1st Year

शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए । Describe the General Principles of Teaching.

प्रश्न – शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए । Describe the General Principles of Teaching.
उत्तर- शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त ( General Principles of Teaching)
  1. स्वक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Self-Activity)विकास का आधार स्वक्रिया है। बालक संसार में कुछ मूल प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है। फलस्वरूप बालक के शरीर और मस्तिष्क को क्रियाशील बनाकर ही उसे किसी बात को सही ढंग से सिखाया जा सकता है। फ्रोबेल का विचार है कि अपनी प्रेरणाओं एवं भावनाओं को पूरा करने के लिए बालक स्वयं अपने मन से सक्रिय होकर कार्य करे । स्वक्रिया के सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करते हुए।
  2. प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation) – प्रेरणा व्यक्ति की वह आन्तरिक शक्ति है, जो उनमें ऐसी क्रियाशीलता उत्पन्न करती है जो लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती रहती है। प्रेरित हो जाने पर बालक स्वयं क्रियाशील हो जाता है। बालक को प्रेरित करने के लिए शिक्षक को बालक की जन्मजात प्रवृत्तियों ( Innate tendencies) से लाभ उठाना चाहिए। ऐसी एक प्रवृत्ति जिज्ञासा है।
  3. अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience) – जीवन एक अनुभव है। अतः बालक को सिखाई जाने वाली बात का सम्बन्ध उसके जीवन के अनुभवों से होना चाहिए। अतः बालक के अनुभवों का उसके पुराने अनुभवों से सम्बन्ध स्थापित किया जाना आवश्यक है। ऐसा करने से बालक नए ज्ञान अथवा अनुभव को सरलता और सुगमता से सीखकर उसको अपने जीवन का स्थायी अंग बना लेता है। रायबर्न बफोर्ज ने कहा है कि प्रत्येक पाठ का आरम्भ उस बात से होना चाहिए जिसका अनुभव बालक कर चुके हैं।”
  4. सद्देश्यता का सिद्धान्त (Principle of Aim) – जिस प्रकार प्रत्येक कार्य का कोई न कोई उद्देश्य होता है, उसी प्रकार प्रत्येक पाठ का भी उद्देश्य निश्चित होना चाहिए। यदि शिक्षक को पाठ के उद्देश्य की जानकारी नहीं है तो उसे अपने कार्य में सफलता नहीं मिलेगी। उद्देश्यों का पहले से ज्ञान होने से ही शिक्षण स्पष्ट, रोचक एवं प्रभावशाली बनता है। छात्रों को भी पाठ्य-विषय के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए, इससे वे पढ़ने में रुचि लेंगे और शिक्षण सफल होगा ।
  5. मानसिक तैयारी का सिद्धान्त ( Principle of MentalPreparation ) – जब तक बालक किसी भी कार्य को करने या सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होगा तब तक वह उस कार्य को करने में असफल होगा, अनेक गलतियाँ करेगा या उसे पूर्ण करने में बहुत अधिक समय लेगा। अर्थात् जिस कार्य को सीखने के प्रति बालक की जैसी मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में वह उसे सीखता है।
  6. चुनाव का सिद्धान्त (Principle of Selection ) – शिक्षक एक कालांश में बहुत अधिक ज्ञान नहीं दे सकते हैं। अतः शिक्षक को अपने विषय और पाठ्यवस्तु को कई भागों में विभक्त कर लेना चाहिए। इसके उपरान्त उसे यह चयन करना चाहिए कि किस स्तर बालक को एक कालांश में वह क्या और कितना पढ़ाए, जिससे उसका शिक्षण सफल हो सके। चयन कार्य का महत्त्व बताते हुए रायबर्न ने लिखा है कि “चयन का सिद्धान्त अति महत्त्वपूर्ण है और शिक्षक की अच्छे चयन करने की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता बहुत कुछ निर्भर करती है। “
  7. रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest ) – अपनी रुचि के कार्य को बालक अधिक मन लगाकर करता है। शिक्षण को उपयोगी और प्रभावशाली बनाने के लिए पाठ्य-विषय में बालक की रुचि उत्पन्न करना अति आवश्यक है। स्वक्रिया का सिद्धान्त, प्रेरणा का सिद्धान्त अनुभव का सिद्धान्त आदि का अनुसरण करके छात्रों में विषय व पाठ्य-वस्तु के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है। छात्र द्वारा रुचि न लिए जाने की स्थिति में शिक्षण सफल शिक्षण नहीं कहलाया जा सकता।
  8. पूर्व-नियोजन का सिद्धान्त (Principle of PrePlanning) – शिक्षण की सफलता का आधार नियोजन है। शिक्षक को किसी भी पाठ को पढ़ाने से पूर्व छात्रों की आयु, स्तर, क्या पढ़ाना है, किस विधि का प्रयोग करना है, किस शिक्षण- सहायक सामग्री का प्रयोग करना है और सम्भावित समस्याओं को किस प्रकार हल करना है आदि सभी बिन्दुओं को स्पष्ट एवं निश्चित कर लेना चाहिए। जिससे उसके • शिक्षण की सफलता की सम्भावना में वृद्धि हो सके। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि पाठ योजना शिक्षक की स्वामिनी न होकर उसकी सेविका है ।
  9. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom)शिक्षक को कक्षा का वातावरण लोकतन्त्रीय रखना चाहिए, दमनकारी नहीं, उसे छात्रों का मित्र एवं मार्गदर्शक होना चाहिए । लोकतान्त्रिक वातावरण में बालक खुशी से स्वतन्त्रता का अनुभव करते हुए कार्यों को अधिक सफलता के साथ पूर्ण करते हैं। मॉटेसरी ने बालक की शिक्षा में स्वतन्त्रता को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है उन्होंने कहा है कि “अनुशासन स्वतन्त्रता द्वारा आना चाहिए तथा यदि बालक को वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करना है तो विद्यालय को उसके स्वतन्त्र व स्वाभाविक रूप से प्रकट होना चाहिए।”
  10. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Difference ) – एक कक्षा में सभी बालक ऐसे नहीं होते जिनके सभी कार्यो, चारित्रिक गुणों एवं बुद्धि स्तर आदि में एकरूपता हो । अतः शिक्षक को शिक्षण करते . समय बालकों की विभिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए। उसे प्रतिभाशाली छात्रों के साथ-साथ औसत एवं मन्दबुद्धि छात्रों का भी ध्यान रखना चाहिए। जिससे कक्षा के सभी छात्र अधिगम करने में समर्थ हो सके और शिक्षण प्रभावशाली बन सकें ।
  11. दोहराने का सिद्धान्त (Principle of Revision)- शिक्षक को छात्रों को पाठ के जरूरी भागों को दोहराने का अभ्यास कराना चाहिए। आवृत्ति के द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है। कठिन पाठ को अधिक बार अभ्यास कराना चाहिए एवं सरल पाठ को कम बार अभ्यास करके भी अच्छी प्रकार समझा जा सकता है । यह निर्णय शिक्षक पर निर्भर करता है कि पाठ विशेष को किस छात्र को कितनी बार अभ्यास करना है। प्रत्येक पाठ हर बालक के लिए कठिन नहीं हो सकता या आसान नहीं हो सकता। यह बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता पर निर्भर करता है ।
  12. सहसम्बद्धता (Principle Correlation) – किसी भी विषय का शिक्षण करते समय उसका सम्बन्ध अन्य विषयों के साथ भी स्पष्ट करना चाहिए, जैसे कला, विज्ञान एवं समाज विज्ञान आदि से सम्बन्ध । इसी प्रकार एक प्रकरण का सम्बन्ध अन्य प्रकरण व पाठ से भी स्पष्ट करना चाहिए ।

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