1st Year

राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का अर्थ एवं परिभाषा लिखिए । नीति निदेशक तत्त्वों का वर्गीकरण कीजिए तथा इसकी विशेषताएँ एवं महत्त्व का विस्तृत वर्णन कीजिए |

प्रश्न  – राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का अर्थ एवं परिभाषा लिखिए । नीति निदेशक तत्त्वों का वर्गीकरण कीजिए तथा इसकी विशेषताएँ एवं महत्त्व का विस्तृत वर्णन कीजिए | 
Write the meaning and definition of Directive Principles of State. Classify the Directive Principles of State and Describe its Characteristics and importance.
उत्तर – भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत् ‘राज्य के नीति निदेशक तत्व’ के नाम से राज्य के पथ-प्रदर्शन के लिए कुछ तत्वों या सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है। इन नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख संविधान के चतुर्थ भाग में किया गया है। अनुच्छेद 37 में इन नीति निदेशक तत्वों के विषय में कहा गया है कि, “इस भाग (4) में दिए गए उपबन्धों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी किन्तु फिर भी इसमें इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य है।”
संविधान के निर्माताओं ने नीति निदेशक तत्त्वों के माध्यम से एक दिशा की ओर संकेत किया है जिसका अनुसरण केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा कानून निर्माण और प्रशासन के सम्बन्ध में किया जाना चाहिए । वस्तुतः संवैधानिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से इनका बहुत अधिक महत्त्व है। इनका लक्ष्य हैआर्थिक और सामाजिक न्याय या दूसरे शब्दों में आर्थिक और सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना ।
ये भारतीय राजनीति के सर्वोच्च सिद्धान्त हैं। इन तत्त्वों का नैतिक आदर्शों के रूप में अत्याधिक महत्त्व है कई संविधान विशेषज्ञों, विद्वानों और न्यायधीशों ने इनके महत्त्व के सम्बन्ध में अपने विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किए हैं
एल. जी. खेडेकर के अनुसार, “नीति निदेशक, वे आदर्श हैं जिनकी पूर्ति का सरकार प्रयत्न करेगी।”
According to L.G. Khedekar, “The principles are the ideals towards attainments of which the government will endeavour.”
एम.सी. सीतलवाड़ के अनुसार, “राज्य नीति के इन मूलभूत तत्वों को वैधानिक शक्ति प्राप्त न होते हुए भी इनके द्वारा न्यायालय के लिए उपयोग प्रकाश स्तम्भ का कार्य किया जाता है। “
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) के अनुसार, “नीति निदेशक सिद्धान्तों को बनाने का उद्देश्य अन्य बातों के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक लोकतन्त्र स्थापित करना है। *
प्रो. बी. के गोखले ( Prof. B.K. Gokhale) के अनुसार, “न्याय, स्वतन्त्रता एवं समानता विद्यमान हो तथा नागरिक सुखी एवं सम्पन्न हो, ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना ही नीति निदेशक तत्त्वों का प्रमुख उद्देश्य है।
डॉ. एम. सी. छागला (Dr. M.C. Chhagla) के अनुसार, ‘नीति निदेशक तत्वों को क्रियान्वित करने से भारत पृथ्वी पर स्वर्ग बन जाएगा।
ये शासन के पथ-प्रदर्शक होते हैं, इनके पीछे कोई कानूनी सत्ता नहीं होती है। यह राज्य के नैतिक कर्तव्य होते हैं इसलिए यह राज्य की इच्छा पर होता है कि वे इनका पालन करें अथवा न करें। अन्ततः हम कह सकते है कि भारत के संविधान में प्रमुख लोकतंत्र, समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों से सम्बन्धित मूल्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति, विचार, धर्म व पूजा की स्वतंत्रता है। भिन्न-भिन्न धर्म जाति के लोग अपने-अपने धर्म के अनुसार रह सकते हैं, त्योहारों को मना सकते हैं तथा अपने धार्मिक सम्मेलनों आदि का आयोजन कर सकते हैं।
नीति निदेशक तत्वों का वर्गीकरण (Classification of Directive Principles)
भारतीय संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 36 व अनुच्छेद 37 में नीति निदेशक तत्त्वों की सामान्य जानकारी दी गई है।
“अनुच्छेद 38 से अनुच्छेद 51 तक नीति निदेशक तत्त्वों का विवरण निम्नलिखित है
  1. राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करें (अनुच्छेद 38 )
    1. राज्य सरकार को राज्य की नीतियाँ बनाते समय इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे ऐसी नीतियाँ बनाएँ जिससे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं की प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण हो सके एवं नागरिकों का कल्याण हो ।
    2. राज्य ऐसी नीतियों का निर्माण करेगा जिससे आय की असमानताओं को कम किया जा सके। विभिन्न क्षेत्रों एवं विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए नागरिकों के समूहों के मध्य भी अवसरों की असमानता, सुविधा एवं प्रतिष्ठा को समाप्त किया जा सके।
  2. ज्य द्वारा अनुकरणीय नीति निदेशक तत्व (अनुच्छेद 39 ) – राज्य अपनी नीतियों का निर्माण करके यह सुनिश्चित करेगा कि –
    1. लिंग भेद के कारण वेतन में अन्तर न हो अर्थात् स्त्री एवं पुरूष के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन का भुगतान किया जाए।
    2. नीति निर्धारण इस प्रकार हो कि धन एवं उत्पादन साधनों का आम नागरिकों के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो सके।
    3. नीति का निर्धारण कुछ इस प्रकार का हो जो सामूहिक हित के लिए सर्वोत्तम हो और जिससे समुदाय के भौतिक संसाधन एवं स्वामित्व का नियन्त्रण ठीक प्रकार से हो सके।
    4. राज्य ऐसी नीतियों का निर्धारण करे जिससे कि पुरूष एवं स्त्रियों के स्वास्थ्य, शक्ति एवं बालकों की सकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो सके एवं किसी भी नागरिक को आर्थिक तंगी से विवश होकर कोई ऐसा रोजगार न करना पड़े जो उसकी आय एवं शक्ति के अनुकूल न हो।
    5. ऐसे स्वतन्त्र, गरिमापूर्ण वातावरण एवं सुविधाएँ दी जाए जिससे नागरिकों को स्वस्थ विकास का अवसर प्राप्त हो और नागरिकों की आर्थिक एवं नैतिक परित्याग से रक्षा हो सके ।
    6. सभी नागरिकों को जीविकोपार्जन करने के पर्याप्त साधन को प्राप्त करने का अधिकार मिल सके।
  3. समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता (अनुच्छेद 39(A)) — राज्य को विशेष रूप से यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए। उपर्युक्त विधान या अन्य रीति से नागरिकों के निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विधिक तत्त्व इस प्रकार से कार्य करे कि नागरिकों को समान रुप से न्याय सुलभ हो सके।
  4. ग्राम पंचायतों का संगठन (अनुच्छेद 40 ) – ग्राम पंचायतों को राज्य सरकार द्वारा ऐसी शक्तियों एवं प्राधिकार प्रदान किए जाएंगे जो उन्हें स्वयन्त शासन की इकाईयों के रुप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों साथ ही साथ ग्राम पंचायतों के संगठन के लिए राज्य को उचित प्रयत्न करने होंगे।
  5. कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार (अनुच्छेद 41 ) राज्य को अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के अन्दर अपने नागरिकों को लोक सहायता देने का प्रभावी प्रबन्ध करना होगा जिससे वे काम पाने, शिक्षा पाने, बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी, निःशक्तता तथा अन्य किसी अभाव में जीवनयापन करने को मजबूर न हों।
  6. काम की मानवोचित एवं न्याय संगत तथा प्रसूति सहायता की व्यवस्था (अनुच्छेद 42 ) – राज्य सरकार को ऐसी नीतियों का निर्धारण करना होगा जिससे नागरिकों को न्याय संगत एवं मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता सुनिश्चित रूप से प्राप्त हो सके।
  7. कर्मकारों की निर्वाह मजदूरी आदि (अनुच्छेद 43 ) – राज्य सरकार द्वारा ऐसी नीतियों के निर्धारण की अपेक्षा की जाती है जिससे उचित विधान, आर्थिक संगठन या किसी अन्य रीति से कृषि, उद्योग या अन्य प्रकार के •सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, अच्छे जीवन-स्तर और अवकाश के सम्पूर्ण उपभोग कराने वाली दशाएँ एवं सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर नागरिकों को प्राप्त हो सकें। विशेष तौर पर ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सरकारी आधार पर बढ़ाने के लिए भी नीतियों का निर्धारण राज्य सरकार को करना होगा।
  8. उद्योगों के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना [अनुच्छेद 43(A)]—राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों या संगठन के प्रबन्ध हेतु कर्मचारियों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए अन्य रीति से कदम उठाएगा।
  9. नागरिकों के लिए एक समान व्यवहार संहिता (सिविल कोड) (अनुच्छेद 44 )- राज्य सरकारों को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना होगा कि प्रत्येक नागरिक को एक समान व्यवहार संहिता (सिविल कोड) प्राप्त हो सके।
  10. बालकों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध ( अनुच्छेद 45 ) – राज्य ऐसी नीतियों का निर्धारण करेगा जिससे उस राज्य के प्रत्येक 14 वर्ष तक की आयु के बालकों की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध हो सके।
  11. छः वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए शिशु देखभाल का प्रबन्ध [अनुच्छेद 45 (A)] – संविधान के 46वें संशोधन के पश्चात् नए प्रावधान के अनुसार, राज्य सरकार को राज्य के सभी बालकों के लिए उनके 6 वर्ष की आयु पूरी करने तक उनकी बाल्यावस्था देख-रेख और उनको शिक्षा देने का उचित प्रबन्ध करना होगा ।
  12. अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों की अर्थ एवं शिक्षा सम्बन्धी हितों की रक्षा एवं अभिवृद्धि (अनुच्छेद 46 ) – राज्य को ऐसी नीतियों का निर्धारण करना चाहिए जिससे समाज के दुर्बल वर्ग विशेष तौर से अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के अर्थ एवं शिक्षा सम्बन्धी हितों की रक्षा हो सके साथ ही साथ उन्हें सामाजिक अन्याय एवं अन्य प्रकार के शोषणों से बचाया जा सके।
  13. पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊँचा उठाने एवं लोक स्वास्थ्य के सुधार हेतु (अनुच्छेद – 47 ) – राज्य ऐसी नीतियों का निर्धारण करेगा जिससे वह अपने राज्य के नागरिकों के पोषाहार स्तर एवं जीवन स्तर को ऊँचा उठा सकें। लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपना परम कर्त्तव्य मानते हुए ऐसी नीतियों का निर्धारण करना होगा जिससे मुख्य रूप से मादक पेयों एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न इनके उपयोगों को रोका जा सके।
  14. कृषि एवं पशुपालन के संगठन का दायित्व ( अनुच्छेद – 48 ) – राज्य ऐसी नीतियों के निर्धारण का प्रयास करेगा जो कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने में सहायक हो और मुख्य रूप से गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू एवं वाहक पशुओं की नस्लों के परीक्षण एवं सुधार में सहायक हों एवं उनके वध पर रोक लगाने में सक्षम हों ।
  15. पर्यावरण का संरक्षण, वन्य जीवों और वन की रक्षा एवं उनका संवर्धन (अनुच्छेद-48 (A)) – राज्य को ऐसी नीतियों का निर्धारण करना होगा जिससे देश के पर्यावरण का संरक्षण और सुधार हो सके। वन एवं वन्य जीवों की रक्षा एवं संवर्धन भी हो ।
  16. राष्ट्रीय स्मारकों, वस्तुओं एवं स्थानों का संरक्षण (अनुच्छेद-49) – राष्ट्रीय स्मारकों, वस्तुओं एवं स्थानों के संरक्षण हेतु प्रभावी नीति का निर्धारण करना राज्य का परम कर्त्तव्य होगा।
  17. राज्य की लोक सेवाओं में न्याय पालिका से कार्यपालिका का पृथक्करण (अनुच्छेद-50 ) – नीतियों का निर्धारण कुछ इस प्रकार हो जिससे लोक सेवा में न्याय पालिका को कार्य पालिका से पृथक्करण किया जा सके।
  18. अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा एवं शान्ति की अभिवृद्धि (अनुच्छेद-51 ) – इसके अन्तर्गत् राज्य ऐसी नीतियों को बनाने का प्रयास करेगा जिससे निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव हो सके-
    1. अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा एवं शान्ति की अभिवृद्धि ।
    2. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थ द्वारा निपटाने का प्रोत्साहन का प्रयास ।
    3. राष्ट्रों के मध्य सम्मानपूर्ण एवं न्याय संगत सम्बन्ध बनाने का प्रयास ।
    4. एक दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं बाध्यताओं के प्रति सम्मान की अभिवृद्धि हेतु ।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों की विशेषताएँ (Characteristics of Directive Principles of State) 
  1. कानून बनाने में मार्गदर्शक के रूप में ( To Give Guidance in Framing Laws) – केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, कानून बनाते समय उन्हें नीति निदेशक तत्वों को ध्यान में रखना होता है।
  2. कानूनी रूप से मान्य न होना (Judicially Illegible)—इन नीतियों को कानूनी मान्यता नहीं दी गई हैं, अर्थात्, ये किसी भी प्रकार का कानूनी अधिकार नागरिकों को प्रदान नहीं करते हैं। इन्हें किसी न्यायालय द्वारा सरकारों पर थोपा नहीं जा सकता।
  3. आधारभूत (Fundamental)— नीति निदेशक तत्त्व संविधान में मूलभूत स्थान रखते हैं। भले ही इन्हें न्यायालय द्वारा लागू न किया जा सकता हो ।
राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का महत्त्व ( Significance of the Directive Principles of State)
नीति निदेशक तत्वों को भारतीय संविधान में इस उद्देश्य से सम्मिलित किया गया था कि इन्हें ध्यान में रखकर इस प्रकार की नीतियों का निर्धारण किया जाए जिससे एक आदर्श भारतीय समाज की स्थापना की जा सके। न्याय को सामाजिक व्यवस्था का आधार माना गया है। सभी क्षेत्रों का न्याय से सीधा सम्बन्ध होता है। शिक्षा का क्षेत्र भी उनमें से एक है। केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं, वे निम्नलिखित हैं-
  1. अनुच्छेद–38(A) – कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रमों हेतु ।
  2. अनुच्छेद – 40, 243 पंचायती राज और प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था एवं विकास हेतु ।
  3. अनुच्छेद – 41विशेष परिस्थितियों में शिक्षा के अधिकार हेतु ।
  4. अनुच्छेद 45 – बालक की बाल्यावस्था देख-रेख एवं उनकी शिक्षा के प्रबन्ध हेतु ।
  5. अनुच्छेद-46- पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की शैक्षिक सुविधाओं के प्रबन्ध हेतु ।
  6. अनुच्छेद – 47 – प्राथमिक विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था हेतु ।
  7. अनुच्छेद-48 (A) पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा की व्यवस्था हेतु।
  8. अनुच्छेद-49- संस्मारकों के संरक्षण की व्यवस्था हेतु । संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि नीति निदेशक तत्त्व शैक्षिक लोकतन्त्र के आधारभूत प्रकाश स्तम्भ हैं। जिनके प्रयोग से नागरिकों की आर्थिक, सामाजिक एवं न्यायिक समता का प्रयास किया जाता है। इन्हीं के प्रयोग से प्रशासनिक अवस्था के सुधार का प्रयास भी किया जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *