बाल्यकाल एवं किशोरावस्था के दौरान लैंगिक सामाजिक निर्माण पर चर्चा कीजिए। Describe the Social Construction of Gender During Childhood and Adolescence.
मनोवैज्ञानिक रूप से लैंगिक बोध या पहचान से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रत्ययों को समझना आवश्यक है –
- लैंगिक स्थिरता (Gender Stability) – बच्चों में सामान्यतः यह दुविधा रहती है कि वो लड़का या लड़की ही बने रहेंगे। जब बच्चों में यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि वो उम्र भर उसी लिंग के बने रहेंगे तो यह स्थिति लैंगिक स्थिरता कहलाती है। जब तक लैंगिक स्थिरता नहीं आती तब तक असमंजस की स्थिति बनी रहती है कि वो उसी लिंग में रहेंगे या परिवर्तित हो जाएंगे। इसी कारण कभी-कभी वो लड़कियों वाले कपड़ों या काम को नहीं करते हैं। जैसेयदि उन्हें लड़कियों के जैसे कपड़े पहनने के लिए दे दिए जाएं तो वो मना करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं वो लड़की तो नहीं बन जाएंगे। इस प्रकार लैंगिक स्थिरता का तात्पर्य है “बच्चों की लिंग के प्रति यह समझ कि लिंग उम्र भर स्थिर ही रहता हैं, बदलता नहीं है । “
- लैंगिक अपरिवर्तनशीलता (Gender Consistency) – लैंगिक अपरिवर्तनशीलता का प्रयोग बच्चों की उस समझ के लिए किया जाता है कि विपरीत लिंग के बालों की संरचना (Style) कपड़े या अन्य व्यवहार करने के बाद भी उसका अपना लिंग परिवर्तित नहीं होता। यदि यह लैंगिक अपरिवर्तनशीलता का विकास नहीं होता है तो बच्चों को विपरीत लिंग के व्यवहार को अपनाने में संकोच होता है। जैसे- नाटक में अभिनय के लिए किसी लड़की को लड़के की भूमिका दे दी जाए और वह इस बात की आशंका बना ले कि कहीं वो लड़का तो नहीं बन जाएगी तो उस लड़की के लैगिंक अपरिवर्तनशीलता प्रत्यय का विकास नहीं हुआ है।
- लिंग- वर्गीकरण समरूपता (Sex-Category Constancy ) – जैविक रूप से अंगों की बनावट के आधार पर अपने आप को लड़का या लड़की समझना, लिंग-वर्गीकरण समरूपता कहलाता है। अपने लिंग के वर्गीकरण की इस क्षमता के कारण ही लड़का या लड़की अपने लिंग को शारीरिक बनावट के साथ सम्बन्धित कर पाते हैं। उन्हें इस बात का भी पता चल जाता है कि कौन से जैविक अंग की उनके शरीर में उपस्थित है और कौन सा अंग अनुपस्थित है। इसी प्रत्यय के विकसित हो जाने के बाद लड़का या लड़की अपने जैसे समलिंगी व्यक्ति के व्यवहारों का अनुसरण करने लगते हैं। हम देख सकते हैं कि लड़कियाँ अपनी बहनों या मम्मी के व्यवहारों का अनुसरण करते हुए सजने-धजने की क्रिया को अपनाती हैं और उनके मेकअप किट का इस्तेमाल करने लगती हैं।
- जैविक लिंग (Biological Sex) – शरीर में उपस्थित जननांगों के आधार पर जैविक लिंग का निर्धारण होता है। पुरुष के जननांग और स्त्री के जननांगों में मूलभूत अन्तर होने के कारण ही उनको उस लिंग विशेष का माना जाता है।
- सामाजिक लिंग व्यवहार (Social Gender Behaviour) — स्त्री और पुरुष दोनों ही जैविक आधार पर भिन्न होने के कारण उनके सामाजिक गुण व व्यवहार के प्रति समाज सामाजिक लिंग व्यवहार का निर्धारण करता है । ( A society’s beliefs about the traits and behaviour of males and females is called gender.)
- लैंगिक रूढ़िबद्धता (Gender Sterotypes ) – स्त्री और पुरुष में भिन्नता के प्रति सांस्कृतिक विश्वास और मान्यताएँ लैंगिक रूढ़िबद्धता कहलाती हैं। (Cultural Beliefs about Differences between women and men is called gender Stereotypes.)
- लिंग भूमिका ( Gender Roles) – विभिन्न परिस्थितियों में स्त्री और पुरुषों की अपेक्षित व्यवहारों को लिंग भूमिका कहते हैं । (Expected Behaviours of males and females in many situations is called gender roles.) लिंग पहचान (Gender Identity) लगभग दो वर्ष की अवस्था तक बच्चे कर लेते हैं। उन्हें पता लगने लगता है कि वो लड़के हैं या लड़की। लिंग स्थिरता (Gender Stability) लगभग 4 वर्ष की अवस्था में देखी जा सकती है। इस समय उन्हें इस बात का बोध हो जाता है कि बड़े होकर मम्मी बनेंगे या पापा। उन्हें यह विश्वास हो चुका होता है कि अब उनका लिंग परीवर्तन नहीं होगा। यदि वो लड़के होते हैं तो लड़के ही रहेंगे और लड़की हैं तो लड़की ही रहेंगे। लगभग 6 वर्ष की अवस्था में जाते-जाते उनमें लैंगिक सुसंगतता (Gender Consistency) आने लगती हैं। उनकों अब यह विश्वास हो जाता हैं कि नाटकों में या कपड़े दूसरे लिंग के पहनने के बाद भी उनका लिंग नहीं बदलेगा। सामाजिक अधिगम सिद्धान्त (Social Learning Theory) और सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त (Operant Conditioning Theory) सामाजिक लैंगिक व्यवहार को सीखने में मदद करते हैं। यदि कोई बच्चा अपने जैविक लिंग के आधार पर सामाजिक व्यवहार करता है तो उसको शाब्दिक प्रशंसा (Verbal Praise) के द्वारा पुनबर्लित किया जाता है। बन्दुरा के सामाजिक अधिगम सिद्धान्त के अनुसार बच्चा देखकर दूसरे के व्यवहारों का अनुसरण करके भी सीखता है। इस सिद्धान्त के आधार पर बच्चे अपने लिंग के माता-पिता के व्यवहारों का अनुसरण करते हैं। लड़की माँ का आदर्श व्यवहार सीखती है और लड़का पिता का आदर्श व्यवहार सीखता है। इसी क्रम में बच्चे अपने वातावरण से अपने लिंग से सम्बन्धित उन व्यवहारों को अपनाने लगता है जो सामाजिक रूप से स्वीकृत होते हैं। सामाजिक अधिगम सिद्धान्त के आधार पर बच्चे अपनी शारीरिक समानता के आधार पर अपने माँ या पिता को अपने लिंग से सम्बन्धित करके उनके व्यवहारों को अपनाने लगते हैं। लड़कियाँ अपनी मम्मी की तरह की बाल बनाना, उनके तरह ही कपड़े पहनना सीखती हैं। यदि मम्मी अपने कपड़े बदलते समय कमरे को बन्द रखती है तो छोटी बच्ची भी इसका पालन करते हुए बड़ी होने लगती है।
माँ के कामों को अपना काम मानने लगती हैं। इसी तरह लड़के भी अपने पिताजी की तरह कपड़े पहनना, बातें करना, दाढ़ी बनाने की नकल करते हुए चेहरे पर साबुन लगा के झाग बनाना, बाहर के कामों को करना, घर के अन्दर खाना बनाने, परोसने आदि से सम्बन्धित कार्यों को नहीं करना आदि सीख जाते हैं। उनकी यह धारणा बन जाती है कि यदि मैं पापा की तरह काम करता हूँ तो लड़का हूँ। यदि मैं मम्मी की तरह काम करती हूँ तो लड़की हूँ। (“I act like Daddy, so I am a boy, or I act like Mother, so I am a girl.”)
- संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (Cognitive Development Theory) – लैंगिक पहचान और जागरुकता बच्चों के निरक्षर संज्ञानात्मक विकास के परिलक्षण का परिणाम है। जब तक बच्चों में ‘स्व’ का विकास नहीं होता तब तक वे अपने आप को लड़का या लड़की के रूप में नहीं पहचान पाते। जैसे ही बच्चों में वर्गीकरण की मानसिक क्षमता का विकास हो जाता है, वैसे ही ‘लैंगिक स्थिरता’ (‘Gender Stability) का विकास हो जाता है तब उन्हें यकीन हो जाता है कि वो किस लिंग से सम्बन्ध रखते हैं। वर्गीकरण की यह क्षमता कि वो लड़के है या लड़की, उनके मन में लिंग के प्रत्यय का निर्माण हो जाता है और मान लेते हैं कि उनका लिंग अब नहीं बदलेगा। इसी प्रकार उनमें लिंग से सम्बन्धित समझ विकसित हो जाती है तथा उनका लैंगिक पहचान निश्चित हो जाता है। संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त की यह मान्यता है कि बच्चों में लैंगिक पहचान ( Sender Identity ) विकसित होती है। स्व का निर्माण पहले होता है फिर वे लिंग विशेष के व्यवहारों को अपनाने लगते हैं।
संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त सामाजिक अधिगम सिद्धान्त से कुछ मायनों में भिन्न हो जाता है क्योंकि सामाजिक अधिगम सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि बच्चे पहले अपने से बड़ों के लिंग सम्बन्धी व्यवहार को देखकर, लिंग व्यवहार प्रदर्शित करते हैं फिर ‘लिंग पहचान’ विकसित होता है। इस आधार पर सामाजिक अधिगम सिद्धान्त और संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त, दोनों एक-दूसरे से विपरीत मान्यता रखते हैं।
- लैंगिक स्कीमा सिद्धान्त (Gender Schema Theory) – यह सिद्धान्त बेम (BEM) द्वारा प्रतिपादित किया गया था, इनका मानना है कि बच्चों में अपने लिंग से सम्बन्धित समझ या ज्ञान, सामान्य ज्ञान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती है। बच्चों के लिए जितना सहज यह ज्ञान होता है कि उनके शरीर के अंग कौन-कौन से हैं, उतना सहज यह नहीं होता है कि वो जान पाएं कि उनका लिंग कौन सा है। बेम की मान्यता है कि लैंगिक पहचान सरल ज्ञान नहीं होता है ।
इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि “लैंगिक समझ, संज्ञानात्मक ढाँचा (Cognitive Framework) के प्रतिबिम्ब (Reflection) के कारण होता है जो स्त्री और पुरुष की भूमिका और विशेषताओं के प्रति समाज की मान्यताओं और विश्वास के परिणामस्वरूप बनता है।”इस प्रक्रिया में माता-पिता के निर्देश, स्त्रियों और पुरुषों का विशेष व्यवहार, बच्चों में लिंग सम्बन्धी स्कीमा (Schema) का निर्माण करते हैं।(Children develop a cognitive framework reflecting the beliefs of their society about the characteristics and roles of males and females.)इस प्रकार ‘लैंगिक स्कीमा बच्चों के मस्तिष्क में बन जाने के बाद समाज से अपने लिंग व्यवहार से सम्बन्धित बातें सीखने लगता है। लैंगिक स्कीमा का अभिप्राय किरीस्तु लिंग व्यवहार का निर्धारण है ।
इस समय के परिवर्तन को देखकर लड़के-लड़कियाँ भी सहम जाते हैं क्योंकि यह शारीरिक बदलाव, अब स्पष्ट होने लगते हैं और उन्हें अपने शरीर की आकृति में व्यापक परिवर्तन दिखने लगता है। शरीर में परिवर्तन के साथ-साथ अन्य परिवर्तन भी उन्हें बेचैन करता रहता है। बहुत सारे परिवर्तन उन्हें तूफान के काल में ले जाते हैं जहाँ तनाव भी कई प्रकार के होने लगते हैं। इसलिए स्टैनले हॉल (Stanley Hall) ने किशोरावस्था को तनाव व तूफान का काल कहा है।
किशोरावस्था के दौरान किशोरों एवं किशोरियों को अपने शरीर के विकास के कारण, स्त्री और पुरुष के शारीरिक लक्षण दिखने लगते हैं तथा उनको अब लड़का या लड़की न समझकर युवक और युवती के रूप में देखा जाने लगता है। वे स्वयं भी अपने आपको इस रूप में मानने लगते हैं।
इसी समय उनको अपनी लैंगिक भूमिकाओं का पता लगने लगता है क्योंकि बड़े होने के कारण अब उनसे वही उम्मीद करता है जो समाज चाहता है। इसी समय लैंगिकता की सामाजिक रचना तीव्र गति के साथ होती है। लैंगिकता की सामाजिक रचना को समझने से पहले किशोरावस्था की विशेषताओं को भी समझना आवश्यक है –
- शारीरिक विशेषताएँ एवं परिवर्तन और इनकी लैंगिक सामाजिक रचना में भूमिका- इसी समय किशोरों एवं किशोरियों के आवाज में परिवर्तन आने लगता है। लड़कों में दाढ़ी-मूँछ आने लगते हैं। शरीर का आकार बड़ा होने लगता है और शरीर में ताकत भी बढ़ने लगती है। इस समय किशोरों में संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक वीर्य (Semens) का उत्पादन भी शुरू हो जाता है।
किशोरियों में भी शरीर सम्बन्धी परिवर्तन व्यापक मात्रा में होने लगते हैं। उनके छाती का विकास एक औरत के रूप में होने लगता है, उनको मासिक धर्म भी आना प्रारम्भ हो जाता है। शरीर में बालों की मात्रा बढ़ जाती है एवं गुप्तांगों पर भी बाल आने लगते हैं। इन सब शारीरिक परिवर्तनों के बीच किशोरों एवं किशोरियों में स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व का आभास होने लगता है एवं उनको अपनी भूमिका भी स्पष्ट होने लगती है। धीरे-धीरे उनको यह अहसास होने लगता है कि वे शरीर के विकास के अनुसार अब पुरुष और स्त्री बनते जा रहे हैं।
- संवेगात्मक विकास और इसकी लैंगिक सामाजिक रचना में भूमिका – इस समय किशोरों के अंगों में कई प्रकार के संवेगों का भी विकास होने लगता है। जिसमें प्यार, गुस्सा, ईर्ष्या की मात्रा बढ़ जाती है। लैंगिक रूप से किशोर एवं किशोरियाँ एक दूसरे को आकर्षित करते हैं एवं एक-दूसरे के प्रति संवेगात्मक लगाव भी होने लगता है। संवेगात्मक परिवर्तन के दौर में भी स्त्री और पुरुष की भावनाएँ पनपने लगती हैं।
किशोर व किशोरियों में संवेगात्मक अस्थिरता का एक भयंकर तूफान सा आ जाता है। वे बड़ी जल्दी दुखी एवं तनाव में आ जाते हैं। भावनात्मक सहारे के रूप में उनके मित्र मंडली का बहुत योगदान होता है। भावनात्मक रूप से वे अपने मित्रों से अकेले में बातें करने लगते हैं और धीरे-धीरे स्त्री और पुरुष की दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। इस समय उनका एक विशेष लिंग का, स्त्री या पुरुष होना खास महत्त्व रखता है।इसी समय उनमें एक-दूसरे से संवेगात्मक लगाव का दौर शुरू हो जाता है और दोनों लिंग के सदस्य एक-दूसरे का साथ मिल जाने के कारण व्याकुल भी हो जाते हैं। समाज का हस्तक्षेप और किशोर-किशोरियों से पवित्रता की अपेक्षा के कारण वे एक-दूसरे से चाहने के बावजूद नहीं मिल पाते, इसी कारण उनमें संवेगात्मक विस्फोट भी होने लगता है, जिसके कारण वे विद्रोही भी हो जाते हैं। लेकिन इस संवेगात्मक विकास के कारण ही किशोर एवं किशोरियों को अपने स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की संवेगात्मक भावनाएँ पनपने लगती हैं और उन्हें अपने लिंग के होने के फायदे और नुकसान का भी पता चलने लगता है। धीरे-धीरे इस काल में लैंगिक सामाजिक रचना का क्रम तीव्र गति से चल पड़ता है।
- सामाजिक विकास और लैंगिक सामाजिक रचना- अब किशोर अपने घर में नहीं, बाहर की दुनिया में ज्यादा रुचि लेने लगते हैं। उसे अपने दोस्त बहुत भाते हैं और उनका साथ, घरवालों से भी ज्यादा अच्छा लगता है। इसी समय उनके मित्र मण्डली का प्रभाव सबसे अधिक देखने को मिलता है। इस उम्र में किशोरों को ज्यादा स्वतंत्रता की अपेक्षा होती है। उनको अपनी मर्जी से जीने की इच्छा भी जाग्रत होती है।
इस समय उन्हें किसी का भी नियंत्रण बर्दाश्त नहीं होता। माता-पिता की बातें उनको अब अच्छी नहीं लगती और वे उनकी भी आलोचना करने लगते हैं। इस समय की अवस्था में, किशोरों का वीर पूजा (Hero Worship) में विश्वास बढ़ जाता है। दोनों लिंग के सदस्य अपने-अपने रोल मॉडल का भी चुनाव कर लेते हैं और उसी का अनुसरण करते हैं।इस समय युवा हीरो-हीरोइनों को तथा खिलाड़ियों को पसन्द करने लगते हैं। स्त्री जाति से सम्बन्धित रखने वाली अभिनेत्री लोगों की जीवन शैली, परिधान एवं बातों का अनुसरण करने लगती हैं। पुरुष जाति से भी सम्बन्धित रखने वाले अभिनेता व खिलाड़ियों को किशोर अपना आदर्श मानने लगते हैं ।इस ‘वीर पूजा’ की प्रक्रिया में भी लैंगिक सामाजिक रचना होती है क्योंकि अपने लिंग के आदर्श व्यक्ति का अनुसरण करते-करते वो अपनी लैंगिक छवि का भी विकास कर लेते हैं।इसी समय प्रत्येक लिंग की अपनी-अपनी विशेषताएँ विकसित होने लगती हैं और उनमें समाज की उसके लैंगिक भूमिका के प्रति आकांक्षाओं और उसका अपना ‘स्व’ का विकास, दोनों में टकराहट की स्थिति आ जाती है। समाज प्रदत्त भूमिकाओं की युवक और युवतियों दोनों ही आलोचना करते हैं और अधिक आजादी की माँग करते हैं।युवतियाँ अपने दोस्तों के साथ घर से बाहर जाने को तैयार होती हैं, यह उसका ‘स्व’ है और लड़कियों को बाहर ज्यादा न घूमने देना ‘सामाजिक अपेक्षा है। स्त्री – लिंग के प्रति भेदभाव व उसके प्रति कई प्रकार की शंकाओं का जन्म अभी देखने को मिलता है ।इस समय किशोरों का मानसिक विकास भी परिपक्वता की तरफ बढ़ रहा होता है, उनमें अब बेहतर तर्क की क्षमता विकसित हो जाती है जिसके कारण स्त्री लिंग के ऊपर लगने वाली पाबंदी को अपनी आजादी का हनन मानने लगती हैं लेकिन समाज उन्हें जिस आदर्श रूप में देखना चाहता है, वैसा बनने का दबाव बना रहता है ।
