1st Year

भाषा शिक्षण एवं अधिगमन के सिद्धान्त क्या हैं? भाषा सीखने की प्रक्रिया में इन सिद्धान्तों का प्रयोग किस प्रकार प्रभावी हो सकता है?

प्रश्न – भाषा शिक्षण एवं अधिगमन के सिद्धान्त क्या हैं? भाषा सीखने की प्रक्रिया में इन सिद्धान्तों का प्रयोग किस प्रकार प्रभावी हो सकता है? What are the principles of language teaching and learning? How can we use these principles in making the process of Language acquisition more effective ? 
या 
भाषा शिक्षण एवं अधिगम के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। इन सिद्धान्तों का ज्ञान भाषा सीखने की प्रक्रिया को किस प्रकार बढ़ा सकता है? Explain the principles of language teaching and learning. How is the process. of language acquisition enhanced by the knowledge of these principles?
उत्तर- शिक्षण की सफलता के लिए छात्रों की रुचियों एवं योग्यताओं को ध्यान में रखकर योजना बनानी पड़ती है किन्तु ऐसा करने के लिए, जिस विषय को पढ़ाना है उसकी विशिष्टताओं को ध्यान में रखना पड़ता है। कुछ विषयों में सूचनाओं एवं तथ्यों का विशेष महत्त्व होता है परन्तु भाषा में ऐसा नहीं है। भाषा की शिक्षा में भाषा की प्रकृति पर विशेष ध्यान दिया जाता है। भाषा शिक्षा के अधिगम में निम्न सिद्धान्तों का उपयोग किया जा सकता है-
  1. स्वाभाविकता का सिद्धान्त-भाषा अर्जित सम्पत्ति तो है किन्तु इसको सीखने की शक्ति प्रकृति प्रदत्त अर्थात् प्रकृति द्वारा दी हुई है। भाषा मनुष्य की मौलिक शक्ति है। वह स्वभावतः बोलना सीखता है और सुनकर तथा बोलकर भाषा का विकास करता है। सुनने और समझने की कला अपने आप आ जाती है। इसमें बालकों में स्वाभाविकता का सिद्धान्त अधिक काम करता है क्योंकि उनमें भाषा को स्वतः स्फूर्ति शक्ति के माध्यम से सीखने की योग्यता अधिक होती है।
  2. प्रयत्न का सिद्धान्त-भाषा एक जटिल एवं सूक्ष्म विषय है। अतः इसे केवल स्वाभाविक शक्ति द्वारा नहीं सीखा जा सकता है। इसके अध्ययन में प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती है। भाषा के साहित्यिक रूपों का विधिवत् अध्ययन करना पड़ता है। अलंकारिक एवं कलात्मक भाषा प्रयत्न द्वारा ही सीखी जा सकती है। श्रुतिलेख, वाक्य-रचना, सस्वर पठन, अनुवाद जैसे कार्यों में प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती है। भाषा की शुद्धता के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है।
  3. लेखन कार्य से पूर्व मौखिक कार्य का सिद्धान्त – सर्वप्रथम बालक बोलना सीखता है। अतः भाषा शिक्षण अधिगम में पहले मौखिक कार्य को स्थान दिया जाना चाहिए। मौखिक कार्य के बाद ही लिखना सिखाना चाहिए। लिखने से पूर्व पढ़ना भी सरल हो जाता है। अतः वर्णमाला लिखना सिखाने से पूर्व पढ़ने का अभ्यास कराना चाहिए। भाषा की प्रकृति को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मौखिक कार्य पहले किया जाना चाहिए।
  4. बोलने और लिखने में सामन्जस्य का सिद्धान्त बोलने और लिखने को बिल्कुल पृथक क्रियाएँ नहीं माना जाना चाहिए और न ही इन्हें पृथक क्रियाओं की भांति सीखना चाहिए। पृथक रूप से लेने पर दोनों में सामन्जस्य नहीं हो पाता और इसका कुपरिणाम हिन्दी वर्तनी लिखने में की गई भूलों के रूप में हमें दिखायी देता है। लिपि सम्बन्धी अज्ञानता एवं उच्चारण सम्बन्धी दोषों का एक कारण इस सिद्धान्त का प्रयोग न करना भी है। प्रारम्भिक कक्षाओं में सुलेख के अभ्यास द्वारा इस नियम का अनुपालन कर सकते हैं।
  5. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त-भाषा पर अधिकार करने के लिए बालक को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। स्वतन्त्र वातावरण में वह सीखने को उत्सुक होता है। जिज्ञासा के अभाव में सीखना मन्द गति से होता है। जिज्ञासा की तीव्रता स्वतन्त्र वातावरण में उत्पन्न होती है। स्वतन्त्र वातावरण में बालक खुलकर अपने मनोभावों को प्रकट करता है जो बालक घुटनपूर्ण वातावरण में रहता है वह आत्म-प्रकाशन करने से डरता है। जब तक वार्तालाप, वाद-विवाद, चर्चा, पत्र-व्यवहार आदि में बालक स्वतन्त्रता की अनुभूति नहीं करेगा तब तक उसे भाषा के प्रयोग का अवसर नहीं मिलेगा।
  6. रुचि का सिद्धान्त – पाठ को नीरस एवं बोझिल बना देने से छात्र ऊब जाते हैं। अतः शिक्षक को इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि जिस बात में छात्रों की रुचि होती है उसकी ओर वे आकृष्ट होते हैं और जिसकी ओर अरुचि होती है उससे वे दूर भागते हैं। शिक्षण अधिगम को रुचिकर बना देने से छात्रों में उत्साह बढ़ता है और वे भाषा प्रसन्नचित्त होकर सीखते हैं।
    शिक्षक को विनोदप्रिय एवं शिष्ट हास्य का प्रयोग करना चाहिए। रोचक व्याख्यान, कवि सम्मेलन तथा अन्त्याक्षरी, समारोह, जयन्ती आदि के माध्यम से भाषा शिक्षण अधिगम में रुचि उत्पन्न करनी चाहिए।
    हरबर्ट के अनुसार, उन्हें (शिक्षकों को) बालक की रुचि का सर्वदा ध्यान रखना चाहिए। जब बालक की रुचि पढ़ने की ओर न हो, तब उन्हें नहीं पढ़ाना चाहिए। इससे उनके विकास में बाधा पहुँचती है। पाठ पढ़ाने से पूर्व उन्हें पाठ में बालकों की रुचि पैदा करनी चाहिए जिससे वे पाठ को अच्छी प्रकार समझ सकें ।
  7. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त – शिक्षाशास्त्र में आज यह तथ्य मान्य बन गया है कि प्रत्येक बालक अपनी योग्यता, रुचि, प्रवृत्ति, अभिवृत्ति, शारीरिक क्षमता एवं संवेगात्मकता आदि में दूसरे बालक से भिन्न होता है। कक्षा-शिक्षण अधिगम में प्रायः सभी बालकों को समान समझकर शिक्षण चलता है किन्तु भाषा एक कौशल है और इस पर अधिकार व्यक्तिगत क्षमता के आधार पर ही सम्भव है ।
    अतः इस सिद्धान्त का पालन करते हुए प्रत्येक बालक की भाषायी त्रुटि का निदान करना चाहिए और उसकी भाषा सम्बन्धी कमजोरियों को दूर करने के प्रयास करने चाहिए।
  8. बाल- केन्द्रितता का सिद्धान्तत – शिक्षा का केन्द्र बालक होता है। अतः बालक को इस योग्य बनाना है कि वह भाषायी कौशलों पर अधिकार प्राप्त कर सके। कभी-कभी हिन्दी या अन्य भाषा का अध्यापक कक्षा में पढ़ाते समय स्वयं तो आनन्द विभोर हो जाता है परन्तु छात्रों को आनन्द की अनुभूति नहीं होती है। भाषा सिखाने एवं सीखने में बालक के स्वभाव, उसके वातावरण एवं योग्यता का ध्यान रखा जाना चाहिए । शब्द – भण्डार की वृद्धि करते समय पहले बालक का शरीर, घर, मोहल्ला और गाँव आदि से सम्बन्धित शब्दों का प्रयोग पूर्णतया आना चाहिए साथ ही बालक उन सभी शब्दों के अर्थ को भी समझ एवं जान सकें। इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए।
  9. प्रारम्भिक अवस्था का महत्त्व – शैशव और बाल्यावस्था भाषा सीखने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसकी भाषा अधिगम की सहज शक्ति मन्द होती चली जाती है। प्रारम्भिक अवस्था में यह शक्ति बहुत सक्रिय रहती है क्योंकि प्रारम्भ में बालक के कण्ठ से भाषा स्वयं ही प्रवाहित होती है। बाद में सोच समझकर सप्रयत्न भाषा सीखी जाती है।
  10. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- कक्षा में यदि बालकों को निष्क्रिय बना दिया जाए तो वे भाषा अधिगम के लिए तत्पर ही नहीं होते। भाषा वे तभी सीख सकते हैं जब वे सक्रिय हों। शिक्षक की सक्रियता से ही काम नहीं चलता बल्कि छात्रों को निष्क्रिय श्रोता बनने की अपेक्षा भाषा का सक्रिय प्रयोगकर्ता होना चाहिए।
    प्रश्नोत्तर के माध्यम से सक्रियता में वृद्धि की जा सकती है। वार्तालाप, संवाद, वाद-विवाद, प्रवचन, काव्य-पाठ आदि में छात्रों को सक्रिय रखा जा सकता है इनके माध्यम से भाषा सीखना भी सरल हो सकता है।
  11. चयन का सिद्धान्त – भाषा – शिक्षा के अनेक उद्देश्य हैं। उद्देश्यों के आधार पर व्यवहार में परिवर्तन भी अनेक प्रकार से किए जा सकते हैं। इनमें से सभी उद्देश्यों एवं व्यवहार परिवर्तनों को एक साथ लेकर शिक्षा नहीं दी जा सकती है। इनमें कौन सा उद्देश्य कब लिया जाए, किसे पहले लिया जाए और किसे बाद में, इन प्रश्नों पर शिक्षक को पढ़ाने से पूर्व विचार कर लेना चाहिए। इनमें क्रम बना कर ही आगे बढ़ना चाहिए ।
  12. अनुकरण का सिद्धान्त-भाषा अधिगम में अनुकरण का विशेष महत्त्व है। शिशु अत्यधिक अनुकरणशील होता है। अनुकरण की प्रवृत्ति बाल्यावस्था में ही नहीं, किशोरावस्था में भी होती है। आगे चलकर यह प्रवृत्ति कम हो जाती है। 1 प्रारम्भ में बालक अनुकरण के आधार पर भाषा सीखता है। वर्णों का उच्चारण अनुकरण पर आधारित होता है। शब्दों का प्रयोग एवं वाक्य योजना अनुकरण का ही परिणाम होता है। अतः छात्रों को अनुकरण के अवसर दिए जाने चाहिए जिससे बालक में शब्दावली का विकास किया जा सके।
  13. अभ्यास का सिद्धान्त – भाषा एक कौशल है और इसका विकास अभ्यास पर ही निर्भर करता है। थॉर्नडाइक के अनुसार, “भाषा एक कौशल है और इसका विकास अभ्यास पर ही निर्भर है।” अभ्यास का क्रम टूट जाने पर भाषा पर अधिकार धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। बहुत से हिन्दी भाषी लोग तेलगू, तमिल, जर्मन, रूसी जैसी भाषाएँ प्रयत्न से सीख लेते हैं किन्तु अभ्यास न करने से बाद में वे इसका सही प्रयोग नहीं कर पाते। भाषा सीखने की आदत डालना आवश्यक है, आदत अभ्यास का परिणाम है। इसलिए भाषा शिक्षण अधिगम में कण्ठस्थ करने का अपना अलग महत्त्व है। भाषा सामग्री को कण्ठस्थ कर लेने से झिझक, संकोच एवं अशुद्धि से बचा जा सकता है।
  14. स्वयं – संशोधन का सिद्धान्त-भाषा अधिगम में बालक स्वयं संशोधन करता चलता है। शिशु यदि राम को लाम् कहता है तो लोग चिढ़ाते हैं तो वह खुद ही अभ्यास के माध्यम से लाम को राम कहना प्रारम्भ कर देता है। अपनी ध्वनियों, शब्दों एवं वाक्यों की त्रुटियों को बालक स्वयं संशोधित कर लेता है। इस संशोधन की सहज प्रवृत्ति का बाद में भी लाभ मिलता है। यदि स्वयं संशोधन मन्द हो जाता है तो भाषां अधिगम की शक्ति भी क्षीण हो जाती है।
  15. बहुमुखी प्रयास का सिद्धान्त-भाषा शिक्षण अधिगम के. लिए अकेले यदि भाषा शिक्षक ही प्रयत्न करता है तो वह सफल नहीं हो पाता। एक घण्टे में वह बालकों के समक्ष भाषा का शुद्ध प्रयोग सिखाएं और इतिहास, भूगोल जैसे विषयों में कठिन शब्दों के कारण बालक अशुद्ध प्रयोग सीखे तो भाषा पर अधिकार सम्भव नहीं होगा। शुद्ध भाषा के प्रयोग का प्रयास बहुमुखी होना चाहिए। सभी विषयों के शिक्षण में इस पर बल दिया जाना चाहिए कि भाषा का प्रयोग बालक द्वारा शुद्ध रूप में किया जाए।
भाषा अधिगम सिद्धान्त को प्रभावित करने वाले कारक
  1. रुचि – किसी भी कार्य को करने हेतु उसमें रुचि होना अति आवश्यक है। बालक यदि अभिरुचि के साथ भाषा सीखता है तो वह उसके व्यवहार में शामिल हो जाती है। रुचि होने से बालक स्वयं भाषा अधिगम के प्रति अभिप्रेरित होते हैं एवं भाषा के प्रति सम्मान रखते हैं।
  2. आवश्यकता – कहा जाता है कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है” अर्थात् आवश्यकता, भाषा अधिगम मुख्य सहायक तत्त्व है। भाषा अधिगम की आवश्यकता प्रत्येक को रहती है।
    भाषा अधिगम के अभाव में, वाक्यों में सार्थकता नहीं रहती है व अर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना रहती है। एक दूसरे के विचारों को जानना एवं समझना भाषा अधिगम के अन्तर्गत ही आला है।
  3. अभ्यास – भाषा अधिगम सतत् प्रयास का सफल परिणाम है। सतत् अभ्यास से भाग व्यावहारिक एवं स्वाभाविक रूप से स्थाई हो जाती है। निरन्तर प्रयास करने से भाषा अधिगम पूर्ण होता है एवं बालक के मस्तिष्क में स्थाई रूप से भाषा ठहरती है। भाषा अधिगम से भाषा परं धीरे-धीरे नियन्त्रण होने लगता है। धीरे-धीरे भाषा में दक्षता आने लगती है।
  4. सामाजिकता – बालक में सामाजिकता के गुणों का विकास करने के लिए उसे भाषा अधिगम में भाग लेना पड़ता है अर्थात् भाषा सीखनी पड़ती है। बालक को सामाजिक बनाने में भाषा का बहुत बड़ा योगदान होता । भाषा ही व्यक्ति को समाज में रहने योग्य बनाती है। समाज में रहकर ही भाषा की उन्नति हो सकती है। भाषा के द्वारा संस्कारों एवं सभ्यता का भी ज्ञान होता है।
  5. सम्पर्क – परस्पर सम्पर्क हेतु भाषा एक आवश्यक माध्यम है। भाषा सम्पर्क के लिए भाषा अधिगम उपयोगी है। भाषा अधिगम से उचित शब्दावली मस्तिष्क में बनती है। नए शब्दों का ज्ञान प्राप्त होता है, पारस्परिक सम्पर्क भाषा ही सबसे उत्तम भाषा है। वास्तव में भाषा अधिगम का मुख्य कारक सम्पर्क ही है क्योंकि मनुष्यों में आपस में विचार प्रदर्शन हेतु भाषा ही एक माध्यम है।
कक्षा-कक्ष में भाषा सिद्धान्त के कार्य 
भाषा का मुख्य कार्य विचारों का आदान-प्रदान करना है। भाषा समाज में सामाजिक अन्तःक्रिया के लिए प्रयोग की जाती है वही कक्षा कक्ष में शिक्षण अधिगम कार्य के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। सम्प्रेषण कक्षा-कक्ष का मुख्य कार्य है जिससे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया आगे बढ़ती है। अध्यापक कक्षा में छात्रों को पाठ पढ़ाता है, व्याख्या करता है, उदाहरण देता है, छात्रों प्रश्न पूछता है छात्रों से उनकी समस्याएं जान कर हल करता है, गृहकार्य देता है आदि सभी में भाषा का प्रयोग करता है। वहाँ छात्र उत्तर देने में समस्याएँ पूछने में दूसरे छात्र से बातचीत करने में शिकायत लगाने में लिखने में गृहकार्य करने में भाषा का प्रयोग करते हैं ।
  1. निर्देश कार्य-कक्षा-कक्ष में छात्रों को नियन्त्रण में रखने के लिए निर्देश दिए जाते है। अनुशासन, आदतें नैतिकता, नियमों का पालन, शैक्षिक निर्देश, माता-पिता के द्वारा भी बालक को निर्देश दिए जाते हैं। प्रत्येक नये कार्य को छात्र सिखाने, समझाने के लिए निर्देश प्रदान किए जाते है।
  2. अभिव्यक्ति कार्य-अध्यापक विषयवस्तु को अभिव्यक्त करता है। छात्र प्राप्त किए ज्ञान को अपने शब्दो के माध्यम से ‘उत्तर’ के रूप में बताते है। छात्र अपनी समस्याओं, इच्छाओं व रुचियों को प्रस्तुत करते हैं तथा अध्यापक उनको पूरा करने के उपाय छात्रों को अभिव्यक्ति करते हैं अर्थात् कक्षा-कक्ष में अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में चलती रहती है।
  3. वार्तालाप / अन्तः क्रिया – कक्षा-कक्ष में अध्यापक छात्र व छात्र – छात्र वार्तालाप करते हैं अध्यापक किसी भी विषय के ऊपर चर्चा करता है। छात्रों को व्याख्यान देता है। छात्रों की अनेक समस्याएँ होती है, उनके बारे में अन्तःक्रिया होती है। छात्र भी अध्यापक से ज्ञान, अनुभव प्राप्त करने के लिए प्रश्न पूछते रहते हैं। छात्र- छात्र भी समय-समय पर कक्षा में चर्चा करते है। बुद्धिमान छात्र कम बुद्धिमान छात्रों की पढ़ाई में सहायता करते है।
    कई बार छात्रों को समूह में कार्य करने को कहा जाता है। इन सभी स्थितियों में छात्र कक्षा में अन्तःक्रिया करते नजर आते हैं। अन्तःक्रिया के लिए किसी न किसी भाषा का प्रयोग करते हैं ।
  4. अभिप्रेरणा के लिए- कला में कई बार अध्यापक छात्रों को अध्ययन कार्य करने, कक्षा कार्य में ध्यान लगाने, अच्छे ग्रेड लाने, विषय में रुचि जगाने, कठिन विषय को सरलता से समझने की कोशिश करने में अभिप्रेरणा देता है। उनमें उत्साह भरता है, आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। अच्छे छात्रों की तारीफ करके उनको उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करता है।
    विभिन्न प्रेरणादायक कहानियों के द्वारा भी छात्रों को प्रेरित किया जाता है । कक्षा में छात्रों में प्रतियोगिता करवा कर, परीक्षा लेकर, प्रश्न उत्तर सुनकर, विचारों को प्रकट क का अवसर देकर भी छात्रों को क्रियाशील बनाया जाता है । इनमें भाषा का ही प्रयोग होता है ।
  5. खोजात्मक कार्य – छात्र नई-नई समस्याओं के हल खोजते हैं। अध्यापकों की मदद लेते हैं साथी दोस्तों की व किताबों आदि से मदद लेकर नई खोज व हल निकलते है। अपने वातावरण के बारे खोज में करता है। क्यों, क्या, कैसे वाले प्रश्न पूछता है। इस प्रकार भाषा का प्रयोग खोज कार्य में करता है।
  6. कल्पना करने के लिए भाषा के प्रयोग छात्र चिन्तन करना शुरू करते है। चिन्तन को आधार बनाकर कल्पना कर सकते हैं। कहानी सुनाना, कहानी को पूरा करना, कविता लिखना व सुनाना, कहानी के चित्रात्मक रूप में प्रस्तुत करना भूमिका अदा करना आदि कल्पना के कार्य भाषा के माध्यम से कक्षा कक्ष में सम्पन्न होते है ।
  7. सूचना प्रदान करना- विद्यालय में किसी भी प्रकार गतिविधियों का आयोजन होता रहता है उनकी सूचना देने के लिए लिखित या मौखिक भाषा का प्रयोग किया जाता है। समय-सारणी आदि भी भाषा के माध्यम से तैयार किया जाता है।
  8. क्षमताओं को व्यक्त करना – छात्रों के अन्दर जो गुण व योग्यताएं छिपी होती है उनको भी भाषा के माध्यम से प्रकट किया जाता है ।
  9. सामाजीकरण करना – भाषा समाज में जन्म लेती है इसका विकास भी समाज में होता है। भाषा का जन्म ही समाज के व्यवहारों के लिए हुआ है। हमें कैसे बोलना है, कैसे रहना है, समाज में हम कैसे रहे यह सारा कार्य भी भाषा सिखाती है भाषा एवं समाज दोनों एक दूसरे पर अवलम्बित है। बिना भाषा समाज मूक- पंगु और दुर्बल बन जाएगा और बिना समाज तो भाषा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
  10. भाषा सामाजिक परिवर्तन का आधार कोई भी समाज स्थायी नहीं रहता। संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। कोई भी भाषा अपरिवर्तन का दावा नही कर सकती। भाषा भी समाज के साथ परिवर्तित होती रहती है। समाज में जो भी परिवर्तन आते हैं भाषा उन्हें आगे तक ले जाती है। समाज में जो भी नए शब्दों का प्रचलन होता है भाषा उन्हें समाज में स्थापित करती है।

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