1st Year

लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में विद्यालय, साथी, पाठ्य-पुस्तक एवं पाठ्यचर्या आदि की भूमिका का वर्णन कीजिए ।

प्रश्न  – लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में विद्यालय, साथी, पाठ्य-पुस्तक एवं पाठ्यचर्या आदि की भूमिका का वर्णन कीजिए ।
Explain the Role of School, Peers, Curriculum and Textbooks in Reinforcing Gender Parity.
या
उचित उदाहरण सहित, लिंग समानता को बढ़ावा देने के लिए विद्यालय की भूमिका की विवेचना करें।
Discuss the role of school in promoting gender equality with the help of suitable example.
उत्तर- लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में विद्यालय की भूमिका (Role of School in Reinforcing gender Parity)
  1. अभिभावक शिक्षक संघ का निर्माण (Construction of Parents-Teacher Association)- लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने के लिए विद्यालय में अभिभावक-शिक्षक संघ का निर्माण किया जाना चाहिए तथा इसके निर्माण में माताओं को आगे लाना चाहिए। अभिभावक शिक्षक बैठक का आयोजन 15 दिन पर या महीने में एक बार होना चाहिए जिसमें बालक एवं बालिकाओं से सम्बन्धित विविध प्रकार की समस्याओं पर गहनता से विचार विमर्श होना चाहिए। यदि अभिभावक द्वारा बालक व बालिका में किसी प्रकार का भेदभाव किया जाता है तो उस पर भी इन बैठकों में विचार-विमर्श होना चाहिए ताकि लैंगिक समानता स्थापित हो सके।
  2. नामांकन में समानता (Equality in Enrollment)विद्यालयों में अपने क्षेत्र विशेष में सर्वेक्षण कराते हुए विद्यालय जाने वाले 6 से 14 वर्ष के बालक व बालिकाओं का नाम अंकित करते हुए एक अभिलेख तैयार करना चाहिए तथा जो भी अभिभावक अपने पाल्य का विद्यालय में नामांकन नहीं कराते विद्यालय प्रबन्धन को उनके घर जाकर सम्पर्क करना चाहिए। सभी बालक एवं बालिकाओं का विद्यालय में नामांकन कराने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए ताकि शत्-प्रतिशत नामांकन की स्थिति लाई जा सके ।
  3. कक्षा-कक्ष प्रबन्धन में समानता (Equality in Classroom Management) – कक्षा – कक्ष प्रबन्धन में बालक एवं बालिकाओं को समान अवसर प्रदान करने चाहिए। मॉनीटर के पद पर कार्य करने के लिए दोनों को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए । बालिकाओं को नेतृत्व सम्बन्धी कार्यों के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इन कार्यों में यदि छात्राओं में आत्मविश्वास की कमी दिखाई दे तो विद्यालय प्रबन्धन द्वारा उनमें आत्मविश्वास जाग्रत करना चाहिए ।
  4. आन्तरिक एवं बाह्य गतिविधियों में समानता (Equality in Indoor and Outdoor Activities) – विद्यालय में आन्तरिक गतिविधियों में समानता की स्थिति होनी चाहिए। यदि किसी बालिका की रुचि ऊँची कूद व लम्बीकूद जैसी प्रतियोगिता में भाग लेने की हो तो उसको यह अवसर प्रदान करने चाहिए यदि किसी बालक की रुचि लोक नृत्य, संगीत, लोक नाट्य आदि में भाग लेने की हो तो उसको भी यह अक्सर मिलना चाहिए। अतः इन आन्तरिक गतिविधियों में बालक व बालिकाओं का पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए जिससे वह उचित आन्तरिक गतिविधि का चयन कर सके एवं लैंगिक समानता सीपित हो सके। विभिन्न बाह्य गतिविधियों, जैसे- शैक्षिक भ्रमण, खेल प्रतियोगिताएँ तथा एन.सी.सी. आदि में भी समानता होनी चाहिए।
  5. निर्देशन एवं परामर्श में समानता (Equality in Guidance and Counselling) – विद्यालय में बालक एवं बालिकाओं को निर्देशन एवं परामर्श देते समय किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए बल्कि बालक एवं बालिकाओं को उनकी योग्यता, रुचि एवं क्षमता को देखते हुए उन्हें निर्देशन व परामर्श देना चाहिए। इसी से प्रत्येक बालक व बालिकाओं को शैक्षिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में सर्वोत्तम उन्नति करने के अवसर प्राप्त होंगे।
  6. शैक्षिक गतिविधियों में समानता (Equality in Educational Activities) – शैक्षिक गतिविधियों में बालक एवं बालिकाओं में कोई विभेद नहीं होना चाहिए। बालक एवं बालिकाओं की रुचि के अनुसार उन्हें पाठ्यक्रम उपलब्ध कराना चाहिए।
  7. विद्यालय प्रबन्ध समिति में लैंगिक समानता पर विचार-विमर्श (Discussion on Gender Equality in School Management) – किसी भी विद्यालय की प्रबन्ध समिति में स्त्री एवं पुरुष दोनों ही होते हैं । अतः बैठक में लैंगिक असमानता से होने वाली हानियों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर समाजशास्त्रियों व दार्शनिकों को भी बैठक में आमन्त्रित किया जाना चाहिए। इससे विद्यालय एवं सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं में लैंगिक भेदभाव समाप्त हो सकेगा।
  8. सकारात्मक सोच का विकास (Development of Positive Thinking) – विद्यालयी व्यवस्था में प्रायः नकारात्मक एवं रूढिवादी विचारों वाले अध्यापक होते है। ऐसे अध्यापक छात्राओं को सलाह देने में भी संकोच करते हैं। परन्तु विद्यालय प्रबन्ध समिति में अभिभावकों के समक्ष सभी पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए । इसमें समिति को समझना चाहिए कि बालक व बालिकाएँ किसी भी रूप में एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। इस प्रकार का विद्यालय में प्रत्येक शिक्षक प्रधानाध्यापक, बालक व बालिकाओं में सकारात्मक सोच का विकास होगा व लैंगिक समानता की स्थापना हो सकेगी।
लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में साथी समूहों की भूमिका (Role of Peers in Reinforcing Gender Parity) 
  1. समर्पण की भावना ( Spirit of Devotion)- जिस प्रकार एक परिवार में भाई का बहन, बहन का भाई, भाई-भाई, बहन-बहन के प्रति समर्पण भाव पाया जाता है ठीक उसी प्रकार समूह के प्रत्येक सदस्य में समर्पण की भावना होनी चाहिए अर्थात् प्रत्येक बालक का बालिका के प्रति तथा बालिका का बालक के प्रति समर्पण होना चाहिए। इस समर्पण के आधार पर बालिका द्वारा बालक के उन्नयन एवं बालक द्वारा बालिका के उन्नयन का प्रयास किया जा सकेगा। इससे भी लैंगिक असमानता प्रभावित होगी तथा लैंगिक समानता को बल मिलेगा।
  2. सम्मान की भावना का समावेश ( Inclusion of Spirit of Respect) – समूह में प्रत्येक सदस्य के द्वारा एक-दूसरे की भावना चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों का समान रूप से सम्मान किया जाना चाहिए। इससे दोनों में एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना विकसित होगी। अन्याय तथा असमानता का उन्मूलन त्याग की स्थिति में ही स्वाभाविक रूप से होता है अतः इससे लैंगिक समानता स्थापित होती है।
  3. मानवीय सम्बन्धों की स्थापना (Establishment of Human Relationships) – समूह के प्रत्येक सदस्यों के बीच मानवीय सम्बन्ध स्थापित होने चाहिए। इस स्थिति में प्रत्येक छात्र अपनी शैक्षिक तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति से पहले समूह के प्रत्येक सदस्य की शैक्षिक तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करेगा। जिसमें उसके बालक व बालिका होने से कोई भी अंन्तर नहीं आएगा तथा इससे लैंगिक समानता की स्थापना होगी।
  4. नैतिकता की भावना का समावेश (Inclusion of Spirit of Morality) – समूह में बालक एवं बालिकाओं के मध्य चारित्रिक व नैतिक गुणों का विकास नैतिक गुणों का विकास करने की भावना के समावेश से ही सम्भव होगा। चूँकि नैतिकता सदैव समानता सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त करती है अतः इस स्थिति में किसी प्रकार की लैंगिक असमानता नहीं हो सकती।
  5. सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की भावना (Spirit of Sarvajan Hitaya and Sarvajan Sukhaya ) – जब समूह का निर्माण सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय की भावना पर होगा तो उसमें बालक-बालिका का भेद स्वतः ही सामाप्त हो जाएगा। समूह के प्रत्येक सदस्य, सामान्य जन की तरह होंगे तथा सभी के ऊपर एक-दूसरे के हित एवं संरक्षण का उत्तरदायित्व होगा। अतः इस प्रकार की सामूहिक स्थितियों लैंगिक समानता लाने में सक्षम होंगी।
  6. आदर्श समूहों का निर्माण ( Creation of Ideal Groups) – समूहों का निर्माण आदर्श समूहों के रूप में होना चाहिए तथा समूह निर्माण में विविध प्रकार की मनोवृत्तियों के छात्रों को समायोजित करना चाहिए। इसी से बालक एवं बालिकाओं में संवेगात्मक स्थिरता व समायोजन क्षमता विकसित होगी। दोनों एक-दूसरे के संवेगों को समझेंगे तथा एक-दूसरे का सम्मान करेंगे। इससे लैंगिक असमानता समाप्त होगी।
  7. सकारात्मक सोच आधारित समूह (Positive Thinking Based Group) – समूह के सभी सदस्यों की सोच सकारात्मक होनी चाहिए। जिस प्रकार एक परिवार में भाई-बहन एक-दूसरे के उन्नयन एवं विकास का प्रयास करते हैं तथा एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहते हैं, ठीक उसी प्रकार की सोच एवं समर्पण समूह के प्रत्येक सदस्य में होना चाहिए। इससे भी विद्यालयी वातावरण में लैंगिक समानता का भाव सृजित होगा।
  8. स्वतन्त्रता की भावना का समावेश (Inclusion of Spirit of Freedom ) – स्वतन्त्रता की भावना से हमारा अभिप्राय सभी बालक एवं बालिकाओं को प्रत्येक बिन्दु पर स्पष्ट रूप से स्वतन्त्रता प्रदान करने से है। स्वतन्त्रता के वातावरण में सभी बालक एवं बालिकाओं को विकास के समान अवसर मिलेंगे जिसके परिणामस्वरूप लैंगिक असमानता का उन्मूलन होगा।
लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में पाठ्यचर्या की भूमिका (Role of Curriculum in Reinforcing Gender Parity)
  1. सर्वांगीण विकास पर आधारित पाठ्यचर्या (Allround Development Based on Curriculum)- विद्यालयी स्तर पर पाठ्यचर्या का स्वरूप बालक के सर्वांगीण विकास पर ‘आधारित होना चाहिए, जैसे- जब एक बालिका को रसोई एवं भोजन से सम्बन्धित जानकारी प्रदान की जाती है तो बालक को भी इसकी जानकारी प्रदान की जानी चाहिए। इससे दोनों को विकास के विभिन्न क्षेत्रों में समान अवसर प्राप्त होंगे जिससे एक ओर जहाँ दोनों का सर्वांगीण विकास होगा वहीं दूसरी ओर लैंगिक समानता को भी बढ़ावा मिलेगा।
  2. अधिगम गतिविधियों में समानता (Equality in Learning Activities) – पाठ्यचर्या में उन्हीं अधिगम गतिविधियों को स्थान देना चाहिए जिससे बालक एवं बालिका को समान सहभागिता प्राप्त हो सके। जैसेशैक्षिक भ्रमण जैसी गतिविधियों में अभिभावक यदि छात्राओं को भेजने से इन्कार करते हैं तो शैक्षिक भ्रमण इस प्रकार का होना चाहिए जिसमें सुबह जाकर शाम तक वापस घर आ सके । अतः इस प्रकार की गतिविधियों में बालक एवं बालिकाओं की सहभागिता अनिवार्य होनी चाहिए। “
  3. पाठ्यचर्या में सकारात्मक भाषा का उपयोग (Use of Positive Language in Curriculum)-पाठ्यचर्या में सकारात्मक भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। किसी भी तथ्य को बालिकाओं के नाम से ही सम्बोधित, नहीं करना चाहिए, जैसे- बालिकाएँ बहुत स्वादिष्ट भोजन पकाती हैं या बहुत अच्छी सिलाई करती है। इससे उनमें लैगिक भेदभाव की स्थिति उत्पन्न होती है। सकारात्मक भाषा के रूप में सिलाई भोजन पकाना बालक व बालिकाओं का आवश्यक गुण है। इन्हें दोनों को सीखना चाहिए। ऐसी भाषा का प्रयोग लैंगिक समानता लाती है।
  4. विषयों के चयन में परम्पराओं का विरोध ( Opposition of Traditions in Selection of Subjects) – विषयों के चुनाव में परम्पराओं का पूर्णतया विरोध करना चाहिए। जैसेबालिकाओं के अभिभावक यह कहते हैं कि उसे गृह विज्ञान विषय ही लेना चाहिए तो अध्यापक को इस तथ्य का विरोध करना चाहिए एवं बालिका को उसकी योग्यता के आधार पर विषय प्रदान करने चाहिए ।
  5. पाठ्यचर्या में समानता (Equality in Curriculum) – पाठ्यचर्या में समानता से हमारा अभिप्राय पाठ्यचर्या में उन गतिविधियों व तथ्यों को शामिल करने से है जिससे बालक एवं बालिकाओं के मध्य समानता उत्पन्न हो सके। जैसे- गृह विज्ञान विषय बालिकाओं के लिए माना जाता है। गृह विज्ञान विषय के प्रमुख तथ्यों का समावेश जीव विज्ञान व सामाजिक विज्ञान विषयों में कर देना चाहिए ताकि बालक भी इन तथ्यों से परिचित हो सके। इसके साथ-साथ बालक एवं बालिका के लिए पाठ्यचर्या में भिन्नता नहीं होनी चाहिए।
  6. पाठ्य सहगामी क्रियाओं में समानता (Equality in CoCurricular Activities) – पाठ्य-सहगामी क्रियाओं के संगठन व संचालन में बालक-बालिकाओं का विभेद नही होना चाहिए। किसी भी पाठ्य सहगामी क्रिया का चयन कोई भी बालक या बालिका कर सकती है। इससे भी लैंगिक असमानता का समापन होगा एवं समानता स्थापित होगी ।
  7. रुचि एवं योग्यता के अनुसार विषय (Subjects According to Interest and Ability ) – पाठ्यचर्या का संगठन इस प्रकार होना चाहिए जिसमें बालक व बालिकाएँ अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार विषयों का चयन कर सके। जैसे- यदि एक छात्र गृह विज्ञान पढ़ना चाहता है तो उसे उच्च प्राथमिक स्तर पर गृह विज्ञान मिलना चाहिए एवं बालिका यदि विज्ञान पढ़ना चाहती है तो उसको कृषि विज्ञान पढ़ने के अवसर दिए जाने चाहिए।
    इससे दोनों के बीच विषय सम्बन्धी समानता जन्म लेगी। इसी प्रकार यदि किसी बालक में नृत्य, लोकगीत, व संगीत की योग्यता है तो विद्यालयी स्तर पर उसे इन विषयों को उपलब्ध कराना चाहिए तथा साथ ही साथ अध्यापकों को उस अमुक बालक को प्रोत्साहित भी करना चाहिए। इसी प्रकार बालिका योग्यता का भी ध्यान रखना चाहिए ।
  8. पाठ्यचर्या के उद्देश्यों में आदर्शवादिता (Idealism in Curriculum Objectives) – पाठ्य के विभिन्न उद्देश्यों में लैंगिक समानता का उद्देश्य प्रमुख होना चाहिए। उन पाठ्यक्रमों के पूर्णतः समाप्त कर दिया जाना चाहिए जो मात्र बालिकाओं के लिए ही बने हैं। पाठ्यचर्या का उद्देश्य समस्त योग्यताओं में बालक एवं बालिकाओं को समान रूप से दक्ष बनाना होना चाहिए क्योंकि इसी से लैंगिक समानता स्थापित हो सकेगी।
  9. व्यावहारिक पाठ्यचर्या (Practical Curriculum ) – पाठ्यचर्या के निर्माण से पूर्व लैंगिक भेदभाव सम्बन्धी सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों एवं घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए। इन सभी विभेदों को समाप्त करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए। जैसेमहिलाओं को प्रशासनिक क्षमता में अयोग्य माना जाता है तो पाठ्यचर्या में इन्दिरा गाँधी व रानीलक्ष्मी बाई की जीवनी को शामिल करना चाहिए ।
लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने में पाठ्य पुस्तकों की भूमिका (Role of Textbooks in Reinforcing Gender Parity) 
  1. आदर्शवादी पाठ्य पुस्तकों का समावेश (Inclusion of Idealistic Text Books) – विद्यालय में आदर्शवादी पाठ्य-पुस्तकों को शामिल करना चाहिए क्योंकि आदर्शों के अभाव में लैंगिक असमानता को समाप्त नहीं किया जा सकता है।
    अतः प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक आदर्शवादी पाठ्य पुस्तकों को स्थान दिया जाना चाहिए। इसी के द्वारा प्रत्येक बालक व बालिका में आदर्शों का विकास किया जा सकता है तथा आदर्शवादी बालक-बालिकाओं में लैंगिक असमानता की स्थिति नहीं देखी जाती है ।
  2. सकारात्मक सोच आधारित पाठ्य-पुस्तकें (Positive Thinking Based Text Books ) – प्रत्येक स्तर पर चयनित पाठ्यचर्या में उन पाठ्य पुस्तकों का समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए जिसके द्वारा बालक व बालिकाओं में सकारात्मक सोच विकसित हो सके एवं महिला व पुरुष के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव प्रदर्शित न हो पाए। इससे लैंगिक भेदभाव समाप्त होगा तथा सामाजिक स्तर पर भी इसका अनुकूल प्रभाव पड़ेगा ।
  3. समानता की भावना का समावेश ( Inclusion of Spirit of Equality) – पाठ्य पुस्तकों में समानता प्रदर्शित करने वाली विषय सामग्री का समावेश होना का भाव चाहिए ताकि बालक-बालिकाओं में समानता का भाव बालिका के विकसित हो सके। प्राथमिक स्तर पर बालकसहयोग से सम्बन्धित कहानियाँ पढ़ाई जानी चाहिए।
  4. महिला सशक्तीकरण का समावेश (Inclusion of  Women Empowerment) – महिला सशक्तीकरण से सम्बन्धित सामग्रियों का समावेश पाठ्य पुस्तकों में होना चाहिए। महिला सशक्तीकरण के उपायों से बालिकाओं में जागरूकता का विकास होता है एवं बालिकाएँ अपने अधिकारों से परिचित होती हैं साथ ही बालक भी परिचित होते हैं इससे वे बालिकाओं के प्रति सकारात्मक भाव रखते हैं। इससे भी लैंगिक समानता सुदृढ़ होती है।
  5. नैतिकता आधारित पाठ्य पुस्तकें (Morality Based Text-Books) – मात्र प्राथमिक स्तर पर ही नैतिकता आधारित पाठ्य पुस्तकों का प्रचलन होता है जबकि. इसका प्रचलन उच्च माध्यमिक स्तर तक होना चाहिए। नैतिकता आधारित पाठ्य पुस्तकों से बालक व बालिकाओं के नैतिक दायित्व निर्धारित किए जाते हैं।
    इसमें बालक व बालिकाओं की समानता को प्रदर्शित किया जाता है। जब प्राथमिक स्तर से उच्च माध्यमिक स्तर तक बालक व बालिकाएँ नैतिकता आधारित पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन करेंगे तो निश्चित ही लैंगिक समानता का विकास होगा।
  6. महिला जागरूकता आधारित पाठ्य-पुस्तकें (Women Awareness Related Text Books) – पाठ्य पुस्तकों में महिला जागरूकता से सम्बन्धित विषय सामग्रियों का समावेश करना चाहिए ताकि बालक एवं बालिकाएँ दोनों ही इन प्रकरणों को पढ़ सके। इससे छात्राएँ स्वयं तो जागरूक होंगी ही साथ ही छात्र भी उन्हें जागरूक करने में सहयोग करेंगे। इससे भी लैंगिक समानता का विकास होगा।
  7. स्वतन्त्रता की भावना का विकास ( Development of Spirit of Freedom) – पाठ्य पुस्तकों की विषय सामग्री में महिला-पुरुष के अधिकारों की विवेचना होनी चाहिए एवं प्रत्येक बालक व बालिका को अपने स्वतन्त्रता से सम्बन्धित अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए।
    इस प्रकार के तथ्यों के अध्ययन के द्वारा दोनों (बालक व बालिका) एक-दूसरे की स्वतन्त्रता पर पर्याप्त विचार करने में सक्षम होंगे। इससे भी लैंगिक असमानता का उन्मूलन होगा तथा लैंगिक समानता स्थापित होगी ।

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