पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए । Write a detailed note on Piaget’s Theory of Cognitive Development.
प्रश्न – पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए । Write a detailed note on Piaget’s Theory of Cognitive Development.
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संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा क्या है? भारतीय सन्दर्भ में जिक्र के साथ संज्ञानात्मक विकास के पियाजे के सिद्धान्त के प्रभावों की विवेचना कीजिए । What is the concept of Cognitive Development? Discuss the implications of Piaget’s theory of Cognitive Development with reference to Indian context.
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पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त का आप शिक्षा के क्षेत्र में कैसे प्रयोग करेंगे? How would you use the theory of Piaget’s cognitive development in the field of education ?)
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पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त की अवधारणा तथा मान्यताओं का वर्णन कीजिए । Discuss the concept and implications of Piaget’s Theory of Cognitive Development.
उत्तर- जीन पियाजे को ‘विकासात्मक मनोविज्ञान का प्रेरक माना जाता है। पियाजे ने संज्ञानात्मकता पर बल दिया और ‘संज्ञानवादी विकास सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त ( Theory of Cognitive Development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। पियाजे का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पियाजे का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (Developmental Stage Theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है एवं यह बतलाता है कि मानव क्रमशः कैसे ज्ञान का अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक करके जोड़ता है, तथा कैसे इसका उपयोग करता है। व्यक्ति वातावरण के तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने का प्रयास करता है तथा सम्बन्धित वस्तु अथवा व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिलेट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञानात्मक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता है। पियाजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता है और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। चूँकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है, इसलिए इसे अवस्था सिद्धान्त भी कहा जाता है ।
संज्ञान क्या है? (What is Cognition ?)
संज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें संवेदना (Sensation), प्रत्यक्षण (Perception), प्रतिमा (Image), धारण (Retention). समस्या – समाधान (Problem-solving), तर्क (Reasoning). चिन्तन (Thinking) एवं प्रत्यावान (Recall) आदि मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) निहित हैं। उपरोक्त मानसिक संक्रियाएँ संवेदी सूचनाएँ हैं और इन संवेदी सूचनाओं के समुचित प्रयोग से बालक की बौद्धिक क्षमता विकसित होती है। संवेदी सूचनाओं का ग्रहण, रूपान्तरण, संग्रहण एवं पुनर्लाभ का समुचित प्रयोग ही संज्ञान हैं। मानव का संज्ञान विकास जीवनपर्यन्त म चलता रहता है। पियाजे ने मानसिक विकास की अवस्था को ही संज्ञानात्मक विकास कहा है। संज्ञानात्मक विकास में बुद्धि, चिन्तन और भाषा का परिवर्तन सम्मिलित है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में संवेदना, तर्क शक्ति, प्रत्यक्षीकरण, चिन्तन, समस्या- समाधान जैसे तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं।

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त से सम्बन्धित पक्ष (Related Aspects of Piaget’s Theory of Cognitive Development)
- जैविक या शारीरिक परिपक्वता (Biological or Physical Maturation)—यह सिद्धान्त जैविक प्रेरकों एवं परिपक्वता से सम्बन्धित है। इसके अनुसार बालक का व्यवहार भूख, प्यास, जैसे प्रेरकों से प्रभावित होता है। व्यक्ति का व्यवहार परिपक्वता से ही निरूपित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति वांछित व्यवहार नहीं कर सकता। पियाजे ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया ।
- भौतिक वातावरण के साथ अनुभव ( Experience of Physical Environment) – बालक के अधिगम में उसकी ज्ञानेन्द्रियों का बहुत बड़ा योगदान होता है। भौतिक पर्यावरण एवं अभौतिक अनुभवों के मध्य तार्किक सम्बन्ध पाया जाता है। पियाजे के अनुसार, भौतिक वातावरण अधिगम में सहायक है। भौतिक वातावरण के तीन पक्ष होते हैं- अभ्यास, भौतिक अनुभव एवं तार्किक गणितीय अनुभव |
- सामाजिक वातावरण से अनुभव (Experience of Social Environment) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सामाजिक सदस्य के रूप में विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करता है। सामाजिक वातावरण में सामाजिक क्रियाएँ, सहयोग, प्रतिस्पर्धा, परम्परा एवं लोकाचार जैसे विभिन्न पक्ष सम्मिलित होते हैं। इन पक्षों से प्राप्त अनुभव अधिगम में सहायक होते हैं। पियाजे ने सामाजिक अनुभव को सीखने के लिए भाषा के समाजीकरण को आधार माना है।
- संतुलन (Balance) – पियाजे ने विकास के सभी पक्षों का विधिवत विश्लेषण करने के बाद बताया कि अधिगम के लिए सभी सिद्धान्तों में समन्वय होना आवश्यक है। पियाजे के अनुसार, प्रत्येक विषय में तथ्यों की एक संरचना होती है। सीखने के लिए इस संरचना में संतुलन की आवश्यकता होती है। अधिगम के दौरान जब बालक समस्याओं के साथ व्यवस्थापन करता है तो उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है, यही संतुलन की अवस्था होती है। इस प्रक्रिया में आत्मीकरण, समायोजन एवं अनुकूलन का अहम् योगदान होता है।
संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ ( Stages of Cognitive Development)
संज्ञानात्मक विकास बालक की समस्या समाधान, सोचने व निर्णय लेने की क्षमता एवं सृजनात्मक रणनीति बनाने में योगदान देता है। जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है। ये चारों अवस्थाएँ एक दूसरे पर आश्रित होती हैं तथा निरन्तर चलती रहती हैं-

- संवेदी पेशीय अवस्था अथवा इन्द्रियजनित गामक अवस्था (Sensory Motor Stage) – इसको सेन्सरीमोटर अवस्था भी कहा जाता है। यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष तक चलती है जिसको पियाजे ने फिर 6 भागों में विभक्त किया है। इस अवस्था में बालक अपनी संवेदनाओं तथा सामाजिक क्रियाओं के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है ।
इस काल में बालक की बुद्धि की अभिव्यक्ति उसके कार्यों से होती है। इस अवस्था के बालकों में इंद्रियों के अनुभवों तथा उन पर पेशीय कार्य करके समझ विकसित हो जाती है। इसी कारण इसे संवेदी – पेशीय अवस्था भी कहा जाता है। नवजात बालक स्पर्श की गई व देखी गई वस्तु में भेद नहीं कर सकता । परन्तु प्रथम वर्ष के अंत तक वह यह सीख जाता है। इस आयु काल में बालक स्पर्श करना, चूसना, चिल्लाना, हाथ-पैर मारना आदि क्रियाएँ करता है तथा एक वर्ष के उपरान्त वह इन क्रियाओं में समन्वय करना सीख जाता है। इस अवस्था में बालक को वस्तुओं के स्थायित्व का ज्ञान हो जाता है।
- पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage) – यह अवस्था 2 वर्ष से लेकर 7 वर्ष की आयु के मध्य तक होती है। इसे पूर्व परिचालन (pre-operational) अवस्था भी कहते हैं। इस आयु काल में बालक को घटनाओं एवं वस्तुओं के अर्थ का ज्ञान हो जाता है तथा प्रतिमाओं का अंतःकरण प्रारम्भ हो जाता है। इस अवस्था के अंत तक बालक स्वकेन्द्रित एवं स्वार्थी न रहकर दूसरों से सम्पर्क स्थापित करता है । इस दौरान वह नई सूचनाएँ एवं अनुभव ग्रहण करता है। इस अवस्था में भाषा का विकास प्रतीकों के माध्यम से होता है। बालक सामाजिक व्यवहार को खेल व अनुकरण के माध्यम से ग्रहण करता है। इस अवस्था में बालक कल्पना करना तो शुरू कर देता है लेकिन अभी वह तार्किक चिंतन करने में असमर्थ ही रहता है। इस कारण इस अवस्था को अतार्किक चिंतन की अवस्था भी कहा जाता है ।
- मूर्त क्रिया काल (Concrete Operational Stage)- इसे प्रत्यक्ष या स्थूल संक्रियात्मक अवस्था भी कहा जाता है। 7 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के मध्य की है। मूर्त क्रिया काल में बालक अंक, लंबाई, समय, भार जैसे सम्प्रत्यय सीख जाता है और वस्तुओं में कार्य-करण सम्बन्ध जानने का प्रयास करता है। इस अवस्था में बालक करके सीखता है। वह वस्तुओं का क्रम निर्धारण कर उनका वर्गीकरण करता है और उसके बाद व्याख्या करता है। इस आयु काल में बालक तार्किक चिंतन करने योग्य तो हो जाता है परंतु उसका चिंतन कुछ प्रत्यक्ष वस्तुओं तक ही सीमित रहता है । इस अवस्था में बालक पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करना सीख जाता है ।
- औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage) – यह अवस्था बारह वर्ष की आयु के पश्चात् आरम्भ होती है जो प्रौढ़ावस्था तक चलती है। इस अवस्था में बालक पूर्व अवस्थाओं से प्राप्त ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर वस्तुओं के गुण-दोष की पहचान करता है। अब बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है और समस्याओं के बारे में जानने एवं उनके सामाधान का प्रयत्न करता है। इस अवस्था में बालक मूर्त के साथ-साथ अमूर्त चिंतन करना भी सीख जाता है। इस कारण इसे तार्किक चिंतन की अवस्था भी कहा जाता है ।
पियाजे के सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिताएँ (Educational Utilities of Piaget’s Theory)
- पियाजे ने अपने सिद्धांत में शिक्षार्थी की भूमिका को काफी सक्रिय एवं महत्त्वपूर्ण माना है। इससे शिक्षक शिक्षार्थी की आवश्यकता एवं अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम तैयार करता है जो छात्रों के लिए सुविधाजनक होती है।
- पियाजे के सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है, कि बालकों के चिंतन में जीववाद एवं आत्मकेंद्रिता जैसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इससे शिक्षक को अपने अध्यापन कार्य में विशेष सहायता मिलती है। वे अपने अध्यापन कार्यक्रम को इस ढंग से तैयार करते हैं कि शिक्षार्थी इस तरह के दोषों से जल्द से जल्द मुक्त हो जाएं।
- याजे का सिद्धान्त स्पष्ट संकेत देता है, कि ठोस संक्रियात्मक अवस्था में बालकों का संज्ञानात्मक विकास इस स्तर का हो . जाता है कि वे संरक्षण तथा वर्गीकरण से सन्बन्धित समस्याओं का समाधान कर सकते हैं । अतः इस अवस्था में अर्थात् (7 से 11 साल) की आयु में यदि शिक्षक इन जटिल मानसिक संक्रियाओं को अधिक बढ़ा देते हैं, तो इससे उनके बौद्धिक विकास का तेजी से बढ़ता है तथा शिक्षा के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।
- पियाजे के इस सिद्धांत ने शिक्षकों को बालकों के खेल को एक नए संदर्भ में विचार करने के लिए बाध्य कर दिया है, परन्तु पियाजे ने अपने इस सिद्धांत में यह स्पष्ट कर दिया है कि खेल का शैक्षिक महत्त्व अधिक है। खेल के माध्यम से बालकों में संज्ञानात्मक सम्पन्नता विकसित होती है, जो उसके संज्ञानात्मक विकास का एक मूल आधार बनाती है।
- पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त से शिक्षकों को स्पष्ट निर्देश मिलता है कि वे शिक्षार्थियों को अपनी ही क्रियाओं द्वारा एक नई सोच व समझ विकसित करने में काफी मदद कर सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि शिक्षक को शिक्षार्थी की सहायता बिना किसी आवश्यकता के हर कदम पर नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उनमें स्वायत्तता तथा आत्मविश्वास जैसे गुणों का विकास नहीं होता है जो संज्ञानात्मक विकास में एक बाधक के रूप में साबित हो सकता है।
स्पष्ट है कि पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त का शैक्षिक अत्यधिक है। इससे शिक्षकों को अध्यापन कार्य के लिए स्वयं भी अच्छा निर्देश मिलता है तथा साथ ही साथ शिक्षार्थियों के लिए भी अधिक उपयोगी सुझाव मिल जाते हैं।