भाषायी कौशल का विकास किस प्रकार होता है? वर्णन कीजिए । How is linguistic skills developed? Explain it.
प्रश्न – भाषायी कौशल का विकास किस प्रकार होता है? वर्णन कीजिए । How is linguistic skills developed? Explain it.
उत्तर – भाषायी कौशल का विकास (Development of Language Skills)
भारत एक बहुभाषी देश है। बहुभाषी देश में भाषाओं का महत्त्व होने के कारण भाषा का शिक्षण विशेष महत्त्व रखता है। हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है। हमारे बहुभाषी देश के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में अनेक स्तर पर हिन्दी के शिक्षण और प्रसारण का महत्त्व सर्वमान्य है। प्रायः सभी शिक्षा आयोगों ने हिन्दी शिक्षण पर पर्याप्त बल दिया है। भाषा प्रयोग एक कौशल होने के साथ – साथ एक कला भी है। किसी भी कला को सीखना सरल कार्य नहीं है ।
किसी कला को सीखने के लिए निरन्तर अभ्यास व लगन की आवश्यकता होती है। वैसे भाषा, अनुकरण से काफी हद तक सीखी जा सकती है परन्तु अनुकरण द्वारा सीखने से बालक में उतनी क्षमता, योग्यता तथा भाषा प्रयोग में प्रवीणता नहीं आती है-
- भाषा प्रयोग एक कला है- प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा का प्रयोग कुशलतापूर्वक कर सकता है। इस कला को भी सीखने के लिए अन्य कलाओं के समान प्रयास करना पड़ता है। भाषा को अधिकांशतः अभ्यास से सीखा जाता है। भाषा कौशल का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है-प्रभावशाली वाक्यों की रचना करना । भाषा कौशल में शब्द भण्डार इतना विशाल होता है कि बोलते समय उपयुक्त शब्द. अपने आप वाक्य रचना का गठन करते चलें जिससे शुद्ध व प्रभावशाली वाक्य रचना हो और अशुद्ध वाक्य रचना से बचने का प्रयास किया जा सके। इसके साथ ही शुद्ध उच्चारण द्वारा भी भाषा सीखी जाती है। बोलने, पढ़ने में कोई त्रुटि न हो एवं शुद्ध लिखना भी प्रयास से ही आता है साथ ही बालक शुद्ध, स्पष्ट, सुन्दर लेख लिखना सीख जाते हैं क्योंकि लिखना भी एक कला है। अतः यह कहा जा सकता है कि भाषा प्रयोग एक कौशल है, एक कला है। वास्तव में दक्षता प्राप्त करना ही भाषा – कौशल है। इन कलाओं में दक्ष होने के लिए सतत् अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
- भाषा प्रयोग एक कौशल है- भाषा प्रयोग एक कला है और कला को अभ्यास द्वारा परिवर्तित किया जाता है। अतः अभ्यासों का भाषा सीखने में सर्वोच्चतम् स्थान है। बोर्ड ऑफ एजूकेशन, लन्दन द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में भाषा का महत्त्व इन शब्दों द्वारा बताया गया है- “भाषा एक कौशल, एक कला, एक भाव और एक क्रिया है । ” क्योंकि, भाषा एक कला है, इसीलिए उसको सीखने की रीति भी अन्य कलाओं को सीखने की रीति जैसी होती है। अनुकरण करने से तथा सतत् अभ्यास से इसे हम सीखते हैं। वैसे भी बड़ों का अनुकरण करके ही बालक गलत को सही बोलना, धीरे-धीरे गलतियों को सुधारना और सही भाषा सीखना प्रारम्भ करता है। विचारों और भावों के विकास के साथ-साथ अभिव्यंजना शक्ति को विकसित करके, शब्द भण्डार में वृद्धि करके सुगठित वाक्य रचना एवं शुद्ध उच्चारणं द्वारा भाषा सीखी जाती है। लिखने की कला के सम्बन्ध में भी यही बात है। प्रारम्भ में बालक टेढ़े-मेढ़े अक्षर लिखता है पर सही मार्ग-दर्शन तथा प्रयत्न से सही लिखना सीख लेता है। कहावत प्रसिद्ध है कि, ‘करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान, अतः भाषा एक कला है, एक भाव है जो सतत् अभ्यास का परिणाम है व भाषा प्रयोग वास्तव में एक कौशल है। लिखने, बोलने, पढ़ने और सुनने की कला में दक्षता प्राप्त करना सतत् अभ्यास का ही परिणाम है।
- भाषा एक सामाजिक व्यवहार है- भाषा को बालक समाज से उसी प्रकार सीखता है जिस प्रकार वह सामान्य से अन्य समाजिक आचरण सीखता है। भाषा का अर्जन अनुकरण द्वारा होता है। परिवार व समाज में रहने वाले स्वयं शिष्ट भाषा का प्रयोग करके छोटे बालकों को शिष्ट भाषा का प्रयोग करना सिखाते हैं। बालक अपने बड़ों को जिस प्रकार आचरण करते देखते हैं वैसा ही आचरण करने लगते हैं क्योंकि अनुकरण करना उनकी सहज प्रवृत्ति होती है इसीलिए आवश्यक है कि शिक्षक भी वैसी ही भाषा का प्रयोग करे जैसा कि वे चाहते हैं कि उनके द्वारा पढ़ाए गए बालक करें। भाषा शिक्षण का उद्देश्य विद्यार्थियों को शिष्ट, अवसरानुकूल भाषा प्रयोग में प्रवीणता प्रदान करना होना चाहिए एवं इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सतत् अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
- भाषा प्रयोग का स्तर – भाषा पर पूर्णाधिकार का परिणाम होना चाहिए कि एक ऐसा भाषा प्रयोग स्तर को प्राप्त करना, जहाँ यन्त्रवत् शब्द वाक्यों में गठित होते चले जाए और लेश मात्र भी प्रयास न करना पड़े, विद्यार्थी का शब्द भण्डार इतना समृद्ध हो जाए कि बोलने में या लिखने में कहीं भी प्रवाह अवरुद्ध न हो विद्यार्थी धाराप्रवाह बोलता चला जाए, लिखता चला जाए, उसे कोई परेशानी न हो न भाषा के बोलने में न लिखने में। रॉबर्ट लाडो ने इस स्तर पर विवेचना अपनी पुस्तक भाषा शिक्षण में इस प्रकार की है कि, “भाषा सीखने की प्रारम्भिक अवस्था में पर्याप्त समय तक सीखने का स्तर सप्रयास शब्दों के चयन व अभिव्यक्ति तक ही सीमित रहता है पर्याप्त समय के पश्चात् कहीं ये अभिव्यक्ति यन्त्रवत् प्रयासहीन आदत में परिणित हो जाती है। जब विद्यार्थी उपलब्धि के इस स्तर को प्राप्त कर लें तो समझना चाहिए कि उसने भाषा सीख ली है । “
- चारों क्षमताओं का महत्त्व – भाषा प्रयोग कौशल है इसलिए इसके अन्तर्गत मातृ भाषा सीखते समय चारों क्षमताओं का विकास अति आवश्यक है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना । भाषा कौशल केवल एक या दो क्षमताओं तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें चारों क्षमताओं का सम्मिलित महत्त्व है। इन चारों क्षमताओं में बालक दक्षता प्राप्त कर सकेगा यदि उसने कुछ प्रमुख आदतों का निर्माण कर लिया है।
जैसे- शुद्ध भाषा बोलना, सफलतापूर्वक सस्वरपाठ और मौनपाठ, वर्तनी एवं वाक्यं गठन सम्बन्धी भूल किए बिना शुद्ध भाषा लिखना, शान्त रहकर धैर्यपूर्वक दूसरे की बात सुनना आदि । प्रत्येक भाषा सीखने वाला इन प्रमुख आदतों का निर्माण करता है। इन प्रमुख आदतों के निर्माण के सम्बन्ध में रॉबर्ट लाड़ो ने अपनी पुस्तक भाषा शिक्षण में लिखा है, “स्पष्ट रूप से रुचिपूर्वक सस्वर वाचन करना एक कला पूर्ण कौशल ही है और यह कौशल सतत् ‘अभ्यास का ही परिणाम होता हैं- लिखने की व्यवस्था, उसका प्रयोग सतत् अभ्यास व आदतों का ही परिणाम है. समस्त भाषा शिक्षण उच्चारण पर आश्रित होता है और सुनने में ध्वनि व्यवस्था का प्रयोग होता है। अतः मातृभाषा सम्बन्धी चारों क्षमताओं में जब विद्यार्थी जब दक्ष हो जाए तब समझना चाहिए कि अब विद्यार्थी ने भाषा सीख ली है।”
- चारों भाषा कौशलों का क्रम- मातृभाषा सीखते समय स्वाभाविक क्रम को ही अपनाया जाता है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि । यदि हम किसी बालक का भाषा विकास देखें तो उसके सीखने का क्रम यही होता है। शिशु. प्रारम्भिक अवस्था में भाषा सुनता है,. मौखिक रूप से भाषा से परिचित होता है फिर धीरे-धीरे सुनने में आने वाली बातों को समझने का प्रयत्न करता है। तत्पश्चात् बोलने का भी प्रयास करता है अतः सुनने और बोलने का क्रम तीन-चार साल तक चलता रहता है फिर पुस्तक पढ़ना और लिखना सीख जाता है। अतः मातृभाषा अध्यापन हेतु इसी स्वाभाविक क्रम को अपना लिया गया है। प्रयास की दृष्टि से यह क्रम सरल से जटिल सूत्र पर ‘आधारित है।