1st Year

प्रमुख संरचनावादी सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। Describe the different Structuralist Theories.

प्रश्न – प्रमुख संरचनावादी सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। Describe the different Structuralist Theories.
उत्तर- विभिन्न संरचनावादी सिद्धान्त (Different Structuralist Theories )
  1. संरचनावादी प्रकार्यवादी सिद्धान्त (Structuralist Functionalism Theory) – फ्रेंच समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम का इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके अनुसार संरचना एवं प्रकार्य के बीच गहरा सम्बन्ध है तथा संरचना का निर्माण सामाजिक तथ्यों से होता है। प्रत्येक सामाजिक तथ्य का सामाजिक संरचना के लिए एक निश्चित प्रकार्य होता है। जैसे-जैसे जनसंख्या एवं हमारी आवश्यकताएँ बढ़ी वैसे-वैसे श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण की आवश्यकता भी बढ़ने लगी इससे समाज के अंगों के बीच निर्भरता भी बढ़ने लगी जिससे समाज में श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण का विस्तार हुआ इसमें व्यक्ति एक-दूसरे से स्वतन्त्र न होकर आश्रित हो जाता है कानून का स्वरूप दमनकारी न होकर क्षतिपूर्ति (Resistive) के सिद्धान्त पर आश्रित हो जाता है अर्थात् गलत कार्य करने वाले लोगों को कानूनी तौर पर घाटे की भरपाई करनी होती है। इसी तरह संरचनावादी सामाजिक मानवशक्तियों में रेडक्लिफ ब्राउन का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन्होंने संरचना पर लेख लिखकर तथा प्राचीन समाजों की संरचना का अध्ययन करके सामाजिक संरचना की अवधारणा को स्पष्ट ही नहीं किया अपितु इसकी व्यावहारिक उपयोगिता भी प्रदर्शित की है।उनके अनुसार सामाजिक संरचना से अभिप्राय सामाजिक सम्बन्धों के जटिल ताने-बाने से है। व्यक्ति जो कि समाज को निश्चित स्थिति में रखते हैं इन्होंने सामाजिक संरचना को संस्थाओं की पद्धति के रूप में भी परिभाषित करने का प्रयास किया, क्योंकि व्यक्ति संस्थाओं द्वारा आपस में जुड़े होते हैं तथा संस्थाएँ व्यक्तियों के व्यवहार में अनुरूपता लाती हैं। इन्होंने सामाजिक संरचना को एक अनवरत गतिशीलता के रूप में देखा है अर्थात् व्यक्तियों के आने-जाने से परिवार की संस्था में परिवर्तन हो जाने पर विवाह तथा तलाक की दर अधिक होने पर समूह की संरचना में स्थायित्व बना रहता है परन्तु इन्होंने केवल स्थायित्व को ही सामाजिक संरचना का मुख्य तत्त्व नहीं माना है। इन्होंने संरचना की अवधारणा में श्रम विभाजन, सन्दर्भ समूह तथा आन्तरिक तथा बाह्य स्वरूप को भी महत्त्व दिया है।
  2. आवश्यकताओं का सिद्धान्त (Theory of Needs) – इस सिद्धान्त के जनक मानवशास्त्री मेलिनॉवस्की थे। उन्होंने जनजातीय समाजों का सामाजिक सांस्कृतिक इकाई के रूप में अध्ययन किया। इन्होंने जनजातीय संस्कृति को समझने के लिए जिस विशिष्ट दृष्टिकोण को विकसित किया उसे हम आवश्यकताओं का सिद्धान्त कहते हैं। उन्होंने बताया कि समाज का निर्माण परस्पर सम्बन्धित तत्त्वों से होता है जिसका आधार मनुष्य की आवश्यकताएँ हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि सभी व्यक्ति की कुछ मूलभूत आवश्कताएँ होती हैं जिसकी पूर्ति न होने पर उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। जैसे- भोजन, वस्त्र, आवास, सुरक्षा आदि इन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनुष्य कुछ अन्य आवश्यकताओं को जन्म देता है जिन्हें द्वितीयक (Secondary) आवश्यकताएँ कहते हैं, जैसे- संचार, सहयोग, संघर्ष आदि । मनुष्य ने इन द्वितीयक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भाषा, नियम, कानून बनाए। ये द्वितीयक आवश्यकताएँ स्त्री व पुरुष में भिन्न-भिन्न होती हैं। इस प्रकार मनुष्य बहुत प्रकार के सम्बन्धों एवं संस्थाओं का निर्माण अपने स्वार्थों को पूरा करने एवं रक्षा करने के लिए करता है।मेलिनॉवस्की के समकालीन रेडक्लिफ – ब्राउन एक दूसरे मानवशास्त्री हैं जिन्होंने प्रकार्यवाद के क्षेत्र में अपना मौलिक योगदान दिया है। इस प्रकार्य को संरचना के साथ जोड़कर रेडक्लिफ ब्राउन ने वैसे सिद्धान्त का विकास किया जिसे मेलिनॉवस्की नहीं कर पाए।
  3. सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त (Theory of Social Action ) – टालकॉट पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था को दो स्तरों पर देखने का प्रयास किया एक संरचना के स्तर पर तथा दूसरा प्रकार्य के स्तर पर । पारसन्स का सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त का आधार संरचना ही है। उन्होंने क्रिया शब्द का प्रयोग सामाजिक व्यवहार के पर्यायवाची के रूप में किया है। सामाजिक क्रिया किसे कहते है? यह समझने के लिए सामाजिक क्रिया की संरचना को समझना आवश्यक है इसके प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं-
    1. सामाजिक क्रिया के अन्तर्गत कम से कम दो व्यक्तियों का कर्त्ता या किरदार के रूप में होना आवश्यक है।
    2. कर्त्ता किसी उद्देश्यवश कोई कार्य करता है उसके सामने एक से अधिक उद्देश्य भी हो सकते हैं।
    3. कर्त्ता के सामने किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एक से अधिक विकल्प भी हो सकते हैं।
    4. कोई कर्त्ता किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किस प्रकार का व्यवहार करेगा ये निम्न तीन बातों पर निर्भर करता है।
      1. कर्त्ता की परिस्थिति ।
      2. कर्त्ता की जैविक बनावट ।
      3. कर्त्ता की आनुवंशिकता ।
    5. किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कर्ता के द्वारा किया गया व्यवहार या कार्य सामाजिक मानदण्ड से प्रभावित होता है।
    6. अन्त में कर्त्ता का व्यवहार उसका व्यक्तिपरक निर्णय होता है।
      पारसन्स का ये सिद्धान्त समाज में व्यक्तियों ( लिंग भेद के अनुसार) के व्यवहार की क्रिया विधि को स्पष्ट करता है। इन्होंने बताया कि व्यक्ति एवं व्यवस्थाओं के बीच एक प्रकार की अंतःनिर्भरता का सम्बन्ध पाया जाता है । पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था की जिन तीन संरचनाओं का वर्णन किया है वे हैं-
      (i) सामाजिक संरचना
      (ii) सांस्कृतिक संरचना
      (iii) व्यक्तित्व संरचना
      प्रारम्भ में पारसन्स ने तीन प्रकार की व्यवस्थाओं की चर्चा की परन्तु बाद में इन्होंने जैविक व्यवस्था को भी जोड़ दिया ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि व्यक्ति या समाज को जीवित रहने के लिए किसी न किसी प्रकार की आर्थिक क्रिया का होना नितान्त आवश्यक है।
  4. कार्ल मार्क्स संरचना (Karl Marx Structure ) – कार्ल मार्क्स सामाजिक चिन्तक थे। उन्होंने बताया कि सामाजिक परिवर्तन वर्ग संघर्ष द्वारा ही सम्भव होता है तथा वर्ग संघर्ष का आधार सामाजिक संरचना है। मार्क्स के अनुसार सामाजिक संरचना के मुख्य दो तत्त्व होते हैं-
    (i) आधारभूत संरचना (Sub-Structure )
    (ii) अधिरचना या आश्रित संरचना (Super Structure )
    कार्ल मार्क्स ने समस्त उत्पादन प्रणाली (Mode of Production) की उन्होंने आधारभूत संरचना तथा अन्य अंगों, जैसे- सरकार, धर्म, परिवार, आदर्श, दर्शन इत्यादि को आश्रित संरचना कहा है। मार्क्स ने आधारभूत संरचना को दो उपभागों में बाँटा है-
    1. उत्पादन के साधन- इसके अन्तर्गत भूमि, प्रौद्योगिकी एवं अन्य पूँजी सामग्री सम्मिलित है।
    2. उत्पादन के सम्बन्ध में- इसके अन्तर्गत उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़े विभिन्न वर्ग के लोगों के बीच का सम्बन्ध आता है। मार्क्स ने बताया कि मनुष्य अपनी समस्याओं को सुलझाने एवं सुविधाओं को बढ़ाने के लिए हमेशा प्रकृति पर हावी होना चाहता है, इन्होंने कहा कि जब तक समाज में वर्ग विभाजन है समाज में शोषण विद्यमान रहेगा क्योंकि यह विभाजन शोषण पर आधारित है उसी तरह समाज में जब तक शोषण है संघर्ष होता रहेगा।
  5. डेविस एवं मोर का संरचनावादी प्रकार्यवादी सिद्धान्त (Davis and Moore’s Structuralist Functionalism Theory) — इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक किंग्सले डेविस एवं मोर हैं इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि सामाजिक स्तरण समाज की जरूरतों की उपज है न कि व्यक्तियों की जरूरतों की। यह विचारधारा तीन मान्यताओं पर आधारित है –
    1. विश्व में ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ स्तरण नहीं है, विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि प्रत्येक समाज में किसी न किसी तरह का स्तरण अवश्य पाया जाता है।
    2. प्रत्येक समाज में लगभग समान प्रकार से विभिन्न स्तरों के बीच प्रतिष्ठा का बँटवारा है। जैसे-जैसे स्त्री व पुरुष की सामाजिक स्थिति में गिरावट होती है वैसे-वैसे उनकी प्रतिष्ठा में भी गिरावट होती है।
    3. इस सिद्धान्त की तीसरी मान्यता विभिन्न समाजों के बीच सामाजिक स्तरण के स्वरूप में भिन्नताएँ हैं। उदाहरण के लिए सरल समाजों में स्तरण का आधार उम्र एवं लिंग हुआ करता है जबकि जटिल समाज में इसका आधार भी काफी जटिल होता है, जैसे- शिक्षा, वैयक्तिक गुण, राजनीतिक हैसियत सम्पत्ति आदि । यहाँ डेविस एवं मोर के सिद्धान्त के बारे में दो बातें ध्यान रखने योग्य है पहली यह कि जीवन में अवसर एक विश्वव्यापी सामाजिक यथार्थ है दूसरी यह कि जीवन में अवसर सभी समाजों के लिए समान नहीं है डेविस एवं मोर ने यह तर्क किया कि किसी समाज में सभी व्यक्ति समान स्तर के नहीं हो सकते हैं। समानता की भी अपनी एक सीमा होती है समान स्तर के लोगों से समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। सामाजिक असमानता समाज के लिए नितान्त आवश्यक है इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न कार्यों के निष्पादन के लिए समान रूप से पुरस्कृत नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग पुरस्कार व प्रोत्साहन होता है। जिस कार्य की समाज में सबसे अधिक आवश्यकता होती है उस कार्य के लिए समाज अधिक पुरस्कार देता है।
डेविस एवं मोर का यह दृष्टिकोण कि समाज के लिए कुछ पद अधिक महत्त्वपूर्ण हैं तो कुछ कम । यह तय करना काफी कठिन कार्य है कि कौन सा काम अधिक व कौन सा कम महत्त्वपूर्ण है तथा कौन सा कार्य स्त्रियों के लिए महत्त्वपूर्ण है कौन सा पुरुषों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं | इस तरह इस सिद्धान्त में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न हैं-
  1. समाज के कुछ पद तुलनात्मक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं और उसके लिए व्यक्तियों में कुछ विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है।
  2. समाज में प्रत्येक व्यक्ति में इतनी क्षमता नहीं होती है कि वह सभी कार्यों को कर सके।
  3. समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अध्ययन या विशेष प्रशिक्षण प्राप्त कर उच्च पदों पर कार्य कर सकते हैं।
  4. प्रत्येक समाज में असमान परितोषिक व्यवस्था का होना अति आवश्यक है तभी विभिन्न पदों को ठीक ढंग से श्रेणीबद्ध किया जा सकता है।
  5. समाज के मेधावी लोग ऐसे काम को तभी करेंगे जब उन्हें कुछ विशेष परितोषिक दिया जाए।

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