1st Year

निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए। Write short notes on any Two of the following:

प्रश्न  – निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए। 
Write short notes on any Two of the following: 
(a) राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यचर्या (स्लैबस) की संरचना में विभिन्न एजेन्सीज की भूमिका |
Role of different agencies in designing the syllabus at National Level.
(b) राज्य स्तर पर पाठ्यचर्या (स्लैबस) की संरचना में विभिन्न एजेन्सीज की भूमिका |
Role of different agencies in designing the syllabus at State Level.
उत्तर- शिक्षा की प्रक्रिया जहाँ शिक्षक तथा छात्र दोनों के बराबर सहभागिता पर निर्भर करती है। वहीं पाठ्यचर्या भी इसका एक प्रमुख अंग है। पाठ्यचर्या शिक्षा की रूपरेखा लक्ष्य तथा महत्त्व का निर्धारण करता है। पाठ्यचर्या निर्माण का उद्देश्य शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है। प्रारम्भ में पाठ्यचर्या निर्माण एवं शिक्षा के विकास का उद्देश्य धर्म का प्रचार करना होता है। पहले शिक्षा का निर्धारण धार्मिक संस्था, संगठनों, धर्माचार्यों के द्वारा किया जाता था। इनके द्वारा स्वयं के धर्म का प्रचार प्रसार करना प्रथम उद्देश्य होता था। समय के परिवर्तन के साथ शिक्षा के प्रचार-प्रसार में नेताओं, राजाओं, शिक्षकों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी इसके प्रचार-प्रसार करने में रुचि प्रदर्शित की गई। इनका भी शिक्षा के प्रसार में प्रमुखता से योगदान दिया गया। बीसवीं शताब्दी के अन्त में पाठ्यचर्या निर्माण कार्य को विधिवत् सम्पन्न करने के प्रयास पर बल दिया गया। उसी समय से पाठ्यचर्या निर्माण तथा शिक्षक को शिक्षण शास्त्रीय समर्थन देने में राज्य, राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने लगे। ऐसे घटकों में शिक्षक विद्यार्थी अभिभावक, जन-सामान्य, विषय-विशेषज्ञ, समाज शास्त्रीय, राजनीतिज्ञ, मनोवैज्ञानिक अनुसंधान घटकों को प्रस्तावित करने पर बल दिया गया।

पाठ्यचर्या एवं शिक्षक का शिक्षण शास्त्रीय समर्थन का उद्देश्य

  1. स्थानीय, क्षेत्रीय, राजकीय तथा राष्ट्रीय एजेन्सियों के योगदान का उद्देश्य निर्धारित पाठ्यचर्या तथा शिक्षा प्रणाली के सटीक प्रबन्धन के माध्यम से जीवन के लक्षित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहयोग करना है।
  2. इन घटकों के समर्थन का उद्देश्य पाठ्यचर्या का सतत् विकास करना है।
  3. शिक्षण तथा अधिगम प्रणाली कहीं न कही सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित है। अधिगम प्रणाली, पाठ्यचर्या तथा शिक्षक, शिक्षार्थी कहीं न कही समाज के दायरे मूल्यों तथा सम्बन्धों से प्रभावित होती है। सरकार द्वारा राज्य, राष्ट्र, स्थानीय स्तर पर कुछ रणनीतियाँ बनाई जाती हैं जो शिक्षा, अधिगम तथा पाठ्यचर्या के विकास में सहायक होती है।
पाठ्यचर्या विकास में केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय निकायों की भूमिका (Role of Central, State and Local Bodies in the Curriculum Development)
पाठ्यचर्या के निर्माण में राज्यों की मुख्य भूमिका होती है। किसी प्रदेश में क्या पढ़ाया जाएगा तथा कैसे पढ़ाया जाएगा तथा उसकी क्या उपयोगिता है आदि तथ्य सरकार द्वारा गठित आयोग या समितियाँ समय-समय पर निर्धारित करती हैं। इन सबके बावजूद अनेक तथ्य एवं आवश्यक बातें होती हैं, जो अनायास ही छूट जाती है। इन कमियों को दूर करने में स्थानीय निकाय एवं गैर सरकारी संगठन वर्तमान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 73वें संविधान संशोधन ने भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को लागू किया तथा 74वें संविधान संशोधन ने शहरी क्षेत्रों के लिए नगर निगमों का पुनर्गठन किया गया। पंचायतों को ग्रामीण विकास के लिए 29 विषय सौंपे गए। इन विषयों में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा, प्रौद एवं अनौपचारिक शिक्षा, पुस्तकालय, तकनीकी प्रशिक्षण एवं व्यावसायिक शिक्षा के विकास एवं उसके लिए आवश्यक संसाधन एकत्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सभी राज्य सरकारों ने इसीलिए पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया एवं उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए समय-समय पर उन्हें अनुदान देती है जिससे वे अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से पूरा कर सकें।

गैर-सरकारी संगठनों का भारत में विकास नब्बे के दशक से बहुत तेजी से हुआ। ये गैर-सरकारी संगठन न केवल शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि अन्य क्षेत्रों जैसे- भूकम्प, बाढ़, सामाजिक जागरूकता आदि कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। गैर सरकारी संगठन समय-समय पर राजकीय विद्यालयों का सर्वे करते हैं तथा उनमें पढ़ाया जा रहा पाठ्यक्रम छात्रों के लिए किस प्रकार से उपयोगी है का भी मूल्यांकन करते हैं। इन सर्वेक्षणों से ये भी जानकारी मिलती हैं कि छात्रों ने क्या प्रगति की है तथा मौजूदा पाठ्यक्रम उनके लिए कितना फलदायी है। इन गैर सरकारी संगठनों द्वारा दिए गए सर्वेक्षणों को समाचार-पत्रों, टी.वी. आदि के माध्यम से जनता एवं सरकार के समक्ष लाया जाता है। जब ये सर्वेक्षण सभी के समक्ष होते हैं तो लोग अपनी राय एवं मत को सामने रखते हैं जिसके आधार पर सरकार नए सत्र या फिर भविष्य में बनाए जाने वाले आयोगों या समितियों को उन कमियों को दूर करने का निर्देश देती है, जिससे छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जा सकें। इस प्रकार से गैर सरकारी संगठन प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से पाठ्यचर्या के निर्माण में अपना अहम् योगदान देते हैं।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप (2009) ने अब तक कुल पाँच (1975, 1988, 2000, 2005 एवं 2009) प्रारूप जारी किए हैं। ये प्रारूप राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के द्वारा जारी किए जाते हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप (NCF) भारत में पाठ्यचर्या का निर्माण, पाठ्यं – पुस्तकों एवं शैक्षिक कार्य आदि विद्यालयी कार्यक्रम का प्रारूप निर्धारण के लिए एक आधार प्रदान करता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप (2005) का मुख्य आधार बालकों का अधिगम बिना किसी दबाव के (Learning without Burden) सिखाने के राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986-92) पर आधारित है। एन.सी.एफ. 2005 के प्रारूप को 22 भाषाओं में अनुवाद किया गया तथा इसे 17 राज्यों ने अपनाया।

एन.सी.ई.आर.टी. ने इसे अपनाने तथा प्रोत्साहन देने के लिए राज्यों को 10 लाख रूपये प्रदान किए जिससे वर्तमान पाठ्यचर्या से तुलना की जा सकें तथा भविष्य में एक अच्छा प्रारूप बनाया जा सकें जिससे छात्रों को सरलता से अधिगम कराया जा सकें। इस प्रारूप को राज्यों की शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (SCERT) और जिला शैक्षिक एवं प्रशिक्षण संस्थानों (DIET) को भी सौंपा गया जिससे वे भी इसे अपनाकर शिक्षण व्यवस्था में अपना योगदान दे सकें। एन.सी. एफ. 2005 ने पाठ्यचर्या निर्माण को लेकर सरकारों को कुछ सुझाव दिए जो निम्नलिखित हैं-

  1. शिक्षण सूत्रों जैसे- ज्ञात से अज्ञात की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर आदि का अधिकतम प्रयोग किया जाए।
  2. सूचना को ज्ञान मानने से बचा जाए।
  3. विशाल पाठ्यक्रम व मोटी पुस्तकें शिक्षा प्रणाली की असफलता का प्रतीक है।
  4. मूल्यों को उपदेश देकर नहीं उपयुक्त वातावरण देकर स्थापित किया जाए।
  5. अभिभावकों को सख्त सन्देश दिया जाए कि बालकों को छोटी उम्र में निपुण बनाने की आकांक्षा रखना गलत है।
  6. बालकों को बाहरी जीवन में तनावमुक्त वातावरण प्रदान करना।
  7. सह-शैक्षिक गतिविधियों में बालकों के अभिभावकों को भी जोड़ा जाए।
  8. खेल, आनन्द व सामूहिकता की भावना के लिए है, रिकार्ड बनाने व तोड़ने की भावना को प्रश्रय न दें।
  9. बालकों की अभिव्यक्ति में मातृभाषा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शिक्षक अधिगम परिस्थितियों में इसका उपयोग करें।
  10. पुस्तकालय में बालकों को स्वयं पुस्तक चुनने का अवसर दें।
  11. वे पाठ्य-पुस्तकें महत्त्वपूर्ण होती है जो अन्तः क्रिया का मौका दें।
  12. कल्पना व मौखिक लेखन के अधिकाधिक अवसर प्रदान करना।
  13. दण्ड व पुरस्कार की भावना को सीमित रूप में प्रयोग करना।
  14. बालकों के अनुभव और स्वर को प्राथमिकता देते हुए बाल-केन्द्रित शिक्षा प्रदान की जाए।
  15. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मनोरंजन के स्थान पर सौन्दर्यबोध को प्रश्रय देना।
  16. शिक्षक प्रशिक्षण व विद्यार्थियों के मूल्यांकन को सतत् प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाए।
  17. शिक्षकों को अकादमिक संसाधन व नवाचार आदि समय पर पहुँचाया जाए।

उपर्युक्त तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि पाठ्यचर्या के निर्माण में मुख्य भूमिका केन्द्र व राज्य सरकारों की होती है। इसमें समय-समय पर स्थानीय निकाय व गैर-सरकारी संगठन अपने सुझाव देते हैं। इन सुझावों को सरकार पाठ्यचर्या निर्माण समिति को सौंपती है जो नए सत्र में आवश्यक संशोधन कर इन सुझावों को समाहित करती है। वास्तव में स्थानीय निकायों एवं गैर-सरकारी संगठन की मुख्य भूमिका शैक्षिक वातावरण के निर्माण व आवश्यक संसाधनों को उपलब्ध कराने में होती है जिससे अधिगम को सरल व रुचिपूर्ण बनाया जा सकें।

शिक्षा के विकास में केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय निकायों की भूमिका (Role of Central, State and Local Bodies in the Development of Education)
स्वतन्त्रता के पश्चात् केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने शिक्षा के विकास के लिए कई आवश्यक कदम उठाए। इन कार्यों में मुख्य रूप से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948-49 का गठन किया। इसका मुख्य कार्य उच्च शिक्षा में आवश्यक परिवर्तन एवं सुधार के लिए सुझाव देना था। इसमें उच्च शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इसके साथ ही केन्द्र सरकार से शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की बात कहीं जिससे शिक्षा की गुणवत्ता, पाठ्यचर्चा निर्माण, शिक्षक प्रशिक्षण एवं नए कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों का निर्माण किया जा सके और अधिकांश लोगों तक शिक्षा को पहुँचाया जा सके ।

स्वतन्त्रता के समय शिक्षा राज्यों का विषय था इसलिए केन्द्र सरकार राज्यों को समय-समय पर आवश्यक सुझाव एवं दिशा-निर्देश देती थी तथा शिक्षा के विकास के लिए अनुदान भी देती थी। केन्द्र सरकार न केवल राज्यों बल्कि विश्वविद्यालयों एवं विशेष शैक्षिक संस्थानों को वित्तीय सहायता देती है जिससे वे अपने शैक्षिक दायित्वों का ठीक प्रकार से निर्वहन कर सके। केन्द्र सरकार पिछड़े राज्यों को विशेष अनुदान देती हैं जिससे वे भी अन्य राज्यों के साथ शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में बराबर आ जाए इसके साथ ही केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों में केन्द्र सरकार छात्रवृत्तियाँ एवं स्टाइपेंड (Stipends ) विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं के अन्तर्गत छात्रों को प्रदान करती है जिससे वे अपना अध्ययन सुचारु रुप से कर सके। इसके साथ ही केन्द्र सरकार राज्य सरकारों प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए वृहद स्तर पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है।

सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह भोजन योजना आदि योजनाओं के लिए केन्द्र सरकार लगभग 2/3 हिस्सा देती है पिछड़े राज्यों में तो 90:10 का अनुपात होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का प्रसार करना एवं सभी तक शिक्षा की पहुँच को सुनिश्चित करना है। केन्द्र सरकार ने राज्यों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता में समय-समय पर वृद्धि की है। इस वित्तीय बढ़ोत्तरी के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
  1. पिछड़े राज्यों को बेहतर शिक्षा अवसर उपलब्ध कराने के लिए ।
  2. 6 से 14 वर्ष के बालकों को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए।
  3. संवैधानिक प्रावधानों को साकार करने में राज्य की सहायता करने के लिए |
  4. सभी वर्ग के लोगों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए।
शैक्षिक वित्त में केन्द्र सरकार की भूमिका (Role of Central Government in Educational Financing)
  1. केन्द्र सरकार एन.सी.ई.आर.टी. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, केन्द्रीय स्कूल संगठनों के माध्यम से शैक्षिक कार्य करती है।
  2. केन्द्र सरकार कुछ योजनाओं को पूरी तरह से वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है तथा राज्यों द्वारा लागू किया जाता है।
  3. केन्द्र सरकार कुछ योजनाओं को आंशिक रूप से वित्त उपलब्ध कराती है तथा राज्य सरकारों द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।
शैक्षिक वित्त में राज्य सरकारों की भूमिका (Role of State Governments in Educational Financing)
  1. भारत में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है इसीलिए राज्य सरकारों को भी शिक्षा के विकास के लिए आवश्यक वित्त उपलब्ध कराने होते है जिससे शिक्षण कार्य प्रभावित न हो।
  2. वित्त आयोग प्रत्येक राज्य सरकार को आवश्यकत उपलब्ध कराता है जिससे वे शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधन समय पर उपलब्ध करा सके।
  3. शिक्षा के विकास के लिए राज्य के नियमों के अन्तर्गत स्थापित निजी विश्वविद्यालयों एवं विद्यालयों की स्थापना को बढ़ावा देना। इसके साथ ही उनके कुशल संचालन के लिए राजकीय एवं निजी शैक्षिक संस्थानों को समय-समय पर अनुदान एवं अन्य वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।
शैक्षिक वित्त में स्थानीय निकायों की भूमिका (Role of Local Bodies in Educational Financing) 
स्थानीय निकायों जैसे-नगरपालिका परिषदें, जिला निकायों, जिला परिषद एवं पंचायतें अपने सम्बन्धित क्षेत्र में स्कूलों को चलाते हैं। वे कर्मचारियों की नियुक्ति, उपकरणों की उपलब्धता एवं इन विद्यालयों को वित्त की उपलब्धता स्थानीय करों एवं राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए अनुदान के माध्यम से करते हैं। ऐसे सभी शैक्षिक संस्थान इन स्थानीय निकायों के सीधे नियन्त्रण में रहते हैं। विद्यालय समितियाँ अपने व्यय को पूर्ण करने के लिए दो प्रकार से वित्त प्राप्त करती हैं-
  1. स्थानीय ग्राम पंचायत / नगरपालिका की आय का एक निश्चित अनुपात ।
  2. अनुदान सहायता समानता के आधार पर ।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि शिक्षा के विकास में वित्तीय एवं अन्य सुविधाएँ प्रदान करने में केन्द्र सरकार की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र सरकार के पास वित्त एवं विशेषज्ञ उपलब्ध है। इसके पश्चात् राज्यों तथा स्थानीय निकायों की भूमिका आती है। राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों की भूमिका को कमतर नहीं समझना चाहिए क्योंकि योजनाओं का अन्तिम रूप से कार्यान्वयन इन्हीं के हाथों में होता है।

शिक्षा के समर्थन में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका (Role of NGOs in Supporting Education)
विकासशील देशों जैसे- भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जब वह अपने लोगों को शिक्षित करने के लिए नीतियों का कार्यान्वयन करते हैं। भारत में बच्चों की एक बड़ी संख्या लागत, अपव्यय एवं अवरोधन के कारण अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाता है। बहुत से बच्चे स्कूल आने की अपेक्षा अपने परिवार के लिए कार्य करना पसन्द करते हैं। इनमें से कुछ ही बच्चे माध्यमिक स्तर तक तथा बहुत ही कम बच्चें उच्च शिक्षा तक पहुँचते हैं। सरकार का प्रयास निरक्षरता तथा अशिक्षा को समाप्त करना है परन्तु व्यवस्थागत कमियों तथा अपर्याप्त संसाधनों की वजह से ये सम्भव नहीं हो पाता है। यहीं पर सामाजिक संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इन संगठनों की भूमिका को निम्नलिखित तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. गैर सरकारी संगठन उन बच्चों की आर्थिक सहायता करते हैं जिन्होंने धन के अभाव में विद्यालय छोड़ दिया था |
  2. निर्धन / वंचित वर्ग के छात्रों को स्वयं के व्यय पर निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना ।
  3. उन बच्चों को उनके घर / क्षेत्र में ही शिक्षा प्रदान करना जो स्कूल तक नहीं पहुँच सकते हैं या स्कूल जिनकी पहुँच से बहुत दूर है।
  4. किशोरावस्था की बालिकाओं का विद्यालय छोड़ने का प्रमुख कारण विद्यालयों में उचित स्वच्छता सुविधाओं (Proper Sanitation Facilities) की कमी विशेष कर राजकीय विद्यालयों में। गैर सरकारी संगठन इस समस्या को गम्भीरतापूर्वक लेते है तथा इसकी उचित व्यवस्था करते हैं।
  5. उच्च शिक्षा के लिए बालकों की आर्थिक सहायता करना । कौशल-आधारित शिक्षा बालकों को प्रदान करते हैं जिससे उनके ज्ञान एवं आजीविका दोनों की व्यवस्था हो सके।
  6. छात्रों में तथा अन्य व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की जागरुकता उत्पन्न करना जैसे- स्वास्थ्य बीमारियों, दवाईयों, साफ-सफाई, स्वच्छता इत्यादि के विषय में जब वे शिक्षा ग्रहण कर रहे हो। छात्रों में अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए उन्हें निःशुल्क पाठ्य पुस्तकें, ड्रेस, बैग इत्यादि उपलब्ध कराना।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि बच्चों की शिक्षा में गैर सरकारी संगठन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है नेल्सन मंडेला ने भी कहा है, शिक्षा वह शक्तिशाली हथियार है जिसके माध्यम से आप दुनिया को बदल सकते हैं। हम मानते हैं कि गैर सरकारी संगठन बच्चों को शिक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है और इस तरह देश के विकास में भी योगदान देते है।

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