F-2

बचपन और बाल विकास

बचपन और बाल विकास

 

बचपन और बाल विकास

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. बाल विकास (Child Development) का अर्थ एवं प्रकृति को स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर―बाल विकास का अर्थ एवं प्रकृति-‘बाल विकास’ दो संयुक्त शब्दों (बाल
तथा विकास) से मिलकर बना है। बाल का अर्थ होता है बालक तथा विकास का सम्बन्ध
परिवर्तन की ऐसी प्रक्रिया से होता है जिससे गुणात्मक तथा परिमाणात्मक दोनों प्रकार के
परिवर्तन जुड़े रहते है।
      मानव जीवन के वृद्धि और विकास को ध्यान में रखते हुए इन्हें कुछ निश्चित अवस्थाओं
में बाँटा गया है, जैसे―गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था
इत्यादि । सीमित अर्थों में जब कोई बाल्यावस्था या बचपन से गुजर रहा होता है तो उसे
ही ‘बालक’ कहा जाता है और ऐसे ही बालक की विकास प्रक्रिया और विकास के स्वरूप
का अध्ययन करने को ही बाल विकास का दर्जा दिया जाना चाहिए। परन्तु यह बाल विकास
पद का काफी संकुचित अर्थ है।
        विकास की प्रक्रिया एक अविरल, क्रमिक तथा सतत् प्रक्रिया होती है। माँ के गर्भ से
ही इसकी कहानी प्रारम्भ हो जाती है। एक छोटे से अंकुर से माँ के गर्भ में फलता-फूलता
बच्चा पृथ्वी पर अपने वास्तविक रूप में प्रकट होता है और फिर शिशुकाल की देहरी लाँघता
हुआ आगे अपने विकास की मंजिल तय करके परिपक्वता ग्रहण करने का प्रयत्न करता
है। जब वह पूरी तरह परिपक्वता ग्रहण कर लेता है तभी हम उसे सामाजिक दृष्टि से एक
उत्तरदायित्व पूर्ण सदस्य का दर्जा देकर प्रौढ़ व्यक्ति की संज्ञा देने का प्रयत्न करते हैं। इससे
पहले कि सभी अवस्था और आयु विशेषों में एक तरह से हमारे द्वारा उसे बालक ही कह
कर पुकारा तथा समझा जाता है। अतः विस्तृत अर्थ में बालक वह नर या मादा व्यक्ति
होता है जिसने अभी परिपक्वता ग्रहण कर प्रौढ़ या युवा कहलाना शुरू नहीं किया। इस
दृष्टि से गर्भाधान के समय से प्रारम्भ होकर किशोरावस्था की समाप्ति तक सम्पूर्ण समय
में होने वाली वृद्धि एवं विकास के स्वरूप एवं प्रक्रिया के अध्ययन को ‘बाल-विकास’ के
अन्तर्गत शामिल किया ही जाना चाहिये । मोटे तौर पर इस प्रकार के अध्ययन में निम्नलिखित
बातों को शामिल किया जाना चाहिए:
1. गर्भ में आने के बाद से जन्म लेने और जन्म लेकर परिपक्वता ग्रहण करने तक
व्यक्ति विशेष में जिस प्रकार के गुणात्मक और परिमाणात्मक परिवर्तन आते हैं
उनका विशेष आयु वर्ग तथा वृद्धि और विकास अवस्थाओं में क्या स्वरूप होता है ?
2. उपरोक्त समय विशेष में आने वाले इन परिवर्तनों के पीछे किन शक्ति या कारक
विशेषों का किस रूप में कितना हाथ होता है?
3. बालक में समय-समय पर आने वाले ये परिवर्तन उसके व्यवहार को किस रूप
में तथा किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
4. किस समय, आयु या अवस्था विशेष में बालक में किस प्रकार के परिमाणात्मक
या गुणात्मक परिवर्तन आएँगे―क्या इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है?
5. सभी बालकों में वृद्धि एवं विकास सम्बन्धी इन परिवर्तनों का निश्चित रूप में एक
जैसा रूप ही होता है अथवा उसमें व्यक्तिगत अंतरों की संभावना बराबर बनी रह
सकती है?
6. बालकों में पाये जाने वाले व्यक्तिगत भेदों के लिए आनुवंशिकी तथा वातावरणजन्य
प्रभावों में से कौन, कब, किस रूप में उत्तरदायी है?
7. बालक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक आदि सभी
विकास आयामों में गर्भ में आने के बाद निरन्तर प्रगति करता है। प्रगति की इस
गति का विभिन्न आय तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है?
8. बालक की रुचिओं, आदतो, दृष्टिकोणो, जीवन-मूल्यो, स्वभाव तथा उच्च व्यक्तित्व
एवं व्यवहार-गुणों में जन्म के समय से ही जो निरन्तर परिवर्तन आते रहते हैं उनका
विभिन्न आयु वर्ग तथा अवस्था विशेष मे क्या स्वरूप होता है तथा इस परिवर्तन
की प्रक्रिया को क्या प्रकृति होती है?
        इस प्रकार अगर ध्यान से देखा जाये तो बाल विकास का क्षेत्र और कार्य बाल
मनोविज्ञान से कहीं अधिक व्यापक है। बाल-मनोविज्ञान को प्रायः मनोविज्ञान की ऐसी शाखा
के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो बालको के व्यवहार को सम्बन्धित परिवेश के
पालेय में अध्ययन करने के काम में आती है। दूसरे शब्दों में, इसमें बालकों के व्यवहार
से सम्बन्धित आदतो, गुणो, स्वभाव, विशेषताओं तथा अन्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का
अध्ययन होता है। बाल विकास में इस बात का तो अध्ययन होता ही है कि बालक का
किसी समय, आयु (या अवस्था) या परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का व्यवहार है, परन्तु
इससे आगे बढ़कर इसमें यह अध्ययन भी किया जाता है कि बालक में व्यवहार सम्बन्धी
इन गुणों एवं विशेषताओं का किस प्रकार क्रमिक विकास हुआ है? गर्भ में आने से लेकर
परिपक्वता महन करने तक के इस लम्बे अन्तराल में विभिन्न आयु वर्गों तथा अवस्था
विशेषों में शिशु में किस प्रकार के गुणात्मक तथा परिमाणात्मक परिवर्तन आते रहे है,
उनसे उसके व्यवहार एवं व्यक्तित्व गुण किस रूप में किस प्रकार प्रभावित हुये है
दया इन परिवर्तनों के पीछे किस प्रकार की शक्तियो, कारको, परिस्थितियों का हाथ रहा
है और परिवर्तन तथा प्रभाव से सम्बन्धित प्रक्रियाओं की प्रकृति एवं स्वरूप क्या रहा है,
आदि इस प्रकार अगर बाल विकास’ की प्रकृति और क्षेत्र एवं कार्य का अवलोकन किया
जाये तो बाल विकास’ को नम शब्दों में परिभाषित करने का प्रयास किया जा सकता
है :
बाल विशस का सम्बन्ध मनोविज्ञान विषय के उस अध्ययन क्षेत्र अथवा विषय विशेष
से है, जिसके अन्तर्गत गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक होने वाले सभी प्रकार के
परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों के स्वरूप एवं प्रक्रिया तथा इनके फलस्वरूप व्यवहार
एवं व्यक्तित्व में आने वाले परिवर्तनों का व्यक्ति विशेष या समूह विशेष की परिस्थितियों
के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।
प्रप्त 2 वृद्धि एवं विकास में अन्तर स्पष्ट करें।
उतर―वृद्धि एवं विकास में अन्तर :
वद्धि (Growth)                                       विकास (Development)
1.वृद्धि शब्द तादाद या परिमाण सम्बन्धी     1.विकास शब्द वृद्धि की तरह केवल परिमाण
परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे            सम्बन्धी परिवर्तनों को व्यक्त न कर ऐसे
बच्चे के बड़े होने के साथ अकार लम्बाई          सभी परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है।
ऊँचाई और भार आदि होने वाले                     जिससे      बालक    की    कार्यक्षमता,
परिवर्तन को वृद्धि कर के पुकारते है।              कार्यकुशलता और व्यवहार में प्रगति होती
                                                                है।
2. दृद्धि एक तरह से सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया     2. विकास शब्द अपने आपमें एक विस्तृत अर्थ
का एक चरण है विकास के परिणाम और             रखता है। वृद्धि इसका ही एक भाग है।
तादाद   सम्बन्धी पक्ष  को  वृद्धि कहा जाता          यह व्यक्ति में होने वाले सभी परिवर्तनों को
है।                                                                 प्रकट करता है।
3. वृद्धि शब्द व्यक्ति के शरीर के किसी भी      3. विकास किसी एक अंग-प्रत्यंग में अथवा
अवयव तथा व्यवहार के किसी भी पहलू             व्यवहार के किसी एक पहलू में होने वाले
में होने वाले परिवर्तनों को प्रकट कर                   परिवर्तनों को नहीं, बल्कि व्यक्ति में आने
सकता है।                                                      वाले सम्पूर्ण परिवर्तनों को इकट्ठे रूप में
                                                                    व्यक्त करता है।
4. वृद्धि की क्रिया आजीवन नहीं चलती          4. विकास एक सतत् प्रक्रिया है। वृद्धि की
बालक द्वारा परिपक्वता ग्रहण करने के               तरह बालक के परिपक्व होने पर समाप्त
साथ-साथ यह समाप्त हो जाती है।                     न होकर यह आजीवन चलती है।
5. वृद्धि के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन        5. विकास शब्द कार्यक्षमता, कार्य-कुशलता
बिना कोई विशेष प्रयास किये दृष्टिगोचर                और व्यवहार में आने वाले गुणात्मक
हो सकते हैं। साथ ही इन्हें भली-भाँति मापा           परिवर्तनों को भी प्रकट करता है। इन
भी जा सकता है।                                              परिवर्तनों को प्रत्यक्ष रूप में मापना कठिन
                                                                      ही है। इन्हें केवल अप्रत्यक्ष तरीको जैसे
                                                                      व्यवहार करते हये बालक का निरीक्षण
                                                                      करना आदि से ही मापा जा सकता है।
6. वृद्धि के साथ-साथ सदैव विकास होना भी      6. दूसरी ओर, विकास भी वृद्धि के बिना
आवश्यक नहीं है। मोटापे के कारण एक                 सम्भव हो सकता है। कई बार यह देखा
बालक के भार में वृद्धि से उसकी                           जाता है कि कुछ बच्चों की ऊँचाई, आकार
कार्यकुशलता में कोई वृद्धि नहीं होती और              एवं भार में समय गुजरने के साथ-साथ कोई
इस तरह से उसकी वृद्धि, विकास को साथ              विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता; परन्तु
लेकर नहीं चलती है।                                           उनकी  कार्यक्षमता  तथा  शारीरिक,
                                                                       मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक
                                                                       योग्यता में बराबर प्रगति होती रहती है।
प्रश्न 3. विकास की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर―विकास की अवस्थाएँ–मनोवैज्ञानिको ने विकास के दृष्टिकोण से गर्भधारण
से लेकर पूरे जीवन काल को निम्नलिखित 10 भागों में बाँटा है―
1. प्रसवपूर्ण अवस्था   ― गर्भधारण से जन्म तक
2. शैशवावस्था ― जन्म से 2 वर्ष
3. पूर्व बाल्यावस्था  ― 2 से 5-6 वर्ष
4. उत्तर बाल्यावस्था  ― 6 से 12 वर्ष
5. तरुणावस्था ― 12 से 13-14 वर्ष
6. प्रारंभिक किशोरावस्था ― 13 से 17 वर्ष
7. परवर्ती किशोरावस्था ― 17 से 20 वर्ष
8. प्रारंभिक व्यस्कता ― 21 से 40 वर्ष
9. मध्यावस्था ― 40 से 60 वर्ष
10. वृद्धावस्था ― 60 वर्ष से मृत्यु तक
मानव विकास की अवस्थाओं के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में परस्पर मतभेद है। विभिन्न
मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न ढंग से जीवन काल को वर्गीकृत किया है। वर्तमान समय में
अधिकतर मनोवैज्ञानिक सहमत होकर मानव विकास का अध्ययन मुख्यतः चार अवस्थाओं
के अन्तर्गत करते हैं, जो निम्न है―
1. शैशवावस्था ― जन्म से 2 वर्ष
2. पूर्व बाल्यावस्था ― 2 वर्ष से 6 वर्ष
3. उत्तर बाल्यावस्था ― 6 वर्ष से 12 वर्ष
4. किशोरावस्था ― 13 वर्ष से 18 वर्ष
शैशवावस्था की विशेषताएँ :
(i) तीव्र अवस्था की अवस्था
(ii) बड़ों पर निर्भरता की अवस्था
(iii) गतिविधियों के प्रारंभ होने की अवस्था जैसे―बोलने की क्षमता, शारीरिक क्रियाओं
में तालमेल बिठाने की क्षमता, इंद्रियों द्वारा अनुभव करने की क्षमता आदि का विकास
होना।
पूर्व बाल्यावस्था की विशेषताएँ :
(i) भाषायी विकास का तीव्र गति से होना
(ii) कल्पना शक्ति का विकास होना
(iii) अकेले खेलना पसन्द करना
उत्तर बाल्यावस्था की विशेषताएँ :
(i) विचार शक्ति का विकास होना
(ii) सामाजिकता का विकास होना जैसे–मित्र बनाना, समूह में खेलना
(iii) नैतिक विकास जैसे–अनुशासन एवं नियमों का महत्व समझना एवं उनका पाल
करना
(iv) जिम्मेदारी उठाने की तत्परता में विकास होना
(v) पेशीय कौशल का विकास होना
किशोरावस्था की विशेषताएँ :
(i) शारीरिक विकास में तीव्रता आना
(ii) यौन परिपक्वता
(iii) अमूर्त्त चिन्तन
(iv) तीव्र संवेगात्मक परिवर्तन
(v) स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना
(vi) भूमिकाओं एवं दायित्व का निर्वहन।
प्रश्न 4. वृद्धि एवं विकास के प्रमुख सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त (Principles of Growth and
Development)—व्यक्ति विशेष में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप होने वाले
परिवर्तन कुछ विशेष सिद्धान्तों पर ढले हुए प्रतीत होते हैं। इन सिद्धान्तो को वृद्धि एवं विकास
के सिद्धान्त कहा जाता है, जो इस प्रकार है―
1. निरन्तरता का सिद्धांत (Principle of Continuity)― यह सिद्धान्त बताता है कि
विकास एक न रुकने वाली प्रक्रिया है। माँ के गर्भ से ही यह प्रारम्भ हो जाती है तथा मृत्युपर्यन्त
निरन्तर चलती रहती है। एक छोटे से नगण्य आकार से अपना जीवन प्रारम्भ करके हम सबके
व्यक्तित्व के सभी पक्षों–शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि का सम्पूर्ण विकास इसी
निरन्तरता के गुण के कारण भली-भाँति सम्पन्न करते हैं।
2. वृद्धि और विकास की गति का दर एक सा नहीं रहता (Rate of growthand
development is not uniform)― यद्यपि विकास बराबर होता रहता है, परन्तु इसकी गति
सब अवस्थाओं में एक जैसी नहीं रहती। शैशवावस्था के शरू के वर्षों में यह गति कुछ
तीव्र होती है, परन्तु बाद के वर्षों में यह मन्द पड़ जाती है। पनः किशोरावस्था के प्रारम्भ
में इस गति में तेजी से वृद्धि होती है, परन्तु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती। इस
प्रकार वृद्धि और विकास की गति में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। किसी भी अवस्था में
यह एक जैसी नहीं रह पाती।
3. वैयक्तिक अन्तर का सिद्धान्त (Principle of Individual differences)― इस
सिद्धान्त के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता के अनुरूप होती
है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते
है और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएँ देखने को मिलती है। कोई भी एक बालक वृद्धि
और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।
4. विकास कम की एकरूपता (Uniformity of pattern)― विकास की गति एक
जैसी न होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता
के दर्शन होते है। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएँ
देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए मनुष्य जाति के सभी बालको की वृद्धि सिर की ओर
से प्रारम्भ होती है। इसी तरह बालको के गत्यात्मक और भाषा विकास के भी एक निश्चित
प्रतिमान और क्रम के दर्शन किए जा सकते है।
5.विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है (Development proceeds from
generaltospecific responses)―विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं
से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते है। उदाहरण के लिए अपने हाथों से कुछ चीज
पकड़ने से पहले बालक इधर से उधर यूँ ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है। इसी
तरह शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग-प्रत्यंग भाग लेते
है, परन्तु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप यह क्रियाएँ उसकी आँखों
और वाक्तन्व तक सीमित हो जाती है। भाषा विकास में भी बालक विशेष शब्दों से पहले
सामान्य शब्द ही सीखता है। पहले वह सभी व्यक्तियों को ‘पापा’ कहकर ही सम्बोधित करता
है, इसके पश्चात् ही वह केवल अपने पिता को ‘पापा’ कहकर सम्बोधित करना सीखता है।
6. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of.Integration)―विकास की प्रक्रिया
एकीकरण के सिद्धान्त का पालन करती है। इसके अनुसार, बालक पहले सम्पूर्ण अंग को
और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता । इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना
सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बढ़ते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा चेष्टाओं को इकट्ठे.
रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। उदाहरण के लिए, एक बालक पहले पूरे हाथ को, फिर
उँगलियों को और फिर हाथ एवं उँगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।
7. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relation)–विकास की सभी
दिशाएँ―शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित
है। इनमें से किसी भी एक दिशा में होने वाला विकास अन्य सभी दिशाओं में होने वाले
विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। उदाहरण के लिए, जिन बच्चों
में औसत से अधिक बुद्धि होती है, वे शारीरिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से भी काफी
आगे बढ़े हुए पाए जाते हैं। दूसरी ओर, एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र में
हो रही प्रगति में बाधक सिद्ध होती है। यही कारण है कि शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़े
बालक संवेगात्मक, सामाजिक और बौद्धिक विकास में भी उतने ही पीछे रह जाते हैं।
8. विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है (Development is predictable)―
एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रख कर उसके आगे बढ़ने
की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। उदाहरण के लिए, एक
बालक की कलाई की हड्डियों का एक्स-किरणो (x-rays) से लिया जाने वाला चित्र यह बता
सकता है कि उसका आकार-प्रकार आगे जाकर किस प्रकार का होगा। इसी तरह बालक की
इस समय की मानसिक योग्यताओं के ज्ञान के सहारे उसके आगे के मानसिक विकास के बारे
में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
9.विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of development direction)― इस
सिद्धान्त के अनुसार, विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशा में आगे बढ़ती है। कुप्पूस्वामी
ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि विकास Cephalo-caudal और Proximo-distal
क्रम में होता है।
    Cephalo-caudal क्रम का विकास लम्बवत् रूप में सिर से पैर की ओर होता है। सबसे
पहले बालक अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियंत्रण करना सीखता है और उसके बाद
टाँगों को। इसके बाद ही वह अच्छी तरह बिना सहारे खड़ा होना और चलना सीखता है।
Proximo-distal क्रम के अनुसार विकास का क्रम केन्द्र से प्रारम्भ होता है, फिर बाहरी
विकास होता है और इसके बाद सम्पूर्ण विकास । उदाहरण के लिए, पहले रीढ़ की हड्डी का
विकास होता है और उसके बाद भुजाओ. हाथ और हाथ की उंगलियों का, तत्पश्चात् इस
सबका पूर्ण रूप में संयुक्त विकास होता है।
10. विकास लम्बवत् सीधा न होकर वर्तुलाकार होता है (Developmentis spiral
and not linear)―बालक का विकास लम्बवत् सीधा न होकर वर्तुलाकार होता है। वह एक
सो गति से सीधा चलकर विकास को प्राप्त नहीं करता, बल्कि बढ़ते हुए पछि हटकर अपने
विकास को परिपक्व और स्थायी बनाते हुये (वर्तुलाकार आकृति की तरह) आगे बढ़ता है।
किसी एक अवस्था में वह तेजी से आगे बढ़ते हुए उसी गति से आगे नहीं जाता, बल्कि अपनी
विकास की गति को धीमा करते हए क्पों में विश्राम लेता हुआ प्रतीत होता है ताकि प्राप्त
वृद्धि और विकास को स्थायी रूप दिया जा सके। यह सब करने के पश्चात् हो वह आगामी
वों में फिर कुम आगे बढ़ने की चेष्टा कर सकता है। विकास की इस वतुलाकार गति को
निम्न चित्र द्वारा समझा जा सकता है।
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11. वृद्धि और विकास की क्रिया वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम
(Growth and development is a joint product of both heredity and
environment) बालक को वृद्धि और विकास को किसी स्तर पर वंशानुक्रम और वातावरण
की संयुक्त देन माना जाता है। दूसरे शब्दों में, वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में वंशानुक्रम
जहाँ बुनियाद का कार्य करता है वहाँ वातावरण इस बुनियाद पर बनाए जाने वाले व्यक्तित्व
सम्बन्धी भवन के लिए आवश्यक सामग्री एवं वातावरण जुटाने में सहयोग देता है। अत:
वृद्धि और विकास की प्रक्रियाओं में इन दोनों को समान महत्त्व दिया जाना आवश्यक हो
जाना है।
प्रश्न 5. विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
 उत्तर―गर्भावस्था काल से ही बच्चों की वृद्धि और विकासको प्रभावित करने वाले कारक
उसके गर्भ काल से ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देते है। प्रभाव के आधार पर इन्हें आन्तरिक
तथा बाह्य कारको में बाँटा जाता है। जो इस प्रकार है―
1.आन्तरिक कारक (Internal Factors)―वृद्धि तथा विकास के आन्तरिक कारकों
में निम्न तत्वों का समावेश होता है―
(i) वंशानुगत कारक (Fereditary factors)―यह कारक अपना प्रभाव माँ के गर्भ
में बच्चे का जीवन प्रारम्भ होने अर्थात् गर्भावस्था काल में छोड़ते है। माता-पिता अपने-अपने
गुण सूत्र तथा पित्र्येक से बच्चे में वंशानुगत सम्बन्धी विशेषताओं का स्थानांतरण करते है।
वंशानुगत कारको का बच्चों की वृद्धि एवं विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे की त्वचा
का रंग, आखो का रंग, वालो की प्रकृति और रंग,स्नायु संस्थान, मस्तिष्क, शारीरिक गठन,
उँचाई, भार आदि बहुत-सी बाते ऐसी है जिन पर यंशानुगत कारक अपना स्थाई प्रभाव छोड़ते
जिन पर भविष्य संबंधी सभी प्रकार की वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया निर्भर करती है।
जैविक एवं संरचनात्मक कारक (Biological and constitutional factors)―
व्यक्ति की शारीरिक बनावट, डील-डौल, रंग-रूप, स्नायु संस्थान, शारीरिक अवयव, विभिन्न
प्रकार के शारीरिक संस्थान, शरीर रसायन आदि उसके जीवन पर्यन्त कार्य-व्यवहार को प्रभावित
करते है, जैसे―
(a) जो बालक जन्म से ही दुबले-पतले, कमजोर, बीमार एवं किसी न किसी शारीरिक
बाधा से पीड़ित रहते हैं, उनके सामान्य स्वास्थ्य एवं शारीरिक वृद्धि तथा विकास
के सामान्य स्तर पर पहुँचने की आशा कम ही रहती है। ऐसी कमियाँ बालक के
मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास में भी रुकावट डाल सकती है।
(b) व्यक्ति के स्नायु संस्थान की स्वस्थता या अस्वस्थता उसके जानात्मक व्यवहार तथा
विकास को प्रभावित कर सकती है। मस्तिष्क की चोट बच्चा को मानसिक दृष्टि
से विकलांग बना सकती है।
(c) यदि अनैच्छिक प्रन्थिया की प्रणाली सही नहीं है तो यह वृद्धि एवं विकास को प्रभावित
करती है। उदाहरण के लिए–पीयूष ग्रंथि यदि अच्छी तरह से काम नहीं करती
है तो बालक क बौना रहने की सम्भावना बढ़ जाती है।
(iii) बुद्धि (Intelligence)― सीखने की क्षमता योग्यता, समायोजन-शमता तथा
समयानुसार ठीक निर्णय लेने की योग्यता ही बुद्धि है। यह बालक की हर प्रकार की वृद्धि
तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बुद्धिमान व्यक्ति अन्य लोगों के साथ तालमेल
बनाकर चलता है तथा सही व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति का सामाजिक तथा नैतिक विकास
सुचारू होता है। बुद्धि द्वारा व्यक्ति अपने संवेगों को अच्छी तरह नियंत्रित रख कर संयमित
तथा संतुलित व्यवहार करता है। इसी कारण एक अल्पबुद्धि बच्चे का सामाजिक तथा मानसिक
विकास एक बुद्धिमान बच्चे की अपेक्षा कम हो पाता है। इससे स्पष्ट है कि वृद्धि एवं विकास
के समस्यात्मक पहलुओं में बुद्धि की मुख्य भूमिका होती है।
(iv) संवेगात्मक कारक (Emotional factors)― बुद्धि एवं विकास को प्रभावित करने
में बच्चे की संवेगात्मक परिपक्वता तथा संवेगों की समायोजन क्षमता भी अपनी मुख्य भूमिका
निभाती है। संवेगों के विकास की दशा उसके सामाजिक, मानसिक, नैतिक, शारीरिक एवं
भाषा संबंधी विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जो बालक अधिक
क्रोधी स्वभाव के होते हैं, भयभीत रहते हैं तथा जिनमें ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य आदि नकारात्मक
संवेगों की अधिकता रहती है. उनकी विकास प्रक्रिया पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। जो
बालक संवेगात्मक दृष्टि से असंतुलित होते है वे अपने काम तथा पढ़ाई में ध्यान नहीं दे पाते।
इससे उनका मानसिक विकास प्रभावित होता है। इसके विपरीत संवेगात्मक दृष्टि से संतुलित
बालक, वृद्धि एवं विकास के सभी आयामों में संतोषप्रद ढंग से प्रगति करते है।
(v) सामाजिक प्रकृति (Social nature)― बच्चे में सामाजिक अनुकूलन की मात्रा उसके
शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, भौतिक तथा भाषा संबंधी विकास को निश्चित करती है।
सामाजिक दृष्टि से कुशल बालक अपने वातावरण में किसी दूसरे बालक की अपेक्षा अधिक
सीखता है तथा अपना समायोजन अधिक अच्छे ढंग से कर सकता है।
2. बाह्य कारक (External Factors)― वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाले वे
सभी कारक जो व्यक्ति में नहीं बल्कि उसके परिवेश में निहित होते है, बाहा कारक है। ये
कारक गर्भकाल से ही बच्चे की वृद्धि और विकास को प्रभावित करने लगते है। वृद्धि एवं
विकास को प्रभावित करने वाले बाहा कारक इस प्रकार हैं―
1. जन्म से पहले का वातावरण The environment before birth)― बालक को
गर्भाधान के समय से लेकर जन्म (लगभग 9 मास की अवधि) तक जो कुछ भी माँ के गर्भ
में उसके पालन-पोषण के लिए प्राप्त होता है, वृद्धि एवं विकास की दृष्टि से उसका काफी
महत्व होता है। यह उसकी शारीरिक वृद्धि ही नही बल्कि सभी तरह के भावी विकास में
भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। चिन्ता, भय एवं संवेगात्मक रूप से असंतुलित
माताओं के गर्भ में स्थित बच्चा भी इस असंतुलन से प्रभावित होता है। माँ को गर्भावरण
में अच्छा मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने की सलाह दी जाती है क्योंकि उससे
केवल गर्भ के अन्दर बालक का सही विकास होता है बल्कि जन्म के पश्चात् भी उसका
समुचित विकास होता रहता है। वातावरण (परिवेश) से जुड़े विभिन्न कारको को निम्न प्रकार
लिपि-बद्ध किया जा सकता है―
(i) गर्भावस्था के समय माँ का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य।
(ii) गर्भावस्था के दौरान माँ को मिलने वाले पोषण की प्रकृति ।
(iii) गर्भ में पलने वाले बच्चों की संख्या।
(iv) किसी एक्स-रे, रेडियोधर्मिता, क्षतिकारक किरणों तथा वायु प्रदूषण आदि का घातक
प्रभाव।
(v) सामान्य अथवा असामान्य जन्म प्रक्रिया।
(vi) गर्भ के दौरान माँ को लगने वाली चोट या दुर्घटना।
2. जीवन की घटनाएँ एवं दुर्घटनाएँ (Incident and accident of life)―किसी भी
व्यक्ति के जीवन में होने वाली घटनाओं एवं दुर्घटनाओं का उसकी वृद्धि एवं विकास पर
गहरा प्रभाव पड़ता है। एक छोटी-सी प्रेरणादायक घटना बालक को उन्नति का मार्ग दिखा
सकती है जबकि अनजाने में की गई भूल, अकस्मात घटने वाली घटना या दुर्घटना उसे अवनति
के गर्त में भी पहुँचा सकती है। एक बालक जिसकी माँ ने उसके जन्म लेते ही या बाद में
किसी कारणवश छोड़ दिया हो, उसके सभी तरह के विकास की कहानी ही बदल जाती है।
3. शारीरिक स्वास्थ्य एवं पोषण से जुड़ा हुआ भौतिक वातावरण (The quality
of physical environment, medical care and nourishment)― व्यक्ति को अपने पोषण
एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार का भौतिक वातावरण मिलता है, उसका उसके
शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य, संवेगात्मक तथा सामाजिक व्यवहार, समायोजन तथा कार्य
करने के ढंग पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्वच्छ तथा स्वस्थ जलवायु, प्रदूषण
विहीन वातावरण, स्वच्छ जल एवं खाद्य पदार्थ, संतुलित भोजन, रहने और कार्य करने संबंधी
उपयुक्त भौतिक सुविधाएँ एवं वातावरण, उपयुक्त चिकित्सा सुविधाएँ आदि का बच्चे की वृद्धि
एवं विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
4. घर का वातावरण (Environment of home)― बच्चे के लिए घर एक
समाजीकरण की संस्था है. उसके खाने-पीने तथा स्वास्थ्य का ध्यान तथा सुरक्षा भी घर में
ही निहित है। घर का अच्छा वातावरण बच्चे के विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण
है। गरीब परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चे कुपोषण तथा विभिन्न बीमारियों के शिकार हो
जाते हैं। माता-पिता की शिक्षा, उनका खान-पान तथा आर्थिक एवं सामाजिक स्तर भी बच्चे
के विकास तथा वृद्धि को प्रभावित करते हैं।
5. सामाजिक तथा सांस्कृतिक वातावरण (Social and cultural environ-
ment)― बालक के विकास में समाज का महत्वपूर्ण योगदान होता है। शान्त और सुरक्षित
वातावरण बच्चों के विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। परिवार की सामाजिक स्थिति
और पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध भी बच्चे के सामाजिक विकास को प्रभावित करते है। सांस्कृतिक
वातावरण बच्चों के नैतिक तथा चारित्रिक विकास को प्रभावित करते है।
परिवेश से जुड़े हुए विभिन्न कारक तथा परिस्थितियाँ इस प्रकार हैं―
(i) बच्चे को माँ-बाप व परिवार द्वारा की जाने वाली देखभाल ।
(ii) माँ-बाप तथा परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति।
(iii) आस-पड़ोस एवं मुहल्ले का वातावरण।
(iv) बालक को विद्यालय या उसके बाद मिलने वाली शिक्षा का स्तर।
(v) बच्चे के मनोरंजन तथा रुचियो को तृप्त करने वाली सुविधाएँ ।
(vi) बालक तथा उसके परिवार को उसकी जाति, धर्म, प्रान्तीयता तथा नागरिकता के
आधार पर समाज से मिलने वाला व्यवहार ।
प्रश्न 6. बाल विकास में शिक्षकों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
अथवा, बाल विकास के सात महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर―बाल विकास में अध्यापकों की भूमिका–बाल केन्द्रित शिक्षा में अध्यापक
का मुख्य कार्य बच्चे का इस प्रकार मार्गदर्शन करना है जिससे उसे इस योग्य बनाया जा
सके कि उसकी सामाजिक कुशलताओं का विकास हो । उसकी शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं
का विकास हो तभी उसकी भावनाओं का संरक्षण होगा। बच्चा इस योग्य बन सके कि वह
अपनी प्रतिभा की तलाश खुद कर ले। अध्यापक की भूमिका ऐसे व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए
जो बच्चों को बना-बनाया ज्ञान को पिटारा देता है। उसका मुख्य कार्य बच्ची का इस प्रकार
मार्गदर्शन करना है जिससे वह अपने अनुभवों के आधार पर अपने ज्ञान का पुनः सृजन कर
सके। अध्यापन में बल देने का बिन्दु बदलना होगा। बच्चों को ‘सूचना’ देने के स्थान पर
उनमें ‘उत्सुकता’ जगानी होगी। केवल सूचना देना रटने की क्रिया को बढ़ावा देना है। परन्तु
उत्सुकता बढ़ाने से विषय तथा समस्या का समाधान ढूँढ़ने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
स्वयं जानने की आदत का विकास होता है। बच्चे की संरचनात्मक सोच की क्षमता को बल
मिलता है। उसकी तर्क शक्ति तथा कल्पना शक्ति बढ़ती है।
                  बाल विकास के सात महत्वपूर्ण तथ्य―एक सफल अध्यापक के लिए अत्यन्त
महत्वपूर्ण है कि वह बाल विकास में स्वस्थ भूमिका निभाने के लिए निम्न पर विशेष ध्यान दें―
               1. किसे सीखना है अथवा किसका विकास करना है―बालक को जो सीखना है
और उसी का विकास करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात है बालक को ‘जानना’ और
‘समझना’ । बालक की रुचियों, अभिरुचियों तथा क्षमताओं के बारे में अध्यापक को पूरी
जानकारी होनी चाहिए।
            2.किसे विकास करना है―अध्यापक को। इसीलिए शिक्षकों को जहाँ तक संभव हो
अपने आप को जानना और समझना भी बहुत जरूरी है। उसे अपने व्यक्तित्व तथा उदाहरण
द्वारा बालक का ठीक दिशा में मार्गदर्शन करना होगा। अतः वे अपने अंदर अच्छे गुणों का
निर्माण करें। साथ ही आत्मनिरीक्षण भी करता रहे।
           3. कहाँ विकास होना है―स्कूल में। स्कूल का अर्थ महज शिक्षक और बालकों का
समूह या संग्रह ही नहीं होता। स्कूल का अपना एक व्यक्तित्व होता है, एक वातावरण होता
है। एक आदर्श होता है। बच्चों की सर्वांगः उन्नति-सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मक,
भावात्मक, कलात्मक, नैतिक आदि ।
         4.विकास क्यों करना है―बच्चों को विकास इस कारण करना है कि वे समाज में
एक सभ्य नागरिक के नाते अपने कर्तव्य एवं अधिकारों की अधिक जानकारी प्राप्त कर सकें।
          5. विकास की क्या अवस्थाएँ हैं―विकास की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। जिन्हें
अध्यापक अवश्य जानें।
        6.विकास कैसे हो― बच्चों में अनेक प्रकार की भिन्नताएँ होती है। वास्तव में हर बच्चा
दूसरे से अलग होता है और इन व्यक्तिगत भिन्नताओं को अध्यापक के लिए जानना बहुत
आवश्यक है।
7.विकास की विधियाँ कौन-सी हैं—एक अध्यापक केवल एक ही विधि पर निर्भर
नहीं रह सकता उसे शिक्षण एवं बाल विकास का उचित सैद्धान्तिक ज्ञान तथा व्यावहारिक
अनुभव प्राप्त करना चाहिए।
      उपसंहार―बाल विकास के लिए अध्यापक को अपनी भूमिका ठीक प्रकार से निभाने
के लिए पूर्णतया सजग, प्रेरित एवं प्रतिबद्ध होना चाहिए। अध्यापक बालक के विकास का
प्रमुख साधन है। नई शिक्षा नीति में शिक्षक में पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए उसे शिक्षा नीति
व शिक्षा संस्थाओं का प्रमुख क्रियान्वयक माना गया है। विभिन्न आयु स्तरों पर छात्रों की
अभिरुचियों, सुझावी, क्षमताओं व योग्यताओं को बढ़ावा देना ‘वाल केन्द्रित’ शिक्षण का आधार
है। अध्यापक सूचनाओं के स्थान पर बालक की जिज्ञासा को जागृत करें जिससे वे सक्रिय
रहकर अधिगम तथा विकास की क्रिया में भाग ले सके।
     अध्यापक को शैक्षिक विकास संबंधी इस प्रकार रणनीति बनानी है जिसम व्यक्तिगत अंतर
को ध्यान में रखा जाए तथा तरह-तरह की शैक्षिक गतिविधियों का प्रावधान किया जाए। बालकों
को रवि, योग्यता, क्षमता व मनोनुकूलता के विविध अवसर जुटाकर उनके पवित्र तथा कोमल
मन की अनंत शक्तियों को प्यार, प्रशंसा, पुरस्कार, अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता, सुरक्षा, मैत्री व
खेल के माध्यम से जागृत एवं विकसित करना चाहिए।
प्रश्न 7.बचपन को आकार प्रदान करने वाले विभिन्न कारक कौन-से है? वर्णन
कीजिए।
उत्तर―वर्तमान संदर्भ में बचपन को आकार देने वाले प्रमुख पहलुओं का
विश्लेषण-बचपन, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण
विकास होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बचपन में विभिन्न
आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है।
        अत: उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बचपन निर्माण की महत्वपूर्ण
अवस्था है। बचपन को आकार देने में विभिन्न प्रकार के कारक (पहलू) अपना योगदान
प्रदान करते हैं जिसमें प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं―
1. स्वस्थ बचपन के विकास में माता-पिता की भूमिका―बालक के मानसिक स्वास्थ्य
और समायोजन क्षमता पर सबसे अधिक प्रभाव उसके परिवार के पर्यावरण का पड़ता है। शिशु
को प्रथम पाठशाला उसका परिवार ही होती है। अतः बालक के भावी जीवन को बनाने के
लिए उसके बचपन पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में फ्रॉयड का कथन है
कि “प्रथम 5-0 वर्षों में ही बालक अपने भावी जीवन में जो कुछ बनने को रहता है, बन जाता है।”
व्यक्ति की संवेगात्मक प्रवृत्तियाँ भी बचपन में प्राप्त कौटुम्बिक और सामाजिक परिस्थितियों
पर निर्भर करती हैं। भावी चरित्र तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विभिन्न गुण माता-पिता द्वारा प्राप्त
व्यवहारों पर बहुत हद तक निर्भर करते हैं। बचपन में जिस हद तक बालक की शारीरिक
और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूर्ति होती है, उसका उसके भावी सामाजिक अनुकूलन
पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
        अतः यदि बच्चे को बचपन में माता-पिता स्वस्थ विचारों से पोषित करेंगे तो निश्चित
रूप से बालक पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अत: स्वस्थ बचपन के विकास में
माता-पिता को महत्वपूर्ण भूमिका है।
2 शारीरिक स्वास्थ्य-स्वस्थ बचपन के विकास में शिशु का शारीरिक स्वास्थ्य काफी
महत्व रखता है, क्योंकि शिशु यदि पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रहेगा, तो वह शारीरिक एवं मानसिक
रूप से पूर्ण विकसित नहीं हो पाएगा जिसका प्रभाव उसके समग्र विकास पर पड़ेगा।
         अतः स्वस्थ बचपन के विकास हेतु शिशु का पूर्ण रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है।
3. स्वस्थ बचपन के विकास में खेलों की भूमिका― बच्चे के ज्ञानात्मक, शारीरिक,
सामाजिक और भावनात्मक सुदृढ़ता के लिए खेल अनिवार्य हैं। यह बच्चों को शारीरिक
(दौड़ना, कूदना, चढ़ना आदि), बौद्धिक (सामाजिक कौशल, समुदाय नियम, नैतिकता और
सामान्य ज्ञान) और भावानात्मक विकास (सहानुभूति, करुणा और दोस्ती) के अवसर प्रदान
करता है। असंयोजित खेल रचनात्मकता और परिकल्पना को प्रोत्साहित करते हैं। अन्य बच्चों
और साथ ही, कुछ वयस्कों के साथ खेलना और परस्पर बातचीत करना दोस्ती, सामाजिक
अन्योन्य क्रिया, मतभेद और संकल्पों के अवसर प्रदान करते हैं।
       खेल के माध्यम से बच्चे बहुत ही कम उम्र में अपने आस-पास की दुनिया के सम्पर्क
में आते हैं और परम्पर क्रिया करते हैं। खेल बच्चों को एक ऐसे संसार की रचना करने
और खोज करने की अनुमति देता है जिसमें वे कभी-कभार अन्य बच्चों या देखभालकर्ताओं
साथ संयुक्त रूप से वयस्कों के समान भूमिका निभाते समय अपने भय पर विजय पाकर
र बन सकते हैं। अनिर्देशित खेल बच्चों को समूह में कार्य करने, बाँटने, समझौता करने,
बाद सुलझाने और स्व-प्रवक्ता कौशल सीखने के अवसर प्रदान करता है लेकिन जब खेल
कों द्वारा नियत्रित किया जाता है तो बच्चे वयस्कों के नियमों और चिन्ताओं को मौन
से स्वीकार कर लेते हैं और खेल द्वारा प्रदत्त कुछ लाभ विशेषकर रचनात्मकता, नेतृत्व
और सामूहिक कौशल विकास के अवसर खो देते हैं।
               खेल को बच्चों के श्रेष्ठ विकास के लिए इतना महत्वपूर्ण माना जाता है कि इसे
मानवाधिकार संयुक्त राष्ट्र उच्च आयोग में प्रत्येक बच्चे के अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान
गई है। बच्चे, जिनका पालन-पोषण त्वरित और दवावपूर्ण शैली में होता है, वे बच्चों
द्वारा संचालित खेल से हासिल होने वाले लाभों से वंचित हो सकते हैं।
         4. स्वस्थ बचपन के विकास में गली की संस्कृति का योगदान― बच्चों की गलतियों
को संस्कृति को युवा बच्चों द्वारा रचित सामूहिक संस्कृति के रूप में निर्दिष्ट किया जाता
है और कभी-कभार इसे उनके गोपनीय संसार के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। यह सात
और बारह वर्ष के बीच की उम्र वाले बच्चों के बीच बहुत आम है। यह औद्योगिक शहरों
के कामकाजी वर्ग में दृढ़तम है जहाँ बच्चों को परम्परागत रूप से बिना निगरानी के लम्बे
समय तक बाहर खेलने की छूट है। वयस्कों के न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ इसका आविष्कार
और काफी हद तक संचालन खुद बच्चों द्वारा किया गया है।
         युवा बच्चों को गली संस्कृति प्रायः शांत पिछली गलियों और फुटपाथों तथा स्थानीय
उद्यानों, खेल के मैदानों, झाड़ियों और बंजरभूमि तथा स्थानीय दुकानों तक जाने वाले मार्गों
पर विकसित होती है। यह अक्सर शहरी क्षेत्रों के विभिन्न भागों (स्थानीय भवनों, किनारों,
गलो की चीजों आदि) को कल्पनाशील प्रतिष्ठा प्रदान करती है। बच्चे निश्चित क्षेत्र निर्धारित
करते हैं जो अनौपचारिक मिलन और आराम करने के स्थलों का उद्देश्य पूर्ण करते हैं।
       अतः उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि स्वस्थ बचपन के विकास
में गली को संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
प्रश्न 8. शारीरिक विकास को किन विद्यालयी क्रियाकलापों द्वारा प्रभावित किया
जा सकता है? स्पष्ट करें।
उत्तर―शारीरिक विकास बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। शैशव काल
में बच्चा बहुत तेजी से बढ़ता है, बाल्यकाल के मध्य में उसकी संवृद्धि धीमी हो जाती है
और किशोरावस्था में यह पुनः बढ़ जाती है। प्रारंभिक प्राथमिक विद्यालयो वर्षों में बच्चों के
मुख को आकृति बदलती है। उनकी लम्बाई और वजन बदलते रहते है, चेहरा पतला होता
जाता है, क्योंकि गालो से अतिरिक्त चर्बी निकल जाती है और माथा छोटा हो जाता है।
6 से 8 वर्ष की उम्र तक आते-आते उनके दूध के दाँत टूट जाते है।
       कुछ निम्नलिखित विद्यालयो क्रियाकलापों के द्वारा शारीरिक संवृद्धि के कुछ पक्षो को
प्रभावित किया जा सकता है―
(क) निर्धन और आवश्यकता वाले बच्चो को मध्याह्न भोजन या दूध दिया जाना ।
(ख) पूर्व प्राथमिक कक्षाओं के बच्चो को सोने अथवा आराम करने का विशेष रूप से
समय दिया जाना।
(ग) बच्चों के शारीरिक विकास के लिए पर्याप्त शारीरिक क्रियाकलाप होने चाहिए।
खेलकूद और व्यायाम की व्यवस्था बच्चों की परिपक्वता और विकासात्मक चरणों
के अनुसार नियमित रूप से की जानी चाहिए।
(घ) विद्यालय की दिनचर्या केवल गभीर अध्ययनों तक सीमित न होकर उसमें व्यायाम
और मनोरंजन के लिए भी समय होना चाहिए। इसमें गायन, नृत्य, चित्रकला आदि
जैसे क्रियाकलापों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
(ङ) विद्यालय में नित्य निकित्सकीय जांच की व्यवस्था की जानी चाहिए एवं यथाबश्यक
प्रतिरक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए।
(च) इस चरण में स्वास्थ्य शिक्षा का अधिक महत्व होता है। अतः बच्चों को सफाई
और स्वच्छता की आदते सिखाई जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त बच्चे के नाखूनों,
दाँतो, वेशभूषा आदि की सफाई की रोज जाँच की जानी चाहिए।
प्रश्न 9. मनोगतिक विकास का क्या अर्थ है? मनोगैतिक विकास को प्रभावित
करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
अथवा, पियाजे के अनुसार बालकों के मानसिक विकास (मनोगतिक विकास
की विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर―मनोगतिक विकास का अर्थ-मनोगतिक विकान से हमारा तात्पर्य ऐसी
क्रियाओं से है जिनने चिन्तन, प्रत्यक्षीकरण और समस्या का हल निहित होता है। साधारण
भाषा में यह ऐसी प्रक्रिया है जिन्हें बौद्धिक, संज्ञानात्मक या बोधात्मक क्रियाएँ कर सकते
है। मनोगतिक विकास का अर्थ समझने की शक्ति, स्मृति, तर्कशक्ति और बुद्धि अभिवृद्धि
से है।
     बच्चों के सर्वागीण विकास में उनके मनोगत्यात्मक विकास का होना अति आवश्यक है।
मनोगत्यात्मक विकास का संबंध मॉसपेशियों के कार्य तथा शरीर में गतियो या क्रियाओं की
उत्पत्ति से है जो मानसिक क्रिया के सचेतन नियंत्रण के अंतर्गत होती है। यह गत्यात्मक कौशलों
से निर्देशित होती है जैसे—गति, समन्वय, परिचालन, दक्षता, बल तथा चाल।
जीन पियाजे ने यह अध्ययन करने की कोशिश की कि बालको में मानसिक विकास किस
प्रकार होता है। उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया उन्हें पियाजे के मानसिक विकास
के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। बालको में वृद्धि का क्रमिक विकास पियाजे के अनुसार
निम्म चार चरणा या अवस्थाओं में सम्पन्न होता है―
     1.इन्द्रियजनित गामक अवस्था (Sensory Motor Stage)—मानसिक विकास का यह
चरण जन्म से लेकर लगभग दो वर्ष तक की अवधि में पूरा हो जाता है। इस अवस्था में
बालक इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में ही मानसिक क्रियाएँ करता है। उसे भूख लगने
पर वह इसे रोकर व्यक्त करता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व बच्चे के सामने तभी तक
होता है जब तक वह उसकी आँख के सामने रहती है। आँखों से ओझल होते ही वह वस्तु
उसके लिए समाप्त हो जाती है। धीरे-धीरे वह समझने लगता है कि वस्तुओं का अपेक्षाकृत
कुछ स्थायी अस्तित्व होता है।
2.पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Stage)―इस अवस्था का समय
2 वर्ष से लेकर सात वर्ष के मध्य होता है। इस दौरान बालको मे भाषा का विकास ठीक
प्रकार से प्रारम्भ हो जाता है। अब उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा बनने लग जाती
है,गामक क्रियाएँ नहीं। इस काल में मानसिक विकास की कछ निम्न विशेषताएँ देखने
को मिलती है―
(a) यालक अपने परिवेश की विभिन्न वस्तुओं को पहचानने और उनमे भेद करना
प्रारम्भ कर देते है। वे वस्तुओं के नाम जानने लगतेउनमे संप्रत्यय निर्माण
की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वे वस्नओ को समूहों में विभाजित कर उन्हें नाम
देना शुरू कर देते है। परन्तु शुरू के वर्षों में वे सभी पुरुषों को ‘पापा’ तथा
दियों को ‘मम्मी’ तथा सभी चार पैरो वाले प्राणियों को ‘कत्ता’ कहकर पुकारते
हैं। 5 वर्ष की आयु तक उनकी इस प्रकार की भातियां दूर हो जाती है। अब
दे विभिन पारिवारिक घ्यक्तियों जैसे-बुआ, दादी, दादाजी, चाचाजी आदि में
घटकाना समाजाते। उनके लिए भेस. घोडा.यकरी आदि का अलग-अलग
अर्थ समझ में आ जाता है।
(b) शुरू के वर्षों में बालकों में सजीव और निर्जीव में भेद करने की क्षमता नहीं होती।
वे चोट खाने या गिर जाने पर फर्श को मारकर इसलिए चुप हो जाते है कि उन्होंने
भी उनको उसी तरह से मार दिया और अब वे भी उसकी तरह रो रहे है। एक
बालिका यही समझती है कि उसकी भाँति उसकी गुड़िया को भी गरमी और सर्दी
लगती है। धीरे-धीरे बालको को समझ में आने लगता है और वे सजीव तथा निर्जीव
में भेद करना सीख जाते है।
3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Stage)―इस अवस्था का
समय काल 7 वर्ष से 11 वर्ष के बीच होता है। बालकों में इस अवस्था के मानसिक विकास
में निम्न मुख्य बाते देखने को मिलती है―
1. उनमें वस्तुओं को पहचानने, उनका विभेदीकरण करने, वर्गीकरण करने तथा उपयुक्त
नाम वर्गीकरण द्वारा समझने और व्यक्त करने की क्षमता विकसित हो जाती है।
उनमें विभिन्न प्रकार के संप्रत्ययों का निर्माण हो जाता है।
2. वे   वस्तुओं   के   बीच   समानता,   सम्बन्ध,   असमानता,   दूरी।  और  विसंगता
(Discrepancies) को समझने लगते है। शुरू में इस प्रकार की उनकी समझ केवल
मूर्त या स्थूल तक ही सीमित होती है। जैसे–नौ सेब, तीन सेबों से कितने अधिक
है। परन्तु धीरे-धीरे वे वस्तुओं के अमूर्त रूप के आधार पर भी चिंतन करना प्रारम्भ
कर देते है।
3. उनका चिंतन अब अधिक क्रमबद्ध एवं तर्कसंगत होना प्रारम्भ हो जाता है। वे हवाई
उड़ान भरने की अपेक्षा यथार्थ दुनिया को समझना शुरू कर देते है।
4. अब वे वजन या दूरी की मापों को अच्छी तरह समझ सकते है
इस प्रकार 11 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते बालक मानसिक विकास की काफी उपयुक्त
सीमाओं को पार कर लेते है, परन्तु उसकी सभी प्रकार की मानसिक क्रियाओं में वस्तु को
प्रायः मूर्त या स्थूल रूप ही प्रयोग में लाया जाता है।
4. अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage)―इस अवस्था का
समय काल 11 वर्ष से 15 वर्ष के बीच होता है। बालको में इस अवस्था के मानसिक विकास
सम्बन्धी मुख्य बातो को निम्न रूप से समझा जा सकता है―
1. इस अवस्था में सभी प्रकार के संप्रत्ययो का समुचित विकास हो जाता है।
2. भाषा सम्बन्धित योग्यता तथा संप्रेषणशीलता का विकास ऊँचाई को छूने लगता है।
3. विचारने, सोचने, तर्क करने, कल्पना करने तथा निरीक्षण, अवलोकन, परीक्षण,
प्रयोग आदि के द्वारा उचित निष्कर्ष निकालने की क्षमता विकसित हो जाती है।
4. स्मरण शक्ति रटने के आधार पर न होकर तर्क एवं समझ पर आधारित होने लगती
है।
5. चिंतन अब अमूर्त बन जाता है। वस्तुओं के स्थूल रूप का अब चिंतन प्रक्रिया के
लिए उपस्थित रहना अनिवार्य नहीं रहता।
6. कल्पना-शक्ति को सृजन या निर्माण कार्य के लिए अच्छी तरह उपयोग में लाया
जा सकता है।
7 प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) विधि के स्थान पर बौद्धिक शक्तियों के प्रयोग
तक सीखने की आदत विकसित हो जाती है।
     इसी तरह से बौद्धिक विकास की इस अतिम अवस्था को पार करते-करते किशोर और
किशोरियाँ अपनी मानसिक योग्यता और क्षमताओं के विकास की विशाल ऊँचाइयों को छूने
का प्रयत्न करते है।
प्रश्न 10. मानसिक विकास और शारीरिक विकास की प्रक्रिया का ज्ञान एक
अध्यापक को अपने कार्य में किस प्रकार सहायता करता है ?
उत्तर―विभिन्न अवस्थाओं में मानसिक वृद्धि और विकास के स्वरूप का लाभ और
मानसिक योग्यतायें और क्षमताओं में आयु के साथ-साथ होने वाले परिवर्तनों को अमूल्य
जानकारी अध्यापक के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस उपयोगिता को संक्षिप्त
रूप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है―
1. विभिन्न आयु स्तर पर पाठ्यक्रम सम्बन्धी और सहगामी क्रियाओं तथा अनुभवों के
चयन और निर्वाचन में इससे सहायता मिल सकती है।
2. किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाए, सहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन किस
प्रकार प्रयोग में लाए जाएँ, शैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का हो, यह सब निश्चित
करने में भी अध्यापक को इससे सहायता मिलती है।
3. विभिन्न अवस्थाओं और आयु-स्तर पर बच्चों की मानसिक वृद्धि और विकास को ध्यान
में रखते हुए उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने में भी इससे सहायता मिल सकता है।
4. इसकी सहायता से अध्यापक को यह ज्ञात हो जाता है कि एक विशेष प्रकार की
पढ़ाई और कार्य जिन्हें करने के लिए कुछ विशेष विकसित मानसिक शक्तियों की
आवश्यकता होती है, उपयुक्त समय पर उन शक्तियों के विकसित होने पर ही प्रारम्भ
कराने चाहिए। अनावश्यक शीघ्रता और देरी, दोनों ही इस अवस्था में हानिकारक
सिद्ध हो सकती है।
5. इस प्रकार के ज्ञान द्वारा अध्यापक अपने शिष्यों की मानसिक शक्तियों और क्षमताओं
के पूर्ण विकास में पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकता है । वह उन्हें समाधान और सृजनात्मक
अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण दे सकता है। बिना सोचे-समझे तोते की तरह
रटने और अंधों की तरह इधर-उधर हाथ-पैर मारकर कार्य में सफल होने के लिए
प्रयास करने की अपेक्षा तर्क-शक्तियाँ तथा सूझ-बूझ के आधार पर याद रखने और
अन्य कार्य सम्पन्न करने में भी वह उनकी सहायता कर सकता है। उनके निरीक्षण
प्रत्यक्षीकरण, सामान्यीकरण सम्बन्धी योग्यता को विकसित करने में भी उनकी मानसिक
शक्तियों की वृद्धि और विकास के स्तर को ध्यान में रखते हुए वह उनको पूरी मदद
कर सकता है। इस तरह से एक अध्यापक मानसिकं वृद्धि और विकास के सभी
पहलुओं और उनके विभिन्न स्तर पर होने वाले सामान्य और विशिष्ट परिवर्तन को
ध्यान में रखते हुए अपने शिष्यों को मानसिक वृद्धि और विकास के पथ पर अच्छी
तरह से अग्रसर कर सकता है । वह न केवल उनकी मानसिक शक्तियों और योग्यताओं
के विकास में ही सहायता करता है, बल्कि उन्हें उन शक्तियों और योग्यताओं का
उसके स्वयं और समाज के लाभ को ध्यान में रखते हुए विवेक और बुद्धिमत्तापूर्ण
उपयोग करने में भी समर्थ बना सकता है।

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