इरिक्सन के ‘मनो-सामाजिक विकास सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए । Explain the Erickson’s psycho-social development theory.
प्रश्न 2 – इरिक्सन के ‘मनो-सामाजिक विकास सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए ।
Explain the Erickson’s psycho-social development theory.
या
इरिक्सन का सामाजिक तथा भावनात्मक विकास के सिद्धान्त की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
Discuss the features of Ericson’s Theory of Social and Emotional Development.
उत्तर – मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के सिद्धान्तों में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सुप्रसिद्ध सिद्धान्त इरिक्सन का ‘मनोसामाजिक विकास’ सिद्धान्त को माना जाता है। सिगमण्ड फ्रॉयड की तरह ही इरिक्सन का भी मानना है कि व्यक्तित्व का विकास क्रमिक अवस्थाओं में होता है और फ्रॉयड की तरह ही इरिक्सन भी व्यक्तित्व के विकास में सामाजिक कारकों को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं । फ्रॉयड के मनोलैंगिक अवस्थाओं के सिद्धान्त के विपरीत इरिक्सन का सिद्धान्त सम्पूर्ण जीवन पर पड़ने वाले सामाजिक अनुभवों के प्रभाव की व्याख्या करता है। इरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में मनोलैंगिक अवस्थाओं का वर्णन न करके मनोसामाजिक अवस्थाओं का वर्णन किया । इरिक्सन का व्यक्तित्व सिद्धान्त फ्रॉयडवादी व्यक्तित्व विकास के सिद्धान्त की तुलना में अधिक व्यवस्थित एवं संगठित है। फ्रॉयड ने अपने सिद्धान्त में इदं को अधिक महत्त्व दिया जबकि इरिक्सन ने अहं को। इरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में संस्कृति, समाज एवं अहं में होने वाले संघर्ष पर बल दिया। व्यक्तित्व के विकास को उन्होंने मनोसामाजिक अहं विकास की संज्ञा दी। उन्होंने फ्रॉयड के मनोलैंगिक विकास के सिद्धान्त के आधार पर व्यक्तित्व के विकास की आठ अवस्थाओं का वर्णन किया । इन आठों अवस्थाओं का विकास एक क्रम से होता है ।
इरिक्सन के अनुसार, “मनोसामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति को ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो उस समाज के वयस्क समुदाय द्वारा अनुमोदित होते हैं। इस प्रकार के व्यवहार को ही कर्मकाण्डवाद (Ritualism) कहा गया है। कई बार कर्मकाण्ड की बारम्बारता सामाजिक विकृति उत्पन्न करती है । “
मनोसामाजिक विकास की अवस्थाएँ ( Stages of PsychoSocial Development)
इरिक्सन के अनुसार, मनोसामाजिक विकास की निम्नलिखित आठ अवस्थाएँ हैं। इन अवस्थाओं को विभिन्न आयु वर्ग में उत्पन्न होने वाले अन्तर्द्वन्द्वों के सारांश के रूप में निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है –
| तालिका- इरिक्सन के अनुसार मनोसामाजिक विकास की अवस्थाएँ |
| क्रमांक | आयु (Age) | अन्तर्द्वन्द्व (Conflict) | संक्रान्ति (Crises) |
| 1. |
शैश्वावस्था
(Infancy)
0-1 वर्ष
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आशा
(Hope)
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विश्वास बनाम अविश्वास
(Trust versus Mistrust)
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| 2. |
पूर्व बाल्यावस्था
(Early Childhood)
2 वर्ष
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इच्छा
(Will)
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स्वाधीनता बनाम शर्म
(Autonomy versus Shame)
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| 3. |
बाल्यावस्था
(Childhood)
3-5 वर्ष
|
प्रयोजन
(Purpose)
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पहल बनाम दोष
(Initiative versus Guilt)
|
| 4. |
प्रसुप्ति अवस्था
(Late Childhood)
6-12 वर्ष
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क्षमता
(Compelency)
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परिश्रम बनाम हीनता
(Industry versus Inferiority)
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| 5. |
किशोरावस्था
(Adolescence)
13-18 वर्ष 3)
|
निष्ठा
(Tidelity)
|
अभिज्ञान बनाम भूमिका दुविधा
(Identity versus Identity Confusion)
|
| 6. |
युवावस्था
(Early Adulthood)
19-21 वर्ष
|
प्यार
(Love)
|
घनिष्ठता बनाम अकेलापन
(Intimacy versus Isolation)
|
| 7. |
प्रौढ़ावस्था
(Adulthood)
22-50 वर्ष
|
दायित्व
(Care)
|
सृजनात्मकता बनाम ठहराव
(Creativity versus Stagnation)
|
| 8. |
परिपक्व या अधेड़
(Maturity)
50 वर्ष के पश्चात
|
बुद्धि
(Wishdom)
|
सत्यनिष्ठा बनाम निराशा
(Integrity versus isappointment)
|
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट हैं कि इरिक्सन के अनुसार, विकासात्मक यात्रा के प्रत्येक पड़ाव पर व्यक्ति को अनेक संकेत, संक्रान्तियों एवं अन्तर्द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। अन्तर्द्वन्द्व का समाधान जिस प्रकार व्यक्ति करता है और वह अपने मनोसामाजिक परिवेश में जैसा अनुकूल करता हैं ।”
- विश्वास versus बनाम अविश्वास (Trust Mistrust) – इरिक्सन के सिद्धान्त की यह प्रथम अवस्था जन्म से लेकर एक साल की होती है। जिन बच्चों को अपने माता-पिता तथा अन्य अभिभावकों से सतत् उचित स्नेह, प्यार आदि मिलता है, उनमें विश्वास का भाव विकसित होता है । इसके विपरीत माता-पिता या अभिभावक द्वारा जिन बच्चों को रोते-बिलखते तथा चिल्लाते हुए छोड़ दिया जाता है, उनमें दूसरों के प्रति अविश्वास (Mistrust) विकसित हो जाता है जिससे उसे दूसरों के बारे में शक तथा दूसरों से अनावश्यक डर उत्पन्न हो जाता है। शिशु में स्वस्थ्य व्यक्तित्व का विकास इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उसके जीवन में अविश्वास के अनुपात में विश्वास की मात्रा कितनी अधिक है। विश्वास एवं अविश्वास दोनों स्थिति होने पर शिशु के समक्ष संकट उत्पन्न हो जाता है ।
जब वह इन संकटों का समाधान कर लेता है तो शिशु में एक विशेष मनो-सामाजिक शक्ति विकसित होती है जिसे आशा कहते हैं । यही आशा की उत्पत्ति आगे चलकर शिशु के वयस्क होने पर उनमें सांस्कृतिक मूल्यों एवं धर्म आदि के प्रति आस्थावान बनाती है ।
- स्वायत्तता बनाम लज्जा एवं शंका (Autonomy versus Shame and Doubt) – इरिक्सन के सिद्धान्त की दूसरी . अवस्था 1 वर्ष से 3 वर्ष तक होती है। जब बच्चे को अपने माता-पिता तथा देख-रेख करने वाले के प्रति विश्वास उत्पन्न हो जाता है तब बच्चे में यह भाव उत्पन्न होता है. तथा वे स्वायत्तता एवं स्वतन्त्रता को महत्त्व देने लगते हैं। वे अपने से खाना खाना, कपड़े पहनना तथा शौच करना आदि कार्य करना पसन्द करने लगते हैं। इस अवस्था में वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। ऐसे समय पर माता-पिता को अपने बच्चों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। दूसरी तरफ कुछ कठोर स्वभाव के माता-पिता प्रायः बच्चों को साधारण कार्य करने पर भी डाँटते या पीटते हैं जिससे बच्चों को अपनी क्षमता पर शक होने लगता है जिससे वे अन्दर ही अन्दर लज्जा अनुभव करने लगते हैं। जब बालक स्वायत्तता बनाम लज्जा तथा शक के संकट का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है तब उसमें जो मनोसामाजिक शक्ति उत्पन्न होती है उसे इच्छा शक्ति (Willpower) कहा जाता है। जिसके फलस्वरूप बच्चे शक तथा लज्जा की परिस्थिति में भी खुलकर आत्म-नियन्त्रण (Self Restraint) का प्रयोग करके व्यवहार कर पाते हैं।
- पहल बनाम दोष (Initiative versus Guilt ) – इरिक्सन के सिद्धान्त की तीसरी अवस्था 3 वर्ष से 5 वर्ष की होती है। यह बालकों की पूर्व विद्यालयी अवस्था होती है तथा यह अवधि प्रारम्भिक बाल्यावस्था की होती है। जब बच्चों में स्वायत्तता का भाव विकसित हो जाता है तो वे अपने आस-पास के वातावरण में अन्वेषण करना प्रारम्भ कर देते हैं तथा नयी-नयी उत्सुकता दिखलाना प्रारम्भ कर देते हैं। इस अवस्था में बच्चे अनेक संज्ञानात्मक क्रिया-कलाप दिखलाते हैं जिसे पहल की संज्ञा दी गई है। माता-पिता को चाहिए कि वे इनके इस प्रयास की सराहना करें। यदि किसी कारण से माता-पिता बच्चों के इस पहल की आलोचना करते हैं या उन्हें दण्डित करते हैं तो इससे बच्चों में दोषभाव उत्पन्न हो जाता है। बच्चों में जब पहल का, अनुपात इस दोषाभाव के अनुपात से अधिक होता है, तो उनमें एक विशेष मनो सामाजिक गुण विकसित होता है, उसे उद्देश्य कहते हैं तथा इसके परिणामस्वरूप बालक में लक्ष्य – उन्मुखी व्यवहार करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है।
- परिश्रम बनाम versus हीनता (Industry Inferiority)-इरिक्सन के सिद्धान्त की चौथी अवस्था 6 से 12 वर्ष तक होती है। इस अवधि को उत्तर – बाल्यावस्था भी कहा जाता है। जब बालकों में पहले से विभिन्न प्रकार की नवीन अनुभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं तो वे अपनी ऊर्जा को नए ज्ञान अर्जित करने तथा बौद्धिक कौशल को सीखने में लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। यहाँ वे अपनी प्राप्त सफलता एवं उसकी पहचान से अत्यधिक प्रोत्साहित भी होते हैं जिसे परिश्रम की संज्ञा दी गई है। बच्चे इस अवस्था में स्कूल में ही अधिकतर समय व्यतीत करते तथा ऊर्जा व्यय करते हैं, इसलिए शिक्षक तथा संगी-साथी का प्रभाव यहाँ महत्त्वपूर्ण होता है। यदि छात्र को अपने कार्य में असफलता प्राप्त होती है तो इससे बच्चों में हीनता का भाव विकसित होता है। इसी प्रकार से यदि बालक को तुच्छ कार्य पर सफलता प्राप्त होती है तो उसमें परिश्रम का भाव विकसित नहीं हो पाता है। प्रायः जो छात्र परिश्रम, बनाम हीनता के संकट का सफलतापूर्वक समाधान कर लेते हैं, उनमें एक विशेष मनो सामाजिक गुण विकसित होता है जिसे सामर्थ्यता की संज्ञा दी जाती है जिसके परिणामस्वरूप छात्रों में यह विश्वास उत्पन्न होता है कि वे वातावरण के साथ ठीक ढंग से निपटने में सक्षम हैं।
- पहचान बनाम सम्भ्रान्ति (Identity versus Confusion)-इरिक्सन के सिद्धान्त की पाँचवी अवस्था 12 से 18 वर्ष की होती है जिसे किशोरावस्था कहते हैं। किशोरावस्था में यह जानने की प्राथमिकता बनी होती है कि वे कौन हैं? वे किसके लिए हैं? तथा वे अपने जीवन में किधर जा रहे हैं? इसे इरिक्सन महोदय ने पहचान की संज्ञा दी है। किशोरों को विभिन्न नवीन भूमिकाएँ करनी होती हैं। यदि किसी कारण से किशोर भिन्न-भिन्न भूमिकाओं का अन्वेषण नहीं कर पाते हैं तथा अपने भविष्य का रास्ता निश्चित नहीं कर पाते हैं तो वे अपनी पहचान के बारे में सम्भ्रान्ति की स्थिति में होते हैं। जब किशोर पहचान बनाम सम्भ्रान्ति के संकट का सही समाधान कर लेते हैं, तो उनमें एक विशेष मनो सामाजिक गुण उत्पन्न होता है, जिसे कर्तव्यपरायणता की संज्ञा दी जाती है। इस सिद्धान्त के परिणामस्वरूप किशोरों में समाज के नियमों तथा आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने की उन्मुखता बढ़ जाती है।
- घनिष्ठता बनाम अलगाव (Intimacy versus Isolation) – इरिक्सन के सिद्धान्त की छठीं अवस्था 20 वर्ष से 30 वर्ष की होती है। इसे आरम्भिक वयस्कावस्था कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति दूसरों के साथ एक धनात्मक सम्बन्ध बनाता है। व्यक्ति में जब दूसरों के साथ घनिष्ठता का भाव विकसित होता है तो यह अपने आपको दूसरो के लिए समर्पित कर देता है। इस अवस्था का मुख्य संघर्ष घनिष्ठता बनाम अलगाव होता है जो लोग इस संघर्ष का सही-सही समाधान कर लेते हैं, उनमें एक विशेष मनोसामाजिक गुण विकसित होता है जिसे प्यार कहा जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति घनिष्ठता बनाम अलगाव के संघर्ष का समाधान ठीक से नहीं कर पाते हैं, वे सांवेगिक रूप से अलग तथा दूसरों को प्यार देने एवं दूसरों से लेने में असमर्थ रहते हैं।
- सृजनात्मकता बनाम ठहराव (Creativity versus Stagnation ) – इरिक्सन के सिद्धान्त की सातवीं अवस्था 40 वर्ष से 50 वर्ष की आयु की होती है। इस अवस्था को व्यक्ति की मध्यावस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति में जननात्मकता का भाव अर्थात् अगली पीढ़ी के लिए कुछ धनात्मक चीजों को एकत्रित करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जननात्मकता से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण तथा उस समाज जिसमें वे लोग रहेंगे को उन्नत बनाने की चिन्ता से होता है जननात्मकता में उत्पादकता तथा सर्जनात्मकता भी सम्मिलित होती है। जैसे जो शिक्षक अपने छात्रों की उचित शिक्षा-दीक्षा के विषय में सचमुच चिन्तित रहते हैं वे जननात्मकता के उदाहरण हैं। जब व्यक्ति में जननात्मकता की चिन्ता उत्पन्न नहीं होती है तो उनमें स्थिरता उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति में यह भाव उत्पन्न होता है कि वह अपनी अगली पीढ़ी के लिए कुछ भी नहीं कर सके। यह एक प्रकार की आत्म-तल्लीनता की स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति की अपनी वैयक्तिक आवश्यकताएँ तथा अपनी सुख-सुविधाएँ ही सर्वोपरि होती हैं। व्यक्ति जब सृजनात्मकता बनाम स्थिरता के संकट का समाधान उचित प्रकार से कर लेता है तो उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है जिसे इरिक्सन ने देखाभाल की संज्ञा दी है। इसमें व्यक्ति दूसरों की भलाई एवं कल्याण की चिन्ता अधिक दिखलाता है।
- सम्पूर्णता बनाम versus निराशा (Integrity Disappointment) – इरिक्सन के मनोसामाजिक विकास की यह अन्तिम अवस्था होती हैं। इस सिद्धान्त में लगभग 60 वर्ष से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक की अवधि सम्मिलित होती है। इस अवस्था को बुढ़ापा की अवस्था कहा जाता है । इस अवस्था में व्यक्ति का ध्यान भविष्य से हटकर अपने बीते दिनों पर विशेषकर उसमें प्राप्त सफलताओं एवं असफलताओं की ओर अधिक होता है। यदि व्यक्ति अपने पिछले समय का मूल्यांकन धनात्मक ढंग से करता है अर्थात् सफलता अधिक एवं असफलताएँ कम होने का अनुभव करता है तो उनमें सम्पूर्णता का भाव विकसित होता है। यदि वे यह समझते हैं कि उनकी पिछली उपलब्धियाँ ऋणात्मक रही हैं तो उनमें निराशा का भाव विकसित होता है। जब सम्पूर्णता बनाम निराशा के संकट का समाधान व्यक्ति उचित रूप से कर लेता है तो उसमें परिपक्वता जैसी मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है तथा व्यक्ति में बुद्धिमत्ता का व्यावहारिक ज्ञान उत्पन्न होता है।
इरिक्सन की विशेषता इस बात में है, कि वह मनोलैंगिक फ्रॉयडवादी सिद्धान्त और बच्चों के शारीरिक एवं सामाजिक विकास के कारकों के विषय में वर्तमान ज्ञान के मध्य जो रिक्तता है, उसे भरने का प्रयास करते हैं ।
मनोसामाजिक अवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Psycho-Social Stages)
- मनोसामाजिक संक्रान्ति (Psycho-Social Crisis) – मानव विकास की प्रत्येक अवस्था आगे आने वाली अवस्था के एक विशेष क्रम में प्रकट होती है। विकास की प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति को संकट अथवा संक्रांति का अनुभव होता है तथा शारीरिक परिपक्वता, सामाजिक दबावों एवं माँगों की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन क्रम में एक ऐसा मोड़ आता है जो उसमें संकट उत्पन्न करता है।
- अन्तर्द्वन्द्व (Inner Conflict) – मानव विकास की प्रत्येक अवस्था में दो व्यक्तियों के मध्य अन्तर्द्वन्द्व का होना स्वाभाविक है। मनोसामाजिक संक्रान्ति के समय शारीरिक परिपक्वता तथा नई-नई सामाजिक आवश्यकताओं या माँगों के मध्य जो परस्पर क्रिया चलती है। उसके फलस्वरूप व्यक्ति में एक अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है अर्थात् व्यक्ति संकट या संघर्ष का सामाजिक दृष्टि से संतोषजनक एवं सम्मानजनक रीति से समाधान कर लेता है तो द्वन्द्व की ऋणात्मक शक्तियाँ दब जाती हैं और व्यक्ति विकास के पथ पर आगे बढ़ जाता है ।
- अनुकूलन (Adaptation) – व्यक्ति द्वारा प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में आने वाले संकट या संक्रान्ति समस्या का समाधान हो जाता है तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के विकास में अनुकूलित हो जाता है। विकास की प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न अन्तर्द्वन्द्व का समाधान धनात्मक रीति से करता है तो उसमें एक प्रकार की विशेष मनोसामाजिक स्थिति की उत्पत्ति होती है। इसी को इरिक्सन ने सदाचार (virtue) कहा है।
- कर्मकाण्ड अनुसरण (Following Rituals) — प्राय: यह देखां गया है कि एक समाज अथवा समुदाय में कुछ ऐसे मानदण्ड निर्धारित एवं प्रचलित होते हैं जिनका उस समाज अथवा समुदाय के लोगों को पालन करना पड़ता है। इरिक्सन ने मानव विकास की अवस्थाओं में विभिन्न कार्यों के अनुमोदन को मान्यता दी जो उस समाज के लोगों द्वारा अनुमोदित होते हैं और इन्हें तीन R की संज्ञा दी जाती है अर्थात् कर्मकाण्ड (Rituals) कर्मकाण्डवाद (Ritualism), तथा कर्मकाण्डवादी (Ritualist) | मनोसामाजिक विकास की अवस्था में समाज के द्वारा स्वीकृत मानदण्ड मानव विकास की अवस्था को आगे ले जाने में सहायक होते हैं।
इरिक्सन के अनुसार, “मनोसामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति को ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो उस समाज के वयस्क समुदाय द्वारा अनुमोदित होते हैं। इस प्रकार के व्यवहार को ही कर्मकाण्डवाद (Ritualism) कहा गया है। कई कर्मकाण्ड की बारम्बारता सामाजिक बार विकृति उत्पन्न करती है।” इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त का समुचित मूल्यांकन करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धान्त जीवन में महत्त्वपूर्ण सामाजिक सांवेगिक कार्यों पर ध्यान देता है तथा उनकी व्याख्या एक विकासात्मक फ्रेमवर्क में करता है। कॉलेज छात्रों एवं प्रौढ़ किशोरों को समझने में उनके द्वारा प्रतिपादित पहचान के सम्प्रत्यय को शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
मनो-सामाजिक विकास सिद्धान्त के गुण (Merits of Psycho-Social Development Theory)
- इस सिद्धान्त में व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन की ‘व्याख्या करने के लिए समाज एवं स्वयं व्यक्ति की भूमिकाओं पर समान रूप से बल दिया गया है ।
- इस सिद्धान्त में जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनो–सामाजिक घटनाओं को व्यक्तित्व के विकास तथा समन्वय की व्याख्या में सम्मिलित किया गया है जो अपने आप में एक विशिष्टता है।
- इस सिद्धान्त में बताया गया है कि एक अवस्था में असफल होने पर दूसरी अवस्था में भी असफलता ही होगी यह आवश्यक नही है। अतः यह सिद्धान्त आशावादी दृष्टिकोण अपनाता है।
मनो-सामाजिक विकास सिद्धान्त दोष (Demerits of Psycho-Social Theory)
- आलोचकों के अनुसार इरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त का सरलीकरण ही किया है और कुछ नहीं किया ।
- आलोचकों का मत है कि इरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में आवश्यकता से अधिक आशावादी दृष्टिकोण अपनाया जिसके कारण इनके सिद्धान्त में अव्यावहारिकता झलकती है। लेकिन इरिक्सन ने इस आलोचना का खण्डन करते हुए कहा है कि उन्होंने आशावादी दृष्टिकोण के साथ-साथ उस दृष्टिकोण को भी लिया है जिससे व्यक्ति में चिन्ता आदि उत्पन्न होती है।
- आलोचकों के अनुसार इरिक्सन के सिद्धान्त में जितने तथ्यों, उपकल्पनाओं की व्याख्या की गई है उनका कोई प्रयोगात्मक समर्थन भी नहीं है। सारे तथ्य एवं प्रत्यय उनके व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित हैं, जो आत्मनिष्ठ हैं।
- शुल्ज कहते हैं कि इनके सिद्धान्त में अन्तिम मनोसामाजिक अवस्था की व्यवस्था अपूर्ण तथा असन्तोषजनक है। कुछ का मानना है कि अन्तिम अवस्था में व्यक्ति का विकास उतना सन्तोषजनक नहीं होता जितना कि इरिक्सन के अहम् सम्पूर्ण के प्रत्यय से संकेत मिलता है।
- इरिक्सन के कथन, “बदलती परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करके ही एक उत्तम एवं स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है” को आलोचकों ने अमान्य किया है। आलोचकों के अनुसार, कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो समाज की परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना ही स्वयं समाज में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लेकर आए हैं और वे स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण करने में सफल हुए हैं।
