बाल्यावस्था का अर्थ, परिभाषाएँ एवं विशेषताएँ बताइए । बाल्यावस्था में शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए? चर्चा कीजिए | Explain the meaning, । definitions and characteristics of childhood. What should be the nature of Education in Childhood? Discuss.
प्रश्न – बाल्यावस्था का अर्थ, परिभाषाएँ एवं विशेषताएँ बताइए । बाल्यावस्था में शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए? चर्चा कीजिए | Explain the meaning, । definitions and characteristics of childhood. What should be the nature of Education in Childhood? Discuss.
या
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप बताइए । Explain the nature of Education in Childhood.
उत्तर- बाल्यावस्था (Childhood)
शैशवावस्था एवं किशोरावस्था के मध्य की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। शैशवावस्था पूर्ण करने के पश्चात् बालक बाल्यावस्था में प्रवेश करता है। कोल और ब्रुस ने इस अवस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ बताते हुए लिखा है कि बाल्यावस्था को समझना सबसे कठिन कार्य है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अतः इसे निर्माणकारी काल भी कहा गया है।
रॉस ने बाल्यावस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है। बाल्यावस्था वैचारिक क्रिया अवस्था है, इसमें बालक अपनी प्रत्येक क्रिया पर विचार करता है।
किलपैट्रिक ने बाल्यावस्था को प्रतिद्वंदिता का काल माना है।
कुप्पूस्वामी के अनुसार, “बाल्यावस्था में अनेक अनोखे परिवर्तन देखे जा सकते हैं।”
शिक्षा आरम्भ करने के लिए यह आयु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसीलिए इसे ‘प्रारम्भिक विद्यालय की आयु’ कहा जाता है।
बाल्यावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Childhood)
- शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता – इस काल में शैशवावस्था की अपेक्षा मानसिक एवं शारीरिक विकास की गति में स्थिरता आ जाती है। इस अवस्था में ऐसा प्रतीत होता है कि मस्तिष्क पूर्ण परिपक्व हो गया है। इसलिए रॉस ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है।
- यथार्थवादी दृष्टिकोण – बाल्यावस्था में बालक का दृष्टिकोण यथार्थवादी होता है। इस अवस्था में बालक कल्पना जगत से वास्तविक संसार में प्रवेश करने लगता है।
- जिज्ञासा की प्रबलता – बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रबलता के कारण बालक नवीन वातावरण को जानने का प्रयास स्वयं करता है। उसमें स्मरण करने की शक्ति का भी विकास हो जाता है।
- मानसिक योग्यताओं में वृद्धि – – इस काल में मानसिक विकास की तीव्रता के कारण बालक तर्क करना प्रारम्भ कर देता है। बाल्यावस्था में प्रत्यक्षीकरण और ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति का विकास होता है।
- सामूहिक भावना का विकास – बाल्यावस्था में सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का विकास हो जाने पर बालकों में सामाजिक भावना पनपने लगती है। इस अवस्था में बालक सामूहिक खेलों में रुचि लेना प्रारम्भ कर देते हैं।
- रचनात्मक कार्यों में रुचि – बाल्यावस्था में रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इस उम्र में लड़के खिलौने जोड़ने लग जाते हैं और लड़कियाँ गुड़िया बनाना प्रारम्भ कर देती हैं ।
- संवेगों पर नियंत्रण – इस अवस्था में बालक उचित-अनुचित में अंतर करने लगता है। बाल्यावस्था में बालक सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवहार के लिए अपनी भावनाओं पर दमन और संवेगों पर नियत्रंण स्थापित करना सीख जाता है।
- संग्रह प्रवृत्ति का विकास – बाल्यावस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। बालक विशेष रूप से अपने पुराने खिलौने, मशीन के कलपुर्जे, पत्थर के टुकड़े तथा बालिकाएँ विशेष रूप से अपनी गुड़िया, कपड़े के टुकड़े आदि संग्रह करती दिखाई देती हैं।
- प्रतिस्पर्धा की भावना – बाल्यावस्था में प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। बालक अपने भाई-बहन से भी झगड़ा करने लग जाता है।
- औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ – इस अवस्था में बालक की भाषा विकास के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है और वह स्कूल जाना शुरू कर देता है। इसके साथ बालक में निरुद्देश्य भ्रमण करने की आदत पड़ जाती है।
- अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास – बाल्यावस्था में अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है। इस उम्र में चोरी करने और झूठ बोलने की आदत भी पड़ जाती है।
- सम-लिंग भावना का विकास- इस अवस्था में समलिंगीय भावना का विकास होता है और लड़कों में नेता बनने की चाह घर करने लगती है। बाल्यावस्था में काम प्रवृत्ति की न्यूनता पाई जाती है।
- बहिर्मुखी प्रवृत्ति का विकास – बाल्यावस्था में बालक के बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास होता है। ब्लेयर और सिम्पसन के अनुसार, “इस अवस्था में जीवन के बुनियादी दृष्टिकोण और स्थायी आदर्श व मूल्यों का निर्धारण हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन देखा जा सकता है। “
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- जिज्ञासा की संतुष्टि- इस अवस्था में बालकों की रुचि लगातार बदलती रहती है। ऐसे में बालकों की विषय सामग्री विनोद, साहस, मनोरंजन से भरपूर व रोचकता से पूर्ण होनी चाहिए। अध्यापन में बालकों की जिज्ञासा की संतुष्टि करना आवश्यक होता है।
- भाषा विकास पर ध्यान – बाल्यावस्था में भाषा का विकास होता है। इसलिए भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अन्य विषयों का भी अध्ययन कराना चाहिए, जो जीवन में लाभप्रद हो । बालकों के मानसिक विकास के लिए शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन करते रहना चाहिए ।
- इन्द्रियों का समुचित विकास – बाल्यावस्था में बालकों की इन्द्रियों के समुचित विकास के लिए क्रियाओं पर आधारित, अधिगम पर बल देना चाहिए। इसके लिए विद्यालय की पाठ्यचर्या में पर्यटन, खेल-कूद और सहगामी क्रियाओं की भी व्यवस्था होनी चाहिए ।
- रचनात्मक प्रवृत्ति के विकास पर ध्यान देना – बाल्यावस्था में बालक कठोर अनुशासन पसंद नहीं करते। इसलिए उनकी शिक्षा डाँट-फटकार की अपेक्षा प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होनी चाहिए। इससे बालकों में रचनात्मक कार्य करने को भी बल मिलेगा।
- नैतिक मूल्यों का विकास – बाल्यावस्था में बालक नैतिक एवं अनैतिक में भेद करना सीख जाता है। व्यक्तित्व निर्माण के लिए बालकों को उचित मूल्यों पर आधारित नैतिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
कॉलसनिक के अनुसार, “मनोरंजन से भरपूर आनंद का अनुभव कराने वाली सरल कहानियों के माध्यम से नैतिक शिक्षा देनी चाहिए।”
- संचय की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना-बाल्यावस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस कारण शिक्षा प्रदान करते समय बच्चों को ज्ञान के संचय एवं धन की बचत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
- सामूहिक प्रवृत्ति की संतुष्टि इस अवस्था के बालकों में समूह में रहने की प्रवृत्ति देखी गई है। सामूहिक भावना के विकास के लिए विद्यालय में बालसभा, सामूहिक खेल व सामुदायिक कार्यों का आयोजन करना चाहिए।
- संवेगात्मक विकास पर ध्यान- बाल्यावस्था में जीवन के अनेक पक्षों से संबंधित पहलुओं में परिवर्तन आता है। मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए उनके संवेगों पर नियत्रंण की अपेक्षा प्रदर्शन पर बल देना चाहिए ।
- सामाजिक गुणों का विकास- बालकों में अनुशासन, सहयोग, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जैसे सामाजिक गुणों के विकास के लिए सामाजिक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए ।