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भाषा से आप क्या समझते हैं? भाषा की प्रकृति एवं महत्त्व बताइए। What do you mean by Language? Describe Nature and Importance of Language.

प्रश्न – भाषा से आप क्या समझते हैं? भाषा की प्रकृति एवं महत्त्व बताइए। What do you mean by Language? Describe Nature and Importance of Language.
या
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए- Write short notes on the following:
(1) प्रयोग की दृष्टि से भाषा ( Language in terms of use) 
(2) व्यावहारिक दृष्टि से भाषा (Practically speaking language)
(3) भाषा के प्रकार (Types of Language)
(4) भाषा का अर्थ (Meaning of Language.) 
उत्तर – भाषा (Language)
समस्त प्राणी जगत में केवल मनुष्य को ही भाषा का अमूल्य वरदान प्राप्त है। भाषा प्रकृति द्वारा प्रदत्त वह उपहार व शक्ति है जिससे मानवीय जीवन सुगम हुआ है। भाषा के बिना मानव पशुतुल्य है। बॉन हम्बोलर ने ठीक लिखा है कि भाषा के कारण ही मनुष्य, मनुष्य है, परन्तु भाषा के आविष्कार के लिए उसका पहले से ही मनुष्य होना आवश्यक है।” भाषा की उत्पत्ति वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य है । डॉर्विन जैसे विचारकों का मत है कि, “भाषा ईश्वरीय वरदान नहीं है अपितु ध्वनियों, शब्दों, बोली से विकसित एवं परिष्कृत होकर आज इस अवस्था तक पहुँची है।” परन्तु प्राचीन विचारक भाषा को ईश्वरीय कृति मानते थे। इसी कारण संस्कृत को देववाणी की संज्ञा प्रदान की गयी है। पतंजलि ने ईश्वर को ही भाषा का आदि गुरू माना है।

मनुस्मृति के अनुसार, “सर्वेषातु सनामनि कर्मणि च पृथक पृथक | वेद शब्देभ्यः एवार्दो पृथक् संस्थानं निर्मने।”

भाषा की उत्पत्ति का सफर बहुत लम्बा है और इसके प्रति व्यक्त किए गए दृष्टिकोण भी अलग-अलग हैं। सारगर्भित तथ्य यह है कि भाषा का कोई अन्तिम स्वरूप नहीं है और यह चिर परिवर्तनशील है। मानव सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है इसलिए भाषा की कहानी एक ऐसी सभ्यता की कहानी है। जिसके साधन से हम अपने भावों एवं विचारों को दूसरों तक पहुँचा सके उसे ही भाषा कहते हैं। बुद्धि, विचार एवं चिन्तन- शक्ति के कारण ही मनुष्य भाषा का अधिकारी बन सका है। वह मुँह एवं शरीर के अंगों की सहायता से विविध प्रकार की ध्वनियों को उच्चारण के माध्यम से उत्पन्न करता है जिनको वह अक्षरों तथा शब्दों के द्वारा व्यक्त करता है। आज भी मनुष्य के द्वारा अभिव्यक्ति के लिए भाषा का ही प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार भाषा के दो रूप हैं-
(1) शाब्दिक भाषा एवं
(2) अशाब्दिक भाषा ।
उपरोक्त प्रकार से वर्णित भाषा को हम निम्नांकित चार्ट के द्वारा भी समझ सकते हैं –

उपरोक्त चार्ट के आधार पर भाषा का प्रवाह कई रूपों में चलता है और प्रत्येक व्यक्ति अपने माध्यम से अपनी बात पहुँचाता है। स्पष्ट है कि सामान्य दृष्टि से भाषा वह साधन है जिसके द्वारा एक प्राणी दूसरे प्राणी से अपने विचार भाव या इच्छा प्रकट करता है। भाषा के अर्थ को गहराई से प्रकट करने के लिए विद्वानों ने भाषा के प्रति अपने विविध दृष्टिकोण प्रकट किए हैं।

इन दृष्टिकोणों को भी हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(1) भारतीय दृष्टिकोण एवं
(2) पाश्चात्य दृष्टिकोण |
भारतीय दृष्टिकोण (Indian Approach)
महर्षि पतंजलि के अनुसार, “भाषा वह व्यापार है जिससे हम वर्णनात्मक या व्यक्त शब्दों के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।”

कामताप्रसाद गुरू के अनुसार, “भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।”

सुमित्रानन्दन पन्त के अनुसार, “भाषा संसार का माध्यम चित्र है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की हृदयतंत्री की झंकार है जिनके स्वर में अभिव्यक्ति होती है । ”

काव्यादर्श के अनुसार, “समस्त तीनों लोक अन्धकारमय हो जाते यदि शब्द रूपी ज्योति (भाषा) से यह संसार प्रदीप्त न होता।”

भोलानाथ तिवारी के अनुसार, “भाषा सुनिश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के मुख या वाणी से निःसृत वह सार्थक ध्वनि समष्टि है, जिसका विश्लेषण और अध्ययन किया जाता है। ध्वनियों द्वारा विचारों का अभिव्यक्ति भाषा है। ”

डॉ. नरेश मिश्र के अनुसार, भाषा मानव मुख से उच्चरित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से एक भाषा समुदाय के सदस्य परस्पर विचार-विनिमय करते हैं।

सुकुमारसेन के अनुसार, “अर्थवान कण्ठोदीर्ण ध्वनि–समष्टि ही भाषा है। ”

डॉ. देवी शंकर द्विवेदी के अनुसार, “भाषा यादृच्छिक वाक्य प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।

श्यामचन्द्र कपूर के अनुसार, “भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर या लिखकर अपने विचार दूसरों पर सरलता, स्प ता, विस्तार तथा पूर्णता से व्यक्त कर सकता ।

पाश्चात्य दृष्टिकोण ( Western Approach)
स्वीट के अनुसार, ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
क्रौंच के अनुसार, “भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चारित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।”
ब्लॉक तथा ट्रेजर के अनुसार, “भाषा उस व्यक्त ध्वनि चिह्नों की पद्धति को कहते हैं जिसके माध्यम से समाज समूह परस्पर व्यवहार करते हैं।”
ए० पेई के अनुसार, “भाषा की कहानी सभ्यता की कहानी है।”

निष्कर्षतः उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाषा में विभिन्न ध्वनियों एवं संकेतों का प्रयोग होता है। इन ध्वनि संकेतों से भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति होती है, ये ध्वनि संकेत परम्परागत होते हैं। इन ध्वनि संकेतों के माध्यम से आवश्यकतानुसार निरन्तर नए शब्दों का निर्माण भी होता रहता है। संसार में व्याप्त प्रत्येक वर्ग एवं समाज के ध्वनि संकेत दूसरे वर्ग के समाज के ध्वनि संकेतों से पृथक एवं भिन्न होते हैं। प्रत्येक ध्वनि संकेत ग्राहय ( ग्रहण करने योग्य) होते हैं।

भाषा की प्रकृति (Nature of the Language)
  1. भाषा अभिव्यक्ति का साधन है (Language is a Means of Expression) – विचारों और भावों के प्रकाशन हेतु भाषा को एक सांकेतिक साधन के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। भाषा के रूप में प्रयुक्त संकेतों को समाज के सदस्यों द्वारा आपसी विचार-विनिमय और भाव प्रकाशन उपयुक्त सहायता प्रदान करने का कार्य किया जाता है।
  2. भाषा का विचारों से गहरा सम्बन्ध (Language has Strong Correlation with Ideas ) – भाषा विचारों की जननी है। विचारों का सही सम्प्रेषण भाषा के माध्यम से ही हो सकता है। विचार के अभाव में भाषा मूल्यहीन और निरर्थक है।
  3. भाषा अर्जित सम्पत्ति है (Language is Acquired Property ) – भाषा वंशानुक्रम की देन नहीं कही जा सकती बल्कि बच्चा इसे प्रारम्भ से ही प्राप्त वातावरण से सीखने का प्रयत्न करता है। यह उसकी वह अर्जित सम्पत्ति है , जिसे वह अपने स्वयं के प्रयासों तथा भाषा को सीख सकने वाली वातावरणजन्य परिस्थितियों से प्राप्त करता है। अगर भाषा वंशानुक्रम की देन या पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हो सकती तो हिन्दी भाषी माता-पिता का बच्चा आवश्यक रूप से हिन्दी का अच्छा ज्ञानी होता चाहे उसे दक्षिण के किसी भी ऐसे परिवार या प्रान्त में पाला जाता जहाँ हिन्दी को प्रयोग में नहीं लाया जाता। उसी तरह फ्रेंच माता-पिता का बच्चा हिन्दुस्तान में हिन्दी भाषी लोगों के बीच रहकर भी फ्रेंच का अच्छा ज्ञाता होता परन्तु हम देखते हैं कि ऐसी बात नहीं है बल्कि स्थिति इसके विपरीत ही होती है।
    विदेशों में बसने वाले भारतीयों के बच्चे उसी देश की भाषा अच्छी तरह जानते हैं, हिन्दी नहीं। पंजाब में बस जाने वाले तमिल भाषी माता-पिता के बच्चे पंजाबी बहुत अच्छी तरह बोल और समझ सकते हैं जबकि उनके माता-पिता तमिल भाषी होते हैं।
  4. भाषा का अर्जन अनुकरण द्वारा होता है (Language is Learned Through Imitation ) – भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है। अपने प्राप्त वातावरण में बालक जिस प्रकार की भाषा दूसरे को बोलता हुआ सुनता है उसे ही अनुकरण द्वारा सीखता है। बालक चाहे किसी भी वातावरण में रहे जैसी भाषा उसके सामने होती है बालक वैसा ही सीखता है। जैसे- एक बालक जिसका पालन-पोषण जंगल में जानवरों के बीच होता है तो वह बालक मनुष्य होने के बाद भी जानवरों की भाषा ही बोलता है क्योंकि बालक ने वही अनुकरण के द्वारा सीखा है।
  5. भाषा का सम्बन्ध परम्परा से होता है (Language is Linked with Tradition) – भाषा परम्परागत होती है। वह सदियों से चली आ रही है जिसे हम अर्जित करते हैं। भाषा में थोड़ा सा परिवर्तन आता है। उसका परिमार्जन होता है परन्तु वह बदले रूप में ही हमें मिलती है।
  6. भाषा गतिशील और परिवर्तनशील होती है (Language is Dynamic and Changeable) – भाषा जड़ एवं स्थिर नहीं है। वह चेतन एवं गतिशील है। जब से भाषा का उद्गम हुआ है वह बहती हुई नदी की तरह परिवर्तनशील है।
  7. प्रत्येक भाषा की अपनी भौगोलिक सीमा होती है (Every Language has its Own Geographical Boundaries) – प्रत्येक भाषा का अपना क्षेत्र होता है तथा भौगोलिक सीमाएं होती हैं जिनके भीतर उसे अच्छी तरह बोला एवं समझा जाता है। उस क्षेत्र से बाहर निकलते ही उसके स्वरूप में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है।
  8. प्रत्येक भाषा की अपनी अलग संरचना होती है (Every Language has its Own Unique Structure ) – हर भाषा की अपनी एक अलग संरचना होती है जो इसमें निहित ध्वनियों, शब्दों, वाक्य – रचनाओं तथा सम्बन्धित अर्थों में स्पष्ट रूप से झलकती है। कोई भी दो भाषाएँ संरचना अथवा ढाँचे की दृष्टि से कभी एक जैसी नहीं होती।
  9. भाषा संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी रहती है (Language is Linked with Culture and Civilisation)-भाषा का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों तथा समाज की सभ्यता और संस्कृति से अटूट सम्बन्ध रहता है। किसी भी समाज की सभ्यता और संस्कृति की झलक उसकी भाषा में मिलती है।
  10. भाषा में विभिन्नता और अनेकरूपता होती है (Language has Variety and Diversity)भाषा अनुकरण से सीखी जाती है। व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक अन्तरों के कारण उनके भाषा सीखने और उसे व्यवहार में लाने के ढंगों में भी अन्तर आ जाता है और इस तरह वह जो भाषा व्यवहार में लाते हैं उसका स्वरूप अन्य के द्वारा व्यवहार में लाई गई भाषा से थोड़ा बहुत भिन्न अवश्य होता है।
भाषा का महत्त्व (Importance of Language)
मानव जिस शक्ति से प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ है वह शक्ति भाषा की शक्ति है। संसार के अन्य प्राणियों के पास अपनी-अपनी भाषाएं हैं परन्तु विचार प्रधान भाषा केवल मानव के पास ही है। अन्य प्राणी जो भाव प्रकट करते हैं वे अस्थायी होते हैं। मानव अपने पूर्वजों के भाव, विचार तथा अनुभवों को सुरक्षित रखने में भाषा के द्वारा ही सफल हुआ है।

भाषा विचार – विनिमय का एक सर्वश्रेष्ठ माध्यम एवं साधन है। भाषा ही शिक्षा एवं ज्ञान का प्रमुख आधार है। लिपि की सहायता से भाषा में स्थायित्व आ गया है। बिना भाषा के शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। भाषा के द्वारा ही किसी समाज का ज्ञान सुरक्षित रखा जा सकता है साथ ही भाषा सामाजिक एकता में भी सहायता पहुँचाती है। भाषा के द्वारा ही शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास एवं व्यक्तित्व का विकास होता है। भाषा ही भावात्मक एकता, राष्ट्रीय एकता एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावनाओं का विकास करती है। क्षेत्रीय भाषाओं के बीच कड़ी बनकर राष्ट्र-भाषा लोगों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाती है एवं उनमें एकीकरण की भावना का विकास करती है।

बर्ट के अनुसार, “भाषा विहीन व्यक्ति केवल बुद्धिविहीन ही नहीं होते बल्कि भावविहीन भी हो जाते हैं । ”

गाँधी जी के अनुसार, “व्यक्ति के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि शिशु – शरीर के विकास के लिए माता का दूध।”

माइकल वेस्ट के अनुसार, “भाषा ही वह तत्त्व है जिससे हमारी आत्मा का गठन होता है। भाषा का महत्त्व केवल बौद्धिक विकास में ही नहीं बल्कि चारित्रिक विकास में भी है। ”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने उद्वेगों, अन्तर्द्वन्द्वों एवं मनोभावों का अभिव्यंजन जितनी सुन्दरता, सरलता, स्पष्टता तथा सुगठित रूप में अपनी मातृभाषा में कर सकता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं। मातृभाषा के द्वारा हम ईश्वरीय शक्ति के अधिक निकट पहुँच जाते हैं क्योंकि मनुष्य अपनी मातृभाषा में ही चिन्तन और मनन करता है। भाषा के महत्त्व को हम निम्न तथ्यों के माध्यम से सरलता से आत्मसात् कर सकते हैं-

  1. व्यक्तित्व का विकास – मातृभाषा के ज्ञान पर ही बालकों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है। बालक के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास में मातृभाषा ही सहायक होती है। बालक के मातृभाषा में शिक्षा करने पर उसके शारीरिक अवयवों पर दबाव भी पड़ता है तथा सुनने, बोलने, लिखने एवं पढ़ने आदि से सम्बन्धित सभी इन्द्रियों का विकास ठीक से होता है। ग्रहण नहीं मातृभाषा से मस्तिष्क और हृदय स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं जबकि यदि शिक्षा अन्य भाषा में दी जाए तो मानसिक तनाव बढ़ सकता है। रायबर्न के अनुसार, व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए मातृभाषा का समुचित ज्ञान अनिवार्य है। बौद्धिक विकास, ज्ञानवृद्धि, आत्माभिव्यक्ति और रचनात्मक शक्ति का विकास एवं उन्नति, मातृभाषा के ज्ञान के बिना असम्भव है।”
  2. मानसिक विकास-मानसिक विकास के लिए विचार शक्ति की आवश्यकता है। विचारों का प्रवाह मातृभाषा से ही सम्भव है। विचार, भाषा को जन्म देते हैं और भाषा विचारों को जन्म देती है जिस व्यक्ति के पास जितनी सशक्त मातृभाषा होगी उतनी ही उसकी विचार शक्ति सुदृढ़ होगी। मातृभाषा के द्वारा ही बालक ज्ञान-विज्ञान को सरलता से सीख सकता है। महात्मा गाँधी बच्चे के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा को उतना ही आवश्यक मानते थे जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक है। महात्मा गाँधी के अनुसार, शिशु प्रथम पाठ अपनी माँ से ही पढ़ता है। इसलिए उसके बौद्धिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा थोपना मैं मातृभूमि के विरुद्ध पाप समझता हूँ।”
  3. भावात्मक विकास- बचपन में ही बालक श्रवण, ग्रहण और अनुकरण की प्रक्रिया द्वारा मातृभाषा को सहज ही आत्मसात कर लेता है। मातृभाषा उसके अन्तःकरण की भाषा बन जाती है। कॉलरिज ने कहा है कि, “मातृभाषा मनुष्य के हृदय के धड़कने की भाषा है।” मातृभाषा के साहित्यिक रूप की शिक्षा द्वारा बालक की रागात्मक वृत्तियों का परिष्करण होता है। प्रेम, उत्साह, करुणा, क्रोध आदि मनोभावों का उदारीकरण मातृभाषा की शिक्षा पर आधारित होता है। काव्य के अनुशीलन से क्षोभ, रोष, ग्लानि, घृणा, ईर्ष्या आदि वृत्तियाँ प्रेम, सौहार्द, करुणा, सहानुभूति, संवेदना आदि में रूपान्तरित हो जाती है और स्वस्थ भावात्मक विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।
  4. सामाजिक-सांस्कृतिक विकास- बालकों को जन्म के समय से ही सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश प्राप्त होता है। उसके सभी सम्बन्धी उसके सामाजिक परिवेश के अंग बनते हैं। यह परिवेश बढ़कर पास-पड़ोस और फिर क्रमशः विस्तृत होता जाता है। इस प्रकार बालक के नामकरण, अन्नप्रासन आदि संस्कार सांस्कृतिक अंग बनते हैं। वह इस परिवेश से सम्बन्धित शब्दावली और भावना को सुनता और समझता है और वह धीरे-धीरे इस परिवेश से जुड़ जाता है। यदि इसे इस परिवेश से दूर रखा जाए तो उसका उचित सामाजिक-सांस्कृतिक विकास नहीं हो सकता। बालक के उचित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए मातृभाषा का वातावरण अनिवार्य है तथा इसी से उसका विकास पूर्ण होता है।
  5. सृजनात्मक प्रतिभा और मातृभाषा-व्यक्ति चिन्तन और मनन मूलतः अपनी मातृभाषा में ही करता है और जिस व्यक्ति में चिन्तन, मनन की शक्ति जागृत हो जाती है वही कल्पना की सृष्टि का निर्माण करता है। मौलिक कल्पना को मूर्त रूप देना ही सृजनात्मकता की पहली सीढ़ी है। मातृभाषा का ज्ञान उसके स्वच्छ आकाश में उड़ने में सहायक बनता है। अतः मातृभाषा में शिक्षा से बालक प्रखर और प्रतिभावान होता है।
  6. मातृभाषा और बालक का व्यावसायिक विकास – बालक घरेलू उद्योगों की शिक्षा को अनुकरण द्वारा सीखता है। इस सन्दर्भ में वह अधिक से अधिक ज्ञान की प्राप्ति मातृभाषा के माध्यम द्वारा ही करता है। जैसे- दक्षिण भारतीय बालक समुद्र के किनारे होने वाले उत्पादों के विषय में अपनी मातृभाषा में ही सही ज्ञान प्राप्त कर सकता है क्योंकि किसी क्षेत्र विशेष की शब्दावली किसी व्यवसाय विशेष के लिए अलग ही होती है। भारत में आजकल विभिन्न तकनीकी और कृषि सम्बन्धी व्यवसायों की जानकारी एवं उनका ज्ञान अंग्रेजी में दिया जा रहा है। इस कारण मातृभाषा के अभाव में अधिक बच्चे इस ज्ञान का लाभ नहीं ले पा रहे हैं ।
  7. अध्ययन–अध्यापन का मूलाधार – मातृभाषा अध्ययन एवं अध्यापन का सरलतम् साधन है। यह शिक्षा का मूलाधार है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षक अपने बालकों को ज्ञान की पूर्णता से परिचित करवाता है। मातृभाषा बालक के लिए अध्ययन की सर्वश्रेष्ठ व उत्कृष्ट भाषा है। मातृभाषा के माध्यम से ही अन्य भाषाओं तथा ज्ञान विज्ञान की शिक्षा पूर्णता को प्राप्त करती है।
  8. मातृभाषा और राष्ट्रीय एकता – स्वतन्त्रता संग्राम के समय ही विद्वानजनों ने यह अनुभव कर लिया था कि शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा होने के कारण ही भारतीय चिन्तन कुण्ठित हो गया है। राष्ट्र का जनमानस दासता की जकड़नों में जकड़ा हुआ था। राष्ट्रीय एकता को बनाएं रखने के लिए देश के ने कहा कि स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होगी।
    सन् 1956 ई० में देश के प्रान्तों का एकीकरण इसी भावना का प्रतिफल था जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना मजबूत हो सके । स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय विभिन्न प्रान्तों के नागरिकों ने अपनी मातृभाषा में ही भारत के आन्दोलनों में भाग लिया था ।
  9. मातृभाषा और राष्ट्र की प्रगति – मातृभाषा के माध्यम व्यक्ति राष्ट्र की समस्याओं से अवगत होकर राष्ट्र की उन्नति में भागीदार बन सकेगा। आज हमारे राष्ट्र के समक्ष मुख्य लक्ष्य हैं- जनसंख्या नियन्त्रण, आधुनिकीकरण, राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध । इन सबकी शिक्षा व्यक्ति को मातृभाषा के माध्यम से ही दी जा सकती है। मातृभाषा में प्राप्त ज्ञान का प्रभाव स्थायी होता है।
  10. मातृभाषा और सहज ज्ञानार्जन- मातृभाषा ज्ञानार्जन का महत्त्वपूर्ण साधन है। मातृभाषा से प्राप्त ज्ञान सहज, स्वाभाविक और स्पष्ट होता है। बालक परिवार के साथ रहकर विभिन्न शब्दों का प्रयोग विभिन्न सन्दर्भों में करता है। उन शब्दों की संकल्पना उसके मस्तिष्क व हृदय में स्वाभाविक रूप से स्पष्ट होती रहती है। उसे इन शब्दों को बार-बार दोहराना नहीं पड़ता। शब्द के अर्थ से जुड़ी विविध आयामी संकल्पना उसकी गहराइयों तक पहुँचती रहती है।
    कहा जा सकता है कि मातृभाषा के माध्यम से प्राप्त ज्ञान बार-बार रटना नहीं पड़ता है। उसका उद्देश्य परीक्षा देने तक ही सीमित नहीं रहता है। उसकी संकल्पना स्थायी और स्पष्ट हो जाती है।
भाषा के प्रकार (Types of Language)
कोई भी व्यक्ति अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रहता है अपितु उसे समाज के विभिन्न स्तरों के सम्पर्क में आना पड़ता है जिसके लिए उसे विभिन्न यात्राएँ भी करनी पड़ती हैं। इन्हीं कारणों से भाषा में विविधता पाई जाती है भाषा के विविध रूप निम्नलिखित हैं-
  1. प्रयोग की दृष्टि से
    1. मौखिक भाषा- मौखिक भाषा का प्रयोग हम अपनी बोलचाल की भाषा में प्रत्येक समय करते हैं। मौखिक भाषा अक्षरों का केवल ध्वन्यात्मक रूप है। इसका प्रयोग मौखिक रूप से विचार-विनिमय के लिए किया जाता है। प्राचीन काल में समस्त ज्ञान मौखिक रूप से ही सुरक्षित रहा है।
    2. लिखित भाषा – जब हम अपने मौखिक विचारों को किसी भी लिपि में लिखकर दूसरों तक पहुँचाते हैं तो इसे लिखित भाषा कहते हैं। भाषा का लिखित रूप अधिक स्थायी माना जाता है। जब हम अपने विचार अथवा सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाते हैं तो लिखित भाषा का ही प्रयोग करते हैं। किसी जाति, समाज अथवा राष्ट्र के विचार, मूल्य, मान्यताएँ एवं ज्ञान आदि लिखित भाषा में ही सुरक्षित रहते हैं।
  2. व्यावहारिक दृष्टि से
    1. मूलभाषा – मूल भाषा को प्राचीन भाषा भी कह सकते हैं। मूल भाषाएँ ही आधुनिक भाषाओं की जननी हैं। इन्हीं भाषाओं के माध्यम से तथा परिस्थितियों के कारण आज की भाषाएं प्रकट हुई हैं । अतः कहा जा सकता है कि जो भाषा किसी भाषा – परिवार की आज जन्मदात्री होती है उसे उस भाषा-परिवार की मूल भाषा कहते हैं। भारत की मूल भाषा संस्कृत कही जा सकती है। यह उत्तरी भारत की आर्य भाषाओं की भी मूल भाषा है।
    2. मातृभाषा – मातृभाषा वह भाषा होती है जिसे कोई बालक अपनी माता का अनुकरण करके स्वाभाविक रूप से सीखता है। वास्तव में यह मातृभाषा का संकुचित अर्थ है। बालक जिस प्रदेश में जन्म लेता है उसकी बोली या क्षेत्रीय भाषा वह पहले सीखता है। वास्तव में बालक की मातृभाषा उसकी क्षेत्रीय भाषा होती है।
      विस्तृत अर्थ में, मातृभाषा किसी क्षेत्र विशेष की उस भाषा को कहा जाता है जिसमें उस क्षेत्र के रहने वाले सभी व्यक्ति मौखिक तथा लिखित रूप से अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं।
      वास्तव में बालक केवल अपनी माता से ही नहीं वरन् अपने सम्पर्क में आने वाले सभी व्यक्तियों तथा वातावरण से सीखता है। इस प्रकार उसकी भाषा का । विकास होता है। हिन्दी उत्तर भारत व मध्य भारत के अधिकाधिक भागों में बोली जाती है इसीलिए यह इस क्षेत्र की मातृभाषा कही जाती है।
    3. प्रादेशिक भाषा – किसी प्रदेश – विशेष में प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा को प्रादेशिक भाषा कहा जाता है। उत्तर भारत के एक बड़े भाग में प्रयोग होने वाली हिन्दी भाषा इस क्षेत्र की प्रादेशिक भाषा कही जा सकती है। इसी तरह अन्य प्रान्तों में प्रयोग होने वाली भाषा उस क्षेत्र की प्रादेशिक भाषा कही जाएगी। एक प्रादेशिक भाषा में कई प्रकार की बोलियाँ सम्मिलित हो सकती हैं। जैसे- हिन्दी में राजस्थानी, भोजपुरी, बुन्देली, ब्रज आदि ।
    4. बोली- एक भाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ होती हैं। वास्तव में बोली, भाषा का वह रूप होता है जो एक सीमित क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा मौखिक रूप में प्रयोग की जाती है। बोली को भाषा का पूर्ण दर्जा नहीं * दिया जा सकता है। एक भाषा के अन्तर्गत जब कई अलग-अलग रूप विकसित हो जाते हैं तो उन्हें बोली कहा जाता है। जैसे- हिन्दी भाषा में ब्रज, अवधी आदि ।
    5. सांस्कृतिक भाषा – किसी जाति, समाज या राष्ट्र की संस्कृति जिस भाषा में निहित रहती है उसे सांस्कृ तिक भाषा कहते हैं। अपनी संस्कृति से अच्छी प्रकार परिचित होने के लिए सांस्कृतिक भाषा का ज्ञान बहुत आवश्यक हो जाता है।
    6. राष्ट्रभाषा – किसी राष्ट्र के निर्माण, विकास एवं भावात्मक एकता के लिए राष्ट्रभाषा का होना अनिवार्य है। राष्ट्रभाषा, प्राय: वह भाषा होती है जिसका प्रयोग उस राष्ट्र के अधिकतर व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। यह भाषा राजकीय कार्यों एवं सार्वजनिक कार्यों में प्रयुक्त की जाती है। भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। भारत की अधिकांश जनसंख्या हिन्दी भाषा को समझती एवं बोलती है ।
    7. अन्तर्राष्ट्रीय भाषा – जब किसी राष्ट्र की भाषा अन्य राष्ट्रों में भी लोकप्रिय तथा प्रचलित हो जाए एवं उसका प्रयोग दूसरे राष्ट्र अपने विचार एवं भावों के विनिमय के लिए करने लगें तो उस भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कहते हैं। आज संसार में अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जिसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा होने का गौरव प्राप्त है। यदि हम संसार में ज्ञान तथा विज्ञान से परिचित होना चाहते हैं तो हमें अन्तर्राष्ट्रीय भाषा को भी अनिवार्यतः सीखना होगा ।
    8. विदेशी भाषा- वे भाषाएँ जो अन्य देशों की भाषाएँ हैं तथा उस देश की मूल भाषा संस्कृति भाषा तथा मातृभाषा नहीं हैं, विदेशी भाषाएँ कहलाती हैं। हमारे देश के लिए चीनी, जापानी, रूसी, जर्मन आदि भाषाएँ विदेशी भाषाएँ हैं। हमें एक दूसरे के निकट आने तथा संसार के नवीन ज्ञान तथा विज्ञान को समझने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए तभी हम अपना तथा अपने राष्ट्र का विकास कर सकते हैं।

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