नारीवाद के प्रकारों पर विस्तृत लेख लिखिए । Write a note on Types of Feminism.
- उदारवादी नारीवाद (Liberal Feminism)
- उग्रवादी नारीवाद (Radical Feminism)
- समाजवादी / मार्क्सवादी नारीवाद (Socalist/Marxist Feminism)
- उत्तर आधुनिक नारीवाद (Post Modernist Feminism)
- पर्यावरणीय नारीवाद (Eco-Feminism)
हालांकि, प्रारम्भिक उदारवादी दर्शनिक विचारकों में पुरुष थे, जो पुरुषों के विषय में ही लेख लिखते थे तथा प्रायः यह मानते थे कि महिलाएँ बुद्धिहीन प्राणी हैं उनकी बुद्धिहीनता को पुरुष से भी कम आंका गया इसलिए यह अवश्यम्भावी था कि साक्षर महिलाएँ इस दार्शनिकता से प्रभावित होंगी और अपने जीवन की प्रासांगिकता को पहचानेंगी। उदारवादी नारीवादियों ने महिलाओं को दमनकारी, पितृसत्तात्मक लैंगिक भूमिका से स्वतन्त्र कराने की इच्छा व्यक्त की।
इन्होंने इस बात पर बल दिया कि समाज के पितृसत्तात्मक स्वरूप का कारण महिलाओं की सहनशील भूमिका है जो नारीवादी आदर्शों के साथ चली आ रही है। शास्त्रीय उदारवादी नारीवाद के समर्थक पुस्तकों से लैंगिक रूप से भेदभावपूर्ण कानूनों एवं नीतियों को समाप्त करके महिलाओं को पुरुषों के समान प्रतियोगी बनाकर इन बाधाओं को दूर करना चाहते हैं। दूसरी ओर, कल्याणकारी उदारवाद के समर्थक, समाज को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि महिलाओं द्वारा सामाजिक, आर्थिक एवं कानूनी बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए।
दुर्भाग्यवश उदारवादी नारीवाद पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष में केवल कानूनी पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करने में समर्थ है। आलोचकों का तो मत है कि उदारवादी नारीवाद अपने सन्दर्भ में भी असफल साबित हुआ है। उनका मानना है कि महिलाएँ काम के क्षेत्र तथा राजनीति की दुनिया में पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्ति में पूर्णतया असफल रही हैं।
कतिपय महिलाओं को प्राप्त लोकप्रियता, सत्ता एवं शक्ति के पद पर पुरुषों के प्रबल आधिक्य को गुप्त बनाए रखती है। अपने प्रयासों के बावजूद, महिलाएँ अभी तक सम्पूर्ण कानूनी समानता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकीं हैं। उदारवादी नारीवादियों पर अन्य नारीवादियों द्वारा की गई आलोचना यह है कि उसकी प्रकृति मुख्यता सुधारवादी है।
इसके द्वारा वर्ग की वास्तविकताओं एवं सामाजिक दबावों को अनदेखा करता है। साथ ही, यह पितृसत्ता की गहन प्रकृति पर भी ध्यान नहीं देता तथा यह नारी केन्द्रित परिप्रेक्ष्य से चुनौती देने की बजाय पौरुष मूल्यों को स्वीकार करता है।
साराह ग्रिमके के अनुसार महिलाओं की अधीनता (Subordination) को दूर करने हेतु उनको पुरुषों के समान ही अधिकार मिलने चाहिए।
हैरिएट टेलर, जो जॉन स्टुअर्ट मिल की पत्नी थीं, ने पुरुष . • तथा स्त्री को एक दूसरे का पूरक माना एवं महिलाओं के लिए पुरुषों के समान अधिकार देने की बात की।
जॉन स्टुअर्ट मिल ने महिलाओं व पुरुषों का बराबरी से समर्थन किया। महिलाओं को पुरुषों के समान मताधिकार मिलना चाहिए तथा विवाह में भी समानता होनी चाहिए, अर्थात् स्त्रियों को विवाह करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। स्त्री-पुरुष में समानता लाने का सबसे बड़ा तत्त्व यह है कि उनको मत (Vote) देने का अधिकार (Right) मिले ।
इस प्रकार उदारवादी नारीवादी नेता विशेषकर नारी को मताधिकार देने पर बल देते हैं। मताधिकार आन्दोलन 1840 के दशक में प्रभावी हुआ। इसका महत्त्वपूर्ण चरण उस समय प्रारम्भ होता है जब 1848 में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। इसके लिए ‘सेनेका फाल कन्वेंशन’ का आयोजन किया गया। इसमें कई मुद्दों पर विचार किया गया।
इस घोषणा पत्र की लेखिका ‘एलिजाबेथ स्कैण्टन’ थीं। इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि महिलाएँ पुरुषों के बराबर हैं। महिलाएँ पुरुषों से किसी भी मायने में कमजोर नहीं हैं, उनको पुरुषों के समान शिक्षा, स्वतंत्रता तथा मत देने का अधिकार मिलना चाहिए।
1850 के दशक में मिल ने सर्वप्रथम स्त्री के मताधिकारों की बात की तो दुनिया के अनेक देशों में जागरूकता आई तथा ‘न्यूजीलैण्ड’ वह प्रथम देश बना, जिसने 1893 में महिलाओं के मताधिकार की व्यवस्था की। अमेरिका में महिलाओं को मताधिकार 1920 में 19वें संविधान संशोधन द्वारा प्रदान किया गया। ब्रिटेन में 1918 में आंशिक रूप में एवं 1928 में पूर्ण रूप से महिलाओं के लिए मताधिकार की व्यवस्था की गई । उदारवादी नारीवादी (Liberal Feminist) निम्न महिला अधिकारों पर बल देते हैं-
- महिलाओं को मत देने का अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- बौद्धिक रूप से समानता में विश्वास
कुछ नारीवादी विचारक मानते हैं कि महिला एवं पुरुष में, रचना, बनावट व शक्ति में अन्तर है परन्तु अधिकतर यह मानते हैं कि महिला एवं पुरुष समान हैं, इनमें कोई अन्तर नहीं है। सभी उदारवादी विचारक इस सम्बन्ध में (कि नारी भी एक व्यक्ति है तथा व्यक्ति होने के नाते उसे पुरुषों के समान अधिकार मिलने चाहिए ।) व्यक्तिवादी विचार रखते हैं ।
- यह सिद्धान्त एक व्यक्तिवादी सिद्धान्त है, अतः पितृसत्तात्मक सत्ता की आलोचना करने के बजाय यह व्यक्तिवाद पर अधिक बल देता है। इसलिए इसका मुख्य उद्देश्य गौण हो जाता है।
- व्यक्तिवाद पर अधिक बल देने के कारण ये सभी अधिकारों के लिए एकजुट नहीं हो पाते, इससे सामूहिक कार्यविधि (Collective Initiativity) में बाधा आती है, जिसके कारण यह आन्दोलन कमजोर हो जाता है।
- यह सिद्धान्त महिला पुरुष समानता में विश्वास करता है। इसके विरुद्ध आक्षेप लगाया जाता है कि यदि हम स्त्री पुरुष को समान देखते हैं, तो कहीं न कहीं हम महिलाओं को पुरुष बनाना चाहते हैं, जो उचित नहीं है।
1960 व 1970 के दशक के दौरान आधुनिक रेडिकल नारीवादी सिद्धान्त के उदय में तीन पुस्तकों ने अहम भूमिका अदा की। पहली सिमोन द बुआ की ‘द सेकेण्ड सेक्स’ जो 1949 में फ्रेंच में तथा 1953 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई तथा कैट मिलेट की ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’, 1970 एवं स्वामिभ फायरस्टोन की ‘द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स : द केस फार फेमिनिस्ट रिवोल्युशन’1972 थी।
बेट्टी फ्रीडन ने अपनी पुस्तक “The Femenin Mistakes’ जो ‘नारीवादियों की बाइबिल’ मानी जाती है, में महिलाओं की समस्याओं को हमारे समक्ष रखा। इनके विचार से मनोवैज्ञानिक रूप से महिलाओं को इतना हतोत्साहित कर दिया जाता है कि, महिलाएँ, घर से बाहर स्वयं को असुरक्षित समझती हैं। उनकी सोच इस तरह बना दी जाती है कि वे घर में सुरक्षित हैं । उनका कार्य घर के कामों को करना है जबकि पुरुषों का कार्य बाहर के काम करना है ।
फ्रीडन ने 1966 में एक महिला संगठन ‘National organisation for women’ का निर्माण किया । इसी से प्रेरणा लेकर महत्त्वपूर्ण नारीवादी विचारक केट मिलेट (Kate Millete) ने अपनी पुस्तक ‘Sexual Politics’ में बताया कि स्त्री पुरुष सम्बन्धों का मामला राजनीतिक है ।
राजनीति (Politics) अर्थात् जहाँ संघर्ष न हो वहाँ संघर्ष उत्पन्न किया जाए तथा जहाँ संघर्ष है वहाँ इसे समाप्त किया जाए। उग्रवादी विचारकों का प्रमुख विचार था कि जो भी व्यक्तिगत व निजी है, वह राजनीतिक है। इस क्रम में कई पुस्तकें लिखी गईं, जिनमें मुख्य हैं –
- Swamibh Firestone – The Dialectic of sex, 1970
- Germer Greeir – Female Euncech
- Sheila Robatham – Hidden from history, 1975
- Juliat Michell – Women: the Longest Revolutionary ,1965
- पितृसत्तात्मक सत्ता के प्रभाव के कारण पुरुषों ने स्त्रियों को सभी क्षेत्रों में अपने अधीन बना लिया ।
- इन सभी विचारकों ने विवाह को अधीनता का प्रमुख कारण मानकर विवाह का ही विरोध किया |
- महिलाओं की स्वतन्त्रता के लिए पितृसत्तात्मक प्रणाली को नष्ट करना होगा। पितृसत्तात्मक प्रणाली का आधार परिवार है। अतः परिवार को नष्ट करना होगा।
- फायरस्टोन का मानना है कि महिला व पुरुष में जैविक अन्तर (Biological Differance) है। यदि महिलाओं को बच्चे पैदा करने से स्वतन्त्र कर दिया जाए तो उन पर से पुरुषों का वर्चस्व समाप्त हो सकेगा। महिलाओं की जनन क्षमता ही उनकी अधीनता का मूल कारण है।
- उग्रवादी नारीवादियों ने महिलाओं (Women) के जैविक कारकों (Biological Term) के स्थान पर लिंग (Gender) के सांस्कृतिक कारकों (Cultural Term) के प्रयोग पर बल दिया ।
- Betti Fridan- The second stage, 1983
- Germen Greer – Sex and Destiny, 1985
समाजवादी–मार्क्सवादी नारीवाद उस विचारधारात्मक परम्परा से सम्बद्ध है जिसमें काल्पनिक समाजवाद से लेकर मार्क्सवाद तक के केन्द्रीय तत्त्वों को लिया गया है। इसका दावा है कि नारियों की पराधीनता के समस्त कारण मिलें- जुलें हैं। समाजवादी नारीवादी महिलाओं ने पूंजीवादी पितृसत्ता को समझने और बदलने का प्रयास किया है। समाजवादी नारीवाद का मानना है कि पूंजीवाद एवं पितृसत्ता एक-दूसरे को मजबूती प्रदान करते है।
समाजवादी– मार्क्सवादी नारीवादी यह नहीं मानते कि नारियों की समस्या राजनीतिक एवं कानूनी रूप से समाप्त हो सकती है। उनके अनुसार स्त्री पुरुष की असमानता का मूल कारण सामाजिक-आर्थिक संरचना है जो एक सामाजिक क्रान्ति के बिना समाप्त नहीं सकती। समाजवादी नारीवादी यह मानते हैं कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था को सामाजिक-आर्थिक कारकों के सन्दर्भ में समझना चाहिए ।
फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक ‘द ओरिजिन ऑफ फैमिली, प्राईवेट प्रोपर्टी एण्ड द स्टेट’ (1884) में यह स्पष्ट किया है कि नारियों की स्थिति पूंजीवाद के विकास एवं निजी सम्पत्ति के संस्था के आगमन के साथ पूर्णतया परिवर्तित हो गई है। पूर्व पूंजीवादी व्यवस्थाओं में सम्पत्ति सामान्यतः पूरे परिवार या समुदाय की मानी जाती थी । पूंजीवाद के आगमन के साथ निजी सम्पत्ति पर पुरुषों ने अपना वर्चस्व जमाया और नारी इससे वंचित रह गयीं। औद्योगिक पूंजीवाद के उदय के साथ पुरुष घरों के बाहर उजरती (Wáged) मजदूरी की अर्थव्यवस्था में शामिल होते गए एवं महिलाएँ घरों तक सीमित होती गई।
पूंजीवादी व्यवस्था में नारी को श्रम का स्रोत मानकर उसका शोषण किया जाता है। मार्क्सवादी मानते हैं कि नारियों की दशा सुधारने के लिए पूंजीवाद एवं निजी सम्पत्ति को समाप्त करने की आवश्यकता है। अगर सामाजिक क्रान्ति होती है तो समस्याएँ स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। मार्क्सवादी मानते हैं कि नारियों को वर्ग – युद्ध को अधिक महत्त्व देना चाहिए, लैंगिक युद्ध को नहीं जिससे पूंजीवादी व्यवस्था का अन्त करके समाजवादी व्यवस्था स्थापित की जाए ताकि अलगाव व शोषण से मुक्त वर्गहीन, समाज की स्थापना की जा सके ।
- प्राचीन (Ancient)
- मध्यकालीन, तथा (Medival
- आधुनिक ( Modern)
यदि हम प्राचीन परम्परा एवं रूढ़िगत मान्यताओं को प्राचीनता व परम्परागतता के साथ जोड़ते हैं तो आधुनिकता में विज्ञान व तकनीकी विकास, धर्मनिरपेक्षता तथा नगरीकरण आदि शामिल हैं। परन्तु आज एक नए प्रकार की धारा चल रही है जो परम्परा व आधुनिकता को एक साथ जोड़कर चलती है तो उसे ‘उत्तर-आधुनिकता’ की संज्ञा प्रदान की जाती है।
आधुनिक + परम्परागत = उत्तर-आधुनिक नारीवाद Modern + Traditional = Post Modern Feminism उत्तर आधुनिकता यह मानकर चलती है कि, कुछ भी सार्वभौमिक (Universal) नहीं है क्योंकि समय एवं परिस्थितियों के अनुसार सभी धारणाएँ परिवर्तनशील होती हैं । विखण्डनवाद में विश्वास करता है अर्थात् एक शब्द का अर्थ भी भिन्न-भिन्न समय व परिस्थितियों में अलग-अलग होता है ।
जहाँ अन्य नारीवादी सिद्धान्त सभी स्त्रियों को एक वर्ग के रूप में देखते हैं वहीं उत्तर आधुनिक नारीवादियों के अनुसार विश्व की सभी महिलाओं को एक वर्ग के रूप में शामिल करना ठीक नहीं है क्योंकि विश्व के विभिन्न भागों के महिलाओं की समस्याएँ एक समान नहीं होती हैं। जैसे- अमेरिकन महिलाओं व अफ्रीका की महिलाओं की समस्याएँ भिन्न-भिन्न हैं ।
अतः सभी महिलाओं को एक वर्ग के अन्तर्गत् रखकर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती है। इस प्रकार इन समस्याओं को समझने के लिए हमें ‘सांस्कृतिक सापेक्षवाद’ (Cultural Relativism) के सहारे अलग-अलग वर्ग की महिलाओं की समस्याओं का विश्लेषण करके, उनको दूर करने का प्रयास करना पड़ेगा। जैसे- एक अमेरिकन महिला की समस्या क्लब जाने की हो सकती है एवं एक अफ्रीकन महिला की समस्या शिक्षा पाने की हो सकती है।