1st Year

लेखन कौशल कितने प्रकार का होता है? वर्णन कीजिए | How many types of writing skills are there ? Describe it.

प्रश्न  – लेखन कौशल कितने प्रकार का होता है? वर्णन कीजिए | How many types of writing skills are there ? Describe it.
उत्तर – लेखन कौशल के प्रकार (Types of Writing Skills)
  1. कहानी – कहानियाँ मानव सभ्यता के आदिकाल से ही मनोरंजन एवं आनन्द का साधन रही हैं। केवल मनोरंजन ही नहीं वरन् शिक्षा प्रदान करने, नीति और उपदेश देने हेतु भी अच्छे साधन का काम करती रही हैं। मानव व्यवहार सम्बन्धी नीतिपूर्ण, उपदेशात्मक कहानियों के लिए हिन्दी में ‘पंचतंत्र’ और ‘हितोपदेश’ जैसी रचनाओं को लिखा गया है। कहानी गद्य साहित्य की एक काफी सशक्त एवं रोचक विधा है। इसके माध्यम से जीवन की जटिलताओं और विस्तृत प्रभावशाली घटनाओं को कल्पना के सहारे कथानक में पिरोकर भाषा के धरातल पर उपस्थित किया जाता है।इसमें लेखक की समस्त शक्ति किसी घटना, भाव या समस्या पर केन्द्रित रहती है। कहानी सुनाना व सुनना दोनों ही मानव जनित व्यवहार है। प्राचीनतम् कहानियों का स्वरूप हमें बौद्धकालीन ‘जातक कथा’ तथा साहित्य व पुराणों से प्राप्त होता है। आधुनिक साहित्यिक विधाओं, दैनिक जीवन के नाटकों एवं चलचित्रों आदि में भी कहानी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहानी एक तरफ साहित्य की विधा है तो वहीं मनोरंजन का साधन भी है।

    चार्ल्स वैरेट, “कहानी एक लघु वर्णनात्मक रचना है, जिसमें वास्तविक जीवन को कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कहानी का प्रमुख उद्देश्य – मनोरंजन करना है। ”

    कोपोल्ड-नाइट ने कहानी को इस प्रकार परिभाषित किया है कि “आधुनिक कहानी नाटक के गुणों से युक्त एक रचना है जिसमें हल करने के लिए एक समस्या हो, हल की प्राप्ति में एक बाधा हो, संकटापन्न स्थिति हो, नाटक की भाँति असमंजस के क्षण हों और इन क्षणों की चरम स्थिति हो।” उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के बाद कहा जा सकता है कि –
    1. कहानी में कौतूहल व जिज्ञासा होती है।
    2. कहानी का उद्देश्य निश्चित होता है।
    3. कहानी में जीवन की वास्तविकता होती है।
    4. कहानी में घटना या भावनाओं की प्रधानता होती है।
    5. कहानी गद्य साहित्य की एक प्राचीन, लघु एवं आवश्यक विधा है।
    6. कहानी में वास्तविकता एवं कल्पना
  2. पत्र – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक होने के कारण वह एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है। अपने अनुभव एवं विचारों को दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करके दूसरों के अनुभव व सुख-दुःख को बाँटता है। मशीनीकरण एवं औद्योगीकरण के इस युग ने व्यक्तियों को सुदूर स्थानों में अपने परिचितों से अलग होकर रहने को बाध्य कर दिया है।इन सुदूर स्थानों में रहने वाले अपने मित्रों एवं सगे-सम्बन्धियों से सम्पर्क बनाए रखने के कई उपाय हैं, जैसे- ई-मेल, दूरभाष पत्र लेखन आदि परन्तु जनसंचार के अन्य माध्यमों में संक्षेप में बातचीत हो पाती है जबकि पत्र लेखन करके विस्तारपूर्वक अपने मनोभावों को स्पष्ट किया जाता है। पत्रों के द्वारा अपने परिचितों को किसी विशेष अवसर पर आने के लिए आमन्त्रण अथवा किसी कष्ट या विपत्ति की सूचना दी जाती है।
  3. निबन्ध – निबन्ध का शाब्दिक अर्थ होता है बाँधना अर्थात् भाषा के माध्यम से क्रमहीन विचारों को क्रम प्रदान करना । कल्पद्रुम के अनुसार, नि+बन्ध+धञ… निश्चतार्थेन विषयम अधिकृत्य बन्धनम् अर्थात् किसी निश्चित विषय पर विचारों को सूचीबद्ध करना निबन्ध कहलाता है। कालान्तर में अर्थ संकोच के कारण इसका प्रयोग साहित्यिक रचना के लिए किया जाने लगा। आधुनिक युग में ‘बाँधना’ के अर्थ में अभिप्रेत, किसी विषय पर विचारों को बाँधना अथवा “संगठित करना समझा गया। निबन्ध लेखन से अभिप्राय है , किसी भी लेख का सधा हुआ एवं बँधा हुआ होना। यह एक ऐसी लेखन विधा है जिसमें किसी विशेष विषय पर व्यक्ति द्वारा अपने विचारों को क्रमानुसार लिखित रूप में प्रदर्शित किया जाता है। निबन्ध एक प्रकार से किसी भी व्यक्ति के विचारों का आत्म-प्रकाशन है। यह विचाराभिव्यक्ति जितनी सरल, स्वतन्त्र व सजीव होगी निबन्ध उतना ही प्रभावशाली और सराहनीय रहेगा।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबन्ध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तिगत विशेषता हो ।”

    आधुनिक निबन्धों के जन्मदाता मैन्तेन के अनुसार, “निबन्ध विचारों, उद्धरणों एवं कथाओं का सम्मिश्रण है । ”

    निबन्ध विचारों, भावनाओं एवं प्रतिक्रियाओं का संवरा हुआ रूप है। एक निबन्धकार जीवन के छोटे-छोटे चित्र खींचता है और जीवन के प्रत्येक पहलू में जो कुछ प्रतिक्रिया होती है उसे अपने निबन्ध के माध्यम से व्यक्त करता है। किसी सिद्धान्त या मत का प्रतिपादन निबन्धकार नहीं करता है अपितु मनोनीत विषय को अपने ढंग से अभिव्यक्त करता है।

  4. अनुच्छेद लेखन – अनुच्छेद लेखन गद्य की लघुत्तम विधा है। इसमें किसी विचार, सक्ति, अनुभव, किसी घटना या दृश्य को कम से कम सात या आठ पंक्तियों में व्यक्त करना होता है।
    अनुच्छेद-लेखन का उदाहरण
    मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं – मानव मन ही उसके उत्थान या पतन का कारण होता है। जब मानव मन की उमंग पर सवार होकर पुरुषार्थ करता है, तब उसके मार्ग की सारी बाधाएँ ऐसे ही दूर हो जाती है, जैसे सूर्योदय होते ही गगन के तारक – दल । वहीं पर जो भाग्य को मानकर पुरुषार्थ छोड़ देता है, वह जीवनभर पछताते रहता है। इतिहास साक्षी है कि आदिम युग में सभी जीव (मानव भी) जानवरों की तरह जीवन व्यतीत करते थे। पुरुषार्थ के कारण मानवाभ बन्दर (बन्दरों की एक खास प्रजाति) आज सभ्य और सुसंस्कृत मानव बन बैठा और अन्य जानवर पुरुषार्थ – विहीन होने के कारण मनोवांछित फल पाता है तो भाग्यवादी मानव निराशा, अविश्वास, आलस्य, ईर्ष्या आदि के कारण असफल होकर विपत्तियों से घिरा सिसकता रहता है। स्पष्ट है कर्म के साथ फल की अनिवार्यता । अतएव, हमें सदैव इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि कर्म भाग्य को बदलता रहा है। हम अपनी सफलता या असफलता के खुद जिम्मेदार हैं। कर्मठ व्यक्तियों का कथन होता है।

    “कहिए, तो आसमां को भी
     जमीं पर उतार लाएँ ।
     मुश्किल नहीं है, कुछ भी
    अगर ठान लीजिए | “
  5. संवाद-लेखन- ‘संवाद’ संस्कृत भाषा का शब्द है। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् वामन शिवराम आप्टे ने अपने कोशों में इस शब्द के जो अर्थ दिए हैं तदनुसार संवाद के अर्थ, मिलकर बोलना, बातचीत, कथोपकथन, चर्चा, वाद-विवाद, समाचार देना, सूचना समाचार स्वीकृति, सहमति, समानुरूपता, मेलजोल, समानता, सादृश्य हैं। शब्दकल्पद्रुम में संवाद का अर्थ ‘संदेशवाक्यम्’ (Massenger Sentence) के रूप में दिया गया है। संक्षेप में कहें तो जहाँ भी कथोपकथन अथवा वार्तालाप द्वारा कुछ संप्रेषित किया जाता है, वह संवाद होता है। सिनेमा में संवाद का जो अर्थ लिया जाता है और जिस रूप तथा जिस परिवेश में संवाद का प्रयोग होता है उसे देखने पर पता चलता है कि स्थूल रूप में सिनेमा में जहाँ भी शब्द का प्रयोग हुआ वह संवाद का रूप ले लेता है।
    इस सम्बन्ध में सत्यजीत राय का कथन है कि “स्क्रीन प्ले लिखना साहित्य लेखन की तरह नहीं है। साथ ही फिल्म में बढ़िया संवाद वही होगा जहाँ दर्शक, संवाद-लेखक की उपस्थिति महसूस न करें।” संवाद वास्तव में वाक्य की शैली है जिसमें बातचीत, संबोधन, प्रश्नोत्तर, भावमूलक अभिव्यक्ति का समावेश रहता है। ये भाषा के अभिव्यक्तिपरक कौशल हैं, जो वक्ता – श्रोता और अभिनेता से जुड़े हैं।
  6. सार संक्षेपण – किसी गद्यांश के मुख्य भावों को समझकर उसे संक्षेप में लिखना ही सार लेखन या संक्षेपण कहलाता है। इसमें गद्यांश के मूल बातों या भावों को इस तरह संक्षिप्त किया जाता है कि वह मूल गद्यांश का एक तिहाई हो जाय और कोई भी मुख्य बात या भाव छूटने न पाए। सार लेखन या संक्षेपण के लिए सतत् अभ्यास की जरूरत होती है। अभ्यास द्वारा इसके लेखन में महारत हासिल की जा सकती है। इस सन्दर्भ में कुछ विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -जे.बी.सी. बरनार्ड के अनुसार संक्षेपण किसी लिखित सामग्री के आधारभूत तथ्यों का सुनियोजित संक्षिप्त इतिवृत्त है।”

    डॉ. विल्सन के शब्दों में, “किसी मूल लेख, पत्र-व्यवहार अथवा भाषण को वास्तविक तथ्यों सहित सुनियोजित ढंग ये प्रस्तुत करना ही संक्षेपीकरण कहलाता है। ”

    संक्षेपण’ वह कला है जिसे अनुभव और ज्ञान के सम्बद्ध सिद्धान्तों का ध्यान रखते हुए साधा जाता है। ‘संक्षेपण’ अंग्रेजी के प्रेसी’ शब्द के लिए प्रयुक्त होने वाला वह शब्द है, जिसे संक्षिप्त लेखन, संक्षिप्तीकरण, संक्षिप्त रूप तथा संक्षेपीकरण आदि नामों से भी जाना जाता है। ‘संक्षेप’ शब्द – संक्षिप् के योग से बना है जिसका अर्थ है ठीक प्रकार से फेंकना। ठीक प्रकार से तथा अपेक्षित लक्ष्य तक छोटी (संक्षिप्त) वस्तु को ही फेंका जा सकता है। अतः संक्षेप का अर्थ हुआ किसी चीज का छोटा रूप ।

    मूलतः फ्रेंच शब्द ‘प्रेसी को पहले अंग्रेजी में स्वीकारा गया तथा फिर हिन्दी में रूपान्तर कर इसे संक्षेपण कहा गया। अंग्रेजी में हालांकि पहले से ही ‘समरी’ तथा ‘सस्टेंस’ शब्द विद्यमान रहे हैं, किन्तु ध्यातव्य है कि ‘समरी’ और ‘सस्टेंस शब्दों के हिन्दी पर्याय क्रमशः ‘सारांश’ तथा ‘सार’ से भिन्न हैं। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि संक्षेपण एवं सार- लेखन का उद्देश्य किसी विस्तृत विषय-वस्तु या पाठ के मूल भावों को संक्षिप्त रूप में या कम से कम वाक्यों में प्रस्तुत करना मानते हैं। जबकि ‘संक्षेपण’ ‘सार-लेखन’ तथा सारांश आदि में पर्याप्त अंतर होता है।

    ‘संक्षेपण’ मूल का एक तिहाई ( 1 / 3 ) होता है तथा ‘सारांश’ मूल का लगभग (1 / 20) हिस्सा होता है। इसी तरह ‘निष्कर्ष’ सारांश से भी छोटा होता है। ‘सांराश’ में केवल मुख्य बात को अत्यधिक संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है जबकि प में मूल विषय की सभी बातों को क्रमबद्ध रूप में लगभग एक तिहाई शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है।

    उदाहरण- बहुत लोग समझा करते हैं कि शिक्षा केवल इसलिए प्राप्त करना आवश्यक है जिससे हमें रूपए की प्राप्ति हो । आजकल इस विचार के लोगों की संख्या भारत में बहुत अधिक है। ऐसे लोग शिक्षा के वास्तविक आनन्द से सर्वथा वंचित रहते हैं। यह हम भी मानते हैं कि रूपया कमाना भी एक आवश्यक कार्य है। यह कार्य भी शिक्षा से ही होता है, किन्तु शिक्षा का अन्तिम ध्येय इसे ही बना लेना बड़ी भारी भूल है। शिक्षा प्राप्त कर धनोपार्जन अवश्य करना चाहिए, किन्तु शिक्षा के परिणामस्वरूप स्वयं आनन्द करते हुए दूसरों की सुख- समृद्धि को भी बढ़ाना चाहिए। (मूल शब्द संख्या 85)

    शीर्षक- शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य

    संक्षेपण – बहुत से लोग शिक्षा प्राप्ति का लक्ष्य केवल धनोपार्जन मानते हैं, पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है । धनोपार्जन के साथ ही स्वयं आनंद – लाभ करते हुए दूसरों की सुख समृद्धि को बढ़ाना ही शिक्षा प्राप्ति क वास्तविक लक्ष्य है।

  7. रिपोर्ताज- ‘रिपार्ताज’ फ्रांसीसी भाषा का शब्द है । अंग्रेजी के ‘रिपोर्ट’ शब्द से भी जुड़ा हुआ है। ‘रिपोर्ट’ किसी घटना की ठीक-ठीक सूचना होती है। सूचना देने अथवा संवाद भेजने के कार्य को ‘रिर्पोटिंग’ कहा गया है। पत्रकारों की इस ‘रिर्पोटिंग’ ने ही ‘रिपार्ताज’ विधा को जन्म दिया । ‘रिपोर्ताज’ एक ऐसी विधा है जिसमें किसी घटना का अत्यंत सूक्ष्म और हृदयग्राही विवरण इस प्रकार दिया जाता है कि पाठक की आँखों के समक्ष घटना चित्रपट के चित्र की भांति सजीव हो उठे । कलात्मक और साहित्यिकता भी उसमें समाहित रहती है। इस विधा का प्रारम्भ पश्चिम से हुआ। विशेषतः द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यह विधा अत्यधिक विकसित हुई।

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