1st Year

अध्ययन विषयों के दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्य वर्णन करें । Explain the Philosophical and Education perspective of disciplines.

प्रश्न – अध्ययन विषयों के दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्य वर्णन करें । Explain the Philosophical and Education perspective of disciplines. 
या
अध्ययन विषयों के दार्शनिक, सामाजिक एवं शैक्षिक परिप्रेक्ष्य की तुलना कीजिए । Compare the study of Pedagogic Subjects of Philosophical, Sociological and Educational Perspective.
या
सामाजिक परिप्रेक्ष्य से विद्यालय विषयों का आविर्भाव । Emergence of School Subjects from Social Context.
या
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से विद्यालय विषयों का आविर्भाव । Emergence of school subjects from political context. 
उत्तर- परिप्रेक्ष्य शब्द ज्ञान की व्यक्तिपरक प्रकृति एवं इसके अंतर्निहित दृश्य–स्थानिक रूपक, कुछ विशिष्ट तरीकों आदि को दर्शाता है। परिप्रेक्ष्य किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण या कुछ के बारे में विश्वास को दर्शाता है, चाहे वह परिप्रेक्ष्य अल्पावधि हो या अधिक टिकाऊ हो या नहीं हो । एक अलग अर्थ में, एक परिप्रेक्ष्य, चिंताओं, प्रश्नों, दृष्टिकोणों और सोचने के तरीके का उल्लेख कर सकता है जो साझा स्थितियों, भूमिकाओं में व्यक्तियों के एक वर्ग के लिए सामान्य हो सकता है।

दूसरे शब्दों में, परिप्रेक्ष्य देखने और सोचने का एक तरीका है जो सिद्धांतों की एक प्रणाली, व्यावसायिक ज्ञान, एक अध्ययन विषय, या एक प्रवचन समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता पर आधारित है। एक अध्ययन विषयात्मक परिप्रेक्ष्य, विशेष रूप से एक परिप्रेक्ष्य है, जो विशेष रूप से विशेषज्ञ ज्ञान-निर्माण समुदायों से जुड़ा हुआ है, जो मानविकी, कला, सामाजिक विज्ञान, भौतिक विज्ञान और जैविक विज्ञान के भीतर विशेषताओं के रूप में पाया जाता है ।

विभिन्न विषयों का उदद्य प्राचीन काल से ही क्रमिक रूप से विकास की दिशा में होता रहा है। भिन्न-भिन्न समय काल में विषयों का विकास भिन्न-भिन्न रूपों तथा गति से होता रहा है। सामाजिक, राजनैतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक निर्धारकों घटकों तथा कारकों का विषयों के विकास पर समय के साथ-साथ प्रभाव पड़ा । विभिन्न समाजों के सामाजिक विचारों राजनैतिक विचारों, सांस्कृतिक मूल्यों, बौद्धिक विचारों का विषयों के विकास पर भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभाव पड़ा ।

विषयों के महत्त्व, भिन्न विषयों के प्रचलन पर सामाजिक, राजनैतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक अवधारणाओं का प्रमुख रूप से प्रभाव रहा। जिसने विषयों के विकास को प्रभावित किया । विभिन्न विषयों के निर्धारकों का विषयों के विकास पर प्रभाव पड़ता है।

विद्यालय में शिक्षा के अंतिम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाता है। पाठ्यक्रम तथा विषयों के ज्ञान के द्वारा छात्र में सर्वांगीण विकास किया जाता है। पाठ्यक्रम का विकास बालक की रुचि अविक्षमता के आधार पर किया जाता है। पाठ्यक्रम क्रियान्वयन में अध्यापक का प्रमुख रूप से हाथ होता है।

किसी भी पाठ्यक्रम / विषय के उदय में निम्न घटकों का प्रमुख योगदान होता है – 
  1. दार्शनिक परिप्रेक्ष्य (Philosophical Perspective),
  2. सामाजिक परिप्रेक्ष्य (Sociological perspective)
  3. शैक्षिक परिप्रेक्ष्य (Educational perspective)
  4. राजनीतिक परिप्रेक्ष्य (Political perspective)
  5. बौद्धिक परिप्रेक्ष्य (Intellectual perspective)
दार्शनिक परिप्रेक्ष्य ( Philosophical Perspective)
शैक्षणिक विषयों का दार्शनिक दृष्टिकोण एकता एवं अनेकता की अवधारणा पर आधारित है। दार्शनिक परिप्रेक्ष्य को निम्नलिखित माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है।
  1. सामान्य दृष्टिकोण (General Outlook ) – इसे निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
    1. शैक्षणिक विषयों का हल दार्शनिक स्वयं अपने ज्ञान के आधार पर प्रस्तुत करता है जो ज्ञान वास्तविकता से सम्बन्धित होता है। इस सन्दर्भ में प्लेटो का मानना है कि “विश्व की एकता विश्व के ज्ञान के विषय में मिलती-जुलती है। इसका तात्पर्य यह है कि अधिकांश दार्शनिकों का झुकाव वास्तविकता एवं ज्ञान के एक एकीकृत सिद्धान्त के निर्माण में है।
    2. पारम्परिक दार्शनिक दृष्टिकोण से शैक्षिक विषयों की केवल ज्ञान की विशेष शाखाएँ होती हैं जो एक साथ मिलकर पूरी तरह से ज्ञान या ज्ञान की एकता बनाते हैं इसीलिए विषयों का एक दूसरे से सम्बन्ध होता है तथा उन्हें सैद्धान्तिक रूप में भी व्यापक सिद्धान्त या ज्ञान की व्यवस्था के रूप में एकीकृत किया जा सकता है।
    3. 20वीं सदी के प्रारम्भ में ‘तार्किक सकारात्मक’ नाम का एक नया शैक्षिक दार्शनिक विचार आया। तार्किक सकारात्मक वाद ने विज्ञान एवं ज्ञान की एकता को पुनर्स्थापित करने के लिए निर्धारित किया जिससे शैक्षणिक विषयों एवं अनुसंधान कार्यों में तेजी आई। तार्किक सकारात्मकवादियों ने दावा किया कि प्रकृति के उद्देश्य, विशेषताओं के आधार पर विज्ञान एक संचयी प्रक्रिया है। तार्किक सकारात्मकवाद तर्कशास्त्र, तर्कसंगतता या तर्कसंगत तर्क द्वारा तथा संचालित अनुभवजन्य अवलोकन द्वारा प्रेरित करने का विचार करता है।
    4. तार्किक वस्तुनिष्ठवाद विभिन्न पक्षों से आक्षेप के अन्तर्गत आ गया। तार्किक वस्तुनिष्ठवाद तर्कसंगत विरोधियों के दावे की प्राथमिकता एवं तार्किकता का विरोध करता है।
  2. विशेष अन्तर्दृष्टि ( Special Insights) शैक्षणिक विषयों में इस समस्या को प्रदर्शित किया गया है कि विश्व ज्ञान को बड़ी संख्या में शाखाओं में विभाजित किया गया है। तर्कसंगत सकारात्मकवाद ने वैज्ञानिक तर्क संगतता के मूलभूत सिद्धान्तों को ज्ञान की एकता के रूप में सुधारने की कोशिश की, जो सभी वैज्ञानिक विषयों में सम्मिलित किया जाएगा। इसी प्रकार सामाजिक विज्ञान विषय के कुछ भागों में सामाजिक निर्माणवाद का एक बहुत लोकप्रिय एवं प्रभावशाली स्थान रहा है।
    लेकिन ज्ञान एवं सत्य की प्रकृति के कारण इस विषय को हमेशा आलोचना का सामना करना पड़ता है। फिर भी विषयों का सामाजिक रूप से निर्माण किया जा रहा है जो नवीन ज्ञान के निर्माण में एवं ज्ञान के मूल्यांकन के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसी सन्दर्भ में डेविड ब्रिज तर्क दिया है कि विषयों में न केवल तर्कसंगत लोगों का समूह सम्भव है, बल्कि अनुशासन की विशिष्टता बनाए रखने पर वैज्ञानिक अनुसन्धान की विश्वसनीयता को भी बढ़ावा मिलता है। अनुशासनात्मक विषयों को अतः विषयों के रूप में भी जाना जाता है।
  3. दार्शनिक परिप्रेक्ष्य की प्रासंगिकता (Relevance of Perspective) – अनुशासन एवं Philosophical अनुशासनात्मक विषयों का दार्शनिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह केवल समग्र अन्तः विषयक एक साइड शो है जैसा कि व्यावहारिक आयाम एवं अनुशासन या अन्तःविषयों के निहितार्थ शायद ही कभी माना जाता है। दार्शनिक दृष्टिकोण ने इस परिप्रेक्ष्य का समर्थन किया है कि स्कूल के विषय ज्ञान के क्षेत्रों से या विषयों से प्राप्त होते हैं ।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य (Sociological Perspective 
सामाजिक परिपेक्ष्य से तात्पर्य है समाज के मूल्य, तत्व, घटक तथा सामाजिक दायरे जो किसी विषय के उद्भव को प्रभावित करते है। सामाजिक माँग तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति भी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शामिल है जो विषयों के विकास में प्रभाव डालते हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य के जो विषय उद्भव में सहायक है, इस बात पर बल देते हैं कि विषय का विकास सदैव बालक की माँग, रुचि, तथा योग्यता को प्रमुखता देकर करना चाहिए। विषय सदैव समाज की माँग उपयोगिता, समाज कल्याण के अनुरूप होना चाहिए। विषय समाज में व्यक्ति के भीतर सामाजिक गुणों तथा नागरिकता के गुणों के विकास में सहायक होने चाहिए। पाठ्यक्रम में वे अधिगम अनुभव सम्मिलित किए जाने चाहिए। जो जीवन शैलियों पर आधारित हो । विषय में भाषा, गणित, स्वास्थ्य, शिक्षा, शारीरिक शिक्षा सामाजिक अध्ययन, साधारण विज्ञान, प्रयोगात्मक कलाएँ संगीत इत्यादि विषय होने चाहिए जो व्यक्ति तथा समाज के विकास में सहायक है। शैक्षणिक विद्यालयी विषयों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य श्रम के व्यवसायीकरण एवं विभाजन पर आधारित है। इस परिप्रेक्ष्य को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है-
  1. सामान्य दृष्टिकोण (General Outlook)शैक्षणिक विषयों के किसी भी विशेष सामाजिक दृष्टिकोण की बात करना भी बहुत कठिन है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य विशेष रूप से सभी सामाजिक विज्ञानों में सबसे व्यापक एवं सबसे अधिक समावेशित है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य के सामान्य दृष्टिकोण का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
    1. सामाजिक परिप्रेक्ष्य का एकीकृत प्रतिमान या अनुसन्धान का कोई एक एकीकृत उद्देश्य नहीं है। इसे कम से कम 30 से 40 उपविषयों में विभाजित किया गया है। 20वीं शताब्दी के दौरान समाजशास्त्रीय अनुशासन ने बहुत सी सफलताएँ हासिल की लेकिन वर्तमान समय में इसकी अनेक समस्याएँ भी हैं।
    2. समाजशास्त्र एक अध्ययन विषय है जिसे परिभाषित करना बहुत ही कठिन है। अनुशासन के प्रारम्भिक विचारकों ने तर्क दिया है कि “समाजशास्त्री एक ऐसा व्यक्ति होता है जो एक निश्चित तरीके से समाज के तथ्यों का अध्ययन करता है। दार्शनिकों की तरह समाजशास्त्री भी मानव जीवन की सम्पूर्णता में दिलचस्पी लेते हैं सामान्यतया समाजशास्त्र का दृ ष्टिकोण यह है कि मानव व्यवहार, सामाजिक व्यवहार एवं सामाजिक संगठनों द्वारा बड़े पैमाने पर निर्धारित होता है। इसी दृष्टिकोण से मानव व्यवहार व सामाजिक समूह का विश्लेषण किया जा सकता है।
    3. व्यावसायिकता भी एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से लोगों को जीवन यापन करने के लिए अनेक गतिविधियाँ मिलती हैं। व्यवसायी एक ऐसा व्यक्ति होता है जो किसी व्यक्ति से उच्च स्तरीय कौशल एवं ज्ञान के साथ निश्चित गतिविधियाँ कर सकता है।
  2. विशिष्ट अन्तर्दृष्टि (Special Insights ) -श्रम विभाजन आधुनिकता की परिभाषाओं में से एक है तथा सामाजिक संगठन की बढ़ती तर्कसंगतता की अभिव्यक्ति है। शैक्षणिक विषयों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य के विशिष्ट अन्तर्दृष्टि की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
    1. व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं व्यावसायिक योग्यता के प्रमाणीकरण पर विज्ञान सम्बन्धी स्वायत्तता है।
    2. ज्ञान एवं कौशल का एक समूह है जो पाठ्यचर्या के रूप में व्यवस्थित है।
    3. शैक्षणिक विषयों की सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अलग-अलग व्यावसायिक नैतिकता है तथा व्यवसायिकों का एक समूह है जो एक अलग व्यवसायिक तरीके बताता है।
  3. सामाजिक परिप्रेक्ष्य की प्रासंगिकता (Relevance of Sociological Perspective) – समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण शैक्षिक विषयों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह शैक्षिक व्यवसायों में क्या हो रहा है? किस प्रकार के कार्य होने चाहिए आदि के विषय में चिकित्सकों या व्यावसायिकों के विशेष समूह की भावनाओं को पहचानता है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका तात्पर्य यह है कि उपनिवेशवाद के बड़े रुझान के कारण अनुशासनात्मक संरचनाएँ भी खतरे में है। समाजशास्त्रियों द्वारा व्यापक सामाजिक प्रवृत्तियों को विषयों एवं अनुशासन के रूप में देखा जा रहा है।
विषयों के उद्भव के सामाजिक सिद्धान्त
सामाजिक परिप्रेक्ष्य के आधार पर विषयों के उद्भव में निम्न सिद्धान्तों को शामिल करना आवश्यक है जिनके माध्यम से विषयों को समाजपरक, नागरिक गुणों से युक्त तथा समाज के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है-
  1. परिवर्तनशील विषयों की रूपरेखा परिवर्तनशील तथा लोचयुक्त होनी चाहिए। बदलते समाज के साथ मांग के अनुरूप विषयों को निर्मित किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ यह समय के अनुसार परिवर्तन भी होना चाहिए ।
  2. व्यावहारिक विषयों में शामिल ज्ञान केवल रटने योग्य न होकर व्यवहारपरक तथा जीवन में उपयोगी होना चाहिए।
  3. समायोजन योग्य शामिल विषय मानवीय तथा सामाजिक संबंधों के बीच समायोजन के अनुरूप होना चाहिए।
  4. हम भावना विषय का उद्भव इस आधार पर किया जाता है जो समाज में मानव संसाधन से हम की भावना का विकास करने के अनुरूप हो।
  5. संस्कृति का प्रसार शिक्षा का माध्यम ऐसा विषय होना चाहिए जो समाज में सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने में सहायक होना चाहिए। विषय की रूपरेखा सांस्कृतिक गुणवत्ता के विकास तथा उसके पीढ़ी स्थानान्तरण में सहायक होना चाहिए।
  6. सम्मान – विषय सामाजिक व्यवसायों, सेवाओं, मान मर्यादा को रखकर निर्मित किया जाना चाहिए। इसमें श्रम के प्रति सम्मान को पर्याप्त महत्त्व देने वाला होना चाहिए।
  7. पर्याप्त सहभागिता-पाठ्यक्रम में विषय इस प्रकार का शामिल करना चाहिए जो छात्रों को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने के योग्य बना सके।
  8. सृजनात्मक दृष्टिकोण-विषय में बालक के भीतर सृजनात्मक गुण विकसित करने की क्षमता होनी चाहिए। जिससे वह समाज में निर्माणकारी भूमिका निभाकर समाज की प्रगति तथा उत्थान में सहायक बने।
शैक्षिक परिप्रेक्ष्य ( Educational Perspective)
शैक्षिक परिप्रेक्ष्य शिक्षण एवं शिक्षा की अवधारणा पर आधारित है। शिक्षण एवं शिक्षा के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य पर निम्नलिखित प्रकार से चर्चा की जा सकती है-
  1. सामान्य दृष्टिकोण (General Outlook)- शैक्षिक परिप्रेक्ष्य अनुशासन एवं अन्तःविषय पर एक अलग परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। शिक्षा या शिक्षण एक नया अध्ययन विषय है जो मनोविज्ञान, इतिहास, दर्शन एवं कुछ व्यावहारिक अध्ययनों के पहलुओं को जोड़ती है। शैक्षिक विषय वर्तमान समय का एक अनिवार्य विषय है जिसका प्रयोग शिक्षक एवं विश्वविद्यालय के व्याख्याताओं के प्रशिक्षण के लिए किया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह अनुसन्धान का एक क्षेत्र है जिसका उद्देश्य शिक्षा की सामाजिक वास्तविकता को समझना है।
    शैक्षिक परिप्रेक्ष्य से सम्बन्धित अध्ययन विषय को सामान्य दृष्टिकोण इस प्रकार से है-
    1. छात्र – छात्राओं को पाठ्यचर्या से सम्बन्धित सामग्रियों को पढ़ाया जाएगा।
    2. शिक्षण पद्धति सम्बन्धी पठन-सामग्री को सिखाया जाएगा।
    3. शिक्ष के ज्ञान एवं कौशल के अतिरिक्त अन्य शैक्षणिक उद्देश्यों का पालन किया जाना चाहिए।
  2. विशिष्ट अन्तर्दृष्टि ( Special Insights ) – शैक्षिक परिप्रेक्ष्य शिक्षण को बहुत जटिल स्वरूप प्रदान करता है। अनुशासनिक शिक्षा स्कूल शिक्षा एवं अध्ययन के पाठ्यक्रमों का आयोजन करने का सर्वप्रमुख तरीका है। अध्ययन विषय स्नातक स्तर की पाठ्यचर्या में शिक्षण संगठन के लिए कुछ सामान्य संरचनाएँ प्रदान करता है। शैक्षिक परिप्रेक्ष्य से यह भी पता चलता है कि अन्तः विषयक विषय पाठ्यचर्या के लिए समग्र रूप से एक मजबूत प्रवृत्ति है।
    सभी विषयों के विस्फोट एवं ज्ञान के विखण्डन के कारण कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही हैं। शिक्षकों को उनके छात्रों के लिए वास्तविक प्रासंगिकता क्या है यह चुनने में कठिनाई होती है। इसके लिए शैक्षणिक दृष्टिकोण से यह तर्क दिया गया है कि शैक्षिक परिप्रेक्ष्य की बढ़ती जटिलता को दूर करने के लिए तथा शिक्षण एवं अनुसन्धान के लिए आवश्यक अन्तःविषय दृष्टिकोण बनाना होगा। इसके लिए अन्तः विषयक अनुशासनिक शोधकर्ता ने तर्क दिया कि पहले छात्रों को अपने अन्तःविषयक अनुसन्धान के हितों के विकास से पहले अनुशासनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
  3. शैक्षिक परिप्रेक्ष्य की प्रासंगिकता (Relevance of Educational Perspective) – प्रभावी शिक्षण के प्राधिकरण सन्दर्भ एवं संरचना की आवश्यकता होती है। विश्वविद्यालय अभी भी स्वयं को उच्च शिक्षा का संस्थान घोषित करते हैं जबकि शिक्षा उनका मुख्य व्यवसाय बन गया है।
    यह एक चिन्ता का विषय है। विषयों द्वारा बनाई गई पाठ्यचर्या के बिना एक शैक्षिक संस्था को चलाना या कुछ शिक्षण इकाइयों को चलाना असम्भव है।
    आधुनिक विश्वविद्यालय वर्तमान समय में शैक्षणिक विषयों में अनुशासनात्मक विषयों का निर्माण करके तथा उसे उपयुक्त प्रशिक्षण कर्मियों को प्रदान करके उच्च शिक्षा को एक नया आकार प्रदान कर रहे है ।
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य (Political Perspective)
विषय उद्भव के वे राजनीतिक तथ्य जिसमें समाज के राजनीति खण्ड के नीति, नियम, सिद्धान्त, तत्त्व, अवरोध, प्रगति कारक जो किसी विषय के विकास / उद्भव पर प्रभाव डालता है। राजनैतिक घटकों में राष्ट्रीय विचारधारा, राजतंत्रीय व्यवस्था, इसमें शामिल किए जाते है जो विषय उद्भव में सहायक है। जनसाधारण का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावना को ध्यान में रखकर विषय का निर्धारण करता है। लोकतंत्रीय व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता व गरिमा को महत्त्व दिया जाता है। राजनैतिक घटकों के माध्यम से आत्मानुशासन व्यक्तित्त्व विकास को बढ़ावा देने पर बल दिया जाता है।

लोकतंत्र की सफलता का महत्त्व विषयों के घटकों पर आधारित होता है। भारतीय संविधान पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक है जो समाज की स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्त्व से प्रेरित है। अतः शिक्षा में विषयों के उद्भव हेतु आवश्यक है कि राष्ट्र की एकता, मौलिक कर्तव्य, मौलिक अधिकार को ध्यान में रखकर विषयों का निर्माण करना चाहिए। जो राष्ट्र में राष्ट्र निर्माणकारी नागरिक के निर्माण में सहायक बने ।

बौद्धिक परिप्रेक्ष्य (Intellectual Perspective)
बौद्धिक विकास का सम्बन्ध मुख्यतः संज्ञानात्मक विकास से होता है। जिसमें व्यक्ति संवेद ग्रहण करता है, जिसे आगे वह रूपान्तरण कर उसका संचरण, संग्रहण, पुनःउपयोग को शामिल किया जाता है। विषयों का उद्भव बौद्धिक सिद्धान्त पर आधारित होता है।

विषयों के तत्त्व, विषय वस्तु बौद्धिक तथा सांवेगिक विकास के अनुरूप होने चाहिए। जिससे व्यक्ति में चिंतन, मनन, तर्क-वितर्क के गुणों का समावेश सम्भव होगा।

अतः किसी भी विषय के उद्भव में राजनैतिक, बौद्धिक, सामाजिक परिपेक्ष्य को ध्यान में रखा जाता है। जिससे शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति सम्भव है।

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