कोलबर्ग के नैतिक विकास पर चर्चा कीजिए। Discuss Kohlberg’s Moral Development.
प्रश्न – कोलबर्ग के नैतिक विकास पर चर्चा कीजिए। Discuss Kohlberg’s Moral Development.
या
नैतिक विकास के कोहलबर्ग के सिद्धान्त की अवधारणा और प्रभावों की विवेचना कीजिए । Discuss the concept and implications of Kohlberg’s theory of Moral Development.
या
नैतिक विकास की विचारधारा । Concept of moral development.
उत्तर- कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त (Kohlberg’s Moral Development Theory )
जीन पियाजे द्वारा प्रस्तुत नैतिक विकास से सम्बन्धित शोधों एवं उसके आधार पर दी गई नैतिक विकास की चार अवस्थाओं [शैशवावस्था (जन्म से 5 वर्ष) पराधीनता प्राधिकार अवस्था से 8 वर्ष तक), पराधीनता अन्योगता (9 से 13 वर्ष तक) स्वायत्तता ( 13 से 18 वर्ष तक)] की संकल्पना को आगे बढ़ाने का श्रेय लारेन्स कोलबर्ग को दिया जाता है। कोलबर्ग ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया ।
लॉरेन्स कोह्लबर्ग नैतिक विकास में पियाजे के सिद्धान्त से सहमत थे किन्तु इन्होंने कई प्रकार से उसे व्यापक रूप प्रदान किया। पियाजे की तरह कोहलबर्ग ने भी नैतिक विकास में सामाजिक पक्ष पर जोर दिया। कोह्लबर्ग के अनुसार, सामाजिक परिपेक्ष्य बालक के मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रखता है। कोहलबर्ग ने अपना पहला आधारभूत प्रयोग मध्यवर्गीय तथा निम्नवर्गीय परिवारों के 72 बालकों पर किया। इन बालकों की आयु 10 वर्ष से लेकर 16 वर्ष तक थी । बाद में उन्होंने अपने प्रयोगों में अमेरिका के अन्य शहरों एवं अन्य देशों के छोटी आयु के बालक-बालिकाओं, बाल अपराधी बालकों आदि को भी सम्मिलित कर लिया।
कोहलबर्ग के सिद्धान्त की मूलभूत मान्यताएँ (Basic Assumptions of Kohlberg’s Theory)
- बालकों के नैतिक विकास के स्वरूप को समझने के लिए उनके तर्क एवं सिद्धान्त के स्वरूप का विश्लेषण करना आवश्यक होता है। बालकों द्वारा प्रदर्शित प्रतिक्रियाओं के आधार पर इनकी नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकतर परिस्थितियों में बालक भय अथवा पुरस्कार के लालच में वांछनीय व्यवहार प्रदर्शित करता है, नैतिक चिन्तन के कारण नहीं। कोहलबर्ग ने बालक को किसी धर्म संकट की स्थिति में रखकर यह देखा है कि बालक उस परिस्थिति में क्या विचार करता है एवं किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है। इस उपागम को प्राणीगत उपागम (Organismic Approach) भी कहा गया है।
- कोहलबर्ग के नैतिक विकास सिद्धान्त को अवस्था सिद्धान्त’ भी कहते हैं। इन्होंने सम्पूर्ण नैतिक विकास को 6 ●अवस्थाओं में विभाजित किया है तथा इसे सार्वभौमिक माना है। इनके अनुसार सभी बालक इन अवस्थाओं से गुजरते हैं। ये अवस्थाएँ एक निश्चित क्रम में आती है तथा यह क्रम बदला नहीं जा सकता। प्रत्येक अवस्था में पाई जाने वाली नैतिकता का गुण अन्य अवस्थाओं की नैतिकता से भिन्न होता है।
- जब बालक एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो उस बालक के भीतर नैतिक व्यवहार गुणात्मक परिवर्तन कब तथा कैसे उत्पन्न होता है यह एक विचारणीय प्रश्न है। इनके अनुसार नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही आते हैं; अचानक ही उत्पन्न नहीं होते हैं। किसी अवस्था में पहुँचने पर बालक मात्र उसी अवस्था की विशेषताओं को ही प्रदर्शित नहीं करता अपितु उसमें कई अवस्थाओं के व्यवहार मिश्रित रूप से दिखाई पड़ते हैं। उसमें अधिकांश व्यवहार जिस अवस्था के अनुरूप होते हैं, बालक को उसी अवस्था का मान लिया जाता है।
- कोहलबर्ग के सहयोगी इलियट टूरियल के अनुसार प्रायः समस्त बालक नैतिक विकास की एक अवस्था के उपरान्त दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होते हैं परन्तु सभी बालक 6 अवस्थाओं तक नहीं पहुँच पाते। नैतिक विकास की अन्तिम अवस्था तक जाने वाले बालकों की संख्या बहुत कम ही होती है। इस प्रकार नैतिक तर्कशक्ति या नैतिक चिन्तन की दृष्टि से बालकों में व्यक्तिगत भिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। ये भिन्नताएँ विकास की गति एवं विकास की सीमाओं दोनों ही कारणों से उत्पन्न होती हैं।
नैतिक विकास के स्तर एवं चरण
कोहलबर्ग ने अपनी पुस्तक ‘मॉरल स्टेजेस एण्ड मॉरलाइजेशन द कॉगनीटिव डेवलपमेन्ट एप्रोच (1976) में नैतिक विकास की अवस्थाओं का विवरण दिया है। इन्होंने कहा कि नैतिक विकास के 3 स्तर (level) एवं 6 चरण (Stage) होते हैं-

- पूर्व परम्परागत-इस स्तर में 9 साल तक के बालक-बालिका को सम्मिलित करते हैं। इस अवस्था में वे सांस्कृतिक नियमों के प्रति अनुक्रिया करते हैं किन्तु उनके व्यवहार उन नियमों के परिणामों के अनुरूप होते हैं। इस स्तर के अन्तर्गत निम्नलिखित दो चरणों को सम्मिलित किया है-
- दण्ड और आज्ञाकारिता- इस अवस्था के बालक स्वकेन्द्रित होते हैं। अतः दूसरों के बनाए नियमों के लाभ की बात को समझ नहीं पाते हैं और दण्ड से बचने हेतु उन नियमों का पालन करते हैं। इस अवस्था में बालक केवल समाज के नियमों को समझते हैं तथा उनका आचरण करते हैं ।
- व्यक्तिवाद एवं विनिमय- इस अवस्था में बालक उस कार्य को नैतिक कार्य मानते हैं जिसके द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। बालक उसी कार्य को करते हैं जो उन्हें उचित लगता है।
- परम्परागत स्तर- इस स्तर के अन्तर्गत किशोर बालक व वयस्कों को सम्मिलित किया गया है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दो चरणों को समावेशित किया गया है-
- अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध – इस चरण में बालक उस नैतिक कार्य को करना पसन्द करते हैं जिसे दूसरे उचित मानते हैं। वे दूसरों के सामने अपने को अच्छा प्रदर्शित करने का प्रयत्न करते हैं। इस अवस्था में व्यक्तिगत दृष्टिकोण को छोड़कर वे दूसरों के दृष्टिकोण के बारे में सोचते हैं और उसी के अनुसार कार्य करते हैं।
- सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना – इस अवस्था के बालकों के अनुसार नैतिक व्यक्ति वे होते हैं जो नियमों का पालन करते हैं और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हैं। बालक अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहता है तथा दूसरों की अपेक्षाओं का सम्मान करता है।
- पश्च परम्परागत स्तर- इस स्तर को सैद्धान्तिक स्तर भी कहा जाता है। इस स्तर तक बहुत कम लोग ही पहुँच पाते हैं। इस स्तर पर बालक बाह्य कारकों से प्रेरित न होकर आन्तरिक कारकों से ज्यादा प्रेरित होता है। इस स्तर में भी दो चरणों को सम्मिलित किया गया है जो निम्न हैं –
- सामाजिक अनुबन्ध एवं व्यक्तिगत अधिकार- चौथे चरण में व्यक्ति समाज को व्यवस्थित रूप में बनाने की बात करता है किन्तु इस चरण में वह समाज को व्यवस्थित रखने के लिए क्या मापदंड होने चाहिए यह सोचता है। उसके अनुसार एक स्वस्थ समाज वह है जिसमें व्यक्ति एक दूसरे की भलाई का ध्यान रखते हैं।
- सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त- यह चरण नैतिक विकास का अन्तिम चरण है। इसमें व्यक्ति समाज के नियमों को बनाए रखने हेतु अपना सर्वस्व त्यागने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। कोहलबर्ग के अनुसार, इस चरण तक बहुत कम लोग ही पहुँच पाते है।
कोहलबर्ग के अनुसार, “व्यक्ति इन चरणों का पालन करके ही नैतिक रूप से विकसित हो सकता है अर्थात् बालक यदि द्वितीय चरण से प्रारम्भ करे या एक चरण छोड़कर दूसरे चरण में पहुँच जाए तो उसका नैतिक विकास सम्भव नहीं है । “
