जन्तु विज्ञान
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जन्तु विज्ञान
◆ ‘जन्तु विज्ञान’ ग्रीक भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें (Zoon = Animal और Logos = Study) अर्थात् जन्तुओं का अध्ययन । अतः जन्तु विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत समस्त जन्तुओं अथवा प्राणियों का अध्ययन किया जाता ।
I. जन्तु – जगत का वर्गीकरण (Classification of Animal Kingdom)
◆ विश्व के समस्त जन्तु – जगत को दो उप-जगतों में विभक्त किया गया है- (i) एककोशिकीय प्राणी (Unicellular Animal) (ii) बहुकोशिकीय प्राणी (Multicellular Animal)।
◆ एककोशिकीय प्राणी एक ही संघ प्रोटोजोआ में रखे गये जबकि बहुकोशिकीय प्राणियों को 9 संघों में विभाजित किया गया है।
◆ स्टोरर व यूसिन्जर ने जन्तुओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है –
1. संघ – प्रोटोजोआ (Protozoa )
◆ प्रोटोजोआ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गोल्डफस (Goldfus) ने 1820 ई. में किया, जिसका अर्थ है प्रथम जन्तु ( First Animal )। ये एककोशिकीय (Unicellular) तथा सूक्ष्मदर्शी जन्तु हैं। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) इनका शरीर केवल एककोशिकीय होता है।
(ii) इनके जीवद्रव्य में एक या अनेक केन्द्रक पाये जाते हैं।
(iii) प्रचलन पदाभों, पक्ष्मों या कशाभों के द्वारा होता है।
(iv) ये स्वतंत्रजीवी एवं परजीवी दोनों प्रकार के होते हैं।
(v) सभी जैविक क्रियाएँ ( भोजन, पाचन, श्वसन, उत्सर्जन, जनन) एककोशिकीय शरीर के अंदर होती है।
(vi) श्वसन एवं उत्सर्जन कोशिका की सतह से विसरण के द्वारा होते हैं, प्रोटोजोआ एण्ट अमीबा हिस्टोलिटिका का संक्रमण मनुष्य में 0-40 वर्षों के लिए बना रहता है।
2. संघ – पोरिफेरा (Porifera)
◆ पोरिफेरा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम राबर्ट ग्राण्ट (Robert Grant) ने 1825 ई. में किया था। इनका सम्पूर्ण शरीर छोटे-छोटे छिद्रों से बना होता है। यह छिद्र इनकी क्रियात्मक सक्रियता की प्राथमिक संरचनाएँ हैं। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) इस संघ के सभी जन्तु खारे जल में पाये जाते हैं।
(ii) ये बहुकोशिकीय (Multicellular) जन्तु हैं, परन्तु कोशिकाएँ नियमित ऊतकों का निर्माण नहीं करती हैं ।
(iii) शरीर पर असंख्य छिद्र (Ostia) पाये जाते हैं।
(iv) शरीर में एक गुहा पायी जाती है, जिसे स्पंज गुहा कहते हैं।
उदाहरण : साइकन, मायोनिया, स्पंज आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
3. संघ सीलेन्ट्रेटा या निडेरिया (Coelenterata or Canidaria )
◆ सीलेन्ट्रेटा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लूकर्ट (Leuckart) ने 1847 ई. में किया। ये बहुकोशिकीय (Multicellular) तथा अरीय सममित (Radially Symmetrical) जन्तु है। कुछ जातियाँ स्वच्छ जल एवं तालाबों में और अधिकांश समुद्री खारे पानी (Marine) में पायी जाती है। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) प्राणी जलीय द्विस्तरीय होते हैं।
(ii) मुख के चारों ओर कुछ धागे की तरह की संचरनाएँ, पायी जाती हैं, जो भोजन आदि पकड़ने में मदद करती हैं।
उदाहरण : हाइड्रा, जेलीफिश, सी एनीमोन, मूँगा आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
4. संघ- प्लेटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes)
◆ प्लेटीहेल्मिन्थीज शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गीगेनबार (Gegenbar) ने 1899 ई. में किया। इस संघ के अधिकांश जन्तु परजीवी होते हैं। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) तीन स्तरीय शरीर परन्तु देहगुहा नहीं होती।
(ii) पृष्ठ आधार तल से शरीर चपटा होता है।
(iii) पाचन तंत्र विकसित नहीं होता है।
(iv) उत्सर्जन फ्लेम कोशिकाओं द्वारा होता है।
(v) कंकाल, श्वसन अंग, परिवहन अंग आदि नहीं होते हैं ।
(vi) ये प्रायः उभयलिंगी (Bisexual) जन्तु हैं।
उदाहरण : प्लेनेरिया, लिवर फल्यूक, फीता कृमि आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
5. संघ-निमैटोडा (Nematoda)
◆ इनको मुख्यतः गोलकृमि कहा जाता है। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) लंबे, बेलनाकार, अखंडित कृमि होते हैं।
(ii) शरीर द्विपार्श्व सममित, त्रिस्तरीय होता है।
(iii) आहारनाल स्पष्ट होती है, जिनमें मुख तथा गुदा दोनों ही होते हैं।
(iv) परिवहन अंग तथा श्वसन अंग नहीं होते, परन्तु तंत्रिका तंत्र विकसित होता है।
(v) उत्सर्जन प्रोटोनफ्रीडिया द्वारा होता है।
(vi) एकलिंगी होते हैं।
उदाहरण : गोलकृमि जैसे- ऐस्कैरिस, थ्रेडवर्म, वुचरेरिया आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
नोट: (i) थ्रेडवर्म / पिनवर्म मुख्यतः छोटे बच्चों की गुदा में पाये जाते हैं। इससे बच्चों को वहां खुजली होती है, भूख कम लगती है और उल्टियाँ भी होती हैं।
(ii) वुचरेरिया (Wuchereria) द्वारा फाइलेरिया होता है।
6. संघ ऐनीलिडा (Annelida)
◆ ऐनीलिडा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लैमार्क (Lamarck) ने किया था। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) शरीर लंबा, पतला, द्विपार्श्व सममित तथा खंडों में बँटा हुआ होता है।
(ii) प्रचलन मुख्यत: काइटिन के बने सीटी (Setae) द्वारा होता है।
(iii) आहारनाल पूर्णतः विकसित होते हैं।
(iv) श्वसन प्रायः त्वचा के द्वारा कुछ जन्तुओं में क्लोम के द्वारा होता है।
(v) रुधिर लाल होता है एवं तंत्रिका तंत्र साधारण होता है।
(vi) उत्सर्जी अंग वृक्क के रूप में होते हैं।
(vii) एकलिंगी एवं उभयलिंगी दोनों प्रकार के होते हैं।
उदाहरण: केंचुआ, जोंक, नेरिस आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
नोट: केंचुए में चार जोड़ी हृदय होते है। इसके जीवद्रव्य में हीमोग्लोबिन का विलय हो जाता है।
7. संघ – आर्थोपोडा ( Arthopoda)
◆ आर्थ्रोपोडा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वान सीबोल्ड (Van Seibold) ने 1845 ई. में किया, जिसका अर्थ है संयुक्त उपांग | यह संसार का सबसे बड़ा संघ है। इस संघ का सबसे बड़ा वर्ग कीटवर्ग (Insecta) है। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) शरीर तीन भागों में विभक्त होता है- सिर, वक्ष एवं उदर ।
(ii) इनके पाद संधियुक्त होते हैं।
(iii) रुधिर परिसंचारी तंत्र खुले प्रकार का होता है।
(iv) इनकी देह गुहा हीमोसील कहलाती है।
(v) ट्रेकिया गिल्स, बुक लंग्स, सामान्य सतह आदि श्वसन अंग हैं।
(vi) यह प्रायः एकलिंगी होते हैं एवं निषेचन शरीर के अंदर होता है।
उदाहरण : तिलचट्टा, झींगा मछली, केकड़ा, खटमल, मक्खी, मच्छर, मधुमक्खी, टिट्डी आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
नोट :
(i) कीटों में छह पाद व चार पंख होते हैं।
(ii) कॉकरोच के हृदय में 13 कक्ष (Chamber) होते हैं।
(iii) चींटी एक सामाजिक जन्तु हैं, जो श्रम विभाजन प्रदर्शित करती है।
(iv) दीमक (Termite) भी एक सामाजिक कीट है, जो बस्ती (Colony) में रहती है।
8. संघ- मोलस्का (Mollusca)
◆ मोलस्का अकशेरुकी का दूसरा सबसे बड़ा संघ है। मोलस्का शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरस्तू (Aristotle) ने कटलफिश के लिए किया था। अधिकांश मोलस्का खारे जल में पाये जाते हैं, परन्तु इनमें से कुछ स्वच्छ जलीय एवं कुछ स्थलीय (Terrestrial) भी हो। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) शरीर तीन भागों में विभक्त होता है- सिर, अंतरांग तथा पाद।
(ii) इनमें कवच सदैव उपस्थित रहता है।
(iii) आहारनाल पूर्ण विकसित होता है।
(iv) इनमें श्वसन गिल्स (Gills), टिनीडिया (Ctenidia) अथवा मेन्टल (Mantle) द्वारा होता है।
(v) रक्त रंगहीन होता है।
(vi) उत्सर्जन वृक्कों के द्वारा होता है।
उदारहण: घोंघा, सीपी आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
9. संघ – इकाइनोडर्मेटा (Echinodermata)
◆ इकाइनोडर्मेटा सर्वप्रथम जैकोब क्लिन (Jacob Klein) ने 1738 ई. में स्थापित किया जिसका अर्थ है कंटकीय त्वचा। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) इस संघ के सभी जन्तु समुद्री होते हैं।
(ii) जल संवहन तंत्र पाया जाता है।
(iii) प्रचलन, भोजन ग्रहण करने हेतु नाल पाद होते हैं, जो संवेगी अंग का कार्य करते हैं।
(iv) तंत्रिका तंत्र में मस्तिष्क विकसित नहीं होता।
(v) पुनरुत्पादन की विशेष क्षमता होती है।
उदाहरण : तारा मछली (Star Fish), ब्रिटल स्टार ( Brittle Star), समुद्री अरचिन (See Urchins), समुद्री खीरा (See Cucumber), कुकमेरिया (Cucumaria), थायोन (Thione) आदि इस संघ के प्रमुख जन्तु हैं।
10. संघ-कॉर्डेटा (Chordata)
◆ इस संघ के जीव समुद्रीय कृमि के आकार के (Worm Like), जीभ कृमि (Tongue Worms) होते हैं। ये समुद्र किनारे सुरंगें (Burrows) बनाकर रहते हैं। इस संघ के जन्तुओं के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) इनमें नोटोकॉर्ड (Notochord) उपस्थित होता है।
(ii) इनमें क्लोम छिद्र (Gill Slits) अवश्य होते हैं।
(iii) इनमें नालदार तंत्रिका रज्जु अवश्य पाया जाता है।
संघ कॉर्डेटा के प्रमुख वर्ग
◆ कॉर्डेटा में वर्गीकरण के अनुसार 13 वर्ग हैं, किन्तु इनके सबसे प्रमुख वर्ग और उनके लक्षण निम्नलिखित हैं-
A. मत्स्य वर्ग (Pisces) और इनके लक्षण
(i) ये सभी असमतापी (Cold Blooded) जन्तु हैं।
(ii) इनका हृदय द्विवेशमी (Two Chambered) होता है और केवल अशुद्ध रक्त ही पंप करता है।
(iii) श्वसन गिल्स (Gills) के द्वारा होता है।
उदाहरण: रोहू कतला, स्कोलियोडन, समुद्री घोड़ा तथा टारपीडो (Torpedo) आदि ।
B. एम्फीबिया वर्ग (Amphibia) और इनके लक्षण
(i) ये सभी प्राणी जल और थल दोनों में पाये जाते हैं, इसलिए इन्हें एम्फीबिया या उभयचर कहा जाता है।
(ii) ये असमतापी (Cold Blooded) होते हैं।
(iii) श्वसन क्लोमों, त्वचा एवं फेफड़ों द्वारा होता है।
(iv) हृदय त्रिवेश्मी (Three Chambered) होता है, अर्थात् इनमें दो अलिन्द (Auricles) और एक निलय (Ventricle) होते हैं। उदाहरण- मेढक ।
C. सरीसृप वर्ग (Reptiles) और इनके लक्षण
(i) ये साधारणतः स्थलवासी हैं, लेकिन कुछ जलवासी भी होते हैं।
(ii) ये असमतापी (Cold Blooded) होते हैं।
(iii) वास्तविक स्थलीय कशेरुकी जन्तु हैं।
(iv) दो जोड़ी पाद होते हैं।
(v) कंकाल पूर्णत: अस्थिल होता है।
(vi) त्वचा सूखी (Dry) और खुरदुरी होती है।
(vii) श्वसन फेफड़ों के द्वारा होता है ।
(viii) इनके अंडे कैल्शियम कार्बोनेट की बनी कवच से ढके रहते हैं।
उदाहरण : छिपकली, साँप, घड़ियाल, कछुआ आदि इस वर्ग के प्रमुख जन्तु हैं।
सरीसृप वर्ग से सम्बन्धित अन्य बातें
(i) घोंसला बनाने वाला एकमात्र सर्प नागराज है, जिसका भोजन मुख्य रूप से अन्य सर्प है।
(ii) विश्व की एकमात्र जहरीली छिपकली हिलोडर्मा है।
(iii) समुद्री साँप जिसे हाइड्रोफिश कहते हैं, संसार का सबसे जहरीला साँप है।
(iv) मेबुईया बिल बनाने वाली छिपकली होती है, इसका प्रचलित नाम स्किंक है।
नोट : मीसोजोइक युग (Mesozoic Era) को सरीसृपों का युग (Era of Reptiles) कहा जाता है।
D. पक्षी वर्ग (Aves) और इनके लक्षण
(i) इसका अगला पाद उड़ने के लिए पंखों में रूपांतरित हो जाते हैं।
(ii) ये समतापी या गर्म रुधिर वाले (Warm Blooded) होते हैं, अर्थात् इनके शरीर का तापक्रम वातावरण के बदलने के साथ बदलता नहीं, बल्कि सदैव स्थिर होता है।
(iii) इसके हृदय में चार वेश्म (Four Chamber) होते हैं- दो आलिंद और दो निलय।
(iv) इनका श्वसन अंग फेफड़ा है।
(v) मूत्राशय अनुपस्थित रहता है।
उदाहरण: कौआ, मोर तथा तोता आदि इस वर्ग के प्रमुख जन्तु हैं।
पक्षी वर्ग से सम्बन्धित अन्य बातें
(i) कुछ पक्षियों जैसे- कीवी (Kiwi ), ईमू (Emu) तथा शुतुरमुर्ग (Ostrich) में दौड़ने की क्षमता तो होती है लेकिन उड़ने की क्षमता नहीं होती।
(ii) सबसे बड़ा जीवित पक्षी शुतुरमुर्ग है।
(iii) सबसे छोटा पक्षी हमिंग बर्ड (Humming Bird or Sun Bird) है जबकि सबसे बड़ी पक्षी कन्डोर्स तथा एल्वाट्रासेस (Condors and Albatrosses) है।
(iv) तीव्रतम पक्षी अवावील है।
नोट: भारत का सबसे बड़ा चिड़ियाघर अलीपुर (कोलकाता) एवं विश्व का सबसे बड़ा चिड़ियाघर क्रूजर नेशनल पार्क दक्षिण अफ्रीका में है।
E. स्तनधारी वर्ग (Mammalia) और इनके लक्षण
(i) स्तनधारी शब्द का अर्थ स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary Gland) है जिनसे उत्पन्न दुग्ध द्वारा इनके शिशु पोषण प्राप्त करते हैं ।
(ii) ये मुख्यतः स्थलीय होते हैं तथा कुछ जलीय एवं वायुवीय भी होते हैं।
(iii) त्वचा पर स्वेद ग्रन्थियाँ (Sweat Gland) और तैल ग्रन्थियाँ (Oil gland) पायी जाती है।
(iv) इनके शरीर का तापमान बाहरी वातावरण के तापमान परिवर्तन के साथ नहीं बदलता।
(v) इनका हृदय चार वेश्मों (Four Chambered) वाला होता है।
(vi) इनमें दाँत जीवन में दो बार निकलते हैं। इसलिए इन्हें द्विबारदंती (Diophyodont) कहते हैं।
(vii) इनके लाल रुधिराणुओं में केन्द्रक नहीं होता (केवल ऊँट एवं लामा इसके अपवाद हैं)।
(viii)बाह्य कर्ण (Pinna) उपस्थित होता है।
स्तनधारी वर्ग के उपवर्ग
◆ स्तनधारी वर्ग को तीन उपवर्गों में बाँटा गया हैं –
(i) प्राटोथीरिया (Prototheria) : ये अण्डे देने वाले (Oviparous) जन्तु हैं जिनके अण्डे कवच-युक्त (Shelled) होते हैं।
उदाहरण : एकिडना (Echidna), ऑर्निथोरिका (Ornithorhynchus) या बत्तख चोंच (Duck Billed Platpus) इनके प्रमुख अंग है।
(ii) मैटाथीरिया (Metatheria) : ये अपरिपक्व बच्चे को जन्म देते हैं।
उदाहरण : ऑस्ट्रेलिया में पाया जाने वाला कंगारू इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
(iii) यूथीरिया (Eutheria) : ये पूर्ण विकसित शिशुओं को जन्म देते हैं।
उदाहरण: मनुष्य इस उपवर्ग का प्रमुख उदाहरण है।
नोट : (i) स्तनधारी वर्ग में रक्त का सबसे अधिक तापमान बकरी का होता है। बकरी का औसत तापमान 39°C होता है।
(ii) डक विल्ड प्लैटीपस एकमात्र विषैला स्तनी है।
II. जन्तु कोशिका (Animal Tissue)
◆ कोशिकाओं के समूह को ऊतक कहते हैं। ऊतकों को चार श्रेणियों में बाँटा गया है- 1. उपकला ऊतक (Epithelial Tissue) 2. पेशीय ऊतक (Muscular Tissue) 3. संयोजी ऊतक (Connective Tissues ) 4. तंत्रिका ऊतक (Nerve Tissue)।
1. उपकला ऊतक (Epithelial Tissue) : ये ऊतक शरीर की सुरक्षा का कार्य करते हैं। गैसीय विनिमय, अवशोषण और उत्सर्जन का भी काम करते हैं। इन ऊतकों द्वारा घाव भर जाता है, क्योंकि इनमें पुनरुत्पादन (Regeneration) की क्षमता बहुत ज्यादा होती है। शरीर की त्वचा, अमाशय, आँत, पित्ताशय, हृदय, जीभ आदि का बाहरी आवरण इन्हीं ऊतकों का बना होता है।
2. पेशीय ऊतक (Muscular Tissue) : इसे संकुचनशील ऊतक (Contractile Tissue) के नाम से भी जाना जाता है। शरीर की सभी पेशियाँ इसी ऊतक से मिलकर बनी होती है। पेशीय ऊतक तीन प्रकार के होते हैं –
(i) रेखित (Striped) : ये पेशियाँ शरीर के उन भागों में पायी जाती है जो इच्छानुसार गति करती हैं। प्रायः इन पेशियों के एक या दोनों सिरे रूपांतरित होकर टेण्डन के रूप में अस्थियों से जुड़े होते हैं।
(ii) अरेखित (Unstriped) : यह पेशी ऊतक उन अंगों की दीवारों पर पाया जाता है जो अनैच्छिक रूप से गति करते हैं, जैसे- आहारनाल, मलाशय, मूत्राशय, रक्त वाहिनियाँ आदि। अरेखित पेशियाँ उन सभी अंगों की गतियों को नियंत्रित करती हैं जो स्वयंमेव गति करते हैं।
(iii) हृदयक (Cardiac ) : ये पेशियाँ केवल हृदय की दीवारों में पायी जाती हैं। हृदय गति इन्हीं पेशियों के कारण होती है जो बिना रुके जीवनपर्यंत गति करती है। संरचना की दृष्टि से यह रेखित पेशी ऊतक से मिलती-जुलती है।
नोट : (a) मानव शरीर में मांसपेशियों की संख्या 639 होती है।
(b) मानव शरीर की सबसे बड़ी मांसपेशी ग्लूटियस मैक्सीमस (कूल्हा की मांसपेशी ) तथा सबसे छोटी मांसपेशी स्टैपिडियस है।
3. संयोजी ऊतक (Connective Tissue) : यह ऊतक शरीर के सभी अन्य ऊतकों तथा अंगों को आपस में जोड़ने का कार्य करती है। तरल संयोजी ऊतक (जैसे- रक्त एवं लसिका) संवहन के कार्य में भी सहायक होता है। यह ऊतक शरीर के तापक्रम को नियंत्रित करता है तथा मृत कोशिकाओं को नष्ट करके मृत ऊतकों एवं कोशिकाओं की पूर्ति करता है। रक्त, लिम्फ, हड्डियाँ, प्रोटीन ऊतक आदि संयोजी ऊतक हैं।
4. तंत्रिका ऊतक (Nerve Tissue) – इसे चेतना ऊतक भी कहते हैं। जीवों का तंत्रिका-तन्त्र इन्हीं ऊतकों का बना होता है। यह दो विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है(a) तंत्रिका कोशिका या न्यूरॉन्स और (b) न्यूरोग्लिया । यह ऊतक शरीर में होने वाली सभी अनैच्छिक एवं ऐच्छिक क्रियाओं को नियंत्रित करता है। न्यूरोग्लिया कोशिकएँ मस्तिष्क की गुहा को आस्तिरित करती है ।
जन्तु ऊतकों का संक्षिप्त विवरण
क्र. | ऊतक का नाम | स्थिति | रचना | कार्य |
1. | उपकला (Epithelial Tissues) | शरीर एवं आंतरांगों की सभी उघड़ी सतहों पर | आधार झिल्ली पर सधी एवं सटी कोशाओं की एक या अधिक पर्तें | सुरक्षात्मक, संवहन अवशोषण, उत्सर्जन संवदेना
ग्रहण
|
2. |
संयोजी ऊत (Connective Tissues)
|
ऊतकों एवं अंगों के बीच में संयोजन | अन्तराकोशिकीय पदार्थ अधिक, इसमें दूर-दूर कोशाएँ एवं तन्तु | आंतरांगों को रोगों से रक्षा, पदार्थो का संग्रह एवं संवहन, मरम्मत |
(i) वास्तविक संयोजी ऊतक | त्वचा के नीचे, अस्थियाँ उपास्थियाँ, नेत्रों पेशियों आदि की खोल, वसा पिण्ड, अस्थिमज्जा, प्लीहा, यकृत, वृक्क आदि में | जैली मैट्रिक्स कोलजन, इलास्टिन से बना हुआ | शरीर की सुरक्षा, ताप नियंत्रण, पेशी संकुचन इत्यादि । |
(ii) कंकालीय ऊतक | पैरों की हड्डियों में, कान का पिन्ना, कंकाल की सारी लंबी हड्डियाँ | मैट्रिक्स काण्ड्रिन का, खोल तन्तुमय झिल्ली का | कंकाल का अंश | |
(iii) संवहनीय ऊतक | रुधिर एवं लसिका | तरल प्लाज्मा मैट्रिक्स | शरीर में संचरण का काम, रोग से बचाव, रक्तस्राव को रोकना | |
3. | पेशीय ऊतक | शरीर की सारी पेशियाँ | सकरी व लंबी, तन्तुनुमा संकुचनशील कोशाएँ | गति एवं गमन |
(i) रेखित | सारी कंकाल पेशियाँ | कोशाएँ बेलनाकार व जटिल | शरीर की गमन अंगों की ऐच्छिक गति | |
(ii) अरेखित | आंतरांगों की दीवारों में | कोशाएँ तुर्करूप एवं सरल | आंतरांगों की अनैच्छिक गति | |
(iii) हृदयक | हृदय की दीवारों में | रेखित पेशीय कोशाएँ, बेलनाकार | हृदय-स्पन्दन | |
4. | तंत्रिकीय ऊतक | सम्पूर्ण तंत्रिका तन्त्र | कोशाएँ बड़ी, जटिल, शाखान्वित | विद्युत – रासायनिक स्पन्दों का संवहन |
5. | जनन ऊतक | जनन अंगों में | मुख्यतः जनित्र कोशाएँ | युग्मक कोशाओं का निर्माण |
III. मानव रक्त (Human Blood)
◆ मानव शरीर में रक्त की मात्रा शरीर के भार का लगभग 7% होती है।
◆ रक्त एक क्षारीय विलयन है, जिसका pH मान 7.4 होता है।
◆ रक्त एक तरल संयोजी ऊतक (Connective Tissue) है।
◆ एक स्वस्थ्य वयस्क मनुष्य में औसतन 5-6 लीटर रक्त होता है।
◆ महिलाओं में पुरुषों की तुलना में आधा लीटर रक्त कम होता है।
◆ रक्त में दो तरह के पदार्थ पाये जाते हैं- 1. प्लाज्मा (Plasma) और 2. रुधिराणु (Blood Corpuscles ) ।
1. प्लाज्मा (Plasma) : यह रक्त का अजीवित तरल भाग होता है।
◆ रक्त का लगभग 60 प्रतिशत भाग प्लाज्मा होता है।
◆ प्लाज्मा का 90% भाग जल, 7% प्रोटीन, 0.9% लवण और 0.1% ग्लूकोज होता है। शेष पदार्थ बहुत कम मात्रा में होता है।
◆ प्लाज्मा के कार्य : पचे हुए भोजन एवं हार्मोन का शरीर में संवहन प्लाज्मा के द्वारा ही होता है।
नोट : जब प्लाज्मा में से फाइब्रिनोजेन नामक प्रोटीन निकाल लिया जाता है, तो शेष प्लाज्मा को सेरम (Serum) कहा जाता है।
2. रुधिराणु (Blood Corpuscles) : यह रक्त का शेष 40% भाग होता है। इसे तीन भागों में बाँटते हैं- (a) लाल रक्त कणिकाएँ (RBCs-Red Blood Corpuscles) (b) श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBCs- White Blood Corpuscles) (c) रुधिर बिम्बाणु या थ्राम्बोसाइट्स (Blood Platelets or Thrombocytes)
(a) लाल रक्त कणिकाएँ (RBCs – Red Blood Corpuscles or Erythrocytes)
◆ लाल रुधिराणु, रुधिराणु का 99% होती है।
◆ स्तनधारियों के लाल रक्त कण उभयावतल होते हैं।
◆ इसमें केन्द्रक नहीं होता है। केवल ऊँट और लामा नामक स्तनधारी के RBCs में ही अपवाद के रूप में केन्द्रक पाया जाता है।
◆ RBCs का निर्माण अस्थिमज्जा (Bonemarrow) में होता है।
◆ प्रोटीन, आयरन, विटामिन B1, एवं फोलिक अम्ल RBCs के निर्माण में मदद करते हैं।
◆ भूण अवस्था में मदद करते हैं।
◆ RBCs का जीवनकाल 110-120 दिन का होता है।
◆ RBCs की मृत्यु यकृत (Liver) और प्लीहा (Spleen) में होती है। इसीलिए यकृत और प्लीहा को RBCs का कब्र कहा जाता है।
◆ RBCs में हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) नामक प्रोटीन पायी जाती है, जिसमें हीम (Haem) नामक रंजक (Dye) होता है, जिसके कारण रक्त का रंग लाल होता है। ग्लोबिन (Globin) लौहयुक्त प्रोटीन है, जो ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड से संयोग करने की क्षमता रखता है।
◆ हीमोग्लोबिन में पाया जाने वाला लौह यौगिक हीमैटिन (Haematin) है।
◆ हीमीग्लोबिन बैंगनी (Viloet) रंग का होता है जबकि ऑक्सी- हीमोग्लोबिन (HbO2) चमकदार लाल रंग का होता है। ऑक्सीजन (O2)) की कितनी मात्रा का संयोजन हीमोग्लोबिन से होगा, यह ऑक्सीजन के आंशिक दाब एवं रक्त pH पर आधारित होता है।
नोट : भ्रूण अवस्था में RBCs का निर्माण यकृत (Liver) तथा प्लीहा (Spleen) में होता है।
RBCs के मुख्य कार्य
◆ शरीर के हर कोशिका में ऑक्सीजन पहुँचाना और कार्बन डाइऑक्साइड को वापस लाना है।
◆ हीमोग्लोबिन की शरीर में कम मात्रा होने पर रक्तक्षीणता (Anaemai) रोग हो जाता है। अत्यधिक थकान का महसूस होना, आँखों के सामने अंधेरा छा जाना, चक्कर आना तथा भूख न लगना इत्यादि रक्तक्षीणता के लक्षण हैं।
◆ सोते समय RBCs 5% कम हो जाता है एवं जो लोग 4200 मीटर की ऊँचाई पर होते हैं उनकी RBCs में 30% की वृद्धि हो जाती है ।
◆ RBCs की संख्या हीमोसाइटोमीटर से ज्ञात की जाती है।
(b) श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBCs-White Blood Corpuscles or Leucocytes)
◆ मनुष्य के शरीर में WBCs की संख्या 5 से 9 हजार तक होती है। इनमें इओसिनोफिल 1 से 4% तक होता है।
◆ WBCs शरीर की प्रतिरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
◆ WBCs आकार और रचना में अमीबा (Amoeba) के समान होता है। इसमें केन्द्रक रहता है।
◆ WBCs का निर्माण अस्थिमज्जा (Bonemarrow), लिम्फ नोड (Lymphnode) और कभी-कभी यकृत (Liver) एवं प्लीहा ( Spleen) में भी होता है।
◆ WBCs का जीवन काल 24-30 घंटा होता है। इसकी मृत्यु रक्त में ही हो जाती है।
◆ WBCs का मुख्य कार्य शरीर को रोगों के संक्रमण से बचाना है।
◆ WBCs का सबसे अधिक भाग ( 60-70% ) न्यूट्रोफिल्स कणिकाओं का बना होता न्यूट्रोफिल्स कणिकाएँ रोगाणुओं तथा जीवाणुओं का भक्षण करती हैं।
◆ WBCs में अन्य पदार्थ, जैसे- बेसोफिल्स, हेटरोफिल्स, लिम्फोसाइट, मोनासाइट होते हैं। लिम्फोसाइट (Lymphocytes) WBCs की कुल संख्या का 20% से 40% तक होते हैं। मोनासाइट (Monacytes) सक्रिय भ्रमण और भक्षण का कार्य करते हैं।
◆ RBCs और WBCs का अनुपात 600: 1 है।
(c) रुधिर बिम्बाणु (Blood Platelets or Thrombocytes)
◆ यह केवल मनुष्य एवं स्तनधारियों के रक्त में पाया जाता है।
◆ इनकी संख्या 2 से 5 लाख प्रतिघन मिमी. रक्त होती है।
◆ इनमें केन्द्रक नहीं होता है। इसका निर्माण अस्थिमज्जा (Bonemarrow) में होता है।
◆ इनका जीवनकाल 3 से 5 दिन का होता है। इनकी मृत्यु प्लीहा ( Spleen) में होती है।
◆ इनका मुख्य कार्य रक्त के थक्का बनाने (Clotting) में मदद करना ।
रक्त के मुख्य कार्य (Main Functions of Blood)
◆ शरीर के ताप का नियंत्रण तथा शरीर की रोगों से रक्षा करना।
◆ शरीर के वातावरण को स्थायी बनाये रखना तथा घावों को भरना ।
◆ O2, CO2 पचा हुआ भोजन, उत्सर्जी पदार्थ एवं हार्मोन का संवहन करना ।
◆ लैंगिक वरण में सहायता करना तथा विभिन्न अंगों में सहयोग स्थापित करना ।
◆ रक्त का थक्का (Clot) बनाना।
◆ रक्त का थक्का बनना (Clotting of Blood) : रक्त का थक्का बनने के दौरान तीन महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ होती हैं। ये प्रतिक्रियाएँ निम्नलिखित हैं –
1. थ्राम्बोप्लास्टिन + प्रोथ्रोम्बिन + कैल्शियम++ = थ्रोम्बिन
(Thromboplastin) (Prothrombin) (Calcium++) (Thrombin)
2. थ्रोम्बिन + फाइब्रिनोजोन = फिबरीन
(Thrombin) (Fibrinogen) (Fibrin)
3. फिबरीन + रक्त रुधिराणु = रक्त का थक्का
(Fibrin) (Blood Corpuscles) (Clot of Blood)
◆ रुधिर प्लाज्मा के प्रोथ्रोम्बिन (Prothrombin) तथा फाइब्रिनोजोन (Fibrinogen) का निर्माण यकृत में विटामिन K की सहायता से होता है। विटामिन K रक्त के थक्का बनाने में सहायक से होता है। सामान्यतः रक्त का थक्का 2-5 मिनट में बन जाता है।
◆ रक्त का थक्का बनाने के लिए अनिवार्य प्रोटीन फाइब्रिनोजोन (Fibrinogen) है।
मानव के रक्त समूह (Blood Groups of Human)
◆ मानव रुधिर में चार प्रकार के रुधिर वर्ग होते हैं। इसकी खोज 1902 में कार्ल लैंडस्टीनर ( Karl Landsteiner) ने की तथा इसके लिए इन्हें 1930 में नोबल पुरस्कार मिला।
◆ मानव समुदाय के रक्तों की भिन्नता का मुख्य कारण RBC में पायी जाने वाली ग्लाइको प्रोटीन है, जिसे एण्टीजन (Antigen) कहते हैं।
◆ एण्टीजन (Antigen) दो प्रकार के होते हैं- एण्टीजन A एवं एण्टीजन B ।
◆ एण्टीजन या ग्लाइको प्रोटीन की उपस्थिति के आधार पर मनुष्य में चार प्रकार के रुधिर वर्ग होते हैं –
(i) जिनमें एण्टीजन (Antigen) A होता है- रुधिर वर्ग A ।
(ii) जिनमें एण्टीजन (Antigen) B होता है- रुधिर वर्ग B ।
(iii) जिनमें एण्टीजन (Antigen) A एवं B दोनों होते हैं- रुधिर वर्ग AB ।
(iv) जिनमें दोनों में से कोई एण्टीजन (Antigen) नहीं होता है- रुधिर वर्ग O ।
मानव में विभिन्न रुधिर वर्ग
रुधिर वर्ग | प्रतिरक्षी / एण्टीबॉडी (प्लाज्मा में ) | प्रतिजन / एण्टीजन (RBC में ) | भारतीयों में संख्या (% में ) |
A | केवल b | केवल A | 23.5 |
B | केवल a | केवल B | 34.5 |
AB | अनुपस्थित | A,B दोनों | 7.5 |
O | a तथा b दोनों | अनुपस्थित | 34.5 |
◆ किसी एण्टीजन (Antigen) की अनुपस्थिति में एक प्रकार की प्रोटीन रुधिर प्लाज्मा में पायी जाती है। इसको एण्टीबॉडी (Antibody) कहते हैं। एण्टीबॉडी दो प्रकार की होती है- एण्टीबॉडी a एवं एण्टीबॉडी b ।
रक्त का आधान (Blood Transfusion )
◆ एण्टीजन A एवं एण्टीबॉडी a, एण्टीजन B एवं एण्टीबॉडी b एक साथ नहीं रह सकते हैं। ऐसा होने पर ये आपस में मिलकर अत्यधिक चिपचिपे हो जाते हैं, जिससे रक्त नष्ट हो जाता है। इसे रक्त का अभिश्लेषण (Agglutination) कहते हैं। अतः रक्त आधान में एण्टीजन तथा एण्टीबॉडी का ऐसा तालमेल करना चाहिए जिससे रक्त का अभिश्लेषण न हो सके।
◆ ‘O’ रक्त समूह को सर्वदाता (Universal Donor) रक्त समूह कहते हैं, क्योंकि इसमें कोई एण्टीजन नहीं होता है एवं ‘AB’ रक्त समूह को सर्वग्राहक (Universal Recipitor) रक्त समूह कहते हैं, क्योंकि इसमें कोई एण्टीबॉडी नहीं होता है।
◆ आर. एच. तत्त्व (Rh-Factor) : 1940 ई. में लैंडस्टीनर और वीनर (Landsteiner and Wiener) ने रक्त में एक अन्य प्रकार के एण्टीजन (Antigen) का पता लगाया। इन्होंने रीसस बंदर (Rhesus Monkey) में इस तत्त्व का पता लगाया, इसलिए इसे Rh-Factor कहते हैं। जिन व्यक्तियों में यह तत्त्व पाया जाता है, उनका रक्त Rh सहित (Rh-positive) तथा जिसमें नहीं पाया जाता, उनका रक्त Rh रहित (Rh-negative) कहलाता है। भारत में 97% व्यक्ति Rh-positive रुधिर वर्ग वाले है, सिर्फ 3% व्यक्तियों में Rh-negtive रुधिर वर्ग पाया जाता है।
◆ रक्त देने-लेने अर्थात् आधान (Transfusion) के समय Rh-factor की जाँच पहले की जाती है। Rh-positive को Rh-positive का एवं Rh-negative को Rh-negative का रक्त दिया जाता है।
◆ यदि Rh-positive रक्त वर्ग का रक्त Rh-negative रक्त वर्ग वाले व्यक्ति को दिया जाता हो, तो प्रथम बार कम मात्रा होने के कारण कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब दोबारा इसी तरह रक्तधान किया गया हो तो अभिश्लेशण (Agglutination) के कारण Rh-negative वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
◆ एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythroblastosis Fetalis) : यदि पिता का रक्त Rh सहित (Rh-positive) हो और माता का रक्त Rh-रहित (Rh-negative) हो तो जन्म लेने वाले शिशु की जन्म से पहले गर्भावस्था में अथवा जन्म के तुरंत बाद मृत्यु हो जाती है। (ऐसा प्रथम संतान के बाद की संतान होने पर होता है।)
माता एवं पिता के रक्त समूह के आधार पर बच्चों के संभावित रक्त समूह
माता-पिता का रक्त समूह | बच्चों में संभावित रक्त समूह | बच्चों में असंभावित रक्त समूह |
O x O | O | A, B, AB |
O x A | O,A | B, AB |
O x B | O,B | A, AB |
O x AB | A,B | O, AB |
A x A | A,O | B, AB |
A x B | O,A,B, AB | None |
A x AB | A,B, AB | O |
B x B | B,O | A, AB |
B x AB | A,B, AB | O |
AB x AB | A,B, AB | O |