S-5

विद्यालय में स्वास्थ्य, योग एवं शारीरिक शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi

विद्यालय में स्वास्थ्य, योग एवं शारीरिक शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi

S-5               विद्यालय में स्वास्थ्य, योग एवं शारीरिक शिक्षा
                             दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. प्रारंभिक स्तर के किसी एक विषय से स्वास्थ्य शिक्षा के उदाहरण लेते हुए एक सीखने
की योजना का निर्माण करें।
उत्तर–सीखने की योजना
शिक्षक का नाम–
कक्षा–5                              कलांश—                       तिथि―
विषय–पर्यावरण और हम                                          इकाई―
विषयवस्तुः जितना खाओ उतना पकाओ
विषय वस्तु से संबंधित पूर्व समीक्षा (शिक्षण से पहले किया जाने वाला कार्य)
1. यह विषय वस्तु इस कक्षा के पाठ्यचर्या/पाठ्यक्रम में उल्लिखित किन-किन
उद्देश्यों/बिंदुओं से जुड़ा हुआ है ?
     यह विषय वस्तु बच्चों में खाने के प्रति संवेदनशीलता विकसित करता है। बच्चों में
खाना खाने की सही आदतों का विकास करता है।
2. क्या यह विषय वस्तु पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है ? कैसे ? यह
विषय वस्तु इस कक्षा की ओर किन-किन विषयों इकाइयों से जुड़ा हुआ है? क्या मैंने इस
विषय वस्तु का पहले शिक्षण किया है ? क्या तुझे विषय वस्तु से संबंधित पर्याप्त समझ है ?
नहीं, यह पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है। हाँ, मैंने इस विषय वस्तु
का पहले शिक्षण किया है। मुझे विषयवस्तु से संबंधित पर्याप्त समझ है। जहाँ जहाँ खाने
की बर्बादी व उसे बचाने के उपायों की चर्चा होगी उससे यह विषय वस्तु स्वतः जुड़ जाएगी।
3. विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण।
        यह विषय वस्तु बच्चों के खाने-पीने संबंधी स्वच्छ आदतों के साथ-साथ भोजन की
बर्बादी के कारण, उसके नुकसान एवं बचाव के उपायों की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
बच्चों को रोज के उदाहरणों द्वारा खाने की व्यापक तौर पर बर्बादी की समझ विकसित कर
उन्हें भोजन की आवश्यकता और बर्बादी रोकने के महत्व समझने की भावना का विकास
करता है।
4. सीखने-सिखाने की विधियाँ इन विधियों को क्यों चुना गया ?
सामूहिक चर्चा से बच्चे अपने आस-पास खाने की बर्बादी से अवगत होंगे । अवलोकन
एवं प्रश्नोत्तर के द्वारा वे हिसाब लगा पाएंगे कि खाने की बर्बादी रोकने से कितने लोगों का
पेट भर सकता है।
5. सीखने की योजना
        40 मिनट की इस कक्षा में सर्वप्रथम 10 मिनट बच्चों से उनके आसपास के अनुभवों
द्वारा खाने के महत्व एवं बर्बादी पर चर्चा की जाएगी। फिर अगले 10 मिनट बच्चों से उनके
घर में प्रत्येक दिन होने वाले खाने की बर्बादी को चार्ट पेपर पर विभिन्न व्यंजनों की मात्रा
का सामूहिक तौर पर दिन, हफ्ते व महीने के आँकड़ों के आधार पर हिसाब लगने को कहा
जाएगा जिससे बच्चे खाने की बर्बादी की व्यापकता को समझ सकें ।
      अंत के 20 मिनट में खाने से जुड़े पकाने संबंधी पहलुओं पर बात होगी जिससे खाना
कम बर्बाद हो। बच्चों से एक चार्ट पेपर पर उनके अनुभवों के आधार पर खाना खराब होने
पर उनके रंग, गंध, रूप में होने वाले परिवर्तनों को दर्शाने का कार्य करवाया जाएगा। अंत
में बच्चों से खाने की स्वच्छ आदतों पर प्रश्न पूछे जाएंगे एवं शादी विवाह जैसे समारोहों
में खाने की बर्बादी, उन्हें रोकने के उपाय और बचे खाने का उपयोग कैसे करें, इन पर लिखने
के लिए कहा जाएगा।
           शिक्षक द्वारा स्व मूल्यांकन के सुझाव बिंदु (शिक्षण के बाद किया जाने वाला
कार्य)
1. क्या विद्यार्थी ने उन उद्देश्यों को समझा जिसके लिए यह विषय वस्तु थी ? इसका
मूल्यांकन किया गया कि नहीं ?
हां, विद्यार्थियों ने उद्देश्य को समझा। यह उनके मूल्यांकन से स्पष्ट हो गया।
2. क्या इस विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता है ? क्यों
या क्यों नहीं ?
      विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता तो नहीं है, परंतु अगली
कक्षा में विषय से संबंधित और अधिक सवाल पूछने से बच्चे अधिक सीखेंगे।
3. साथियों द्वारा पूछे गए प्रमुख सवाल क्या थे ? कितने विद्यार्थियों ने सवाल पूछे ?
तीन-चार विद्यार्थियों ने खाना खराब होने से बचाने के उपाय संबंधी प्रश्न पूछे।
4. आपने उन सवालों को कैसे समझाया ? क्या विद्यार्थियों को स्वयं उन सवालों का हल
करने का मौका मिला ?
      उन्हें उदाहरण देकर समझाया गया। फिर विद्यार्थियों ने अपनी तरफ से भी सुझाव दिए ।
5. विषय वस्तु के सीखने-सिखाने में किस प्रकार के संसाधनों (TLM) का प्रयोग
किया गया ? उनकी उपयोगिता क्या रही।
चार्ट पेपर को संसाधन बनाया गया। इसमें बच्चों को मजा आया।
6. इस विषय वस्तु को यदि दोबारा पढ़ाना हो तो आप सीखने-सिखाने की योजना में
क्या बदलाव करेंगे ?
    यदि इस विषयवस्तु को दोबारा पढ़ाना हो तो बच्चों को समूह बनाकर एमडीएम संचालन
की जिम्मेदारी देकर खाना बर्बाद होने को बचाने संबंधी उपाय करने को कहेंगे।
7. इस विषय वस्तु से संबंधित कोई ऐसा सवाल जिसे आपको अपने संस्थान के विषय
विशेषज्ञ तथा मेंटर से चर्चा करने की अपेक्षा है ?
नहीं।
8. कोई अन्य टिप्पणी ।
समय का ध्यान रखना होगा।
प्रश्न 2. प्रारंभिक स्तर के विभिन्न विषयों से स्वास्थ्य शिक्षा के उदाहरणों की
समझ विकसित करें।
उत्तर—स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ केवल यह नहीं है कि बच्चों को बीमारियों, उनके फैलने
और रोकने की जानकारी दी जाए बल्कि जरूरत इस बात की है कि बच्चे और उनका समुदाय
किस प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करते हैं, उसकी जानकारी दें। इन
बीमारियों का कारण केवल जैविक नहीं है बल्कि इसके सामाजिक और पर्यावरणीय पहलू
भी हैं। स्वास्थ्य की बहुआयामी समझ को ध्यान में रखते हुए स्कूली पाठ्यचया के विभिन्न
विषयों में स्वास्थ्य शिक्षा की बहुत-सी संकल्पनाओं को विभिन्न विषयों के द्वारा पढ़ाया जा
रहा है। इनमें पर्यावरण अध्ययन, सामाजिक विज्ञान भाषा इत्यादि विषय शामिल है।
        उदाहरण के लिए प्राथमिक स्तर पर व्यक्तिगत तथा पर्यावरणीय स्वच्छता, सामाजिक
ज्ञान तथा पर्यावरणीय अध्ययनों से मिली जानकारियों को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य और
शारीरिक शिक्षा पाठ्यचर्या में स्वास्थ्य की अवधारणाओं, बीमारी तथा स्वास्थ्य में निर्णायक
भूमिका अदा करने वाले पर्यावरणीय घटकों को भी शामिल किया गया है। भाषा जैसे विषयों
में कहानियों एवं प्रसंगों द्वारा भोजन लेने, पानी और सफाई के संबंध में जानकारी दी गई
है। भोजन करने एवं दूषित भोजन से बचने के उपाय, स्वास्थ्य संबंधी आदतें, विभिन्न
बीमारियाँ एवं संक्रामक रोगों की जानकारी, बीमारियों की रोकथाम के उपाय, घर पड़ोस को
साफ एवं स्वच्छ रखने के उपाय इत्यादि विभिन्न भाषाई विषयों से प्रसंगों एवं कहानियों के
माध्यम से व पर्यावरण अध्ययन जैसे विषयों के माध्यम से बच्चों को इन स्वास्थ्य संबंधी
आदतों की जानकारी दी गई है। उदाहरण के लिए पर्यावरण अध्ययन की कक्षा 4 में जितना
खाओ उतना पकाओ’ अध्याय बच्चों को भोजन संबंधी आदतों में सुधार करने एवं जरूरत
भर भोजन के इस्तेमाल करने, भोजन की बर्बादी रोकने तथा भोजन को संरक्षित रखने के
उपायों को न सिर्फ जानकारी देता है बल्कि उन्हें स्वस्थ एवं स्वच्छ भोजन संबंधी आदतों के
प्रति जागरूक भी करता है।
प्रश्न 3. विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े मुद्दे कौन-कौन से हैं ? उनकी पहचान
करें एवं उनका वर्णन करें।
उत्तर—विद्यालय एवं सभी समाजों के लिए बच्चों का स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण मुद्दा है
क्योंकि यह उनके सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए
स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा की वजह से ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता
पैदा होती है तथा स्वास्थ्य की स्थिति में भी सुधार आता है। अतः विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा
संबंधी मुद्दों को पहचान जरूरी है। स्वास्थ्य शिक्षा से संबंधित विद्यालय में निम्नलिखित मुद्दे
हैं जिनकी पहचान कर बच्चों में स्वास्थ्य संबंधित आदतों का विकास करना आवश्यक है―
(अ) स्वास्थ्य संबंधी कमियों को पहचानना और उनका इलाज करना (ब) स्कूल और उसके
आस-पास सफाई तथा स्वच्छ वातावरण तैयार करना और उसकी देखभाल करना (2)
सकारात्मक स्वास्थ्य उपायों को बढ़ावा देना, इनमें शामिल हैं:-(अ) बच्चों के पोषण स्तर
को उन्नत करने के लिए अतिरिक्त भोजन की व्यवस्था, (ब) खेलों, जिम्नास्टिक और
सहयोगी रचनात्मक गतिविधियों के जरिए शारीरिक संस्कृति को बढ़ावा देना और (स)
औपचारिक निर्देशों तथा जीवन के सफाई पूर्ण और स्वास्थ्य व्यवहारों जरिए शारीरिक शिक्षा ।
इन्हें स्कूली स्वास्थ्य सेवा के कर्तव्यों में भी शामिल किया गया है।
प्रश्न 4. स्वास्थ्य शिक्षा की अवधारणा स्पष्ट करें। इसकी आवश्यकता अथवा
महत्व का वर्णन करें।
उत्तर – स्वास्थ्य शिक्षा वह अभियान है जो जन-साधारण को ऐस ज्ञान व आदतों के
सीखने में सहायता प्रदान करता है जिससे वे स्वस्थ रह सकें। स्वास्थ्य शिक्षा से, जन-साधारण
जीवन की बदलती हुई अवस्थाओं में स्वस्थ रहकर समस्याओं का धैर्य से सामाना करना
सीखता है। कोई भी कार्य जो जन-साधारण को स्वास्थ्य के विषय में नया सिखाये या नई
जानकारी दे, वह स्वास्थ्य शिक्षा है।
             दूसरे शब्दों में “स्वास्थ्य शिक्षा वह शिक्षा है जो स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं की
पहचान करने और इन आवश्यकताओं से मेल खाते उचित व्यवहार सुझाने के लिए दी जाती
है।” सरल शब्दों में लोगों को स्वास्थ्य व बीमारियों संबंधी जानकारी देना, उनका स्वास्थ्य
सुधारने के लिए प्रयत्न करना, उनको बीमारियों के ऊपर नियंत्रण होने के योग्य बनाना आदि
स्वास्थ्य को उत्साहित करने की समूची प्रक्रिया ही स्वास्थ्य शिक्षा है।
        विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) की वर्ष 1954 की तकनीकी रिपोर्ट की परिभाषा के
अनुसार “आम शिक्षा की तरह स्वास्थ्य शिक्षा भी लोगों के ज्ञान, भावनाओं व व्यवहार में
परिवर्तन से संबंधित है। अपने स्वरूप में यह स्वास्थ्य संबंधी ऐसी आदतों को विकसित करने
की ओर ध्यान देती है, जो लोगों को स्वस्थ होने का अहसास पैदा कर सके। “इस परिभाषा
से यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो लोगों को स्वास्थ्य संबंधी
आवश्यकताओं के बारे में जानने में सहायता करता है। उचित व्यवहाार व उचित जीवनशैली
अपनाने के लिए प्रेरित करता है और उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करने व बनाये रखने के लिए उत्तम
दृष्टिकोण विकसित करता है।
    स्वास्थ्य शिक्षा के ज्ञान का बहुत महत्त्व है क्योंकि बहुसंख्यक आबादी स्वास्थ्य व सफाई
के बुनियादी सिद्धांतों से अनजान है। इस अज्ञानता के कारण लोग बीमारियों की रोकथाम
नहीं कर पाते है। लोगों में यह अज्ञानता दूर करना बहुत बड़ी आवश्यकता व चुनौती है।
उन्हें स्वास्थ्य व सफाई के बुनियादी सिद्धांतों व नियमों से अवगत करवाया जाना चाहिए।
स्वास्थ्य शिक्षा वैज्ञानिक तथ्यों व वैज्ञानिक विधियों की जानकारी प्रदान करती है तथा यह
जानकारी अज्ञानता दूर कर कई बीमारियों को रोकने व उनको समाप्त करने में बहुत सहायक
सिद्ध हो सकती है। स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रम मुख्य तौर पर सावधानी व रोकथाम की किस्म
का कार्यक्रम है क्योंकि ईलाज के साथ परहेज हमेशा ही आवश्यक होता है। इसलिए ऐसे
कार्यक्रम जानकारी व ज्ञान के संचार के लिए काफी उपयोगी साबित होते है।
          स्वास्थ्य शिक्षा में जन-साधारण को भिन्न-भिन्न खतरनाक बीमारियों की जानकारी देते
है । और इन बीमारियों को आने से रोकने के ढंग व उपाय बताते है। इस तरह स्वास्थ्य शिक्षा
बच्चों, नौजवानों, प्रौढ़ों और समस्त समाज पर बुरा असर डालने वानी कई समस्याओं को
दूर करने में अहम भूमिका निभाती है।
      स्वास्थ्य शिक्षा का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि यह शिक्षा परिवार व समाज में अच्छे
स्वास्थ्य और सुरक्षित रीति-रिवाज व आदतों के महत्त्व के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण विकसित
करती है और व्यक्ति के जीवन में स्वास्थ्यपरक व अच्छी आदतें डालने के रुझान को
उत्साहित करती है।
प्रश्न 5. स्वास्थ्य शिक्षा के व्यवहार परिवर्तन (Behaviour Change) मॉडल
एवं स्वास्थ्य संचार (Health Communication) मॉडल में अंतर स्पष्ट करते हुए
इसकी अवधारणात्मक एवं आलोचनात्मक समझ विकसित करें।
उत्तर – स्वास्थ्य का व्यवहार परिवर्तन मॉडल कहता है कि स्वास्थ्य से जुड़ी ज्यादातर
समस्याएँ हमारे व्यवहारों से जुड़ी हैं। सिर्फ कुछ व्यवहारों में बदलाव लाकर ही स्वास्थ्य,
पोषण तथा स्वच्छता के स्तर में उल्लेखनीय परिवर्तन लाया जा सकता है। इनमें से ज्यादातर
व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें अपपनाने में कोई खर्च नहीं आता। न ही किसी विशेष तकनीक, ज्ञान
या कौशल की जरूरत होती है। व्यवहार परिवर्तन के लिए लोगों को जानकारी दे देना ही
पर्याप्त है, लेकिन अनुभव बताते हैं कि व्यवहारों में परिवर्तन लाने के लिए केवल
सूचना/जानकारी ही काफी नहीं। इसके लिए बाधाओं की पहचान करना, उन्हें दूर करने के
प्रयास करना तथा लोगों की सोच पर असर डालना कहीं ज्यादा जरूरी है।
        इस मॉडल की आलोचना करने वाले मानते हैं कि हमारे समाज में व्यक्ति के निर्णयों
पर परिवार, समुदाय और समाज का बहुत प्रभाव रहता है। कई बार एक व्यक्ति तो किसी
नए व्यवहार को अपनाने या पुराने व्यवहार को बदलने के लिए तैयार हो जाता है, लेकिन
उसका परिवार या समुदाय इसके लिए तैयार नहीं होता। बल्कि कई बार तो व्यवहार परिवर्तन
में बाघा भी उत्पन्न करता है। ऐसे में व्यक्ति के साथ-साथ परिवार और समुदाय की सोच
में बदलाव लाकर व्यवहार परिवर्तन के लिए अनुकूल माहौल बनाना जरूरी है । इसके लिए
यह पहचान करना जरूरी है कि समुदाय या समाज के कौन लोग व्यवहार परिवर्तन में हमारे
मददगार हो सकते हैं। वैसे तो जानकारी न होना या गलत जानकारी होना भी व्यवहार
परिवर्तन में बाधक होता है, लेकिन अक्सर जानकारी की कमी से कहीं ज्यादा मान्यताएँ,
रीति-रिवाज, परंपरा, धार्मिक नियम, अंधविश्वास, भ्रांतियाँ आदि सामाजिक-सांस्कृतिक
कारक व्यवहार परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करते हैं।
      शिक्षा का स्तर कम होना तथा संचार के साधनों तक पहुँच न होना भी व्यवहार परिवर्तन
में बाधक है। इसी प्रकार किसी नए व्यवहार को अपनाने या मौजूदा व्यवहार को बदलने
में संकोच, आत्मविश्वास की कमी तथा सामाजिक भय जैसे मनोवैज्ञानिक कारण भी व्यवहार
परिवर्तन में बाधक बनते हैं। क्योंकि व्यक्ति, उनके व्यवहार तथा उनका परिवेश रातों-रात
नहीं बदलते, समाज तो स्वयं को बदलने के लिए और भी समय लेता है, इसलिए सामाजिक
एवं व्यवहार परिवर्तन संचार एक लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है।
      स्वास्थ्य संचार मॉडल―स्वास्थ्य संचार मॉडल द्वारा संचार तकनीकों के माध्यम से
दूर-दराज में स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी, रोगों से रोकथाम के उपाय एवं अन्य आवश्यक
स्वास्थ्य संबंधी सूचनाओं का संप्रेषण किया जाता है, जिसके माध्यम से बच्चे एवं ग्रामीण
रोगों से लड़ने के बारे में एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो सके और बीमारियों से बचने संबंधी
उपायों की जानकारी उन्हें हो जाए। विभिन्न संचार माध्यमों जैसे कि टीवी, लैपटॉप,
मोबाइल, टेबलेट आदि के माध्यम से लोगों से संपर्क बनाया जाता है। आंगनबाड़ी केंद्रों एवं
प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में बच्चों और माताओं को मातृत्व और देखभाल संबंधी टिप्स दिए
जाते हैं और आवश्यक आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं। बच्चों को उन्नत टीकाकरण की
सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं और विभिन्न प्रकार के सूचना एवं संचार तकनीकी के
उपकरणों द्वारा कहानियों, बुकलेट नुक्कड़ नाटक, स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम आदि के माध्यम
से स्वास्थ्य के प्रति एवं गुणवत्तापूर्ण जीवनशैली के प्रति लोगों को जागरूक किया जाता है।
संचार मॉडलों द्वारा अपेक्षाकृत कम साक्षर समुदायों में आसानी से पहुँचा जा सकता है और
उन्हें विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं से संबंधित जानकारियाँ, सुझाव, संदेश आदि पहुँचाए
जा सकते हैं जिससे लोग कम समय में लाभान्वित भी होते हैं और स्वास्थ्य के उद्देश्यों को
पूरा भी कर पाते हैं।
       इसकी आलोचना करने वाले लोगों का मानना है कि वर्तमान समय में अपेक्षाकृत कम
साक्षर एवं दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में संचार मॉडलों का पहुँच पाना बहुत मुश्किल है।
कई बार दी जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी जानकारियाँ संचार मॉडलों जैसे फोटो, वीडियो आदि
भ्रामक भी हो सकते हैं जिससे लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने के बजाय दिग्भ्रामित भी
हो सकते हैं। खासकर गरीब एवं निरक्षर तबके में संचार तकनीकों का पहुँचाना फिलहाल
सरकार के लिए खर्च भरा उपाय है। इसके लिए उच्च तकनीशियनों की जरूरत पड़ती है
एवं व्यापक पैमाने पर संचार उपकरणों को चलाने के प्रति लोगों को प्रशिक्षित भी करना
पड़ता है जो कि एक मुश्किल काम है।
प्रश्न 6. विद्यालय के भौतिक वातावरण को स्वच्छ एवं स्वास्थ्यकर बनाने हेतु एक कार्य
योजना का निर्माण करें।
                                                अथवा,
विद्यालय के भौतिक वातावरण को स्वच्छ एवं स्वास्थकर बनाने हेतु शौचालय,
जल स्रोत, कचरे का निपटान/प्रबंधन इत्यादि किस प्रकार करेंगे ?
उत्तर–देश के अनेक स्कूलों में विभिन्न कारणों से स्वच्छता तथा सेनिटेशन जैसी
मूलभूत सुविधाओं की कमी है। यह कमी मुख्यत: नगरों में कम और ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक
है। इस कमी को दूर करने के लिये विद्यालय स्तर पर कई प्रयास किये जा सकते हैं।
विद्यालयी स्वच्छता कार्यक्रम केवल शौचालय निर्माण तक सीमित नहीं हो सकता। उसके
साथ मल-मूत्र को बहाने के लिये पानी की व्यवस्था एवं गन्दगी के सुरक्षित निपटान, शौचालय
स्थल एवं हाथ-पैर की साफ-सफाई एवं बदबू को खत्म करने की व्यवस्था भी करनी होगी।
आम तौर पर शौचालय की एक बार सफाई पर पाँच से दस लीटर पानी खर्च होता है। यदि
किसी स्कूल में छात्रों की संख्या 500 मानी जाये और प्रत्येक विद्यार्थी द्वारा शौचालय का दो
बार उपयोग माना जाये तो प्रतिदिन लगभग 5,000 से 10,000 लीटर पानी की आवश्यकता
होगी। यह मात्रा स्कूल में छात्रों की संख्या पर निर्भर होगी। स्कूलों में हेन्ड पम्प, कुआँ
या नगरीय निकाय द्वारा नल-जल योजना से पानी की पूर्ति का कार्य किया जाएगा। स्कूल
में पेयजल तथा सेनिटेशन की व्यवस्था का जायजा लेकर उसे पुख्ता और स्थायी करना होगा।
इसके अलावा शौचालय में उत्पन्न होने वाली बदबू को खत्म करने के लिये फिनाइल की
सतत व्यवस्था करनी होगी।
          इन प्रयासों के अन्तर्गत स्कूल परिसर में साफ-सफाई, सघन वृक्षारोपण, फल-फूल
पौधों के रोपण के कार्य किये जा सकते हैं। बच्चों को अशुद्ध पानी के उपयोग और
आधी-अधूरी साफ-सफाई से होने वाली बीमारियों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
कचरे के प्रबंधन के लिए बच्चों को गीले व सूखे कचरे की पहचान के साथ उसके निस्तारण
की जानकारी दी जाएगी। साथ ही सूखा और गीला कचरा के रिसाइकल और रीयूज करने
के तरीके बताए जाएंगे। बच्चों को यह बताना चाहिए की विद्यालय एवं घरों से निकलने
वाले कचरे में बचा हुआ भोजन, रेत, बजरी, कागज, प्लास्टिक, धातु, शीशा आदि हैं। ठोस
कचरे में प्लास्टिक सबसे हानिकारक वस्तु है जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है। गलियों,
मुहल्ले, रेलवे स्टेशनों, रेल की पटरियों और सड़कों पर बिखरी प्लास्टिक की थैलियाँ बरसात
में पानी के साथ बहकर नालियों को बंद कर देती हैं। प्लास्टिक हमारे लिए परेशानी पैदा
कर रहा है क्योंकि प्रकृति इसे नष्ट नहीं कर सकती और कीड़े इसे खा नहीं सकते । लेकिन
कागज, प्लास्टिक, एल्यूमीनियम और शीशे को रिसाइकिल करके इनका दोबारा इस्तेमाल
किया जा सकता है। साधारण कचरे को जलाना इसे ऊर्जा में परिवर्तित करने का अच्छा
तरीका है। यह कचरे की मात्रा को कम कर देता है और पर्यावरण को स्वच्छ बनाता है।
इसके अलावा जैविक कचरे को गड्ढों में जमा कर खाद बनाने की प्रक्रिया की जानकारी
भी बच्चों को होनी चाहिए जिससे कि तैयार खाद खेतों में उपयोग की जा सके। बच्चे कूड़े
से दोबारा इस्तेमाल होने वाले पदार्थों से कबाड़ से जुगाड़ के द्वारा अपने लिए शिक्षण अधिगम
सामग्री, खिलौने इत्यादि बनाकर भी कुछ कचरे का निपटान कर सकते हैं। इसके अलावा
कचरा कम फैलाना, कचरे को उचित कूड़ेदान में डालना, ठोस एवं अपशिष्ट कचरों को
एक जगह तथा गीले कचरे को एक जगह, जैविक तथा अजैविक कचरे को अलग-अलग
जमा कर उनका उचित प्रबंधन भी महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 7. व्यक्तिगत स्वच्छता तथा साफ-सफाई से संबंधित किन बातों का ध्यान
रखना आवश्यक है ?
                                              अथवा,
व्यक्तिगत स्वच्छता का साफ-सफाई से संबंधित किन आदतों का विकास करना
आवश्यक है ?
उत्तर–व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए इन बातों को ध्यान में रखें—
1. शौच के लिए साफ पानी का प्रयोग करें। कई बार गाँव में लोग गड्ढों में जमा पानी का
प्रयोग करते हैं। इससे संक्रमण होने का खतरा है।
2. शौच के बाद साबुन से हाथ धोने चाहिए।
3. खाना बनाने एवं खाने से पहले हाथ धोने चाहिए।
4. छोटे बच्चे दिन भर धूल मिट्टी में खेलते रहते हैं और गन्दे हो जाते हैं। अतः उनके दिन में
कई बार हाथ-मुँह धोने चाहिए।
5. छोटे बच्चे कपड़ों में जब मल-मूत्र त्याग देते हैं तो उन्हें तुरंत साफ कर दें एवं कपड़े
तुरंत धो कर सुखाने डाल दें।
6. कपड़े और चादर धोने के बाद, उन्हें धूप में सुखाएँ। धूप में कीटाणु मर जाते हैं।
7. नाखून साफ रखें और उन्हें काट कर छोटे रखने चाहिए।
8. रात को सोने से पहले और सुबह उठकर दाँत साफ करें।
9. रोज नहाएँ ।
10. नहा कर साफ कपड़े पहनें। नहाने के बाद गन्दे कपड़े पहनने से स्वच्छ शरीर
अस्वच्छ हो जाता है।
11. किसी दूसरे का तौलिया व रूमाल प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
घर की स्वच्छता―
1. सुनिश्चित करें कि बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए पानी के बर्तन स्वच्छ हो।
2. खाने और पीने के बर्तन प्रयोग के बाद स्वच्छ पानी और साबुन या राख से धोयें।
3. मक्खियाँ न पनपने पाए, इसलिए शौचालय का प्रयोग करें। यदि शौचालय नहीं है
तो मल त्यागने के बाद उसे मिट्टी से ढक दें।
4. घर के कचरे को कम्पोस्ट पिट में डालें।
5. घर में फालतू पानी जमा न होने दें।
6. सोखता गडढे का प्रयोग करें या फिर फालतू पानी का प्रयोग बागवानी में करें।
7. पानी और खाने को ढक कर रखें ताकि उसमें मक्खियाँ न बैठने पाए न ही अन्य
कीड़े-मकोड़े प्रदूषित करें।
8. घर के फर्श को साफ रखें। दस्त और पेट में कृमि से बचाव हेतु भोजन को दूषित
होने से बचाना चाहिए। निम्न बातों का ध्यान रखें—
(क) गन्दे हाथों से खाना बनाने, परोसने या खाने से संक्रमण हो सकता है। अतः
हमेशा हाथ धो कर ही उपरोक्त कार्य करने चाहिए।
(ख) बाजार के खुले खाद्य पदार्थ ले कर नहीं खाएँ ।
(ग) कच्चे फल और सब्जियों को हमेशा साफ पानी से धोएँ, क्योंकि यह मिट्टी, खाद,
मल, गन्दे हाथ या पानी से दूषित हो सकते हैं।
(घ) खाने को ठीक से पकाना चाहिए, क्योंकि पकने की प्रक्रिया से कीटाणु एवं कोड़ों
के अण्डे मर जाते हैं। विशेष रूप से मास-मछली अच्छे ढंग से पकाना चाहिए।
(ङ) भोजन को साफ बर्तनों से ढक्कर रखना चाहिए।
(च) बच्चों को बोतल से दूध नहीं पिलाना चाहिए। यदि बच्चे को ऊपर का दूध देना
आवश्यक है तो साफ कटोरी चम्मच या कप से दें।
(छ) बर्तनों में मक्खियाँ न बैठने पाएँ, इत्यादि ।
प्रश्न 8. पोषण, पोषक तत्व तथा संतुलित आहार क्या है ? इसका वर्णन प्रारंभिक विद्यालयों
में आने वाले बच्चों के विशेष संदर्भ में करें । इनके महत्व की भी चर्चा करें ।
उत्तर–पोषण आहार-तत्व सम्बन्धी विज्ञान है। यह एक नई विचारधारा है, जिसका
जन्म मूलत: शरीर विज्ञान तथा रसायन विज्ञान से हुआ है। आहार तत्वों द्वारा मनुष्य के शरीर
पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन एवं विश्लेषण इसका मुख्य विषय है। दूसरे शब्दों में शरीर
आहार सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं का नाम ही पोषण है।
          मूलरूप से पोषण की परिभाषा इस तरह से दे सकते हैं—आहार, पोषक तत्व व अन्य
तत्व, उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया तथा स्वास्थ्य व बीमारी से उसका सम्बन्ध व संतुलन का
विज्ञान ही पोषण है। यह उस क्रिया को बताता है जिसके द्वारा कोई जीव भोजन ग्रहण कर,
पचाकर, अवशोषित कर शरीर में उसका वितरण कर उसे शरीर में समावेशित करता है तथा
अपचित भोजन को शरीर से बाहर निकालता है। इतना ही नहीं पोषण का सम्बन्ध भोजन
व उस भोजन के सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक प्रभावों से भी है।
पोषण के प्रकार निम्नलिखित हैं―
(क) सुपोषण―पोषण की वह स्थिति जब भोजन द्वारा मनुष्य को अपनी आवश्यकतानुसार
सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में मिले, सुपोषण कहलाती है।
(ख) कुपोषण―पोषण की वह स्थिति जब भोजन द्वारा मनुष्य को या तो अपनी
आवश्यकतानुसार कम पोषक तत्व मिले या आवश्यकता से अधिक पोषक तत्व मिले, कुपोषण कहलाती है। कुपोषण में अल्पपोषण एवं अत्यधिक पोषण दोनों शामिल हैं।
(ग) अल्पपोषण–कुपोषण की वह स्थिति जिसमें पोषक तत्व गुण व मात्रा में शरीर
के लिये पर्याप्त नहीं होते अर्थात् एक या एक से अधिक पोषक तत्वों की कमी पायी जाती
है, अल्पोषण कहलाती है। इस प्रकार का पोषण अधिक समय तक दिया जाने पर शारीरिक
एवं मानसिक विकास रूक जाता है। जैसे आयरन की कमी से एनीमिया होना ।
(घ) अत्यधिक पोषण―पोषण की वह स्थिति जिसमें पोषक तत्व गुण व मात्रा में आवश्यकता
से अधिक हो अत्यधिक पोषण कहलाती है।
पोषक तत्व―भोजन के वे सभी तत्व जो शरीर में आवश्यक कार्य करते हैं, उन्हें पोषक
तत्व कहते हैं। यदि ये पोषण तत्व हमारे भोजन में उचित मात्रा में विद्यमान न हों, तो शरीर
अस्वस्थ हो जाएगा। कार्बोज, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज लवण व पानी प्रमुख पोषण
तत्व हैं। हमारे भोजन में कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं, जो पोषण तत्व नहीं होते, जैसे रंग व
खुशबू देने वाले रासायनिक पदार्थ ।
                ये आवश्यक तत्व जब (सही अनुपात में) हमारे शरीर की आवश्यकता अनुसार
उपस्थित होते हैं, तब उस अवस्था को सर्वोत्तम पोषण या समुचित पोषण की संज्ञा दी जाती
है। यह सर्वोत्तम पोषण स्वस्थ शरीर के लिए नितान्त आवश्यक है। कुपोषण उस स्थिति
का नाम है जिसमें पोषक तत्व शरीर में सही अनुपात में विद्यमान नहीं होते हैं अथवा उनके
बीच में असंतुलन होता है । अतः हम कह सकते हैं कि कुपोषण अधिक पोषण व कम
पोषण दोनों को कहते हैं । कम पोषण का अर्थ है किसी एक या एक से अधिक पोषण तत्वों
का आहार में कमी होना। उदाहरण–विटामिन ए की कमी या प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण ।
अधिक पोषण से अर्थ है एक या अधिक पोषक तत्वों की भोजन में अधिकता होना ।
उदाहरण, जब व्यक्ति एक दिन में ऊर्जा खपत से अधिक ऊर्जा ग्रहण करता है, तो वह वा
के रूप में शरीर में एकत्रित रहती है और उससे व्यक्ति मोटापे का शिकार हो जाता है।
        संतुलित आहार—वह आहार जिसमें पर्याप्त मात्रा में सभी पौष्टिक तत्व जैसे कार्बोज,
प्रोटीन, वसा, खनिज लवण एवं विटामिन विद्यमान हो, जो व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि एवं
विकास के लिए आवश्यक हो, संतुलित आहार कहलाते हैं। इस प्रकार के आहार में जल
एवं फाइबर की भी पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए साथ ही भोजन आकर्षक एवं स्वादिष्ट भी हो
ताकि ग्रहण करने में रूचि बने। संतुलित आहार का अर्थ है–सम्पूर्ण या परिपूर्ण भोजन
जिसमें व्यक्ति के विकास एवं वृद्धि के सभी पोषक तत्व विद्यमान हो। किसी एक भोज्य पदार्थ
में सभी पौषक तत्व विद्यमान नहीं रहते है। इसीलिए संतुलित आहार के लिए एक से अधिक
भोज्य पदार्थों को एक साथ सम्मिलित करना पड़ता है, जिससे सभी पौषक तत्वों की प्राप्ति
हो सके।
      संतुलित आहार या भोजन के तीन उद्देश्य हैं—(1) शरीर को अथवा उसके प्रत्येक
अंग को क्रिया करने की शक्ति देना, (2) दैनिक क्रियाओं में ऊतकों के टूटने फूटने से नष्ट
होने वाली कोशिकाओं का पुनर्निर्माण और (3) शरीर को रोगों से अपनी रक्षा करने की शक्ति
देना। इसलिए स्वास्थ्य के लिए वही आहार उपयुक्त है जो इन तीनों उद्देश्यों को पूरा करे।
बाल्यावस्था से ही बच्चों को संतुलित आहार देने की सलाह दी जाती है जिससे कि शरीर
को आवश्यक विटामिन और मिनरल मिल सके और शरीर और दिमाग का उचित विकास
हो सके। संतुलित आहार के अंतर्गत हरी सब्जिया, विभिन्न प्रकार के दालें, अंडे, दूध,
मछली, फल, अनाज आदि को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 9. विद्यालय में स्वच्छता तथा साफ-सफाई मानकों को सुनिश्चित किए
जाने में समुदाय तथा शिक्षकों की क्या भूमिका है ?
उत्तर–स्कूलों में जल, सफाई और स्वच्छता के मानकों से आशय तकनीकी एवं मानव
विकास के ऐसे आयामों के समुच्चय से है जोकि एक स्वस्थ विद्यालीय वातावरण रचने और
उपयुक्त स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संबंधी व्यवहार विकसित व प्रोत्साहित करने के लिए अनिवार्य
होते हैं। इसके तकनीकी आयामों में स्कूल परिसर के भीतर बच्चों और अध्यापकों के लिए
पीने का जल, हाथ धोने की व्यवस्था, शौचालय और साबुन की सुविधाओं को गिनाया जा
सकता है। दूसरी तरफ मानव विकास संबंधी आयामों में वे गतिविधियाँ आती हैं जिनके जरिए
हम स्कूल के भीतर ऐसी परिस्थितियों और ऐसी आदतों को विकसित कर सकते हैं जिनकी
मदद से जल, सफाई और स्वच्छता संबंधी बीमारियों को रोका जा सकता है। बच्चों में इन
मानकों को सुनिश्चित करने में समुदाय तथा शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्कूलों
में हैंड पंप लगाना, पाइप के कनेक्शन देना, पेय जल का समुचित भंडारण एवं रखरखाव,
साबुन, बाल्टी, मग आदि के साथ हाथ धोने की सुविधा मुहैया कराना, नाली, कचरा पेटी,
सोक पिट आदि के साथ ठोस एवं तरल अपशिष्ट के समुचित निस्तारण की व्यवस्था शिक्षक
एवं समुदाय की सम्मिलित भूमिका से संभव है।
          स्कूल में जल, सफाई और स्वच्छता के मानक सुनिश्चित करने का मकसद यह है कि
बच्चों, उनके परिवारों और समुदायों में स्वास्थ्य और स्वच्छता व्यवहार में सुधार के जरिए
बच्चों के स्वास्थ्य व स्वच्छता की स्थिति पर एक स्पष्ट प्रभाव डाला जाए। इसका एक
मकसद यह भी है कि स्वच्छता संबंधी व्यवहारों को प्रोत्साहन देकर और स्कूल के भीतर
उपलब्ध जल एवं स्वच्छता सुविधाओं के सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा दिया जाए और
पाठ्यचर्या व शिक्षण पद्धतियों में सुधार लाया जाए। उदाहरण के लिए विकलांग बच्चों के
लिए शौचालय और हाथ धोने की टूटियाँ बच्चों के कद के अनुसार होनी चाहिए। ‘औसत’
बच्चे को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली जल, सफाई एवं स्वच्छता सुविधाओं का निर्माण
करते हुए इस बात पर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए। साबुन के साथ सामूहिक रूप से
हाथ धोने के सत्र अपराह्न भोजन परोसने से पहले आयोजित किए जाने चाहिए। इस समय
अध्यापकों को निगरानी का जिम्मा संभालना चाहिए और उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
कि बच्चे सही ढंग से हाथ धोएं। हाथ धोने के सत्र बच्चों को स्वच्छता के विषय में संदेश
ने का, खासतौर से यह संदेश देने का एक अच्छा अवसर होता है कि उन्हें खाना खाने
से पहले और शौचालय जाने के बाद हाथ जरूर धोने चाहिए। इन अवसरों को स्वच्छता
और सुरक्षित पेयजल संबंधी संदेश देने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है। अपराह्न
भोजन शुरू करने से पहले पर्याप्त समय (अपेक्षतया 10-12 मिनट) दिया जाना चाहिए ताकि
सभी बच्चे और सभी अध्यापक साबुन से अच्छी तरह हाथ धो सकें। शिक्षकों द्वारा यह
सुनिश्चित करने के लिए कदम भी उठाए जाएं कि बालिकाओं के पास अपने कपड़े धोने
और बदलने के लिए एक सुरक्षित और निजी जगह हो।
        स्कूल में साफ-सफाई एवं स्वच्छता संबंधी आदतों को विकसित करने के लिए शिक्षक
एवं समुदाय स्पष्ट मानक निर्धारित कर सकते हैं तथा उन मानकों के अनुसार व्यवहार करने
में बच्चों की मदद व निर्देशन भी कर सकते हैं। अपराह्न भोजन से पहले सभी स्कूलों में
स्वच्छता, खासतौर से साबुन से हाथ धोने की व्यवस्था शिक्षक करें जिसमें हाथ सही तरीके
से धोने के मानक का पालन किया जाए। बालकों और बालिकाओं के लिए पृथक शौचालय
की व्यवस्था जिसमें एक इकाई में आमतौर पर एक शौचालय (डब्ल्यूसी) और तीन मूत्रालय
होंगे। प्रति 40 विद्यार्थियों पर एक इकाई का औसत सुनिश्चित करना जिसकी साफ-सफाई
में समुदाय भी सहयोग कर सकता है। बच्चों के लिए पीने और हाथ धोने के लिए जल
की अनुकूल और स्थायी व्यवस्था करने में भी समुदाय का सहयोग अपेक्षित है। इसी प्रकार
विद्यालय में कचरे के निपटारे/कचरा प्रबंधन जैव एवं अजैव निम्नकरणीय कचरे को अलग
रखना तथा जैविक खाद बनाने में कचरे के इस्तेमाल में शिक्षक एवं समुदाय मिलकर बच्चों
के लिए स्पष्ट मानक निर्धारित कर सकते हैं जिससे कि बच्चे स्वयं जैविक खाद बनाएं एवं
अपशिष्ट कचरे के निपटारे में अपनी भूमिका निभाएं एवं विद्यालय परिसर को साफ एवं
स्वच्छ रखने में सहयोग दें।
प्रश्न 10. बच्चों में व्यक्तिगत स्वच्छता तथा साफ-सफाई से जुड़ी आदतों का
विकास कैसे करेंगे ? उल्लेख करें ।
उत्तर―बच्चों में स्वच्छता संबंधी आदतों के विकास के लिए उन्हें स्वच्छता से होने वाले
फायदों एवं स्वच्छता नहीं रखने के कारण होने वाली बीमारियों के बारे में बताया जा सकता
है जिससे उनमें व्यक्तिगत साफ-सफाई के प्रति रुचि उत्पन्न हो और वे स्वयं को साफ एवं
स्वच्छ रखने की आदत डाल सकें। इसके लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए जा सकते हैं―
नाखून और बालों की स्वच्छता :
● नाखून एवं बालों को हमेशा कटवाते (बालक) रहे । बालों की सफाई से आशय उन्हें नियमित
 या सप्ताह में एक या दो बार धोने से है। अन्यथा जुए पड़ सकती है।
● गंदे रखने से बाल उलझते हैं, बालों का गिरना चालू होता है और संक्रमण फैलता है।
● नाखून लंबे रखेंगे तो गंदगी भरेगी और भोजन के साथ गंदगी पेट में जायेगी जिससे पेट
 संबंधित बीमारियाँ होती हैं।
● आँख, कान, नाक की सफाई प्रतिदिन स्वच्छ पानी से अच्छी तरह धोकर करनी चाहिए ।
 आँख की गंदगी से आँखों की ज्योति कम होना, सूजन होना, खुजली होकर संक्रमण होना
नाक की गंदगी से श्वास नली में सूजन, सिर दर्द, चक्कर आना कान की गंदगी से सुनने में
 परेशानी, शारीरिक संतुलन पर प्रभाव, चेहरे पर आंशिक लकवा, नाक की सफाई भी अत्यंत
 आवश्यक है। जिससे सर्दी, खाँसी से बच सकें। फेफड़े को शुद्ध वायु श्वास के द्वारा मिल सकेगी।
● कान की सफाई भी नुकीली लकड़ी, लोहे की पिन से न करें। महीन कपड़े से स्वच्छ करना
 चाहिए।
● शारीरिक स्वच्छता के लिये प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।
● वस्त्र को स्वच्छ जल से, साबुन से धोकर धूप में अच्छी तरह सुखाकर पहनना चाहिये।
गीले कपड़ों को पहनने से खुजली हो सकती है।
● स्नान, शारीरिक सफाई के साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारी से भी बचाता है। जैसे
मैल जम जाना, शरीर से बदबू आना, आदि ।
● स्नान करने के बाद शरीर को रगड़कर पोंछना चाहिए।
● बालों को भी धोकर, कपड़े से पोंछकर सुखाना चाहिए।
● बालों में, शरीर पर तेल लगाना चाहिये। जिससे शरीर की चमड़ी में सूखापन नहीं आता,
चर्म रोगों से बचा जा सकता है, इत्यादि ।
प्रश्न 11. संतुलित आहार में कौन-कौन से पोषक तत्व होते हैं ? उनके कार्यों का
वर्णन करें ।
उत्तर—विभिन्न भोज्य पदार्थों में उपस्थित पौषक तत्व एवं उनके कार्य निम्नलिखित है―
(क) कार्बोज (कार्बोहाइड्रेट)― आहार में कार्बोज का होना अति आवश्यक होता है। कार्बोज
का मुख्य कार्य शरीर में उर्जा प्रदान करना होता है। कार्बोहाइड्रेट्स को ही कार्बोज कहा जाता
है। यह भोजन का मुख्य तत्व होता है। इसमें तीन तत्व कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन होते है।
(ख) वसा― भारतीय आहार का सबसे अधिक उर्जा प्रदायी तत्व होता है। हमारे देश
में वसा आधारित भोजन को प्राथमिकता दी जाती है। क्योंकि यह उर्जा देने का कार्य करता
है। लगभग 1 ग्राम वसा के सेवन से शरीर को 9 ग्राम कैलोरी मिलती है। इसके अधिक
सेवन से शरीर में वसा का संचय होता रहता है।
(ग) प्रोटीन—संतुलित आहार में प्रोटीन का होना अति आवश्यक होता है । कोई भी
आहार बिना प्रोटीन के संतुलित नहीं कहा जा सकता है। शरीर की वृद्धि एवं विकास का
कार्य प्रोटीन की उपस्थिति में ही होता है। हमारे शरीर द्वारा निरंतर कार्य करने से प्रतिदिन
कोशिकाएँ, उतकों, तंतुओं आदि का टूटना लगा रहता है। प्रोटीन इनकी मरम्मत एवं निर्माण
का कार्य करता है ।
(घ) विटामिन–संतुलित आहार का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व है। यह शरीर की
विभिन्न प्रकार की जटिल रासायनिक क्रियाओं में भाग लेता है। साथ ही शरीर की समस्त
क्रिया-कलापों, भरण-पोषण एवं वृद्धि के अतिआवश्यक तत्व है।
(ङ) खनिज लवण – शरीर का निर्माणात्मक कार्य जैसे अस्थियों, दांतों, कोमल
तंतुओं, रक्त आदि का निर्माण करने एवं विभिन्न क्रियाओं के नियंत्रण का कार्य करते हैं।
खनिज लवणों में कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि आते है, जो विभिन्न भोज्य पदार्थों
से प्राप्त होते है ।
(च) रेशे (Fiber)— भोजन के पाचन में सहायता करने का कार्य इन्हीं के द्वारा किया
जाता है। ये अमाशय के क्रमनुकुंचन गति का कार्य करते है, जिससे भोजन आंतों में नहीं
चिपकता एवं सरलता से इसका पाचन हो जाता है।
(छ) जल―शरीर की सभी क्रियाओं जैसे अंतग्रहण, पाचन, अवशोषण, वहन,
चयापचय एवं मल पदार्थों के उत्सर्जन के लिए महत्वपूर्ण घटक होता है। शरीर को प्रयाप्त
मात्रा में जल की आवश्यकता भी होती है। यह शरीर के तापक्रम को नियंत्रित रखने का
कार्य भी प्रमुखता से करता है।
प्रश्न 12. विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व, उनके स्रोत एवं शरीर में उनकी उपयोगिता की वर्णन
करें ।
उत्तर– शरीर में सात प्रकार के पोषक तत्वों का समावेश होता है-कर्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा,
 विटामिन, खनिज, लवण, न्यूक्लिक अम्ल तथा जल ।
(क) कार्बोहाइड्रेट–शरीर को ऊर्जा प्रदान करना व निरंतर नई ऊर्जा का उत्पादन
कर व्यक्ति को ऊर्जावान बनाए रखना इस तत्व का प्रमुख कार्य है। गेहूँ, चावल, बाजरा
शकरकंद, शलगम, आलू आदि कार्बोहाइड्रेट के स्रोत हैं।
(ख) प्रोटीन – यह तत्व शारीरिक वृद्धि व कोशिकाओं एवं तंत्रिकाओं के विकास के
लिए आवश्यक होता है। चना, दाल, बादाम, काजू, मांस, मछली, अंडे, दूध, फल,
सोयाबिन, मूंगफली से भरपूर मात्रा में प्रोटीन प्राप्त किया जा सकता है।
(ग) वसा―यह तत्व भी शरीर को ऊर्जावान बनाता है तथा तापमान का सतुलन बनाए
रखने में सहयोगी होता है और त्वचा के लिए भी लाभकारी है। जैतून व मछली के तेल,
सरसों का तेल, घी तथा नट्स में पर्याप्त वसा पाई जाती है।
(घ) विटामिन– हड्डियों का बालों की मजबूती, त्वचा की चमक, हार्मोन के संतुलन,
प्रजनन क्षमता के विकास आदि के लिए यह तत्व अत्यंत आवश्यक है। दूध, अंडे, मछली
का तेल, हरी सब्जियाँ, सूखे मेवे, जूस, अंकुरित अनाज, फल आदि बहुत से विटामिन
के अच्छे स्रोत हैं।
(ङ) खनिज लवण–पाचन संबंधी क्रियाओं के उचित संचालन के लिए, नसों व मांसपेशियों
की मजबूती के लिए, रक्त कणिकाओं की आवश्यक मात्रा बनाए रखने के लिए, तंत्रिका तंत्र
के विकास के लिए व नई कोशिकाओं के निर्माण में खनिज तत्व आवश्यक होते हैं।
(च) न्यूक्लिक अम्ल―मनुष्य में आँखों का रंग, बालों का रंग, त्वचा का रंग आदि जैसे
 अनुवांशिक गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के सदस्यों तक संवहन करने का कार्य न्यूक्लिक
 अम्ल ही करता है।
(छ) जल-शरीर का सही तापमा त्वचा निखार व नमी बनाए रखने के लिए। जल एक
आवश्यक तत्व है। शरीर के भीतर मानव भार का 65-70% स्तर तक जल होता है। इस स्तर
में 1% कमी आने पर प्यास उत्पन्न होती है तथ यदि यह कमी 10% तक हो जाए तो जल
के अभाव से मृत्यु भी हो सकती है।
प्रश्न 13. संक्रामक रोग से क्या समझते हैं ? उनके कारण तथा रोकथाम के
जानकारी की चर्चा करें।
उत्तर—संक्रामक रोग, रोग जो किसी ना किसी रोगजनित कारकों (रोगाणुओं) जैसे
प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु, वाइरस इत्यादि के कारण होते है। संक्रामक रोगों में एक शरीर
से अन्य शरीर में फैलने की क्षमता होती है। मलेरिया, टायफायड, चेचक, इन्फ्लुएन्जा
इत्यादि संक्रामक रोगों के उदाहरण हैं। संक्रामक बीमारियाँ रोगाणुओं से होती हैं जो एक
व्यक्ति से दूसरे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क से फैलते हैं। कुछ और रोग (जैसे कि टेटनस)
रोगाणु-जनित है पर एक व्यक्ति से दूसरे में नहीं फैलते। परम्परा से ऐसे रोगों को भी
संक्रामक कहा जाता है। संक्रमण रोग के कारणों में बैक्टीरिया, वायरस, फफूँद और सूक्ष्म
परजीवी (जैसे मलेरिया या फाइलेरिया रोग के परजीवी) शामिल होते हैं।
       संक्रामक रोगों एक बड़ा कारण रहन-सहन के खराब हालात जिनमें अशुद्ध पेयजल,
मलमूत्र निकास की व्यवस्था न होना, कम पोषण और अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा
का अभाव शामिल हैं। छूत/संक्रमण की बीमारियों में बहुत सारी खतरनाक और कम
खतरनाक बीमारियाँ शामिल होती है। तपेदिक, कोढ़, काला अजार, हाथी पाँव, एड्स, यकृत
शोथ (हैपेटाइटिस) मोतीझरा (टॉयफाइड) रैबीज, रूमटी बुखार आदि गम्भीर और चिरकारी
बीमारियों में आती हैं। दूसरी ओर मलेरिया, वायरस से होने वाला दस्त, निमोनिया, हैजा,
डेंगू, मस्तिष्कावरण शोथ (मैनेनजाईटिस), विभिन्न प्रकार की खाँसी और जुकाम तीव्र
बीमारियों की श्रेणी में आती हैं। इसके अलावा कृमि, पामा (स्कैबीज) चूका (लाउस) भी
बहुत आम हैं। खाने से जुड़ी हुई संक्रामक बीमारियाँ भी काफी होती हैं।
       संक्रमण कैसे फैलते हैं ये समझने के लिए हमें कुछ बातें समझनी पड़ेंगी । पहली बात
है रोगाणु के आश्रय से सभी जिवाणु हमारे पास आते है। ये आश्रय में रहते हैं, बढ़ते हैं
और यहीं से फैलते हैं। इसलिए वो सभी लोग और मवेशी जो तपेदिक से बीमार हों तपेदिक
के आश्रय हैं। एक दूषित कुँआ हैजे जैसे रोग का आश्रयस्थल होता है। मलेरिया संक्रमण
के आश्राय, स्रोत, वेक्टर आदि आइए इन शब्दों को मलेरिया के सन्दर्भ में समझें मलेरिया
के मामले में संक्रमण का आश्रय मलेरिया के कुल रोगी होते हैं। मलेरिया का वाहक
(संक्रमित) एनोफलीज मच्छर होते हैं। यहाँ से ही रोगाणु नए पोषद को संक्रमित करते हैं।
जिन लोगों के माध्यम से ये संक्रमण हमारे गाँव या हम एक तक पहुँची है वो ही संक्रमण
का स्रोत हैं। आश्रय स्थल अक्सर पास ही में स्थित होता है। मलेरिया का परजीवी
ऐनोफलीज मच्छर के काटने से फैलता है। इसलिए ये मच्छर मलेरिया के लिए संक्रमण
कीट का काम करते हैं ।
        संक्रमण की बीमारियों का इलाज व्यापक और अन्य समूहों की बीमारियों के इलाज
से आसान होता है। (जैसे दिल की बीमारियाँ या कैंसर) । इनके लिए तुलनात्मक रूप से
आसान और सस्ता इलाज उपलब्ध होता है। इसके अलावा रोगों से बचाव के लिए टीकाकरण
ने भी इनका फैलना कम किया है। रहन-सहन सुधार से भी इनमें कमी आती है। संक्रामक
रोगों पर चिकित्सीय या बचावकारी तरीकों से नियंत्रण कर पाना आधुनिक चिकित्साशास्त्र
की एक बड़ी उपलब्धि हैं। कुछ संक्रामक बीमारियों के लिए टीके बनाए गए हैं, जिनको
ठीक समय पर लगवा लेने से कुछ बीमारियों की संभावना खत्म हो जाती हैं जैसे—पोलियो
के ड्राप्स। खसरा गम्स तथा जर्मन खसरा लिए एम. एम. आर का टीका।
              इसके अलावा संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए मक्खियों को कीटनाशक पदार्थ
छिड़क कर मार दें क्योंकि ये कई तरह के संक्रामक रोग जैसे दस्त, हैजा, टायफाइड, पोलियो,
टेऊकोमा इत्यादि फैलाती हैं। भोजन को ढक कर रखें और खासतौर पर मांस-मछली को
साफ रखें और अच्छी तरह पका कर खायें। इसके अतिरिक्त पीने के पानी की सफाई पर
अधिक ध्यान दें क्योंकि टायफाइड, पेचिश, पीलिया, दस्त, पोलियो और अन्य कई रोग पानी
के द्वारा ही फैलते हैं। पानी को रोगाणु रहित करने के लिए उपयोग लाने से पूर्व पानी को
उबाल लें। पेड़ पौधे प्राकृतिक प्रदूषण निरोधक और रोगों से लड़ने में हमारी मदद करते
हैं इसलिए हमें चाहिए कि पेड़ न काटें बल्कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए और उनसे लाभ
उठाएं। टी. बी. के मरीज इधर-उधर न थूकें बल्कि किसी डिब्बे में (जिसमें रासायनिक पदार्थ
या राख हो) थूकें ।
भीड़-भाड़ से दूर रहें। इससे वायु या सांस द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियाँ जैसे―
जुकाम, फ्लू, मम्स, काली खांसी, टी. बी. इत्यादि बीमारियाँ आपको चपट में नहीं लेंगी।
भीड़-भाड़ से दूर रहें। इससे वायु या सास द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियाँ जैसे―
जुकाम, फ्लू, मम्स, काली खांसी, टी बी इत्यादि बीमारियाँ नहीं होंगी। बुखार होने पर अपने
चिकित्सक से फौरन इलाज करवाएं। इन्जेक्शन लगवाने से पूर्व सावधानी बरतें और रोगाणु
रहित सुई और पिचकारी का इस्तेमाल करें। उपयोग की हुई इन्जेक्शन की सुइयों से बचें।
इनसे एड्स, हेपेटाइटिस-बी आदि रोग फैलते हैं। लोहा चुभ जाने या कट जाने पर टिटनेस
का टोका जरूर लगवा लें। फिर भी यदि संक्रमण हो ही जाता है तो जल्दी उसका उपचार
कराना चाहिए।
प्रश्न 14. हेल्थ कार्ड तथा डिवार्मिंग पुस्तिका क्या है ? इसके उपयोग की समझ
विकसित करें। यह बच्चों के लिए किस प्रकार लाभदायक है ?
उत्तर – हेल्थ कार्ड–सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं के स्वास्थ्य की
स्थिति तथा जानकारी के लिए उनका स्वास्थ्य कार्ड बनाया जाता है। इस हेल्थ कार्ड में बच्चे
की पूरी जानकारी दर्ज होती है। वही बच्चों की नियमित स्वास्थ्य की जांच विशेषज्ञ डॉक्टरों
से कराई जाती है। संकुल के अंतर्गत आने वाले स्कूलों में हेल्थ कार्ड शिक्षकों द्वारा तैयार
किए जाएंगे। इन हेल्थ कार्ड्स में एक जैसा प्रो-फॉर्मा तैयार किया जाता है। इनमें बच्चे
का नाम, अभिभावक का नाम, उसकी उम्र, कक्षा, बीमारी की स्थिति, ब्लड ग्रुप, वजन, पता
आदि की जानकारी दर्ज होती है। बच्चों के नियमित चेकअप से इसे अपडेट किया जाता है।
         इस योजना का मकसद बीमारियों को पहचान कर उनका समय पर इलाज कराना है,
ताकि बच्चों की पढ़ाई प्रभावित न हो और वे बेहतर रिजल्ट दे पाएं। इसके साथ ही सरकार
के पास बच्चों की सेहत का डाटा उपलब्ध रहेगा। अच्छी पढ़ाई के लिए अच्छा स्वास्थ्य
होना जरूरी है। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चों के परिवारों की आर्थिक स्थिति
अच्छी नहीं होती है। न तो बेहतर इलाज मिल पाता है न दवाएँ । हेल्थ कार्ड बनने से उनका
निःशुल्क चौकअप समय-समय पर कराया जा सकता है।
      गंभीर बीमारी का पता चलने पर निःशुल्क उपचार भी विभागीय स्तर पर उपलब्ध कराया
जाता है। बच्चों की आँख, नाक, कान, गला, दांत एवं त्वचा रोग की जांच समय-समय
पर की जाती है। स्कूली छात्रों के इलाज की सटीक व्यवस्था कर उसे आराम दिया जाता
है, ताकि संक्रमण अन्य बच्चों में न फैले। इस दौरान बच्चे का वजन और लंबाई का डाटा
भी समय-समय पर दर्ज किया जाता है। जिलाधिकारी के माध्यम से शिविर लगाकर बच्चों
को सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। इस प्रकार हेल्थ कार्ड अनेक प्रकार से बच्चों के लिए।
उपयोगी है। सरकारी स्कूलों में ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे आते हैं। कई बार
अभिभावक बुखार या खांसी को सामान्य समझ लेते हैं। पैसे न होने के कारण वे डॉक्टर
के पास जाने की जगह किसी भी मेडिकल स्टोर से जाकर दवा ले लेते हैं, कई बार तो देशी
दवाइयों के चक्कर में पड़कर अनजाने में बीमारियों को बढा लेते हैं। स्वास्थ्य कार्ड बनने
से बीमार बच्चों को चिह्नित कर उनके इलाज की व्यवस्था की जाती है, ताकि शरीर में कोई
भी बीमारी बड़ा रूप न ले सके।
        डिवार्मिंग पुस्तिका–नवजात शिशुओं और स्कूली बच्चों को परजीवी कृमि संक्रमण
से संरक्षित करने के लिए और इसके प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए प्रत्येक वर्ष
10 फरवरी को नेशनल डीवॉर्मिंग डे के रूप में मनाया जाता है। किसी डिवार्मिंग पुस्तिका
में बच्चों से संबंधित उन्हें दी जाने वाली परजीवी संक्रमण से बचाने वाली दवाओं से संबंधित
सूचनाओं का संग्रह होता है । इससे यह पता चलता है कि बच्चों को कब-कब किस-किस
संक्रमण या रोगों से बचाव हेतु गोलियाँ या दवाइयाँ दी गई हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक वर्ष
10 फरवरी को नेशनल डीवॉर्मिंग डे के दिन सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों और
आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों को डीवॉर्मिंग गोलियाँ (Albendazole tablets) का वितरण
किया जाता है। 1 से 2 साल के बच्चों को आधी खुराक दी जाती है जबकि 2-19 वर्ष के
बच्चों को पूरी खुराक दी जाती है। यह संक्रमण मुख्य रूप से Soil Transmitted
Helminths (एसटीएच) अर्थात पेट के परजीवी से होता है। यह परजीवी पेट में पाए जाते
हैं। यह खुले में शौच से संक्रमित हुई मृदा को छूने आदि से बच्चों की आतों में पहुँच कर
अंडे देते हैं और बच्चों के पोषण को अपने विकास में प्रयोग करते हैं। अंततः यह क्रिया
कुपोषण, अनेमिया, मानसिक रोग और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों को जन्म देती है । इस
प्रकार के रोगों से रोकथाम के लिए दी जाने वाली गोलियों की सूचनाएँ डीवर्मिंग पुस्तिका
में दर्ज होती है, जिससे यह पता चलता है कि बच्चों को कब-कब संक्रमण से बचाव के
लिए गोलियाँ दी गई हैं। इसका उपयोग प्रत्येक बच्चे के संक्रमण से रोकथाम में किये जाने
वाले उपायों को जानने में होता है। इससे प्राप्त सूचनाओं से रोगों को फैलने से रोकने एवं
संक्रमण से बचने में मदद मिलती है।
प्रश्न 15. विद्यालय में शिक्षकों एवं बच्चों द्वारा स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन
कैसे करेंगे ?
                                                अथवा,
विद्यालय में शिक्षकों एवं बच्चों के साथ मिलकर एक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम के
आयोजन का वर्णन करें ।
उत्तर― स्वास्थ्य जागरूकता अभियान हेतु कार्यक्रम का आयोजन विद्यालय के प्रांगण
से शुरू करें। सर्वप्रथम बच्चों से स्वास्थ्य संबंधी नारों की तख्तियाँ बनवाएँ एवं उन्हें कतार
में लगाकर रैली निकालने का प्रबंध करें। जिसमें विद्यालय के छात्र-छात्रा, जीविका दीदी
आदि भाग लेकर स्वास्थ्य और साफ-सफाई संबंधी नारे लगाते पोषक क्षेत्र का भ्रमण कर
पुनः कार्यक्रम स्थल तक पहुँचे । रोजमर्रा की साफ सफाई एवं स्वच्छता संबंधी आदतों पर
नुक्कड़ नाटक, बाल-गीत, लोक नृत्य का आयोजन करें। बालिकाओं द्वारा बालिकाओं को
पोषण आहार एवं स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देने के लिए भी एक भाषण प्रतियोगिता का
आयोजन करें। सभी कार्यक्रम शिक्षकों के निर्देश पर संचालित हों एवं आवश्यकता पड़ने
पर शिक्षक समय-समय पर बच्चों का मार्गदर्शन भी करते रहें। शिक्षक स्वयं भी समुदाय
एवं बच्चों को साफ सफाई से जुड़ी आदतों को बताएं एवं कचरे को कूड़ेदान में डालने एवं
विभिन्न प्रकार के कचरे के निपटारे व प्रबंधन संबंधित जानकारियाँ भी बच्चों एवं अभिभावकों
को दें।
प्रश्न 16. मिड डे मील क्या है ? विद्यालय में मिड डे मील की आधारभूत समझ
विकसित करें । इसके अंतर्गत सामग्रियों के भंडारण, तैयारी एवं वितरण से संबंधित
कौशलों के विकास की चर्चा करें।
उत्तर—मध्याह्न भोजन योजना, भारत सरकार की एक योजना है जिसके अन्तर्गत पूरे
देश के प्राथमिक और लघु माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों को दोपहर का भोजन निःशुल्क
प्रदान किया जाता है। नामांकन बढ़ाने, प्रतिधारण और उपस्थिति तथा इसके साथ-साथ
बच्चों में पौषणिक स्तर में सुधार करने के उद्देश्य से 15 अगस्त 1995 को केन्द्रीय प्रायोजित
स्किम के रूप में प्रारंभिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पौषणिक सहायता कार्यक्रम शुरू किया
गया था। अधिकतर बच्चे खाली पेट स्कूल पहुँचते हैं, जो बच्चे स्कूल आने से पहले भोजन
करते हैं, उन्हें भी दोपहर तक भूख लग जाती है और वे अपना ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित नहीं
कर पाते हैं। मध्याह्न भोजन बच्चों के लिए “पूरक पोषण” के स्रोत और उनके स्वस्थ विकास
के रूप में भी कार्य कर सकता है। यह समतावादी मूल्यों के प्रसार में भी सहायता कर सकता
है, क्योंकि कक्षा में विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि वाले बच्चे साथ में बैठते हैं और साथ-साथ
खाना खाते हैं। विशेष रूप से मध्याह्न भोजन स्कूल में बच्चों के मध्य जाति व वर्ग के
अवरोध को मिटाने में सहायक हो सकता हैं। स्कूल की भागीदारी में लैंगिक अंतराल को
भी यह कार्यक्रम कमकर सकता हैं, क्योंकि यह बालिकाओं को स्कूल जाने से रोकने वाले
अवरोधों को समाप्त करने में भी सहायता करता है। मध्याह्न भोजन स्किम छात्रों के
ज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास में सहायता करता है। सुनियोजित मध्याह्न
भोजन को बच्चों में विभिन्न अच्छी आदतें डालने के अवसर के रूप में उपयोग में लाया
जा सकता हैं। यह स्किम महिलाओं को रोजगार के उपयोगी स्रोत भी प्रदान करता हैं।
              सामग्रियों के भंडारण, तैयारी एवं वितरण से संबंधित कौशल—इस योजनान्तर्गत
विद्यालयों में मध्यावकाश में छात्र-छात्राओं को स्वादिष्ट एवं रुचिकर भोजन प्रदान किया जाता
है। योजनान्तर्गत प्रत्येक छात्र को सप्ताह में 4 दिन चावल के बने भोज्य पदार्थ तथा 2 दिन
गेहूँ से बने भोज्य पदार्थ दिए जाने की व्यवस्था की गयी है। खाद्यान्न से भोजन पकाने के
लिए परिवर्तन लागत की व्यवस्था की गयी है। परिवर्तन लागत से सब्जी, तेल, मसाले एवं
अन्य सामग्रियों की व्यवस्था की जाती है। मध्याह्न भोजन की विविधता हेतु सप्ताह के प्रत्येक
कार्य दिवस हेतु भिन्न-भिन्न प्रकार का भोजन (मेनू) दिए जाने की व्यवस्था की गयी है,
जिससे भोजन के सभी पोषक तत्व उपलब्ध हो तथा वह बच्चों की अभिरुचि के अनुसार
भी हो।
     भोजन निर्माण का कार्य मुख्यत: ग्राम पंचायतों/वार्ड सभासदों, शिक्षकों की देखरेख
में किया जा रहा है। भोजन बनाने हेतु आवश्यक खाद्यान्न (गेहूँ एवं चावल) जो फूड
कोर्पोरेशन ऑफ इंडिया से निःशुल्क प्रदान किया जाता है, उसे सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान
के माध्यम से ग्राम प्रधान या प्रधानाध्यापक को उपलब्ध कराया जाता है जो अपने देखरेख
में विद्यालय परिसर में बने किचन शेड में भोजन तैयार करते हैं। भोजन बनाने हेतु लगने
वाली अन्य आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करने का दायित्व भी ग्राम प्रधान / प्रधानाध्यापक
का ही है। इस हेतु उसे परिवर्तन लागत भी उपलब्ध करायी जाती है। नगर क्षेत्रों में अधिकांश
स्थानों पर भोजन बनाने का कार्य स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है। भोजन की तैयारी
के फलस्वरूप छात्रों को साबुन से हाथ धुलाकर एवं पतंग में बैठाकर भोजन कराने की
व्यवस्था विद्यालय के बरामदे में की जाती है। रसोइए द्वारा छात्रों को भोजन शिक्षकों की
देखरेख में परोसा जाता है।
      विद्यालयों में पके-पकाए भोजन की व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु नगर
क्षेत्र पर वार्ड समिति एवं ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम पंचायत समिति का गठन किया गया
है। मंडल स्तर पर योजना के अनुश्रवन एवं पर्यवेक्षण हेतु मंडलीय सहायक निदेशक (बेसिक
शिक्षा) को दायित्व सौंपा गया है।
प्रश्न 17. प्रारंभिक विद्यालय की समयसारणी में खेलकूद के स्थान तथा इसके
प्रभावी उपयोग की चर्चा करें ।
                                          अथवा,
प्रारंभिक विद्यालय के समय सारणी में खेलकूद को स्थान दिया जाना क्यों
आवश्यक है एवं इसका प्रभावी उपयोग कैसे कर सकते हैं ?
उत्तर― ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों की परिस्थितियों में काफी अंतर
होता है। इनमें से कुछ बच्चों के पास उपयुक्त खेल संबंधित क्रियाओं में लगाए जा सकने
योग्य पर्याप्त समय तो होता है पर वे उसे गलियों-सड़कों के चक्कर लगाने में व्यर्थ कर
देते हैं या बैठ कर टीवी देखने में व्यर्थ कर देते हैं। उनके खेलकूद की कोई निश्चित दिशा
नहीं होती। उन्हें इस संबंध में किसी तरह के दिशा निर्देशन नहीं मिल पाते। न तो उनके
खेल व्यवस्थित होते हैं न ही उन्हें किसी अनुभवी व्यक्ति का मार्गदर्शन ही मिल पाता है।
कुछ बच्चे विशेषकर लड़कियों का अधिकांश समय घर के कामकाज और छोटे भाई-बहनों
को संभालने में निकल जाता है। अपनी इच्छानुसार बिताने के लिए उन्हें मुश्किल से ही कभी
समय मिल पाता है।
खेलने के अवसर के अभाव का बच्चों के संपूर्ण विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।
जो बच्चा अपना समय निरंतर अपनी किताबें पढ़ने या टेलीविजन देखने में लगाता है उसे
शायद ही शारीरिक व्यायाम का अवसर मिल पाएगा और इन सब के परिणामस्वरूप उसका
शारीरिक विकास प्रभावित हो सकता है। हो सकता है कि उसकी संपूर्ण शारीरिक क्षमताओं
का विकास ना हो पाए। उसके बैठने का ढंग, रीढ़ की हड्डी, पीठ और दृष्टि पर भी बुरा
प्रभाव पड़ सकता है। अध्ययन और घर के कामकाज के लिए बच्चों पर दबाव डालने से
उन्हें इन सब कामों में कोई आनंद नहीं आएगा। खेल के दौरान अन्य बच्चों के साथ मुक्त
रूप से अंत:क्रिया न कर पाने के कारण बच्चों के सामाजिक कौशलों का विकास प्रभावित
होगा जिसकी वजह से वह शर्मिला और परिस्थितियों से सामना करने से बचना शुरू कर
सकता है। उसे कल्पनाशक्ति और सृजनात्मकता के विकास के अवसर नहीं मिल पाएंगे।
    उसकी दबी हुई भावनाओं एवं ऊर्जा, तनाव और द्वंद्व जो वह खेल के दौरान अभिव्यक्ति
कर सकता था, वह या तो दबे या अप्रकट ही रह जाएंगे या फिर गुस्से और आक्रामकता
जैसे अवांछनीय रूपों में अभिव्यक्त होंगे। इन सबसे बच्चों के बड़े होने पर सामाजिक व
संवेगात्मक समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। स्पष्ट है कि बच्चों के चहुँमुखी विकास में खेलकूद
की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। खेल अनुभवों का अभाव बच्चे के विकास को अत्यंत गंभीर
रूप से प्रभावित कर सकता है। इसलिए विद्यालय की समय सारणी में खेलकूद को पर्याप्त
स्थान देना आवश्यक है। विद्यालयों तथा अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में खेल-कूद को शिक्षा
का एक आवश्यक अंग माना जाता है। खेलों से संबंधित अनेक प्रकार की प्रतियोगिताएँ
आयोजित की जाती हैं। विद्यालयों में वार्षिक खेल समारोह होते हैं। हर दि एक घंटी खेल
की घंटी होती है । खेल-प्रशिक्षक इस घंटी में बच्चों को तरह-तरह के खेल खेलना सिखाते
हैं। बच्चे उत्साहित होकर खेलते हैं तथा तनाव से मुक्त होकर पुनः पढ़ाई में ध्यान केंद्रित
करते हैं। रोजाना खेल गतिविधियों का संचालन होने से खेल प्रतिभाओं को भी निखरने का
मौका मिलता है।
            समयसारणी में खेलकूद की घंटी का उपयोग विभिन्न प्रकार के खेलों के माध्यम से
बच्चों के समुचित विकास में किया जा सकता है। ऐसा नहीं कि हर खेल के लिए बड़े मैदान
की दरकार होती है। क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी जैसे खेल के लिए बड़े मैदान चाहिए तो
खो-खो, कबड्डी, कुश्ती जैसे खेल तो विद्यालयों के प्रांगण में भी खेले जा सकते हैं। इन
खेलों में शिक्षक केवल आयोजक की भूमिका ही नहीं निभा सकते बल्कि वे बच्चों के साथ
मिलकर खेल भी सकते हैं। साथ-साथ खेलने के कारण इन बच्चों में भी शिक्षकों के प्रति
एक प्रेम और स्नेह का भाव रहता है। क्योंकि खेल के दौरान शिक्षक व छात्रों के बीच की
दूरी कम हो जाती है। वे एक टीम के सदस्य की भांति खेल में भागीदारी कर रहे होते हैं।
इससे उनकी बात का असर बढ़ जाता है। वे बच्चों को सहजता के साथ अपनी बात कह
पाते हैं। किसी विद्यालय में खेल गतिविधियों का नियमित तौर पर होना और बच्चों के
साथ-साथ शिक्षकों की भागीदारी होने का सकारात्मक असर पड़ता है।
प्रश्न 18. प्रारंभिक विद्यालय में बच्चों द्वारा रोजाना खेले जाने वाले स्थानीय
रोचक खेलों का वर्णन करें। उनका आयोजन किस प्रकार करेंगे ?
उत्तर―बच्चों द्वारा रोजाना खेले जाने वाले स्थानीय खेलों एवं उसके आयोजन का
वर्णन निम्नलिखित है―
(क) आँख-मिचौली खेल―आँख-मिचौली एक मजेदार खेल है। इस खेल को
लड़के-लड़कियाँ एक साथ या अलग-अलग टोलियां बनाकर खेल सकते हैं। इस खेल में
किसी एक खिलाड़ी के आँख में एक कपड़े की पट्टी बाँध दी जाती है। यह खिलाड़ी पट्टी
बाँधे-बाँधे अपने आसपास के खिलाड़ियों को पकड़ने की कोशिश करता है जिसे वह पकड़
लेता है तो फिर पट्टी उसके आँखों में बाँधी जाती है।
             इसी को कहीं-कहीं दूसरे तरीके से खेला जाता है। जिसके आँख में पट्टी बँधी होती
है उसके सिर पर कई लोग एक-एक करके थप्पी देते हैं। सबसे पहले थप्पी किसनें दी उसका
नाम पट्टी बाँधने वाले खिलाड़ी को बताना होता है। इस खेल में खिलाड़ियों की संख्या
कितनी भी हो सकती है।
(ख) लंगड़ी टांग खेल—ज्यादातर यह खेल लड़कियाँ खेलती हैं, कई बार लड़के
भी इस खेल का मजा लेने से पीछे नहीं हटते। इस खेल को हर जगह अलग-अलग तरीके
से खेला जाता है जिसमें एक तरीका ये भी है। इस खेल को खेलने के लिए चौपाल या
कहीं भी खूली जगह में नौ खाने बनाने होते हैं। तीन-तीन खानों की तीन लाइनें होती हैं।
जो बीच का गोला होता है इसमें क्रास का निशांन लगा देते हैं। पहले खाने से लेकर आठ
खाने तक बारी-बारी खेलना पड़ता है।
        खेल की शुरूआत पहले खाने से करते हैं, घर में फूटे मिट्टी के घड़े की एक गोल
गुप्पल बनाते हैं। पहले खाने से लेकर उसे क्रास वाले खाने तक एक टांग से खड़े होकर
सरकाना पड़ता है। जब क्रास वाले खाने में गुप्पल और खिलाड़ी दोनों पहुँच जाएं तो वहाँ
दोनों पैर रख सकते हैं। इसके बाद उस गुप्पल हो एक पैर से इतनी तेज मारना पड़ता है
जिससे वो उन नौ खानों के बाहर निकल जाए। इसके बाद खिलाड़ी को उस क्रास वाले
खाने से फांदकर गुप्पल को पैरों से छूना होता है। तब कहीं जाकर पहला राउंड पूरा होता
है अगर इस दौरान से गुप्पल किसी भी लाइन में छू गयी तो दूसरे खिलाड़ी को मौका मिलता
है। इसमें दो या उससे अधिक खिलाड़ी खेल सकते हैं।
(ग) लब्बो―डाल खेल–ये खेल पेड़ों पर चढ़कर खेला जाता है। जिसमें एक
खिलाड़ी को छोड़कर सभी पेड़ों की अलग-अलग डाल पर बैठ जाते हैं । एक खिलाड़ी नीचे
रहता है, एक गोल गोला करके इसमें एक दो हाथ के एक डंडे को रखा जाता है। जो
खिलाड़ी नीचे होता है उसे ऊपर चढ़े किसी खिलाड़ी को छूना होता है इसके बाद उस लकड़ी
को पकड़ कर चूमना होता था। अगर खिलाड़ी छूने के बाद लकड़ी पकड़कर न चूम पाए
और इस दौरान दूसरा खिलाड़ी उस लकड़ी को दूर फेंक दें तो उसे ये प्रक्रिया दोबारा करनी
पड़ती है। जो खिलाड़ी पकड़ जाता है तो फिर उसे दूसरे खिलाड़ियों को ऐसे ही पकड़ना
होता है।
         (घ) गुट्टे का खेल (अड्डा गोठी) – ये लड़कियों का सबसे पसंदीदा खेलों में से एक
होता है। इस खेल को खेलने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती । पत्थर या ईंटों
के पाँच गोल टुकड़े से खेला जाता है। इस खेल में पत्थर के एक टुकड़े को हवा में उछालना
होता है, उसके नीचे आने तक दूसरे टुकड़े को हाथ में उठाना होता है । इस खेल में बहुत
फुर्ती चाहिए होती है, क्योंकि हवा में उछलने वाले गुट्टे के नीचे गिरते ही दूसरे गुट्टे को उठाना
होता। इस खेल की अलग-अलग प्रक्रियाएँ होती हैं। इसे अलग-अलग जगह कई तरीकों
से खेला जाता है इससे हाथों की कसरत अच्छी हो जाती है।
(ङ) छुपन छुपाई खेल―ये खेल पहले सर्दियों में खूब खेला जाता था। पुआल के
और लकड़ियों के ढेर में कहीं भी छुप जाओ दूसरा साथी खोजता रहता था। एक साथी 100
तक गिनती गिनता तबतक आस-पास सभी साथी छिप जाते। एक-एक करके सभी साथियों
को खोजना होता है, अगर इस दौरान जो खिलाड़ी खोज रहा है उसे छुपा हुआ कोई भी
साथी पीछे से उसके सिर को छु ले तो उसे दोबारा पूरे साथियों को खोजना होता है।
(च) रस्सी कूदना खेल―इस खेल को भी ज्यादातर लड़कियाँ खेलती हैं। इसे पेट
कम करने या वजन घटाने का एक अच्छा व्यायाम भी माना जाता है। एक रस्सी को टुकड़े
से लगातार कूदना होता है अगर बीच में रुक गये या रस्सी पैरों में फंस गयी तो दूसरे खिलाड़ी
को मौका मिलता । दूसरा तरीका ये भी है कि दो लड़कियाँ रस्सी के एक-एक छोर को पकड़
लें और तीसरी लड़की बीच में कूदती है। जो सबसे ज्यादा बिना रुके कूदती है जीत उसी
की मानी जाती है।
(छ) पिटटू खेल—इस खेल में दो टीमें होती हैं, एक बॉल होती है, और सात चपटे
पत्थर, जिन्हें एक के ऊपर एक रख दिया जाता है। एक खिलाड़ी बॉल से पत्थरों को गिराता
है । अब एक टीम का टास्क है कि वो इन पत्थरों को फिर से एक दूसरे के ऊपर रखे, और
दूसरी टीम को बॉल मारकर इन्हें रोकना होता है। अगर पत्थर रखते समय खिलाड़ी को बॉल
छू जाती है, तो वो खिलाड़ी खेल से आउट हो जाता है, इत्यादि ।
प्रश्न 19. विभिन्न प्रकार के इनडोर व आउटडोर खेलों व उसके आयोजन की
बुनियादी समझ विकसित करें। इन खेलों के नियमों की भी चर्चा करें।
उत्तर—(क) एथलेटिक्स (Athletics)—एथलेटिक्स प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ने, कूदने,
फेंकने और चलने की प्रतियोगिताओं का एक विशेष संग्रह है। एथलेटिक्स के अंतर्गत
सामान्य तौर पर ट्रैक और फील्ड, रोड रनिंग, क्रॉस कंट्री रनिंग और रेस वॉकिंग प्रतियोगिताओं
को सम्मिलित किया जाता है। रेसिंग घटनाओं के नतीजों को परिष्कृत स्थिति (या समय,
जहाँ मापा जाता है) द्वारा तय किया जाता है, जबकि कूद और फेंक एथलीट द्वारा जीते जाते
हैं जो प्रयासों की एक श्रृंखला से उच्चतम या सबसे दूर माप प्राप्त करता है। प्रतियोगिताओं
की सादगी, और महंगे उपकरण की आवश्यकता की कमी, एथलेटिक्स को दुनिया में सबसे
अधिक प्रतिस्पर्धी खेलों में से एक बनाता है। एथलेटिक्स ज्यादातर एक व्यक्तिगत खेल है।
      विद्यालयी स्तर पर अंडर-14 आयु वर्ग के बालक-बालिकाओं के लिए संकुल स्तर से
आरंभ होकर राज्य स्तर तक 100, 200, 400 मीटर दौड़ के अलावा लंबी कूद, ऊँची कूद,
शॉट पुट, डिस्कस थ्रो, 4 गुना 100 मीटर रिले दौड़ की प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती
हैं। इनमें नियमत: सबसे लंबा, ऊँचा कूदने तथा सबसे से कम समय में दौड़ पूरी करने वाले
खिलाड़ी को विजेता घोषित किया जाता है। वहीं शॉट पुट या जावेलिन थ्रो (भाला फेंक)
प्रतियोगिता में खेल के नियमों के अधीन खेलते हुए सबसे दूर फेंकने वाले को विजेता घोषित
किया जाता है। बच्चे ऐसे खेलों की तैयारी अपने शारीरिक एवं खेल शिक्षक की मदद से
उचित मार्गदर्शन, परामर्श और अभ्यास के द्वारा करते हैं।
(ख) कबड्डी–कबड्डी एक खेल है, जो मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में खेली
जाती है। कबड्डी नाम का प्रयोग प्रायः उत्तर भारत में किया जाता है, इस खेल को दक्षिण
में ‘चेड्डुगडु’ और पूर्व में ‘हु तू तू’ के नाम से भी जानते हैं। यह खेल भारत के पड़ोसी
देश नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में भी उतना ही लोकप्रिय है। साधारण शब्दों
में इसे ज्यादा अंक हासिल करने के लिए दो टीमों के बीच की एक स्पर्धा कहा जा सकता
है। अंक पाने के लिए एक टीम का रेडर (कबड्डी-कबड्डी बोलने वाला) विपक्षी पाले
(कोर्ट) में जाकर वहाँ मौजूद खिलाड़ियों को छूने का प्रयास करता है। इस दौरान विपक्षी
टीम के स्टापर (रेडर को पकड़ने वाले) अपने पाले में आए रेडर को पकड़कर वापस जाने
से रोकते हैं और अगर वह इस प्रयास में सफल होते हैं तो उनकी टीम को इसके बदले एक
अंक मिलता है। और अगर रेडर किसी स्टापर को छूकर अपने पाले में चला जाता है तो
उसकी टीम के एक अंक मिल जाता और जिस स्टापर को उसने छुआ है उसे नियमत: कोर्ट
से बाहर जाना पड़ता है। कबड्डी में 12 खिलाड़ी होते हैं जिसमें से 7 कोर्ट में होते हैं और
5 रिजर्व होते हैं। कबड्डी कोर्ट डॉज बॉल गेम जितना बड़ा होता है। कोर्ट के बीचोबीच
एक लाइन खिंची होती है जो इसे दो हिस्सों में बांटती है। कबड्डी महासंघ के हिसाब से
कोर्ट का माप 13 मीटर x 10 मीटर होता है।
      खिलाड़ियों के पाले में आने के बाद टॉस जीतने वाली टीम सबसे पहले अपना खिलाड़ी
(रेडर) विपक्षी पाले में भेजती है। यह रेडर कबड्डी-कबड्डी बोलते हुए जाता है और
विपक्षी खिलाड़ियों को छूने का प्रयास करता हैं। वह अपनी चपलता का उपयोग कर विपक्षी
खिलाड़ियों (स्टापरों) को छूने का प्रयास कर सकता है। इस प्रक्रिया में अगर वह विपक्षी
टीम के किसी भी स्टापर को छूने में सफल होता है तो उस स्टापर को मरा हुआ (डेड)
समझ लिया जाता है। ऐसे में उस स्टापर को कोर्ट से बाहर जाना पड़ता है। और अगर स्टापरों
को छूने की प्रक्रिया में रेडर अगर स्टापरों की गिरफ्त में आ जाता है तो उसे मरा हुआ (डेड)
मान लिया जाता है। यह प्रक्रिया दोनों टीमों की ओर से बारी-बारी चलती रहती है। इस
तरह से हर दल का खिलाड़ी बारी बारी से क्रम बदलते रहते हैं और अंत में जिसके दल
में सबसे ज्यादा सदस्य बचे रह जाते हैं उस दल को विजेता घोषित कर दिया जाता है। यह
खेल आमतौर पर 20-20 मिनट के दो हिस्सों में खेला जाता है।
(ग) खो-खो-खो-खो एक भारतीय मैदानी खेल है। इस खेल में मैदान के दोनों
ओर दो खंभों के अतिरिक्त किसी अन्य साधन की जरूरत नहीं पड़ती। इसके लिये केवल
111 फुट लंबे और 51 फुट चौड़े मैदान की आवश्यकता होती है। दोनों ओर दस-दस फुट
स्थान छोड़कर चार-चार फुट ऊँचे, लकड़ी के दो खंभे गाड़ दिए जाते हैं और इन खंभों
के बीच की दूरी आठ बराबर भागों में इस प्रकार विभाजित कर दी जाती है कि दोनों दलों
के खिलाड़ी एक दूसरे की विरुद्ध दिशाओं की ओर मुँह करके अपने अपने नियत स्थान पर
बैठ जाते हैं। प्रत्येक दल को एक-एक पारी के लिए सात सात मिनट दिए जाते हैं और नियत
समय में उस दल को अपनी पारी समाप्त करनी पड़ती है। दोनों दलों में से एक-एक
खिलाड़ी खड़ा होता है, पीछा करने वाले दल का खिलाड़ी विपक्षी दल के खिलाड़ी को
पकड़ने के लिए सीटी बजाते ही दौड़ता है। विपक्षी दल का खिलाड़ी पंक्ति में बैठे हुए
खिलाड़ियों का चक्कर लगाता है। जब पीछा करने वाला खिलाड़ी उस भागने वाले खिलाड़ी
के निकट आ जाता है, तब वह अपने ही दल के खिलाड़ी के पीछे जाकर ‘खो-खो’ शब्द
का उच्चारण करता है तो वह उठकर भागने लगता है और पीछा करने वाला खिलाड़ी पहले
को छोड़कर दूसरे का पीछा करने लगता है। बनाए नियम के अनुसार, थोड़े स्थानीय हेर-फेर
के साथ यह खेल खेला जाता है।
       यदि किसी एक टीम के अंक दूसरी टीम से 12 या उससे अधिक हो जाएं तो पहली
टीम दूसरी टीम को धावक के रूप में पीछा करने को कह सकती है। यदि दूसरी टीम इस
बार अधिक अंक प्राप्त कर ले तो भी उसका धावक बनने का अधिकार बना रहता है।
(घ) फुटबॉल—इसे आमतौर पर सिर्फ फुटबॉल (अंग्रेजी— फुट पाद या पग
बॉल/गेंद) या सॉकर कहा जाता है, दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक है। यह एक
सामूहिक खेल है और इसे ग्यारह खिलाड़ियों के दो दलों के बीच खेला जाता हैं। फुटबॉल
को सामान्यतः एक आयताकार घास कृत्रिम घास के मैदान पर खेला जाता है जिसके दोनों
छोरों पर एक-एक गोल होता है। खिलाड़ियों द्वारा विरोधी दल के गोल में चालाकी से गेंद
को डालना ही इस खेल का उद्देश्य है। खेल में गोलरक्षक ही एक मात्र ऐसा खिलाड़ी होता
है जिसे गेंद को रोकने के लिए अपना हाथ इस्तेमाल करने की अनुमति होती है। दल के
बाकी खिलाड़ी आमतौर पर गेंद को मारने (किक या पदाघात) के लिये अपने पैर का
इस्तेमाल करते हैं तथा कभी-कभी हवा में गेंद को रोकने के लिए वे अपने धड़ या फिर
सिर का इस्तेमाल करते हैं। जो दल खेल के अंत या समय समाप्ति तक ज्यादा गोल करता
है, विजयी रहता है। खेल के अंत यानि समय समाप्ति तक यदि स्कोर बराबर रहे तो उस
मुकाबले को बराबर या ड्रा घोषित करना, या खेल को अतिरिक्त समय में ले जाना और
पेनाल्टी शूट आउट के द्वारा हार जीत का फैसला करना सब प्रतियोगिता के स्वरूप पर निर्भर
करता है। खेल में भाग लेने वाली दोनों टीमों के 11-11 खिलाड़ी खेल का हिस्सा होते हैं ।
अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार खेल की अवधि 90 मिनट होती है जिन्हें 45-45 मिनट के
दो मध्यांतर में विभाजित कर खेला जाता है।
            आधिकारिक खेल के नियमों (Laws of the Game) में सत्रह नियम हैं। फुटबॉल
के सभी स्तर में वही नियम लागू होते हैं जबकि कुछ समूहों जैसे जूनियर, बुजुर्ग या महिलाओं
के लिए कुछ संशोधन की अनुमति दी जाती है। अनेक खिलाड़ी खेल के बीच में स्थानापन्न
के द्वारा बदले जा सकते हैं। अधिकतर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं और घरेलू लीग खेलों में
अधिकतम तीन खिलाड़ियों को बदलने की अनुमति प्राप्त है, हालांकि अन्य प्रतियोगिताओं
या दोस्ताना मैचों में इसकी संख्या अलग हो सकती है।
(ङ) हॉकी-हॉकी एक ऐसा खेल है जिसमें दो टीमें लकड़ी या कठोर धातु या
फाईबर से बनी विशेष लाठी (स्टिक) की सहायता से रबर या कठोर प्लास्टिक की गेंद को
अपनी विरोधी टभ्म के नेट या गोल में डालने की कोशिश करती हैं। 11 खिलाड़ियों के दो
विरोधी दलों के बीच मैदान में खेले जाने वाले इस खेल में प्रत्येक खिलाड़ी मारक बिंदु पर
मुड़ी हुई एक छड़ी (स्टिक) का इस्तेमाल एक छोटी व कठोर गेंद को विरोधी दल के गोल
में मारने के लिए करता है। बर्फ में खेले जाने वाले इसी तरह के एक खेल आईस हॉकी
से भिन्नता दर्शाने के लिए इसे मैदानी हॉकी कहते हैं।
        दल के सामान्य संयोजन में पाँच खिलाड़ी फॉरवर्ड, तीन हाफबैक, दो फुलबैक और
एक गोलकीपर होते हैं। एक खेल में 35 मिनट के दो भाग होते हैं, जिनमें 5 से 10 मिनट
का अंतराल होता है। केवल चोट लगने की दशा में खेल रोका जाता है। गोलकीपर मोटे
मगर हल्के पैड पहनता है और उसे 30 गज के घेरे (डी) में गेंद को पैर से मारने अथवा
उसे पैरों या शरीर की मदद से रोकने की इजाजत होती है। अन्य सभी खिलाड़ी गेंद को
केवल स्टिक से ही रोक सकते हैं। एक खिलाड़ी को अपनी स्टिक या शरीर के किसी भी
भाग को अपने विरोधी और गेंद के बीच लाकर अवरोध खड़ा करने अथवा विरोधी व गेंद
के बीच दौड़कर बाधा डालने की अनुमति नहीं है। अधिकतर गलतियों की सजा विरोधी दल
को, जिस स्थान पर नियम तोड़ा गया, वहाँ से एक परी हिट के रूप में दी जाती है। खेल
के प्रत्येक भाग के लिए एक निर्णायक (रेफरी) होता है।
(च) वॉलीबॉल—यह खेल गेंद के द्वारा खेला जाता है जिसे नेट के दोनों तरफ दो
टीमों के 6-6 खिलाड़ियों द्वारा तीन सर्विस में एक तरफ से दूसरी तरफ पहुँचाना होता है।
ज्यादातर खेलों की तरह इसमें भी मुख्य लक्ष्य अंक स्कोर करना होता है, लेकिन इसका अंतर
यह है कि नेट को पार कराने वाले गेंद को नेट के ऊपर से पार कराना होगा, इस प्रकार
अंक को अंकन करना। वॉलीबॉल कोर्ट करीब 18 मीटर लंबा और 9 मीटर चौड़ा होता है,
जिसे नेट द्वारा पार कर लिया जाता है, जो इसे दो क्षेत्रों में विभाजित करता है। मैदान के
बीचों बीच वर्गाकार छोटे-छोटे खानों वाले जाल को 2 मीटर 43 सेंमी. की ऊंचाई पर, बगल
के दो मजबूत खंभों से बाँध दिया जाता है। इसकी ऊंचाई पुरुष एवं महिलावर्ग के लिए
भिन्न-भिन्न है। इस खेल में गेंद को हाथ की कलाइयों या मुट्ठी द्वारा सर्विस दी जाती है।
और नेट के पार दूसरी टीम के तरफ गेंद भेजी जाती है, जहाँ किसी खिलाड़ी द्वारा सर्विस
उठा पाने पर बॉल फेंकने वाली टीम को 1 अंक किया जाता है।
      दोनों दलों के कप्तान सिक्के की उछाल द्वारा सर्विस एवं क्रीड़ाक्षेत्र का चुनाव निर्णायक
के निर्देश पर करते हैं। प्रत्येक पाली की समाप्ति पर क्रीडाक्षेत्र का आपस में बदलना
आवश्यक है। बहुघा देखा जाता है कि प्रतियोगिता तीन पाली की ही होती है, किंतु फाइनल
मैच पाँच पाली का होता है। यदि तीन पाली के खेल में प्रत्येक दल एक एक पाली जीत
चुके हों और पाँच पाली के खेल में दो दो, तो अंतिम निर्णायक पाली में 8 अंक प्राप्त करने
पर क्रीडाक्षेत्र बदल दिया जाता है, क्योंकि पाली 15 अंक पहले बना लेनेवाले दल के पक्ष
में समाप्त हो जाती है।
(छ) क्रिकेट–क्रिकेट एक बल्ले और गेंद का दलीय खेल है जिसकी शुरूआत
दक्षिणी इंग्लैंड में हुई थी । क्रिकेट के कई प्रारूप हैं, इसका उच्चतम स्तर टेस्ट क्रिकेट है।
इसके अलावा एक दिवसीय व T-20 क्रिकेट मुकाबला दो दलों (टीमों) या पक्षों के बीच
भी खेला जाता है। हर टीम में ग्यारह खिलाड़ी होते हैं। इसका मैदान कई आकार और
आकृतियों का हो सकता है। मैदान की परिधि को सीमा कहा जाता है और इसे कभी-कभी
रंग दिया जाता है या कभी-कभी एक रस्सी के द्वारा मैदान की बाहरी सीमा को चिह्नित किया
जाता है।
         प्रत्येक टीम का उद्देश्य होता है दूसरी टीम से अधिक रन बनाना और दूसरी टीम के
सभी खिलाड़ियों को आउट करना। क्रिकेट में खेल को ज्यादा रन बना कर भी जीता जा
सकता है, चाहे दूसरी टीम को पूरी तरह से आउट न किया गया हो। दूसरे रूप में खेल
को जीतने के लिए अधिक रन बनाना और दूसरी टीम को आउट करना जरूरी होता है,
अन्यथा मुकावला बिना किसी नतीजे के समाप्त हो जाता है। खेल शुरू होने से पहले दोनों
टीमों के कप्तान एक सिक्के को उछाल करके निर्धारित करते हैं कि कौन-सी टीम पहले
बल्लेबाजी या गेंदबाजी करेगी। टॉस जीतने वाला कप्तान पिच, ओस की वर्तमान और
प्रत्याशित स्थिति के अनुसार अपना फैसला लेता है।
        मुख्य आकर्षण मैदान के विशेष रूप से तैयार किए गए क्षेत्र में होता है (आमतौर पर
केंन्द्र में) जो “पिच” कहलाता है। पिच के दोनों ओर 22 गज (20 मी.) विकेट लगाए
जाते हैं। ये गेंदबाजी उर्फ क्षेत्ररक्षण पक्ष के लिए लक्ष्य होते हैं और बल्लेबाजी पक्ष के द्वारा
इनका बचाव किया जाता है जो रन बनाने की कोशिश में होते हैं। मूलत: एक रन तब बनता
है जब एक बल्लेबाज गेंद को अपने बल्ले से मारने के बाद पिच के बीच भागता है, रन
बनाने के कई और तरीके हैं। यदि बल्लेबाज और रन बनाने का प्रयास नहीं करता है तो
गेंद “डेड” हो जाती है और गेंदबाज के पास वापिस गेंदबाजी के लिए आ जाती है । गेंदबाजी
पक्ष विभिन्न तरीकों से बल्लेबाजी को आउट करने की कोशिश करता है । जबतक बल्लेबाजी
पक्ष ” आल आउट” ने हो जाए। इसके बाद गेंदबाजी वाला पक्ष बल्लेबाजी करता है और
बल्लेबाजी वाला पक्ष गेंदबाजी के लिए “मैदान” में आ जाता है। पेशेवर मैचों में खेल के
दौरान मैदान पर 15 लोग होते हैं। इनमें से दो अंपायर होते हैं जो मैदान में होने वाली
गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। दो बल्लेबाज होते हैं, उनमें से एक स्ट्राइकर होता है जो
गेंद का सामना करता है और दूसरा नॉन स्ट्राइकर कहा जाता है। बल्लेबाजों की भूमिका
रन बनने के साथ और ओवर पूरे होने के साथ बदलती रहती है। क्षेत्ररक्षण टीम के सभी
11 खिलाड़ी एक साथ मैदान पर होते हैं। उनमें से एक गेंदबाज होता है, दूसरा विकेटकीपर
और अन्य नौ क्षेत्ररक्षक कहलाते हैं।
(ज) बैडमिंटन—मैडमिंटन रैकेट से खेला जानेवाला एक खेल है, जो दो विरोधी
खिलाड़ियों (एकल) या दो विरोधी जोड़ों (युगल) द्वारा नेट से विभाजित एक आयताकार
कोर्ट में आमने-सामने खेला जाता है खिलाड़ी अपने रैकेट से शटलकॉक को मारकर के
अपने विरोधी पक्ष के कोर्ट के आधे हिस्से में गिराकर प्वाइंट्स प्राप्त करते हैं। एक रैली
तब समाप्त हो जाती है जब शटलकॉक मैदान पर गिर जाता है। प्रत्येक पक्ष शटलकॉक
के उस पार जाने से पहले उस पर सिर्फ एकबार वार कर सकता है।
        कोर्ट आयताकार होता है और नेट द्वारा दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है। आम
तौर पर कोर्ट एकल और युगल दोनों खेल के लिए चिह्नित किये जाते हैं, हालांकि नियम
सिर्फ एकल के लिए कोर्ट को चिह्नित करने की अनुमति देता है। युगल कोर्ट एकल कोर्ट
से अधिक चौड़े होते हैं, लेकिन दोनों की लंबाई एक समान होती हैं। कोर्ट की पूरी चौड़ाई
6.1 मीटर (20 फुट) और एकल की चौड़ाई इससे कम 5.18 मीटर (17 फुट) होती है।
कोर्ट की पूरी लंबाई 13.4 मीटर (44 फुट) होती है। सर्विस कोर्ट एक मध्य रेखा द्वारा कोर्ट
की चौड़ाई को विभाजित करके चिह्नित होते हैं।
          हर खेल 21 प्वाइंट पर खेला जाता है, जहाँ खिलाड़ी एक रैली जीत कर एक प्वाइंट
स्कोर करता है। रैली के आरंभ में, सर्वर और रिसीवर अपने-अपने सर्विस कोर्ट में एक-दूसरे
के तिरछे खड़े होते हैं (देखें कोर्ट के आयाम) । सर्वर शटलकॉक को इस तरह हिट करता
है कि यह रिसीवर के सर्विस कोर्ट में जाकर गिरे। अगर एक टीम एक खेल जीत जाती है
तो वे एक बार फिर खेलते हैं और अगर वह एक बार फिर से जीत जाती है तो वह उस
मैच को ही जीत लेती हैं, लेकिन यदि वह हार गयी तो उन्हें मैच में जीत-हार के लिए एक
और मैच खेलना पड़ता है। किसी भी युगल खेल की पहली रैली के लिए, सविंग जोड़ी
फैसला कर सकती है कि कौन पहले सर्व करेगा और रिसीविंग जोड़ी फैसला कर सकती
है कि कौन पहले रिसीव करेगा। दूसरे खेल की शुरूआत में खिलाड़ियों को अपना छोर
बदलना होता है। अगर मैच तीसरे खेल तक पहुंचता है, तब गेम के आरंभ में और फिर
जब अग्रणी जोड़ी का स्कोर 11 अंक तक पहुंचता है तब, उन्हें दो बार अपने छोर बदलने
पड़ते हैं।
(झ) कैरम–कैरम एक इंडोर गेम है। इसे दो, तीन या चार खिलाड़ी खेल सकते
हैं। इसके लिए एक कैरम बोर्ड और नौ-नौ काली और पीली गोटियाँ तथा एक लाल रंग
की रानी गोटी होती है । एक स्ट्राइकर होता है जिससे मारकर गोटियों को कैरम बोर्ड के चारों
कोनों पर बने छिद्रों में से किसी एक में धकेलना होता है। बोर्ड के चारों तरफ लंबी पट्टी
खींची जाती है । हर पट्टी की लंबाई 47 सेमी. व चौड़ाई 3 सेमी. होती है । इन्हीं पट्टियों को
स्ट्राइकर लाइन कहा जाता है जिस पर स्ट्राइक रखकर ही गोटियों को हिट किया जाता है।
गोटियों को हिट करने के लिए स्ट्राइकर का इस्तेमाल किया जाता है।
        इस खेल में दो रंग की गोटियाँ इस्तेमाल में लाई जाती हैं। एक काली व दूसरी पीली।
ये गोटियाँ गोल होती हैं । दोनों तरह की गोटियों की संख्या 9-9 होती है व इसके अतिरिक्त
एक गोटी लाल रंग की होती है, जिसे रानी कहा जाता है, खेल में प्रत्येक गोटी प्राप्त करने
पर एक अंक मिलता है, किन्तु रानी गोटी प्राप्त करने पर खिलाड़ी कों पाँच अंक मिलते
है। कैरम बोर्ड में जहाँ भी तीर का निशान होता है उसका मतलब ये होता है कि खेलने
वाले का हाथ या उंगलियाँ इन तीरों पर टच ना हो। किसी खिलाड़ी अथवा टीम के 24 अंक
होने पर वह रानी से 5 अंक प्राप्त नहीं कर सकता। यदि वह रानी लेकर जीतता है, तो भी
उसे विरोधी की बोर्ड पर बची गोंटों के अंक मिलते है।
(ञ) शतरंज – शतरंज (चेस) दो खिलाड़ियों के बीच खेला जाने वाला एक बौद्धिक
एवं मनोरंजक खेल है। शतरंज एक चौपाट (बोर्ड) के ऊपर दो व्यक्तियों के लिये बना खेल
है। चौपाट के ऊपर कुल 64 खाने या वर्ग होते है, जिसमें 32 चौरस काले या अन्य रंग
और 32 चौरस सफेद या अन्य रंग के होते है। खेलने वाले दोनों खिलाड़ी भी सामान्यतः
काला और सफेद कहलाते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी के पास एक राजा, वजीर, दो ऊँट, दो घोड़े,
हो हाथी और आठ सैनिक होते है। बीच में राजा व वजीर रहता है। बाजू में ऊँट, उसके
बाजू में घोड़े और अंतिम कतार में दो दो हाथी रहते है। उनकी अगली रेखा में आठ पैदल
या सैनिक रहते हैं।
     चौपाट रखते समय यह ध्यान दिया जाता है कि दोनों खिलाड़ियों के दायें तरफ का खाना
सफेद होना चाहिये तथा वजीर के स्थान पर काला वजीर काले चौरस में वे सफेद वजीर
सफेद चौरस में होना चाहिये। खेल की शुरूआत हमेशा सफेद खिलाड़ी से की जाती है।
बोर्ड दो प्रतिस्पर्धियों के बीच इस प्रकार रखा जाता है कि प्रत्येक खिलाड़ी की ओर दाहिने
हाथ के कोने पर हल्के रंग वाला खाना हो। सफेद हमेशा पहले चलता है। इस प्रारंभिक
कदम के बाद, खिलाड़ी बारी-बारी से एक बार में केवल एक चाल चलते हैं (सिवाय जब
“केस्लिंग” में दो टुकड़े चले जाते हैं)। चाल चल कर या तो एक खाली वर्ग में जाते हैं।
या एक विरोधी के मोहरे वाले स्थान पर कब्जा करते हैं और उस खेल से हटा देते हैं।
खिलाड़ी कोई भी ऐसी चाल नहीं चल सकते जिससे उनका राजा हमले में आ जाये। यदि
खिलाड़ी के पास कोई वैध चाल नहीं बची है, तो खेल खत्म हो गया है यह या तो एक
मात है- यदि राजा हमले में है-या एक गतिरोध या शह-यदि राजा हमले में नहीं है। हर
शतरंज का टुकड़ा बढ़ने की अपनी शैली है।
प्रश्न 20. विद्यालयी स्तर पर खेल एवं खेलकूद की अवधारणा स्पष्ट करें और
इसके महत्व की चर्चा करें।
उत्तर–”खेल” (स्पोर्ट) शब्द पुराने फ्रेंच शब्द “देस्पोर्ट” (desport) से उत्पत्ति हुई
है, जिसका अर्थ “अवकाश” है। खेल कई नियमों एवं रिवाजों द्वारा संचालित होने वाली
एक प्रतियोगी गतिविधि है। खेल व खेलकूद सामान्य अर्थ में उन गतिविधियों को कहा जाता
है, जहाँ प्रतियोगी की शारीरिक क्षमता खेल के परिणाम (जीत या हार) का एकमात्र अथवा
प्राथमिक निर्धारक होती है, लेकिन यह शब्द दिमागी खेल और मशीनी खेल जैसी गतिविधियों
के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जिसमें मानसिक तीक्ष्णता एवं उपकरण संबंधी गुणवत्ता
बड़े तत्द होते हैं। सामान्यतः खेल को एक संगठित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रशिक्षित शारीरिक
गतिविधि के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें प्रतिबद्धता तथा निष्पक्षता होती है।
        इसे अगर प्रारंभिक विद्यालयी स्तर के संदर्भ में समझें तो खेल, बच्चे की स्वाभाविक
क्रिया है। भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। ये विभिन्न प्रकार
के खेल बच्चों के सम्पूर्ण विकास में सहायक होते हैं। खेल से बच्चों का शारीरिक विकास,
संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा
मिलता है। खेलों के प्रकारों में अन्वेषणात्मक खेल, संरचनात्मक खेल, काल्पनिक खेल
और नियमबद्ध खेल शामिल हैं। खेलों में सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी देखी जाती हैं।
         खेलों के प्रकारों में अन्वेषणात्मक खेल, संरचनात्मक खेल, काल्पनिक खेल और
नियमबद्ध खेल शामिल हैं। खेलों में सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी देखी जाती हैं। खेल अक्सर
केवल मनोरंजन या इसके पीछे आम तथ्य को उजागर करता है कि लोगों को शारीरिक रूप
से स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करने की आवश्यकता है।
महत्व―
(क) खेल से मनुष्य की मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी होती हैं तथा वह मनुष्य को
सामाजिक कौशलों के विकास का भी अवसर देता है।
(ख) बच्चों को इच्छानुसार खेलने के अवसर देने से हम उनकी सीखने में मदद करते
हैं। खेल बच्चों को खोज करने और उसके द्वारा स्वयं सीखने का अवसर प्राप्त होता है।
(ग) खेल ऐसी क्रिया है जो बच्चों को अभ्यास के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।
बच्चे जब ईंटों की एक पंक्ति पर चलने की कोशिश करते हैं, दीवार फाँदते हैं, सीढ़ी चढ़ते
हैं, झूलों में लटकते हैं, दौड़ने के खेल खेलते हैं, साइकिल की सवारी करते हैं तो उनकी
बहुत माँसपेशियों का समन्वय बढ़ता है। खेल-खेल में जमीन में गड्ढे खोदने, फूलों के हार
बनाने, चित्र बनाने और उनमें रंग भरने में बच्चों की लघु माँसपेशियों का विकास होता है।
(घ) खेलते समय बच्चे अक्सर वयस्कों की नकल करते हैं। इस प्रकार से उपयुक्त
व्यवहार और उन भूमिकाओं को सीखते हैं जो कि उन्हें बड़े होकर निभानी होंगी। खेलते
हुए परस्पर क्रिया में वे विभिन्न प्रकार के कार्यो, त्यौहारों, धारणाओं के बारे में जानकारी
प्राप्त करते हैं।
(ङ) खेल बच्चों के विकास में मदद करके उन्हें भविष्य की भूमिकाओं के लिए तैयार
करते हैं। खेल-खेल में सीखी गई संकल्पनाएँ पढ़ने-लिखने के कौशल और समूह खेल
में हिस्सा लेने की क्षमता तथा बाद में स्कूल में समायोजन में मदद करते हैं। अत: खेल
औपचारिकता शिक्षा की तैयारी में सहायक होता है। खेल प्रश्न पूछने और खोजबीन करने
की मनोवृत्ति को भी परिपोषित करता है। जैसे-जैसे बच्चे नई चीजें सीखते हैं और उनमें
निपुणता प्राप्त करते हैं वह अपने बारे में आश्वस्त होते हैं। यह बढ़ता हुआ आत्म-विश्वास
उन्हें चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए तैयार करता है, इत्यादि ।
प्रश्न 21. कक्षा के अंदर और विद्यालय प्रांगण में कराए जाने योग्य कुछ रोचक
खेलों का वर्णन करें। उनका आयोजन किस प्रकार करेंगे ? इनके शैक्षिक महत्व की
भी चर्चा करें ।
उत्तर―खेल होते ही हैं मस्ती और मनोरंजन करने के लिए। आउटडोर गेम हों या
इनडोर, ये सारे खेल बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए फायदेमंद होते हैं।
बच्चों को हर दिन कुछऐसे खेल जरूर खेलने चाहिए, जिससे मनोरंजन के साथ-साथ दिमागी
कसरत भी हो सके। दरअसल, दिमागी कसरत दिमाग की कार्यक्षमता को बढ़ाने का काम
करती है। इसके साथ ही शारीरिक श्रम वाले खेलों से बच्चों की मांसपेशियों का विकास
तो होता ही है साथ ही दिमाग व शरीर में समन्वय भी बनता है। ऐसे ही कुछ खेलों एवं
उनके आयोजन का वर्णन निम्नलिखित है―
कक्षा के अंदर कराए जाने योग्य रोचक खेल―
(क) शब्दों की अंताक्षरी―अंताक्षरी की तर्ज पर ही तुम इसमें अलग-अलग थीम
बना सकते हैं, जैसे देश के नाम से एटलस या फिर किसी पशु-पक्षी के नाम से अंताक्षरी
शुरू करना । नाम के अंतिम अक्षर से दूसरे बच्चे को कोई नाम बोलने के लिए कहें। इस
तरह कभी जानवरों के नाम से, तो कभी फल-सब्जियों के नाम से बच्चे अंताक्षरी खेल सकते
हैं। इससे शब्द ज्ञान तो बढ़ेगा ही, बच्चों के शब्दकोश में कई सारे नाम भी जुड़ते जाएंगे।
इससे उनका शब्द भंडार बढ़ेगा।
(ख) ब्लॉक्स जोड़ना—अलग-अलग रंग के ब्लॉक्स को जोड़ते हुए जब बच्चे कोई
आकृति बनाते हैं, तो इस गतिविधि का भी उनके दिमाग पर असर पड़ता है। इससे रंग और
आकार की उन्हें पहचान तो होती ही है, कल्पना शक्ति का भी विकास होता है। इससे
बच्चों की रचनात्मकता बढ़ती है। बच्चों को अलग-अलग समूहों में बाँट कर, प्रत्येक समूह
को ब्लॉक्स देखकर निश्चित समय के अंदर ब्लॉक्स को बनाने के खेल कराए जा सकते हैं।
(ग) शतरंज (chess) — इस खेल में मोहरों को आगे बढ़ाते हुए एक-दूसरे की सेना
पर आक्रमण करना होता है। इसके बाद अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी के बादशाह को मात देनी
होती है। लेकिन यह इतना आसान भी नहीं होता है, क्योंकि इस लड़ाई में दिमाग लगाने
की जरूरत पड़ती है। यह गेम एकाग्रता और फोकस को बढ़ाता है। साथ इससे बच्चे
अनुशासन भी सीखते हैं। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि चेस का खेल खेलने वाले व्यक्ति की
एकाग्रता और फोकस करने की क्षमता अन्य की तुलना में बहुत अधिक होती है। चेस खेलने
से फैसले लेने की क्षमता का भी विकास होता है। इस खेल को दो व्यक्तियों के बीच खेला
जाता है। खेल का आयोजन करने से पहले खेल के नियम एवं मोहरों की चाल स्पष्ट रूप
से बच्चों को बता देनी चाहिए।
(घ) चेकर्स―चेकर्स भी काफी हद तक शतरंज की तरह ही होता है, लेकिन इस
खेल के नियम कुछ अलग होते हैं। इसमें खिलाड़ियों को सिर्फ काले खानों में ही चलना
होता है, वह भी सिर्फ तिरछा। ऐसे में अगर रास्ते में तुम्हारे प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी का मोहरा
आ जाए तो हटाकर उस जगह पर कब्जा करना होता है जिसके लिए दिमाग लगाना पड़ेगा।
धीरे-धीरे इस गेम को खेलते हुए दिमाग एकाग्र होने लगता है और बच्चे अपने काम पर
फोकस करना सीख जाते हैं। इस गेम का भी आयोजन कक्षा में करवाने के लिए चेकर्स
बोर्ड बच्चों को देकर उन्हें खेल के नियम स्पष्ट रूप से समझा देना जरूरी है, इत्यादि ।
विद्यालय प्रांगण में कराए जाने योग्य रोचक खेल―
(क) गिनती व पहाड़े―विद्यालय प्रांगण में कक्षा के सारे बच्चों को एक गोले में
बिठाकर किसी भी बच्चे से गिनती शुरू करवाकर क्रमवार आगे बोलना है। जो बच्चा गलत
बोलता है वह इस खेल से बाहर हो जाएगा। अगला बच्चा फिर 1 से शुरू करेगा। यह क्रम
चलता रहेगा। जो बच्चा ध्यान पूर्वक गिनती बोलेगा और आउट नहीं होगा, वह विजेता
होगा। यही खेल पहाड़े बोलकर भी खेल जा सकता है। इस खेल में एकाग्रता का बहुत
महत्व है। सब बच्चों को ध्यानपूर्वक सुनना है कि उसका पड़ोसी क्या बोल रहा है।
(ख) छुप्पन छुपाई खेल—ये खेल पहले सर्दियों में खूब खेला जाता है। पुआल के
और लकड़ियों के ढेर में कहीं भी छुपन पर दूसरा साथी खोजता रहता है। एक साथी 100
तक गिनती गिनता तबतक आस-पास सभी साथी छिप जाते हैं। एक-एक करके सभी
साथियों को खोजना होता है, अगर इस दौरान जो खिलाड़ी खोज रहा है। उसे छुपा हुआ
कोई भी साथी पीछे से उसके सिर को दू ले तो उसे दोबारा पूरे साथियों को खोजना होता
है। इस खेल का आयोजन विद्यालय प्रांगण में किसी भी उम्र के बच्चों तथा किसी भी संख्या
में बच्चों को साथ लेकर किया जा सकता है।
(ग) पिटटू खेल―इस खेल में दो टीमें होती हैं, एक बॉल होती है, और सात चपटे
पत्थर, जिन्हें एक के ऊपर एक रख दिया जाता है। एक खिलाड़ी बॉल से पत्थरों को गिराता
है। अब एक टीम का टास्क है कि वो इन पत्थरों को फिर से एक दूसरे के ऊपर रखे, और
दूसरी टीम को बॉल मारकर इन्हें रोकना होता है। अगर पत्थर रखते समय खिलाड़ी को बॉल
छू जाती है, तो वो खिलाड़ी खेल से आउट हो जाता है।
(घ) स्टापू―इसमें जमीन में चौकोर बॉक्स डिजाइन पर दिये जाते हैं। एक से दस
तक गिनती लिखी जाती है। हर बच्चा एक-एक करके दस खानों में स्टापू फेंकता है।
लंगड़ी करते हुए उस पत्थर तक पहुँचना होता है और उसे पैर से खिसकाते हुए वापस लाना
होता है। इस गेम से ब्रीदिंग प्रैक्टिस होती है और पैर मजबूत होते हैं। इस खेल के आयोजन
के लिए बच्चों को दो समूहों में बांटकर अलग-अलग टीम के बच्चे से खानों में स्टापू फेंकने
और लंगड़ी करते हुए उसे वापस लाने की गतिविधि कराई जा सकती है, इत्यादि।
प्रश्न 22. शिक्षा एवं स्वास्थ्य से शारीरिक शिक्षा के जुड़ाव की चर्चा करें।
                                            अथवा,
शिक्षा एवं स्वास्थ्य से शारीरिक शिक्षा किस तरह संबंधित है ? चर्चा करें।
उत्तर–वर्तमान समय में दुनिया में हर जगह शिक्षा में शारीरिक शिक्षा को शामिल करने
को महत्व दिया जा रहा है। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों से जीवन के विभिन
क्षेत्रों मानसिक, बौद्धिक, सैद्धांतिक अथवा व्यावहारिक रूप से अपना ज्ञान बढ़ाता रहते है।
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में इन्हीं निहित गुणों को विकसित करना है। इस प्रक्रिया में शारीरिक
शिक्षा का महत्व सामान्य शिक्षा से कहीं अधिक आंका गया है, क्योंकि खेलकूद, व्यायाम,
क्रीड़ा एवं मनोरंजन से मन तथा तन समान रूप से स्वस्थ रहते हैं। व्यायाम शरीर को स्वस्थ,
तंदुरुस्त, सशक्त तथा सुदृढ़ करता है, जिससे मस्तिष्क व शरीर दोनों स्वस्थ रहते हैं। शारीरिक
शिक्षा शारीरिक प्रक्रियाओं की शिक्षा है। अतः विद्यार्थी विभिन्न अनुभवों के माध्यम से शिक्षा
ग्रहण करता है।
        शारीरिक शिक्षा पेशीय प्रक्रियाएँ हैं, किंतु इसका उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्य से भिन्न नहीं
है। शारीरिक विकास के साथ-साक्ष उसका मानसिक तथा सामाजिक विकास होता है।
प्लेटों का यह विचार है कि संगीत तथा जिमनास्टिक को यदि हम एक साथ आत्मिक विकास
का माध्यम बनाएँ तो परिणाम आश्चर्यजनक होंगे। इसी तरह शारीरिक शिक्षा को विकास
का माध्यम बनाएं तो अभूतपूर्व परिणाम प्राप्त होंगे। शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य साधारण
शिक्षा के लक्ष्य से भिन्न नहीं है। दीर्घ पेशीय प्रक्रिया को माध्यम बनाकर इन लक्ष्यों की प्राप्ति
के लिए शारीरिक शिक्षा शिक्षक सदा प्रयासरत रहता है। जबकि साधारण विषय शिक्षक के
लिए ‘ज्ञान चर्चा’ ही विद्यार्थी शिक्षा का मुख्य माध्यम होता है। साथ ही स्वस्थ शरीर में एक
स्वस्थ मन रखने के लिए एक छात्र को नियमित शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता होती
है। हम यह कह सकते है कि शारीरिक शिक्षा के अभाव में शरीर क्रियाशील नहीं रह सकता।
है। स्वस्थ शरीर तथा कौशल विकास के लिए शारीरिक शिक्षा अतिआवश्यक है।
प्रश्न 23. भावनात्मक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य तथा संज्ञान के बीच अंतर्संबंधों
की समझ विकसित करें।
                                               अथवा,
भावनात्मक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य तथा संज्ञान के बीच क्या अंतर्संबंध है ?
स्पष्ट करें।
उत्तर – संज्ञान (Cognition) का अर्थ है—जानने की प्रक्रिया। ऐसी मानसिक क्रियाएँ
जो चिंतन, निर्णय, भाषा को उपयोग तथा अन्य उच्चतर मानसिक प्रक्रियाओं से संबद्ध होती
हैं। यह व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए शरीर
का स्वस्थ रहना आवश्यक है क्योंकि शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहने का असर मनुष्य के
भावनात्मक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है जिससे मानसिक प्रक्रियाएँ जो संज्ञान से
संबंधित हैं जैसे—चिंतन, निर्णय, संवाद, तर्क करना, भाषा का उपयोग आदि प्रक्रियाएँ
प्रभावित होती हैं।
      मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य हमारे समग्र स्वास्थ्य और भलाई का एक महत्वपूर्ण,
अनिवार्य हिस्सा है। हममें से ज्यादातर लोग शारीरिक रूप से स्वास्थ्य रहने के लिए किसी
न किसी गतिविधि में हिस्सा लेते हैं—जैसे जिम जाना, पैदल चलना, तैराकी या मैदान में
खेलना आदि। इसी तरह, हम सब मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए
कुछ कार्यकलापों को भी शामिल कर सकते हैं। जिससे हमारी संज्ञानात्मक क्षमता का भी
विकास होता है।
      उसी प्रकार भावनाओं के विनियम कौशल की कमी से खराब सेहत, रिश्तों में कठिनाई
और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं। मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ
रहना हमें चुनौतियों, तनाव और असफलताओं का सामना करने में मदद करता है। यह हमें
दैनिक जीवन में अधिक कार्य करने के लिए तैयार करता है। एक व्यक्ति जो मानसिक और
भावनात्मक रूप से स्वस्थ है वह खुद से और अन्य लोगों के साथ संपर्क करने में सक्षम
होता है, और जिन्दगी में जो चुनौतियाँ सामने अती है उनका सामना करने में सक्षम होता
है। इसलिए यदि कोई मानसिक रूप से स्वस्थ है यह सुनिश्चित करने में शारीरिक स्वास्थ्य
एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैसे—व्यायाम ऊर्जा को बढ़ाता, तनाव और मानसिक
थकान कम कर देता है। इससे हमारी संज्ञानात्मक क्षमता भी बढ़ती है तथा भावनात्मक रूप
से भी हम अपने आप को नियंत्रण में रखते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि भावनात्मक
स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य तथा संज्ञान एक दूसरे से अंतसंबंधित हैं।
प्रश्न 24. खेल के दौरान चोट एवं जख्म से बचाव के क्या उपाय है ? उस
प्राथमिक उपचार की चर्चा करें।
                                             अथवा,
चोट एवं जख्म से खेलने के दौरान बचने के लिए क्या-क्या सावधानियां बरतनी
चाहिए ? उसके प्राथमिक उपचार का वर्णन करें।
उत्तर―चोटों से बचने के लिये―
● किसी भी प्रकार का खेल शुरू करने से पहले वार्म-अप और खेल खत्म करने
के बाद कूल डाउन का समय जरूर दें। स्टेचिंग एक्सरसाइज भी करें। खेल खेलते
समय और प्रेक्टिस के दौरान सही कपड़े जूते और अन्य सुरक्षा कवच अवश्य
पहनने चाहिए।
● खेलों के दौरान सुरक्षा उपाय और उपकरणों का भी प्रयोग करें।
● अगर खेल के दौरान किसी प्रकार का दर्द हो रहा है, तो आराम करें।
● प्रशिक्षकों द्वारा दिये गये निर्देशों का सख्ती से पालन करें।
खिलाड़ी अपनी क्षमता से अधिक प्रेक्टिस न करें और थोड़ी सी चोट को भी
गंभीरतापूर्वक लेकर सही समय पर डॉक्टरी सहायता लें।
● वार्म अप और स्ट्रेचिंग करने के तुरंत बाद न खेलें। दो मिनट का आराम अवश्य
लें। खेलने के सही तरीके अपनाएँ ।
इससे चोट लगने की संभावना कम होती है। प्रोफेशनल खिलाड़ियों को मैचों के
अतिरिक्त भी व्यायाम एवं प्रेक्टिस करते रहना चाहिए।
● खेल के दौरान प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी, नींबू पानी एनर्जी ड्रिंक्स लेते
रहना चाहिए ताकि शरीर में एनर्जी का संचार होता रहे।
चोट लग जाने पर―
● कुछ दिनों के लिए खेलों का अभ्यास बंद कर दें।
● सिर की चोट सामान्य भी है, तो भी चिकित्सक की सलाह जरूर लें।
● चोट लगने के 7 दिन बाद तक दर्द ठीक नहीं हो रहा है, तो चिकित्सक से परामर्श जरूर लें।
● यदि चोट लगने के बाद खिलाड़ी बेहोश हो गया है, तो उसकी सांसों पर नजर
रखें। हलके दर्द के लिए प्रभावित जगह पर बर्फ का उपयोग करें।
● सूजन कम करने के लिए एंटी-इन्फ्लैमटरी (Anti-inflammatory) दवाएँ लें।
खुली चोट या घाव होने पर―
● यदि चोट गम्भीर है या रक्तस्राव हो रहा है तो चिकित्सक तक पहुँचने से पहले
घाव पर रूई या साफ कपड़े की पट्टी बाँध दें।
प्रश्न 24. खेल के दौरान चोट एवं जख्म से बचाव के क्या उपाय है ? उस
प्राथमिक उपचार की चर्चा करें।
                                             अथवा,
चोट एवं जख्म से खेलने के दौरान बचने के लिए क्या-क्या सावधानियां बरतनी
चाहिए ? उसके प्राथमिक उपचार का वर्णन करें।
उत्तर―चोटों से बचने के लिये―
● किसी भी प्रकार का खेल शुरू करने से पहले वार्म-अप और खेल खत्म करने
के बाद कूल डाउन का समय जरूर दें। स्टेचिंग एक्सरसाइज भी करें। खेल खेलते
समय और प्रेक्टिस के दौरान सही कपड़े जूते और अन्य सुरक्षा कवच अवश्य
पहनने चाहिए।
● खेलों के दौरान सुरक्षा उपाय और उपकरणों का भी प्रयोग करें।
● अगर खेल के दौरान किसी प्रकार का दर्द हो रहा है, तो आराम करें।
● प्रशिक्षकों द्वारा दिये गये निर्देशों का सख्ती से पालन करें।
खिलाड़ी अपनी क्षमता से अधिक प्रेक्टिस न करें और थोड़ी सी चोट को भी
गंभीरतापूर्वक लेकर सही समय पर डॉक्टरी सहायता लें।
● वार्म अप और स्ट्रेचिंग करने के तुरंत बाद न खेलें। दो मिनट का आराम अवश्य
लें। खेलने के सही तरीके अपनाएँ ।
इससे चोट लगने की संभावना कम होती है। प्रोफेशनल खिलाड़ियों को मैचों के
अतिरिक्त भी व्यायाम एवं प्रेक्टिस करते रहना चाहिए।
● खेल के दौरान प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी, नींबू पानी एनर्जी ड्रिंक्स लेते
रहना चाहिए ताकि शरीर में एनर्जी का संचार होता रहे।
चोट लग जाने पर―
● कुछ दिनों के लिए खेलों का अभ्यास बंद कर दें।
● सिर की चोट सामान्य भी है, तो भी चिकित्सक की सलाह जरूर लें।
● चोट लगने के 7 दिन बाद तक दर्द ठीक नहीं हो रहा है, तो चिकित्सक से परामर्श जरूर लें।
● यदि चोट लगने के बाद खिलाड़ी बेहोश हो गया है, तो उसकी सांसों पर नजर
रखें। हलके दर्द के लिए प्रभावित जगह पर बर्फ का उपयोग करें।
● सूजन कम करने के लिए एंटी-इन्फ्लैमटरी (Anti-inflammatory) दवाएँ लें।
खुली चोट या घाव होने पर―
● यदि चोट गम्भीर है या रक्तस्राव हो रहा है तो चिकित्सक तक पहुँचने से पहले
घाव पर रूई या साफ कपड़े की पट्टी बाँध दें।
● खुली चोट वाले स्थान को ठीक प्रकार से साफ करें और उसके बाद एण्टीबायोटिक
मलहम लगायें ।
● यदि चोट बहुत गहरी है, तो 15 मिनट तक घाव को साफ कपड़े से दबाये रखें।
अगर इसके बावजूद भी रक्त आना बंद नहीं हो रहा है, तो तुरंत चिकित्सक से
संपर्क करें। थोड़ी सी सावधानी और सजगता के साथ बच्चे बिना चोट लगे भी
गेम्स खेल सकते हैं।
मोच या मांसपेशियों में खिंचाव―मोच या खिंचाव जैसी चोट के लिए प्राथमिक
उपचार अपने “RICE” तकनीक से किया जा सकता है। “RICE” तकनीक इस प्रकार है―
● आराम करें (Rest)―चोट लगने के बाद एक्सरसाइज या व्यायाम न करें। कुछ
गंभीर चोट लगने के कारण आपको पूरी तरह से आराम करने की आवश्यकता हो सकती
है लेकिन अधिकतर मामलों में आपको गतिविधि कम करने और एक्सरसाइज के तरीकों
को बदलने की आवश्यकता होती है।
● बर्फ लगाएँ (Ice)– चोट लगने के तुरंत बाद कम से कम 20 मिनट के लिए
प्रभावित क्षेत्र पर बर्फ लगाएँ, और उसके बाद अगले 48 घंटों के लिए हर चार घंटे में लगाएं।
तौलिये में बर्फ लपेटकर लगाना या जमे हुए मटर का पैकेट प्रभावित क्षेत्र पर रखना सबसे
उचित होता है। बर्फ से खून बहना और नील पड़ना कम होता है, और इससे दर्द में भी
आराम मिलता है। ज्यादा देर तक बर्फ को सीधे त्वचा पर न रखें, इससे त्वचा जल सकती है।
● पट्टी लगाएँ (Compression)―10 से 20 बार बर्फ लगाने के बाद हो सके तो
प्रभावित क्षेत्र पर क्रेप पट्टी लगाएं। इससे खून बहना रुकेगा और सूजन भी कम होगी। यह
तरीका हाथ व पैरों में लगने वाली चोट के लिए अधिक प्रभावी होता है।
● हाथ/पैर को ऊपर उठाएँ (Elevate)—प्रभावित हाथ या पैर को ऊपर की तरफ
रखने से ऊतक में मौजूद तरल पदार्थ निकल जाता है और सूजन कम होती है, जिससे दर्द
में आराम आता है।
          प्राथमिक उपचार करने के बाद डॉक्टर को चोट जरूर दिखाएँ। अगर जरा सी भी
आशंका है कि चोट गंभीर है तो तुरंत डॉक्टर के पास जाएँ।
प्रश्न 25. प्राथमिक उपचार से क्या समझते हैं ? फर्स्ट एड सामग्री क्या है ? इसे
बनाने की प्रक्रिया की समझ विकसित करें।
उत्तर―किसी रोग के होने या चोट लगने पर किसी अप्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा जो सीमित
उपचार किया जाता है उसे प्राथमिक चिकित्सा (First Aid) कहते हैं। इसका उद्देश्य कम
से कम साधनों में इतनी व्यवस्था करना होता है कि चोटग्रस्त व्यक्ति को सम्यक इलाज कराने
की स्थिति में लाने में लगने वाले समय में कम से कम नुकसान हो । अतः प्राथमिक चिकित्सा
प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा कम से कम साधनों में किया गया सरल उपचार है।
कभी-कभी यह जीवन रक्षक भी सिद्ध होता है।
      प्राथमिक चिकित्सा विद्या प्रयोगात्मक चिकित्सा के मूल सिद्धांतों पर निर्भर है। इसका
ज्ञान लोगों को इस योग्य बनाता है कि वे आकस्मिक दुर्घटना या बीमारी के अवसर पर,
चिकित्सक के आने तक या रोगी को सुरक्षित स्थान पर ले जाने तक, उसके जीवन को
बचाने, रोग के निवारण में सहायक होने या घाव को ठीक होने या बढ़ने से रोकने में उपयुक्त
सहायता कर सकें। प्राथमिक उपचार आकस्मिक दुर्घटना के अवसर पर उन वस्तुओं से
सहायता करने तक ही सीमित है जो उस समय प्राप्त हो सकें। इस बात को अच्छी तरह
समझ लेना चाहिए कि चोट पर दुबारा पट्टी बाँधना तथा उसके बाद का दूसरा इलाज प्राथमिक
उपचार की सीमा के बाहर है। प्राथमिक उपचार का उत्तरदायित्व किसी डाक्टर द्वारा चिकित्सा
संबंधी सहायता प्राप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाता है।
          प्राथमिक चिकित्सा किट (first aid box), आपूर्ति और उपकरणों का संग्रह है, जो
प्राथमिक चिकित्सा के लिए प्रयुक्त होता है। प्राथमिक चिकित्सा किट विभिन्न सामग्रियों का
बना होता है, जो इस पर निर्भर करता है कि किट को किसने संग्रहित किया और किस
प्रयोजन से प्राथमिक चिकित्सा किट को किसी भी तरह के बक्से में रखा जा सकता है।
मानक किट अक्सर टिकाऊ प्लास्टिक बक्सों, कपड़े की थैलियों या दीवारों पर टंगे छोटे बक्सों
के रूप में मिलते हैं। यह सलाह दी जाती है कि किट को स्वच्छ, जलरोधी बक्से में रखा
जाए, ताकि सामग्री सुरक्षित रहे। किट की नियमित रूप से जांच की जानी चाहिए और यदि
कोई सामग्री क्षतिग्रस्त या पुरानी हो, तो उन्हें बदल देना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण
संगठन (ISO) ने प्राथमिक चिकित्सा किट के लिए सफेद रंग के क्रॉस के निशान सहित
हरा रंग मानक निर्धारित किया है, ताकि प्राथमिक चिकित्सा के जरूरतमंद उसे आसानी से
पहचान सकें । प्राथमिक चिकित्सा किट परंपरागत रूप से मामूली चोटों के इलाज के लिए
बनाए जाते हैं। किट में रखे जा सकने वाले विशिष्ट सामग्रियों में शामिल हैं, चिपकने वाली
पट्टियाँ, नियमित शक्तिवर्धक या दर्द की दवाएँ, एंटीसेप्टिक क्रीम, स्वच्छकारक एजेंट/साबुन,
छोटे एंटीबॉयोटिक तौलिये, कपड़े की पट्टी, कँची, मलहम, सामान्य बुखार की दवाइयाँ,
एस्प्रिन या गैर एस्प्रिन दर्द नाशक दवाएँ, डायरिया रोधी दवाएँ, एंटी एसिड अम्लनाशक (पेट
की खराबी के लिये), सैनीटाइजर, ओआरएस, ग्लूकोज पाउडर, बुखार, सरदर्द, दर्द निवारक
दवाएँ, उल्टी व पेट दर्द की दवाएँ, निम्न दर्जे का रोगाणुनाशक आदि ।
      यह जानने से कि छोटी-मोटी चोटों का इलाज कैसे किया जाये, आपातकाल में काफी
मदद मिल सकती है। प्राथमिक चिकित्सा किट में मौजूद प्राथमिक चिकित्सा की यें चीजें
खून के बहने को रोकने, संक्रमण से बचाव करने और संदूषण को दूर करने में मदद करती है।
प्रश्न 26. हड्डी टूटने या अस्थि भंग होने, मोच आने, खून निकलने आदि
अवस्थाओं में प्राथमिक उपचार कैसे करेंगे ? वर्णन करें ।
उत्तर—अस्थिभंग का प्राथमिक सामान्य उपचार―
● अस्थिभंग (fracture) वाले स्थान को पटरियों तथा अन्य उपायों से अचल बनाए
बिना रोगी को स्थानांतरित न करें।
● चोट के स्थान से यदि रक्तस्राव हो रहा हो तो प्रथमतः उसका उपचार करें।
● बड़ी चौकसी के साथ बिना बल लगाए, अंग को यथासंभव अपने स्वाभाविक स्थान पर बैठा दें।
● चपतियों ( splints), पट्टियों (bandages) और लटकानेवाली पट्टियों, अर्थात्
झोलों, के प्रयोग से टूटी अस्थि वाले भाग को यथासंभव स्वाभाविक स्थान पर बनाए
रखने की चेष्टा करें।
● जब संशय हो कि हड्डी टूटी है या नहीं, तब भी उपचार उसी भाँति करें जैसा
हड्डी टूटने पर होना चाहिए ।
मोच (sprains) का प्राथमिक उपचार―
● मोच के स्थान को यथासंभव स्थिर अवस्था में रखकर सहारा दें।
● जोड़ को अपनी प्राकृतिक दशा में लाकर उसपर खींचकर पट्टी बाँधें और उसे पानी
से तर रखें।
● इससे भी आराम ने मिलने पर पट्टी फिर से खोलकर बाँधें ।
 रक्तस्राव का प्राथमिक उपचार―
● घायल को हमेशा ऐसे स्थान पर स्थिर रखे जिससे रक्तस्राव का वेग कम रहे।
● अंगों के टूटने की अवस्था को छोड़कर अन्य सभी अवस्थाओं में जिस अंग से रक्तस्राव हो
रहा हो उसे ऊँचा रखें।
● कपड़े हटाकर घाव पर हवा लगने दें तथा रक्तस्राव के भाग को ऊँगली से दबा रखें।
● बाहरी वस्तु, जैसे शीशा, कपड़े के टुकड़े, बाल आदि, को घाव में से निकाल दें।
● घाव के आसपास के स्थान पर जीवाणुनाशक तथा बीच में रक्तस्रावरोधी दवा
लगाकर रुई, गाज (gauze) या लिंट (lint) रखकर बाँध देना चाहिए, इत्यादि ।
प्रश्न 27. शारीरिक शिक्षा की अवधारणा तथा इसके महत्व का वर्णन करें।
उत्तर – शारीरिक शिक्षा (Phyiscal education) प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के
समय में पढ़ाया जाने वाला एक पाठ्यक्रम है। इस शिक्षा से तात्पर्य उन प्रक्रियाओं से है
जो मनुष्य के शारीरिक विकास तथा कार्यों के समुचित संपादन में सहायक होती है।
       वर्तमान काल में शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम के अंतर्गत व्यायाम, खेलकूद, मनोरंजन
आदि विषय आते हैं। साथ-साथ वैयक्तिक स्वास्थ्य तथा जनस्वास्थ्य का भी इसमें स्थान है।
कार्यक्रमों को निर्धारित करने के लिए शरीर रचना-विज्ञान शरीर रचना तथा शरीर क्रिया-विज्ञान,
मनोविज्ञान तथा समाज विज्ञान के सिद्धांतों से अधिकतम लाभ उठाया जाता है। वैयक्तिक
रूप में शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य शक्ति का विकास और नाड़ी स्नायु संबंधी कौशल की
वृद्धि करना है तथा सामूहिक रूप में सामूहिकता की भावना को जाग्रत करना है।
        शारीरिक शिक्षा से मानसिक शक्ति का विकास होता था, सौंदर्य में वृद्धि होती थी तथा
रोगों का निवारण होता है । वर्तमान समय में पूरी दुनिया में शारीरिक शिक्षा को बहुत महत्व
दिया जा रहा है। स्कूलों में भी शारीरिक शिक्षा पर बहुत बल दिया जाता है। शारीरिक शिक्षा
से छात्रों का सर्वांगीण विकास होता है। खेल भी शारीरिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग
है । शारीरिक शिक्षा के महत्व को छात्रों को होने वाले निम्नलिखित लाभों के संदर्भ में समझ
सकते हैं―
(क) मन और शरीर के लिए लाभ (Benefits for mind and body)―
शारीरिक शिक्षा, शरीर और मन दोनों के लिए अच्छा स्रोत हैं। स्कूलों में दिमागी काम के
बाद, आमतौर पर छात्रों का मन उदास हो जाता है, तब दोपहर में आउटडोर गेम से बच्चे
ताजी हवा में श्वास और ऊर्जावान महसूस करते हैं। ये खेल शरीर के सभी अंगों को
निःशुल्क शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए उनके स्वास्थ्य में सुधार होता है। आउटडोर खेल
एक साथ खेले जाने वाले खेल होते हैं।
(ख) अनुशासन की भावना विकसित होती है (Its Develops Decipline)―
खिलाड़ियों को स्कूलों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों के बारे में
व्यवस्थित निर्देश दिए जाते हैं। उन्हें ट्रेनर और कप्तान के आदेशों का पालन करना होता
है। वे इस प्रकार आज्ञाकारिता और अनुशासन सीखते हैं। आउटडोर खेल हमें शांति से
पराजय सहन करने और विजेताओं का सम्मान करना सिखते हैं। वे अच्छी इच्छा और साहस
की भावना को भी बढ़ावा देते हैं।
(ग) प्रपत्र का चरित्र (Form of character) —शारीरिक शिक्षा हमें धीरज रखना
सिखाती है और हमारा मन भी शांत करती है। इससे हमारे अच्छे चरित्र का निर्माण होता
हैं और एक अच्छा नागरिक बनने में हमें मदद मिलती हैं। इससे हमें नेतृत्व करने का गुण
प्राप्त होता है।
         इस प्रकार, शारीरिक शिक्षा का हर किसी के जीवन में बहुत महत्व है।
प्रश्न 28. प्रमुख राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजनों का वर्णन
करें।
उत्तर—राज्य स्तरीय खेल–कला संस्कृति युवा विभाग, बिहार राज्य खेल प्राधिकरण
पटना एवं जिला प्रशासन के संयुक्त तत्वावधान में हर साल बिहार में राज्यस्तरीय अंतर जिला
मेजर ध्यानचंद हॉकी बालक-बालिका खेल प्रतियोगिता, राज्यस्तरीय खेल-कूद प्रतियोगिता
का आयोजन किया जाता है। इसमें 38 जिले से आयी टीमें हिस्सा लेती हैं। कबड्डी
बालक-बालिका वर्ग का आयोजन, सुब्रतो मुखर्जी फुटबॉल कप और हॉकी बालक-बालिका
वर्ग का भी आयोजन किया जाता है। इसके अलावा इनमें राज्य स्तरीय तैराकी प्रतियोगिता,
ठाइक्वांडो प्रतियोगिता, खो-खो प्रतियोगिता एवं अन्य खेलों का आयोजन शामिल है।
     इस प्रकार के खेलों का आयोजन विभिन्न प्रकार के विद्यालय के मैदानों व राज्य सरकार
द्वारा बनाए खेल के मैदानों पर किया जाता है। खिलाड़ियों के रहने-सहने की व्यवस्था,
शौचालय, साफ-सफाई की व्यवस्था, खाना एवं नाश्ता की व्यवस्था, शुद्ध पेयजल की
व्यवस्था, जेनरेटर की व्यवस्था, सुविधा के लिए मेडिकल टीम की व्यवस्था की जाती है।
बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन पर हेल्प लाइन सेंटर खोला जाता है। खेल-कूद स्थल एवं
आवासन स्थल पर दंडाधिकारियों की व्यवस्था रहती है ताकि उन्हें कोई असुविधा नहीं हो।
विभिन्न संगठनों को भी इसमें बढ़-चढ़ कर सहयोग करने का अनुरोध किया जाता है।
       विद्यालयों में अलग-अलग आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लिए अलग-अलग कैटेगरी में
नामांकन करने के लिए एवं विभिन्न खेलों में अलग-अलग प्रत्याशियों के चयन के लिए
समिति बनाई जाती है जो कि शारीरिक परीक्षा एवं खिलाड़ियों को टेस्ट के आधार पर चयनित
करती है। खेल प्रशिक्षकों की नियुक्ति की जाती है जो उन्हें प्रतियोगिता के लिए तैयार करते
हैं, उनका उचित मार्गदर्शन करते हैं। राज्य सरकार इनके समुचित रहने, आने-जाने और
किसी भी प्रकार की चिकित्सा सुविधा का खर्च उठाती है।
      राष्ट्रीय खेल― राष्ट्रीय खेलो में भारत के विभिन्न राज्य हिस्सा लेते हैं। भारत में राष्ट्रीय
खेल पहली बार 1924 में दिल्ली में आयोजित किए गए थे, इसका उद्देश्य 1924 पेरिस
ओलम्पिक के लिए खिलाड़ियों का चयन करना था। आरम्भ में राष्ट्रीय खेलों को “भारतीय
ओलम्पिक खेल” कहा जाता है। 1940 में भारतीय ओलिंपिक खेलों का नाम बदलकर
राष्ट्रीय खेल कर दिया गया। राष्ट्रीय खेलों का आदर्श वाक्य “गेट सेट प्ले” है। इन खेलों
का आयोजन भारतीय ओलम्पिक संघ द्वारा करवाया जाता है। राष्ट्रीय खेल प्रत्येक वर्ष
अलग-अलग राज्यों में करवाए जाते हैं।
    राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए स्टेडियम निर्माण, अवस्थापना सुविधाओं, खेल गाँव
समेत अन्य तैयारियों के लिए सरकार करोड़ों रुपये का बजट बनाती है। वर्तमान में राष्ट्रीय
खेलों में 34 प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ शामिल हैं। फुटबाल, स्क्वैश, बॉक्सिंग, गोल्फ,
रोइंग, क्याकिंग, सेलिंग, फेंसिंग, ताइक्वांडो, साइकिलिंग, कुश्ती, हॉकी, एथलेटिक्स की
विभिन्न श्रेणियों की स्पर्धाएँ आदि। इस प्रकार की प्रतियोगिता में विभिन्न राज्य स्तर पर खेल
संघों द्वारा खिलाड़ियों का प्रदर्शन के स्तर पर चयन किया जाता है।
प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय खेल―
(क) ओलम्पिक खेल—ओलम्पिक खेल वर्तमान की प्रतियोगिताओं में अग्रणी खेल
प्रतियोगिता है जिसमें हजारों एथेलीट कई प्रकार के खेलों में भाग लेते हैं। ओलम्पिक की
शीतकालीन एवं ग्रीष्मकालीन प्रतियोगिताओं में (200) से ज्यादा देश प्रतिभागी के रूप में
शामिल होते हैं। ओलम्पिक खेल प्रत्येक चार वर्ष के अंतराल में आयोजित किये जाते हैं।
ओलम्पिक खेलों का आयोजन अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति करती है। पहले आधुनिक
ओलम्पिक खेल यूनान की राजधानी एथेंस में 1896 में आयोजित किए गए। आईओसी
दुनिया भर में आधुनिक ओलम्पिक आंदोलन का सर्वोच्च शासी निकाय है। आईओसी हर
चार साल में ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेल, शीतकालीन ओलम्पिक खेल और युवा
ओलम्पिक खेल का आयोजन करता है।
            तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, बास्केटबॉल, मुक्केबाजी, कैनोइंग, साइकिलिंग,
डाइविंग, घुड़सवारी, हॉकी, तलवारबाजी, फुटबॉल, जिम्नास्टिक्स, गोल्फ, हैंडबॉल, जूडों,
भारोत्तोलन कुश्ती वॉलीबॉल ताइक्वांडो इत्यादि खेलों की स्पर्धाएँ ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में
आयोजित होती हैं।
      शीतकालीन ओलम्पिक खेल एक विशेष ओलम्पिक खेल होते हैं, जिनमें में अधिकांशतः
बर्फ पर खेले जाने वाले खेलों की स्पर्धा होती है। ये ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक के 2 साल
बाद आयोजित किए जाते हैं। इन खेलों में ऑल्पाइन स्कीइंग, बायथलॉनबॉब्स्लेड, क्रॉस कंट्री
स्कीइंग, कलिंग, फिगर स्केटिंग, फ्रीस्टाइल स्कीइंग, आइस हॉकी, ल्यूज, नॉर्डिक कंबाइंड,
शॉर्ट ट्रैक स्पीड स्केटिंग, स्केलेटन, स्नोबोर्डिंग, स्पीड स्केटिंग आदि स्पर्धाएं होती हैं।
      ओलंपिक खेलों में प्रत्येक के लिए योग्यता नियम अंतरराष्ट्रीय खेल संघ (आईएफएस)
द्वारा निर्धारित किए जाते हैं जो कि खेल के अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता को नियंत्रित करता है।
व्यक्तिगत खेलों के लिए, प्रतियोगियों आम तौर पर एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय आयोजन में या
आईएफ रैंकिंग सूची में एक निश्चित स्थान प्राप्त करने के माध्यम से योग्य होते हैं। एक
सामान्य नियम है कि अधिकतम तीन अलग-अलग एथलीट प्रति प्रतियोगिता प्रत्येक राष्ट्र
का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। राष्ट्र प्रायः महाद्वीपीय क्वालीफाइंग टूर्नामेंट के माध्यम से टीम
के खेल के लिए टीमों को अर्हता प्राप्त करता है, जिसमें प्रत्येक महाद्वीपीय संघ को ओलंपिक
टूर्नामेंट में निश्चित संख्या में खेल दिया जाता है।
(ख) एशियाई खेल—एशियाई खेलों को एशियाड के नाम से भी जाना जाता है।
यह प्रत्येक चार वर्ष बाद आयोजित होने वाली बहु-खेल प्रतियोगिता है जिसमें केवल एशिया
के विभिन्न देशों के खिलाड़ी भाग लेते हैं। इन खेलों का नियमन एशियाई ओलम्पिक परिषद
द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक परिषद के पर्यवेक्षण में किया जाता है। प्रत्येक प्रतियोगिता में
प्रथम स्थान के लिए स्वर्ण, दूसरे के लिए रजत और तीसरे के लिए कांस्य पदक दिए जाते
हैं, जिस परम्परा का शुभारम्भ (1951) में हुआ था। प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन
दिल्ली, भारत में किया गया था। एशियाई खेलों में निम्नलिखित खेल प्रतियोगिताएँ होती
हैं—जलक्रीड़ा—गोताखोरी, जलक्रीड़ा—तैराकी, जलक्रीडा–लयबद्ध तैराकी, जलक्रीड़ा–
वाटर, पोलो, तीरंदाजी, दंगल, बैडमिंटन, बेसबॉल, बॉस्केटबॉल, बॉक्सिंग, क्रिकेट, साइक्लिंग,
घुड़सवारी, फुटबॉल, गोल्फ, जिम्नास्टिक, हैण्डबॉल, हॉकी, जूडो, कबड्डी, कराटे, पाल
नौकायन, निशानेजाबी, सॉफ्टबॉल, सॉफ्ट टेनिस, स्क्वैश, टेबल टेनिस, ताइक्वाण्डो, टेनिस,
वॉलीबॉल, भारोत्तोलन, कुश्ती, वूशू आदि।
प्रश्न 29. विद्यार्थियों के लिए योग शिक्षा का क्या महत्व है ?
                                           अथवा,
विद्यार्थियों के लिए योग शिक्षा क्यों आवश्यक है ? इससे उन्हें क्या लाभ है ?
उत्तर―विद्यार्थियों में योग शिक्षा की आवश्यकता को हम निम्नलिखित प्रकार से समझ
सकते हैं—
(क) छात्रों के लिए जरूरी है योग―योग शिक्षा जितनी कम उम्र से ली जाये, उतना
ही शरीर को ज्यादा लाभ मिलता है। बच्चों का शरीर बड़ों की तुलना में ज्यादा लचकदार
होता है। इसलिए बच्चे वीजों को जल्दी और आसानी से सीख जाते हैं।
          स्वस्थ शरीर में स्वस्थ शिक्षा का निवास सम्भव है और यह काम योग से संभव है।
योग से शरीर को रोगों से मुक्ति मिलती है और मन को शक्ति देता है। योग बच्चों के
मन-मस्तिष्क को उसके कार्य के प्रति जागरूक करता है।
(ख) दृढ़ता एवं एकाग्रता को बढ़ाता है योग―जिन विद्यार्थियों में पढ़ाई के प्रति
अरुचि या मन ना लगना जैसी समस्या होती है। उन विद्यार्थियों के लिए योग क्रिया चमत्कार
जैसा काम करती है। सुबह के वक्त योग करने से विद्यार्थियों में एकाग्रता और दृढ़ता बेहतर
होती है। इससे तन-मन स्वस्थ और निरोग रहता है और बच्चे सभी क्षेत्र में अव्वल रहते
हैं। योग के निरंतर अभ्यास से विद्यार्थियों में पढ़ाई की भावना प्रबल होती है।
(ग) मन को आत्मविश्वास से भरता है—आजकल के बच्चों को पढ़ाई और
प्रतियोगिता का बोझ बचपन से ही उठाना पड़ता है। बचपन से ही उनमें जीत की ऐसी भावना
भर दी जाती है कि जब वे हारते हैं तो यह वो सहन नहीं कर पाते और अपना आत्मविश्वास
खो बैठते है। अपने मन से भी कमजोर हो जाते हैं, इसलिए विद्यार्थियों को शुरू से योग
शिक्षा देना बहुत आवश्यक है।
        योग से बच्चों की सहनशीलता बढ़ती है और मन शक्तिशाली होता है। योगाभ्यास से
मन-मस्तिष्क का संतुलन बना रहता है जिससे दुःख-दर्द-समस्याओं को सहन करने की
शक्ति प्रदान होती है। योग विद्यार्थियों को आगे बढ़ने की और आत्मविश्वास को बढ़ाने की
शक्ति देता है।
(घ) बुद्धि तेज होती है―सही खानपान और नियमित योग क्रिया से दिमाग को तेज
करने में मदद मिलती है। जिससे बच्चों में बचपन से ही अच्छी सोच का विकास होता है
और वे सदा सकारात्मक बने रहते हैं।
(ङ) व्यसनों से निजात मिलती है—अधिकांश विद्यार्थियों को अपने शिक्षाकाल में
ही बुरी संगत और बुरी लत जाती है। जो उनके भविष्य के लिए बहुत ही हानिकारक साबित
होते है। मादक द्रव्य का स्वास्थ्य पर इतना बुरा असर पड़ता है की बच्चे अपनी राह भटक
जाते है। लेकिन योग का नियमित अभ्यास इन व्यसनों से छुटकारा दिलाने में सक्षम है।
क्योंकि योग से मन-मस्तिष्क की चेतना जागृत होती है और बच्चों को अच्छी व गलत आदत
का आभास होने लगता है।
(च) लक्ष्य प्राप्ति में सहायक― योग का अभ्यास व्यक्तियों में छुपी हुई शक्तियों को
जागृत करता है। इसलिए वर्तमान परिवेश में शिक्षा जगत में योग की शिक्षा अनिवार्यता है।
क्योंकि छात्र योग के बल पर अपने मस्तिष्क को शुद्ध करके विचार शक्ति को बढ़ा सकते
है। जिससे छात्रों को लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिलती है।
            जो बच्चे शुरू से ही योग करते है वे अपने व्यवहार तथा कार्यों से दूसरों को प्रेरण
देते है। योग की सहायता से बच्चे अपने लक्ष्य को जल्दी भेद पाते है। जो लोग अपनी मंजिल
तक नहीं पहुँच पाते और यदि उन्हें जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति करनी है तो योग का अभ्यास
आवश्यक है।
प्रश्न 30. योग की अवधारणा स्पष्ट करें एवं इसके महत्व की चर्चा करें।
उत्तर—योग भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें शरीर,
मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा
हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। योग संतुलित तरीके
से एक व्यक्ति में निहित शक्ति में सुधार या उसका विकास करने का शास्त्र है। यह पूर्ण
आत्मानुभूति पाने के लिए इच्छुक मनुष्यों के लिए साधन उपलब्ध कराता है। संस्कृत शब्द
योग का शाब्दिक अर्थ ‘योक’ है। अतः योग को भगवान की सार्वभौमिक भावना के साथ
व्यक्तिगत आत्मा को एकजुट करने के एक साधन के रूप में परिभाषित किया जा सकता
है। महर्षित पतंजलि के अनुसार, योग मन के संशोधनों का दमन है।
     आमतौर पर यह माना जाता है कि योग अभ्यास का एक प्राचीन रूप जो भारतीय समाज
में हजारों साल पहले विकसित हुआ था और उसके बाद से लगातार इसका अभ्यास किया
जा रहा है । इसमें किसी व्यक्ति को सेहतमंद रहने के लिए और विभिन्न प्रकार के रोगों और
अक्षमताओं से छुटकारा पाने के लिए विभिन्न प्रकार के व्यायाम शामिल हैं। यह ध्यान लगाने
के लिए एक मजबूत विधि के रूप में भी माना जाता है जो मन और शरीर को आराम देने
में मदद करता है।
      महत्व—मूल रूप से योग न केवल व्यायाम का एक रूप है बल्कि यह स्वस्थ, खुशहाल
और शांतिपूर्ण तरीके से जीने का एक प्राचीन ज्ञान है। यह आंतरिक शांति और आत्मीय
ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है। योग मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक पथ के
माध्यम से जीवन जीने की कला है। यह स्थिरता प्राप्त करने और आंतरिक आत्मा की चेतना
में ध्यान लगाने में सहायता करता है। मन, भावनाओं और शारीरिक आवश्यकताओं के बारे
में ज्यादा ना सोचने और दिन-प्रतिदिन जीवन की चुनौतियों का सामना कैसे करें यह भी
सीखने में मदद करता है। योग शरीर, मन और ऊर्जा के स्तर पर काम करता है। योग का
नियमित अभ्यास शरीर में सकारात्मक बदलाव लाते हैं जिनमें मजबूत मांसपेशियाँ, लचीलापन,
धैर्य और अच्छा स्वास्थ्य शामिल है।
        शरीर, मन और आत्मा को नियंत्रित करने में योग मदद करता है। शरीर और मन को
शांत करने के लिए यह शारीरिक और मानसिक अनुशासन का एक संतुलन बनाता है। यह
तनाव और चिंता का प्रबंधन करने में भी सहायता करता है और आपको आराम से रहने
में मदद करता है। योग आसन शक्ति, शरीर में लचीलेपन और आत्मविश्वास विकसित करने
के लिए जाना जाता है। इसके महत्व को हम योग से होने वाले फायदों के रूप में
निम्नलिखित प्रकार से भी समझ सकते हैं—
• यह मांसपेशियों के लचीलेपन में सुधार करता है।
• शरीर के आसन और एलाइनमेंट को ठीक करता है।
• बेहतर पाचन तंत्र प्रदान करता है।
• आंतरिक अंग मजबूत करता है।
• अस्थमा का इलाज करता है।
• मधुमेह का इलाज करता है।
• दिल संबंधी समस्याओं का इलाज करने में मदद करता है।
• त्वचा के चमकने में मदद करता है।
• शक्ति और सहनशक्ति को बढ़ावा देता है।
• एकाग्रता में सुधार करता है।
• मन और विचार नियंत्रण में मदद करता है।
• चिंता, तनाव और अवसाद पर काबू पाने के लिए मन शांत रखता है।
• तनाव कम करने में मदद करता है।
• रक्त परिसंचरण और मांसपेशियों के विश्राम में मदद करता है।
• वजन घटाता है।
• चोट से संरक्षण करता है, आदि।
प्रश्न 31. प्राणायाम की समझ विकसित करें।
उत्तर–प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैं।
1. यम
2. नियम
3. आसन
4. प्राणायाम
5. प्रत्याहार
6. धारणा
7. ध्यान
8. समाधि
प्राणायाम― प्राण, आयाम । इसका का शाब्दिक अर्थ है-‘प्राण (श्वसन) को लम्बा
करना’ या ‘प्राण (जीवनशक्ति) को लम्बा करना’ । (प्राणायाम का अर्थ ‘श्वास को नियंत्रित
करना’ या कम करना नहीं है।) प्राण या श्वास का आयाम या विस्तार ही प्राणायाम कहलाता
है। यह प्राण-शक्ति का प्रवाह कर व्यक्ति को जीवन शक्ति प्रदान करता है। प्राणायाम प्राण
अर्थात् साँस आयाम यानि दो साँसों में दूरी बढ़ाना, श्वास और निःश्वास की गति को नियंत्रण
कर रोकने व निकालने की क्रिया को कहा जाता है।
करने की विधि―
सर्वप्रथम श्वास– श्वास फेफड़ों में भरना।
सर्वप्रथम श्वास–श्वास फेफड़ों में भरना, रोकना और फिर धीरे-धीरे छोड़ना चाहिए।
श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम
में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर
खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार
प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। हम साँस लेते है तो सिर्फ हवा नहीं खीचते तो उसके
साथ ब्रह्मान्ड की सारी ऊर्जा को उसमें खींचते है। हम जो साँस फेफड़ों में खींचते है, वो
सिर्फ साँस नहीं रहती उसमें सारे ब्रह्मन्ड की सारी उर्जा समायी रहती है। अतः जो साँस हमारे
पूरे शरीर को चलाना जनती है, वो हमारे शरीर को दुरुस्त करने की भी ताकत रखती है।
प्रश्न 32. प्रारंभिक स्तर के विद्यार्थियों के लिए योग गतिविधियों का आयोजन
किस प्रकार करेंगे ? प्रारंभिक स्तर के बच्चों को विद्यालय में कराई जा सकने वाली
कुछ योग गतिविधियों का वर्णन करें।
उत्तर—प्रारंभिक स्तर के बच्चों स्कूल के लिए रोज विद्यालयों में योग गतिविधियों का
आयोजन कराया जा सकता है। बच्चे रोज सूर्य नमस्कार से लेकर अन्य आसानों का
योगाभ्यास कर भी रहे हैं। स्कूल मैदान में बच्चों का योगाभ्यास की गतिविधि करायी जा
सकती है। बच्चे कक्षा शुरू होने से पहले कई स्कूलों में योगाभ्यास कर रहे हैं।
          प्रतिदिन छात्र व छात्राएं स्कूल पहुंचते ही मैदान में चेतना सत्र के लिए लाइन में लग
जाते हैं। लगभग चालीस मिनट का यहाँ चेतना सत्र चलता है। इस बीच सबसे पहले बच्चे
प्रार्थना करते हैं। इसके बाद प्रतिज्ञा व उद्देश्य की सीख लेते हैं। इसके बाद शारीरिक शिक्षक
की देखरेख में बच्चों से योग के विभिन्न तरह के आसनों का अभ्यास कराया जा सकता।
है। एनसीईआरटी के दिशा निर्देश में भी कहा गया है कि पहली से दसवीं कक्षा तक प्रत्येक
कक्षा की समयसारणी में प्रतिदिन स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा पर एक कक्षा निर्धारित किये
जाने की आवश्यकता है। योग की गतिविधियों का आयोजन खेलकूद की घंटी में भी नियमित
रूप से कराया जा सकता है। स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए कुछ लाभकारी योगासन हैं—
(क) प्रणाम आसन—इस आसन से हर कोई परिचित है। हम इसे घर में हर दिन
करते हैं जब मेहमानों और बड़ों का स्वागत करते हैं, और स्कूल में प्रार्थना के दौरान । यह
आसन तंत्रिका तंत्र को आराम देता है और शरीर को बेहतर संतुलन देता है। यह सूर्य
नमस्कार का पहला कदम है।
(ख) हस्तोत्तानासन—यह आसन कंधे को मजबूत (शक्तिशाली) बनाने में मदद
करता है और रक्त में ऑक्सीजन के सतर को बेहतर बनाता है। यह गर्दन और पीठ की
मांसपेशियों को आराम देता है, रीढ़ की हड्डी में खिंचाव और पीठ के दर्द में आराम । यह
पेट की मांसपेशियों के लिए भी अच्छा है क्योंकि उनमें खिंचाव पड़ता है। थायरॉयड ग्रंथि
के लिए भी फायदेमंद है। यह सूर्य नमस्कार का दूसरा और ग्यारहवां कदम है।
(ग) हस्त पादासन–सिर में रक्त परिसंचरण में सुधार लाने के लिए एक उत्कृष्ट
आसन है। पाचन, तंत्रिका और अंत: स्रावी प्रणाली को उद्दीप्त करता है। यह रीढ़ की हड्डी,
पीठ की मांसपेशियों और पैरों के पीछे में भी खिंचाव लाता है। यह सूर्य नमस्कार का तीसरा
और दसवां कदम है।
(घ) अश्व संचालनासन– इस आसन के मुख्य लाभ हैं कमर और पैर का
लचीलापन और पेट को साफ करना। यह सूर्य नमस्कार का चौथा और नौवां चरण है।
(ङ) दंडासन—इस आसन में शरीर का पूरा भार (वजन) कलाई पर होता है और
इस तरह उन्हें मजबूत (शक्तिशाली) करता है। यह हाथों और रीढ़ की हड्डी को भी मजबूत
करता है और साथ ही पेट की मांसपेशियों को सख्त करता है। यह सूर्य नमस्कार का पांचवां
चरण है।
(च) अष्टांग नमस्कार – इसमें आठ अंगों के साथ अभिवादन किया जाता है। यह
आसन एक बार में ही आठ अंगों पर काम करता है। यह तनाव और चिंता कम करता है,
पीठ की मांसपेशियों की शक्ति में सुधार और रीढ़ की हड्डी का लचीलापन बढ़ाता है। यह
सूर्य नमस्कार का छठवां चरण है।
(छ) भुजंगासन–भुजंगासन कंधे और गर्दन को खोलता है, पेट की मांसपेशियों को
सख्त करता है, पीठ और कंधे को मजबूती देता है, ऊपरी और मध्य पीठ के हिस्से में
लचीलापन, रक्त परिसंचरण में सुधार, तनाव और थकान को कम कर देता है। यह सूर्य
नमस्कार का सातवां चरण है।
(ज) पवेतासन—यह आसन पैर के पीछे के मांसपेशियों में, घुटने के पीछे की नसों
में और पीठ की मांसपेशियों में खिंचाव लाता है। यह थकान को दूर करता है, स्मृति और
एकाग्रता में सुधार लाता है। यह सूर्य नमस्कार का आठवां चरण है।
प्रश्न 33. प्रारंभिक कक्षा के बच्चों के लिए शारीरिक शिक्षा का समावेशी
स्वरूप क्या होना चाहिए ? इसमें बच्चों के विविध क्षमताओं एवं आवश्यकताओं का
ध्यान किस प्रकार रखा जाता है ? कक्षा, विद्यालय तथा स्थानीय संदर्भ के अनुसार
गतिविधियों के समावेशन किस प्रकार करेंगे ?
उत्तर― शारीरिक शिक्षा का समावेशी स्वरूप शिक्षा शारीरिक शिक्षा की ऐसी व्यवस्था
है जिसमें सभी क्षमताओं तथा अक्षमताओं वाले बच्चों के लिए एकीकृत शारीरिक शिक्षा की
व्यवस्था की जाती है। शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत ऐसे कार्यक्रमों को चुना जाता है जिसमें
सभी प्रकार के बच्चों के समावेशन की सुविधा हो। इसमें बच्चों की विविध क्षमताओं एवं
आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए शारीरिक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है, जिससे
उनका शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा मानसिक विकास किया जा सके । शारीरिक
शिक्षा के शिक्षक को विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए अधिनियम 2016 के अनुसार
उन्हें शारीरिक क्रियाओं को कराने के लिए अपने पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाना चाहिए
तथा उन्हें सामान्य बच्चों की भाँति गतिविधियों को कराना चाहिए। किसी विशेष आवश्यकता
के लिए विशेष उपकरणों की व्यवस्था की जानी चाहिए। एक शारीरिक शिक्षक बच्चे के
अभिभावकों एवं चिकित्सक की मदद से विशेष बच्चे की अक्षमता के आधार पर क्रियाएँ
तैयार करता है एवं चिकित्सक की सलाह से उन्हें क्रियान्वित करता है।
            विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को उनकी शारीरिक अक्षमता के कारण होने वाली
कठिनाइयों, शारीरिक बनावट के कारण सन्तुलन में बाधा, साधारण गति में बाधा आदि दोषों
के निवारण के लिए भौतिक चिकित्सक उनके लिए व्यक्तिगत व्यायाम (Individual
Exercise programme) कार्यक्रम बनाता है, जिससे कि उनकी उपरोक्त समस्याओं का
निवारण हो सके उनकी चलने फिरने की क्षमता बढ़ सके। उनके शारीरिक क्षमता एवं गति
के लिए भौतिक चिकित्सक विभिन्न प्रकार के उपकरणों एवं सहायक सामग्री का भी प्रयोग
करते है।
              कक्षा विद्यालय तथा स्थानीय संदर्भ के अनुसार गतिविधियों का समावेशन—
शिक्षा में समावेशन एक पहल (Approach) है जो उन विद्यार्थियों को शिक्षित करती है
जिनकी खास शैक्षिक आवश्यकताएँ होती हैं। समावेशी शिक्षा से हमारा तात्पर्य ऐसी शिक्षा
प्रणाली से है जिसमें सभी शिक्षार्थियों को बिना किसी भेदभाव के सीखने के समान अवसर
मिले विशेष आवश्कताओं वाले बच्चों के लिए ऐसे खेल विशेष ढंग से तैयार किए जाते है
जिससे कि गामक क्रियाओं में वृद्धि हो, गति, शक्ति, एवं तालमेल सम्बन्धी क्रियाओं में वृद्धि
हो सके। शोध कर्ताओं ने पाया है कि बॉल फेकना, पकड़ना, घूर्णन करना आदि क्रियाओं
से पेशियों की शक्ति में वृद्धि होती है।
वर्तमान समय में शारीरिक क्रियाएँ शिक्षा की सबसे सशक्त माध्यम मानी जाती हैं। ऐसी
अन्य कई गतिविधियाँ हैं जिन्हें कक्षा, विद्यालय तथा स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करके बच्चों
के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया उनकी शारीरिक शिक्षा के माध्यम से संचालित की जा सकती।
हैं। ऐसी गतिविधियों से सभी प्रकार की क्षमताओं तथा अक्षमताओं वाले बच्चों का समावेशन
सीखने-सिखाने में किया जा सकता है। आधुनिक शिक्षण विधियाँ जैसे—करके सीखना,
खेल-खेल में सीखना, मान्टेसरी विधि आदि सभी विधियाँ बालक में सीखने के प्रति रूचि
जागृत करती हैं तथा सीखने हेतु वे स्वतः प्रेरित होते हैं। बहुत से खेल तथा शारीरिक
उपकरण जैसे—लालमिनार, अबेकस आदि। इन सभी उपकरणों द्वारा बालक भार, आकृतियों,
वजन, क्रम आदि के बारे में स्वतः ही सीख जाते हैं। बाल गीतों तथा कविताओं के द्वारा
भी बालक खेल-खेल में गिनती, पहाड़े, एल्फाबेट स्वर तथा व्यंजनों का ज्ञान आसानी से
प्राप्त कर लेते हैं। इन उपकरणों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के झूलों आदि की व्यवस्था
बच्चों को प्राकृतिक वातावरण में उन्मुक्त रूप से खेलने तथा शारीरिक गतिविधियाँ करने
हेतु अवसर उपलब्ध कराती हैं।
प्रश्न 34. शारीरिक शिक्षा की गतिविधियों के दौरान बच्चों का प्रेक्षण
(supervising) एवं मार्गदर्शन (guiding) शिक्षक किस प्रकार करेंगे ? उल्लेख
करें। इसके महत्व पर भी प्रकाश डालें।
उत्तर– प्रेक्षण तथा मार्गदर्शन सेवाओं द्वारा समायोजन में विद्यार्थियों को सहायता मिलती
है तथा उन्हें शारीरिक क्रियाओं में संपूर्ण भागीदारी के अवसर उपलब्ध होते हैं। जिससे उचित
तरीके से उनका विकास होता है तथा वे शारीरिक शिक्षा द्वारा होने वाले लाभों को सही प्रकार
से ग्रहण करते हैं। छात्रों को प्रेक्षण तथा मार्गदर्शन द्वारा अपनी रुचि, योग्यता और क्षमता
के अनुसार विषयों का चुनाव करने के अवसर प्राप्त होते हैं और अपनी कठिनाइयों को दूर
करते हुए वे अपने विकास के लिए परिश्रम करते हैं। शिक्षकों द्वारा शारीरिक क्रियाओं की
गतिविधियों के दौरान किए गए प्रेक्षण और उनका मार्गदर्शन छात्रों के समुचित विकास के
लिए महत्वपूर्ण और अनिवार्य है। प्रेक्षण द्वारा शिक्षक के सभी प्रकार की क्षमताओं वाले
बच्चों का समावेशन शारीरिक क्रियाओं में कर पाते हैं तथा उनका अवलोकन भी करते हैं
तथा मार्गदर्शन द्वारा छात्रों को होने वाली कठिनाइयों को दूर किया जाता है तथा उन्हें शारीरिक
क्रियाओं की गतिविधियों द्वारा उचित लाभ लेने के अवसर उपलब्ध कराए जाने की कोशिश
की जाती है। शिक्षक निम्न प्रकार से गतिविधियों के दौरान बच्चों का परीक्षण एवं मार्गदर्शन
कर सकते हैं―
(क) मांसपेशियों की ताकत का प्रेक्षण जैसे—मांसपेशियों का कितना बल पैदा
हो सकता है। मांसपेशी सहनशक्ति–बिना थकान के कई बार अपनी मांसपेशियों का
उपयोग करना । लचीलापन–गति के माध्यम से अपने जोड़ों का उपयोग करना ।
इनके प्रेक्षण के पश्चात मांसपेशियों की ताकत बढ़ाने, लचीलेपन के लिए उचित
व्यायाम, गति से संबंधित खेल गतिविधियों में उचित मार्गदर्शन दिए जा सकते हैं।
(ख) चपलता—आपके शरीर की स्थिति को जल्दी से बदलने और शरीर की
गतिविधियों को नियंत्रित करने की क्षमता। संतुलन-कभी भी खड़े होने या चलते समय एक
सीधे मुद्रा को बनाए रखना । समन्वय-अपने शरीर के अंगों के साथ एक साथ अपनी इंद्रियों
का उपयोग करना । शक्ति–जल्दी से ताकत का उपयोग करने की क्षमता । गति–एक छोटी
• अवधि में दूरी को कवर करना। इन सबका प्रेक्षण गतिविधियों के दौरान शिक्षक करते हैं।
यदि बच्चों को ऐसी शारीरिक क्रिया से संबंधित कोई कठिनाई होती है तो शिक्षक उनका
उचित मार्गदर्शन करते हैं। जैसे—दौड़ते समय संतुलन बनाने के लिए शरीर सीधा कैसे रखा
जाए, खेलते हुए अपनी इंद्रियों जैसे आँखों, हाथ आदि का उपयोग संबंधी मार्गदर्शन आदि।
(ग) प्रतिक्रिया का प्रेक्षण और मार्गदर्शन―शारीरिक शिक्षा के घटक हैं―
एनाटॉमी/फिजियोलॉजी और समन्वय-ऐसे खेल जो दोनों का उपयोग करते हैं। क्रिकेट,
फुटबॉल और टेनिस-ट्रैक और फील्ड-स्वास्थ्य और पोषण-जलीय (पानी के खेल)—
जिमनास्टिक (बैलेंस बीम, फर्श व्यायाम) – जिमनास्टिक-आउटडोर गतिविधियों (बाहरी
गतिविधियों) समन्वय गति, चपलता, शक्ति, शुद्धता, मांसपेशी सहनशक्ति। बच्चों द्वारा
स्थानांतरित होने में कितना समय लगता है, इन खेलों के नियमों, व्यवहार संबंधी उचित
मार्गदर्शन जिससे खेल के दौरान और उसके बाद भी उन्हें सहायता मिले।
(घ) खेल के दौरान बच्चों को चोट न लगे इसका प्रेक्षण करते रहना भी आवश्यक
है तथा चोट से बचने के उपाय और जो खेल के दौरान किसी भी तरह की समस्या या परेशानी
से बचने के लिए मार्गदर्शन करते रहना शिक्षकों के लिए आवश्यक है, इत्यादि ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *