F-10

पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र

पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व पर प्रकाश डालें।
उत्तर―पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व-पर्यावरण के बिना जीवन सम्भव
ही नहीं है। इसलिए यह आवश्यक है कि मनुष्य को पर्यावरण के विषय में सम्पूर्ण जानकारी
हो। पर्यावरण शिक्षा ही मनुष्य को इस योग्य बना सकती है कि मनुष्य पर्यावरण के विभिन्न
कारणों से होने वाली समस्याओं से अवगत होकर उनका समाधान निकाल सके और पर्यावरण
संरक्षण में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सके । बढ़ती जनसंख्या एवं तकनीकी विकास के
कारण मनुष्य प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ कर चुका है कि प्रकृति की मूल प्रवृत्ति नष्ट
हो चुकी है। पर्यावरण की ओर संकेत करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा है-“इतिहास
उस बिन्दु तक पहुंच चुका है, जहाँ हमें पर्यावरण के प्रभावों के लिए अपने कार्यों को अधिक
बुद्धिमता एवं सावधानी से करना होगा और इसी पर्यावरण पर हमारा जीवन और समृद्धि निर्भर
है।” आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से सम्पूर्ण विश्व त्रस्त है। इस समस्या का समाधान
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से ही हो सकता है। पर्यावरण को समझना एवं इससे सम्बन्धित
ज्ञान को समस्त लोगों तक पहुँचाना, आज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। पर्यावरण संरक्षण
के लिए पर्यावरण शिक्षा की बहुत ही अधिक आवश्यकता है।
        पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता
है―
1. पर्याव जागरूकता उत्पन्न करने के लिए― राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में
पर्यावरण जागरूकता उत्पन्न किए जाने की सर्वोच्च आवश्यकता अनुभव की गई। इसके
अनुसार, “पर्यावरण जागरूकता उत्पन्न किए जाने की सर्वोच्च आवश्यकता है”। इसे बच्चों
से लेकर समाज के सभी आयु एवं सभी वर्गों में प्रवेश पाना चाहिए। पर्यावरण जागरूकता
स्कूल और कॉलेजों में शिक्षण का अंग होना चाहिए । यह पक्ष सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया में
समाकलित होगा । देश के सभी लोगों (शिक्षित/अशिक्षित, सभी स्तरों पर सभी आयु) में अपने
पर्यावरण व उससे सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता है।
       इसी सम्बन्ध में सन् 1981 में पर्यावरण शिक्षा पर आयोजित प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन
नयी दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था, “पर्यावरण शिक्षा को
सामाजिक जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए और समुदाय को इस तथ्य के प्रति जागरूक बनाना
चाहिए कि व्यक्ति और समुदाय दोनों के कल्याण को पारिस्थितिक विघटन से हानि होती है।”
2. पर्यावरणीय अभिज्ञान उत्पन्न करने के लिए― पर्यावरण अभिज्ञान का अर्थ है―
पर्यावरण के संवेदनशील/अर्द्धसंवेदनशील तत्वों का ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया । वास्तव में
यह सम्पूर्ण पर्यावरण के ज्ञान को प्राप्त करने की प्रक्रिया है, जैसे—प्राकृतिक आपदाएँ (बाढ़,
ज्वालामुखी, भूकम्प, चक्रवात आदि), पर्यावरण व उसके घटक, कार्बन चक्र, ऑक्सीजन चक्र,
नाइट्रोजन चक्र आदि के विषय में लोगों को ज्ञान एवं जानकारी उपलब्ध कराने हेतु पर्यावरण
शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है।
3. सन्तुलित औद्योगिक विकास के लिए― औद्योगिक इकाइयों की अंधाधुँध स्थापना
ने पर्यावरण में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न कर दी है। किसी भी राष्ट्र का औद्योगीकरण
उसकी आर्थिक स्थिति का आधार होता है। अत: एक संतुलित औद्योगिक विकास के लिए
पर्यावरण शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है।
4. जनसंख्या नियंत्रण के लिए―जनसंख्या-वृद्धि के कारण वनों का अंधाधुँध कटान
हो रहा है, जिसके कारण मृदा अपरदन भी हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक
प्रयोग हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ही नगरीकरण अधिक हो रहा है, जिसके कारण
प्राकृतिक, सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। इसलिए जनसंख्या वृद्धि को
दर को नियत्रित करने के लिए पर्यावरण शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
5. प्रदूषणों से अवगत कराने तथा उनसे पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए―
मानवीय क्रियाओं द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों (वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण,
प्लास्टिक-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण आदि) का विस्तार हो रहा है। जिन क्रियाओं से प्रदूषण फैल
रहे हैं और उन्हें समझने के लिए और प्रदूषण रोकने के क्या उपाय हैं? आदि प्रश्नों का हल
जानने और समझने के लिए पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता है।
6. संरक्षण प्रवृत्तियों को समझने के लिए― पर्यावरण संरक्षण को समझने के लिए
भी पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता होती है। जनसंख्या-वृद्धि, नगरीकरण, औद्योगीकरण, कृषि
में उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग रेडियोधर्मी पदार्थों का प्रयोग उपयोग आदि
पर्यावरण विरोधी क्रियाओं को नियंत्रित करके, वनों के संरक्षण, राष्ट्रीय उद्यानों, पार्को, पक्षी
बिहारों, प्राणी उद्यानों, ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों का उपयोग, उत्तम औद्योगिक विकास व
प्रयोग को प्रोत्साहित करके पर्यावरण संरक्षित किया जा सकता है और ऐसा करने के लिए
पर्यावरण शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
7. सहभागिता के लिए― पर्यावरण संरक्षण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो और उसे पर्यावरणीय समस्याओं का
पता हो और उसे यह भी ज्ञात होना चाहिए कि उन समस्याओं का क्या समाधान है? सरकार
द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए कौन-कौन से कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं? वह उनमें क्या
सहयोग कर सकता है? उसे अपने कर्तव्यों और दायित्वों का पता होना चाहिए और उनके
निर्वहन के लिए ईमानदारीपूर्वक प्रयत्न भी करना चाहिए। इस सबके लिए पर्यावरण शिक्षा
बहुत आवश्यक है।
8. सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करने के लिए― पर्यावरण शिक्षा के द्वारा ही
पर्यावरण के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण सकारात्मक बनाया जा सकता है―
(a) सकारात्मक दृष्टिकोण ही मनुष्य को अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाने योग्य
बनाता है।
(b) सकारात्मक दृष्टिकोण से मनुष्य में वैज्ञानिक चिन्तन व अभिवृत्ति का विकास होगा
और अन्धविश्वास से छुटकारा मिलेगा।
(c) सकारात्मक दृष्टिकोण से उनमें उदार मनोवृत्ति का विकास होगा। (जैसे—
जीव-जन्तुओं से प्रेम, दया व सहानुभूति बढ़ेगी और पेड़-पौधों के प्रति लगाव बढ़ेगा।
इन सबके लिए पर्यावरण शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
2. प्राकृतिक जीवन-यापन के लिए प्राकृतिक जीवन स्वस्थ जीवन होता है, जैसे―
पशु-पक्षो स्वस्थ रहते हैं, क्योंकि वे प्राकृतिक जीवन जीते हैं। मनुष्य सभी सुख-सुविधाओं
के साथ जीवन-यापन करता है। तकनीकी विकास के कारण उसने सभी भौतिक सुख-सुविधा
के साधन जुटा लिए हैं, जिनके कारण उनका विपरीत प्रभाव भी पड़ा है और मनुष्य के जीवन
बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है और वह तरह-तरह के रोगों से ग्रसित रहता है।
रूसो ने अपने प्रकृतिवाद में “प्रकृति की ओर लौटो” का नारा दिया। प्राकृतिक जीवन यापन
की प्रेरणा और उसका महत्त्व पर्यावरण शिक्षा द्वारा ही समझा जा सकता है।
10. वैज्ञानिक अनुसंधानों का ज्ञान आदान-प्रदान करने के लिए―पर्यावरण शिक्षा
वैज्ञानिक अनुसंधानों का ज्ञान प्रदान करती है, जिससे पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान आसानी
से निकाला जा सकता है।
               ‘स्टॉकहोम सम्मेलन’ में यह घोषणा की गई थी कि “वर्तमान और भावी पीढ़ियों के
लिए पर्यावरण की सुरक्षा एवं सुधार मानवता का अनिवार्य लक्ष्य हो गया है । इसलिए पर्यावरण
शिक्षा बच्चे, जवान, बूढ़े, धनी, निर्धन, साक्षर, निरक्षर, ग्रामीण, शहरी, किसान, औद्योगिक
श्रमिक, नगरीय संघातों, अधिकारियों, योगपतियों, व्यापारियों, इन्जीनियरों, डॉक्टरों, प्रबन्धकों,
प्रशासकों, राजनीतिज्ञों और विकास नियोजकों आदि सभी को दी जानी चाहिए। स्कूलों और
विश्वविद्यालयों में इसे अनिवार्य शिक्षा के रूप में दिया जाना चाहिए।”
       अतः उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि पर्यावरण शिक्षा लोगों को पर्यावरण की
सत्य एवं तथ्यात्मक जानकारी देती है। जानकारी के आधार पर सम्भावित कारणों का पता
लगाती है और उन संस्थाओं की जानकारी देती है जो भविष्य में घट सकती है और जनजीवन
की विपदाओं का कारण बन सकती है। पर्यावरण शिक्षा समस्याओं को खोजती है और समस्याओं
को समझकर उनका हल खोजने के लिए व्यक्तियों को तैयार करती है । पर्यावरण शिक्षा पर्यावरण
के संरक्षण, सुरक्षा व सुधार कार्यों में लग जाने हेतु प्रेरित करती है। यह भावी पीढ़ी के भविष्य
को समझकर कार्य करने की समझ देती है। “स्वयं भी सुख से जिएँ और दूसरे प्राणी भी
सुख से जिएँ” वाली भावना को आत्मसात करने को मनुष्यों को तैयार करती है।
      यह प्राकृतिक संसाधनों का उचित एवं बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करना सिखाती है । यह ऊर्जा
की बचत करना, वनों की सुरक्षा करना, उन्हें नष्ट होने से बचाना, प्रदूषणों को रोकना, स्वच्छ
पानी, स्वच्छ भोजन, हवादार आवास और स्वच्छ पर्यावरण उपलव्य कराती है।
       अत: अन्त में यह निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण शिक्षा आज की अनिवार्य आवश्यकता
है। हमें इसकी उपयोगिता को स्वीकार करना चाहिए और इसके संरक्षण में अपना योगदान
देना चाहिए, क्योंकि पर्यावरण शिक्षा गुणवत्तायुक्त पर्यावरण एवं गुणवत्तायुक्त जीवन देने वाली
शिक्षा है।
प्रश्न 2. पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर―पर्यावरण शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं―
1. सामाजिक भावनाओं का विकास―पर्यावरण शिक्षा के द्वारा छात्रों में सामाजिक
भावनाओं का विकास किया जा सकता है।
2. उत्तम नागरिकता का सिद्धान्त―पर्यावरण शिक्षा का एक आवश्यक उद्देश्य श्रेष्ठ
नागरिक तैयार करना है। उत्तम नागरिकता के विकास के लिए छात्रों में देश-प्रेम, अनुशासन,
सहयोग, सहनशीलता, स्पष्ट विचार आदि गुणों के साथ-साथ उनमें प्राकृतिक संसाधनों के
सही उपयोग तथा पर्यावरणीय समस्याओं को समझने एवं उनके समाधान के लिए तत्परता
के गुण का विकास करना भी आवश्यक है। छात्रों को पर्यावरण के महत्त्व को समझाकर
उनमें पर्यावरण अवबोध एवं पर्यावरण चेतना का विकास करना भी आवश्यक है। उत्तम नागरिक
वही है जो कोई कार्य करने से पूर्व यह विचार करे कि उसका कोई कृत्य पर्यावरण के लिए
हानिकारक तो नहीं है।
3. वातावरण से अनुकूलन―पर्यावरण शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को पर्यावरण के
साथ अनुकूलन स्थापित करने के लिए प्रशिक्षित करना है।
टॉमसन के अनुसार, “शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य छात्र को उसके पर्यावरण के
अनुकूल बनाना है ताकि वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों को नियंत्रित रखने
के लिए अधिक-से-अधिक सम्भावित अवसर प्राप्त कर सके।” उत्तम नागरिक वही है जो
पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए उसमें रहकर सुखी जीवन व्यतीत कर सके।
पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के सम्बन्ध को समझना–पर्यावरण और स्वास्थ्य का घनिष्ट
सम्बन्ध है। स्वच्छ तथा शुद्ध पर्यावरण में मनुष्य स्वस्थ रहता है। पर्यावरण प्रदूषण अनेक
रोगों को जन्म देता है। उदाहरण के लिए अशुद्ध जल पीने से प्रतिवर्ष कितने ही लोग अपने
शोधन को समाप्त कर देते हैं। पर्यावरण शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को उनके स्वास्थ्य पर
पर्यावरण के पड़ने वाले कुप्रभावों का ज्ञान कराना है।
5. जनसंख्या वृद्धि का पर्यावरण पर प्रभाव का ज्ञान करवाना―पर्यावरण शिक्षा का
एक उद्देश्य जनसंख्या वृद्धि का पर्यावरण की गुणवत्ता पर कुप्रभाव से अवगत करवाना है।
भारत में सन् 1951 में कुल जनसंख्या 36 करोड़ 11 लाख थी जो 2011 में बढ़कर एक
अरब 21 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। जनसंख्या वृद्धि का दबाव प्राकृतिक संसाधनों पर
पड़ता है। प्राकृतिक संसाधनों के अधिक दोहन से पारिस्थितिक संकष्ट बढ़ता है । इस प्रकार
अप्रत्यक्ष रूप में छात्रों को जनसंख्या नियंत्रण का पाठ सिखाया जा सकता है। इस तथ्य को
रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है
ph
                चित्र: जनसंख्या पर्यावरण-पारिस्थितिक संकट
6. पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रेरित करना―पर्यावरण का संरक्षण मानव तथा समाज दोनों
के लिए आवश्यक है। पर्यावरण शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रेरित
करना है। पर्यावरण संरक्षण की तकनीक एवं उपायों का ज्ञान कराना आवश्यक है।
7. पर्यावरण के घटकों का ज्ञान प्रदान करना―पर्यावरणीय शिक्षा द्वारा प्राकृतिक
पर्यावरण के घटकों का ज्ञान छात्रों को करवाना चाहिए। ये घटक हो समष्टि रूप में पर्यावरण
की रचना करते हैं। यह जान करवाना आवश्यक है कि किसी एक घटक के निरूपण से
सम्पूर्ण पर्यावरण प्रभावित होता है। पर्यावरण के जैविक और अजैविक संघटक होते हैं। इनकी
पूर्ण जानकारी छात्रों को करवानी चाहिए ।
8.जनतांत्रिक कुशलता का विकास―पर्यावरण को सुधारने का ध्येय प्रत्येक नागरिक
के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। पर्यावरण शिक्षा द्वारा यह भावना पैदा कर हम बालक को
कुशल जनतांत्रिक नागरिक बना सकते हैं।
9.पर्यावरण से सम्बन्धित कौशलों का विकास करना―पर्यावरण प्रदूषण रोकने के
कौशल में छात्रों को पारंगत करना पर्यावरण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। खाद्य पदार्थों
में मिलावट की जाँच करने की तकनीक छात्रों को सिखाना आवश्यक है।
10. राष्ट्रीय धरोहर के प्रति निष्ठा―उनकी सुरक्षा एवं सम्मान की भावना का विकास
करना भी इस शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।
11. पर्यावरण के सम्बन्ध में भावना, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का छात्रों में विकास
करना भी पर्यावरणीय शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।
        यूनेस्को के अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन, तिबल्सी (1977) में पर्यावरण शिक्षा के
निम्नलिखित उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है:
1. पर्यावरण की संचेतना का विकास तथा पर्यावरण की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता
विकसित करना।
2. पर्यावरण के घटकों एवं समस्याओं के सम्बन्ध में ज्ञान तथा अनुभव प्रदान करना।
3. पर्यावरण की समस्याओं के स्वरूप, प्रक्रियाओं का बोध कराना तथा पर्यावरण के घटको
की पारस्परिक निर्भरता का बोध कराना।
4. पर्यावरण की समस्याओं के समाधान हेतु अपेक्षित कौशल तथा कार्यक्षमताओं की
विकास करना।
5. पर्यावरण के सम्बन्ध में भावना, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का विकास करना तथा सक्रिय
भाग लेने हेतु अभिप्रेरित करना, जिससे पर्यावरण का संरक्षण तथा सुधार हो सके
6. छात्रों को व्यावहारिक कार्यों हेतु अवसर प्रदान करपा । सभी स्तरों पर सक्रिय भागीदारी
को बढ़ावा देना, जिससे समस्याओं का समाधान किया जा सके।
7. शिक्षा की योजनाओं तथा कार्यक्रमों के मूल्यांकन की योग्यता का विकास करना।
8. परिस्थिति विज्ञान, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा सौन्दर्यानुभूति के कारकों को
प्रभावशीलता का आकलन करना।
प्रश्न 3. पर्यावरण शिक्षा की प्रमुख परिभाषाओं को स्पष्ट करते हुए पर्यावरण शिक्षा
की प्रकृति पर प्रकाश डालें।
उत्तर―पर्यावरण-शिक्षा के अर्थ और संप्रत्यय को स्पष्ट करने वाली कुछ मुख्य परिभाषाएँ
निम्नलिखित हैं:
1. संयुक्त राज्य अमेरिका पर्यावरण-शिक्षा अधिनियम (1970) के
अनुसार–“पर्यावरणीय शिक्षा का अर्थ उस शैक्षिक प्रक्रिया से है जो मानव के प्राकृतिक
तथा मानव निर्मित वातावरण से सम्बन्धित है। इसमें जनसंख्या, प्रदूषण, संसाधनों का विनियोजन
एवं निःशेषण, संरक्षण, यातायात, प्रौद्योगिकी के सम्बन्ध तथा सम्पूर्ण मानवीय पर्यावरण के
शहरी तथा ग्रामीण नियोजन का सम्बन्ध भी निहित हैं।”
2. यूनेस्को (1970) कार्य समिति के अनुसार―“पर्यावरण-शिक्षण वह प्रक्रिया है,
जिसके अन्तर्गत मनुष्य तथा उसके पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध तथा निर्भरता को समझने
का प्रयास किया जाता है और उसको स्पष्ट करने हेतु कौशल, अभिवृत्ति एवं मूल्यों का विकास
करते हैं। यह निर्णय लिया जाता है कि क्या किया जाय जिससे पर्यावरण की समस्याओं का
समाधान किया जा सके और पर्यावरण में गुणवत्ता लाई जा सके।”
3. यूनेस्को के लिए जामी (फिनलैण्ड) में आयोजित फिनिश नेशनल कमीशन की
संगोष्ठी (1976) के अनुसार―“पर्यावरण-शिक्षा, पर्यावरणीय संरक्षण के लक्ष्यों को लागू
करने का एक ढंग है। यह विज्ञान की एक पृथक् शाखा या कोई पृथक् अध्ययन विषय नहीं
है। इसको जीवन-पर्यन्त एकीकृत शिक्षा के सिद्धान्तों के रूप में लागू किया जाना चाहिए।”
    उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि पर्यावरण-शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने
वाली एकीकृत शिक्षा का ही रूप है। वास्तव में, पर्यावरण-शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा
मनुष्य में पर्यावरण के प्रति जागरूकता, ज्ञान, कौशल तथा मूल्यों को विकसित किया जाता
है, जिससे पर्यावरण का सुधार किया जा सके । पर्यावरण-शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों को प्रशिक्षित
करके तैयार किया जाता है, जिससे वे पर्यावरण सम्बन्धी भौतिक, सामाजिक, “आर्थिक,
गजनैतिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं को समझ सके।
पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति―पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति को निम्नलिखित बिंदुओं की
सहायता से दर्शाया जा सकता है―
    1.सकारात्मक उपागम की प्रकृति―पर्यावरण के प्रति लोगों का दृष्टिकोण सकारात्मक
बनाना, उनकी अभिवृत्ति में धनात्मक परिवर्तन करना पर्यावरण शिक्षा के मुख्य उद्देश्य में से
एक है, अत: पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति लोगों को पर्यावरण के प्रति और उसकी समस्याओं
तथा संरक्षण के प्रति प्रेरित करने का सकारात्मक उपागम भी है।
2. अन्तःअनुशासनात्मकता की प्रकृति-पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति अन्त:अनुशासन
अन्त:विषयक की है क्योंकि यह एक अलग विषय न होकर एक समन्वित विषय है। जैस
यह भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, इतिहास, भूगोल,
राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, सैन्य-विज्ञान, कृषि-विज्ञान, भूगर्भ-विज्ञान, खगोल विज्ञान
आदि अनेक विषयों को अपने में समेटे हुए हैं।
3. सामाजिक प्रक्रिया की प्रकृति―पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति एक सामाजिक प्रक्रिया
की है, क्योंकि यह समाज के सभी वर्गों (अमीर, गरीब), सभी आयु के (बच्चे, जवान और
वृद्धों) एवं सभी स्तर के लोगों (निम्न स्तर, मध्यम स्तर, उच्च स्तर) के लिए, शिक्षितों
अशक्षितों, सभी क्षेत्रों (ग्रामीण, शहरी) के लोगों के लिए होती है। पर्यावरण शिक्षा सामान्य
शिक्षा की तरह औपचारिक एवं अनौपचारिक विधियो/ तरीकों से दी जाने वाली शिक्षा है।
4. गत्यात्मक प्रकृति―पर्यावरण शिक्षा गत्यात्मक प्रकृति की शिक्षा है, क्योंकि प्राचीन
समय से वर्तमान तक आवश्यकतानुसार यह परिवर्तनशील रही है। समय-समय पर इसमें
परिवर्तन होते रहे हैं। अलग-अलग समय एवं परिस्थितियों में पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने
का स्वरूप इस समय की आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं उद्देश्यों के अनुसार रहा है। इसलिए
पर्यावरण शिक्षा को गत्यात्मक प्रक्रिया कहा गया है।
5.विश्वव्यापी प्रकृति―पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति विश्वव्यापी है, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व
का पर्यावरण से गहन सम्बन्ध है और पर्यावरण की समस्या विश्व स्तर पर है। विश्व के
सभी देश बदलते पर्यावरण की समस्याओं से ग्रसित हैं और सभी मिलकर उनका समाधान
करने की कोशिश में लगे हैं। इनके लिए सभी देश औपचारिक एवं अनौपचारिक तरीकों
से पर्यावरण शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दे रहे हैं।
6. स्थानीय समस्याओं से जुड़ी हुई प्रकृति—पर्यावरण शिक्षा स्थानीय क्षेत्रों की समस्याओं
से जुड़ी होती है। स्थानीय स्तर से प्रारम्भ होकर इसका व्यापक विस्तार विश्व स्तर तक पहुँच
जाता है। स्थानीय स्तर क्षेत्रीय स्तर-राष्ट्रीय स्तर- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर-विश्व स्तर ।
7. समस्यात्मक प्रकृति― पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति समस्यामूलक है, क्योंकि यह दैनिक
जीवन में पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं व उनके निवारण हेतु उपायों की जानकारी उपलब्ध
कराती है। इसलिए पर्यावरण शिक्षा में उन तरीकों एवं कुशलताओं पर अधिक बल देती है,
जो समस्याओं से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर खोजने में सहायक होती है।
8. विश्वबन्धुत्व की प्रकृति― पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति विश्वबन्धुत्व की प्रेरणा देने
वाली है। विश्व के सभी मनुष्यों में अपने-अपने पर्यावरण के प्रति संवेदना, सभी पेड़-पौधों
एवं जन्तुओं के प्रति दया, प्रेम, सहानुभूति, सहिष्णुता, आपस में सहयोग आदि की भावना
को विकसित करती है।
9.मूल्यों का उच्चीकरण करने की प्रकृति―पर्यावरण प्रकृति विश्वस्तर पर सहयोग
एवं सहभागिता जैसे–मूल्यों का विकास कर उनका उच्चीकरण करने की है।
प्रश्न 4. पर्यावरण अध्ययन अनेक विषयों का एकीकृत रूप है, इसकी व्याख्या
कीजिए।
      अथवा, पर्यावरण अध्ययन का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
      अथवा, पर्यावरण अध्ययन के एकीकृत रूप से आप क्या समझते हैं ? प्राथमिक
स्तर के पाठ्यक्रम में इसे किस रूप में वर्णित किया गया है?
उत्तर―पर्यावरण अध्ययन को विज्ञान व सामाजिक विज्ञान के आधार के रूप में देखा
गया। इस दौरान इसके पाठ्यक्रम में आगे आने वाले वर्षों/कक्षाओं की विषयवस्तु व
अवधारणाओं की आधारभूत समझ को बनाने का उद्देश्य प्रस्तावित था। इस पाट्यक्रम या इसके
आधार पर बनी पाठ्यपुस्तकों की ये अपेक्षाएँ थी कि वे आगे आने वाली कक्षाओं की सामाजिक
विज्ञान व विज्ञान से संबंधित अवधारणाओं को सरलीकृत रूप में प्राथमिक कक्षाओं में प्रस्तुत
करें ताकि बच्चे आगे जाकर इनकी गहरी समझ बना पाएँ । यदि आप पुरानी पाठ्यपुस्तके
उठाकर देखें तो उनमें इस तरह के कई उदाहरण आपको मिल जाएँगे।
     विभिन्न शोधों से यह बात सामने आई कि इन अवधारणाओं को समझने के लिए प्राथमिक
कक्षाओं के बच्चे संज्ञानात्मक स्तर पर तैयार नहीं होते हैं। साथ ही केवल परिभाषाएँ या
नामों को जिक्र कर देने से उस अवधारणा की समझ वन आए ऐसा सम्भव नहीं है। ऐसा
करने से बच्चे उन नामों को जो जानते हैं, पर उनसे जुड़ी अवधारणा को समझ नहीं पाते
हैं। यह तरीका बच्चों के लिए बहुत अधिक लाभदायक सिद्ध नहीं हो पाया ।
      पर्यावरण अध्ययन को घटकों में बाँटकर देखने की अप्रोच को दरकिनार कर एकीकृत
स्वरूप को अपनाने का आधार ‘बाल केन्द्रित दृष्टिकोण’ है अर्थात् पर्यावरण अध्ययन को
विज्ञान व सामाजिक विज्ञान में बाँटकर देखने का नजरिया विषय विशेषज्ञों की सोच से प्रभावित
है। यदि हम बच्चों के दुनिया को देखने के नजरिए की बात करें तो वह बिल्कुल अलग
है। हम पाते हैं कि वे अपने आस-पास की दुनिया को समग्र रूप में देखते है न कि विषयों
की सीमाओं में तोड़ तोड़कर चीजों को समझने का प्रयास करते हैं।
     वर्तमान में NCF-2005 की सोच से प्रभावित होकर प्राथमिक स्कूलों की पाठ्यचर्या में
‘पर्यावरण अध्ययन’ के एकीकृत स्वरूप को अपनाया गया है। अतः इनमें अवधारणाओं के
नामों की सूची की बजाय प्रकरण को प्राथमिकता दी गई है, जैसे कि यात्रा, आवास, भोजन,
परिवार एवं मित्र आदि । प्रकरण एक समग्र समझ को बढ़ावा देने की दिशा में उठाया गया
कदम है। इसके अन्तर्गत विषयों की पारम्परिक सीमाओं को नजरअंदाज कर साझे रूप में
बच्चे के प्राथमिकताओं को तय किया जाता है।
            BCF-2008 ने भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। इसके मार्गदर्शन में बनी
पाठ्यपुस्तकों (पर्यावरण अध्ययन) में इस सोच का बखूबी क्रियान्वयन देखने को मिलता है।
इस प्रयास में विभिन्न विषयों से जुड़ी ‘छ:’ थीमों को चुना गया तथा इन्हें बाल केन्द्रित एवं
समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इस प्रयास मे अवधारणात्मक समझ
के विकास के साथ विभिन्न प्रकार के मूलभूत कौशलों व मूल्यों को भी समावेशित किया
गया है। थीम से जुड़े बच्चों के पूर्वज्ञान को कक्षा-कक्ष की प्रक्रिया में पूरा स्थान मिले, इसका
भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है।
           यह बात भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि बच्चों के परिवेश को ‘थीम’ में बाँटे
जाने का उद्देश्य केवल पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया सुलभता के लिए है । अतः जब आप अगली
इकाइयों में पाठ्यपुस्तक पर काम करेंगे तो आप पाएंगे कि कई ‘थीम’ आपस में जुड़े हुए
हैं। इनके बीच के जुड़ाव को समझना भी ‘एकीकृत स्वरूप’ का एक उद्देश्य है ।
     उदाहरणार्थ यदि हम आस-पास के जीव-जंतुओं के बारे में जानकारी एकत्रित करने की
बात करें तो इसका एक हिस्सा ‘आवास’ थीम से जुड़ा है तो वहीं उनके भोजन संबंधी आदतें
व भोजन में काम आने वाले अंग आदि भोजन’ थीम के अन्तर्गत आते हैं। इसी तरह यदि
हम पालतू जानवरों की बात करें तो वह परिवार और मित्र थीम का हिस्सा बन जाता है।
          पर्यावरण अध्ययन का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध :
1. भूगोल एवं पर्यावरण अध्ययन―भूगोल और पर्यावरण का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध
है। एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। भूगोल की मुख्य विषय-वस्तु मानव और पर्यावरण के बीच
सम्बन्ध का अध्ययन ही है। भूगोल में पर्यावरण की पारिस्थितिका व्याख्या तथा किसी प्रदेश
में पर्यावरण तत्वों और मानव वर्ग के बीच जैविक सम्बन्धों आर्थिक सम्बन्धों और
सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों को समझने और उनका मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया जाता
है। पर्यावरण में भूगोल के महत्त्व के कारण भूगोल की एक नई शाखा का जन्म हुआ है
जिसे पर्यावरण भूगोल कहते हैं।
2. अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन-अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन भी
अन्तर्सम्बन्धित हैं। कई आर्थिक क्रियाओं का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विकास
को अंधी दौड़ में पर्यावरण को नजरन्दाज करते हुए आर्थिक क्रियाएँ सम्पन्न की जा रही हैं।
प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुध तथा अनियोजित शोषण किया गया है, इससे पर्यावरण अवनयन
हुआ है। अत: पर्यावरण व आर्थिक क्रियाओं में सन्तुलन होना बहुत आवश्यक है। इसी कारण
अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।
3. राजनीति विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन–राजनीति विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन
दोनों अन्तर्सम्बन्धित विषय हैं। पर्यावरण को अनेक संघटक जैसे प्राकृतिक दशा, संसाधन,
मिट्टी को उर्वरता, जनसंख्या, समुद्रतटीय स्थिति, किसी राष्ट्र के राजनीतिक ढाँचे, सरकार
के स्वरूप, अन्य देशों से सम्बन्ध को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करते हैं। वर्तमान
में तो विश्वव्यापी स्तर पर पर्यावरण को राजनीति होने लगी है। पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय
समझौते होने लगे हैं और कई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ पर्यावरणीय की दिशा में कार्य कर रही
हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अनेक राजनीतिक संगठन पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभा रहे हैं। किसी देश की राष्ट्रीय सरकार की नीतियों पर ही राष्ट्र के पर्यावरण
का उन्नयन या अवनयन निर्भर करता है। इस तरह राजनीति विज्ञान में पर्यावरण अध्ययन
से सम्बन्धित है।
4. समाजशास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन― समाजशास्त्र मानव की सामाजिक एवं
सांस्कृतिक संस्थाओं एवं समस्याओं का अध्ययन करता है। पर्यावरण अध्ययन में पारिस्थितिकी
एवं मानव सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। आज सामाजिक एवं नैतिक मूल्य बदल
रहे हैं। पुराने समाज में ऐसी कई परम्पराएँ थीं जो प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण को
कोई नुकासान न पहुँचाने के लिए उत्प्रेरित करती रहती थीं। किन्तु आज सामाजिक परिवर्तनों
के कारण प्राचीन मूल्यों में गिरावट के फलस्वरूप पर्यावरण अवनयन हो रहा है । जहाँ पहले
वृक्ष काटना पाप था, नदियों एवं पर्वतों की पूजा की जाती थी, वहाँ आज वृक्षों को अंधाधुंध
कटाई की जा रही है, नदियों में अपशिष्ट बहाये जा रहे हैं, उन्हें प्रदूषित किया जा रहा है,
पर्वतों को तोड़ा जा रहा है। इन सबके कारण प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी होती जा रही
है। पर्यावरण संतुलित रहता है तो समाज का भी विकास होता है।
5. इतिहास एवं पर्यावरण अध्ययन― इतिहास के विविध पक्ष भी पर्यावरण से सम्बन्धित
हैं तथा पर्यावरण का भी इतिहास होता है। आज तक अनेक सभ्यताओं का उत्थान-पतन
हुआ है। इनके उत्थान एवं पतन में पर्यावरण की भी भूमिका होती है। पर्यावरणीय या असन्तुलन
के कारण अनेक प्राचीन सभ्यताएँ समाप्त हो गई हैं।
6. विधि एवं पर्यावरण अध्ययन― विधि अथवा कानून का भी पर्यावरण अध्ययन से
घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्तमान में अनेक नियम-अधिनियम बनाए गए
हैं। इन सबके निर्माण एवं अनुपालन हेतु विधि की जानकारी होना जरूरी है।
7. अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध―मृदा विज्ञान, कृषि विज्ञान, अभियांत्रिकी आदि से भी
पर्यावरण अध्ययन का सम्बन्ध है।
      अत: इस तरह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पर्यावरण अध्ययन की प्रकृति बहुविषयी
है। यह अनेक विषयों से अन्तर्सम्बन्धित है।
8. वनस्पति शास्त्र और पर्यावरण अध्ययन-वनस्पति शास्त्र तथा पर्यावरण एक-दूसरे
से अन्तर्सम्बन्धित हैं। पर्यावरण ही वनस्पति जगत् का आधार है। पर्यावरण के तत्त्वों जल,
वायु, मृदा, तापमान, वर्षा आदि के समानुकूलन से ही वनस्पति जगत् अस्तित्व में आता है।
पर्यावरण अध्ययन में वनस्पति की पर्यावरण के साथ अनुकूलता का अध्ययन किया जाता
है। पर्यावरण में वनस्पति की भूमिका को समझाते हुए यह जानने का प्रयास किया जाता
है कि वनस्पति किस तरह पर्यावरण अवनयन के सुधार में सहयोग कर सकती है। इस तरह
वनस्पति शास्त्र की जानकारी के बगैर पर्यावरण अध्ययन अधूरा एवं एकांगी है।
9. प्राणीशास्त्र और पर्यावरण अध्ययन–प्राणीशास्त्र पर्यावरण अध्ययन में बहुत ज्यादा
सहायक है। यह पर्यावरण अध्ययन का एक प्रमुख पक्ष है। प्राणीशास्त्र में जीव-जन्तुओं के
प्रकार, उनकी विविध प्रजातियों का विकास, उनकी शारीरिक संरचना, जीवों का पोषण, जीवों
की कार्य-प्रणाली वितरण, स्थानान्तरण आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। पर्यावरण अध्ययन में
जैविक घटकों का विशेष महत्त्व है। जैविक घटक में प्राणी मुख्य हैं। पारिस्थितिक तंत्र में
प्राणियों के परस्पर अन्तर्सम्बन्ध का सही.अवबोध प्राणी विज्ञान की सहायात से ही होता है।
10. रसायन विज्ञान और पर्यावरण अध्ययन― रसायन विज्ञान पर्यावरण अध्ययन का
आधार है। वायु, जल, मृदा की संरचना, विविध प्रकार की गैसों, वर्षा जल के प्रभावों,
पारिस्थतिक तंत्र में चलने वाले विविध चक्रों को रसायन विज्ञानं की मदद से समझा जा सकता
है। पर्यावरण अध्ययन में विविध प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रसायन विज्ञान के बगैर समझना
मुश्किल है। जल प्रदूषित, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण का वनस्पति तथा प्राणियों पर प्रभाव
रसायन विज्ञान के अध्ययन से ही जाना जा सकता है।
11. भौतिक शास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन–पर्यावरण के कई कारक; जैसे–ताप,
प्रकाश, रेडियोधर्मी, ध्वनि आदि का अध्ययन भौतिक शास्त्र में किया जाता है। तापीय,
रेडियोधर्मी, ध्वनि प्रदूषण आदि को कम करने के लिए पर्यावरणीय शोध आदि भौतिक शास्त्र
में ही किये जाते हैं।
12. मौसम शास्त्र एवं पर्यावरण अध्ययन–मौसम सम्बन्धी कारक पर्यावरण को बहुत
प्रभावित करते हैं। तापमान, दाब, वायु, वर्धा, हिमताप, ओलावृष्टि, पाला पड़ना, कोहरा आदि
के अध्ययन के लिए मौसम विज्ञान का अध्ययन किया जाता है।
13. भूगर्भ विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन―भूगर्भ विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन में
घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूगर्भ में होने वाले परिवर्तन जैव मण्डल के पर्यावरण को प्रभावित करते
हैं। भूगर्भ में अनेक प्रकार की चट्टानें एवं खनिज पाये जाते हैं। आन्तरिक शक्तियों तथा
बाह्य शक्तियाँ इन चट्टानों में विखण्डन करके जैव-भूरसायन चक्र को शुरू करने में सहयोग
देती है। अतः पर्यावरण अध्ययन में भूगर्भ विज्ञान का भी अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 5.NCF 2005 व BCF-2008 में यह कहा गया है कि पर्यावरण अध्ययन
को प्राकृतिक व सामाजिक घटकों में अलग-अलग न बाँटकर एकीकृत रूप में ही
पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तुत किया जाए । अपने विद्यालय की किसी कक्षा के पाठ्यपुस्तक
का विश्लेषण करते हुए इसकी पुष्टि कीजिए।
अथवा, पर्यावरण अध्ययन के एकीकृत स्वरूप में प्रकरण को क्यों प्राथमिकता
दी गई है?
     अथवा, बताइए कि पर्यावरण शिक्षक को थीम-प्रकरण की जानकारी क्यों
आवश्यक है?
उत्तर―”प्राथमिक अवस्था में बच्चे की व्यस्तता अपने चारों ओर की दुनिया की नयी-नयी
चीजें खोजने का आनंद उठाने और उनके साथ-साथ सामंजस्य बैठाने में होनी चाहिए। इस
अवस्था में उद्देश्य यह होना चाहिए कि बच्चे में चारों ओर की दुनिया के प्रति जिज्ञासा को
पोषण मिले (प्राकृतिक पर्यावरण, चीजों व लोगों के प्रति), बच्चे को ऐसी गतिविधियों में
व्यस्त रखना ताकि वह सूक्ष्म अवलोकन, वर्गीकरण व स्वयं करने वाली गतिविधियाँ इत्यादि
से मूल ज्ञानात्मक कौशल हासिल कर सके, डिजाइन व निर्माण, अनुमान व मापन पर जोर
देना ताकि वह बाद के स्तरों पर तकनीकी एवं संख्यात्मक कौशल प्राप्त कर सके, और मूल
भाषिक दक्षता विकसित करना, जैसे बोलना, पढ़ना और लिखना केवल विज्ञान के लिए नहीं
बल्कि विज्ञान के माध्यम से भी होना चाहिए। विज्ञान व सामाजिक विज्ञान को ‘पर्यावरण
अध्ययन’ में समाहित करना चाहिए जिसमें स्वास्थ्य भी एक महत्त्वपूर्ण अंग हो।”
       “पर्यावरण अध्ययन के पाठ्यपुस्तक की शुरूआत कक्षा 3 से होती है। इसके पाठों में
घर से शुरू करके पड़ोस तथा विद्यालय तक को शामिल करना चाहिए । ‘घर’ की व्याख्या
ऐसी होनी चाहिए कि उसमें वहाँ घर बनाने वाले अन्य अनेक पशुओं तथा कीड़ों का भी
उल्लेख होना चाहिए, जैसे कोई पकड़ने के लिए जाला लगाने वाली मकड़ी अथवा बगीचे
या आसपास के पेड़ों पर घोसले बनाने वाली गौरैया। बच्चों को यह महसूस करना चाहिए
कि धरती जिस प्रकार हमारा पर है उसी प्रकार अन्य जीवों का यहाँ तक कि पेड़-पौधों का
भी घर है। परीक्षण, संरक्षण तथा सामंजस्यपूर्वक जीवनयापन ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें प्राकृतिक
विज्ञानों में शामिल किया जाना आवश्यक है। विद्यार्थियों को प्राकृतिक पर्यावरण का परीक्षण
ही नहीं, स्मारकों एवं ऐतिहासिक स्थलों जैसी ऐतिहासिक विरासतों का परीक्षण तथा समादर
भी सीखना चाहिए । इतिहास के पाठों को ऐतिहासिक महत्व की स्थानीय घटनाओं पर संकेंद्रित
होना चाहिए। राज्य की नदियों-जलस्रोतों, पशु-पक्षियों की प्रवास गतिविधियों, आहर-पइनों
(पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों) तथा जलस्रोतों के प्रदूषण के सवाल पर अधिक जोर देना
आवश्यक है। मानव सभ्यता के विकास में नदियों के महत्व को नदी पारिस्थितिकी तंत्र को
भी पर्यावरण अध्ययन में शामिल किया जा सकता है। पारस्परिक नृत्यों, मेलों, पर्व-त्योहारों,
भोजन संबधी आदतों तथा पर्यावरण के साथ उनका संबंध अधिगम की आनंददायी के साथ-साथ
सार्थक भी बनाएगा।” ..
          NCF-2005 व BCE-2008 के अलग-अलग हिस्सों से उद्धरित उपर्युक्त अंशों का
विश्लेषण करने पर पर्यावरण अध्ययन की अवधारणा व इसके शिक्षणशास्त्र से संबंधित कई
महत्वपूर्ण पहलू उजागर होते हैं―
• बच्चे अपने परिवेश (प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक) से निरंतर अंत:क्रिया करते
रहते हैं/व इसी प्रक्रिया से वे अपने ज्ञान का निर्माण करते हैं।
• स्कूल में बच्चों के इन अनुभवों को स्थान देने से उनके व स्कूल के बीच के जुड़ाव
को मजबूत बनाने में मदद मिल सकती है।
• कक्षा-कक्ष की प्रक्रिया में बाहरी दुनिया से जुड़ास के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होने
चाहिए, जिससे पर्यावरण अध्ययन विषय को सार्थकता स्थापित की जा सकती है।
• बच्चे स्वभाव से जिज्ञासु व ज्ञान निर्माण करने की क्षमता रखते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति
का उपयोग सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में करना चाहिए।
• पर्यावरण अध्ययन की कक्षा में बच्चो को अवलोकन, वर्गीकरण, तुलना, मापन व
हाथ से की जाने वाली गतिविधियों में व्यस्त रखा जाना चाहिए ताकि उनके संज्ञानात्मक
कौशलों का विकास हो सके ।
• उन्हें स्वयं के आस-पास के परिवेश को समझने के पर्याप्त अवसर तो उपलव्य हाँ
ही साथ में उससे भी व्यापक दुनिया के सदर हिस्सों के प्रति भी उनका रुझान विकसित
किया जाए।
• पर्यावरण अध्ययन को प्राकृतिक व सामाजिक घटकों में अलग-अलग न बांटकर
एकीकृत रूप में ही पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तुत किया जाए।
वर्तमान में NCF-2005 की सोच से प्रभावित होकर प्राथमिक स्कूलों को पाठ्यचर्या में
पर्यावरण अध्ययन के एकीकृत स्वरूप को अपनाया गया है। अत: इनमें अवधारणाओं के
नामों की सूची की बजाय प्रकरण को प्राथमिकता दी गई है, जैसे कि यात्रा, आवास, भोजन,
परिवार एवं मित्र आदि । प्रकरण एक समग्र समझ को बढ़ावा देने की दिशा में उठाया गया
कदम है। इसके अन्तर्गत विषयों की पारम्परिक सीमाओं को नजर अंदाज कर साझे रूप में
बच्चे के लिए प्राथमिकताओं को तय किया जाता है।
               BCF-2008 ने भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। इसके मार्गदर्शन में बनी
पाठ्यपुस्तकों (पर्यावरण अध्ययन) में इस सोच का बखूबी क्रियान्वयन देखने को मिलता है।
इस प्रयास में विभिन्न विषयों से जुड़ी ‘छ:’ थीमों को चुना गया तथा इन्हें बाल केन्द्रित एवं
समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में अवधारणात्मक समझ के
विकास के साथ विभिन्न प्रकार के मूलभूत कौशलों व मूल्यों को भी समावेशित किया गया
है। थीम से जुड़े बच्चों के पूर्वज्ञान को कक्षा-कक्ष की प्रक्रिया में पूरा स्थान मिले, इसका
भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है।
         यह बात भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि बच्चों के परिवेश को ‘थीम’ में बाँटे
जाने का उद्देश्य केवल पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया को सुलभता के लिए है। अत: जब आप
अगली इकाइयों में पाठ्यपुस्तक पर काम करेंगे तो आप पाएंगे कि कई ‘थीम’ आपस में जुड़े
हुए हैं। इनके बीच के जुड़ाव को समझना भी ‘एकीकृत स्वरूप’ का एक उद्देश्य है।
      उदाहरणार्थ यदि हम आस-पास के जीव-जंतुओं के बारे में जानकारी एकत्रित करने की
बात करें तो इसका एक हिस्सा “आवास” थीम से जुड़ा है तो वहीं उनके भोजन संबंधी
आदतें व भोजन में काम आने वाले अंग आदि भोजन’ थीम के अन्तर्गत आते हैं। इसी तरह
यदि हम पालतू जानवरों की बात करें तो व परिवार और मित्र थीम का हिस्सा बन जाता
है।
      एन.सी.ई.आर.टी ने प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण अध्ययन को एकीकृत रूप देते हुए थीम
पर आधारित पाठ्यक्रम विकसित किया है। बिहार के इस विषयक पाठ्यक्रम को राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या-2005 और तदुनूकूल विकसित पाठ्यक्रम के अनुरूप ही थीम आधारित रखा गया
है। यह पूरी तरह स्थानीय परिवेश व प्राथमिक पर्यावरण पर आधारित है ताकि बच्चों का
सीखना अनुभव आधारित हो सके। यह शिक्षा के ‘बाल केन्द्रित और समन्वित उपागम’ एक
चीनी कहावत ‘मैं करता हूँ, मैं समझता हूँ’ और ‘करके सीखना’ जैसे शिक्षा शास्त्रीय विचारों
से प्रेरित है।
    अन्ततः पर्यावरण शिक्षक को भी थीम की जानकारी रखना अति आवश्यक है।
प्रश्न 6. विद्यालय आने से पहले बच्चे क्या-क्या जानते हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा, ‘बच्चे सिर्फ विद्यालय में ही सीखते हैं। इस कथन से आप सहमति और
असहमति प्रकट करते हुए तर्कपूर्ण विवेचना करें।
उत्तर–बच्चे पहली बार विद्यालय आते हैं तो वे कोई खाली पड़े या सादे कागज नहीं
होते हैं, वरन् उनके पास अपनी समझ, ज्ञान और अनुभवों की दुनिया होती है, जिसे वे अपने
परिवंश से, अपनी जिज्ञासा के द्वारा गढ़ते हैं। एक जिज्ञासा दूसरी नई जिज्ञासाओं को जन्म
देती है। इस प्रकार नया ज्ञान. नई खोज एवं नये अन्वेषण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती
है। हम शिक्षकों का दायित्व होता है कि इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाएँ। इस संग्रह में बच्चों
को अपने घर-परिवार, खेल-कूद, खान-पान, सुख-दुःख आस-पास में घटित होने वाली
सामाजिक एवं प्राकृतिक घटनाएँ-धूप, गर्मी, बरसात, ठंडा आदि के बारे में अपनी व्याख्या
एवं अवधारणाएँ होती हैं।
          बच्चों के परिवेश में तमाम लोकगीत, पर्व-त्योहार, कथा-कहानी बिखरे होते है। उनके
बारे में वे जानते हैं और मौका मिलने पर उनका उपयोग भी करते हैं।
       बच्चे अपने को परिवेश से जोड़कर जाने-अनजाने अपने ज्ञान का सृजन स्वयं करते हैं।
और सीखाने की दिशा में अग्रसर होते हैं। प्रस्तुत इकाई में हम लोग बच्चों के इस ‘परिवेश’
को समझने की कोशिश करेंगे, जो उनके विकास क्रमको प्रभावित करता है तथा विभिन्न
प्रकार की अवधारणाओं को विकसित करने में उनकी मदद करता है। उक्त अवधारणाएँ कभी
सायास, कभी अनायास, कभी व्यवस्थित, तो कभी अव्यवस्थित रूप से इकट्ठी होती जाती
है। अत: हमारे लिए बच्चे की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, उनके रहन-सहन तथा
ज्ञान के स्तर को समझना आवश्यक है। अधिगम प्रक्रिया परिवेश आधारित होने पर बच्चों
में सौखना शीघ्रतापूर्वक होता है।
बच्चों के पास अपना एक ज्ञान का भण्डार होता है। ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता जिस
पर बच्चे कुछ बात ना करना चाहते हों। हम कुछ उदारहणों की सहायता से यह समझने का
प्रयास करेंगे कि बच्चे अपने परिवेश के बारे में कितना जानते हैं। साथ ही यह भी देखेंगे
कि यह समझ सतही होती है या वे गहराई से इस पर विचार भी करते हैं।
उदाहरण : “हेमा के बच्चे को सर्दी लग गई।”
      भावार्थ की उम्र 3 साल है। उसकी माँ का नाम हेमकांता और दादी का नाम मालती
है। हेमकांता को घर के सभी सदस्य हेमा कहकर पुकारते हैं। हेमकांता ने भावार्थ को नीचे
लिखी कविता 3-4 बार सुनाई―
            मालती के बच्चे को सर्दी लग गई,
           उसकी हम गरम तेल से मालिश करेंगे,
          और देखो बच्चा तंदुरुस्त हो गया।”
एक दिन भावार्थ ने हेमा से कहा कि वह भी एक कविता सुनाना चाहता है। उसने नीचे
लिखी कविता सुनाई―
              “हेना के बच्चे को सर्दी लग गई,
          उसकी हम ठंडे तेल से मालिश करेंगे,
              और देखों बच्चा तंदुरुस्त हो गया।”
जब हेमा ने कहा कि मालिश करने के लिए गरम तेल लेना होगा तो उसने कहा कि मुझे
ठंडा तेल पसंद है। इस पूरी घटना का विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि अपने आस-पास की
घटनाओं का विश्लेषण भावार्थ ने कितनी गहराई से किया है। अपने कविता सुनकर यह समझ
बना ली कि यह कविता उसी दादी और पिता (माँ-बेटे) के संदर्भ में है। इसी समझ का अनुप्रयोग
करते हुए उसने अपनी माँ और स्वयं के संदर्भ में कविता की रचना भी कर दी। उसके अनुभवजन्य
ज्ञान की बात करें तो वह ठंडा व गरम में अंतर जानता है। इस अंतर को उसने महसूस किया
होगा तभी इस आधार पर अपनी पंसद व नापसंद को भी वह बता पाया है। इन सबसे अतिरिक्त
वह अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाने में भी सक्षम है।
        निश्चित ही अपने आस-पास के बच्चों से संबंधित ऐसे कई उदाहरण आपके पास भी
उपलब्ध होंगे। इन उदाहरणों पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि विद्यालय आने से पूर्व तथा
विद्यालय से शुरुआती वर्षों में ही बच्चे अपने पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। यदि
आप बच्चों के पास उपलब्ध जानकारी को सूचीबद्ध करने का प्रयास करें तो शुरुआत में आपके
जवाब घर, परिवार, पेड़-पौधों तक ही सीमित रह सकते हैं। लेकिन थोड़ा विश्लेषण करें तो
इस सूची में बहुत सारी चीजे जुड़ती चली जाएंगी। जैसे―
* बच्चे अपने आस-पास के पेड़-पौधों के बारे में जानते हैं कि उनके नाम क्या है,
रंग क्या हैं, कौन से पेड-पौधे पर कौन से फल-फूल लगते हैं, बड़े पेड़ों से छाया
मिलती है, पेड़ों पर झूले डालते हैं, हवा चलने पर पेड़ों के पत्ते हिलते हैं आदि ।
इस उम्र के बच्चे पशु-पक्षियों के नाम जानते हैं, उनकी बोलियों को पहचानते है,
वे कहाँ रहते हैं, क्या-क्या खाते हैं, बच्चे देते हैं, या अंडे देते हैं, पक्षी अपना घोंसला
कैसे बनाते हैं, आदि के बारे में जानते हैं।
* रिश्ते-नातों के बारे में जानते हैं, परिवार के सदस्यों के नाम जानते हैं, किस प्रकार
का रिश्ते है, किसे किस नाम से संबोधित करना है, कौन कैसा व्यवहार करता है,
किससे किस प्रकार बात करनी है, आदि के बारे में जानते हैं।
* पड़ोस के बारे में जानते हैं, उनको क्या कहकर संबोधित करना है, दोस्तों के
कहाँ हैं, आदि भी जानते हैं।
* घर में काम आने वाली वस्तु वस्तुओं के नाम, उनका स्थान, उनका उपयोग क्या
है व कौन करता है, कौन सी वस्तु किसकी है, की जानकारी भी उन्हें होती है।
* खिलौने कहाँ मिलते हैं, वे कैसे चलते हैं, उसको खोलकर देखना भी वे पंसद करते है।
* खेलों के नाम, कैसे खेलते हैं, किस खेल के लिए कितने लोगों की आवश्यकता
होती है, खेल खेलने के नियम क्या होते हैं, ये सभी बातें उन्हें ब-खूबी पता होती हैं।
* रेडियो, टेलीविजन कैसे चलाते हैं, कौन सा कार्यक्रम कब आएगा, अपने मनपसंद
कार्यक्रमों के बारे में जानकारी उनके पास होती है।
* त्योहारों के नाम, त्योहारों पर नये कपड़े पहनते हैं, त्योहार मनाने के तरीके, त्योहारों
पर मिठाई खाते हैं, उपहार मिलते हैं, ये सब उन्हें पता होती हैं।
* खाने-पीने की चीजों के नाम, उनके स्वाद, कहाँ मिलती हैं, आदि भी जानते हैं।
* बाजार के बारे में जानते हैं, यह भी जानते हैं कि चीजों को खरीदने के लिए कीमत
चुकानी पड़ती है।
* वे जानते हैं कि फसले कहाँ उगती हैं, उनके नाम क्या हैं वह उन्हें कौन उगाता है।
उन्हें रंगों के बारे में समझ होती हैं
* उन्हें यातायात के साधनों के बारे में समझ होती है।
इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ‘बच्चे सिर्फ विद्यालय में ही सीखते हैं। यह कथन
असत्य है।
प्रश्न 7. बच्चों की अपनी समझ व व्याख्याएँ होती है। सीखने-सीखाने की प्रक्रिया
में यह कैसे महत्वपूर्ण है?
उत्तर–बच्चों की अपनी समझ व त्याख्याएँ होती हैं। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में यह
पूर्वज्ञान महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम पाखिने-सिखाने की प्रक्रिया के मूल सिद्धांत की बात
करें तो इसमें हम बच्चों के अनुभवों व पूर्वज्ञान का उपयोग करते हुए उनके ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित
करते हैं। साथ ही बच्चों में ऐसी क्षमताओं का विकास करते हैं जिनसे वे स्वयं सीखने वाले
(self learner) के रूप में विकसित हो सकें।
      उदाहरण के तौर पर यदि हमें यातायात की अवधारणा पर बच्चे के साथ बातचीत करनी
है तो हमें पहले यह जानना होगा कि वे किन-किन वाहनों के बारे में पहले से जानते हैं
व क्या-क्या जानते हैं.? जैसे-टायरगाड़ी, बैलगाड़ी, साइकिल आदि। बच्चों के इस ज्ञान का
उपयोग करते हुए ‘यातायात’ की अवधारणा पर कार्य शुरू किया जा सकता है। इसके बाद
जब कक्षा के सभी बच्चों की शुरुआती रूप में साझी समझ बनने का आभास आपको प्राप्त
हो तब आप इस अवधारणा के अन्य पहलुओं यथा यातायात की आवश्यकता, पुराने समय
व आज के समय के साधनों में परिवर्तन आदि पर बच्चों के साथ बातचीत कर सकते हैं।
इस प्रकार बच्चे की जिज्ञासु प्रवृत्ति को ही पोषित करते हुए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया
में बच्चों के पूर्व ज्ञान को एक संसाधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। जब बच्चों
में किसी विषय विशेष से संबंधित उत्सु ता जाग्रत हो जाए, तब बच्चों को उनके संज्ञानात्मक
स्तर के अनुरूप विभिन्न क्रियाकलापों एवं गतिविधियों के माध्यम से विभिन्न सिद्धांतों को
समझने की दिशा में प्रेरित किया जा सकता है।
प्रश्न 8. सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों का पूर्वजान एक मुंसाधन के रूप
में प्रयोग किया जा सकता है। कैसे? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर―हम सभी जानते हैं कि जब बच्चे पहली बार विद्यालय आते हैं तो वे कोई खाली
घड़े या सादे कागज नहीं होते हैं, वरन् उनके पास अपनी समझ, ज्ञान और अनुभवों की दुनिया
होती है, जिसे वे अपने परिवेश से, अपनी जिज्ञासा के द्वारा गढ़ते हैं। एक जिज्ञासा दूसरी
नई जिज्ञासाओं को जन्म देती है। इस प्रकार मया ज्ञान, नई खोज एवं नये अन्वेषण की प्रक्रिया
निरंतर चलती रहती है। हम शिक्षकों का दायित्न होता है कि इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाएँ।
इस संग्रह में बच्चों के अपने घर-परिवार, खेल-कूद, खान-पान, सुख-दुःख, आसपास घटित
होने वाली सामाजिक एवं प्राकृतिक घटनाएं-धूप, गमी, बरसात, ठंड आदि के बारे में अपनी
याख्या एवं अवधारणाएँ होती है।
      बच्चों के परिवेश में तमाम लोकगीत, पर्व-त्योहार, कथा-कहानी बिखरे होते हैं। उनके
बारे में वे जानते हैं और मौका मिलने पर उनका उपयोग भी करते हैं।
    बच्चे अपने को परिवेश से जोड़कर जाने-अनजाने अपने ज्ञान का सृजन स्वयं करते हैं
और सीखने की दिशा में अग्रसर होते हैं।
     बच्चों की अपनी समझ व व्याख्याएँ होती हैं। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में यह पूर्वज्ञान
महत्वपूर्ण होता है। यदि हम सौखने-सिखाने की प्रक्रिया के मूल सिद्धांत की बात करें तो
इसमें हम बच्चों के अनुभवों व पूर्वज्ञान का उपयोग करते हुए उनके ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित
करते हैं। साथ ही बच्चों में ऐसी क्षमताओं का विकास करते हैं जिनमें वे स्वयं सीखने वाले
के रूप में विकसित हो सकें।
    उदाहरण के तौर पर यदि हमें ‘बातायात’ की अवधारणा पर बचचों के साथ बातचीत करनी
है तो हमें पहले यह जानना होगा कि वे फिन-किन वाहनों के बारे में पहले से जानते हैं व
क्या-क्या जानते हैं? जैसे-टायरगाड़ी, बैलगाड़ी, साइकिल आदि । बच्चों के इस ज्ञान का उपयोग
करते हुए ‘यातायात’ को अवधारणा पर कार्य शुरू किया जा सकता है। इसके बाद जब कक्षा
के सभी बच्चों की शुरूआती रूप में साझी समझ बनने का आभास भापको प्राप्त हो तब आप
इस अवधारणा के अन्य पहलुओं, यथा यातायात की आवश्यकता, पुराने समय म आज के समय
के साधनों में परिवर्तन आदि पर बच्चों के साथ बातचीत कर सकते हैं।
        इस प्रकार बच्चे की जिज्ञासु प्रवृत्ति को ही पोषित करते हुए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया
में बच्चों के पूर्व ज्ञान को एक संसाधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। जब बच्चों
में किस विषय विशेष से संबंधित उत्सुकता जाग्रत हो जाए, तब बच्चों को उनके संज्ञानात्मक
स्तर के अनुरूप विभिन्न क्रियाकलापों एवं गतिविधियों के माध्यम से विभिन्न सिद्धांतों को
समझाने की दिशा में प्रेरित किया जा सकता है।
प्रश्न 9.बच्चों के परिवेश संबंधी ज्ञान, अनुभव को मानने के विभिन्न तरीके
कौन-कौन से हो सकते हैं? एक शिक्षक को इनको जानना जरूरी क्यों है?
     अथवा, बच्चों के अनुभव और पूर्वज्ञान का उपयोग उनके ज्ञान को पुर्नव्यवस्थित
करने के लिए महत्वपूर्ण है। क्या आप इससे सहमत है? उदाहरण सहित स्पष्ट करें।
उत्तर―जब बच्चे विद्यालय में आते हैं तो उनके पास अपने द्वारा रचित ज्ञान का एक
भण्डार होता है। यह ज्ञान उन्होंने अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा आस-पास की वस्तुओं, घटनाओं से
अन्तर्क्रिया करके अर्जित किया होता है। सर्दी, गर्मी, बरसात, खुशी, गम सभी से जुड़े अनुभव
उनके पास होते हैं। ऐसी स्थिति में एक सवाल उठता है कि क्या सभी बच्चों के अनुभव
किसी विषय विशेष को लेकर एक जैसे होते हैं या उनमें विविधता होती है। जाहिर है आपका
उत्तर होगा कि उनके अनुभवों में विविधता होती है।
      विविधता हमारे देश की महत्वपूर्ण ‘पहचान है। हम अपने चारों ओर अलग-अलग भाषाएँ
बोलने वाले, विभिन्न प्रकार की खान-पान की आदतों वाल, रहन-सहन में अलग-अलग जाति,
सम्प्रदाय व विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों वाले लोगों को देखते हैं।
      यदि अपनी कक्षा के बारे में विचार करें तो इनमें से बहुत सारी विविधता की झलक
आपको भी अपनी कक्षा में दिखाई देगी।
        हम बिहार के संदर्भ में पटना की किसी कक्षा के बारे में सोचें तो हम पाएंगे कि यहाँ
की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं। परन्तु इसी क्षेत्र-विशेष की कक्षा में आपको
बंगाली, उर्दू, मगही, भोजपुरी भाषाएँ बोलने वाले विद्यार्थी भी मिलेंगे।
      इसी तरह यदि हम सांस्कृतिक विविधता के बारे में देखें तो अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय,
रीति-रिवाजों को मानने वाले बच्चं आपको एक ही कक्षा में मिलेंगे।
            परिवेश संबंधी ज्ञान, अनुभव को जानने के तरीके―शिक्षक होने के नाते हमारा यह
दायित्व होता है कि हम अज्ञानतावश भी ऐसा कोई कार्य न करें कि जिससे बच्चे विद्यालय से विमुख
हो जाएँ ! कक्षागत विविधता के प्रति हम तभी संवेदनशील हो सकते हैं जबकि हम प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष तौर पर बच्चों के जीवन से जुड़े हों। उनके बारे में आपके पास पर्याप्त जानकारी
उपलब्ध हो। इसके लिए आप निम्नलिखित तरीका प्रयोग में ला सकते हैं―
• आप बच्चों से अधिकाधिक बातचीत कर उनके साथ दोस्ताना रिश्ता तैयार कर सकते
हैं। ऐसा करने से ज्यादा से ज्यादा बच्चे विद्यालय आना पसंद करेंगे। यदि आप बच्चों
द्वारा बोली जाने वाली भाषा में सहज नहीं है, तब भी हावभाव की सहायता से आपको
प्रयासरत रहना चाहिए।
• बच्चों की बातचीत को समझने के लिए आप समुदाय के साथियों या अन्य शिक्षकों
की मदद भी ले सकते हैं।
• अपनी समझ बनाने के लिए एक शिक्षक द्वारा बच्चों से सहायता लेना भी बच्चों
के लिए सकारात्मक व्यवहार दर्शाता है। शिक्षक का यह प्रयास हाशियाकृत बच्चों
को बहुत बड़ी उपलब्धि का भाव भी दे सकता है।
• समय निकालकर आप बच्चों के घरों पर भी जा सकते हैं। उनके माता-पिता क्या
काम करते हैं, बच्चे उनकी किन कामों में मदद करते हैं, आदि पता कर सकते हैं।
इसके साथ ही ऐसा करने से आपको उनके रहन-सहन और संस्कृति के बारे में भी
पता चलेगा।
• प्राथमिक कक्षाओं में खासतौर पर कक्षा 1 व 2 में बच्चों की भाषा को प्राथमिकता
देनी चाहिए। ऐसा हो सकता है कि आप उस भाषा को नहीं समझ पा रहे हों तब
भी बच्चों को उसमें बातचीत करने व अपने आपको व्यक्त करने से नहीं रोकना चाहिए।
• आपके द्वारा कक्षा के बच्चे की अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीकों यथा-चित्र बनाना,
नाटक, कहानी सुनाना व लोकनृत्य आदि को उभारने के अवसर दिए जाने चाहिए।
• आप अपनी कक्षा में बच्चों द्वारा बनाई गई चीजों को प्रदर्शित भी कर सकते हैं जिसमें
उनके चित्र, कहानियाँ, कविताएँ, हाथ से बनाई चीजें आदि हो सकती हैं।
• समुदाय से अभिभावकों (खासकर हाशियाकृत समुदाय के) को कक्षा में बुलाकर
उनके पास उपलब्ध जानकारियों को बच्चों के साथ साझा कर सकते हैं।
एक शिक्षक के लिए बच्चों के परिवेश संबंधी ज्ञान, अनुभव जानना बहुत आवश्यक
होता है। इससे शिक्षक में परिवेश की पर्यावरण संबंधी सूचनाओं और समाज में घटने वाली
घटनाओं का विश्लेषण कर एक राय कायम करने की समझ बन जाएगी और शिक्षक बच्चों
को भी प्रेरित कर सकेंगे। परिवेश से संबंधित समस्याओं का निदान एवं भविष्य की पर्यावरण
संबंधी संभाव्य समस्याओं का अनुामन लगा सकेंगे। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पृष्ठभूमि
के आधार पर बच्चों के परिवेश-संबंधी अनुभव एवं ज्ञान को अपने शिक्षण का आधार बना
सकेंगे तथा इन सबके उपयोग से बच्चों की पर्यावरण समझ को एक दिशा दे सकेंगे।
एक परिवेश से दूसरे परिवेश की तुलना―बच्चे अपने अनुभवों के संदर्भ में सीखते
है और उन्हीं पर अपनी समझ को आगे बढ़ाते हैं। जन्म से ही बच्चे सामाजिक प्रभाव में
डूबे होते हैं। वे अपनी खान-पान, रहन-सहन की आदतों से, नहाने के तरीके से, अपने कपड़ों
से और सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल के अन्य पहलुओं से सीखते हैं। सर्वप्रथम वे अपनी
मातृभाषा को, अपने विचारों को व्यवस्थिति करने और उन्हें दूसरों तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल
करते हैं। एक शिक्षक होने के नाते हमें चाहिए कि हम हर बच्चे के अनुभवों का उपयोग
करें, जो वे अपने माहौल के साथ लाते हैं।
      अपने सामाजिक माहौल को बदौलत हो सकता है कि कुछ बच्चे किताबों से परिचित
हों और कुछ अवधारणाओं को समझ उनमें हो। फिर भी दूसरी तरह के परिवेश में पले बड़े
बच्चें जिन्हें ऐसा माहौल नहीं मिला वे भी छोटे-बड़े आकार एवं मापों को तुलना कर सकते
हैं, रंगों की पहचान कर सकते हैं, पेड़-पौधों को उपयोगिता समझते हैं।
        यहाँ केवल अलग-अलग परिवंश की बात समझना काफी नहीं हैं। बच्चे सीख सके,
इसके लिए जरूरी होगा कि हम शिक्षक उनके लिए कक्षा में एक सुविधाजनक व दोस्ताना
माहौल बनाएँ जहाँ वे खुद को सुरक्षित महसूस करें।
      इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ेगा. वे उतने ही खुलेपन से काम कर सकेंगे जैसा कि
अपने घर या खेल के मेदान में करने के अभ्यस्त हैं। इससे उनकी बुद्धि तथा समझ के
विकास को बढ़ावा मिलेगा और सीखना उबाऊ न रहकर रोचक बन जाएगा।
प्रश्न 10. प्राकृतिक एवं मानव निर्मित पर्यावरण के घटकों का उल्लेख करें। उनमें
पारस्परिक अन्तःक्रिया के परिणाम की संक्षेप में व्याख्या करें। या, पर्यावरण के घटकों
का वर्गीकरण करें।
उत्तर―’पर्यावरण अध्ययन’ प्राकृतिक और मानव निर्मित पर्यावरण और इन दोनों के
बीच होने वाली अंतःक्रिया का अध्ययन है। यह मानव और पर्यावरण के बीच होने वाले हस्तक्षेप
का भी अध्ययन है। ये अंतःक्रिया प्रायः इतने आसानी से होती है कि हमें पता तक नहीं
चल पाता है। पर्यावरण अध्ययन को सुगम बनाने के लिए पर्यावरण के घटको का वर्गीकरण
करते हैं। जिन्हें हम मुख्य रूप से दो घटकों में विभक्त कर सकते है―
(i) प्राकृतिक पर्यावरण
(ii) समाज-सांस्कृतिक अथवा मानव निर्मित पर्यावरण।
                                  पर्यावरण के घटक
                                              ↓
                                         पर्यावरण
       _____________________।_________________
       ↓                                                                    ↓
प्राकृतिक अथवा भौतिकीय                       मानव निर्मित समाज सांस्कृतिक
 ________।__________                        ___________।____________
↓                                 ↓                     ↓                                          ↓
जीवेंतर                    जीवीय (सजीव)      घर तथा परिवार            भवन, सड़कें
(निर्जीव)                   वनस्पति पशु          रीतिरिवाज                   पुल, पूजा स्थल
     |                         सूक्ष्मजीवन             रहन सहन                     आदि
     |                         के सभी रूप           की स्थिति,
भू-आकृतिक कारक          ।।                 परम्पराएँ व्यवसाय,
धरातल-मृदा चट्टाने      जलवायु संबंधी      मूलभूत सुविधाएँ,
खनिज पदार्थ, पानी     कारक, तापमान     सार्वजनिक सेवाएँ
                                उमस, वर्षा, वायु     आदि
                                आदि
ऊपर दिये गये प्रवाह चार्ट से स्पष्ट है कि मानव सहित सभी सजीव प्राणी अपने पर्यावरण
पर आश्रित रहते है’सजीव प्राणी पर्यावरण के विभिन्न घटकों के साथ अंतःक्रिया करते रहते
है, और अपने आप को बनाये रखने के लिए पर्यावरण के अनुरूप ढलते रहते हैं। इन
अंतःक्रियाओं के फलस्वरूप पर्यावरण में कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों को हम
निम्नलिखित रूप से वर्गीकरण कर सकते हैं―
1. विभिन्न प्राणियों में अंतःक्रियाएँ आहार शृंखला और खाद्य जल से होता है।
2. प्राकृतिक पर्यावरण के संजीव घटकों के बीच अंतःक्रियाएँ जीव भौतिकीय भूमि,
जलचक्र, मृदा, मौसम, चट्टानों के बीच अंतःक्रियाएँ होती है।
3. प्रकृतिक एवं मानव निर्मित पर्यावरण के बीच अंतःक्रियाएँ अंधाधुंध शिकार,
जंगलों की कटाई, खदानो की खुदाई, निर्माण कार्य, मानव बस्तियाँ आदि के रूप
ने होता है।
    प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाली अंतःक्रियाओं का केन्द्र प्रकृति होती है और मानव निर्मित
पर्यावरण में होनेवाली अंतःक्रियाओं का केन्द्र मानव होता है। मानव निर्मित पर्यावरण में हमारे
आस-पास की वे सभी चीजें सम्मिलित है, जिनका निर्माण मानव अपनी ऊर्जा, औजारों, कौशलों
और सामाजिक संस्थानों के द्वारा करता है। संस्कृति के सभी पहलू मानव द्वारा निर्मित पर्यावरण
के अंग है। पृथ्वी के विभिन्न भागों में अलग-अलग स्थितियों के कारण विभिन्न समुदायों की
समाज-संस्कृतियाँ, गतिविधियाँ अलग-अलग होती हैं। भोजन की आदतें, मकानों के प्रकार,
वस्त्र, सामाजिक रीतियाँ. धर्म, व्यवसाय और अन्य सामाजिक गतिविधियाँ अलग-अलग स्थानों
पर अलग-अलग होती है। समाज-सांस्कृतिक पर्यावरण में जिस प्रकार सजीव प्राणी एक-दूसरे
पर और पर्यावरण के दूसरे कारको पर भी निर्भर रहते है। इसी प्रकार मानव भी पर्यावरण
के जीविय और जीवेतर घटको पर निर्भर रहते हैं। मानव भोजन, औषधि, लकड़ी और वन्य
उत्पादों के लिए वनस्पति जगत पर निर्भर रहता है। हरे पौधे सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर
प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में अपना भोजन बनाते हैं। मानव और सभी जीव जंतु प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रूप में भोजन के लिए पौधों पर निर्भर रहते हैं। हरे पौधे प्रकृति में ऑक्सीजन
और कार्बनडाइऑक्साइड में सन्तुलन बनाये रखने में सहायता करते हैं। इस तरह से मानव
अपनी प्रत्येक समस्या के लिए जीव-जंतुओं पर निर्भर रहता है।
प्रश्न 11. परिभ्रमण प्रविधि का पर्यावरण अध्ययन में क्या अर्थ तथा महत्त्व है ?
परिभ्रमण प्रविधि के उदाहरण दें। इसके गुणों तथा सीमाओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर–परिभ्रमण विधि का अर्थ― परिभ्रमण विधि का अर्थ उस विधि से है, जिसके
माध्यम से छात्रों को कक्षा तथा स्कूल से बाहर अधिगम के लिए ले जाया जाता है।
     परिभ्रमण प्रविधि का पर्यावरण अध्ययन में महत्त्व― कक्षा में छात्रों को पर्यावरण के
बारे में सब कुछ नहीं बताया जा सकता। पर्यावरण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने के
लिए, उचित पर्यावरण के प्रति उचित दृष्टिकोण निर्माण के लिए तथा कौशल पोषण के लिए
क्षेत्र भ्रमण प्रविधि बहुत महत्व रखती है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री रूसो ने परिभ्रमण के माध्यम
से ज्ञान प्राप्त करने पर बल दिया न कि पुस्तकें पढ़ कर । इसी प्रकार सभी प्रगतिशील शिक्षाविदों
ने प्रकृति अध्ययन पर जोर दिया। विद्वान वॉल्टर के शब्दों में, “कोई भी स्थान जहाँ कि
पौधा या जानवर पाया जाता है, उतना ही महत्व रखता है जितना कि जानवर और पौधे स्वयं
रखते हैं।”
क्षेत्र परिभ्रमण प्रविधि के लाभ:
1. क्षेत्र परिभ्रमण प्रविधि से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह ठोस होता है।
2. वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखने से ज्ञान में वास्तविकता का रूप आ जाता है।
3. छात्रों में पर्यावरण के प्रति रुचि उत्पन्न होती है।
4. पर्यावरण शिक्षण को रुचिकर बनाया जा सकता है।
5. इस विधि में छात्र प्रकृति को यथार्थ से देखते हैं।
6. छात्र ज्ञान को क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित करने में सक्षम हो पाते हैं।
7. छात्रों को स्वावलम्बी बनने का अवसर मिलता है।
8. छात्रों को निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।
9. छात्र सामाजिक वातावरण के सम्पर्क में आते हैं।
10. छात्रों में सहयोग की भावना का विकास होता है।
11. इस प्रविधि में छात्र क्रियाशील रहते हैं।
क्षेत्र परिभ्रमण प्रविधि को सफल बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण पक्ष
_________________________।__________________
↓                                                                             ↓
(1)                                                                         (2)
व्यावहारिक पक्ष                                                 शैक्षिक पक्ष
           क्षेत्र परिभ्रमण प्रविधि में ध्यान योग्य व्यावहारिक पक्ष
__________________________।__________________________
(1)                    (2)              (3)             (4)           (5)         (6)         (7)
परिभ्रमण के   परिभ्रमण       परिभ्रमण    आने-जाने    परिभ्रमण  छात्रों के   परिभ्रमण
लिए प्राचार्य    के लिए          स्थल के       के साधन     पर अव-    रहने तथा   स्थान के
की अनुमति   अभिभावकों    अधिकारी    की व्यवस्था। -लोकन     भोजन की   बारे में
लेना             की अनुमति    की अनुमति   करना         तथा नमूने   व्यवस्था    आवश्यक
                       लेना              लेना                         के संग्रह के   करना      जानकारी
                                                                          लिए आवश्यक              प्राप्त
                                                                          उपकरण ले जाना          करना
            क्षेत्र परिभ्रमण प्रविधि के संदर्भ में ध्यान योग्य शैक्षिक पक्ष :
1. क्षेत्र परिभ्रमण का उद्देश्य भ्रमण से पूर्व छात्रों को स्पष्ट किया जाए।
2. यदि कुछ पूर्व अध्ययन की आवश्यकता हो, तो उसे भी किया जाए।
3. परिभ्रमण के विषय में छात्रों में पर्याप्त जिज्ञासा उत्पन्न की जाए तथा उसे शान्त
किया जाए।
4. छात्रों को उचित निर्देश दिए जाएँ कि परिभ्रमण स्थल के बारे में उन्हें किन-किन
बातों पर विशेष ध्यान देना है।
5. परिभ्रमण स्थल का चुनाव छात्रों की आयु, मानसिक स्तर, शैक्षिक उपयोगिता आदि
के आधार पर किया जाए।
6. परिभ्रमण स्थल के समय छात्रों को महत्वपूर्ण तथ्य लिखने के लिए कहा जाए।
7. जहाँ चित्र लेने की आवश्यकता हो, स्थल के अधिकारियों से अनुमति ली जाए।
8. शैक्षिक उद्देश्य के साथ-साथ मनोरंजन के पक्ष पर भी ध्यान दिया जाए।
9. परिभ्रमण के पश्चात् छात्रों के अवलोकन तथा अनुभव पर चर्चा की जाए।
10. परिभ्रमण के पश्चात् शिक्षक संपूर्ण गतिविधि का अवलोकन करे कि किस सीमा
तक परिभ्रमण के उद्देश्य में सफलता मिल पायी है?
क्षेत्र परिमण के उदाहरण:
              छोटी कक्षा के छात्रों के लिए―पास का बगीचा, खेत, पशुशाला, चिड़ियाघर,
अजायबघर आदि सांस्कृतिक तथा अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान।
बड़ी कक्षा के छात्रों के लिए― कपड़ा मिल, जूट मिल, बैंक, पंचायत घर, विधानसभा,
संसद भवन, टेलीफोन एक्सचेंज, वाटर वर्क्स, ऐतिहासिक तथा अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान ।
प्रश्न 12. पर्यावरण अध्ययन में गतिविधियों या व्यवहारिक कार्यो के अन्तर्गत
क्रियाकलाप एवं विभिन्न प्रकारों को बताएँ ।
उत्तर―पर्यावरण अध्ययन में गतिविधियों या व्यावहारिक कार्य के अंतर्गत क्रियाकलाप
एवं प्रयोगात्मक कार्यों को रखा जाता है।
क्रियाकलाप (Activities) :
हमारा पर्यावरण का क्षेत्र जीवमण्डल के अलावा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तक फैला हुआ होता
है। जो भी कारक प्राणियों को अथवा निर्जीव कारकों को किसी भी रूप में प्रभावित करता
है, वे कारक प्राणियों अथवा निर्जीव कारकों का पर्यावरण कहलाते है।
       पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन हमारे दैनिक व्यवहार, स्वास्थ्य एवं रंग आदि में परिवर्तन
लाते है। इस प्रकार हमारे क्रियाकलाप पर्यावरण को प्रभावित करते हैं, अतः पर्यावरण में
पाए जाने वाले सभी जीव, निर्जीव पदार्थ, पेड़ पौधे आदि सभी एक-दूसरे पर निर्भर करते
रहते हैं।
      पर्यावरण विपय एक नीरस विषय के रूप में माना जाता है और छात्र इसमें कम रुचि
का अनुभव करने है। पर्यावरण विषय के प्रति छात्रों में रुचि विकसित करने के लिए हमें
विभिन्न क्रियाकलापों की सहायता लेनी पड़ती है। ये क्रियाकलाप कक्षागत होने के साथ-साथ
कक्षा से बाहर भी सम्पन्न होते हैं।
       इन क्रियाकलापों के अन्तर्गत वृक्षारोपण, पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न घटनाओं पर मॉडल
या चार्ट तैयार करवाना आदि महत्वपूर्ण गतिविधियाँ हैं । इस प्रकार के क्रियाकलापों के माध्यम
से हम छात्रों के सम्मुख पर्यावरण विषय के प्रति एक जीवंत रुचिकर एवं सरस स्वरूप प्रस्तुत
कर सकते है ।
      पर्यावरण विषय में आयोजित विभिन्न क्रियाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न है:
1. वृक्षारोपण करना―वृक्षारोपण के माध्यम से छात्रों को वृक्षों के हमारे जीवन सम्बन्धित
उपयोगों व अच्छे प्रभावों का अध्ययन एक रुचिपूर्ण तरीके से कराया जा सकता है।
2. पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं पर सेमिनार आयोजित करना―पर्यावरण सम्बन्धी
समस्याओं (जैसे-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूकम्प, बाढ़ आदि) का एक प्रभावशाली
शिक्षण करने के लिए सेमिनार एक उचित माध्यम है।
3. पर्यावरण में होने वाली विभिन्न घटनाओं पर आधारित चॉर्ट या मॉडल बनवाना।
4. विद्यालय की ओर से भ्रमण के माध्यम से छात्रों को उसके पर्यावरण से सम्बन्धित कई
नए घटकों से सदृश कराना।
5. पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न घटकों (मृदा, जलवायु, मौसम, जीवमण्डल आदि) के बारे
में विभिन्न संगोष्ठियों का आयोजन करवाना ।
प्रश्न 13. एक शिक्षक के रूप में आप कक्षा-कक्ष में किन कार्यों को प्राथमिकता
देगें जो बच्चों को अपने ज्ञान को संरचित करने में मदद कर सकें? उन अवसरों एवं
कार्यों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर― शिक्षक के कार्यों द्वारा ही बच्चों को अपने ज्ञान को संरचित करने में मदद मिलती
है। इसके लिए बच्चों के ज्ञान को कक्षा में लाना सबसे बड़ा काम होगा। इसमें बच्चे अपनी
जानकारी को औरों के साथ बाँटें और खुद भी सीखें और अपने आसपास की दुनिया को
समझें परंतु उन्हें यह न लगे कि इसमें उनकी परीक्षा ली जा रही है। इसके लिए कक्षा को
पाँच-छह बच्चों के समूहों में बाँटा जा सकता है। हरेक समूह को अपने प्रयोग करने की
और उनके अवलोकनों का विश्लेषण करने की छूट हो। इसमें जरूरी होगा कि समूह के
सभी सदस्य एक-दूसरे को समझें और एक-दूसरे को अपने-अपने विचार समझाने की कोशिश
करें। इस व्यवस्था के एक बार बनने के बाद हम जरूरत के हिसाब से उसमें परिवर्तन कर
सकते हैं।
        इस चरण पर आकर एक अहम सवाल पूछा जा सकता है। अगर बच्चों को वही सीखना
है जिसे वो पहले से ही जानते हैं और जो उनके अनुभवों पर आधारित है तो फिर बच्चों
को स्कूल में क्या नया सीखने को मिल रहा है? पर्यावरण शिक्षण में तमाम बिंदु यहीं पर
आकर मिलते हैं। हम अपने आसपास की चीजों में नमूने खोजते हैं और फिर उनके पीछे
के तर्क ढूँढ़ते हैं। इससे दुनिया को समझने में लोगों को आसानी होती है। इसलिए बच्चों
द्वारा जो कुछ भी खोजा गया है, उसे दोहराना भी बहुत मायने रखता है। जो नई बातें बच्चे
सीखेंगे वो हैं, आंकड़ों और जानकारी को किस प्रकार संगठित करना? साथ में वो अपने
अवलोकनों को भी अधिक आलोचनात्मक दृष्टि से देख सकते हैं और उन्हें एक नये तरीके
से दर्ज कर सकते हैं । उनके सामने ऐसे सवाल भी खड़े हो सकते हैं । जो उन्हें अपने विश्लेषण
पर दुबारा सोचने के लिए बाध्य करें, फिर शायद वे ऐसी परिकल्पनाएँ भी गढ़ पाएँ जिनको
जांचा-परखा जा सके।
         शिक्षक के रूप में कक्षा में करने योग्य कुछ कार्य एवं अवसर :
1. छात्रों से बारीकी से अवलोकन करने को कहें।
2. छात्रों से जानकारी/आंकड़ों को नए समूह में संगठित करने करने को कहें।
3. छात्रों को गणना के कार्य दें।
4. छात्रों को सामान्यीकरण करने, सिद्धान्त रचने और अपने निष्कर्षों को पेश करने के
अवसर दें।
5. अन्य लोगों द्वारा किए सामान्यीकरण पर नजर डालें और उन्हें अपने अवलोकनों से
मिलाने की चेष्टा करें।
6. परिकल्पनाओं को सही या गलत ठहराएँ।
7. पाठ में निम्नलिखित चीजें पढ़ें और समझें :
― निर्देश
― तार्किक समस्याएँ
― चित्र
― चित्र और लिखि सामग्री
― तालिकाएँ
― प्रक्रियाओं के रेखाचित्र
8. छात्रों को अलग-अलग तरीकों से अपनी जानकारी पेश करने के लिए प्रोत्साहित
करें।
― चित्र बनाकर।
― तालिकाएँ बनाकर।
― प्रक्रियाओं के रेखाचित्र बनाकर ।
9. अनुभवों का विश्लेषण और उनका संश्लेषण करें।
―जाने-पहचाने समूहों में बाँटें।
प्रश्न 14.गतिविधि किसे कहते हैं,? कक्षाकक्ष और कक्षा से बाहर की जानेवाली
गतिविधियों में क्या अन्तर है?
        अथवा, वर्ग के किसी अध्याय में से बाहर की जानेवाली गतिविधि के लिए
योजना बनाए तथा संचालित करें तथा योजना के विभिन्न चरण, कार्यान्वयन पर एक
प्रतिवेदन तैयार करें।
उत्तर―गतिविधियों का आयोजन करने में कई तथ्यों का ध्यान रखना पड़ता है, जैसे―
(i) गतिविधि का अर्थ
(ii) गतिविधि को करने का तरीका
(iii) गतिविधि आधारित निष्कर्ष ।
कक्षा में गतिविधियों का आयोजन और संगठन― गतिविधि आधारित पर्यावरण अध्ययन
के लिए शिक्षक से पर्याप्त पूर्व आयोजना (प्लानिंग) की अपेक्षा की जाती है। इसके लिए
शिक्षक होने के नाते आपको यह जानना होगा कि कौन-सी गतिविधि चुनी जाये, उसको किस
प्रकार कराया जाये और कक्षा का किस प्रकार संगठन किया जाये ताकि सभी बच्चों की भागीदारी
सुनिश्चित हो सके । यदि आप बच्चों में प्रेक्षण, अवलोकन, अभिलेखन, वर्गीकरण, दत्त सामग्री
संगठन, कार्य कारण संबंध को ज्ञात करने, संबंधों को समझने और निष्कर्ष निकालने के कौशल
विकसित करना चाहते हैं तो आपको अपनी कक्षा के भीतर और कक्षा के बाहर होने वाली
विभिन्न गतिविधियों में संलग्न करना होगा।
           कक्षा से बाहर की जा सकने वाली गतिविधियाँ-पर्यावरण अध्ययन के शिक्षण के
लिए आपको प्रायः शिक्षार्थियों को कक्षा के बाहर की जा सकने वाली विभिन्न प्रकार की
गतिविधियों के लिए कक्षा से बाहर ले जाना पड़ता है । कक्षा से बाहर के क्रियाकलापों के
आयोजन में आपको कुछ बातों पर विशेष ध्यान रखना होगा। इसके लिए पर्याप्त पूर्व आयोजना
की आवश्यकता होगी। कक्षा के भीतर की गतिविधियों के लिए ऊपर वर्णित सभी बिन्दु
कक्षा के बाहर की गतिविधियों पर भी लागू होते हैं। तथापि, इस सूची में निम्नलिखित बिन्दु
और जोड़े जा सकते हैं―
• उस स्थान का चयन पहले से कर लेना चाहिए जहाँ आपको बच्चों को ले जाना है।
• उस स्थान को पहले से जाकर देखना उपयोगी होगा। स्थान की संभावनाओं की
जाँच कर लें। उदाहरण के लिए यदि विद्यालय परिसर में पेड़ों का अध्ययन करना
है तो यह देखना होगा कि वहाँ पर्याप्त संख्या में पेड़ मौजूद हैं भी या नहीं। इसी
प्रकार जल-पक्षियों के अध्ययन के लिए आपको बच्चों को पास के ऐसे तालाब
पर ले जाना होगा जहाँ काफी संख्या में विभिन्न प्रकार के जल-पक्षी रहते हों।
• बाहर जाने से पहले कक्षा में चर्चा का आयोजन अपेक्षाओं के बोध मे सहायता करता
है और की जाने वाली गतिविधियों से परिचित कराता है। यदि संभव हो तो प्रत्येक
टोली के लिए लिखित रूप में गतिविधि सम्बन्धी जानकारी पत्रक बनाकर टोली के
मुखिया को दे दें। उसमें सरल भाषा में यह बताएं कि उन्हें क्या करना, देखना या
एकत्रित करना होगा।
• प्रत्येक बालक द्वारा ले जाए जाने वाली सामग्री की सूची बनाएँ । उदाहरण के लिए,
प्रत्येक बालक के पास एक कॉपी, पेंसिल आदि होनी चाहिए। उन्हें जिन अन्य वस्तुओं
की आवश्यकता पड़ेगी उसकी भी सूची बनाएँ । उदाहरण के लिए, मापने वाला फीता,
सामान रखने वाले थैले, जार अथवा बोतल, पुराने अखबार आदि ।
• टोली के मुखिया को उसका उत्तरदायित्व समझाएँ । प्रत्येक टोली के लिए विशिष्ट
कार्य निश्चित कर दें।
• बाहर की जाने वाली गतिविधियों का आयोजन इस प्रकार करें कि बाद में कक्षा
में किए जाने वाले अनुवर्ती (फोलोअप) क्रियाकलापों के लिए आपके पास पर्याप्त
समय उपलब्ध हो । अत: बच्चों को खाली समय में स्वतंत्र प्रेक्षण के लिए प्रोत्साहित
करें जिसके आधार पर बाद में कक्षा में चर्चा का आयोजन किया जा सके ।
• सुरक्षा के सभी उपाय करें और बच्चों को संभावित खतरों/संकटों और उनसे बचने
के उपायों को स्पष्टतः समझा दें।
कक्षा के बाहर की यात्रा के उपरान्त जायजा लें कि बच्चों ने किस प्रकार के अनुभव
प्राप्त किये हैं। कक्षा म चचा आयोजित करें और भविष्य में किए जाने वाले क्रियाकलापों
की योजना बनाएँ। एक लघु प्रदर्शनी का आयोजन करें जिसमें बच्चे अपना कार्य प्रदर्शित
कर सकें। इससे उनके ज्ञान का विस्तार तो होगा ही, उन्हें भविष्य में कार्य करने के लिए
अभिप्रेरणा भी प्राप्त होगी। हम पहले यह चर्चा कर चुके हैं कि आप पर्यावरण अध्ययन की
विद्यालय से बाहर की गतिविधियों को भाषा, कला, गणित जैसे विषयों के साथ जोड़ सकते
है। गतिविधि की आयोजना करते समय आपको इस प्रकार के समाकलन को ध्यान में रखना
चाहिए। बच्चा द्वारा सोचे/लाए गए विचारों का उपयोग करें। आप इन विचारों का परिष्करण,
रुपांतरण और प्रबलन, कर सकते हैं। प्रभावी शिक्षण-अधिगम के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं
को ध्यान में रखें―
• शिक्षार्थियों के साथ सह-शिक्षार्थी बनें और दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान
ढूँढने में उनकी सहायता करें ।
• शिक्षार्थियों के साथ स्वस्थ एवं घनिष्ठ संबंध स्थापित करें ताकि वे आपसे नि:संकोच
बात कर सकें।
• बच्चों के साथ मिलकर कार्य करें।
• शर्मीले, पिछड़े और मंद शिक्षार्थियों की ओर विशेष ध्यान दें। समस्या को दूर करने
में उनकी सहायता करें और उन्हें कक्षा के शेष शिक्षार्थियों के बराबर लाने का प्रयास
करें। इसके लिए आपको इन बच्चों के साथ कभी-कभी अतिरिक्त कार्य भी करना
पड़ सकता है। इससे सभी बच्चों को न्यूनतम अधिगम स्तर प्राप्त करने में सहायता
मिलेगी और कक्षा में सीखने का अच्छा माहौल बनेगा।
• आप स्वयं नवीनतम ज्ञान प्राप्त करते रहें, जिससे आप पढ़ाए गए प्रकरण के बारे
में हाल में हुए परिवर्तनों के संबंध में बच्चों का मार्गदर्शन कर सकें।
प्रश्न 15. पर्यावरण अध्ययन की कुछ ऐसी गतिविधियों के नाम बताएं जिसमें
कला, भाषा, गणित आदि विषयों का समाकलन हो। इनमें किसी एक के लिए योजना
बनाइए।
       अथवा, प्रयोग बच्चों के सवालों का जवाब देने के साथ-साथ उनके उत्सुकता
और खोजी प्रवृति का भी विकास करते हैं। वर्ग 3 से 5 की पर्यावरण अध्ययन से किसी
ऐसे प्रयोग को चूनकर बच्चों के साथ करें । बच्चों की प्रतिक्रिया पर अपना प्रतिवेदन
बनाएँ । प्रतिवेदन में प्रयोग संबंधी बच्चों के पूर्वज्ञान, तैयारी, प्रक्रिया, सामग्री तथा प्रयोग
बाद बच्चों के प्रश्न उनकी प्रतिक्रिया को शामिल करें।
उत्तर―प्रयोग विधि बच्चों में उत्सुकता एवं खोजी प्रकृति का विकास करते हैं। इससे
बच्चों में सीखने के प्रति उत्साह व रुचि बनी रहती है।
      हम कक्षा 3 व 5 की पाठ्यपुस्तकों से दो गतिविधियाँ लेकर देखेंगे कि उन्हें अध्यापक
कक्षा में किस प्रकार करवा सकते हैं।
प्रयोग-1 : किस ओर क्या?
बच्चों को आगे-पीछे व दाएँ-बाएँ की अवधारणा स्पष्ट करने के लिए शिवांगी ने कक्षा
में बच्चों से बातचीत शुरू की।
शिवांगी ― आपके साथ कौन-कौन बैठा है?
रमेश    ― राजू और रेहाना।
शालिनी ― कमलेश, कल्पना, मिथिलेश ।
शिवांगी ― शालिनी, आपके आगे और पीछे कौन बैठा है?
शालिनी ― मैडम सामने रश्मि है तथा पीछे मनोज है।
शिवांगी ― अच्छा, आपके दाएँ व बाएँ कौन है?
ऐसा पूछने पर लगभग सभी विद्यार्थी बता नहीं पाए ।
इसके बाद शिवांगी ने दाएँ-बाएँ की समझ बनाने के लिए बच्चों को बारी बारी से श्यामपट्ट
के पास बुलाकर उनके दाहिने ओर बाएँ हाथ को उठवाकर दाएँ-बाएँ की समझ बनवाने का
प्रयास किया। इसी गतिविधि को विद्यार्थियों का समूह बनाकर अपने-अपने समूह में करने
के लिए कहा। इसके बाद शिवांगी ने कुछ ऐसी गतिविधियाँ करवाई―
• बच्चों को चारहों में बाँटकर उनमें से एक समूह को कक्षा के दरवाजे की ओर
मुँह करके अपने दाहिने तथा बाएँ तरफ की चीजों के नाम लिखने को कहा, दूसरे समूह
को खिड़की की तरफ मुंह करके वही कार्य करने को कहा, तीसरे समूह से दरवाजे की तरफ
पीठ करके अपने दाहिने तथा घाएँ तरफ की चीजों के नाम लिखने को कहा तथा चौथे समूह
को उसी खिड़की की तरफ पीठ करके इसी कार्य को करने को कहा।
• कुछ समय बाद वारी-बारी से सभी समूहों ने अपना-अपना लिखा हुआ पढ़कर सुनाया
जिसे शिक्षिका श्यामपट्ट पर लिखती गई।
समूह            दाहिने तरफ की चीजें              बांयी तरफ की चीजें
समूह 1      घड़ी, श्यामपट्ट, कुर्सी, टेबल       बेंच, डेस्क, शालिनी, तेजू, रमेश
समूह 2     दीवार, तस्वीर, सुनीता, संजय      दरवाजा, मोहन, मनोज
समूह 3     बेंच, डेस्क, शालिनी, तेजू, रकेश   घड़ी, श्यामपट्ट, कुर्सी, टेबल
समूह 4     दरवाजा, मोहन, मनोज               दीवार, तस्वीर, सुनीता, संजय
शिवांगी― समूह । के दाएँ तरफ की चीजों तथा समूह 3 के बाएँ तरफ की चीजो
              एवं समूह 1 के बाएँ तरफ की चीजों तथा समूह 3 के दाएँ तरफ की
             चीजों को ध्यान से देखने पर आप क्या पाते हैं?
मनोज ― पहले समूह द्वारा बताई गई चीजें तीसरे समूह के विपरीत दिशा में चली
              गई।
शिवांगी ― अब दूसरे समूह द्वारा बताई गई चीजों का मिलान चौथे समूह से कीजिए।
रमेश    ― दूसरे समूह द्वारा बताई गई चीजें चौथे समूह द्वारा पलट दी गई।
शालिनी ― लेकिन चीजें तो वहीं के वहीं हैं।
मनोज ― फिर विपरीत दिशा में क्यों लिखी हैं?
शिवांगी― वास्तव में चीजें तो अपनी ही जगह पर स्थिर थी, परन्तु आपकी स्थिति
              बदलने से आपके लिए चीजों की दिशा बदल गई।
        इसके पश्चात् शिवांगी कक्षा के सभी शिक्षार्थियों को लेकर विद्यालय के प्रवेश द्वार के
पास गई तथा उनसे बारी बारी से प्रधानाध्यापक कक्ष, वर्ग कक्ष आदि की स्थिति दाएँ-बाएँ
के रूप में बताने को कहा। विद्यालय के बाहर दिखाई देने वाले कुछ पेड़-पौधों की स्थिति
भी बताने को कहा।
    जब हम पर्यावरण अध्ययन में गतिविधि करवाने की बात करते है। तो सर्वप्रथम प्रयोग
ध्यान में आते हैं। प्रयोग रटने के लिए नहीं, करने के लिए होते हैं। पर्यावरण अध्ययन की
पाठ्यपुस्तकों में कई मजेदार प्रयोग दिये गए हैं। साथ ही इन प्रयोगों को लेकर कुछ सवाल
भी हैं। इन सवालों के जवाब तभी मिल सकेंगे जब आप स्वयं प्रयोग करके देखेंगे। प्रयोग
के लिए सामग्री आपको जुटानी होगी। यह सामग्री कैसे एकत्रित करेंगे। इसके आधार पर
सामग्री जुटाएँ, प्रयोग करें और देखें कि उनसे आपकी क्या समझ बनी है।
      यहाँ हम देखेंगे कि कक्षा 5 की पाठ्यपुस्तक में दिए गए एक प्रयोग को एक अध्यापक
ने कक्षा में किस तरह करवाया।
      यह तो हम सभी जानते हैं कि पानी में कुछ भी चीज डालने पर वह भीग जाती है।
लेकिन कोई आपसे कहे कि हमेशा ऐसा नहीं होता है तो आप क्या कहेंगे?
रमेश ने कक्षा 5 के बच्चों से पूछा―
रमेश― कागज को पानी में डालेंगे तो क्या होगा?
बच्चे― पानी में डालने पर कागज भीग जाएगा।
रमेश― यदि मैं कागज को एक गिलास में रखकर फिर पानी में डालूँ तब क्या होगा?
बच्चे― तब भी कागज भीग जाएगा क्योंकि पानी गिलास में चला जाएगा।
रमेश― यदि गिलास को उल्टा करके पानी में डालेंगे तब भी कागज गीला होगा?
इस पर बच्चों की मिश्रित प्रतिक्रियाएँ थीं। कुछ बच्चों को लगता था कि कागज गीला
हो जाएगा तो कुछ को लगता था कि वह सूखा ही रहेगा।
रमेश― चलो आज हम यह प्रयोग करके देखेंगे और पता लगाएंगे कि कागज गीला
           होता है या नहीं।
      फिर रमेश ने कक्षा को दो समूहों में बाँट दिया और सभी को एक बाल्टी, पानी, गिलास,
कागज देकर अपने-अपने समूह में प्रयोग करने के लिए कहा। साथ ही सबको यह निर्देश
भी दिए कि तीन बार यह प्रयोग करके देखें और प्रयोग के दौरान किए गए अवलोकनों व
विश्लेषण को व्यवस्थित रूप से लिखें।
     दोनों समूहों ने जब अपने-अपने प्रयोग कर लिए तब रमेश ने एक-एक समूह को आगे
बुलाकर अपने अवलोकन व विश्लेषण सबके सामने प्रस्तुत करने के लिए कहा।
खेल-खेल में प्रयोग सम्बन्धी कार्य :
1. क्या पानी में कागज डुबोकर उसे सूखा निकाल सकते हैं?
सामग्री―एक गिलास, कागज, पानी से भरी बाल्टी या तसला । आइए, करके देखें।
एक गिलास लें (काँच, स्टील या पीतल का हो तो अच्छा) एक कागज को मोड़कर ऐसा
गोला बनाइए जो गिलास के नीचे फंसकर फिट बैठ जाए (चित्र देखिए) अब गिलास को
उल्टा करके झटकाकर देख लें कि कागज बाहर तो नहीं आ रहा है? अब इस उल्टे गिलास
को पानी से भरी हुई बाल्टी (या बड़ा तसला) में सीधा नीचे तक दबाकर ले जाइए और
फिर निकालकर देखिए । क्या कागज भीगा है ?
2. क्या एक से दूसरे गिलास में हवा को डाला जा सकता है? क्यों नहीं? कोशिश
तो करके देखिए।
सामग्री:
1. एक जैसे दो काँच के गिलास ।
2. एक बाल्टी पानी (बाल्टी पारदर्शक हो तो अच्छा जैसे—प्लास्टिक की सफेद बाल्टी) ।
हमा? किसकी हवा किसम गई?
काँच के एक गिलास में ‘अ’ व दूसरे में ‘ब’ का चिह्न लगाइए। (सेलोटेप में कागज
लगाकर या अच्छे स्टीकर से, यानी दो गिलास अलग-अलग चिह्नित होना चाहिए) अब गिलास
‘अ’ को पानी से भर लीजिए। एक हाथ से गिलास ‘ब’ को उल्टा कर पानी से भरी बाल्टी
के अन्दर ले जाइए (देखना इसमें अभी पानी घुस न पाए)। अब दूसरे हाथ से गिलास को
सीधा पानी के अंदर ले जाइए और पानी के अन्दर उल्टा करके गिलास ‘ब’ के पास ले
जाइए। अब गिलास ‘ब’ को अ के किनारे से लगाकर धीरे से तिरछा करते जाइए। क्या
हुआ? किसकी हवा किसमें गई ?
       मार्गदर्शक―जिसके आर-पार देखा जा सकता है। जैसे काँच, प्लास्टिक आदि ।
प्रश्न 16. पर्यावरणीय अध्ययन के अध्यापक के रूप में पाठचर्या का आयोजन
करने और आदान-प्रदान करने में अपनी भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर―वर्तमान युग पर्यावरण अध्ययन का युग है, क्योंकि हम सब पर्यावरण से सीधे
प्रभावित होते हैं। अतः पर्यावरण की पाठचर्या आयोजन एवं आदान-प्रदान अर्थात वर्ग कक्ष
विनिमयन को विशेष ढंग अपनाकर रूचिकर ढंग से बच्चों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।
आयोजन का अर्थ है―पाठ की तैयारी (Preparation) और आदान-प्रदान करने का आर्थ
है-वर्ग कक्ष विनिमयन । वर्ग कक्ष विनियमन के दौरान शिक्षक द्वारा पाठ प्रस्तुत किया जाता
है। यदि पर्यावरण विषयान्तर्गत पाठचर्या आयोजन ठीक से न हो सका तो पाठ को प्रस्तुत
करने में कठिनाई महसूस होगी। पाठ प्रस्तुतीकरण निश्चित रूप से पाठ योजना पर ही निर्भर
करती है।
       पर्यावरणीय अध्ययन के अध्यापक की भूमिका एक आदर्श रूप में होती है। शिक्षक
पाठ्यक्रम का विषय चयन करता है। शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पर्यावरणमुखी
क्रियाकलापों पर आधारित उपागम का प्रयोग करते हुए प्रभावशाली व योजनाबद्ध तरीके से
काम करते हुए विद्यार्थियों को सक्रीय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने में सक्षम हो । जिसमें
वांछित लक्ष्य सुगमता से प्राप्त किया जा सके। पाठचर्या के विषय के अनुरूप ही शिक्षक
को पाठ्चर्या की रूपरेखा, रचना, संगठन क्रियान्वयन एवं आदान-प्रदान के संबंध में ही यह
निर्धारित करना होता है कि किन युक्तियों के माध्यम से वह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को
बोधगम्य, बालकेन्द्रित और क्रिया आधारित बना सकता है। पर्यावरणीय अध्ययन के
अध्यापक के रूप में वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वर्ग कक्ष विनिमयन या अधिगम के
दौरान बच्चों की भागीदारी, उनकी अभिरुचियों व विचारों को महत्त्व देते हुए पाठ्चर्या में
अभिप्रेरणा व सर्जनात्मक चिन्तन, जिज्ञासा परक खोज एवं उपागम पर बल दिया जाना
आवश्यक है।
      पर्यावरणीय अध्ययन की पाठचर्या को इन पाँच मूलभूत केन्द्रिक विचार बिन्दुओं पर
आधारित किया गया है। पर्यावरणीय अध्यापक के रूप में हमें इन सीमाओं को ध्यान में
रखते हुए पाठचर्या का आयोजन करने की आवश्यकता होती है। पाँचों केन्द्रिक विचार निम्न
है:
(i) समाकलित ढंग से पाठचर्या का संगठन वास्तविक जीवन स्थितियों का आधार
मानकर ।.
(ii) बाल केन्द्रिक शिक्षण अधिगम (क्रिया आधारित)
(iii) दैनिक जीवन के वास्तविक मुद्दे घटनाओं (छात्र के प्राकृतिक व सामाजिक परिवेश |
पर आधारित छात्रों की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं पर आधारित।
(iv) पर्यावरण के साथ समायोजन के लिए छात्रों की अभिवृतियों के विकास से संबंधित।
(v) मूल्यों अभिवृत्तियों, भावनाओं एवं पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सजगता के विकास
और बल पर आधारित।
  पर्यावरणीय पाठचर्या के क्रियान्वयन एवं आयोजन में पर्यावरण शिक्षक विषय वस्तुओं
से सशक्त करने, प्रभावशाली एवं रोचक बनाने में या अपनी भूमिका को साकार करने में
विभिन्न युक्तियों का प्रयोग करता है। बच्चों को स्वयं खोज करने की प्रवृत्ति, जिज्ञासा, शंका
समाधान, प्रश्न पूछने में सिद्धहस्तता, चिन्तन, स्वाध्याय एवं विचार अभिव्यक्ति, सृजनात्मकता
समस्या के समाधान ढूँढना एवं साथ-साथ कार्य करने की प्रवृत्ति, प्रेक्षण, मापन वर्गीकरण इत्यादि ऐसी युक्तियाँ हैं, जो अधिगम कराने हेतु प्रयोग में लायी जाती है। लेकिन यह निश्चित होना
चाहिए कि ये युक्तियाँ विषयगत उद्देश्यों से ही निकलें।
      पर्यावरणीय अध्ययन पाठचर्या का आयोजन पर्यावरण के प्रति शिक्षार्थियों में सजगता
उत्पन्न करना ही सर्वोच्च लक्ष्य है। शिक्षार्थियों को समाजोपयोगी बनाना एक शिक्षक का नैतिक
उत्तरदायित्व है ताकि छात्रों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करके पर्यावरण की आवश्यकता
एवं संरक्षण के महत्त्व को उसके अन्दर प्रत्यारोपित किया जा सके।
     पर्यावरण अध्ययन पाठचर्या की आवश्यकता इसलिए और बढ़ जाती है कि यह हमारे
लिए अत्यंत उपयोगी है। पर्यावरण को यदि सम्पूर्णता में समझना है तो इसका अध्ययन व्यापक
तौर पर किया जाना आवश्यक है। इसके लिए उचित पाठचर्या आयोजन भी जरूरी है। तभी
हमारे प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा। यदि इनके महत्व को नहीं
समझा गया तो कालांतर में पर्यावरण प्रदूषित हो जाएगा। एक दिन पैसा समय आएगा जब
हम इस धरती पर लाचार, बीमार, विवश नजर आयेगे और समय रहते सचेत नहीं हो सके
तो इस धरती से जीवन ही समाप्त हो जाएगा। इसके लिए हम अपनी आवश्यकताओं को
सीमित करने के साथ-साथ जनसंख्या पर नियंत्रण रखना होगा।
        सारांशतः यह कहा जा सकता है कि पर्यावरणीय अध्ययन की पाठचर्या का आयोजन
करने एवं आदान प्रदान करने में हमें काफी सतर्कता दिखानी पड़ेगी और सकारात्मक सोच
के साथ आगे बढ़ना होगा।
प्रश्न 17. सतत् व्यापक मूल्यांकन कैसे किया जाए? इसका वर्णन करें।
उत्तर―सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रियाएँ-शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान
अधिगम के लगातार आकलन के जो भी कार्य किए जाते हैं । ये सतत व्यापक मूल्यांकन
की ही प्रक्रियाएँ हैं । ये प्रक्रियाएँ पर्याप्त लचीची, समय एवं स्थान के अनुसार उपयोगी तथा
रचनात्मक होनी चाहिए । इसे बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास हेतु वर्ग कक्ष विनिमयन
के दौरान भी किया जाएगा तथा सावधिक भी। कुछ प्रक्रियाएँ निम्नवत् हो सकती हैं :
1. दैनिक शिक्षण योजना―इसके अंतर्गत शिक्षक एक दिन पूर्व बैठकर अगले दिन
अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु का चयन करते हैं तथा चयनित
विषयों को पढ़ाने के लिए कार्य योजना बनाते हैं।
2. पूछताछ—इसके अन्तर्गत शिक्षक बातचीत द्वारा बच्चों से संबंधित जानकारी उनके
पूर्व ज्ञान, सिखाये गये बिन्दुओं के संबंध में जानकारी प्राप्त करते हैं एवं उनका मूल्यांकन
करते हैं।
3. अवलोकन― इसके अंतर्गत संज्ञानात्मक और सहसंज्ञानात्मक क्षेत्रों में व्यक्तिगत/छोटे
समूह में किए गए क्रियाकलापों के क्रम में अवलोकन द्वारा मूल्यांकन किया जाता है।
4. प्रश्नावली―इसके अंतर्गत प्रश्नावली के माध्यम से अधिगम बिन्दुओं के समझ की
लिखित जानकारी ली जा सकती है।
5. गतिविधि― रोचक एवं गतिविधियों के माध्यम से शिक्षण जिसमें सभी बच्चों
को सहभागिता सुनिश्चित हो सके तथा बच्चे स्वयं अपनी समझ विकसित कर सकें।
6. चाइल्ड पोर्टफोलियो― यह प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अलग-अलग बनाया जाना
चाहिए। इसमें बच्चों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारियों का संकलन होता है।
जिसे देखकर उसकी सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन किया जा
सकता है। इसमें तीन प्रकार की चीजें होंगी
(क) चाईल्ड प्रोफाइल ‘अ’―इसमें बच्चे एवं उसके परिवार के बारे में सामान्य
जानकारी एवं उसके स्वास्थ्य संबंधी टिप्पणियाँ होती है।
(ख) चाईल्ड प्रोफाइल ‘ब’ ―संज्ञानात्मक और सह संज्ञानात्मक प्रगति का ब्योरा इसमें
अंकित होता है। साथ ही, शिक्षकों के सुझाव एवं टिप्पणियाँ भी लगी रहेंगी।
(ग) बच्चों द्वारा बनाई और जुटाई गई सामग्री, उसके द्वारा लिखी गई सामग्री, पूछे गए
सवाल एवं किए गए उल्लेख कार्यों का ब्योरा भी उसके पोर्टफोलियो में होता है।
7.परियोजना कार्य―इसके अंतर्गत निश्चित अधिगम बिन्दु के अनुसार किए गए
परियोजना कार्य मूल्यांकन के आधार हो सकते हैं। जैसे-भाषा में किसी पाठ का
चयन उसमें आये संज्ञा शब्दों की सूची तैयार करना आदि। इसी प्रकार पाठ्यपुस्तक
में वर्णित परियोजना कार्य भी मूल्यांकन के लिए काफी उपयोगी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन बच्चों के सर्वांगीण विकास
का मूल्यांकन है।
प्रश्न 18. पर्यावरण अध्ययन के संदर्भ में आकलन के विभिन्न तरीकों को अपनाकर
शिक्षण-अधिगम को प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है? उपयुक्त उदाहरणों के द्वारा
स्पष्ट करें।
उत्तर―आकलन करने के तरीके को कक्षा में आजमाना एक सहज शिक्षण-पद्धति का
हिस्सा होना चाहिए जरूरत महज इतनी है कि शिक्षक इसमें विश्वास करे कि उसे हर बच्चे
को समझना है। उसे हर बच्चे के विकास के हर पहलू पर ध्यान देना है और उसे यह जानना
है कि कक्षा में होने वाली कौन-कौन सी प्रक्रियाओं से कौन-कौन से बच्चे किस हद तक
जुड़ पा रहे हैं ? आकलन को इस पद्धति को हर शिक्षक अपने तरीके से कक्षा में आजमा
सकता है, बशर्ते वह हर बच्चे के विकास के हर पहलू को ध्यान दे रहा हो।
     किसी भी तरीके को चुनने से पहले प्राप्त की जाने वाली जरूरी सूचनाओं के लिए आकलन
के प्रकार का निर्धारण आवश्यक है। आकलन करने के चार मूलभूत तरीके हैं―
(i) व्यक्तिगत आकलन―एक बच्चे को केंद्र में रखते हुए किया गया आकलन । जब
वह कोई गतिविधि/कार्य करता है और उसे पूर्ण करता है।
(ii) सामूहिक आकलन―किसी कार्य को पूर्ण करने के उद्देश्य से बच्चों द्वारा, सामूहिक
रूप से कार्य करते समय सीखने और प्रगति का आकलन, सामूहिक आकलन है। आकलन
का यह तरीका बच्चों के सामूहिक कौशलों, सहयोग द्वारा सीखने की प्रक्रिया तथा बच्चे के
व्यवहार से संबंधित अन्य मूल्यों के आकलन के लिए बहुत उपयुक्त पाया गया है।
(iii) स्व-आकलन―बच्चे द्वारा स्वयं के सोखने तथा ज्ञान, कौशल, प्रक्रियाओं, कार
व्यवहार आदि में प्रगति, स्व-आकलन से संबंधित हैं।
(iv) सहपाठियों द्वारा आकलन―एक बच्चे द्वारा दूसरे बच्चे का आकलन, इसे दो बन्द
को जोड़ो या समूह में करवाया जा सकता है।
     सभी स्कूलों में अध्यापकों द्वारा तैयार किए गए उपकरणों/तकनीकों के इस्तोमाल का ही
प्रचलन है। इसमें पेपर, पेंसिल, टेस्ट कार्यकलाप, लिखित और मौखिक परीक्षाएँ, तस्वीर आधारित
सवाल, कृत्रिम (सिमुलेटेड) कार्यकलाप और विद्यार्थियों के साथ वार्तालाप/ संवाद शामिल हैं।
अध्यापकों द्वारा बच्चों के सीखने की प्रगति का आकलन करने के लिए छोटे-छोटे क्लास टेस्टों
का इस्तेमाल एक आसान और शीघ्रगामी तरीके के रूप में किया जाता है।
       सामान्यतः एक अवधि विशेष में पढ़ाई गई निर्धारित विषय वस्तु के आधार पर सत्र या
माह के अंत में ये टेस्ट करवाए जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उपयोगी होते हैं, परंतु
इनका इस्तेमाल बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। इस तरह के परीक्षणों में पूछे
जाने वाले सवालों की प्रकृति ऐसी न हो कि उनसे पूर्व-निर्धारित उत्तर हो निकल कर आते
हों अपितु इन प्रश्नों की शब्द संरचना इस तरह को हो कि बच्चे को अपने विचार और भाव
तरह-तरह से अभिव्यक्त करने को पूरी गुंजाइश हो । टेस्ट में दी जाने वाली प्रविष्टियाँ/प्रश्न
कुछ इस प्रकार के हों कि वे चिंतन और विश्लेषण पर बल दें न कि पाठ्यपुस्तकों में दी
गई सामग्री को याद करके पुनः लिख देने पर। क्या आपने कभी सोचा है कि तरह-तरह
को विधियों का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? ऐसा निम्न वजह से किया जाता है :
(i) भिन्न-भिन्न विषयों, क्षेत्रों और विकास के भिन्न-भिन्न पहलुओं में सीखने का
आकलन किया जाता है।
(ii) बच्चों के सीखने के संबंध में अध्यापकों को समझ बनाने में हर विधि का अपनी
ही तरह से योगदान रहता है।
    विकास के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बच्चों की प्रगति और अधिगम के बारे में सूचनाएँ की
प्रमाण जुटाने के लिए आकलन का कोई भी एक उपकरण या विधि अपने आप में पर्याप्त
नहीं है। पढ़ाते समय आपने जरूर महसूस किया होगा कि विद्यार्थियों का अवलोकन कर,
उन्हें सुनकर, उनके अभिभावकों, दोस्तों और दूसरे अध्यापकों के साथ उनके बारे में अनौपचारिक
तरीके से चर्चा करके, उनके लिखित कार्य (कक्षा तथा गृहकार्य दोनों ही), बच्चों द्वारा लिखे
गए लेखों और उनके स्व-आकलन के आधार पर बहुत कुछ समझा जा सकता है।
प्रश्न 19.सतत् एवं व्यापक आकलन को अपनी कक्षा-कक्ष की प्रक्रिया का हिस्सा
बनाकर सीखने की प्रक्रिया को और गति दिया जा सकता है, कैसे?
उत्तर―आर.टी.ई. 2009 ने बच्चों को शिक्षा का अधिकार तो दिया ही साथ में उसने
यह भी सुनिश्चित किया कि कक्षा की प्रक्रियाएँ कैसे चलेंगी? इसमें यह तय किया गया
कि बच्चों को फेल या पास करने के लिए मूल्यांकन न किया जाए, बल्कि एक ऐसे आकलन
की पद्धति विकसित की जाए जो बच्चों को कारगर तरीके से सीखने में मदद करे । इसलिए
आर. टी. ई. में नियमित एवं सम्पूर्ण आकलन की परिकल्पना की गयी।
        नियमित एव सम्पूर्ण आकलन का सवाल कक्षा के शिक्षाशास्त्र से जुड़ा है। अगर आप
परंपरागत और जड़ तरीकों से पढ़ाते हैं तो यह बहुत मुश्किल होगा कि आप नियमित व सम्पूर्ण
मूल्यांकन कर सके। बी.सी.एफ.2008 यह मानता है कि मूल्यांकन का इस्तेमाल शिक्षण
अधिगम की रणनीति के रूप में किया जाना चाहिए। इसलिए यह जरूरी है कि नये संदर्भो
को देखते हुए-खासतौर से एन.सी.एफ. का निर्माणवादी परिप्रेक्ष्य बी०सी० एफ० का दर्शन और
आर. टी. ई. को कानूनी बाध्यता-हम नियमित एवं सम्पूर्ण मूल्यांकन को अपनी कक्षा में
आजमायें और इसके लिए एक कार्य-योजना बनायें।
         सतत एवं व्यापक आकलन के जरिए हम कक्षा में कुछ खास तरह की प्रक्रियाओं और
सहज सम्बन्धों के द्वारा हासिल कुछ प्रकार के नतीजे देखना चाहते हैं जैसे कि बिहार पाठ्यचर्या
को रूपरेखा की माँग है।
      संज्ञानात्मक एवं सह-संज्ञानात्मक नतीजे कक्षा के भीतर बच्चों को विकास के कई आयामों
की ओर इंगित करते हैं। बच्चे ज्यों-ज्यों बड़े होते हैं, उनका संज्ञानात्मक विकास मूर्त से अमूर्त
चीजों की ओर होता है, इसी दौरान कई तरह के सह-संज्ञानात्मक विकास (जिनमें नैतिक
विकास, सामाजिक विकास, शारीरिक विकास, कलात्मक क्षमता का विकास, सौंदर्य-बोध का
विकास, मूल्यों का विकास इत्यादि शामिल है) भी होते हैं। यह जरूरी है कि हम विकास
के हर पहलू पर नजर रखें।
        कक्षा में कई तरीके की प्रक्रियाएँ चलती रहती है। यह देखना जरूरी है कि बच्चा उन
प्रक्रियाओं में कैसे शामिल होता है और उस दौरान हुए अनुभवों के आधार पर पुनसृजन कैसे
करता है ? विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं में बच्चों की भागीदारी यह बताती है कि बच्चा
एक खास क्षेत्र में किस प्रकार की प्रगति कर रहा है, मसलन खेल-कूद में या सांस्कृतिक
एवं कलात्मक गतिविधियों में बच्चे की भागीदारी का अवलोकन एवं सावधानीपूर्वक तैयार
अभिलेख उसके शारीरिक एवं कलात्मक विकास की जानकारी दे सकता है।
     कक्षा के भीतर बच्चे कई तरह के संबंधों को जीते हैं। इन संबंधों की प्रकृति का अवलोकन
हमें बच्चे के सामाजिक विकास की जानकारी दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम
इसका ध्यानपूर्वक अवलोकन करें कि बच्चों की सामूहिक गतिविधि कैसी है, वह किस तरह
के समूह के साथ उठता है-बैठता है-खेलता है-पाठ्य सामग्री की अदला-बदली करता है
और किनके साथ स्कूल जाता है। यह भी देखना जरूरी है कि बच्चे का शिक्षकों के साथ
कैसा संबंध है, वह शिक्षकों से क्या बातचीत करता है, इत्यादि ।
प्रश्न 20.आकलन संबंधी सूचनाएं एकत्रित करने के स्रोत कौन-कौन से हो सकते
हैं ? आकलन प्रक्रिया में इन्हें शामिल करने के क्या फायदे हो सकते हैं?
उत्तर―अध्यापक ही सूचनाओं का मुख्य स्रोत है और यही वह व्यक्ति है जो बच्चों
के सीखने का आकलन भी करता है। जो भी हो, चूकि आकलन सीखने की प्रक्रिया का
ही हिस्सा है, बच्चे स्वयं भी अपने अधिगम और प्रगति का आकलन करने में एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं। अध्यापक बच्चों की स्वयं का आकलन करने में मदद कर सकते हैं।
      बच्चों से क्या अपेक्षा की जा रही है, इसकी बेहतर समझ विकसित करने में मदद की
जा सकती है। अपने काम और प्रदर्शन को आलोचनात्मक नजरिए से देखने के लिए अनुभव
प्रदान किए जा सकते हैं। बच्चों से यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने उन कामों का
चयन करें जो उनकी नजर में सर्वोत्तम हैं और यह भी बताएं कि उन्होंने उनका चयन क्यों
किया? बच्चों के अतिरिक्त क्या कोई और भी हैं, जिनसे बच्चों के आकलन के संबंध में
सूचनाएँ ली जा सकती हैं? बच्चों के विकास के दूसरे पहलुओं की पूरी तस्वीर स्पष्ट करने
के लिए उन्हें भी आकलन की प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है। वे कौन हो सकते
हैं? अध्यापक और भी बहुत से व्यक्तियों के साथ बातचीत कर उन्हें आकलन की प्रक्रिया
में शामिल कर सकते हैं, वे व्यक्ति हो सकते हैं―
• माता-पिता/अभिभावक
• बच्चों के मित्र/सहपाठी
• दूसरे अध्यापक
• समुदाय के लोग
         विकास के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को प्रगति और अधिगम के बारे में सूचनाएँ और प्रमाण
जुटाने के लिए आकलन का कोई भी एक उपकरण या विधि अपने आप में पर्याप्त नहीं है।
पढ़ाते समय आपने जरूर महसूस किया होगा कि विद्यार्थियों का अवलोकन करके, उन्हें सुनकर,
उनके अभिभावकों, दोस्तों और दूसरे अध्यापकों के साथ उनके बारे में अनौपचारिक तरीके
से चर्चा करके, उनके लिखित कार्य (कक्षा तथा गृहकार्य दोनों ही), बच्चों द्वारा लिखे गए
लेखों और उनके स्व-आकलन के आधार पर बहुत कुछ समझा जा सकता है।
       आकलन सीखनेवाले का होना है या सीखने की प्रक्रिया का? एक बार यह बात साफ
हो जाने पर भूमिकाओं का निर्धारण आसानी से हो सकता है। सी.सी.ई. का उद्देश्य बच्चे
का सर्वांगीण विकास है। अतः इसका फोकस अपनायी जा रही प्रक्रिया पर ही रखना होगा।
       सीखने की प्रक्रिया में सीखनेवाले की भूमिका और ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। चूँकि
सतत आकलन सीखने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है, अतएव सीखनेवाला इसे ज्यादा ठीक
तरीके से अद्यतन (अपडेट) कर सकता है। अपनी बनायी चीजें उसमें रख सकता है। उसे
समय-समय पर देख सकता है। अपने लिए सुझावों पर अमल कर सकता है। पोर्टफोलियो
से वह न केवल अपनी प्रगति को देखता रहता हे वरन् उसके लिए प्रयास भी कर सकता है।
     पोर्टफोलियो अभिभावकों और समुदाय के लिए भी काफी मददगार होता है। शुरूआत
में उसे पूरा करने में वे शिक्षकों की मदद कर सकते हैं। घर पर लगातार बच्चों पर नजर
रख समय-समय पर स्कूल में सुझाव भी दे सकते हैं।
    समुदाय में सही शिक्षा का मतलब फैलाने में भी पोर्टफोलियो की भूमिका महत्वपूर्ण होगी,
विशेषकर उन जगहों पर जहाँ अब भी बच्चों पर कड़े अनुशासन और रटने को हो शिक्षा
समझा जाता है। बच्चों के अन्दर पनप रहे गुणों को लगातार देखते रहने से समाज में बच्चों
और शिक्षा के प्रति नजरिया को बदला जा सकता है।
प्रश्न 21. आकलन के लिए सूचना एकत्रित करने की प्रक्रिया को अधिक
प्रभावशाली कैसे बनाया जा सकता है?
अथवा, आकलन के दौरान एकत्रित सूचनाओं का इस्तेमाल कहाँ और किस प्रकार
करेंगे? उदाहरण देकर समझाएँ।
उत्तर―सूचना दर्ज करने की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावशाली बनाने के उपाय :
(i) बच्चों का अवलोकन करना और तुरंत मुख्य बिंदुओं को या फिर देखे जा रहे परिवर्तन
को डायरी, रजिस्टर, नोटबुक आदि में दर्ज कर लेना।
(ii) किसी गतिविधि को करने के दौरान फिर जब गतिविधि पूरी हो जाए.
का आकलन करना।
(iii) बच्चे द्वारा किए गए काम का या उससे जुड़ी रुचिकर घटना का गुणात्मक उल्लेख
यानी कि विस्तार से लिखने के लिए विशेष प्रयास करना ।
(iv) बच्चे का प्रोफाइल तैयार करना ।
(v) पोर्टफोलियों में बच्चों के काम के नमूने रखना ।
(vi) अवलोकन करते समय तथा सूचना दर्ज करते समय बच्चे से बातचीत करना कि
क्या किया जा सकता है और कैसे किया जा रहा है।
(vii) महत्वपूर्ण बदलाव, समस्याओं, सकारात्मक बिंदुओं, मजबूतियों और सीखने के साक्ष्यों
को नोट करने के लिए विशेष प्रयास करना ।
(vii) सूचनादर्ज करते समय यदि किसी तरह का संदेह उत्पन्न होता है तो तत्क्षण उसे
बच्चे
स्पष्ट कर लेना।
       बच्चे के सीखने और प्रगति की पूरी तस्वीर देने के लिए इसके क्षेत्र को विस्तृत करने
की आवश्यकता है। रिकॉर्डिंग में बच्चों द्वारा किए कार्यो/प्रदत्त कार्यों में उनकी प्रस्तुति के
अवलोकन तथा उन पर की गई टिप्पणियाँ-बच्चे क्या करते हैं, उनका व्यवहार कैसा है-की’
रेटिंग में बच्चों के दूसरों के साथ व्यवहार की घटनाओं को सम्मिलित करने की आवश्यकता है।
      संभावनाओं के विस्तार की जरूरत है, जिसके अंतर्गत शामिल हो सकते हैं―अवलोकनों,
के रिकॉर्ड, किसी कार्यकलाप या प्रदत्त कार्य में बच्चों के प्रदर्शन पर टिप्पणियाँ, बच्चे क्या
करते हैं और कैसे करते हैं के बारे में श्रेणियाँ बनाना, दूसरों के साथ बच्चों के व्यवहार से
जुड़ी घटनाएँ आदि । यदि आप भी अपनी कक्षा में इन्हें शामिल कर सकें तो नीचे लिखे
बिंदुओं से आपको भी मदद मिलेगी―
• बच्चों का अवलोकन करने के बाद तुरंत ही अवलोकनों को दर्ज करें।
• कला और शिल्पकारी, जिनको बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता, के क्षेत्र में बच्चों
के काम और प्रदर्शन के नमूनों का संग्रह करें।
• गुणात्मक टिप्पणियाँ लिखने के बारे में विचार करें।
पूर्वाग्रह त्रुटियाँ दर्ज की जा रही सूचनाओं को प्रभावित करती है :
      बहुधा ऐसा पाया गया है कि बच्चों के सीखने और प्रगति का अवलोकन करते समय
कुछ गलतियाँ हो जाती है। ये गलतियाँ हमारे पूर्वाग्रहों का परिणाम हो सकती हैं―
• बच्चों की योग्यता, संभाव्यता व कार्य निष्पादन के संबंध में पहले के अनुभव। .
• लड़कियों की अपेक्षा लड़के को अधिक प्रिय मानना । किन्हीं परिस्थितियों में स्थिति
इसके उलट (विपरीत) भी हो सकती है।
• दूसरे विषय क्षेत्रों में बच्चों के पूर्व निष्पादन के आधार पर उसके द्वारा किए जा रहे
कामों के एक ही पहलू पर विशेष ध्यान देना।
• बच्चे की सामाजिक पृष्ठभूमि जैसे-जाति, वर्ग, समुदाय, भौगोलिक पृष्ठभूमि (स्थान
जहाँ वह रहता है) आदि ।
• किसी एक विषय और उसके किसी एक क्षेत्र की परीक्षा से जुड़े पूर्व परिणाम ।
• एक ही विषय में किसी एक मानदंड से मिलते-जुलते मानदंड के लिए एक से अंक
दे देना।
      यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जिन सूचनाओं का संग्रह किया गया है, उन्हें अच्छी तरह
से समझा जाए, उत्तरों की विविधता को प्रोत्साहित किया जाए और उनकी सराहना की जाए।
  एक बार सूचनाएँ दर्ज कर ली जाएँ फिर तीसरा महत्त्वपूर्ण पहलू या अगला चरण है―उपलब्ध
साक्ष्यों की मदद से एक समझ बना पाना कि क्या सूचनाएँ इकट्ठी की गई और फिर बच्चे
के सीखने तथा प्रगति के बारे में निष्कर्ष निकालना। ‘बच्चे की प्रगति कैसी है’ और बच्चे
की मदद के लिए क्या किया जाना चाहिए, यह समझने के लिए रिकॉर्डिंग बहुत जरूरी है।
किया जाए और समीक्षा भी। साथ ही संग्रहीत सूचनाओं के प्रति सर्वाधिक प्रतिक्रिया भी दी जाए।
सीखने की प्रक्रिया के दौरान जब आकलन साथ-साथ चल रहा होता है, तब आपके
इसके लिए जरूरी है कि बच्चे के संबंध में दर्ज किए रिकॉों का नियमित रूप से विश्लेषण
पास बच्चों के बारे में बहुत सारी सूचनाएँ एकत्रित हो जाती हैं। सूचनाएँ दर्ज कर लेने के
बाद वह उनका विश्लेषण कर लेने के बाद इनका क्या किया जाए, यह जान लेना भी आवश्यक
होगा? यह तो आप भी जानते होंगे कि सामान्यतः सभी विद्यालबों में विद्यार्थियों के सीखने
और प्रगति के आकलन से जुड़ी सूचनाएँ माता/पिता और विद्यार्थी दोनों को ही एक रिपोर्ट
कार्ड के माध्यम से दी जाती है। ये रिपोर्ट कार्ड एक प्रकार से भिन्न-भिन्न विषयों में बच्चों
के प्रदर्शन और निष्पादन की एक तस्वीर विद्यालयी सत्र में भायोगित टेस्टों, परीक्षाओं में प्राप्त
अंकों और ग्रेडों के आधार पर प्रस्तुत करते हैं।
        यह रिपोटिंग रचनात्मक, संप्रेषकीय तथा इस तरह से प्रस्तुत की जानी चाहिए, जिससे
कि संबंधित व्यक्ति उसे सरलतापूर्वक समझ सके। यह भी संभव है जब अध्यापक विद्यार्थी
के संबंध में उन सभी सूचनाओं को परिलक्षित करें, जो उन्होंने अपने दिन-प्रतिदिन के अनुभव
और सीखने के क्षेत्र विशेष के उद्देश्यों पर प्राप्त की है।
                                                      □□□

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