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जैव-विकास

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◆ प्रारंभिक, निम्नकोटि के जीवों से क्रमिक परिवर्तनों द्वारा अधिकाधिक जीवों की उत्पत्ति को जैव-विकास (Organic Evolution) कहा जाता है। जीव-जन्तुओं की रचना, कार्यिकी एवं रासायनी, भ्रूणीय विकास, वितरण आदि में विशेष क्रम व आपसी सम्बन्ध के आधार पर सिद्ध किया गया है कि जैव-विकास हुआ है।
◆ लैमार्क, डार्विन, वैलेस, डी, ब्रीज आदि ने जैव-विकास के सम्बन्ध में अपनी-अपनी परिकल्पनाओं को सिद्ध करने के लिए इन्हीं सम्बन्धों को दर्शाने वाले निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये हैं –
1. वर्गीकरण से प्रमाण 7. भौगोलिक वितरण से प्रमाण
2. तुलनात्मक शरीर रचना से प्रमाण 8. तुलनात्मक कार्यिकी एवं जीव-रासायनी से प्रमाण
3. अवशोषी अंगों से प्रमाण 9. आनुवंशिकी से प्रमाण
4. संयोजता जन्तुओं से प्रमाण 10. पशुपालन से प्रमाण
5. पूर्वजता से प्रमाण 11. रक्षात्मक समरूपता से प्रमाण
6. तुलनात्मक भ्रौणिकी से प्रमाण 12. जीवाश्म विज्ञान एवं जीवाश्मकों से प्रमाण
◆ समजात अंग (Homologous Organ) : ऐसे अंग जो विभिन्न कार्यों के लिए उपयोजित हो जाने के कारण काफी असमान दिखायी दे सकते हैं, परन्तु मूल रचना एवं भ्रूणीय परिवर्धन में समान होते हैं, समजात अंग कहलाते हैं। उदाहरणार्थ- सील के फ्लीपर, चमगादड़ के पंख, घोड़े की अगली टाँग, बिल्ली का पंजा तथा मनुष्य के हाथ की मौलिक रचना एक जैसी होती हैं। इन सभी में ह्यूमेरस, रेडियो अल्ना, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स आदि अस्थियाँ होती हैं। इनका श्रौणिकीय विकास भी एक-सा ही होता है। परन्तु इन सभी का कार्य अलग-अलग होता है। सील का फ्लीपर तैरने के लिए, चमगादड़ के पंख उड़ने के लिए, घोड़े की टाँग दौड़ने के लिए तथा मनुष्य का हाथ वस्तु को पकड़ने के लिए अनुकूलित होता है।
◆ समरूप अंग (Analogous Organ) : ऐसे अंग जो समान कार्य के लिए उपयोजित हो जाने के कारण समान दिखायी देते हैं, परन्तु मूल रचना एवं भ्रूणीय परिवर्धन में भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं। उदाहरणार्थ- तितली, पक्षियों तथा चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं और देखने में एक समान लगते हैं, परन्तु इन सभी की उत्पत्ति अलग-अलग ढंग से होती है। तितलियों के पंख की रचना शरीर भित्ति के भंज द्वारा, पक्षियों के पंख की रचना इनकी अग्रपादों पर परों द्वारा, चमगादड़ के पंख की रचना हाथ की चार लंबी अँगुलियों तथा छड़ के बीच फैली त्वचा से हुई है।
◆ अवशेषी अंग (Vestigial Organ) : ऐसे अंग जो जीवों के पूर्वजों में पूर्ण विकसित होते हैं, परन्तु वातावरणीय परिस्थितियों में बदलाव से इनका महत्त्व समाप्त हो जाने के कारण विकास क्रम में इनका क्रमिक लोप होने लगता है, अवशेषी अंग कहलाते हैं। उदाहरणार्थ- कर्ण – पल्लव (Pinna), त्वचा के बाल, बार्मीफार्म एपेन्डिक्स आदि ।
नोट : मनुष्य में लगभग 100 अवशेषी अंग पाये जाते हैं।
◆ जीवाश्म (Fossil) : अनेक ऐसे प्राचीनकालीन जीवों एवं पादपों के अवशेष, जो हमारी पृथ्वी पर विद्यमान थे, परन्तु बाद में समाप्त अर्थात् विलुप्त हो गये, भूपटल की चट्टानों में परिरक्षित मिलते हैं, उन्हें जीवाश्म कहते हैं एवं इनके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान कहा जाता है।
जैवविकास के प्रमुख सिद्धान्त
1. लैमार्कवाद (Lamarckism) : लैमार्क का सिद्धान्त 1809 ई. में उनकी पुस्तक फिलॉसफी जूलोजीक (Philosophic Zoologique) में प्रकाशित हुआ। इस सिद्धान्त के अनुसार, जीवों एवं इनके अंगों में सतत बड़े होते रहने की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। इन जीवों पर वातावरणीय परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण जीवों में विभिन्न अंगों का उपयोग घटता-बढ़ता रहता है। अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होने लगता है। इसे ‘अंगों के कम या अधिक उपभोग का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। इस प्रकार से जीवों द्वारा उपार्जित लक्षणों की वंशगति होती है, जिसके फलस्वरूप नयी-नयी जातियाँ बन जाती हैं। उदाहरणार्थ- जिराफ की गर्दन का लंबा होना ।
2. डार्विनवाद (Darwinism) : जैव विकास के सम्बन्ध में डार्विनवाद सर्वाधिक प्रसिद्ध है। डार्विन को पुरावशेष का महानतम अन्वेषक कहा जाता है। चार्ल्स डार्विन (1809-1882 ई.) ने 1831 में बीगल नामक विश्व सर्वेक्षण जहाज पर पूरे विश्व का भ्रमण किया। डार्विनवाद के अनुसार सभी जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है। अतः अधिक आबादी के कारण प्रत्येक जीवों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे जीवों से जीवनपर्यंत संघर्ष करना पड़ता है। ये संघर्ष सजातीय, अंतर्जातीय तथा पर्यावरणीय होते हैं। दो सजातीय जीव आपस में बिल्कुल समान नहीं होते हैं। ये विभिन्नताएँ इन्हें इनके जनकों से वंशानुक्रम में मिलते हैं। कुछ विभिन्नताएँ जीवन संघर्ष के लिए लाभदायक होती हैं, जबकि कुछ अन्य हानिकारक होती हैं। जीवों में विभिन्नताएँ वातावरणीय दशाओं के अनुकूल होने पर वे बहुमुखी जीवन संघर्ष में सफल होते हैं। उपयोगी विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठी होती रहती हैं और काफी समय बाद उत्पन्न जीवधारियों के लक्षण मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नई जाति बन जाती है।
3. नव – डार्विनवाद (No – Darwinism) : डार्विन के बाद इनके समर्थकों द्वारा डार्विनवाद को जीनवाद के ढाँचे में ढाल दिया, जिसे नव- डार्विनवाद कहा जाता है। इसके अनुसार किसी जाति पर कई कारकों का एक साथ प्रभाव पड़ता है, जिससे इस जाति से नई जाति बन जाती है। ये कारक हैं- (i) विविधता (ii) उत्परिवर्तन (iii) प्रकृतिवरण (iv) जनन । इस प्रकार नव- डार्विनवाद के अनुसार जीन में साधारण परिवर्तनों के परिणास्वरूप जीवों की नई जातियाँ बनती हैं, जिनमें जीन परिवर्तन के कारण भिन्नताएँ बढ़ जाती हैं।
4. उत्परिवर्तनवाद : यह सिद्धान्त वस्तुतः ह्यूगो डी ब्राइज (Hugo-De-Vries) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धान्त के पाँच प्रमुख तथ्य निम्नवत् हैं
(i) नयी जीवजातियों की उत्पत्ति लक्षणों में छोटी-छोटी एवं स्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वार पीढ़ी दर पीढ़ी संचय एवं क्रमिक विकास के फलस्वरूप नहीं होती है, बल्कि यह उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है।
(ii) इस प्रकार से उत्पन्न जाति का प्रथम सदस्य उत्परिवर्तक कहलाता है। यह उत्परिवर्तित लक्षण के लिए शुद्ध नस्ल का होता है।
(iii) उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं। ये किसी एक अंग विशेष में अथवा अनेक अंगों में एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं।
(iv) सभी जीव-जातियों में उत्परिवर्तन की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है।
(v) जाति के विभिन्न सदस्यों में उत्परिवर्तन भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
(vi) उपर्युक्त उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप अचानक ऐसे जीवधारी उत्पन्न हो सकते हैं, जो जनक से इतने अधिक भिन्न हों कि उन्हें एक नई जाति का माना जा सके।

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