आधुनिक भारत में सामाजिक सुधारों के तहत ‘महिलाओं’ के ‘अध्ययन’ से ‘लिंग अध्ययन की ओर प्रतिपेक्षात्मक सोच की विवेचना करें ।
उदाहरण के लिए- आदि समाज में घटित कृषि आधारित बदलाव । आदिम भारतीय सदियों से पृथ्वी पर घुमक्कड़ प्रवृत्ति में अस्तित्वमान हैं वे जानवरों का शिकार करके मौसमी खाद्य पदार्थ और पानी का संचयन करते थे । यद्यपि 2000 ई.पू. से मध्य अमेरिका छोटे-छोटे गाँवों का एक भूदृश्य बन गया था, जो कि मक्का एवं अन्य सब्जियों के क्षेत्रों से घिरा हुआ था । स्थानापन्न में परिवर्तन कभी भी अलगाव या स्वयं नहीं आता। कुछ परिवर्तन के अभिकर्ता जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन करने में सहायता करते हैं ।
इस प्रकार के परिवर्तन के संकेत हमारे चारों तरफ हैं। उदाहरण के लिए पर्सनल कम्प्यूटर के आगमन और इंटरनेट ने हमारे व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों को प्रभावित किया है एवं यह स्थानापन्न का एक उत्प्रेरक है। हम एक प्रौद्योगिक, विनिर्मित औद्योगिक समाज से जैविक, सेवा आधारित, सूचना केन्द्रित समाज में परिवर्तित हो गए हैं और यह प्रौद्योगिक विनिर्मित वैश्विक स्तर पर निरन्तर प्रभाव डाल रहा है।
अतः परिवर्तन अनिवार्य है। यही केवल वास्तविक स्थिरांक है परिवर्तन कठिन है। मनुष्य इन परिवर्तनों का विरोध करता है। यद्यपि यह प्रक्रिया लम्बे समय से गतिमान है और हम अपने स्वयं के अनुभवों को पुनः सृजित करने हेतु बरकरार हैं।
कुहन का कथन है कि “सभी स्वीकार्य सिद्धान्तों में परिवर्तन हेतु जागरूकता पूर्वापेक्षा है”। यह एक व्यक्ति के मस्तिष्क से आरम्भ होता है। हम जो ग्रहण करते हैं चाहे वह सामान्य या असामान्य, चेतन या अचेतन हो, वह सब परिसीमाओं एवं विकृति के विषय बन जाते हैं चाहे वे हमें उत्तराधिकार के रूप में या सामाजिक स्वीकृत प्रकृति के रूप में ही क्यों न मिले हों; तथापि हम इस परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। हम एक त्वरित गति से बढ़ रहे हैं और हमारे चेतन की अवस्था निरन्तर परिवर्तित एवं उत्कृट हो रही है। जैसे ही हमारा चेतन जागरूक होता है वैसे ही हमारे अन्दर बहुत सारी जागरूकताएँ आ जाती हैं।
यह एक स्थापित तथ्य है कि महिला अध्ययन में सदैव ही केवल महिलाओं से सम्बन्धित विषय ही एक अंग के रूप में उपस्थित रहे हैं। इन अंगों में वह मुद्दे उठाए जाते रहे जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार लाया जा सके।” स्पष्ट है कि इन मुद्दों की समझ के लिए महिलाओं के परिप्रेक्ष्य से विचार किया जाना अत्यन्त आवश्यक था। महिला अध्ययन के अन्तर्गत सभी महिलाओं, चाहे वे ग्रामीण हो या शहरी के मुद्दे शामिल किए जाते हैं तथा ग्रामीण एवं शहरी सभी महिलाओं के अनुभवों को स्थान प्रदान किया जाता है। महिलाओं एवं उनकी समस्याओं से जुड़े मुद्दे कभी भी स्थिर प्रकृति के नहीं होते यह हमेशा परिवर्तनशील प्रकृति में दिखाई देते हैं इससे स्पष्ट होता है कि महिलाएँ किस प्रकार से चुनौतियों का सामना करती हैं तथा जीवन की समस्याओं पर किस तरह से प्रतिक्रिया करती है। उनके जीवन की चुनौतियाँ समाज में उनकी कमजोर तथा अधीनस्थ की स्थिति तथा शक्ति के असमान वितरण से सम्बन्धित होती हैं। जीवन की इन चुनौतियों से निबटने के लिए समाज में कोई विधि प्रदान नहीं की जाती।
महिलाओं को इनसे जूझने में स्वयं के तरीके ही खोजने पड़ते हैं। इन समस्याओं के बारे में दो नजरिए हो सकते हैं पहला उस महिला का नजरिया जो स्वयं उस समस्या से दो-चार हो रही है तथा दूसरा नजरिया एक महिला शोधकर्ता का हो सकता है जो उस समस्या को समझ तो पा रही है साथ ही समाधान के बारे में भी विचार कर पा रही है। इस प्रकार से ये दो भिन्न नजरिए हैं परन्तु ‘महिला अध्ययन के अन्तर्गत ‘शोधार्थी नजरिए’ से न देखकर अधिकतर समस्या महिला के नजरिए से देखे जाने की प्रवृत्ति होती है तथा समस्या का तुरन्त समाधान चाहने की अपेक्षा रखी जाती है, जबकि समाज में पूर्ण रूप से किसी समस्या का एक तात्कालिक समाधान तो हो सकता है परन्तु पूर्ण रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए यह आवश्यक है कि केवल महिला का अध्ययन, महिलाओं के द्वारा महिला के लिए न किया जाए, बल्कि समाज की संरचना के सभी अंगों को साथ लेकर बड़े पैमाने पर परिवर्तन किया जाए। इस नजरिए से इसमें समाज के दूसरे महत्त्वपूर्ण अंग पुरुष का नजरिया भी उतना ही आवश्यक है।
यहीं से ‘जेंडर अध्ययन की अवधारणा का जन्म हुआ है क्योंकि महिला अध्ययन में केवल महिला का परिप्रेक्ष्य है जबकि जेंडर की अवधारणा में स्त्री व पुरुष दोनों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाता है। इसमें मुद्दों का विश्लेषण करते समय स्त्री व पुरुष दोनों को सामने रखा जाता है। महिला अध्ययन’ में महिलाओं के इतिहास का संज्ञान लिया जाता है जबकि ‘जेन्डर अध्ययन में पुरुषों की महिलाओं के इतिहास में भूमिका का संज्ञान लिया जाता है। महिला अध्ययन महिला साहित्य के विश्लेषण से शुरूआत करता है जबकि जेंडर अध्ययन में साहित्य के निर्माण तथा उसे आकार प्रदान करने में पुरुषों की भूमिका पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया जाता है।
इस प्रकार कह सकते हैं कि महिला अध्ययन के अन्तर्गत महिलाओं के अध्ययन, इतिहास तथा महिला के स्वतन्त्रता संघर्ष का एकाकी रूप से अध्ययन किया जाता है तथा इन्हें सामने लाया जाता है जिससे इन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जा सके। वहीं दूसरी ओर ‘जेंडर अध्ययन से एक प्रतिमान विस्थापन है जो यह बताता है कि कैसे महिला तथा पुरुष तथा उनकी अन्तर्सम्बन्धित क्रियाएँ इस विमर्श के विश्लेषण के लिए आवश्यक हैं।
इस प्रकार से स्पष्ट होता है कि महिला अध्ययन महिलाओं की समस्याओं को समझने, उनके नजरिए को समझने का एक एकांगी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था जबकि ‘जेंडर अध्ययन’ को कहीं अधिक व्यापक अर्थों में लिया जाता है जिसमें महिला अध्ययन तो सम्मिलित है ही दूसरे अन्य कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे सम्मिलित हैं, जैसे विभिन्न यौनिक वरीयताएँ (Sexual Preference) तथा रूझान, ट्रांसजेंडर, समलैंगिकता इत्यादि।
अतः ‘जेन्डर अध्ययन एक अन्तर्विषयक (Interdisciplinary) क्षेत्र है जोकि महिला व पुरुष अध्ययन में ज्ञान के नए आयामों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। सभी प्रकार के अनुभवों में जेन्डर के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत राजनीति, शिक्षा परिवार, श्रमशक्ति, साहित्य तथा मीडिया में जेंडर समानता की बात की जाती है। साथ ही लैंगिक जेंडर सम्बन्धों की विभिन्न संस्कृतियों के सापेक्ष अध्ययन (Cross-Cultural Studies) भी किया जाता है।
‘महिला अध्ययन’ से ‘जेंडर अध्ययन में प्रतिमान विस्थापन के चलते पुरुष तथा स्त्री समान रूप से फेमिनिस्ट विषयों के साथ जेंडर मुद्दों पर आधारित कोर्स का चयन कर रहे हैं। इसकी पृष्ठभूमि में ‘जेंडर मेन स्ट्रीमिंग (Gender Main Streaming) की भी प्रमुख भूमिका है जिसके कारण इसमें परिवर्तन दिखाई दे रहा है। मेनस्ट्रीमिंग के कारण ही इसे पारम्परिक विषयों, जैसे- समाजशास्त्र, शिक्षा, इतिहास तथा अंग्रेजी में इसे कोर विषय की तरह स्वीकार किया गया है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि बीते तीस वर्षो में ‘जेंडर अध्ययन’ ने सामाजिक विज्ञानों, कला तथा मानविकी विषयों के रूप तथा शिक्षण विधियों को बदल के रख दिया है। इसको या तो पारम्परिक विषयों में मिला दिया गया है या फिर एक आवश्यक अंग की तरह जोड़ दिया गया है।
- समय में परिवर्तन होने के साथ-साथ प्रतिमानों में भी परिवर्तन आना अवश्यम्भावी है।
- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा की आवश्यकताएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः पुराने प्रतिमानों का विस्थापन अति आवश्यक है।
- लैंगिक मुद्दे धीरे-धीरे जटिल होते जा रहे हैं जिनको सुलझाने के लिए नवीन प्रतिमानों की आवश्यकता होती है।
- लैंगिक मुद्दे तथा स्त्री शिक्षा पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों का प्रभाव पड़ने से भी इनके प्रतिमानों में विस्थापन की आवश्यकता होती है।
- नवीन तकनीकी ज्ञान के साथ-साथ नवीन प्रतिमान भी आते हैं।
- प्रतिमानों विस्थापन सामाजिक परिवर्तन एवं गतिशीलता के लिए भी आवश्यक है।
- प्रतिमानों का विस्थापन होगा तभी नवीन प्रतिमानों व विचारों को स्थान प्राप्त होगा।
- लोकतंत्रीय आदर्श में स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन होना आवश्यक है।
- समाज की कुरीतियों की माप्ति के लिए प्रतिमान विस्थापन आवश्यक है।
- स्त्री-पुरुषों के मध्य स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए लैंगिक शिक्षा के नवीन प्रतिमानों की अत्यधिक आवश्यकता है।
- सांस्कृतिक कारक- स्त्री तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन के लिए सांस्कृतिक कारक उत्तरदायी होते हैं। संस्कृति पर अन्य संस्कृतियों का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण सामाजिक प्रतिमानों में भी परिवर्तन आता रहता है और इसी कारण से स्त्री शिक्षा के प्रतिमानों में परिवर्तन आया है। पहले स्त्रियों को घर-गृहस्थी की शिक्षा, स्त्रियोचित गुणों के विकास की शिक्षा तथा स्त्री धर्म का पालन करना सिखाया जाता था, परन्तु सांस्कृतिक आदान-प्रदान के साथ स्त्री शिक्षा के प्रतिमानों में भी परिवर्तन आया और स्त्रियों को सभी प्रकार की शिक्षा प्रदान की जा रही है। लैंगिक प्रतिमानों में परिवर्तन भी सांस्कृतिक कारकों से आया है, जैसे पहले सांस्कृतिक उत्तरजीविता के लिए पुरुष को ही उत्तरदायी माना जाता था, परन्तु अब लैंगिक शिक्षा के विस्थापन के द्वारा स्त्रियों की उत्तरजीविता सांस्कृतिक मूल्यों में स्वीकार किए जाने से लैंगिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जा रहा है। इस प्रकार सांस्कृतिक आदान-प्रदान और समृद्ध होती संस्कृति में लैंगिक भेदभावों को कम कर स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
- सामाजिक कारक-समाज एक गतिशील व्यवस्था है। यहाँ परिवर्तन निरन्तर चलता रहता है। पहले समाज में रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों का प्रचलन अत्यधिक था, जिसके कारण पर्दा प्रथा, देवदासी प्रथा, जौहर प्रथा, स्त्री प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, बाल-विवाह इत्यादि का प्रचलन जिससे सामाजिक गतिशीला अवरुद्ध हो रही थी और स्त्रियों की शिक्षा की उपेक्षा कर दी गयी थी। समय-समय पर समाज-सुधारकों तथा सरकार के द्वारा सामाजिक पिछड़ेपन को समाप्त करने के प्रयास किए गए और इसी दिशा में स्त्री शिक्षा के नवीन प्रतिमानों की स्थापना की गयी जिससे स्त्रियाँ सामाजिक परिवर्तन की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन सामाजिक कारकों द्वारा आया। अब समाज में बालकों और बालिकाओं दोनों की ही शिक्षा को प्रमुखता से स्थान प्रदान किया जा रहा है।
- आर्थिक कारक- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के ‘प्रतिमानों में विस्थापन का एक कारक आर्थिक कारक है। प्राचीन काल में पुरुषार्थ चतुष्ट्यों-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रचलित थे, जिसमें सर्वाधिक महत्त्व मोक्ष को दिया जाता था। परन्तु वर्तमान संस्कृति भौतिक और अर्थ की संस्कृति है, अतः ऐसे में स्त्री-पुरुष दोनों ही कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहे हैं। इस प्रकार आर्थिक कारकों के कारण भी स्त्री शिक्षा के प्राचीन प्रतिमानों में विस्थापन हुआ और स्त्रियों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जा रही है तथा लैंगिक शिक्षा को लैंगिक भेदभावों में कमी लाने का प्रयास किया जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण द्वारा भी स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा की दिशा में नवीन प्रतिमानों की स्थापना हुई है।
- धार्मिक कारक-धार्मिक तत्त्वों में रूढ़िग्रस्तता आ जाती है तो धर्म सुधार के लिए फिर से धर्म के मूल स्रोतों और धर्म सुधारकों द्वारा धर्म सुधार का कार्य किया जाता है। धार्मिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं के कारण भी स्त्रियों की शैक्षिक व सामाजिक आदि स्थिति को दीन-हीन दशा में रखा गया, परन्तु धर्म के मूल तत्त्व समानता, प्रेम, भ्रातृत्व, मानवता और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं। इस प्रकार धार्मिक कारकों में उदारता, स्त्री शिक्षा एवं लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में समानता और गतिशीलता की स्थापना करेगा वहीं रूढ़ियों से जकड़े धर्म में अनुदार तथा संकीर्ण शैक्षिक प्रतिमान स्थापित होंगे। इस प्रकार स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन हेतु धार्मिक कारक भी उत्तरदायी हैं।
- राजनैतिक कारक- राजनैतिक जागरूकता तथा लोकतंत्र में सभी मुद्दों पर खुलकर चर्चा होती है, जबकि तानाशाही राजतंत्रीय इत्यादि विषयों में शक्ति और सुविधाओं का केन्द्रीकरण होता है। भारत में लैंगिक मुद्दों तथा स्त्री शिक्षा पर उदारता का रूख यहाँ के राजनैतिक कारकों द्वारा किया जा रहा है। भारत में लोकतंत्र है और लोकतन्त्रीय प्रणाली में सभी को समान माना जाता है तथा लोकतन्त्र की सफलता और सुदृढ़ता वहाँ के सुयोग्य तथा सुशिक्षित नागरिकों पर ही आधारित है। स्त्रियों की शिक्षा इसीलिए महत्त्वपूर्ण विषयों में से एक है, क्योंकि लोकतन्त्र ही आधारशिला इससे सुदृढ़ होगी । लैंगिक मुद्दों के कारण भी समानता इत्यादि में बाधा उत्पन्न होती है। अतः वर्तमान में स्त्री शिक्षा और लैंगिक मुद्दों के प्रतिमानों के विस्थापन में राजनैतिक कारक महत्त्वपूर्ण हैं |
- राष्ट्रीय कारक – राष्ट्रीय कारकों के द्वारा स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में भी परिवर्तन आया है। राष्ट्रीय कारकों के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता विकास तथा उन्नति आती है। स्त्री शिक्षा के बिना राष्ट्रीय एकता और विकास की स्थापना नहीं हो पायेगी और लैंगिक शिक्षा की आवश्यकता भी वर्तमान में अत्यधिक है। लैंगिक शिक्षा के द्वारा परस्पर लिंगों के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास होता है जिससे राष्ट्रीयता की भावना बलवती होती है। इस प्रकार लैंगिक तथा स्त्री शिक्षा के नवीन प्रतिमानों तथा प्राचीन प्रतिमानों के विस्थापन में राष्ट्रीय कारक महत्त्वपूर्ण हैं |
- अन्तर्राष्ट्रीय कारक- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों पर अन्तर्राष्ट्रीय कारकों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, क्योंकि अब भूमण्डलीकरण के युग में वैश्विक ग्राम (Global village) की परिकल्पना साकार हो रही है। स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा भी भूमण्डलीकरण से अछूती नहीं है। सम्पूर्ण विश्व शान्ति, दया, करूणा एवं प्रेम के लिए स्त्रियों की ओर देख रहा है। अतः ऐसे में स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा को प्रगतिशील बनाने के लिए नवीन प्रतिमानों के निर्माण की आवश्यकता है।
- लैंगिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन हेतु भारतीय समाज के मूल तत्त्वों से अवगत होना आवश्यक है।
- लैंगिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा के प्रतिमान विस्थापन हेतु आम सहमति करना आवश्यक है।
- इस हेतु राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का ध्यान रखना चाहिए।
- स्त्री शिक्षा एवं लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के लिए उपाय के स्वरूप में सांस्कृतिक तत्त्वों पर ध्यान देना चाहिए।
- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के लिए आर्थिक हितों तथा संसाधनों का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए।
- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपाय के स्वरूप में समाज की आवश्यकताओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपाय के स्वरूप में वयस्क शिक्षा समाज शिक्षा तथा दूरस्थ शिक्षा व पत्राचार पाठ्यक्रमों को अपनाना चाहिए।
- स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपाय के स्वरूप में नवाचारों एवं तकनीकी को अपनाया जाना चाहिए।
- वर्तमान आवश्यकता के अनुसार आवश्यकता को व्यापक और उदार बनाया जाना चाहिए।