कियों तथा लड़कों के मध्य भेद करने वाला नहीं होना चाहिए इसके द्वारा उन्हें ये आभास नहीं होगा कि उनके साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जा रहा है।
- पाठ्य पुस्तकों में गैर- रूढ़िवादी लिंग भूमिकाओं एवं विषयों को सम्मिलित करना ( To Include NonStereotyped Gender Roles and Topics in Text Books) – पाठ्य पुस्तकें छात्र एवं शिक्षक को अध्ययन एवं अध्यापन के लिए आधार प्रदान करती है। छात्र हमेशा पाठ्य पुस्तकों के इर्द-गिर्द ही रहता है तथा उनमें उपलब्ध ज्ञान को सत्य, सार्थक तथा जीवनोपयोगी मानता है अध्ययन करने वाले इतिहास जैसे विभिन्न विषय नायकों को ही प्रदर्शित करते हैं। इससे यह पता चलता है कि प्राचीन इतिहास में महिलाओं की उपलब्धियों, उनका अस्तित्व नाममात्र का था। इस प्रकार पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण करते समय गैर- रूढ़िवादी लिंग भूमिकाओं एवं विषयों को सम्मिलित करने पर प्राथमिकता देनी चाहिए।
- कक्षा – कक्ष अन्तःक्रियाओं में सुधार (Improvement in Classroom Interactions) – कक्षा- कक्ष के अन्दर अथवा कक्षा के बाहर प्रायः यह देखा जाता है कि शिक्षक छात्राओं की अपेक्षा छात्रों से अधिक अन्तःक्रिया करते हैं। शिक्षण के समय शिक्षक द्वारा प्रयुक्त शब्द वह, उसके, उसका, तुमने आदि लैंगिक असमानता को प्रकट करते हैं तथा सम्पूर्ण कक्षा का एक समान प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है। इस प्रकार की कक्षा-कक्ष अन्तः क्रियाओं में सुधार की आवश्यकता है तथा इसके द्वारा कक्षा में होने वाली लैंगिक भिन्नता को समाप्त किया जा सकता है।
- अध्यापकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन (Change in the Attitude of Teachers) – अध्यापकों का प्रारम्भिक कक्षाओं में दृष्टिकोण ही छात्र एवं छात्राओं के विषय चयन के आधार होते हैं। शिक्षक विषय को ज्ञान के अथवा रुचि के आधार पर चयन के स्थान पर लिंग के आधार पर विषयों के चयन हेतु प्रेरित करते है। उदाहरणस्वरूप- गणित विषय लड़कों के लिए विज्ञान विषय लड़कियों के लिए इत्यादि । इसके द्वारा शिक्षक के दृष्टिकोण व्यवहार एवं अध्यापक व्यूह रचनाएं दोषपूर्ण होती हैं। इन सभी दृष्टिकोणों में परिवर्तन की आवश्यकता होती है।
- अभिभावक शिक्षक सम्मेलन (Parent-Teacher Meeting)–अभिभावक- शिक्षक सम्मेलन छात्रों को समझने उनके करीब आने तथा उनकी समस्याओं के निदान में महत्त्वपूर्ण होता है। विद्यालय में छात्र एवं छात्राओं के माता एवं पिता दोनों को आमन्त्रित किया जाना चाहिए। घर में माता एवं पिता अपने बालकों की गतिविधियों पर ध्यान रखते हैं। बालक विद्यालय घर अथवा अध्ययन सम्बन्धी समस्याओं की चर्चा माता एवं पिता दोनों से कर सकता है, इसलिए सम्बन्धित समस्याओं का पता लगाने तथा निदान करने में अभिभावक शिक्षक सम्मेलन आवश्यक होता है।
- परामर्श (Counselling) – शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में परामर्श की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परामर्श के अन्तर्गत विद्यार्थियों की समस्याओं से सम्बन्धित निदान अधिगम सम्बन्धी समस्याओं से सम्बन्धित एवं उनके विषयों के चुनाव के विषय में उन्हें सलाह दी जाती है। परामर्श के अन्तर्गत विद्यार्थियों को उनके कैरियर में सफलता तथा बेहतर प्रदर्शन के लिए भी परामर्श प्रदान किया जाता है। इसमें उन्हें जीविकोपार्जन के साथ-साथ घर पर सहयोग करना दूसरों की सहायता करना आदि को बताया जाता है।
परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका
लैंगिक निरपेक्ष भाषा का विकास प्रायः पुरुष शिक्षक अपनी अन्तःक्रिया के दौरान (He, Him) और स्त्रीलिंग से सम्बन्धित शब्दों या वाक्यों का प्रयोग करता है, इसके बजाय दोनों लिंगों से सम्बन्धित शब्दों को समान रूप में प्रयोग करने की आदत का विकास करना चाहिए। (He or She, Her or Him)
लैंगिक संज्ञा के स्थान पर लैंगिक तटस्थ संज्ञा का प्रयोग

- दोनों ही लिंग से सम्बन्धित उदाहरण देने चाहिए- शिक्षकों को लैंगिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से समान रूप से दोनों लिंगों से सम्बन्धित उदाहरणों का प्रयोग करना चाहिए। उन पुरुष भूमिकाओं को बदलकर महिलाओं की भूमिका दी जानी चाहिए जो लैंगिक असमानता को समाप्त करने में मददगार साबित हो सकते हैं। जैसे- बस के ड्राइवर के रूप में सिर्फ पुरुष नाम ही न हो बल्कि महिला नाम का भी प्रयोग करना चाहिए। इससे मनोवैज्ञानिक रूप से लैंगिक समानता की तरफ अग्रसर होने का फायदा मिलेगा।
- अलग-अलग बैठने की व्यवस्था करने की बजाय एक साथ बैठने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए – हमारे समाज में लड़के-लड़कियों को शुरू से ही अलग-अलग बिठाने की व्यवस्था की जाती है जिस कारण इन दोनों लिंगों में काफी गहरा अन्तराल पैदा हो जाता है और अलग-अलग ही रहते हैं तथा काम करते हैं। एक साथ बैठने से वे एक दूसरे की सोच को प्रभावित कर सकेंगे जो लैंगिक समानता की तरफ अग्रसर होने में मद्द कर सकेगा।
- कक्षागत गतिविधियों में समान भागीदारी सुनिश्चित करना – कक्षागत परिस्थितियों में कई प्रकार की प्रतियोगिता और क्रियाविधियों का आयोजन किया जाता है। इन सभी में लड़के और लड़कियों को समान रूप में भाग लेने का अवसर देना चाहिए।
- लड़कों लड़कियों को के प्रति एक-दूसरे संवेदनशील बनाना – शिक्षकों का यह भी दायित्व है कि लड़के-लड़कियों दोनों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाए। लड़कियों को छेड़ना आदि समस्या के प्रति लड़कों को संवेदनशील बनाने का प्रयत्न करना चाहिए साथ ही साथ एक-दूसरे के प्रति सम्मान देने की बात सिखानी चाहिए। अनुसन्धानों में यह बात निकल कर सामने आई है कि विद्यालय में शिक्षक लड़कों पर अधिक ध्यान देते हैं लेकिन कुछ अनुसन्धानों में यह बात भी सामने आई है कि माध्यमिक स्तर पर शिक्षक लड़कों पर अधिक ध्यान नहीं देते। बालिकाओं का माध्यमिक स्तर पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अनुशासनात्मक कार्यवाहियों में बालकों का प्रतिशत बालिकाओं की तुलना में अधिक होता है।
- छात्र गतिविधि का अवलोकन (Observation of Activities of Students)- अध्यापक को बालक तथा बालिकाओं की विद्यालयी गतिविधियों का अवलोकन करना चाहिए। अध्यापक को जहाँ पर भी लैंगिक असमानता की स्थिति अनुभव हो तो उसे समाप्त करना चाहिए। जैसे- यदि किसी छात्र की ऐसी सोच है कि नृत्य में भाग लेना मात्र बालिकाओं का ही काम है बालकों का नहीं तो इस प्रकार की सोच को शीघ्र ही समाप्त करना चाहिए। इस प्रकार के सार्थक अवलोकन से लैंगिक समानता का विकास होगा।
- योग्यता तथा रुचि के अनुसार उत्तरदायित्व प्रदान करना (To Provide Responsibility According to Ability and Interest)-अध्यापक द्वारा बालक एवं बालिकाओं को उत्तरदायित्व प्रदान करते समय यह नहीं देखना चाहिए कि यह बालक है इसलिए इसका अलग उत्तरदायित्व है या वह बालिका है इसीलिए उसके अलग • दायित्व हैं वरन् उत्तरदायित्व प्रदान करते समय बालक-बालिका की रुचि व योग्यता देखनी चाहिए।
- अध्यापक की सकारात्मक सोच (Positive Thinking of Teacher ) – एक सकारात्मक सोच वाला अध्यापक ही अपने बालकों में सकारात्मक सोच विकसित कर सकता है। यदि एक अध्यापक अपने छात्र-छात्राओं को अपने पाल्य के समान समझता है तथा उसी रूप में उन्हें प्रेम करता है तो इससे बालकों में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है।
- अभिभावकों को उचित परामर्श (Proper Counselling to Parents ) – शिक्षक-अभिभावक संघ तथा विद्यालय ” प्रबन्धन समिति की बैठक में अध्यापक एवं अभिभावकों का सम्पर्क होता है। इन स्थितियों में विद्यालयी लैंगिक समानता पर चर्चा करते समय परिवार तथा समाज में भी लैंगिक समानता विकसित करने पर चर्चा की जाए तो विद्यालय तथा समाज दोनों में ही लैंगिक समानता का वातावरण विकसित हो सकेगा।
- अध्यापक – छात्र के सर्वोत्तम सम्बन्ध (Ideal Relationship of Teacher with Students )-अध्यापक तथा छात्र के मध्य सम्बन्ध मधुर होने चाहिए। अतः छात्रों के द्वारा अध्यापक के प्रत्येक तथ्य को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए। इस स्थिति में अध्यापक द्वारा लैंगिक असमानता दूर करने सम्बन्धी प्रयासों को छात्रों द्वारा सहर्ष स्वीकार किया जाएगा। इससे विद्यालयी तथा सामाजिक स्तर पर लैंगिक समानता उत्पन्न होगी।
- अध्यापक सुविधाप्रदाता के रूप में (Teacher as a Facilitator)–विद्यालय में अध्यापक की भूमिका एक सुविधाप्रदाता के रूप में होनी चाहिए। प्रत्येक बालक एवं बालिका के प्रति अध्यापक का व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि बालक एवं बालिका अपनी व्यक्तिगत तथा शैक्षिक समस्याओं को प्रकट करने में संकोच न करे।
- उचित निर्देशन तथा परामर्श (Proper Guidance and Counselling)-अध्यापक को बालक एवं बालिका की रुचि एवं योग्यता के आधार पर निर्देशन तथा परामर्श देना चाहिए न कि उनकी लैंगिकता के आधार पर । जैसे यदि कोई बालिका अपनी सेवाएँ सेना में प्रदान करना चाहती है और वह इसके योग्य भी है तो उसे उचित निर्देशन व परामर्श देना चाहिए।
- अध्यापक का दर्शन (Philosophy of Teacher) — यदि अध्यापक का चिन्तन तथा दर्शन समानता का पक्षधर है तो उसके प्रत्येक प्रयास भी इसी से सम्बन्धित होंगे। उसके द्वारा बालक एवं बालिकाओं में विद्यालयी स्तर या सामाजिक स्तर पर कोई विभेद नहीं किया जाएगा। लैंगिक समानता का भाव रखने वाला अध्यापक बालक व बालिकाओं का विकास समान रूप से करने में सक्षम होगा।
परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में शिक्षक के समक्ष बाधाएँ (Barriers in Front of Teacher as an Agent of Change)
- अशिक्षा (Illiteracy) – अशिक्षा किसी भी देश, समाज की प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है। हमारे राष्ट्र में अशिक्षितों की संख्या अधिक है। जिस कारण वे अपना योगदान राष्ट्र की प्रगति एवं परिवर्तन में नहीं कर पाते हैं। वे परिवर्तन का महत्त्व नहीं समझते हैं और परिवर्तन को अपनाने में डरते हैं। जिस कारण शिक्षकों को उनके विरोध का सामना भी करना पड़ता है।
- अन्धविश्वास ( Superstition ) – अशिक्षा के कारण लोगों में अन्धविश्वास की भावना भी जल्दी विकसित हो जाती है। जो शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करता है। सामान्यतः लोगों में लड़का-लड़की को लेकर, जाति, धर्म, विज्ञान, आदि को लेकर अनेक अन्धविश्वास व्याप्त होते हैं और जब कोई व्यक्ति या शिक्षक उनके अन्धविश्वास को बदलना चाहता है तो वे उसे स्वीकार्य नहीं करते हैं और यह सोचते हैं कि वह व्यक्ति उन्हें, उनके समाज को, उनके बच्चे आदि का पथभ्रष्ट कर रहा है। इन्हीं अन्धविश्वासों के कारण शिक्षक को कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है।
- रूढ़िबद्ध समाज (Stereotyped Society)- रूढ़िबद्धसमाज भी परिवर्तन में सबसे बड़ा बाधक तत्व है क्योंकि ऐसे समाज के लोग अपने पुराने विचारों, मान्यताओं, आदर्शों आदि को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं वे आसानी से नए मूल्यों, सिद्धान्तों, आदर्शों आदि को स्वीकार्य नहीं करते हैं ।
- संकीर्ण सोच (Narrow-Minded Thinking ) -संकीर्ण सोच के अन्तर्गत उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो अपने धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति को ही श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसे व्यक्तियों से विचार-विमर्श करने, उन्हें अन्य धर्म, जाति आदि की महत्ता समझाने में शिक्षक को परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसी कारण शिक्षक परिवर्तन में अपनी भूमिका का उचित रूप से निर्वहन नहीं कर पाते हैं ।
- धार्मिक एवं राजनैतिक कारण (Religious and Political Factors) – परिवर्तन समाज के किसी भी क्षेत्र (राष्ट्र या शिक्षा) में, ये सभी राजनैतिक एवं धार्मिक कारक काफी सीमा तक इनको प्रभावित करते हैं। वर्तमान में धर्म को राजनीतिक मुद्दा बनाकर लोगों में जाति, धर्म के नाम पर भेदभाव उत्पन्न किया जा रहा है। ऐसे में शिक्षक द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए सभी प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि अभी भी कुछ जगहों पर लोगों के लिए शिक्षा से सर्वोच्च धर्म है।
- स्वार्थपरता (Selfishness) – समाज विभिन्न सम्प्रदायों, वर्गों आदि में विभाजित है। जिसके अपने-अपने स्वार्थ हैं, जिस कारण से परिवर्तन के प्रति अपना विस्तृत दृष्टिकोण नहीं रखते हैं जिससे परिवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है।
- सांस्कृतिक अलगाव • (Cultural Isolation ) – भारत विविधताओं का देश है यहाँ अनेकों धर्म तथा सम्प्रदाय के लोग रहते हैं जिनकी अपनी अलग-अलग संस्कृतियाँ हैं। शिक्षक को इन सभी संस्कृतियों में सामन्जस्य स्थापित करके शिक्षा प्रदान करनी होती है। जो कि अत्यन्त कठिन कार्य है, यह परेशानियाँ (सामन्जस्य एवं समन्वय) शिक्षक को परिवर्तन लाते समय बाधक बनती हैं।
- इच्छा शक्ति की कमी (Lack of Will Power) मानव की यह सामान्य प्रवृत्ति रही है कि वह अपना कार्य दूसरों के भरोसे छोड़ देता है वह यह मानता है कि उसके कार्य न करने से उस कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यही कारण है कि शिक्षा में परिवर्तन का कार्य भी सरकार एवं शिक्षक के भरोसे छोड़ दिया गया है। लोगों में इच्छा शक्ति के अभाव के कारण ही वे केवल अपने कर्तव्यों के निर्वहन के स्थान पर उनके पालन की खानापूर्ति करते हैं।
सुझाव ( Suggestions)
- लोगों को सामाजिक कुरीतियों एवं संकीर्णता के प्रति जागरूक करना चाहिए। उन्हें इन कुरीतियों से होने वाले दुष्परिणामों से अवगत कराना चाहिए ।
- सशक्त शिक्षकों के निर्माण के लिए शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए।
- शिक्षा का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करना और इसके लिए पत्राचार पाठ्यक्रम, दूरस्थ शिक्षा एवं वयस्क शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
- लोगों में एक-दूसरे की संस्कृति के प्रति आदर, प्रेम की भावना विकसित करने हेतु विद्यालय में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए जो सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व के क्रियाकलापों, पर्वो, उत्सवों एवं दिवसों के महत्त्व पर आधारित हों ।
- छात्रों, उनके माता-पिता तथा समाज के लोगों को धर्मनिरपेक्षता के महत्त्व से अवगत कराना ।
- परिवर्तन हेतु औपचारिक तथा अनौपचारिक अभिकरणों के मध्य अन्तःक्रिया तथा सामन्जस्य स्थापित करना ।
- छात्रों एवं समाज को नई तकनीकों से अवगत कराना तथा उसके महत्त्व को समझाना चाहिए। इसके लिए विद्यालय में प्रदर्शनी का आयोजन किया जा सकता है।
- शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों के माध्यम से कई बाधाओं को दूर किया जा सकता है। जिसमें सर्वप्रमुख अशिक्षा एवं अन्धविश्वास है।
- स्त्री शिक्षा एवं पिछड़े वर्गों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए ।
- धार्मिक एवं राजनैतिक कारकों को परिवर्तन में सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए प्रेरित करना चाहिए ।
- रूढ़िबद्धता को समाप्त करने हेतु लोगों को आधुनिकीकरण तथा आर्थिक विकास के महत्त्व को समझाना तथा भविष्य में होने वाले लाभों से परिचित कराना चाहिए ।
- सामाजिक परिवर्तन हेतु समाज-सुधारकों की सहायता प्राप्त करनी चाहिए। शिक्षक एवं समाज सुधारकों के साथ कार्य करने से परिवर्तन लाने में तो सहायता प्राप्त होगी साथ-साथ लोगों में साथ मिलकर कार्य करने की भावना भी विकसित होगी।
