बालक के समाजीकरण में सहायक बताइए । बालक के समाजीकरण में बाधक कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए | Describe the assisting तत्त्व तत्त्व elements in socialisation of child. What are the barriers in socialisation of child?
प्रश्न – बालक के समाजीकरण में सहायक बताइए । बालक के समाजीकरण में बाधक कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए | Describe the assisting तत्त्व तत्त्व elements in socialisation of child. What are the barriers in socialisation of child?
या
बालक के समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा कीजिए । Discuss the factors that affects the socialisation of child.
उत्तर- बालक के समाजीकरण में सहायक तत्त्व (कारक)
- परिवार (Family) – यह प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण संस्था है तथा परिवार द्वारा बच्चे पर डाला गया प्रभाव प्राथमिक स्थायी और आन्तरिक होता है। बच्चा जन्म के बाद से ही अपने परिवार के सदस्यों से प्रभावित होता है। सदस्यों का आपसी प्रेम, स्नेह, त्याग, अधिकार आदि बच्चे के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। बच्चा आरम्भ से ही अनुसरण करने लगता है तथा अनुसरण की यह प्रक्रिया आरम्भ में अचेतन रूप में होती है, लेकिन बाद में खेल प्रवृत्ति के द्वारा बच्चा अनुकरण द्वारा तथा खेल-खेल में बालक खुद को पिता तथा बालिका खुद को माता समझ कर वैसा ही व्यवहार करते हैं। इस तरह इन सब क्रियाओं में उसके अंदर आत्म (Self) का विकास होता है।
- बाल सम्बन्ध (Child Relationship )
- समुदाय ( Community ) – स्कूल के साथ बालक के विकास के लिए समुदाय भी उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व का वह खेल के समूह, एवं समुदाय के संगठन आदि के रूप में निर्वाह करता है। समुदाय में साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति, प्रथाएँ, परम्पराएँ आदि के संयोग से सामाजिकता का निर्माण होता है ।
- खेल-कूद (Games and Sports ) – प्रत्येक बालक खेल-कूद को पसन्द करता है। वह खेलते समय जाति-पाति, ऊँच-नीच तथा अन्य प्रकार के भेद-भावों से ऊपर उठकर दूसरे बालकों के साथ अन्तः प्रक्रिया द्वारा आनन्द लेना चाहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खेल में सामाजिक अन्तः प्रक्रिया का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होता है। खेलते ही खेलते बालक के प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलतां तथा सहयोग आदि अनेक गुण अनजाने ही अत्यधिक विकसित हो जाते हैं। संक्षेप में, खेल-कूद के द्वारा बालक के समाजीकरण में अत्यधिक सहायता मिलती है।
- आयु समूह (Peer Group) – बालक प्रायः परिवार के बाहर अपनी आयु के अन्य बच्चों के साथ खेलना प्रारम्भ कर देता है। खेल-खेल में वह अनेक वस्तुओं, विभिन्न व्यवहार के ढंग, रुचि, अनुकूलनशीलता, रीति-रिवाज आदि सरलता से सीख लेता है ।
- परवरिश (Parenting) – अधिकांशतः अभिभावक परवरिश का अर्थ केवल अपने बच्चों की खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तथा रोजमर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने से लगाते हैं। अभिभावकों का प्रमुख दायित्व होता है कि अपने बच्चे को अच्छा वातावरण प्रदान करना एवं पालन-पोषण करना, अर्थात् सुख-शान्ति से पूर्ण वातावरण । अभिभावकों द्वारा बच्चों की परवरिश कैसी होना चाहिए इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझाया गया है –
- अच्छी परिस्थितियों का निर्माण – बालक जब परिवार में जन्म लेता है तब माता-पिता का यह दायित्व होता है कि वह बालक के लिए उत्तम परिस्थितियों का निर्माण करे। जब बालक की परवरिश उचित एवं उत्तम वातावरण में होती है तो उसके उत्तम मस्तिष्क एवं स्वास्थ्य का विकास होता हैं
- उत्तम चरित्र का निर्माण – बच्चों में माता-पिता द्वारा उत्तम चरित्र का निर्माण करना अत्यंन्त आवश्यक है। मांता – पिता द्वारा बच्चों को नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब माता-पिता एवं अन्य परिवारीजन बालक को नैतिक एवं पौराणिक कहानियाँ सुनाकर उनके मन एवं मस्तिष्क मे अध्यात्मिकता की भावना को जाग्रत करें ।
- नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों व्यावहारिकता – बालक समाज में जन्म लेता है एवं इस समाज में वह विभिन्न तौर-तरीके एवं रीतिरिवाज के माध्यम से समाज में अपने आपको समायोजित करने का प्रयास करता है। आज के समय में मोबाइल, टी.वी, इण्टरनेट सब मनोरंजन के सार्वजनिक साधन हो गए हैं, इससे बच्चों में नवीनता का तो आगमन हो रहा है परन्तु वे नैतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। अतः माता-पिता का यह परम् कर्त्तव्य है कि वह अपने बच्चों को मार्ग से भ्रमित न होने दे उन्हें उचित मार्ग पर लाने का प्रयास करें। यह सब तभी सम्भव होगा जब बच्चों को अच्छी परवरिश दी जाएगी।
- अनाथालय में बच्चे (Children In Orphanage)–यहाँ अनाथालय में बच्चे से तात्पर्य यह है कि अनाथं बच्चों को अनाथालय में स्थान देकर उनका भविष्य कैसे सुदृढ़ बनाया जाता है। अनाथालय दो शब्दों से मिलकर बना है— अनाथ + आलय = अनाथालय, यहाँ पर अनाथ का शाब्दिक अर्थ है जिसका कोई नाथ न हो ( बेसहारा ) तथा आलय का अर्थ है ‘घर’, अर्थात्, उन सबका घर जो इस माया रूपी संसार में अकेले हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है। अनाथालय में अनाथ बच्चों को स्थान देकर . उनका भविष्य सुदृढ़ बनाया जाता है ।
अतः अनाथालय की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- अनाथों के लिए सहारा – समाज में रहने वाले ऐसे बच्चे जिनका कोई घर या सहारा नहीं होता है, उन्हें अनाथालय में स्थान प्राप्त होता है। अनाथों के लिए यह एकमात्र सहारा होता है।
- अनाथ बच्चों की शिक्षा – अनाथालय में बच्चों का पालन-पोषण भली-भाँति किया जाता है जिससे वह समाज में अपना अस्तित्व खोज सके। उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है जिसके द्वारा बच्चे अपना भविष्य सुन्दर बना सकते हैं।
- उत्तम चरित्र का निर्माण – अनाथालय में बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ चरित्र एवं अनुशासन की शिक्षा भी दी जाती है। बच्चों में उत्तम चरित्र का निर्माण करके उन्हें समाज में एक सभ्य व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जाती है ।
- आर्थिक स्तर (Economic Condition)-समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले तत्त्वों में बालक के परिवार का आर्थिक स्तर भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। अध्ययन से पता चलता कि आर्थिक संकटग्रस्त परिवार के बच्चों में सहनशीलता अधिक पाई जाती है, परन्तु वे आत्महीनता की भावना से ग्रसित हो जाते हैं।
- पड़ोस (Neighbourhood) — पड़ोस भी एक प्रकार का बड़ा परिवार होता है। जिस प्रकार बालक परिवार के विभिन्न सदस्यों के साथ अन्तः प्रक्रिया द्वारा अपनी संस्कृति एवं सामाजिक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है, ठीक उसी प्रकार वह पड़ोस में रहने वाले विभिन्न सदस्यों एवं बालकों के सम्पर्क में रहते हुए विभिन्न सामाजिक बातों का ज्ञान प्राप्त करता है। इस दृष्टि से यदि पड़ोस अच्छा है तो उसका बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और यदि पड़ोस खराब है तो बालक के बिगड़ने की सम्भावना है। यही कारण है कि अच्छे परिवारों के लोग अच्छे ही पड़ोस में रहना पसन्द करते हैं ।
- विद्यालय ( School) – शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। विद्यालय इस प्रक्रिया का औपचारिक अभिकरण है तथा इनका वास्तविक प्रभाव किशोरावस्था में प्रवेश करने के बाद प्रारम्भ होता है। इस समय बच्चे के मन में नवीन विचार उत्पन्न होते हैं। इस काल में बच्चों में नयीं आदतों का निर्माण होता है जो जीवन भर उसके व्यक्तित्व के अंग होते हैं। विद्यालय में अच्छे अध्यापक तथा अच्छे विद्यार्थी उसके लिए रोल मॉडल होते हैं जो उसके समाजीकरण में सहायक होते हैं। बच्चे को विद्यालय में अपने से भिन्न आयु तथा लिंग के सदस्यों से अनुकूलन करने की आवश्यकता होती है। इससे उसके अनुकूलन करने की क्षमता में वृद्धि होती है। इस समय उसके परिवार के सदस्य उससे नवीन व्यवहारों की आशा करते हैं तथा इन दशाओं के अनुरूप किया गया परिवर्तन बच्चे के समाजीकरण का आधार बन जाता है। इसकी वास्तविक सीख शिक्षण संस्थाओं द्वारा दी जाती है। इन संस्थाओं द्वारा ही बच्चे में समालोचनात्मक ज्ञान की वृद्धि होती है। यही ज्ञान उसे उचित, अनुचित वास्तविक तथ्यों के बीच भेद करना सिखाता है।
- समुदाय ( Community ) – स्कूल के साथ बालक के विकास के लिए समुदाय भी उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व का वह खेल के समूह, समुदाय के संगठन आदि के रूप में निर्वाह करता है। समुदाय में साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति, प्रथाओं, परम्पराओं आदि के संयोग से सामाजिकता का निर्माण होता है ।
बालक के समाजीकरण में बाधक तत्त्व
- बालक की शारीरिक अस्वस्थता – शारीरिक रूप से अस्वस्थता के कारण बालक में अन्य बालकों को स्वस्थ, शारीरिक क्षमता एवं समस्त क्रियाओं में सहभागिता को देखकर हीन भावना का विकास होता है तथा वह अपने पास-पड़ोस, समुदाय एवं समाज से विचलित होकर समाजीकरण से समन्वय स्थापित नहीं कर पाता है।
- बालक की मानसिक अस्वस्थता – जिस प्रकार बालक शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण समाज से दूरियाँ बना लेता है उसी प्रकार बालक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने पर भी समाज से दूरी बना लेता है। मानसिक रूप से अस्वस्थ बालक समाजीकरण के महत्त्व को नहीं समझ पाता तथा वह अपने आयु विशेष के बालकों से समन्वय नहीं स्थापित कर पाता जिसके कारण उसका समाजीकरण प्रभावित होता है।
- परिवार की आर्थिक स्थिति परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही उसका आस-पड़ोस, समाज एवं समुदाय होता है। आर्थिक स्थिति के अनुसार ही परिवार के विभिन्न व्यक्तियों का अन्य से सम्पर्क होता है। यदि बालक की पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसका समाजीकरण भी समुचित रूप से नहीं हो पाता है।
- पारिवारिक विषमता, ईर्ष्या, द्वेष- बालक का परिवार समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। यदि बालक के परिवार में आपसी कलह, द्वेष, ईर्ष्या एवं असहयोग की भावना व्याप्त है तो बालक के अन्दर भी इन्हीं भावनाओं का संचार होता है। बालक मानसिक रूप से इन्हीं भावनाओं से ग्रसित होकर समाज से सम्पर्क करने में कतराने लगता है तथा सम्पूर्ण समाजीकरण की प्रक्रिया बाधित हो जाती है ।
- बालक के सम समूह का निम्न स्तर – बालक बचपन से ही अपने सम समूह बालकों के मध्य ही पलता-बढ़ता है। उसका सामाजिक विकास बालक के सम-समूह एवं आयु वर्ग के अनुसार ही होता है। यदि बालक का सम समूह निम्न स्तर का होगा तो बालक का समाजीकरण भी निम्न स्तर का ही होता है। निम्न स्तर के बालक अन्य बालकों से सामाजिक रूप से सम्पर्क करने में असक्षम हो जाते हैं अतः उनका समाजीकरण बाधित हो जाता है ।
