1st Year

बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है? इसके आधारभूत तत्त्वों के माध्यम से समझाइए । What is Basic Teaching Model? Explain by its basic elements.

प्रश्न  – बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है? इसके आधारभूत तत्त्वों के माध्यम से समझाइए । 
What is Basic Teaching Model? Explain by its basic elements.
या
ग्लेसर के बुनियादी शिक्षण मॉडल का अर्थ एवं आवश्यकता का वर्णन कीजिए ।
Describe the meaning and need of Glaser’s based teaching model. 
उत्तर- बेसिक शिक्षण प्रतिमान (Basic Teaching Model)
इस प्रतिमान का प्रतिपादन सन् 1962 में राबर्ट ग्लेसर (Robert Glaser) ने किया था इसलिए इस प्रतिमान को ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान भी कहते हैं। इस प्रतिमान के अनुसार, शिक्षण वह विशेष क्रिया है जो अधिगम की उपलब्धि पर केन्द्रित होती है और इस प्रकार उन क्रियाओं का अभ्यास किया जाता है, जिससे छात्रों का बौद्धिक एकीकरण और उनके स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता पहचानी जाती है । ब्रूस जॉइस तथा मॉर्शा वील (Bruce Joyce and Morsha Weil) ने इस प्रतिमान को ‘कक्षा-कक्ष मीटिंग प्रतिमान’ (Classroom Meeting Model) की संज्ञा दी है।

ग्लेसर प्रतिमान के आधार (Basis of Glaser Model)

  1. छात्र प्रत्येक अध्याय से कुछ न कुछ सीखता है।
  2. शिक्षक अनुदेशन प्रक्रिया द्वारा छात्र को प्रारम्भिक व्यवहार से नवीन ज्ञान की प्राप्ति तक निर्देशित करता है।
  3. शिक्षण के विभिन्न घटकों में प्रतिमानों द्वारा सामन्जस्य स्थापित किया जा सकता है।
  4. छात्र के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना शिक्षण का मुख्य उद्देश्य होता है।
ग्लेसर के बुनियादी शिक्षण मॉडल की आवश्यकता
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने में शिक्षण प्रतिमानों की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, ग्लेसर के बुनियादी शिक्षण मॉडल की आवश्यकता निम्न बिन्दुओं द्वारा समझ सकते हैं –
  1. बुनियादी शिक्षण मॉडल के माध्यम से शैक्षिक प्रक्रिया में शृंखलाबद्धता तथा पूर्णता रहती है, जिससे शिक्षण क्रियाएँ अधिक क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित हो जाती हैं ।
  2. शिक्षण व्यवस्था को उन्नत बनाने के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति में यह प्रतिमान सहायक होते हैं। ये शिक्षण को अधिक सार्थक, उद्देश्यपूर्ण तथा प्रभावशाली बनाते हैं।
  3. शिक्षण प्रतिमानों के आधार पर विभिन्न शिक्षण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है ।
  4. ये शिक्षण मॉडल, कक्षा शिक्षण में सुधार लाते हैं एवं उपयुक्त वातावरण का निर्माण कर छात्रों के व्यवहारों में वांछित परिवर्तन करने में सफल होते हैं। ।
  5. यह शिक्षण प्रतिमान, शिक्षक को शिक्षण प्रक्रिया में अनुसन्धान कार्य के लिए विशाल क्षेत्र प्रदान करता है। यह नवीन आयाम एवं नवीन क्षेत्र प्रस्तुत करते हैं।
  6. शिक्षण प्रतिमान पाठ्य सामग्री को शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं।
  7. शिक्षण प्रतिमानों के माध्यम से शिक्षण एवं अधिगम क्रियाओं के सम्बन्ध में विभिन्न एवं विभिन्न शैक्षिक वातावरणों परिस्थितियों का अध्ययन करना सम्भव है।
  8. शिक्षण के क्षेत्र में विशिष्टीकरण की प्रक्रिया को बल प्रदान करते हैं ।
  9. शिक्षण प्रतिमान के माध्यम से, शिक्षण को वैज्ञानिक, नियन्त्रित तथा उद्देश्य निर्देशित किया जा सकता है।
  10. शिक्षण प्रतिमानों के माध्यम से विभिन्न शिक्षण नीतियों, युक्तियों एवं प्रविधियों के प्रयोग के लिए दिशा निर्देश दिया जाता है।
ग्लेसर प्रतिमान के तत्त्व (Elements of Glaser Model)
  1. अनुदेशनात्मक उद्देश्य (Instructional Objectives)— अनुदेशनात्मक उद्देश्य शिक्षक शिक्षण प्रारम्भ करने से पहले ही निर्धारित करता है। यह तत्त्व छात्र के व्यवहार में परिवर्तन लाता है तथा ये सीखने की सीमा का भी ज्ञान कराता है। शिक्षण प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व शिक्षक यह निर्धारित करता है कि किसी भी स्तर पर किसी भी परिस्थिति में आयोजित की गई कोई भी शिक्षण क्रिया छात्र के व्यवहार में किस प्रकार का परिवर्तन लाएगी। अनुदेशनात्मक उद्देश्य इस बात की समुचित व्याख्या करती है। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के आधार पर ही शिक्षण प्रक्रिया का आयोजन व नियोजन किया जाता है। संक्षेप में अध्यापक इस सोपान पर इस प्रकार बल देता है-
    1. क्या पढ़ाता है – पाठ्य-वस्तु
    2. क्यों पढ़ाता है— अनुदेशन के उद्देश्य ।
    3. किस प्रकार पढ़ाता है- शिक्षण विधियाँ तथा सहायक प्रणाली ।
  2. प्रारंम्भिक अथवा पूर्व व्यवहार (Entering Behaviour)- शिक्षण प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पहले छात्रों के पूर्व ज्ञान, बौद्धिक स्तर एवं अधिगम स्तर आदि का आंकलन किया जाता है। यह प्रारम्भिक व्यवहार शिक्षण प्रारम्भ करने से पहले छात्रों के मूल व्यवहार के आधार पर निर्णय लिया जाता है कि शिक्षण प्रक्रिया के प्रस्तुतीकरण के लिए छात्रों का पूर्वज्ञान, उनका बौद्धिक स्तर, सीखने सम्बन्धी योग्यताएँ एवं क्षमताएँ क्या हैं? तथा उनमें अधिगम के लिए कितनी अभिप्रेरणा है ? इन सम्पूर्ण तथ्यों की निश्चित जानकारी के आधार पर ही शिक्षण क्रियाओं का आयोजन किया जाता है तथा छात्रों को पूर्व उद्देश्यों से सम्बन्धित अन्तिम व्यवहार तक ले जाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार छात्र का पूर्व व्यवहार निम्न तत्त्वों पर निर्धारित किया जा सकता है-
    1. छात्रों का मानसिक स्तर – बुद्धिलब्धि।
    2. छात्रों की शब्दावली का ज्ञान ।
    3. छात्रों की अभिरुचियों तथा अभिवृत्तियों के आधार पर ।
    4. छात्रों का प्रेरणा स्तर |
    5. पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित पूर्व ज्ञान ।
    6. छात्रों का सामाजिक आर्थिक स्तर ।
    7. छात्रों का आकांक्षा स्तर ।
  3. अनुदेशनात्मक प्रक्रिया (Instructional Process) – अनुदेशनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध शिक्षण से प्रयुक्त होने वाली क्रियाओं से होता है। इसके अन्तर्गत शिक्षण विधि, शिक्षण-प्रविधि एवं शिक्षण सहायक सामग्री आदि का प्रयोग होता है। अनुदेशनात्मक प्रक्रिया के अन्तर्गत ही अधिगम अनुभव प्रदान किए जाते हैं। यह शिक्षण की अन्तःक्रिया अवस्था होती है। छात्र एवं शिक्षक को जो कुछ भी पढ़ाना या सीखना होता है, उसे प्रस्तुत करना ही अनुदेशात्मक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को शिक्षण का क्रियात्मक पक्ष कहा जाता है। अनुदेशनात्मक प्रक्रिया की परिभाषा को कुछ विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि, “अनुदेशनात्मक प्रक्रिया में उद्देश्यों का विशिष्टीकरण किया जाता है तथा उससे सम्बन्धित प्रत्ययों, सिद्धान्तों, कौशलों तथा समस्या समाधान के लिए शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। विधियों तथा प्रविधियों में सुधार तथा परिवर्तन किया जाता है ताकि उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके तथा अनुदेशन प्रभावशाली हो सके।”
    इस परिभाषा के आधार पर स्पष्ट होता है कि अनुदेशनात्मक प्रक्रिया के कुछ प्रभावशाली तत्त्व निम्नलिखित हैं –
    1. उद्देश्यों की रचना,
    2. कार्य विश्लेषण,
    3. पूर्व व्यवहार,
    4. शिक्षण सामग्री,
    5. शिक्षण प्रक्रिया,
    6. छात्रों की निष्पत्तियों का मूल्यांकन एवं निदान तथा उपचार ।
  4. निष्पादन मूल्यांकन (Performance Evaluation) – शिक्षण प्रक्रिया के अन्त में परीक्षणों या निरीक्षणों की सहायता से इस बात का मूल्यांकन किया जाता है कि • छात्रों के व्यवहार में किस सीमा तक परिवर्तन हुआ है? या इस प्रकार से कहा जा सकता है कि छात्र शैक्षिक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त किए है? इसकी जाँच मूल्यांकन द्वारा की जाती है। दूसरे शब्दों में, मूल्यांकन का प्रमुख उद्देश्य अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा का पता लगाना। इसमें निर्णय लिया जाता है कि शिक्षण की सफलता एवं असफलता का पता लगाने के लिए मूल्यांकन कैसे एवं किस प्रकार किया जाए ।
    इसके लिए मूल्यांकन के विभिन्न परीक्षणों या तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जो निम्नलिखित हैं-
    1. साक्षात्कार परीक्षण,
    2. प्रश्नावली परीक्षण,
    3. मौखिक, लिखित एवं प्रयोग परीक्षण,
    4. रेटिंग स्केल एवं
    5. प्रक्षेपी तकनीकें आदि ।
ये परीक्षण शिक्षकों एवं छात्रों को पृष्ठपोषण प्रदान करते हैं। निष्पादन मूल्यांकन सत्य, विश्वसनीय, वैध, वस्तुनिष्ठ तथा प्रभावशाली होना चाहिए ।

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