1st Year

बच्चों के सौन्दर्य और विकास में परिवार और स्कूल की भूमिका पर चर्चा कीजिए | Discuss the role of family and school in the Grooming and Development of Children

प्रश्न – बच्चों के सौन्दर्य और विकास में परिवार और स्कूल की भूमिका पर चर्चा कीजिए | Discuss the role of family and school in the Grooming and Development of Children. 
या
समाजीकरण में विद्यालय की भूमिका का वर्णन कीजिए । Describe process. of socialisation? Describe the role of school in socialisation.
या
बालक के समाजीकरण में विद्यालय के योगदान वर्णन कीजिए। Describe the contribution of school in socialisation of child.
या
बाल विकास में परिवार  और परिवार और समुदाय की भूमिका का वर्णन कीजिए । Discuss the role of family and community in child development. 
उत्तर- बच्चों के सौन्दर्य और विकास में परिवार की भूमिका
  1. समान शिक्षा की व्यवस्था (Arrangement of Equal Education) – प्रायः परिवारों में देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था में भेद-भाव देखने को मिलता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिस कारण वे स्वावलम्बी नहीं बन पाती हैं। अतः समाजीकरण प्रथाओं एवं लैंगिक भेदभाव कम करने के लिए लड़कों के समान ही लड़कियों की ‘शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए ।
  2. समानता का व्यवहार (Behaviour of Equality)परिवार में यदि लड़के एवं लड़कियों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाता है तो ऐसे परिवारों में लिंग सम्बन्धी भेदभाव कम होते हैं। समानता के व्यवहार के अन्तर्गत लड़के एवं लड़कियों को पारिवारिक कार्यों में समान स्थान, समान – शिक्षा, समान रहन-सहन आदि प्रदान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही परिवार के सदस्यों को ध्यान रखना चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव, शाब्दिक निन्दा आदि न करें।
  3. सर्वागीण विकास कार्य (Work of Allround Development)—सर्वागीण विकास से तात्पर्य सभी पक्षों के विकास से है इसके अन्तर्गत शरीर, मन तथा बुद्धि का समन्वयकारी विकास किया जाता है परिवार के सभी बच्चों का विकास एक समान रूप से किया जाना चाहिए जिससे उनमें हीनता की भावना न व्याप्त हो जाए।
  4. उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण (Good Character and Personality Building ) – परिवार को अपने सभी सदस्यों के चरित्र तथा उनके व्यक्तित्व विकास के निर्माण पर बल देना चाहिए। अनेक परिवारों में बालिकाओं एवं स्त्रियों को तो बहुत अनुशासन में रखा जाता है, वहीं लड़कों के लिए हर बात छूट रहती है ऐसी ही स्थितियों में लैंगिक भिन्नता उत्पन्न हो जाती है। अतः परिवार को चाहिए कि लड़कों एवं लड़कियों दोनों में समान रूप से चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण करें।
  5. पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता (Equal Participation in Family Activities) – परिवार के सभी सदस्यों के कार्यों का विभाजन उनकी रुचि के आधार पर किया जाना चाहिए न कि उनके लिंग के आधार पर कई परिवारों में बाहरी कार्यों को लड़कों को एवं घर कार्यों के लिए लड़कियों को दिया जाता है। इससे लड़कियाँ बाहरी कार्यों को करने में स्वयं को असहज महसूस करने लगती है। अतः अभिभावकों को चाहिए कि वे बालिकाओं को बाहरी कार्य दें तथा लड़कों को घर के कार्यों में सम्मिलित करें ।
  6. अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार (Bycott of Superstitious Beliefs and Outdated Practices) — हमारे समाज एवं परिवार में लड़के-लड़कियों से सम्बन्धित अनेक अन्धविश्वास एवं जड़ परम्पराएँ व्याप्त है। लड़कों को वंश बढ़ाने वाला, पैतृक कर्मों, सम्पत्ति का अधिकारी, अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान करने वाला आदि कार्यों का अधिकारी माना जाता है। परिवार को इन जड़ परम्पराओं, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। जब सभी लोग इसके प्रति जागरूक रहेंगे तो स्त्रियों की स्थिति में स्वतः ही सुधार होने लगेगा, क्योंकि ये प्रथाएँ तार्किक कसौटी पर सही नहीं होती हैं ।
  7. जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरण (Unequal   Distribution of Responsibilities) – परिवार स्त्री- पुरुष, लड़के-लड़कियों के मध्य लिंग के आधार पर भेदभाव न करके सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ बिना भेदभाव के प्रदान करनी चाहिए, जिसके लैंगिक भेदभावों में कमी आएगी।
  8. बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना ( To Make Aware About Importance of Girls ) – परिवार को चाहिए कि वह अपने बालकों को बालिकाओं के महत्त्व से परिचित कराएं जिससे वे इन पर अपना आधिपत्य जमाने के बजाए उनका सम्मान करना सीखें। बालिकाएँ ही माता, बहन, पत्नी आदि हैं और इन रूपों की उपेक्षा करके पुरुष का जीवन अपूर्ण रह जाएगा।
बच्चों के सौन्दर्य और विकास में विद्यालय की भूमिका
  1. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास विद्यालय मात्र छात्र के एकांकी विकास पर ही ध्यान नहीं देता बल्कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर बल देता है जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास उचित रूप से सम्भव हो सके हैं।
  2. सामाजिक मूल्यों का विकास – बालक के व्यक्तित्व में सामाजिक मूल्यों का विकास विद्यालय से होता है। शिक्षक छात्रों में सामाजिक मूल्यों की समझ विकसित कर समाज की उन्नति में योगदान करता है ।
  3. सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास – स्कूल समाज का लघु रूप होता है, क्योंकि स्कूल में छात्र अलग–अलग स्थानों से आते हैं। छात्रों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने से समाज की वास्तविक परिस्थितियों का अनुभव करने तथा सामाजिक जीवन का अवसर मिलता है। छात्र सामाजिक कर्तव्य, सामाजिक जिम्मेदारियों एवं दूसरों की भावनाओं को समझने का पाठ सीखता है। इस प्रकार विद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्वों के विकास में सहायक होता है।
  4. नैतिक शिक्षा तथा आध्यात्मिकता का विकास–नैतिक शिक्षा तथा आध्यात्मिक विकास के बिना बालक का सम्पूर्ण ज्ञान निराधार होता है, इसलिए विद्यालयों में नैतिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक ज्ञान पर विशेष बल दिया जाता है।
  5. नागरिकता का ज्ञान – विद्यालय के छात्र समाज के प्रथम नागरिक होते हैं। इसलिए छात्रों को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में देश के लिए उसके उत्तरदायित्व एवं नागरिक अधिकारों से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती है। इसके अतिरिक्त समाज के अन्य व्यक्ति यानि अभिभावक भी विद्यालय के सम्पर्क में रहने के कारण विद्यालय की प्रगति में रुचि लेने लगते हैं।
  6. समाज में समायोजन – विद्यालय छात्रों को समाज की समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार करता है । उचित समायोजन एवं अधिगम ज्ञान का परीक्षण विद्यालय द्वारा ही निर्देशित किया जाता है। छात्रों में समायोजन की क्षमता विकसित करने के लिए विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के समारोहों का आयोजन किया जाता है।
  7. व्यावसायिक प्रशिक्षण–विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से विद्यालय विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण देता है। इसके अतिरिक्त छात्रों के भौतिक जीवन की उन्नति के लिए विद्यालय व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करता है, जिससे वे बड़े होकर अपनी आजीविका की व्यवस्था कर आत्मनिर्भर बनते हैं।
  8. चरित्र निर्माण – भारत में प्राचीन काल से ही चरित्र-निर्माण की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता है इसी के परिणामस्वरूप मार्कोपोलो तथा फाह्यान ने भारतीय चरित्र की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। वर्तमान समय में चरित्र का पतन हो रहा है इसलिए विद्यालयों में बालकों के चरित्र निर्माण पर अत्यधिक बल देने की आवश्यकता है तथा ध्यान दिया भी जाता है।
  9. सामाजिक जीवन से सम्पर्क – विद्यालय छात्रों को इस प्रकार की शिक्षा देते हैं कि वे सामूहिक जीवन में कुशलतापूर्वक भाग ले सकें । विद्यालय बालक को समाज की वास्तविक परिस्थितियों में स्वानुभव द्वारा सीखने के लिए प्रेरित करते हैं। सामाजिक जीवन से सम्पर्क स्थापित होने पर छात्र समाज का उत्तरदायी नागरिक बनता है।
  10. सामाजिक एकता एवं स्थानान्तरण – विद्यालयी शिक्षा छात्रों को एक बड़े पैमाने पर सामाजिक एकता एवं स्थानान्तरण करने में सहायक होता है। विद्यालय की पहचान करने एवं प्रत्येक छात्र की अभिरुचि तथा क्षमताओं को विकसित करने तथा सामाजिक पृष्ठभूमि की उपलब्धि में सहायक होते हैं। शिक्षक, “सबसे अच्छा एवं प्रतिभाशाली चुनौतीपूर्ण एवं अध्ययन को उन्नत करने में छात्रों का मार्गदर्शन करता है।
बाल विकास में पास-पड़ोस एवं समुदाय की भूमिका 
समुदाय एक सामाजिक परिक्षेत्र होता है, जिसमें, परिवार, पास-पड़ोस, जातियाँ और अन्य सामाजिक समूह, संगठन और संस्थाएं सम्मिलित होती हैं। समुदाय एक पूर्ण इकाई होता है इसलिए बालक समाज में समाजीकरण की पूर्णता को प्राप्त करता है। एक समुदाय विभिन्न सभ्यता एवं संस्कृतियों का समागम होता है इसमें बालक उन संस्कृतियों एवं सभ्यताओं को ग्रहण करता है। समुदाय की भाषा, रीति-रिवाज एवं तरीकों का सीखकर अपने को समाज में व्यवस्थित करता है। समुदाय में विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित त्योहारों का आयोजन किया जाता है। बालक इन त्योहारों के द्वारा एक-दूसरे के सम्पर्क में आकर समाजीकरण की प्रक्रिया को सीखते हैं। वह सामूहिक क्रियाओं में भाग लेता है और वहाँ की भाषा, कला, साहित्य, सभ्यता और संस्कृति के प्रति स्थायी भाव बना लेता है। जिस समुदाय में बालक जन्म लेता है उसे उसी समुदाय में जीवन निर्वाह करना होता है, यदि वह इसमें सामन्जस्य स्थापित नहीं कर पायेगा तो वह सुखी नहीं रह सकता। इस प्रकार एक बालक के समाजीकरण में समुदाय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक समुदाय बालक पर औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के प्रभाव डालता है। निम्नलिखित पक्तियों में हम बालक पर समुदाय के औपचारिक प्रभावों पर प्रकाश डाल रहे हैं।
  1. शारीरिक विकास पर प्रभाव – बालक के शारीरिक विकास पर परिवार एवं विद्यालय आदि संस्थाओं के साथ-साथ समुदाय के वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है। समुदाय स्थानीय संस्थाओं का निर्माण करता है। ऐसी संस्थाएँ गाँवों एवं नगरों के मोहल्लों आदि में सफाई का प्रबन्ध करती है। साथ ही जगह-जगह पर बागों एवं पार्कों की व्यवस्था करती है। साफ व स्वच्छ वातावरण में रहने से बालक में सफाई की आदत पड़ जाती है। बागों एवं पार्कों के खुले वातावरण में खेलने-कूंदने, भागने– दौड़ने व घूमने-फिरने से बालक को स्वच्छ एवं पवित्र वायु प्राप्त होती है। सफाई में रहने तथा स्वच्छ एवं पवित्र वायु मिलने से बालक का स्वास्थ्य ठीक रहता है। इससे उसका सम्यक शारीरिक विकास होता है । समुदाय संगठित स्वास्थ्य केन्द्रों एवं चिकित्सालयों की भी व्यवस्था करता है जिसमें बालक को स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास के विषय में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है।
  2. व्यवस्था करता मानसिक विकास पर प्रभाव – समुदाय पुस्तकालयों की जिससे बालक के ज्ञान में वृद्धि होती है। यही नहीं, वह समय-समय पर वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, विचार–सम्मेलनों एवं विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों की भी व्यवस्था करता है। इन सबसे बालक का मनोरंजन होने के साथ ही मानसिक विकास भी होता हैं ।
  3. सामाजिक विकास पर प्रभाव – समुदाय में समय-समय पर सामाजिक सम्मलेन, मेले, उत्सव एवं धार्मिक कार्य होते रहते हैं, जिसमें बालक प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते हुए समुदाय के विभिन्न व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करता है। इन सब लोगों के साथ मिल-जुलकर रहने से एवं कार्य करने से बालक में समाजिकता की भावना विकसित होती है। इसके परिणामस्वरूप उसमें सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं, विश्वासों एवं आदर्शों का ज्ञान होता है। इससे उसमें सहानभूति, सहयोग, सहनशीलता, समाज-सेवा एवं त्याग अनके सामाजिक गुण का विकसित हो जाते है। यही नहीं, सामुदायिक वातावरण में रहते हुए उसे कर्तव्यों, अधिकारों, स्वतन्त्रता एवं अनुशासन का भी वास्तविक अर्थ पता चल जाता है।
  4. सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव – प्रत्येक समुदाय की अपनी संस्कृति होती है जिसका प्रभाव समुदाय के प्रत्येक सदस्य पर पड़ती है। जब बालक समुदाय के सांस्कृतिक एवं धार्मिक उत्सवों में भाग लेता है तो अनुकरण द्वारा अनजाने ही उस समुदाय की संस्कृति को अपना लेता है। यही कारण है की प्रत्येक बालक पर उसके समुदाय की बोलचाल, भाषा तथा आचरण की गहरी छाप होती है ।
  5. चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर प्रभाव – बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर परिवार के साथ-साथ समुदाय का भी प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव अच्छा भी हो सकता है तथा बुरा भी। यदि समुदाय का वातावरण शुद्ध, अनुशासित एवं सरल होता है तो बालक में चारित्रिक एवं नैतिक गुण विकसित होते हैं, अन्यथा अनैतिक। इस प्रकार के नैतिक तथा अनैतिक चरित्र को परिवार के पश्चात समुदाय ही प्रभावित करता है ।
  6. राजनीतिक विचारों पर प्रभाव – समुदाय के विभिन्न सदस्यों से वाद-विवाद करने, साथ उठने-बैठने एवं नेताओं के भाषण को सुनाने से बालक को विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का ज्ञान हो जाता है। वह बिना किसी पुस्तकीय ज्ञान के ही जान लेता है कि संसार में कौन-कौन सी राजनीतिक विचारधाराएँ मुख्य हैं तथा विभिन्न देशों में कौन-कौन सी राजनीतिक विचारधाराएँ प्रचलित है। इन्हीं राजनीतिक विचारधाराओं में से ही वह किसी एक को स्वयं भी अपना लेता है। समुदाय का राजनीतिक प्रभाव बालक के राजनीतिक विचारों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है ।
  7. व्यावसायिक विकास पर प्रभाव – समुदाय का प्रभाव बालक के व्यावसायिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। बालक यह देखता है कि उसके समुदाय के लोग किस व्यवसाय के द्वारा अपनी आर्थिक आवशयकताओं की पूर्ति करते हैं। शनैः शनैः वह भी उसी व्यवसाय में रुचि लेने लगता है । अन्त में उसी व्यवसाय को वह स्वयं भी अपना लेता है। हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह बात देखने में आती है कि यदि कोई बालक ऐसे व्यवसाय करने लगता है जिसे समुदाय नहीं चाहता, तो समुदाय उस बालक को उस समय तक के लिए बहिष्कृत कर देता है, जब तक वह उस व्यवसाय को छोड़ नहीं देता। इस प्रकार समुदाय का बालक के व्यावसायिक विकास पर भी शक्तिशाली प्रभाव पड़ता है।
  8. अन्य प्रभाव – बालक को शिक्षित करने के लिए समुदाय रेडियो, सिनेमा, नाट्यशाला अभिनय केन्द्रों, अजायबघर, चित्रशालाओं, पत्र-पत्रिकाओं एवं वाचनालयों आदि अनौपचारिक साधनों की भी व्यवस्था करता है। इन साधनों के द्वारा बालक को समुदाय की विभिन्न समस्याओं एवं उनके सुलझाने के ढंगों का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार समुदाय बालक पर अनौपचारिक साधनों के द्वारा ऐसे प्रभावों को डालता रहता है जिससे उसका सर्वांगीण विकास होता है।

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