1st Year

प्राचीन काल से आधुनिक काल तक स्त्रियों की स्थिति में आने वाले परिवर्तनों का वर्णन कीजिए। Describe the changes in the status of women in India from ancient to modern period.

प्रश्न – प्राचीन काल से आधुनिक काल तक स्त्रियों की स्थिति में आने वाले परिवर्तनों का वर्णन कीजिए। Describe the changes in the status of women in India from ancient to modern period.
या
भारत में विभिन्न कालों के दौरान स्त्रियों की स्थिति का वर्णन कीजिए। Describe the changes in the status of women during different times.
या
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए। Write short notes on the following: 
(1) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के कारण (Causes of Changes in Women’s Status)
(2) महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में परिवर्तन  (Socio-Economic and Educational Upliftment of Status of Women)
उत्तर- विश्व में लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। इसके साथ अगर इस कहावत को माना जाए कि सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है तो यह भी सत्य है कि बाकी की आधी आबादी की सफलता भी महिलाओं पर आधारित है परन्तु भारत व अन्य एशियाई देशों में महिलाओं की जो स्थिति देखने को मिलती है वह कुछ सोचनीय प्रश्न सामने रखती है। भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान नही रही है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन होते रहे हैं। उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके अधिकारों में तदनुरूप बदलाव भी होते रहे हैं। भारतीय देशों में महिलाओं की स्थिति हमेशा बहुत महत्त्वपूर्ण रही है। महिला को ऐसी धुरी समझा जाता रहा है जिसके चारों ओर परिवार घूमता है।

भारत में विभिन्न कालों के दौरान स्त्रियों की स्थिति (Status of Women in India During Different Periods) 

  1. पौराणिक काल में स्त्रियाँ (Women in the Mythological Period) पौराणिक युग में नारी वैदिक युग के दैवीय पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों और याज्ञिक कर्मों में उसकी स्थिति पुरुष के बराबर थी। कोई भी धार्मिक कार्य बिना पत्नी के नहीं किया जाता था। श्रीरामचन्द्र ने अश्वमेध के समय सीता की हिरण्यमयी प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। यद्यपि उस समय भी अरुन्धती (महर्षि वशिष्ठ की पत्नी). लोपामुद्रा, (महर्षि अगस्त्य की पत्नी), अनुसूइया (महर्षि अत्रि की पत्नी) आदि नारियाँ देवी रूप की प्रतिष्ठा के अनुरूप थी तथापि ये सभी अपने पतियों की सहधर्मिणी ही थीं। पौराणिक काल में स्त्रियों की स्थिति में कमी आई। कन्याओं का वयस्क होने से पूर्व विवाह होने लगा। विधवा विवाह का निषेध होने लगा, पति को स्त्रियों के लिए भगवान का दर्जा दिया जाने लगा, स्त्रियों के लिए शिक्षा निषेध हो गई। पर्दा प्रथा, बहुपत्नी विवाह, सती प्रथा आदि कुरीतियाँ अस्तित्व में आईं।
  2. प्राचीन भारत में स्त्रियाँ (Women in Ancient India)- प्राचीन काल में महिलाओं का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। महिलाएँ शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा वैदिक रीतियों में भी भाग लेती थीं। पुरुष का कोई भी संस्कार पत्नी के बिना अधूरा रहता था। गार्गी, अपाला आदि विदुषी महिलाओं का वेदों में भी वर्णन है जो शास्त्रार्थ भी करती थीं। आपस्तम्ब ने निर्दिष्ट किया था जब स्त्री रास्ते में जा रही हो तो सभी उसे रास्ता दें ।” मनु के अनुसार भी जहाँ स्त्रियों की दुर्दशा होती है वहाँ सम्पूर्ण परिवार विनाश को प्राप्त होता है किन्तु जहाँ वे सुखी हैं वहाँ परिवार सदैव समृद्धि को प्राप्त करता हैं। याज्ञवल्क्य के अनुसार, “स्त्रियाँ पृथ्वी पर समस्त दैवीय गुणों का प्रतीक हैं। ” रामायण और महाभारत काल में भी स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन का केन्द्र थीं। परन्तु चित्र का दूसरा पक्ष भी है। रामायण काल में भगवान राम ने अपनी पत्नी को केवल धोबी को सन्तुष्ट करने के लिए त्याग दिया था। महाभारत में भी द्रौपदी को द्यूत क्रीड़ा में उसके पति ने दाँव पर लगाया था परन्तु ये मात्र कुछ उदाहरण हैं। अन्य सभी जगह पर स्त्री को पूजनीय ही समझा गया।
  3. वैदिक और उत्तर वैदिक काल में स्त्रियाँ (Women in Vedic and Late Vedic Period)- वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में महिलाओं को गरिमामय स्थान प्राप्त था। उसे देवी, सहधर्मिणी अर्धागिनी, सहचरी माना जाता था। वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ थी, परिवार तथा समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था । उनको शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। सम्पत्ति में उनको समान अधिकार था। सभा व समितियों में भी ये स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेती थी । वैदिक और उत्तर वैदिक काल के साहित्य से यह भी सिद्ध होता है कि पूर्वकाल में स्त्रियाँ कभी भी पर्दा नहीं करती थीं । उन्हें अपने जीवन साथी के वरण में स्वतंत्रता प्राप्त थी। घर पर भी उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी और उन्हें अर्द्धागिनी माना जाता था ।
    आर्थिक क्षेत्र में भी स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी परन्तु वे न कहीं नौकरी करती थीं और न धन अर्जन क्योंकि यह उनके लिए आवश्यक नहीं था। घर उत्पादन का केन्द्र था। वस्त्र बनाने का कार्य, कृषि कार्य, पशुपालन आदि के कार्य घर पर ही होते थे और स्त्रियाँ पुरुषों की पूरी सहायता करती थीं। कुछ स्त्रियाँ अध्यापन कार्य में भी व्यस्त रहती थीं। सम्पत्ति का महिलाओं को अधिकार नहीं था । राजतंत्र में महिला राज नहीं करती थी परन्तु पति या पुत्र के सलाहकार के रूप में उन्हें शक्ति प्राप्त थी । धार्मिक क्षेत्र में पत्नी नियमित रूप से अपने पति के साथ समस्त धार्मिक कृत्यों व संस्कारों में भाग लेती थी, जैमिनी की पूर्व मीमांसा में वर्णित है कि उच्चतम धार्मिक संस्कारों में स्त्रीपुरुष की भागीदारी बराबर की होती थी। अतः कह सकते हैं कि वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति निम्न नहीं थी । यद्यपि ऋग्वेद में कुछ ऐसी उक्तियाँ भी हैं जो महिलाओं के विरोध में दिखाई पड़ती हैं। मैत्रयी संहिता में स्त्री को झूठ का अवतार कहा गया है। ऋग्वेद का कथन है कि स्त्रियों के साथ कोई मित्रता नहीं है, उनके हृदय भेड़ियों के हृदय हैं। ऋग्वेद के अन्य कथन में स्त्रियों को दास की सेना का अस्त्र शस्त्र कहा गया है। स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी कहीं न कहीं स्त्रियाँ नीची दृष्टि से देखी जाती थीं। फिर भी हिन्दू जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह समान रूप से आदर और प्रतिष्ठित थी। शिक्षा, धर्म, व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उसका महान योगदान था। संस्थानिक रूप से स्त्रियों की अवनति उत्तर वैदिककाल से शुरू हुई। उनपर अनेक प्रकार के निर्योग्यताओं का आरोपण कर दिया गया। उनके लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग होने लगा। उनकी स्वतंत्रता और उन्मुक्ता पर अनेक प्रकार के अंकुश लगाए जाने लगे।
  4. बौद्ध काल में स्त्रियों (Women in the Buddhist Period)- बौद्ध धर्म का उदय हिन्दूवाद पर प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ। ब्राह्मण तथा पुराणों के काल में स्त्रियों पर अनेक अन्यायपूर्ण एवं अनुचित सामाजिक निषेध थोप दिए गए परन्तु बौद्ध काल में स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धार्मिक क्षेत्र में स्त्रियों को स्पष्ट रूप से उत्कृष्ट स्थान प्राप्त हुआ। उनका अपना संघ बना जिसे भिक्षुणी संघ कहा गया। संघ ने स्त्रियों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों, समाजसेवा तथा सार्वजनिक जीवन में अनेक स्थलों पर भाग लेने के अवसर प्रदान किए। सामाजिक क्षेत्र में उन्हें सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ, यद्यपि उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
  5. मध्य काल में स्त्रियाँ (Women in the Medieval Period) – भारत में मुसलमानों का प्रथम आक्रमण आठवी शताब्दी में हुआ जिस काल में शंकराचार्य जीवित थे। शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से वेदों की उत्कृष्टता पर पुनः बल दिया। वेदों में स्त्रियों को समानता का अधिकार प्राप्त था। ग्यारहवीं शताब्दी में पुनः मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। इस काल के पश्चात् करीब 700 वर्षों तक अर्थात् ब्रिटिश काल की शुरुआत तक, सामाजिक संस्थाओं का विखण्डन, परम्परागत राजनैतिक संरचना में उथल-पुथल, बड़ी संख्या में लोगों का प्रवासन तथा देश में आर्थिक मन्दी महिलाओं के पतन के बड़े कारण बने । आक्रमणकारियों से स्त्रियों को बचाने के नाम पर पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाएँ अधिक प्रबल हो गई। शिक्षण की सुविधा पूर्णरूपेण समाप्त हो गई तथापि पन्द्रहवीं शताब्दी में स्त्रियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। रामानुज, चैतन्य, मीरा, कबीर, रामदास, तुलसी व तुकाराम जैसे संतों ने धार्मिक पूजा-अर्चना का सबल पक्ष प्रस्तुत किया। इससे पर्दा प्रथा कम हो गई और शिक्षा का मार्ग भी प्रशस्त हो गया परन्तु कुल मिलाकर स्त्रियों की निम्न स्थिति ही बनी रही।
  6. ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति (Women’s Status during British Period) – भारत की आधुनिक शिक्षा ब्रिटिश शासन की देन है। ब्रिटिश शासन से पहले स्त्रियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। समाज में स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा हीन दृष्टि से देखा जाने लगा था। स्त्रियाँ अशिक्षा एवं अज्ञानता के बन्धनों से जकड़ी हुई थी। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए अत्यधिक निर्णायक सिद्ध हुई। स्त्री शिक्षा तथा स्थिति में सुधार के लिए तीन स्तर पर कार्य किए गए –
    (i) मिशनरियों के व्यक्तिगत प्रयास
    (ii) भारतीय समाज सुधारको एवं स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों के प्रयास
    (iii) अंग्रेजी सरकार के प्रयास ।
    ब्रिटिश मिशनरी भारत में अपने धर्म एवं शिक्षा का प्रचार प्रसार करने हेतु लालायित रहते थे। प्रोटेस्टेंट तथा कैथोलिक मिशनरियों ने स्त्री शिक्षा हेतु प्रयास किए। मिस कूक 1821 ई. में भारत आयी, पहुँचते ही उन्होंने आठ बालिका विद्यालयों की स्थापना की तथा 1823 तक 14 अतिरिक्त बालिका विद्यालयों की स्थापना की। भारतीयों ने भी मिशनरियों के इस कार्य से प्रभावित होकर इस क्षेत्र में कार्य किए। 1851 तक ईसाई मिशनरियों ने ही 371 बालिका विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें 11.293 बालिकाएँ शिक्षा प्राप्त कर रही थी। सर्वप्रथम 1850 ई. में सरकार ने स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु सहायता प्रदान की। 1854 ई. में शिक्षा सुधार के पश्चात् स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक जागृति उत्पन्न हुई। अंग्रेजी सरकार के साथ-साथ ब्रह्म समाजियों, पारसियों तथा भारतीय ईसाइयों में भी लड़कियों के लिए विद्यालय खोलने की होड़ सी लग गई। परिणामतः 1902 के अन्त तक 12 महिला कॉलेज 468 सेकेण्डरी विद्यालय 5,650 प्राथमिक विद्यालय तथा 45 प्रशिक्षण संस्थाएँ खोली गई। 1902 से 1921 तक के काल में शिक्षा के प्रति काफी जागरूकता उत्पन्न हो चुकी थी। 1917 में श्रीमती एनी बेसेण्ट की अध्यक्षता में भारतीय महिला संगठन की स्थापना की गई जिसका मुख्य उद्देश्य नारी शिक्षा को प्रसारित करना था। 1937 में प्रान्तों में भारतीय मंत्रिमण्डल बने। महात्मा गाँधी ने भी बेसिक शिक्षा योजना प्रस्तुत की जिससे लड़कियों की शिक्षा में सुधार हुआ। इससे सहशिक्षा की प्रवृत्ति का विकास एवं लैंगिक भेदभावों में कमी आयी।
  7. स्वतंत्रता के पश्चात् स्त्रियों की स्थिति (Women’s Status:After Independence) – स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक स्त्रियों की निम्न दशा के प्रमुख कारण अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, धार्मिक निषेध, जाति बन्धन, स्त्री नेतृत्व का अभाव तथा पुरुषों का उनके प्रति अनुचित दृष्टिकोण आदि थे। मेटसन ने हिन्दू संस्कृति में स्त्रियों की एकान्तता तथा उनके निम्न स्तर के लिए पाँच कारकों को उत्तरदायी ठहराया है, यह है- हिन्दू धर्म, जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, इस्लामी शासन तथा ब्रिटिश उपनिवेशवाद । हिन्दूवाद के आदर्शों के अनुसार पुरुष स्त्रियों से श्रेष्ठ होते हैं और स्त्रियों व पुरुषों को भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निभानी चाहिए। स्त्रियों से माता व गृहिणी की भूमिकाओं की और पुरुषों से राजनीतिक व आर्थिक भूमिकाओं की आशा की जाती है।भारत में स्त्रियों की स्थिति में 1950 के बाद से पर्याप्त सुधार हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकार द्वारा उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हें विकास की मुख्य धारा में समाहित करने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का संचालन किया गया है। महिलाओं को विकास की अखिल धारा में प्रवाहित करने, शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग करते हुए उनकी सोच में मूलभूत परिवर्तन लाने, आर्थिक गतिविधियों में उनकी अभिरुचि उत्पन्न कर उन्हें आर्थिक-सामाजिक दृ ष्टि से आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन की ओर अग्रसरित करने जैसे अहम उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पिछले कुछ दशकों में विशेष प्रयास किए गए हैं।

    संरचनात्मक तथा सांस्कृतिक दोनों ही प्रकार के परिवर्तनों ने स्त्रियों को न केवल शिक्षा रोजगार तथा राजनैतिक भागीदारी में समान अवसर प्रदान किए हैं बल्कि स्त्रियों के शोषण को भी कम किया है। स्त्रियों के निम्न स्तर के कारणों के अध्ययन एवं प्रत्येक क्षेत्र में उनके अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से केन्द्रीय व राज्य सरकारों ने विभिन्न कमीशनों की नियुक्ति की है। केन्द्रीय सरकार ने दो ऐसे महत्त्वपूर्ण कमीशन 1971 व 1992 में नियुक्त किए थे जिसका उद्देश्य था महिलाओं से सम्बन्धित मामलों को देखना। 2001 में महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति (National Policy for the Empowerment of Women) बनी थी जिसने महिलाओं के विकास व सशक्तीकरण के लिए विभिन्न सुझाव दिए । मई 2016 में भारत सरकार के महिला व बाल विकास विभाग ने राष्ट्रीय महिला नीति प्रस्तावित की है जिसका उद्देश्य इस प्रकार की योजनाएँ प्रस्तावित करने का है जो महिलाओं को परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र तथा सरकार में प्रत्येक स्तर से बराबरी का अधिकार दिलाए। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, पीने का पानी, कृषि, मीडिया, खेल आदि हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति व भागीदारी पर सुझाव हैं। इसमें महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा पर विशेष बल दिया गया है।

महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में परिवर्तन (Socio-Economic and Educational Upliftment of Status of Women)
मध्यकाल में विदेशियों के आगमन से स्त्रियों की स्थिति में जबर्दस्त गिरावट आयी। अशिक्षा एवं रूढ़ियाँ जकड़ती गई, घर की चहार दीवारी में कैद होती गई और स्त्रियाँ एक अबला, रमणी और भोग्या बनकर रह गई। आर्य समाज आदि समाज-सेवी संस्थाओं ने नारी शिक्षा आदि के लिए प्रयास आरम्भ किए। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत के कुछ समाजसेवियों जैसे राजाराम मोहन राय, दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा केशवचन्द्र सेन ने अत्याचारी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई। इन्होंने तत्कालीन अंग्रेजी शासकों के समक्ष स्त्री पुरुष समानता, स्त्री शिक्षा, सतीं प्रथा तथा बहु विवाह पर रोक की आवाज उठायी। इसी का परिणाम था 1829 में सती प्रथा निषेध अधिनियम, 1856 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1891 में एज ऑफ कन्सटेन्ट बिल, 1891 में बहु विवाह रोकने के लिए वेटिव मैरिज एक्ट पास कराया। इन सभी कानूनों का समाज पर दूरगामी परिणाम हुआ। वर्षों के नारी स्थिति में आयी गिरावट में रोक लगी। आने वाले समय में स्त्री जागरूकता में वृद्धि हुई और नये नारी संगठनों का सूत्रपात हुआ जिनकी मुख्य माग स्त्री शिक्षा दहेज, बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर रोक, महिला अधिकार, महिला शिक्षा की माँग की गई।
ब्रिटिश काल में स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन ( Changes in Women’s Status in British Period)
महिलाओं के पुनरोत्थान का काल ब्रिटिश काल से शुरू होता है। ब्रिटिश शासन की अवधि में हमारे समाज की सामाजिक व आर्थिक संरचनाओं में अनेक परिवर्तन किए गए। अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं व मध्य बीसवीं शताब्दी तक अंग्रेज भारत के शासक बने रहे। ब्रिटिश शासन की अवधि में हमारे सामाजिक व आर्थिक संरचनाओं में अनेक परिवर्तन किए गए। ब्रिटिश शासन के 200 वर्षों की अवधि में स्त्रियों के जीवन में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अनेक सुधार आए। औद्योगीकरण, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक आन्दोलन व महिला संगठनों का उदय व सामाजिक विधानों ने स्त्रियों की दशा में बड़ी सीमा तक सुधार की ठोस शुरुआत की। ब्रिटिश शासन की अवधि में स्त्रियों के जीवन में अदृश्य सुधार के कई कारण रहे –
  1. औद्योगीकरण – औद्योगीकरण में हाथ से काम करने वाले स्त्री पुरुषों की जीविका पर गम्भीर आघात हुआ। इसके अतिरिक्त संचार व आवागमन के साधन, नए-नए रोजगार आदि का विकास हुआ। इससे लोगों की सोच में परिवर्तन हुआ।
  2. शिक्षा का विस्तार – स्त्रियों को औपचारिक शिक्षा देने का विचार इसी काल में उदय हुआ। इससे पूर्व यह सार्वभौमिक मान्यता थी कि स्त्रियों को शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उन्हें आजीविका नहीं अर्जित करनी है। भक्ति आन्दोलन के बाद ईसाई मिशनरियों ने स्त्री शिक्षा में रुचि लेना प्रारम्भ किया। 1824 में पहली बार लड़कियों का स्कूल बम्बई में प्रारम्भ हुआ। 1875 तक कलकत्ता, मद्रास व बम्बई विश्वविद्यालयों ने लड़कियों को प्रवेश की अनुमति प्रदान नहीं की थी। ब्रिटिश काल में स्त्रियों की साक्षरता दर निम्न चार्ट में दर्शाई गई है।
    साल स्त्री साक्षरता दर
    1901
    1931
    1941
    0.6%
    2.93%
    7.30%
    (Source: Handbook of Social Welfare Statistics, Ministry of Social Welfare, Govt. of India)
  3. कुछ प्रबुद्ध नेताओं द्वारा चलाए गए सामाजिक आन्दोलन – भारतीय राष्ट्रीय सभा 1885 में न्यायमूर्ति रानाडे ने बाल विवाह, बहुपत्नी विवाह, विधवाओं पर कठोर प्रतिबन्ध, शिक्षा प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध आदि कुरीतियों की कड़ी निन्दा की। राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा उन्मूलन के लिए विशेष प्रयास किए। उन्होंने बाल विवाह और पर्दा प्रथा के विरुद्ध भी आवाज उठाई। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए आन्दोलन चलाया और स्त्रियों की शिक्षा की वकालत की। महर्षि कर्वे ने भी विधवा विवाह और स्त्रियों की शिक्षा की समस्या को उठाया। स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी ने भी स्त्रियों की राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के प्रति रुचि दिखाई।
स्वतंत्रता के पश्चात् स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन (Changes in Women’s Status After Independence)
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक स्त्रियों की निम्न दशा के प्रमुख कारण अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, धार्मिक निषेध, जाति बन्धन, स्त्री नेतृत्व का अभाव तथा पुरुषों का उनके प्रति अनुचित दृ ष्टिकोण आदि थे। मेटसन ने हिन्दू संस्कृति में स्त्रियों की एकान्तता तथा उनके निम्न स्तर के लिए पांच कारकों को उत्तरदायी ठहराया है, यह है- हिन्दू धर्म, जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, इस्लामी शासन तथा ब्रिटिश उपनिवेशवाद । हिन्दूवाद के आदर्शों के अनुसार पुरुष स्त्रियों से श्रेष्ठ होते हैं और स्त्रियों व पुरुषों को भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निभानी चाहिए। स्त्रियों से माता व गृहिणी की भूमिकाओं की और पुरुषों से राजनीतिक व आर्थिक भूमिकाओं की आशा की जाती है।

भारत में स्त्रियों की स्थिति में 1950 के बाद से पर्याप्त सुधार हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकार द्वारा उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हें विकास की मुख्य धारा में सम्मिलित करने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का संचालन किया गया है। महिलाओं को विकास की अखिल धारा में प्रवाहित करने, शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग करते हुए उनकी सोच में मूलभूत परिवर्तन लाने, आर्थिक गतिविधियों में उनकी अभिरुचि उत्पन्न कर उन्हें आर्थिक सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन की ओर अग्रसरित करने जैसे अहम् उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पिछले कुछ दशकों में विशेष प्रयास किए गए हैं। संरचनात्मक तथा सांस्कृतिक दोनों ही प्रकार के परिवर्तनों ने स्त्रियों को न केवल शिक्षा रोजगार तथा राजनैतिक भागीदारी में समान अवसर प्रदान किए हैं बल्कि स्त्रियों के शोषण को भी कम किया है। स्त्रियों के निम्न स्तर के कारणों के अध्ययन एवं प्रत्येक क्षेत्र में उनके अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से केन्द्रीय व राज्य सरकारों ने विभिन्न कमीशनों की नियुक्ति की है। केन्द्रीय सरकार ने दो ऐसे महत्त्वपूर्ण कमीशन 1971 व 1992 नियुक्त किए थे जिसका उद्देश्य था महिलाओं से सम्बन्धित मामलों को देखना। 2001 में महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति (National Policy for the Empowerment of Women) बनी थी, जिसने महिलाओं के विकास व सशक्तीकरण के लिए विभिन्न सुझाव दिए। मई 2016 में भारत सरकार के महिला व बाल विकास विभाग ने राष्ट्रीय महिला नीति प्रस्तावित की है जिसका उद्देश्य इस प्रकार की योजनाएँ प्रस्तावित करने का है जो महिलाओं को परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र तथा सरकार में प्रत्येक स्तर से बराबरी का अधिकार दिलाए। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, पीने का पानी, कृषि, मीडिया, खेल आदि हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति व भागीदारी पर सुझाव हैं। इसमें महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा पर विशेष बल दिया गया है।

आधुनिक समाज में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन (Changes in Women’s Status in Modern Society) 
प्राचीन काल से स्त्री-पुरुष ने काम करने के अपने दायरे बना लिए थे। पति खाने का इन्तजाम करता था और पत्नी घर पर रहकर ही बच्चों का लालन-पालन किया करती थी तथा खाना बनाती थी और घर को व्यवस्थित किया करती थी। पशुपालन युग में भी महिलाएँ पशुओं की देखभाल सेवा एवं इनसे सम्बन्धित अन्य काम किया करती थी। इसके बाद कृषि का आरम्भ हुआ तो महिलाएँ कृषि के कार्य में अपना योगदान दिया करती थी परन्तु आर्थिक अधिकार पुरुष के पास ही रहे। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण फैसला पुरुष ही लिया करते थे, फिर विज्ञान की प्रगति के कारण सम्भव औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप काम का दायरा बढ़ा। श्रम की माँग बढ़ने के कारण महिलाओं ने भी अपना दायरा बढ़ाया और घर से बाहर आकर काम करने लगी।

आधुनिक युग में समाज में व्यापक परिवर्तन हो चुका है। अब काफी मात्रा में राजनैतिक अधिकार स्त्रियों को प्राप्त हो चुके हैं जिसके कारण लैंगिक विषमता सिर्फ सामाजिक ही रह गई है क्योंकि सरकार ने कानूनों के माध्यम से कई प्रकार के राजनैतिक अधिकार दिए हैं जिसके कारण लैंगिक समानता की स्थिति को व्यावहारिक रूप में देखा जा सकता है। आधुनिक भारत में महिलाओं की भूमिका में व्यापक परिवर्तन हो चुका है। भारत में सदियों से व्याप्त कई प्रकार की रूढ़ियों और कुप्रथायें प्रचलित थीं। सुप्रसिद्ध समाज शास्त्री डा. श्री निवासन ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की स्थिति के बारे में लिखा है कि पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता ने स्त्रियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में काफी योगदान दिया है।

आधुनिक भारत में जो महिलाओं की स्थिति है उसको निम्न प्रकार से वर्णित किया जा सकता है –
  1. सामाजिक स्थिति सामाजिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया है। पहले की तुलना में अब भारतीय महिलाओं की सामाजिक स्थिति पहले से बेहतर है पर जो भी परिवर्तन सकारात्मक रूप में दिखाई देता है वह शहरी क्षेत्रों में ही दिखाई देता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। यद्यपि परम्पराएँ जो महिलाओं के विकास में बाधा थीं वे समाप्त हो चुकी हैं। अब महिलाओं की स्वतंत्रता से सम्बन्धित सीमाओं में लचीलापन आया है।
  2. पारिवारिक व वैवाहिक जीवन-विवाह से सम्बन्धित जटिलताओं के मामले में अब महिलाओं को राजनैतिक अधिकार प्राप्त हो गए हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अनुसार अब स्त्री किसी भी जाति के पुरुष से विवाह कर सकती है। परिस्थितियाँ यदि अनुकूल न हो तो वह अपने पति से तलाक भी ले सकती है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार अब महिलाओं को पारिवारिक सम्पत्ति में समान अधिकार प्राप्त है। ऐसे ही कई प्रकार के अधिकारों के मिल जाने के कारण महिलाओं की पारिवारिक स्थिति काफी अच्छी हो गई है पर वास्तविकता यह है कि अभी भी विषमता किसी न किसी रूप में दिखाई देती है।
  3. आर्थिक स्थिति आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ अब रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी काफी बढ़ गई है। अनु0 16 के अनुसार एवं राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में रोजगार में समानता व समान काम के समान वेतन जैसे अधिकार मिलने के कारण आर्थिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया है। अब महिलाएँ धीरे-धीरे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती जा रही हैं।
  4. राजनैतिक स्थिति-राजनैतिक भागीदारी में काफी वृद्धि हुई है। सन् 2014 के चुनावों में 65.63% महिलाओं ने वोट डाला। विश्व आर्थिक फोरम के अनुसार भारत की महिलाओं की राजनैतिक भागीदारिता (Political Participation) विश्व के 20 सबसे अधिक भागीदारिता वाले देशों में है। सन् 2014 के चुनावों में 260.6 मिलियन महिलाओं ने अपने राजनैतिक अधिकार का प्रयोग किया। लोकसभा में 11% एंव राज्य सभा में 10.6% महिलाएँ हैं। यही नहीं, राजनैतिक पार्टियों जैसे BJP व कांग्रेस ने 33% प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की है। भारत सरकार Mission of NMEW (National Empowerment of Women) नामक कार्यक्रम महिलाओं की सशक्तीकरण के लिए चलाया है।
  5. शैक्षिक स्थिति महिलाओं के शैक्षिक स्तर में भी काफी परिवर्तन आया है। वर्तमान समय में स्त्रियों को भी समान संवैधानिक अवसर शिक्षा में प्राप्त हुए हैं। शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना देने से भी महिलाओं की शैक्षिक स्थिति पहले से बेहतर हो रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता दर 66.46% है।
स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के कारण (Causes of Changes in Women’s Status)
  1. सामाजिक आन्दोलन समाज सुधारकों रानाडे, स्वतंत्रता से पहले से ही कई जैसे- राजा राम मोहन राय, एनी बेसेण्ट, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर आदि के प्रयासों से उस समय व्याप्त कई सामाजिक रूप से प्रचलित बुराइयों की समाप्ति हुई, जैसे पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, अशिक्षा आदि। इसके अलावा स्वतंत्र भारत में भी महिलाओं से सम्बन्धित कई सुधार किए गए।
  2. अन्तर्जातीय विवाह-महिलाओं की स्वतंत्रता में वृद्धि के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 ने महिलाओं को कई प्रमुख अधिकार दिए जिनमें से एक अधिकार यह भी था कि वे किसी भी जाति के पुरुष से विवाह कर सकती थीं। इससे संकीर्णता समाप्त हुई और उनकी स्वतंत्रता में वृद्धि हुई।
  3. रोजगार में वृद्धि – भारत में रोजगार की सम्भावनाओं में अपार वृद्धि हुई। चाहे सरकारी हो या निजी क्षेत्र, सभी जगहों पर महिलाएँ रोजगार पा रही हैं। भारतीय सेना में भी रोजगार मिलने लगा है। इस कारण भी महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया है।
  4. आर्थिक सुदृढ़ता- आर्थिक सुदृढ़ता के कारण महिलाओं की स्थिति में सबसे अधिक परिवर्तन आया है। आर्थिक रूप से स्थिति अच्छी होने के कारण परिवार में उनका महत्त्व बढ़ा है और निर्णय प्रक्रिया में अब वे शामिल होने लगी हैं।
  5. नगरीकरण का भाव-नगरीकरण के कारण जनसंख्या का प्रवजन (Migration) शहरों की तरफ होने लगा है। अब शहरों में बसने के कारण कई मामलों में महिलाओं को लाभ हुआ है। शहरों में शिक्षा का अवसर, व्यापक सुरक्षा, यातायात की सुलभता, रोजगार के अवसर मिल रहे हैं। रोजगार के साथ-साथ अब संयुक्त परिवार भी कम होते जा रहे हैं। एक पारिवारिक व्यवस्था में रहने के कारण कई प्रकार के बन्धन स्वतः समाप्त होते जा रहे हैं। आय में भागीदार होने के कारण अब उनकी पारिवारिक स्थिति बेहतर होती जा रही है।
  6. कानूनी अधिकार कई प्रकार के कानूनी अधिकारों के कारण भी महिलाओं को पहले से ज्यादा कानूनी सुरक्षा मिल रही है। आज उनको अबला स्त्री के रूप में नहीं देखा जा रहा है बल्कि वे सबला हो रही हैं। महिलाओं को कानूनी संरक्षण मिलने के कारण अपराध में भी कमी आई है।
  7. महिला संगठनों का उदय- महिलाओं के कुछ संगठन जैसे- बंग महिला समाज व महिला थियोसोफिकल सोसायटी, स्त्रियों के लिए आधुनिक आदर्शों के लिए स्थानीय स्तर पर कार्य कर रहे थे किन्तु अग्रणी कार्य उन संगठनों के द्वारा किया गया जो राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रहे थे। इन सब संगठनों ने स्त्रियों की शिक्षा, पर्दा प्रथा व बाल विवाह जैसी बुराइयों का उन्मूलन, हिन्दू अधिनियमों में सुधार, स्त्रियों की नैतिक व भौतिक प्रगति, अधिकारों व अवसरों की समानता और स्त्रियों के मताधिकार जैसे मामलों को उठाया।
  8. सामाजिक विधानों का पारित किया जाना स्वतन्त्रता के पहले तथा तुरन्त बाद स्त्रियों के अधिकारों के लिए कुछ सामाजिक विधान पारित किए गए जैसे- 1929 का बाल विवाह प्रतिबन्ध अधिनियम, 1955 का हिन्दू विवाह अधिनियम तथा 1954 का विशेष विवाह अधिनियम सम्पत्ति विधेयक विधान हैं- 1929 का हिन्दू उत्तराधिकार विधान। 1939 का हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति अधिकार अधिनियम तथा 1956 का हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम । रोजगार विषयक विधान है- 1948 का फैक्ट्री अधिनियम, 1948 का कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम तथा प्रसूति लाभ अधिनियम आदि । यद्यपि इन विधानों ने स्त्रियों की दशा में बड़ी सीमा तक सुधार किया है किन्तु ये सभी विधान अपर्याप्त हैं तथा समस्या को बाहरी सीमा तक ही स्पर्श करते हैं। यह सभी विधान स्त्रियों की समस्याओं को दूर करने में अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं हुए।

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