बच्चों का सोचना एवं सीखना
बच्चों का सोचना एवं सीखना
चिन्तन/सोचना (Thinking): सोचना एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जो सभी प्राणियों (Organisms) में होती है। कागन तथा हेमैन (Kagan & Haveman) के अनुसार, “प्रतिमाओं, प्रतीकों, संप्रत्ययों, नियमों एवं अन्य मध्यस्थ इकाइयों के मानसिक जोड़-तोड़ को सोचना कहा जाता है।”
सोचने के विकास के उपाय (Measures of Development of Thinking): शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने छात्रों के सोचने की शक्ति को विकसित किया है। इसके उपाय निम्नलिखित हैं-
(a) शिक्षक को चाहिए कि वे छात्रों को किसी विषय पर अपना विचार व्यक्त करने
की पूरी छूट दें। उन्हें अपने प्रभाव से उस अभिव्यक्ति को दबाना नहीं चाहिए।
(b) शिक्षक को चाहिए कि वे छात्रों को किसी विषय या पाठ को समझकर तथा समझ के आधार पर सीखने के लिए प्रेरित करें। इससे छात्रों में यथार्थवादी सोच विकसित होने की संभावना अधिक रहती है।
(c) छात्रों को शिक्षक द्वारा उचित स्नेह मिलना चाहिए। इससे छात्रों में दमनकारी प्रवृत्तियाँ कम होती हैं और वे किसी विषय पर खुलकर सोचने के लिए प्रेरित होते हैं।
(d) चिन्तन में सोचने के साधनों (Tools) का काफी महत्व होता है। इन साधनों में भाषा तथा संप्रत्यय अधिक महत्वपूर्ण है। अतः शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों में उचित विकास एवं संप्रत्यय विकास का माहौल तैयार करें।
(e) बालकों को प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood) से ही सोचने के विकास के लिए पर्याप्त प्रेरणा देते रहना चाहिए। उन्हें तरह-तरह के खिलौनों से खेलने एवं मनोरंजक किताबें पढ़ने का पर्याप्त मौका दिया जाना चाहिए।
(f) शिक्षकों को चाहिए कि कक्षा में बालकों को ऐसे नये नये तथ्यों की जानकारी दें जो बालकों को सोचने के लिए उत्तेजित करें।
(g) शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को वैज्ञानिक तरीकों से नये-नये संप्रत्यय (concepts) की ओर ध्यान आकृष्ट करें ताकि उनका चिंतन वास्तविकता पर आधारित हो सके एवं उचित विकास हो सके।
> बालकों में सोचने की प्रक्रिया निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है-
★ तर्क के आधार पर सोचना
★ अनुभव के आधार पर सोचना
★ रुचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना
★ अनुकरण के आधार पर सीखना
★ प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना
★ कल्पना के आधार पर सोचना
★ प्रत्ययों के आधार पर सोचना
सीखना/अधिगम
Learning
> सारटेन, नॉर्थ, स्ट्रेंज तथा चैपमैन (Sartain, North, Strange and Chapman) के अनुसार, “सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा अनुभूति या अभ्यास के फलस्वरूप व्यवहार में अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन होता है।”
> रिली तथा लेविस (Reilly & Lewis) के अनुसार, “अभ्यास या अनुभूति से व्यवहार में धारण योग्य परिवर्तन को सीखना कहा जाता है।”
> बालक जन्म लेने के साथ ही सीखना प्रारम्भ करता है। पहले वह माता के स्तन से दूध पीना सीखता है, तत्पश्चात् वह ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया करना सीखता है। भूखे रहने पर वह रोना सीखता है ताकि माँ उसे दूध पिला दे। बोतल
द्वारा दूध पिलाये जाने पर वह निपल मुँह में कैसे ले यह सीखता है।
थार्नडाइक के सीखने के नियम
थार्नडाइक ने सीखने की तीन प्रमुख विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार किया है-
(a) सीखने की प्रक्रिया पशु में हो या मनुष्य में, समान ढंग से होती है।
(b) सीखना क्रमोत्तर होता है, न कि सूझपूर्ण होता है।
(c) सीखने में चिंतन या विवेचन का स्थान नहीं होता है। थार्नडाइक ने सीखने के सिद्धांत का तीन महत्वपूर्ण नियम तथा पाँच सहायक नियमों का भी वर्णन किया है। वे तीन महत्वपूर्ण नियम इस प्रकार हैं-
(a) तत्परता का नियम (Law of Readiness): तत्परता के नियम का तात्पर्य यह है कि जब प्राणी अपने को किसी कार्य को करने के लिए तैयार समझता है तो बहुत शीघ्र कार्य करता है या सीख लेता है और उसे अधिक मात्रा में सन्तोष भी मिलता है।
» तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित है। इच्छा न होने पर प्राणी डर के मारे अवश्य बैठ जायेगा लेकिन वह कुछ नहीं सीख पायेगा। तत्परता ही बालक के ध्यान को केन्द्रित करने में सहायक होती है।
» तत्परता के नियम का अभिप्राय यह है कि जब प्राणी किसी कार्य को करने के लिए तैयार रहता है तो उसमें उसे आनन्द आता है और वह उसे शीघ्र सीख लेता है। जिस कार्य के लिए वह तैयार नहीं होता और उस कार्य को करने के लिए बाध्य
किया जाता है तो वह झुंझला जाता है और शीघ्र सीख भी नहीं पाता है। थार्नडाइक ने तत्परता के नियम में तीन परिस्थितियों का वर्णन किया है।
★ जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर रहता है और उसे वह कार्य करने दिया जाता है, तो इससे उसे संतोष होता है।
★ जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर रहता है और उसे वह कार्य करने नहीं दिया जाता है, तो इससे उसमें खीझ (Anmoyance) उत्पन्न होती है।
★ जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर नहीं रहता है और उसे वह कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है, तो इससे भी उसमें खीझ होती है।
> सीखने वाले व्यक्ति में संतोष (Satisfaction) या खीझ (Annoyance) होना व्यक्ति की तत्परता (Readiness) पर निर्भर करता है।
> शैक्षिक दृष्टिकोण से यह नियम काफी महत्वपूर्ण है। इसके शैक्षिक महत्व इस प्रकार हैं-
★ शिक्षकों को पहले बालकों की अभिरुचि एवं अभिक्षमता (Aptitude)का मापन कर लेना चाहिए ताकि उनकी तत्परता का उन्हें सही-सही ज्ञान हो।
★ शिक्षकों को बालकों की तत्परता के अनुरूप शिक्षण देना चाहिए।
★ ऐसी परिस्थिति में बालकों में आत्म-संतोष (Self Satisfaction) अधिक होगा और वे विषय को ठीक ढंग से सीखकर लंबे समय तक उसे धारण (Retain) किये रहेंगे।
(b) अभ्यास का नियम (Law of Exercise) : अभ्यास के नियम के अनुसार किसी क्रिया को बार-बार दुहराने से वह याद हो जाती है और छोड़ देने पर या अभ्यास नहीं करने पर वह भूल जाती है। इस प्रकार यह नियम प्रयोग करने तथा प्रयोग नहीं करने पर आधारित है।
>अभ्यास का नियम यह बताता है कि अभ्यास करने से उद्दीपन (Stimulus) तथा अनुक्रिया (Response) का संबंध मजबूत होता है तथा अभ्यास रोक देने से यह संबंध कमजोर पड़ जाता है या उसका विस्मरण हो जाता है।
> जब हम किसी पाठ या विषय को बार-बार दोहराते हैं तो उसे सीख जाते हैं। इसे थार्नडाइक ने उपयोग का नियम कहा है। जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बन्द कर देते हैं तो उसे भूल जाते हैं, इसे उन्होंने अनुपयोगी नियम (Law of Disuse) कहा है।
अभ्यास के नियम का शैक्षिक महत्व निम्नलिखित है-
★ शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को कक्षा (Class Room) में अधिक से अधिक बार विषय या पाठ को दोहराने दें। इसमें छात्रों को जल्दबाजी नहीं बरतनी चाहिए।
★ छात्र किसी सीखे गये विषय को अधिक दिनों तक याद रखें, इसके लिए शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों से बीच बीच में सीखे गये विषय को देखते रहने का सुझाव दें।
★ शिक्षकों को कक्षा में यह सचेत कर देना चाहिए कि यदि छात्र सीखे गये विषय को बीच-बीच में दोहराते नहीं रहेंगे तो उनका विस्मरण हो जायेगा।
आलोचना : थार्नडाइक के अभ्यास के नियम में समझने पर बल नहीं देकर यन्त्रवत् पुनरावृत्ति या अभ्यास पर बल दिया गया। मानव जीवन में इस प्रकार की यन्त्रवत् पुनरावृत्ति नहीं मिलती। थार्नडाइक ने इस कमी को दूर करने के लिए 1935 के लगभग
उसने अभ्यास के नियम में संशोधन कर नियन्त्रित अभ्यास का नियम प्रतिपादित किया ।
> नियन्त्रित अभ्यास की क्रिया में क्रिया की पुनरावृत्ति के साथ-साथ अर्थ को समझने, तर्क करने, विचारों का साहचर्य, सीखने के संकेतों का अनुसरण आदि सभी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
(c) प्रभाव का नियम (Law of Effect): इस नियम को ‘सन्तोष-असन्तोष का नियम’ भी कहते हैं। इसके अनुसार जिस कार्य को करने से प्राणी को हितकर परिणाम प्राप्त होते हैं और जिसमें सुख और सन्तोष प्राप्त होता है, उसी को व्यक्ति दोहराता है। जिस कार्य को करने से कष्ट होता है और दुःखद फल प्राप्त होता है, उसे व्यक्ति नहीं दोहराता है।
थार्नडाइक के सीखने के सहयोगी नियम
थार्नडाइक के सीखने के सहयोगी नियम निम्नलिखित हैं-
(a) मानसिक स्थिति का नियम : मानसिक स्थिति का नियम इस बात पर निर्भर करता है कि बाह्य स्थिति की ओर प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति की मनोवृत्ति पर निर्भर करती हैं अर्थात् यदि व्यक्ति मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार है तो नवीन क्रिया को
आसानी से सीख लेगा और यदि वह मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार नहीं है तो उस कार्य को नहीं सीख सकेगा।
थकावट, आकांक्षाएँ, निद्रा, सभ्यता, भावनाएँ इत्यादि सभी हमारी मनोवृत्ति को प्रभावित करती हैं। इस नियम को तत्परता या अभिवृत्ति का नियम भी कहते हैं।
(b) साहचर्य परिवर्तन का नियम : थार्नडाइक ने अनुकूलित अनुक्रिया को सहचारी स्थान-परिवर्तन का ही एक विशेष रूप माना है। यह स्थान परिवर्तन मूल उद्दीपक के प्रति अथवा किसी सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति किया जाता है। इस नियम के अनुसार कोई भी अनुक्रिया जिसे करने की क्षमता व्यक्ति में है, एक नये उद्दीपन (Stimulus) से भी उत्पन्न हो सकती है। यदि एक ही अनुक्रिया को लगातार एक ही परिस्थिति में कुछ परिवर्तनों के बीच उत्पन्न किया जाता है तो अंत में वही अनुक्रिया एक बिल्कुल ही नये उद्दीपन से भी उत्पन्न हो जाती है। इसे बाद में क्लासिकी अनुबंधन (Classical Conditioninig) कहा गया।
(c)आंशिक क्रिया का नियम : थार्नडाइक ने आंशिक क्रियाओं को करके समस्या का हल ढूँढ़ लेने को ही आंशिक क्रिया का नियम बताया है। इस नियम के अनुसार कोई एक प्रतिक्रिया सम्पूर्ण स्थिति के प्रति नहीं होती है। यह केवल सम्पूर्ण स्थिति के कुछ पक्षों अथवा अंशों के प्रति होती है। जब हम किसी स्थिति का एक ही अंश दोहराते हैं तो प्रतिक्रिया हो जाती है। अतः इस नियम में ‘अंश से पूर्ण की ओर’ शिक्षण-सूत्र का अनुसरण किया जाता है। पाठ योजना को छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त करके पढ़ाना इसी नियम पर आधारित है।
(d) बहु-प्रतिक्रिया का नियम : यह नियम ‘प्रयत्न एवं भूल’ पर आधारित है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने जब नवीन समस्या आती है तो वह उसे सुलझाने के लिए विविध प्रकार की क्रियाएँ करता है और तब तक करता है जब तक कि वह
सही अनुक्रिया की खोज नहीं कर लेता। ऐसा होने पर उसकी समस्या सुलझ जाती है और उसे सन्तोष मिलता है। यदि व्यक्ति असफल हो तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए बल्कि एक के बाद एक उपाय पर अमल करते रहना चाहिए जब तक कि सफलता प्राप्त न हो जाए।
(e) समानता का नियम : यह नियम इस बात पर बल देता है कि किसी नवीन परिस्थिति या समस्या के उपस्थित होने पर व्यक्ति उससे मिलती-जुलती अन्य परिस्थिति या समस्या का स्मरण करता है, जिससे वह पहले भी गुजर चुका है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति नवीन परिस्थिति में वैसी ही अनुक्रिया करता है जैसे उसने पुरानी परिस्थिति में की थी। ज्ञात से अज्ञात की ओर शिक्षण-सूत्र इसी नियम पर आधारित है। इस नियम का आधार पूर्व ज्ञान या पूर्व अनुभव है। सीखने से सम्बन्धित अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
★ स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्धन का सिद्धान्त
★ पैवलोव का सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (अनुक्रिया द्वारा सीखना)
★ कॉहेलर, कोफ्का तथा वादाईमर का सूझ का सिद्धान्त (अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना)
★ हल का प्रबलन सिद्धान्त
★ हेगरटी का अनुकरण द्वारा सीखने का सिद्धान्त
पैवलव का क्लासिकी अनुबन्धन सिद्धांत
(Classical Conditioning Theory of Pavlov)
> आई. पी. पैवलव (I. P. Pavlov) एक रूसी शरीर-वैज्ञानिक (Physiolgist) थे, जिन्होंने अध्ययनों के दौरान लारमय अनुबन्धन (Salivary Conditioning) की घटना का अध्ययन किया और इससे संबंधित सीखने के एक सिद्धांत का प्रतिपादन
किया, जिसे अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धांत (Conditioned Response Theory) कहा जाता है।
> पैवलव के सीखने के इस अनुबन्धन सिद्धांत को क्लासिकी अनुबन्धन सिद्धांत (Classical Conditioning Theory) या प्रतिवादी अनुबन्धन सिद्धान्त (Respondent Conditioning Theory) या टाइप-एस अनुबन्धन कहा जाता है।
> इस सिद्धांत के अनुसार कोई स्वाभाविक उद्दीपन (UnconditionalorUnconditioned Stimulus या VCS) सीखनेवाले प्राणी के सामने उपस्थित किया जाता है, तो वह उसके प्रति एक स्वाभाविक अनुक्रिया (Unconditioned Response UCR) करता है। जैसे—गर्म बर्तन छूते ही हाथ खींच लेना।
> इस सिद्धांत के अनुसार पैवलव का निष्कर्ष यह है कि यदि तटस्थ उद्दीपन (Neutral Stimulus) को किसी स्वाभाविक उद्दीपन (Natural Stimulus) के साथ बार-बार उपस्थिति किया जाता है, तो तटस्थ उद्दीपन के प्रति व्यक्ति वैसी ही अनुक्रिया
(Response) करना सीख लेता है, जैसा कि स्वाभाविक उद्दीपन के प्रति करता है।
पैवलव द्वारा सिद्धांत का प्रयोग
एक भूखे कुत्ते को एक ध्वनि नियंत्रित प्रयोगशाला में एक विशेष उपकरण के सहारे खड़ा कर दिया गया। कुत्ते के सामने भोजन (UCS) लाया जाता था और कुत्ते के भूखे होने की वजह से उसके मुँह में लार (UCR) आ जाता था। कुछ प्रयासों के बाद
भोजन देने के (200-300 मिली सेकण्ड) पहले एक घंटी बजायी जाती थी। यह प्रक्रिया कुछ दिनों तक दोहराई गई तो यह देखा गया कि बिना भोजन आए ही मात्र घंटी की आवाज पर कुत्ता के मुँह से लार निकलना शुरू हो गया । पैवलव के अनुसार कुत्ता घंटी की आवाज पर लार के स्राव करने की अनुक्रिया सीख लिया था। उनके अनुसार घंटी की आवाज उद्दीपन तथा लार के स्राव (अनुक्रिया) के बीच एक नया साहचर्य (Association) कायम हुआ, जिसे अनुबंधन की संज्ञा दी गई।
वाटसन एवं रेनर का सिद्धांत
> वाटसन एवं उनकी पत्नी रेनर ने अल्बर्ट (Albert) नामक शिशु पर प्रयोग किया और पाया कि मानव भी पशु के समान अनुबन्धन द्वारा सीखते हैं।
> वाटसन ने अपने प्रयोग के आधार पर पैवलव के क्लासिकी अनुबंधन सिद्धांत का एक विस्तृत प्रयोगात्मक समर्थन किया है, और इतना ही नहीं, बल्कि पैवलव से एक कदम आगे बढ़कर यह भी दावा किया है कि अनुबन्धन द्वारा सभी तरह के
सीखने की व्याख्या की जा सकती है।
> इस संप्रत्ययों में निम्नांकित संप्रत्यय शिक्षा के दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण बताए गए हैं-
★ CS तथा UCS का समय अंतराल
★ उद्दीपन सामान्यीकरण (Stimulus Generalisation)
★ विभेद (Discrimination)
★ विलोप तथा स्वतः पुर्नलाभ (Extinction & Spontaneous Recovery)
★ पुर्नबलन (Reinforcement)
★ पुनरावृत्ति (Repetition and Contiguity)
क्लासिकी अनुबन्धन सिद्धांत का शैक्षिक आशय
1. क्लासिकी अनुबन्धन के प्रयोग से छात्रों में अच्छी-अच्छी अध्ययन आदतों का निर्माण किया जा सकता है।
2. इस विधि से छात्रों को उनकी बुरी आदतों से छुटकारा दिलाया जा सकता है। कुसमायोजित बालकों (Maladyusted Children) की चिंता तथा डर को इस प्रविधि का उपयोग कर दूर किया जा सकता है जिससे वे कक्षा में फिर से एक समायोजित बालक (Adjusted) के समान व्यवहार कर सकें तथा अपनी शैक्षिक उपलब्धियों की प्राप्ति कर सकें।
स्कीन्नर के सीखने का सिद्धांत
(Skinner’s Theory of Learning)
> स्कीन्नर प्रयोग के लिए एक विशेष बक्स (Box) तैयार किया, जिसमें प्रयोज्य जैसे चूहा स्वतंत्र होकर घूम-फिर सके और किसी अनुक्रिया विशेष को सीख सके। स्कीन्नर एक ऐसे प्रयोगात्मक परिस्थिति में रखकर प्रयोज्य के सीखने के व्यवहार
का अध्ययन करना चाहते थे, जिसमें वह निष्क्रिय नहीं बल्कि सक्रिय भूमिका अदा कर सके। स्कीन्नर ने इस बक्स का नाम कुछ नहीं रखा पर आगे चलकर उनके शिष्यों ने इसका नाम स्कीन्नर बक्स रखा।
> स्कीन्नर ने चूहों, कबूतरों तथा मनुष्यों पर कई प्रयोग कर सीखने के व्यवहार का अध्ययन किया है, परंतु उनके द्वारा स्कीन्नर बक्स में चूहे पर किया गया प्रयोग काफी प्रचलित हो पाया है।
> स्कीन्नर के सिद्धांत को साधनात्मक अनुबन्धन (Instrumental Conditioning) या क्रियाप्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) भी कहा जाता है।
शिक्षा के दृष्टिकोण से स्कीन्नर (Skinner) द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धांत के निम्नलिखित अंश
1. सीखने के दो प्रकार (Two Kinds of Learning) : स्कीन्नर ने अनुक्रिया को दो भागों में बाँटा है-
★ प्रतिवादी अनुक्रिया (Respondent Response) : प्रतिवादी अनुक्रिया वैसी अनुक्रिया को कहा जाता है जो एक स्पष्ट उद्दीपन द्वारा उत्पन्न होती है तथा जिसका स्वरूप अनैच्छिक (Involuntary) होता है। प्रतिवादी अनुक्रिया (Respondent Response)का अनुबन्धन द्वारा सीखा जाना टाइप एस अनुबन्धन (Type-s-Conditioning) कहलाता है।
★ क्रियाप्रसूत अनुक्रिया (OperantResponse) क्रियाप्रसूत अनुक्रिया वैसी अनुक्रिया को कहा जाता है जो एक अस्पष्ट उद्यीपन द्वारा उत्पन्न होती है, तथा जिसका स्वरूप ऐच्छिक (Voluntary) होता है । जैसे-टहलना, बातचीत करना, स्कीन्नर
बक्स में लीवर दबाना आदि क्रियाप्रसूत अनुक्रिया का उदाहरण है। क्रियाप्रसूत अनुक्रिया का अनुबन्धन द्वारा सीखा जाना टाइप आर अनुबन्धन (Type R Conditioning) कहा जाता है।
> स्कीन्नर का संबंध सिर्फ क्रियाप्रसूत अनुक्रिया के सीखने से है। उनके अनुसार किसी क्रियाप्रसूत अनुक्रिया (Operant Response) के होने के बाद जब पुर्नबलन (Reinforcement) दिया जाता है, तो उस अनुक्रिया को व्यक्ति बार-बार करना
चाहता है, और उसे सीख लेता है।
2. पुनर्बलन (Reinforcement)—पुर्नबलन से तात्पर्य वैसे उद्दीपन से होता है जो किसी अनुक्रिया को भविष्य में होने की संभावना को बढ़ाता है।
> पुनर्बलन को उन्होंने दो भागों में बाँटा है- धनात्मक पुनर्बलन पुरस्कार, भोजन, पानी इत्यादि
★ ऋणात्मक पुनर्बलन तीव्र रोशनी, तीव्र आवाज, बिजली का झटका तथा दंड
> स्कीन्नर ने अपने सीखने के सिद्धांत में ऋणात्मक पुर्नबलन को धनात्मक पुर्नबलन
की अपेक्षा कम प्रभावकारी (Effective) बताया है।
3. पुनर्बलन अनुसूची (Schedule of Reinforcement)—पुर्नबलन अनुसूची से तात्पर्य एक ऐसी योजना से होता है जिसमें यह उल्लेख रहता है कि कितनी अनुक्रिया करने के बाद या कितने समय के बाद व्यक्ति को पुर्नबलन दिया जाएगा। पुर्नबलन
अनुसूची को दो भागों में बाँटा-
★ आंशिक पुनर्बलन (Partial Reinforcement)या विरामी पुर्नबलन (Intermittent Reinforcement) इस पुर्नबलन में किसी अनुक्रिया के बाद पुर्नबलन दिया जाता है तथा किसी अनुक्रिया के बाद पुर्नबलन नहीं दिया जाता है।
★ सतत् पुनर्बलन (Continuous Reinforcement) इस अनुक्रिया में प्रत्येक अनुक्रिया के बाद पुनर्बलन दिया जाता है।
> स्कीन्नर दोनों तरह की अनुसूचियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आंशिक पुर्नबलन देने से सतत् पुनर्बलन की अपेक्षा क्रियाप्रसूत अनुक्रिया तेजी से होती है, तथा ऐसी अनुक्रियाओं का विलोप भी जल्दी नहीं होता है।
4. अंतर्नोद (Drive) अंतर्नोद व्यक्ति की आंतरिक अवस्था होती है, जो क्रियाप्रसूत अनुक्रिया (Operant Response) करने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करता है।
> स्कीन्नर ने अपने प्रयोग में पाया है कि जब चूहे या कबूतर को अधिक देर तक भूखा रखा जाता था तो इनमें अनुक्रिया करने की दर भूख के कम होने की स्थिति की अपेक्षा तीव्र होती थी।
5. शेपिंग (Shaping) शेपिंग प्रविधि ऐसी विधि है, जिसमें व्यक्ति का व्यवहार धीरे-धीरे किसी खास लक्ष्य की ओर पुर्नबलन के आधार पर ले जाया जाता है।
> शेपिंग प्रविधि को क्रमिक सन्निकटन की विधि (Method of Successive approximation) भी कहा जाता है।
> स्कीन्नर ने शेपिंग प्रविधि द्वारा चूहों, कबूतरों, मनुष्यों को काफी जटिल कार्य (Complex Act) करना भी सिखाया था। मनुष्यों के साथ शेपिंग प्रविधि में पुनर्बलन का प्रभाव अधिकतर अविवेचित (Automatic) होता है।
> मानव व्यवहार पर पुर्नबलन के अविवेचित प्रभाव को दिखाने के लिए जिस प्रविधि का प्रतिपादन किया गया है, उसे स्कीन्नर ने शाब्दिक अनुबन्धन (Verbal Conditioning) की संज्ञा दी है।
स्कीन्नर के सीखने के सिद्धांत का शैक्षिक आशय
(Educational Implication of Skinner’s Theory of Learning)
स्कीन्नर द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धांत की शैक्षिक उपयोगिताएं निम्नलिखित हैं-
1. स्कीन्नर के सिद्धांत के अनुसार शिक्षक को कक्षा में अध्यापन प्रारंभ करने के पहले शैक्षिक उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर लेना चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं होने पर शिक्षक को यह पता नहीं लग पाएगा कि उनके प्रयासों (efforts) से किसी उद्देश्य को पूरा किया जा रहा है या नहीं।
2. स्कीन्नर के सिद्धांत पर चलनेवाले शिक्षकों को चाहिए कि वे कक्षा में छात्रों के उन व्यवहारों पर अधिक ध्यान दें या उसे प्रोत्साहित करें, जो वे शिक्षक के डर से न करके स्वयं करते हों।
3. थार्नडाइक के ही समान स्कीन्नर ने सीखने में बाह्य पुनर्बलन (Extrinsic Reinforcement) या पुरस्कार पर अधिक बल डाला है। कक्षा में छात्रों को सीखने के लिए अधिक प्रेरित रखने के लिए पुरस्कार, प्रशंसा, प्रशंसनीय आनन अभिव्यक्ति आदि जैसे पुनर्बलकों का प्रयोग करना चाहिए
4. स्कीन्नर के सीखने के सिद्धांत का एक प्रत्यक्ष शैक्षिक आशय यह है कि शिक्षकों को बालकों को कोई पाठ या विषय सिखाते समय पहले 100% प्रयासों में सही अनुक्रिया के लिए पुनर्बलन दिया जाना चाहिए और फिर बाद में आंशिक पुर्नबलन
का सहारा लेना चाहिए।
5. स्कीन्नर के सिद्धांत में विश्वास रखनेवाले शिक्षक भाषण विधि का प्रयोग नहीं करेंगे। अपितु शिक्षकों को छात्रों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए या फिर छात्रों के समूह को ऐसी शिक्षण सामग्री दे देनी चाहिए जिसमें छात्र को अपने आप सही
अनुक्रिया मिल जाती हो।
6. स्कीन्नर का सिद्धांत स्पष्ट रूप से निर्देश देता है कि शिक्षकों को कक्षा में दंड का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
सीखने के सूझ का सिद्धांत
(Insight Theory of Learning)
> सूझ या अर्तदृष्टि सिद्धांत का प्रतिपादन गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों द्वारा विशेषकर कोहलर तथा कोफ्का द्वारा किया गया।
> इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति किसी प्रक्रिया को सूझ या अंतर्दृष्टि द्वारा सीखता है।
> जब व्यक्ति किसी विषय या पाठ को सीखता है तो वह सीखने से संबंधित परिस्थिति के हर पहलू को समझने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह परिस्थिति के विभिन्न पहलुओं का नए ढंग से प्रत्यक्षण कर संगठित करने का प्रयत्न करता है
ताकि समस्या का समाधान आसानी से हो सके। जब वह परिस्थिति के भिन्न- भिन्न पहलुओं को नए ढंग से प्रत्यक्षण कर उसके आपसी संबंधों को समझा जाता है, तो उसमें अचानक ‘सूझ’ (Insight) उत्पन्न होती है, जिसे ‘अहा अनुभव’ (Aha Experience) भी मनोवैज्ञानिकों ने कहा है।
> सूझ अचानक होती है। इसके लिए अभ्यास की जरूरत नहीं होती।
> फर्नाल्ड तथा फर्नाल्ड (Fernald and Fernald) के शब्दों में सूझ से कोहलर का तात्पर्य इस बात से था कि समस्या का समाधान उधीपन अनुक्रिया संबंधों के धीरे-धीरे बनने से नहीं होता है बल्कि उद्दीपनों के बीच के संबंधों को अचानक
समझने से होता है।
> कोहलर तथा कोपका के अनुसार, सीखना धीरे-धीरे नहीं बल्कि एकाएक होता है। क्योंकि यह सूझ द्वारा होता है, जो सहसा होता है न कि अभ्यास (Practice) तथा प्रयत्न एवं मूल (Trial and Error) द्वारा होता है।
> सूझ सिद्धांत कोहलर द्वारा किए गए कुछ प्रयोगों पर आधारित है। कोहलर ने कई तरह के पशुओं जैसे वनमानुष, बन्दर, मुर्गी तथा कुत्ता पर प्रयोग किए हैं, परंतु उनके द्वारा 1913 से 1918 के बीच कैनरी द्वीप में ‘सुल्तान’ नामक वनमानुष पर
किया गया प्रयोग सर्वाधिक प्रचलित हो पाया है। उनके द्वारा सुल्तान पर किए गए दो प्रयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
★ छड़ी समस्या पर प्रयोग (Experiment on Stick Problem)
★ बक्स समस्या पर प्रयोग (Experiment on Box Problem)
मनोवैज्ञानिकों ने सूझ द्वारा सीखने की प्रक्रिया की कुछ विशेषताएँ बताई हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. सीखने की प्रक्रिया सूझ पर आधारित होती है जो एक प्रकार का ‘अहा अनुभव’ है।
2.सूझ उत्पन्न होने के लिए यह आवश्यक है कि प्राणी के सामने जो समस्यात्यक परिस्थिति है, वह उसका ठीक ढंग से निरीक्षण करे ।
3.निदेशित ध्यान तथा अन्वेषणात्मक व्यवहार-सूझ द्वारा सीखने में व्यक्ति का ध्यान समस्यात्मक परिस्थिति के भिन्न-भिन्न हिस्सों पर निदेशित होता है। वह समस्या के समाधान के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार एक के बाद एक, परंतु सोच
समझकर करता है।
4. निष्क्रियता की अवस्था—जब प्राणी समस्या के समाधान के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का अन्वेषणात्मक व्यवहार करता है, और फिर भी उसे सफलता नहीं मिलती, तो थोड़ी देर के लिए उदास हो जाता है और निष्क्रिय होकर चुपचाप बैठ जाता है।
5. सूझ का अचानक आगमन-कोहलर का कहना है कि जब प्राणी समस्या का समाधान करने के प्रयास में शिथिल एवं निष्क्रिय हो जाता है, तो फिर कुछ समय के बाद अचानक उसमें सूझ अपने आप हो जाती है और समस्या का समाधान कर लेता है।
6. सूझ द्वारा सीखने की जाँच–स्थानांतरण (Test of Learning by Insight : Transfer) कोहलर का विचार था कि प्राणी में किसी समस्या का समाधान करना सूझ द्वारा सीखा है या नहीं, इसकी जाँच स्थानांतरण (Transfer) द्वारा आसानी से की जा सकती है। अगर उसने सूझ द्वारा सीखा है तो उसमें स्थानांतरण का गुण होगा। परंतु अगर प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखा है, तो उसमें स्थानांतरण का गुण नहीं होगा।
कोहलर के सूझ के सिद्धांत का शैक्षिक आशय
(Educational Implication and Evaluation of Kohler’s Insight Theory)
शिक्षा के दृष्टिकोण से कोहलर के सूझ का सिद्धांत की उपयोगिता इस प्रकार है-
1. सूझ के सिद्धांत के अनुसार शिक्षकों में सूझ उत्पन्न करने के ख्याल से विषय या पाठ के सभी पहलुओं का खुला अवलोकन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं होने से छात्र विषय के भिन्न-भिन्न भागों के बीच के प्रत्यक्षणात्मक संबंध को नहीं समझ
पाएगे और तब उनमें सूझ भी उत्पन्न नहीं होगी।
2. सूझ द्वारा सीखे गए कौशल (Skills) को छात्र एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सही-सही उपयोग कर पाते हैं, अतः शिक्षकों को चाहिए कि वे कक्षा में इस ढंग का वातावरण कायम करें कि छात्र सूझ द्वारा विभिन्न विषयों को सीखें। इससे छात्रों
में समायोजन शक्ति (Adjustment Capacity) बढ़ती है और उसके व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में काफी मदद मिलती है।
> बच्चों को विद्यालय में असफल होने का एक प्रमुख कारण यह है कि बच्चे सीखने, समझने और रचने की अपनी जन्मजात और असीम सामर्थ्य का केवल एक छोटा-सा भाग ही स्कूलों में विकसित कर पाते हैं, जबकि जीवन के दो-तीन प्रारम्भिक
वर्षों में वे इस सामर्थ्य का भरपूर उपयोग करते रहे थे।
परीक्षोपयोगी तथ्य
→ प्रतिमाओं, प्रतीकों, संप्रत्ययों, नियमों एवं अन्य मध्यस्थ इकाइयों के मानसिक जोड़-तोड़ को चिंतन/सोचना कहा जाता है।
→ सोचना/चिंतन मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं स्वपरायण चिंतन तथा यथार्थवादी चिंतन।
→ स्वपरायण चिंतन वैसे चिंतन को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति अपने काल्पनिक विचारों एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। स्वप्न, स्वप्नचित्र तथा अभिलाषाकल्पित चिंतन इत्यादि सभी स्वपरायण चिंतन के उदाहरण है।
→ यथार्थवादी चिंतन वैसे चिंतन को कहा जाता है जिसका संबंध वास्तविकता से होता है।
→ यथार्थवादी चिंतन तीन प्रकार के होते हैं-अभिसारी चिंतन (b) सर्जनात्मक चिंतन (c) आलोचनात्मक चिंतन ।
→ अभिसारी चिंतन में व्यक्ति दिये गये तथ्यों के आधार पर कोई सही निष्कर्ष पर
पहुँचने की कोशिश करता है। इसे निगमनात्मक चिंतन भी कहा जाता है।
→ सर्जनात्मक चिंतन में व्यक्ति दिये गये तथ्यों में अपनी ओर से कुछ नया जोड़कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसे आगमनात्मक चिंतन कहा जाता है।
→ आलोचनात्मक चिंतन में व्यक्ति किसी वस्तु, घटना या तथ्य की सच्चाई को स्वीकार करने से पहले उसके गुण-दोष की परख कर लेता है।
→ चिंतन के साधन हैं-प्रतिमा, भाषा, संप्रत्यय, प्रतिज्ञप्ति ।
→ थार्नडाइक ने सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये तत्परता का नियम, अभ्यास का नियम तथा प्रभाव नियम और पाँच सहयोगी नियम प्रतिपादित किये हैं मानसिक स्थिति का नियम, साहचर्य परिवर्तन का नियम, आंशिक क्रिया का
नियम, बहु-प्रतिक्रिया का नियम तथा समानता का नियम ।
→ तत्परता के नियम से यह पता चलता है कि सीखने वाले व्यक्ति किन-किन परिस्थितियों में संतुष्ट रहते हैं तथा किन-किन परिस्थितियों में उनमें खीझ उत्पन्न होती है।
→ अभ्यास का नियम यह बताता है कि अभ्यास करने से उद्दीपन तथा अनुक्रिया का संबंध मजबूत होता है तथा अभ्यास रोक देने से यह संबंध कमजोर पड़ जाता है या उसका विस्मरण हो जाता है।
→ प्रभाव नियम के अनुसार व्यक्ति किसी अनुक्रिया या कार्य को उसके प्रभाव के आधार पर सीखता है।
→ क्लार्क एल. हॉल सीखने के समग्र सिद्धांत से संबंधित न होकर सीखने के प्रबलन सिद्धांत से संबंधित हैं। प्रयास और भूल सीखने की एक मौलिक विधि है। इस विधि के अंतर्गत समस्या समाधान के लिए विविध प्रयास किए जाते हैं। इसका प्रतिपादन थार्नडाइक ने किया था।
→ क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धांत का प्रतिपादन बी. एफ. स्किनर ने किया था। क्रियाप्रसूत अनुबंधन सीखने की एक प्रक्रिया है, जिसमें दंड अथवा पुरस्कार द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाया जाता है।
→ कोहलर के सीखने का सिद्धांत अंतर्दृष्टि शिक्षण (Insight Learning) कहलाता है।
→ उर्ध्व अधिगम अंतरण पहले से अर्जित ज्ञान की सहायता से समान प्रकार की समस्याओं को निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर हल करने की क्षमता है। उदाहरण के लिए एक बालक, जो साइकिल चलाना जानता है, और मोटर बाइक चलाना सीख रहा है, उर्ध्व अधिगम अंतरण का उदाहरण है।
→ कोहलर ने सूझ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और इसका प्रयोग उन्होंने चिंपैजियों पर किया था। कोहलर के अनुसार, व्यक्ति समस्या के समाधान हेतु अलग-अलग तरीकों से परिस्थिति का अवलोकन करता है, और उसमें अचानक सूझ आ जाती
है। अतः सूझ अचानक होती है, और उसके लिए अभ्यास की जरूरत नहीं होती। सीखने वाले व्यक्ति में सूझ उत्पन्न होती है, वह सही अनुक्रिया करता है, और सीख लेता है।
→ मनोवैज्ञानिक इवान पावलॉव द्वारा सीखने के अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया था। पावलॉव में कुत्ते पर प्रयोग कर देखा कि यदि खाना देने के पहले प्रतिदिन घंटी बजाई जाए, फिर कुत्ते को खाना दिया जाए, तो घंटी बजते ही कुते के मुँह में लार आ जाती है। पावलीव के अनुसार, सामान्य तटस्थ उधीपक की एक दूसरे उद्यीपक के साथ जोड़ा जाए, तो एक प्रतिक्रिया होती है, जो कि पहले सामान्य उग्रीषक द्वारा व्यवहार में परिलक्षित होती है।
→ गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की आधारशिला जर्मनी के मनोवैज्ञानिक मैक्स वर्थीमर (Max Wertheimer) द्वारा रखी गई थी। इस सिद्धांत का मुख्य बल व्यवहार में संपूर्णता के अध्ययन पर है। इस सिद्धांत के प्रतिपादन में दो अन्य मनोवैज्ञानिकों कर्ट कोम्फा
तथा औल्फगैंग कोहला नै महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
→ अभिक्रमायोजित अधिगम का सिद्धांत स्किनर द्वारा दिया गया था।
→ क्रियाप्रसूत अनुकूलन सिद्धांत का प्रतिपादन स्किनर ने किया था।
→ कोहलर का अंतर्दृष्टि सिद्धांत बुद्धि, सृजनात्मकता, कल्पना, तर्कशक्ति आदि संज्ञानात्यक योग्यताओं का विकास करने में बहुत उपयोगी है।
→ रास के अनुसार “चिंतन संज्ञानात्मक पक्ष में एक मानसिक क्रिया है।
