पठन एवं लेखन योग्यताओं को अधिगमन के प्रभावी उपकरण के रूप में किस प्रकार प्रयोग कर सकते हैं? बच्चों की पठन एवं लेखन योग्यताओं को आप किस प्रकार विकसित करेंगे ?
आज के समय में ज्ञान का विकास बहुत तेजी से बढ़ रहा है। प्रतिदिन हजारों पुस्तकें तथा पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। पठन योग्यता के द्वारा ही इन सबका समुचित लाभ उठा सकते हैं। पठन से छात्र को भाषा पर स्वामित्व प्राप्त होता है। पठन से पाठक को काफी जानकारी व नया ज्ञान प्राप्त होता है जैसे- व्याकरण से सम्बन्धित व भाषा का प्रयोग करने सम्बन्धी आधारभूत समझ के लिए शब्दावली । बच्चे लिखना सीखने से पहले पढ़ना सीखते हैं सभी विषयों का ज्ञान भाषा के पठन से ही प्राप्त होता है। शिक्षार्थी पठन में जितना दक्ष होता है, उसकी अन्य विषयों में उपलब्धि भी उसी स्तर की होती है।
अन्तर्राष्ट्रीय क्रियाकलाप, आदेश, निर्णय, संसदीय कार्य, आदि कार्य लिखित रूप में होता है। लिखित रूप को पूर्ण व सही माना जाता है। व्यक्ति अपने विचारों व भावों को सुरक्षित रख सकता है। सृजनात्मक साहित्य का विकास भी लेखन से सम्भव है। लेखन के माध्यम से ही पठन का विकास होता है। पाठक, लिखित सामग्री को पढ़ कर अनके लाभ ले सकते हैं। सभी की लिखने की अलग-अलग शैली होती है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर होता है, कि वो पढ़ कर उसका क्या भाव ग्रहण करता है। लिखने की क्षमता पठन को बढ़ाती है तथा विषयवस्तु ग्रहण का क्षेत्र भी बढ़ाती है।
पढ़ना सीखने से पहले ही बालक का शब्द भण्डार कई हजार शब्दों का होता है जिससे वह अपने विचारों को स्वयं ही अभिव्यक्त कर सकता है क्योंकि वह पूर्व से ही बोले जाने वाले शब्दों की सामान्य ध्वनि से परिचित होता है।
अतः बालक, बड़ों द्वारा आपस में किए गए वार्तालाप को भी सामान्य गति से समझता है। वाचन का प्रारम्भ करने के समय बालक पूर्व में सुने गए शब्दों को लिखित रूप में पढ़ता है तथा पढ़कर उसे बोलता है। वास्तव में सुने गए शब्द ही लिखित रूप में संग्रहित किए जाते हैं । अतः बालक को दृश्य चिह्नों अर्थात वर्णों की पहचान करके उन्हें शीघ्रता एवं उचित गति से पढ़ना होता है।
बोलने व लिखने की अर्थपूर्ण इकाई शब्द है । लिखे हुए वर्णों को जोड़कर बने शब्दों को पहचान करके ध्वनि के साथ पढ़ना होता है। अतः वाचन की आदत का निर्माण करने से पूर्व छात्रों को वर्णों तथा उनकी ध्वनियों से परिचित कराया जाना चाहिए । छात्र जितना अधिक वर्णों, ध्वनियों एवं मात्राओं से परिचित होंगे वाचन उतना ही प्रभावशाली बनेगा।
विभिन्न शोधों में भी ऐसा पाया गया है कि एक सेकेंड के सौवें भाग से भी कम समय में बालक द्वारा परिचित शब्द की पहचान कर ली जाती है परन्तु वाचन कौशल को विकसित करने का उद्देश्य मात्र शब्द की पहचान करना ही नहीं हैं वरन् इसके व्यक्तिगत अर्थ तथा पूरे वाक्य के क्रमबद्ध अर्थ को समझना भी है।
वास्तव में वाचन की पूरी प्रक्रिया दृश्य प्रत्यक्षीकरण (Visual Perception) द्वारा त्वरित पहचान करके वाक्य के पूरे केन्द्रीय भाव को समझने की प्रक्रिया है। वाचन की प्रक्रिया में मस्तिष्क पूरी तरह से सक्रिय रहता है तथा क्रियाशील भागों को ऊर्जा प्रदान करने के साथ ही मस्तिष्क में चल रही विभिन्न क्रियाओं का समन्वयीकरण (Coordination) करते हुए पढ़ी जाने वाली विषय वस्तु के प्रति समझ विकसित कराना है।
अब यहाँ पर दूसरा प्रश्न ये उठता है कि वाचन की प्रक्रिया में पहचान करने की समय सीमा क्या है? इस प्रश्न का उत्तर ढूढने के लिए विभिन्न शोधकर्ताओं ने अनेक शोध किए तथा यह पाया. कि बालक की आँख द्वारा एक बार में देखे गए शब्दों के प्रत्यक्षीकरण करने की क्षमता का विकास अभ्यास द्वारा होता है अर्थात् किसी विषय वस्तु को बार-बार पढ़कर बालक शब्दों की पहचान करने में धीरे-धीरे समय कम लेता जाता है जबकि प्रारम्भ में वह अधिक समय लेता था। जैसे-जैसे आँख द्वारा विराम (Eye Pause) लेने की क्षमता का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे बालक उन्हीं शब्दों को बार-बार पढ़ने में कम समय लेता जाता है परन्तु बीच-बीच में नवीन एवं कठिन शब्दों के आ जाने पर बालक द्वारा नेत्र विराम (Eye Pause) लेने के समय सीमा भी अधिक हो जाती है तथा गति धीमी हो जाती है।
- वाचन की जाने वाली विषय वस्तु के अपरिचित एवं कठिन होने पर गति का धीमा हो जाना।
- वाचक के ध्यान का विकेन्द्रीकरण (Decentralisation) होना ।
- प्रारम्भिक वाचकों में थोड़ा सा पढ़ने पर ही नेत्र की माँसपेशियों द्वारा थकान महसूस होना ।
- बाएं से दाएं पढ़ने के लिए दिशा-निर्देश देना ।
- पढ़ते समय नेत्रों पर नियन्त्रण रखना व सिर न हिलाना ।
- भावानुसार पढ़ने का अभ्यास कराना ।
- एकचित्र होकर पढ़ने का अभ्यास कराना।
- पुस्तक को ठीक तरह से पकड़ना सिखाना।
- पुस्तक व नेत्रों के बीच उचित दूरी का ज्ञान कराना
- पुस्तक पर अधिक झुककर न पढ़ना ।
अतः बालक द्वारा पढ़े गए शब्दों के प्रति शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक प्रतिक्रिया भी होती है अर्थात् बालक जो पढ़कर बोलता है उसे समझकर उसके प्रति अपने शरीर से, व मस्तिष्क से प्रतिक्रिया करता है तथा भय, दुःख-सुख आदि का अनुभव भी करता है। बालक को वाचन सिखाते समय उत्तेजकों के स्थानापन्नीकरण (Stimulus Substitution) हेतु परिस्थिति का निर्माण करना है क्योंकि साहचर्य पद्धति द्वारा सिखाते समय शब्द को देखना (प्राचीन उत्तेजक) के प्रति उसका उच्चारण करना (नवीन प्रतिक्रिया) है। अभ्यास करने के साथ ही देखे गए शब्द के प्रति प्रतिक्रिया करने में समय कम लगता जाता है तथा शब्द को देखते ही प्रतिक्रिया होने लगती है। प्रारम्भिक पाठकों को बोलकर सस्वर पठन करना चाहिए।
लेनार्ड ब्लूमफील्ड तथा पामर ने बताया कि वाचन को बालक के विद्यालय में प्रवेश लेने के उपरान्त उसके द्वारा सीखी गयी मौखिक भाषा से ही जोड़ा जाए क्योंकि इसे मस्तिष्क के स्तरों तक पहुँचाना अधिक सुगम है। बीसवीं सदी के द्वितीय दशक के उपरान्त किए गए शोधों में यह पाया गया कि मौखिक वाचन में वर्ण पहचानने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है। अतः प्रारम्भिक वाचकों को शब्द ध्वनि ( Phonetic Method of Reading) विधि से पढ़ाया जाना चाहिए और यह पद्धति आजकल के समय में प्रयोग भी की जा रही है।
शिक्षक पठन सामग्री के लिए चित्र, कार्ड, वर्णमाला के ब्लॉक, चार्ट दिखाकर उन्हें वाचन के प्रति उत्साहित करें। इसमें भिन्न भिन्न प्रकार के अभिनय, खेल, बालगीत, कहानियाँ आदि सुनाकर छात्रों को वाचन हेतु तैयार करें। प्रयोगशाला की नियन्त्रित परिस्थितियों में साहचर्य द्वारा पठन सिखाने की प्रक्रिया को भली-भाँति समझा जा सकता है। यह प्रक्रिया अनुकूलन (Conditioning) के कारण ही सम्भव है। अनुकूलन में प्रस्तुत प्रथम उत्तेजक के प्रति प्रतिक्रिया के समाप्त होने से पहले ही द्वितीय उत्तेजक के प्रति प्रतिक्रिया की जाती है। दूसरे शब्दों में प्रथम उत्तेजक का प्रभाव समाप्त होने से पूर्व ही द्वितीय उत्तेजक प्रस्तुत कर दिया जाता है। ‘देखो और पढ़ो विधि इसी पर आधारित है। अनुकूलन की आदर्श स्थिति में शब्द को देखने व देखकर बिना कोई समय लगाए उसकी ध्वनि निकालना आता है। इस प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर निम्न तथ्य सामने आते हैं-
- बालक यदि कोई शब्द नहीं पढ़ पाता है तो वह तुरन्त शिक्षक के पास जाता है।
- शिक्षक उच्चारण करके वाचन करता है तथा छात्र सुनता है।
- छात्र पुनः शब्द का उच्चारण करता है परन्तु फिर भी शिक्षक को देखता रहता है।
- छात्र जो देख रहा है तथा जो उच्चारण कर रहा है, के मध्य साहचर्य स्थापित करता है।
- यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और एक छात्र पठन कौशल का ज्ञान प्राप्त कर उसमें निपुणता प्राप्त कर लेता है ।
- पहचान-पहचान में छात्र लिपि- प्रतीकों को पहचानता है अर्थात लिपि संकेत को संकेतिक ध्वनियों के साथ जोड़ता है। इस ध्वनि संकेत से गठित शब्दों, वाक्यांशों तथा वाक्यों को पहचानता है।
- अर्थ ग्रहण – लिपि संकेतों द्वारा बने शब्दों, वाक्यों में निहित अर्थ को संदर्भानुसार समझना है। इसमें विभिन्न प्रकार से अर्थ ग्रहण करना सिखाया जाता है, जैसे- कोशीय अर्थ, व्याकरिणक अर्थ वाक्यगत अर्थ, सांस्कृतिक अर्थ ।
- मूल्यांकन – मूल्यांकन सोपान उच्चस्तरीय है, जिसमें पाठक ग्रहण (कए गए विचार की उपयोगिता, सार्थकता, विश्वसनीयता पर विचार या मूल्यांकन करता है ।
- अनुप्रयोग – अनुप्रयोग पठन का अंतिम सोपान है। पठन कौशल का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब पाठक (छात्र) पुस्तक अथवा रचना को पढ़कर अपने व्यवहार, विचार तथा जीवन मूल्यों में परिष्कार लाए ।
लेखक अपने विचारों को किसी विशेष ढांचे में लिखता है। कुछ व्याख्या रूप में कुछ तुलनात्मक रूप में लिख सकते हैं। स्कीमा सिद्धान्त कहता है कि पाठ्य सामग्री का ढांचा और पाठक का ढांचा सम्बन्धी ज्ञान दोनों पठन से प्राप्त अधिगम को प्रभावित करती हैं। छात्र अव्यवस्थित अनुच्छेद से कम सूचनाएं याद रख पाते हैं। जबकि व्यवस्थित होने पर भी छात्र कम सूचनाएं याद रख पाते है यदि उनकों पाठ्यवस्तु के ढांचे का ज्ञान नहीं होता है छात्र लेखक के सामग्री ढांचा ( Text Structure ) को नहीं पहचानते व नहीं प्रयोग करते तो वे कुछ ही विचारों को याद रख पाते हैं। छात्रों को सामग्री ढांचा ( Text Structure ) को पहचानना व प्रयोग करना, सीखकर पठन कार्य करना चाहिए तभी व पाठ्य सामग्री का अर्थ समझ कर उसे याद रख पाएंगे। छात्रों को लेखक की शैली का ज्ञान नहीं है तो पठन से सूचनाएं कम प्राप्त होगी।
