बिहार का सीमा विवाद
बिहार का सीमा विवाद
बिहार-उत्तर प्रदेश सीमा समस्या बंगाल से 1912 में बिहार के अलग होने के साथ ही उत्तर प्रदेश को स्पर्श करती बिहार की सीमा पर विवाद शुरू हुआ। यह समस्या पश्चिमोत्तर सीमा पर भू-पति एवं राजस्व वसूली से जुड़ी हुई थी। आजादी से पूर्व तत्कालीन भारतीय सचिव ने इस विवाद को निपटाने हेतु सुझाव दिया था। इसके तहत विवादित जमीन को डुमरांव के जमींदारों से आसान किस्तों में खरीदकर उत्तरप्रदेश की सीमा पर स्थित नरही के किसानों को बेच दिया जाये। इसी बात को
लेकर नरही और निकटवर्ती किसानों ने बिहार के इस क्षेत्र पर अधिकार जमाने का प्रयास तेज कर दिया। यद्यपि उनके पास इस जमीन पर अधिकार करने हेतु कोई प्रामाणिक कागजात वगैरह नहीं थे।
यह विवादित जमीन नैनीजोट दियारा पश्चिम, नैनीजोट नरौठा एवं नैनीजोट के सीमावर्ती 7062 एकड़ भूमि का है जो गंगा नदी के धारा परिवर्तन व कटांव के कारण उत्तर प्रदेश की सीमा में चली गयी है। इसके अलावा अन्य निकटवर्ती भागों में कुल
मिलाकर 145 गांवों की 42 हजार एकड़ भूमि को लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों के बीच तनाव एवं विवाद कायम है।
विवाद निपटारा हेतु त्रिवेदी आयोग का गठन: केंद्र सरकार ने दोनों राज्यों के बीच उत्पन्न इस विवाद को निपटाने के लिये 1962 में एक स्वतंत्र आयोग का गठन किया। इस आयोग के अध्यक्ष पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर सी एम त्रिवेदी को बनाया गया। आयोग ने गहन जांच करके 28 अगस्त, 1964 को अपना अंतिम प्रतिवेदन केंद्र सरकार को सौंप दिया। रिपोर्ट में समस्या के समाधान हेतु दोहरी व्यवस्था पर जोर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार: जो ग्राम 1881 से 1963 तक जिस स्थिति में थे उसी के अनुरूप उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों की सीमायें निर्धारित की जाये। इस सीमा निर्धारण के अलावा आयोग ने स्पष्ट कर दिया कि गंगा
और घाघरा नदी की धारा में बदलाव के कारण एक राज्य की भूमि दूसरे राज्यों में चली जाती है तब उस जमीन पर पहले वाले भू-स्वामी का ही अधिकार होगा।
आयोग की सिफारिशों को लागू करने हेतु 1968 में बिहार-उत्तर प्रदेश सीमा अधिनियम पारित किया गया। इसके तहत बिहार के भोजपुर से 85, सीवान से 24 तथा सारण से 5 गांव उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद को सौंपे गये इसके बदले में भोजपुर को 22, सीवान को 12 तथा सारण को 5 गांव उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुये। गांवों के इस लेन-देन में बिहार को ।।4 गांवों के बदले मात्र 39 गांव ही हासिल हुये। यह सीमा अधिनियम 1970 से लागू हुआ।
इसके बाद महासर्वेक्षक भारत सरकार ने त्रिवेदी आयोग के आधार पर दोनों राज्यों के बीच कार्य सम्पन्न करके क्षेत्र का नक्शा जारी किया। सीमा समस्या का मुख्य क्षेत्र बलिया जिला का हासनगर तथा बिहार का नौनीजोट क्षेत्र है। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के भू रिकार्ड अधिकारियों ने नैनीजोट की छह हजार एकड़ जमीन बिहार को सौंपने से इंकार कर दिया और भोजपुर प्रशासन द्वारा यहां के किसानों को दी गयी रैयत बहाली को बलिया प्रशासन ने नहीं माना। उत्तर प्रदेश के किसान बिहार के किसानों की फसलों को रक्षा वाहिनी की सहायता से काट कर ले जाने लगे।
पटना उच्च न्यायालय ने 1981 में दोनों राज्यों के संबंधित अधिकारियों को रैयती साक्ष्यों के आधार पर किसानों से उचित अधिकार देने और केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने का आदेश दिया। फरवरी 1988 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय का अनुमोदन किया। इन सबके बावजूद विवाद अभी भी जारी है।
बिहार-नेपाल सीमा विवाद
बिहार सरकार के अनुसार राज्य की 504 एकड़ जमीन पर नेपाली नागरिकों ने अवैध अधिकार कर रखा है। बिहार की उत्तरी
सरहद पर अंतर्राष्ट्रीय सीमा विवाद वर्षों से कायम है। बिहार नेपाल सीमा का निर्धारण 1882-83 में कैप्टन टेनर ने किया था। लेकिन नेपाल की सरकार ने इसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया। 1935 में मैन्सफील्ड के निर्देशन में इस क्षेत्र का संयुक्त निरीक्षण कराकर सीमा का निर्धारण किया गया किंतु इसे भी नेपाली सरकार ने मान्यता देने से इंकार कर दिया। जनवरी 1989 से सीमा विवाद एवं अतिक्रमण और तेजी से बढ़ गया है। बिहार के अनेक गांवों के किसान अपनी जमीन से वंचित हो गये हैं।
बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के भारत नेपाल सीमा के निकट पंपुरवा ग्राम की 300 एकड़ जंगल की जमीन तथा पशुनी एवं बलगंग्वा ग्रामों की 5073 एक जमीन पर नेपाली नागरिकों द्वारा अतिक्रमण हुआ है। इसी प्रकार सुखता गांव में भी नेपाली
नागरिकों ने बड़े भूखंड पर अवैध कब्जा किया है। बूंढ़ी गंडक नदी के कटाव के कारण भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। यूं तो बिहार की 5379 एकड़ जमीन पर नेपाल का अवैध कब्जा है परंतु बिहार सरकार ने राज्य की 5040 एकड़ पर अवैध कब्जा स्वीकार किया है।
सीमावर्ती क्षेत्रों में इस अतिक्रमण के विवाद को सुलझाने हेतु 1989 से सरकारी प्रयास प्रारंभ किये गये हैं। विवाद के शांतिपूर्ण निपटारे हेतु लखनऊ में 1989 में मध्य कमांड की एक संयुक्त बैठक हुई और उसके प्रतिवेदन केंद्र सरकार को भेजे गये। केंद्र सरकार की पहल पर जून 1992 में काठमांडू में बिहार सरकार, भारत सरकार और नेपाल के प्रतिनिधियों के बीच बैठक हुई, किंतु कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। बैठक में जिन मुद्दों पर आम सहमति हुई उसे नेपाल ने क्रियान्वित करने से इंकार कर दिया। समस्या के समाधान हेतु नेपाल के उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण बिहार-नेपाल सीमा पर विवादित क्षेत्रों में तनाव रहता है। यह तनाव काचोराना, झोरखर एवं निकटवर्ती गांवों में भी फैल गया है।