किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं? किशोरावस्था की विशेषताएँ तथा किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप बताइए। What do you mean by adolescence? Explain characteristics of adolescence and nature of education in adolescence.
प्रश्न – किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं? किशोरावस्था की विशेषताएँ तथा किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप बताइए। What do you mean by adolescence? Explain characteristics of adolescence and nature of education in adolescence.
या
किशोरावस्था चरण की विशेषताएँ क्या हैं? चर्चा कीजिए । What are the characteristics of ‘Adolescence’ stage ? Discuss.
उत्तर – किशोरावस्था ( Adolescence)
‘किशोरावस्था ‘ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘एडोलसेन्स’ (Adolescence) शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। जो लैटिन भाषा के एडोलेसियर (Adolescere) से बना है जिसका है ‘परिपक्वता की ओर बढ़ना’ (To grow to maturity) । सामान्यतः इस काल की आयु 12 से 18 वर्ष तक मानी गई है, लेकिन यह पूर्ण रूप से लिंग, जलवायु, प्रजाति और व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। किशोरावस्था शारीरिक परिपक्वता की अवस्था मानी जाती है। इस अवस्था में हड्डियों में दृढ़ता आती है तथा अत्यधिक भूख का अनुभव होता है। इस अवस्था में बालकों में तीव्र सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं ।
किशोरावस्था में विकासशील बालक अपने अन्दर हो रहे अनेक परिवर्तनों से हैरान तथा परेशान रहता है। इसी कारण इस अवस्था को ‘तनाव एवं संघर्ष या तनाव एवं तूफान’ की अवस्था का नाम मनोवैज्ञानिकों द्वारा दिया गया है। इस अवस्था में शरीर अनेक अजैविक एवं जैव रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिनके फलस्वरूप इसकी बाल्यावस्था की आकृति एवं स्वभाव का लोप होने लगता है। परिवार में जब बालक या बालिका को 10 बार गलती करने में पाँच बार यह सुनना पड़ता है कि तुमने यह गलती क्यों की? अब तुम बच्चे नहीं हो और पाँच बार यह सुनना पड़ता है कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए अभी तुम इतने बड़े नहीं हो। ऐसी अवस्था में बालक स्वयं से प्रश्न करता है कि मैं क्या हूँ? बड़ा (युवक / युवती) या छोटा (बालक / बालिका) । इसका उत्तर पाने के लिए बालक / बालिका परेशान एवं उत्सुक रहते हैं।
स्टेनले हॉल ने किशोरावस्था को तनाव, दबाव और संघर्ष की अवस्था कहा है। उन्होंने आगे लिखा है कि इस काल में व्यक्तित्व का नया जन्म होता है। According to Stanley Hall, “Adolescence is a period of great stress, strain, storm and strike.”
कुल्हन ने बताया कि, “किशोरावस्था बाल्यकाल तथा प्रौढावस्था के मध्य अत्यधिक परिवर्तन का संक्रमण काल है ।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “किशोर ही वर्तमान की शक्ति व भावी आशा को प्रस्तुत करता है।” According to Crow and Crow, “Youth represents the energy of the present and the hope of the future.”
ए. कोर्टिस के अनुसार, “किशोरावस्था औसतन 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक की है, जिसके अन्तर्गत कामांगों का विकास, शारीरिक काम विशेषताओं का प्रकटीकरण लाता है।”
शिक्षा- शब्दकोश में किशोरावस्था के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, “किशोरावस्था यौवनारम्भ से परिपक्वावस्था के मध्य घटित होने वाली और मोटे तौर पर 13 से 14 वर्ष की आयु से आरम्भिक 20 वर्षों तक विस्तृत होने वाली मानव विकास की एक अवधि है । “
किशोरावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Adolescence )
- शारीरिक विकास – इस अवस्था में तीव्र शारीरिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। किशोरों के भार व लम्बाई में वृद्धि होती है तथा कंधे चौड़े एवं शरीर पर बाल उग आते हैं। कॉलसनिक के अनुसार, “इस उम्र में बालक एवं बालिका, दोनों को अपने शरीर एवं स्वास्थ्य की अत्यधिक चिन्ता रहती है । “
- बौद्धिक विकास- किशोरावस्था में बुद्धि का सबसे अधिक विकास होता है। इस अवस्था में मस्तिष्क के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण विकास होता है। किशोरावस्था में व्यक्ति तर्क-वितर्क, चिंतन एवं समस्या के समाधान हेतु गहरी सोच प्रकट करना प्रारंभ कर देता है।
- समाज सेवा एवं देश भक्ति की भावना – किशोरावस्था में बालक समाज सेवा व देश हित के कार्य में बढ़-चढ़ कर. भाग लेता है। उसे लगता है कि समाज की प्रत्येक समस्या का समाधान उसके पास है। रॉस के अनुसार, “किशोर समाज के निर्माण व पोषण कार्य के लिए सबसे आगे रहते हैं।” किशोरों में समाज का महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनने की चाह हाती है।
- कल्पनाशीलता – किशोरावस्था के दौरान बालकों में कल्पनाशीलता एवं दिवा – स्वप्न (Day-dreaming) प्रवृत्ति की बहुलता पाई ती है। किशोरों के मन में कल्पना की अधिकता के कारण कविता, साहित्य एवं कला के प्रति लगन उत्पन्न होती है। उनके सपनों की पूर्ति न होने एवं किसी क्षेत्र में असफलता मिलने से निराशा की भावना उत्पन्न होती है तथा ऐसी स्थिति में बालक अपराध कर बैठते हैं । वेलेन्टाइन ने इस अवस्था को अपराध – प्रवृत्ति का समय माना है।
- विद्रोह की प्रवृत्ति – इस उम्र के बालकों में विचारों में मतभेद, मानसिक स्वतंत्रता एवं विद्रोह की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इस अवस्था में किशोर समाज में प्रचलित परम्पराओं, अंधविश्वासों के जाल में न फँस कर स्वच्छंद जीवन जीना पसंद करते हैं ।
- कामुकता- किशोरावस्था के दौरान बालकों की कामेन्द्रियाँ पूर्णतः विकसित हो जाती हैं। इस उम्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण अपने चरम पर होता है। इस उम्र में किशोर बार – बार वस्त्र बदलकर और दर्पण में अपने शरीर को देखकर आनंद का अनुभव करते हैं।
- स्थिरता और समायोजन – किशोरावस्था में परिवर्तन की अत्यधिक गति के कारण स्थिरता और समायोजन का अभाव पाया जाता है। इस काल में उसे अपने सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के दौरान कई जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है एवं असफल होने पर चिड़चिड़ापन, उदासीनता एवं क्रोध जैसे मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। किलपैट्रिक ने इसी कारण इस अवस्था को जीवन का सबसे कठिन काल माना है।
- वीर पूजा की प्रवृत्ति इस अवस्था में किशोरों में वीर पूजा की प्रवृत्ति का विकास होता है। वह अपनी रुचि के अनु आदर्श व्यक्तियों, राजनेताओं तथा सिनेमा जगत के अभिनेताओं का अनुसरण एवं गुणगान करना प्रारम्भ कर देता है।
- धर्म एवं ईश्वर के प्रति विचार-किशोरावस्था में बालकों के मन में धर्म एवं ईश्वर के प्रति शंका होती है। वह धर्म एवं ईश्वर से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर तर्क के आधार पर खोजने का प्रयास करता है लेकिन विफलता मिलने पर ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करना प्रारम्भ कर देता है।
- व्यवहार में भिन्नता – किशोरावस्था में बालकों भिन्नता पाई जाती है और वे भिन्न-भिन्न अवसरों पर अलग-अलग तरह का व्यवहार करते हैं। इस अवस्था में संवेग तीव्र गति से बदलते हैं और किशोर उनका पूर्ण रूप से प्रदर्शन करते हैं। स्टेनले हॉल के अनुसार, किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन अचानक से उभरकर आते हैं।”
- स्वाभिमान की भावना- किशोरावस्था में बालकों के मन में स्वाभिमान की भावना प्रबल होती है। किशोर बहुधा आदर्शवादी होते हैं। वे समूह की भावना और व्यवहार को प्राथमिकता देते हैं लेकिन किसी की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकते ।
- व्यवसाय का चुनाव – किशोरावस्था में व्यवसाय के चुनाव को लेकर एक चिन्ता का माहौल बना रहता है। आर्थिक स्वतत्रंता प्राप्त करने की प्रबल इच्छा उन्हें इस उम्र में अतिशीघ्र आत्मनिर्भर बनने को प्रेरित करती है। “
- जीवन-निर्माण – किशोरावस्था में अर्जित ज्ञान और प्रदर्शित व्यवहार जीवनभर के लिए स्थायी रहता है। इस अवस्था में किशोर व्यक्तित्व निर्माण के लिए आधारभूत सिद्धान्तों का पालन करना प्रारम्भ कर देते हैं।
किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Nature of Education in Adolescence)
- शारीरिक विकास के लिए शिक्षा – इस उम्र में बालक एवं बालिकाओं के शरीर में विभिन्न प्रकार के लिंग सम्बन्धी शारीरिक परिवर्तन दिखाई पड़ते । अनभिज्ञता के कारण बहुत से किशोर यौन सम्बन्धी समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। ऐसे में पाठशाला में लिंग-भेद एवं यौन सम्बन्धी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था जीवन दर्शन का आधार है। अतः बालक को जीवनोपयोगी सैद्धान्तिक व व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
- धार्मिक और नैतिक शिक्षा – इस अवस्था में कई बालक दुराचारी हो जाते हैं। उनके लिए समाज के मान्य मूल्यों के अनुसार व्यवहार करने वाली नैतिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। गलत आचरण करने पर बालक को दंड देना भी आवश्यक है। कोठारी कमीशन ने आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का ज्ञान प्रदान करने के लिए जोर दिया है।
- आत्मनिर्भरता की शिक्षा – किशोरावस्था में बालक शीघ्र ही आत्म-निर्भर होने की इच्छा रखता है। उसे उपयुक्त व्यवसाय के चयन हेतु व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
- व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा – बालकों में विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। प्रायः यह देखा गया है कि कई बालक विकास की दर में पिछड़ जाते हैं। ऐसे बालकों के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए।
- संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा-किशोरावस्था में संवेग अपने चरम पर होते हैं। इस उम्र में बालक संवेगों से संघर्ष करता रहता है। बालकों को संवेगों पर नियंत्रण और उनका मार्गान्तीकरण करना सिखाना चाहिए। किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास के लिए उदार शिक्षा प्रदान करनी चाहिए क्योंकि यह जीवन का एक नाजुक मोड़ होता है जहाँ पर मामूली सी लापरवाही व्यक्ति के जीवन भर के लिए एक अभिशाप बन सकती है।
- रचनात्मक विकास के लिए शिक्षा – किशोरावस्था में बालकों में अभिनय करने, भाषण देने तथा लेख लिखने में सहज रुचि होती है। इसके लिए बालकों को विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत जैसे विषयों का रचनात्मक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
- उचित दिशा निर्देशन – किशोरावस्था, जीवन का सबसे कठिन व नाजुक काल होता है। इस अवस्था में उसे निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। ऐसे में अभिभावकों एवं अध्यापकों को चाहिए कि वे बालकों को विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए निरन्तर परामर्श दें ।
- सकारात्मक व्यवहार की शिक्षा – इस अवस्था में बालक को किसी भी क्षेत्र में असफलता मिलने पर उसके मन में निराशा का भाव घर कर जाता है और उसमें अपराधिक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इसके लिए बालकों को अपराध के दुष्प्रभावों की जानकारी देकर सकारात्मक व्यवहार अपनाने पर बल देना चाहिए। किशोरों में जिज्ञासा की भावना प्रबल होती है। ऐसे में उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए किशोरों को सभी पक्षों के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं के बारे में बताया जाना चाहिए।