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मानव शरीर के प्रमुख तंत्र

मानव शरीर के प्रमुख तंत्र

मानव शरीर के प्रमुख तंत्र

मानव शरीर के प्रमुख तंत्र

◆ शरीर के अंगों को उनकी क्रियाओं का सामूहिक रूप से ध्यान रखते हुए कुछ प्रमुख तंत्रों (Systesms ) में बाँटा गया है, जो निम्नलिखित रूप से हैं –
1. पाचन तंत्र (Digestive System)
◆ पाचन तंत्र में भोजन के पचने की क्रिया होती है। पाचन तंत्र में मुख, ग्रासनली, अमाशय, पक्वाशय, यकृत, ग्रहणी, छोटी आँत, बड़ी आँत इत्यादि होती है।
◆ भोजन के पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया पाँच प्रावस्थाओं में होता है- 1. अन्तर्ग्रहण (Ingestion) 2. पाचन (Digestion) 3. अवशोषण (Absorption) 4. स्वांगीकरण (Assimilation) 5. मल परित्याग (Defecation)
अमाशय (Stomach) में पाचन
◆ अमाशय में भोजन लगभग चार घंटे तक रहता है।
◆ भोजन के अमाशय में पहुँचे पर पाइलोरिक ग्रन्थियों से जठर रस (Gastric Juice) निकलता है। यह हल्का पीला रंग का अम्लीय द्रव होता है, जिसका pH 0.9-15 होता है ।
◆ अमाशय के ऑक्सिन्टिक कोशिकाओं में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) निकलता है, जो भोजन के साथ आये हुए जीवाणुओं को नष्ट कर देता है तथा एन्जाइम की क्रिया को तीव्र कर देता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन के माध्यम को अम्लीय बना देता है, जिससे लार के टायलिन की क्रिया समाप्त हो जाती है।
◆ अमाशय से निकलने वाले जठर रस में एन्जाइम होते हैं- पेप्सिन एवं रेनिन ।
◆ पेप्सिन प्रोटीन को खंडित कर सरल पदार्थों (पेप्टोन्स) में परिवर्तित कर देता है।
◆ रेनिन दूध की धुली हुई प्रोटीन केसीनोजेन (Caseinogen) को ठोस प्रोटीन कैल्शियम पैरा केसीनेट ( Casein) के रूप में बदल देता है।
पक्वाशय (Duodenum) में पाचन
◆ भोजन को पक्वाशय में पहुँचते ही सर्वप्रथम इसमें यकृत (Liver) से निकलने वाले पित्त रस (Bile Duct) आकर मिलता है। पित्त रस क्षारीय होता है और यह भोजन को अम्लीय से क्षारीय बना देता है।
◆ यहाँ अग्न्याशय (Pancreas) से अग्न्याशय रस आकर भोजन में मिलता है, इसमें तीन प्रकार के एन्जाइम होते हैं-
(i) ट्रिप्सिन ( Trypsin ) : यह प्रोटीन एवं पेप्टीन को पॉलीपेप्टाड्स तथा अमीनों अम्ल में परिवर्तित करता है।
(ii) एमाइलेज (Amylase) : यह मांड (Starch) को घुलनशील शर्करा (Sugar) में परिवर्तित करता है।
(iii) लाइपेज (Lipase) : यह इमल्सीफाइड वसाओं को ग्लिसरीन तथा फैटी एसिड्स में परिवर्तित करता है।
छोटी आँत (Small Intestine) में पाचन
◆ पक्वाशय से भोजन छोटी आँत में आता है। छोटी आँत में पचे भोजन का अवशोषण तथा अनपचे भोजन का पाचन होता है।
◆ छोटी आँत की दीवारों से आंतरिक रस निकलता है। आंतरिक रस क्षारीय (pH8) होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 2 लीटर आंतरिक रस स्रावित होता है। इस आंत्रिक रस में निम्न एन्जाइम होते हैं –
(i) माल्टेज (Maltase) : यह शर्करा को ग्लूकोज में बदलता है।
(ii) सुक्रोज (Sucrose) : यह शर्करा को फ्रक्टोज तथा ग्लूकोज में बदलता है।
(iii) लैक्टोज (Lactose) : यह शर्करा को ग्लैक्टोज तथा ग्लूकोज में बदलता है।
(iv) लाइपेज (Lipase) : यह इमल्सीफायड वसाओं को ग्लिसरीन तथा फैटी एसिड्स में परिवर्तित करता है।
(v) इरेप्सिन (Erepsin ) : यह पोटीन के अनपचे भाग एवं पेप्टोन को अमीनों अम्ल में परिवर्तित करता है।
(vi) अवशोषण (Absorption) : पचे हुए भोजन का रुधिर में पहुँचना अवशोषण कहलाता है। पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत की रचना उद्धर्घ (Villi) के द्वारा होती है।
स्वांगीकरण (Assimilation)
पाचन क्रिया में भाग लेने वाले प्रमुख अंग
यकृत (Liver)
◆ यकृत मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है, जो उदर-गुहा (Abdominal Cavity) के ऊपरी भाग में दाहिनी ओर स्थित होता है।
◆ यकृत का वजन 1.5-2kg होता है तथा यह गहरे धूसर रंग का होता है।
◆ यकृत द्वारा ही पित्त स्रावित होता है। यह पित्त आँत में उपस्थित एन्जाइमों की क्रिया को तीव्र कर देता है।
◆ यकृत प्रोटीन उपापचय (Protein Metabolism) में सक्रिय रूप से भाग लेता है और प्रोटीन विघटन के फलस्वरूप उत्पन्न विषैले अमोनिया को यूरिया में परिवर्तित कर देता है।
◆ यकृत प्रोटीन की अधिकतम मात्रा को कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित कर देता है।
◆ कार्बोहाइड्रेट उपापचय के अन्तर्गत यकृत रक्त के ग्लूकोज (Glucose) वाले भाग को ग्लाइकोजिन (Glycogen) में परिवर्तित कर देता है और संचित पोषक तत्त्वों के रूप में यकृत कोशिका (Hepatic Cell) में संचित कर लेता है। रक्त को विभिन्न अवयवों के लिए ग्लूकोज की आवश्यकता होने पर, यकृत संचित ग्लाइकोजिन को खंडित कर ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है।
◆ भोजन में वसा की कमी होने पर यकृत कार्बोहाइड्रेट के कुछ भाग को वसा में परिवर्तित कर देता है।
◆ फाइब्रिनोजेन (Fibrinogen) एवं हिपैरीन (Heparin) नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत द्वारा ही होता है। फाइब्रिनोजेन रक्त के थक्का बनाने में मदद करता है, जबकि हिपैरीन शरीर के अंदर रक्त को जमने से रोकता है।
◆ मृत RBC को यकृत के द्वारा ही नष्ट किया जाता है।
◆ यकृत थोड़ी मात्रा में लोहा (Iron), ताँबा (Copper) और विटामिन को संचित करके रखता है।
◆ यकृत शरीर के ताप को बनाये रखने में मदद करता है।
◆ भोजन में जहर (Poision) देकर मारे गये व्यक्ति की मृत्यु के कारणों की जाँच में यकृत एक महत्त्वपूर्ण सुराग का कार्य करता है।
पित्ताशय (Gall- Bladder)
◆ पित्ताशय नाशपाती के आकर की एक थैली होती है, जो यकृत के नीचे स्थित होती है। पित्त नालिका यकृत से जुड़ी होती है।
◆ यकृत में जो पित्त बनता है वह पित्त-नालिका के माध्यम से पक्वाशय (Duodenum) में आ जाता है।
◆ पित्त का पक्वाशय में गिरना प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action) द्वारा होता है।
◆ पित्त (Bile) पीले-हरे रंग का क्षारीय द्रव (Alkaline Fluid) है, जिसका pH मान 7.7 होता है।
◆ पित्त में जल 85%, पित्त वर्णक (Bile Pigment ) 12%, पित्त लवण 0.7%, कोलेस्ट्राल 0.28%, मध्यम वसाएँ 0.3% तथा लेसीथिन (Lecithin) 0.15% होते हैं।
◆ पित्त लवणों में सोडियम ग्लाइकोलेट तथा सोडियम टॉरोकोलेट नामक कार्बनिक लवण तथा सोडियम क्लोराइड एवं सोडियम बाईकार्बोनेट नामक अकार्बनिक लवण पाये जाते हैं।
◆ मनुष्य में 700 – 1000 मिली लीटर पित्त प्रतिदिन बनता है।
पित्त के कार्य (Functions of Bile)
◆ यह भोजन के माध्यम को क्षारीय (Alkaline) कर देता है ताकि अग्न्याशयी रस क्रिया कर सके।
◆ यह भोजन के साथ आये हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है। यह पित्त वसाओं का इमाल्सीकरण (Emulsification of Fat) करता है।
◆ पित्त आँत की क्रमाकुंचन गतियों को बढ़ाता है जिससे भोजन में पाचक रस भली-भाँति मिल जाते हैं।
◆ पित्त अनेक उत्सर्जी पदार्थों, विषैले पदार्थों तथ धातुओं के उत्सर्जन का कार्य करता है ।
◆ पित्त वसा अवशोषण में भी सहायक होता है।
◆ पित्त विटामिन-K तथा वसाओं में घुले और विटामिनों के अवशोषण में सहायक होता है।
नोट : पित्तवाहिनी में अवरोध आ जाने पर यकृत कोशिकाएँ रुधिर से बिलिरुबिन (Bilirubin) लेना बन्द कर देती हैं। फलस्वरूप बिलिरुबिन सम्पूर्ण शरीर में फैल जाता है। इसे ही पीलिया (Jaundice) कहते हैं ।
अग्न्याशय (Pancreas)
◆ अग्न्याशय शरीर की यकृत के बाद दूसरी सबसे बड़ी ग्रन्थि है।
◆ इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एक साथ अंतःस्रावी (नलिकाहीन – Endocrine) और बहि: स्रावी (नलिकायुक्त – Exocrine) दोनों प्रकार की ग्रन्थि है।
◆ इससे अग्न्याशयी रस (Pancreatic Juice) निकलता है जिसमें 98% जल तथा शेष भाग में लवण तथा एन्जाइम होते हैं। यह क्षारीय द्रव होता है तथा pH मान 7.5-8.3 होता है। अग्न्याशयी रस में तीनों प्रकार के मुख्य भोज्य पदार्थों को पचाने के एन्जाइम होते हैं। इसलिए इसे ‘पूर्ण पाचक रस’ कहते हैं। इसमें मुख्यतः पाँच एन्जाइम- एमाइलेज, ट्रिप्सिन, कार्बोक्सिपेप्टिडेस लाइपेज तथा माल्टेज एवं रेनिन पाये जाते हैं। इसमें एमाइलेज और माल्टेज कार्बोहाइड्रेट को, ट्रिप्सिन प्रोटीन को तथा लाइपेज वसा को पचाता है।
लैंगर हैंस की द्वीपिका (Islets of Langerhans)
◆ यह अग्न्याशय का ही एक भाग है।
◆ इसकी खोज लैंगर हैंस नामक चिकित्साशास्त्री ने की थी। उन्हीं के नाम पर इसका नाम लैंगर हैंस की द्वीपिका पड़ा। यह आमाशय में स्थित ऊतकों का समूह है जो इन्सुलिन (Insulin) और ग्लूकॉन (Glucagon) नामक हार्मोन का आंतरकि स्राव करती है। इसके a- कोशिका (a-Cell) से ग्लूकॉन (Glucagon), B-कोशिका (B-Cell) से इन्सुलिन (Insuline) एवं y – कोशिका (y-Cell) से सोमेटोस्टेटिन (Somatostatin) नामक हार्मोन निकलता है ।
इन्सुलिन (Insuline)
◆ यह अग्न्याशय के एक भाग लैंगर हैंस की द्वीपिका के B-कोशिका (B-Cell) द्वारा स्रावित हार्मोन होता है।
◆ यह हार्मोन रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है।
◆ इसकी खोज वैटिंग एवं वेस्ट ने वर्ष 1921 ई. में की थी ।
◆ इन्सुलिन के अल्प प्रवण से मधुमेह (Diabeteas) नामक रोग होता है । रुधिर में शर्करा की मात्रा बढ़ना मधुमेह कहलाता है। इन्सुलिन के अतिस्रावण से हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) नामक रोग हो जाता है जिसमें जनन क्षमता तथा दृष्टि ज्ञान कम होने लगता है।
◆ ग्लूकॉन (Glucagon), ग्लाइकोजिन (Glycogen) को पुन: ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है।
◆ सोमेटोस्टेटिन (Somatostatin), पॉलीपेप्टाइड (Polypeptide) हार्मोन होता है, जो भोजन के स्वांगीकरण (Assimilation) की अवधि को बढ़ाता है।
पाचन का सारांश
क्र. ग्रन्थि रस एन्जाइम भोज्य पदार्थ प्रतिक्रिया के बाद
1. लार (i)

(ii)

टायलिन

माल्टेस

मॉड (श्वेत सार)

माल्टोस

माल्टोस

ग्लूकोस

2. जठर रस (i)

(ii)

पेप्सिन

रेनिन

प्रोटीन

केसीन

पेप्टोन्स

कैल्शियम पैराकैसीनेट

3. अग्न्याशय रस (i)

(ii)

(iii)

ट्रिप्सिन

एमाइलेज

लाइपेज

प्रोटीन

मांड (Starch)

वसा

पॉलीहेप्टाइड्स

शर्करा

वसा अम्ल एवं ग्लिसरॉल

4. आन्त्रीय रस (i)

(ii)

(iii)

(iv)

(v)

इरेप्सिन

माल्टेस

लैक्टेस

सुक्रेस

लाइपेज

प्रोटीन

माल्टोस

लैक्टोस

सुक्रोस

वसा

अमीनो अम्ल

ग्लूकोज

ग्लूकोज एवं फ्रुक्टोज

ग्लूकोज एवं ग्लैक्टोज

वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल

2. परिसंचरण तंत्र (Circulatory System)
◆ शरीर के विभिन्न अंगों में रक्त विनिमय (Exchange) परिसंचरण तंत्र के द्वारा होता है।
◆ रक्त परिसंचरण की खोज 1628 ई. में विलियम हार्वे ने किया था।
◆ रक्त परिसंचरण तंत्र में हृदय (Heart), रक्तवाहिनी नलियाँ (Blood Vessels), धमनी ( Artery), शिराएँ (Veins), कोशिकाएँ (Capillaries) आदि सम्मिलित हैं।
◆ हृदय (Heart), हृदयावरण (Pericardium) नामक थैली में सुरक्षित रहता है। इसका भार लगभग 400 ग्राम होता है।
◆ मनुष्य का सम्पूर्ण हृदय चार कक्षों (Chamber) में बँटा होता है। दायीं तरफ ऊपर वाला कक्ष दायौँ आलिंद (Right Atrium) तथा निचला कक्ष दायाँ निलय (Right Ventricle) कहलाता है। इसी प्रकार बायीं तरफ नीचे वाला कक्ष बायाँ निलय (Left Ventricle) तथा ऊपर वाला कक्ष बायोँ आलिंद (Left Atrium) कहलाता है।
◆ दायें आलिंद (RightAtrium) तथा दायें निलय (Right Ventricle) के बीच त्रिवलनी कपाट (Tricuspid Value) होता है ।
◆ बायें आलिंद (Left Atrium) तथा बायें निलय (Left Ventricle) के बीच द्विवलनी कपाट (Biscuspid Valve) होता है।
◆ शरीर से हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली रक्तवाहिनी को शिरा ( Vein) कहते हैं।
◆ शिरा में अशुद्ध रक्त अर्थात् कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रक्त होता है। इसका अपवाद है पल्मोनरी शिरा (Pulmonary Vein)।
◆ पल्मोनरी शिरा (Pulmonary Vein) फेफड़ा से रक्त को बाये आलिंद ( Left Atrium) में पहुँचाता है। इसमें शुद्ध रक्त होता है।
◆ हृदय से शरीर की ओर ले जाने वाली रक्तवाहिनी को धमनी (Artery) कहते हैं ।
◆ धमनी (Artery) में शुद्ध रक्त अर्थात् ऑक्सीजन युक्त रक्त होता है। इसका अपवाद है पल्मोनरी धमनी (Pulmonary Artery)।
◆ पल्मोनरी धमनी (Pulmonary Artery) रक्त को दायें निलय (Right Ventricle) से फेफड़ा में पहुँचाता है। इसमें अशुद्ध रक्त होता है ।
◆ हृदय के दायें भाग में अशुद्ध रक्त अर्थात् कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रक्त एवं बायें भाग में शुद्ध रक्त अर्थात् ऑक्सीजन युक्त रक्त रहता है।
◆ हृदय की मांसपेशियों को रक्त पहुँचाने वाली वाहिनी को कोरोनरी धमनी (Coronary Artery) कहते हैं। इसमें किसी प्रकार की रूकावट होने पर हृदयाघात (Heart Attack) होता है।
◆ हृदय के संकुचन (Systole) एवं शिथिलन (Diastole) को सम्मिलित रूप से हृदय का धड़कन/ स्पंदन (Heart Beat) कहते हैं। सामान्य अवस्था में मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72 बार (भ्रूण अवस्था में 150 बार) धड़कता है। हर एक स्पंदन में पहले आलिंदों (Atriums) का संकुचन (Systole) फिर निलयों ( Ventricles) का संकुचन ( Systole) होता है, फिर दोनों का एक साथ शिथिलन (Diastole) होता है।
◆ साइनो ऑरिकुलर नोड (SAN) दायें आलिंद (Right Atrium) की दीवार में स्थित तंत्रिका कोशिकाओं का समूह है, जिससे हृदय धड़कन की तरंग प्रारंभ होती है।
◆ थायरॉक्सिन एवं एड्रीनेलिन स्वतन्त्र रूप से हृदय की धड़कन को नियंत्रित करने वाले हार्मोन हैं।
◆ रुधिर में उपस्थित CO2रुधिर के pH को कम करके हृदय की गति को बढ़ाता है। अर्थात् अम्लीयता हृदय की गति को बढ़ाती हे तथा क्षारीयता हृदय की गति को कम करती है।
◆ नाड़ी (Pulse) शरीर में जीवन का लक्षण बताती है। जब हृदय काम करता है तो नाड़ी भी चलती है तथा हृदय के निष्क्रिय हो जाने पर नाड़ी का चलना बंद हो जाता है, यही मृत्यु का सूचक है।
◆ सामान्य व्यक्ति का रक्तदाब (Blood Pressure ) 120/80 mmhg होता है। (Systolic – 120/ Diastolic-80)।
◆ रक्तदाब स्फिग्मोमेनोमीटर (Sphygmomanometer) नामक यन्त्र से मापा जाता है।
भारतीयों के रक्तदाब के औसत
उम्र वर्ष प्रंकुचन रक्तदाब (मिमी.) अनुशिथिलन
10 99 68
12 100 70
15 106 70
18 111 76
20 117 78
22 119 79
25 120 80
30 122 82
35 124 84
40 127 86
45 130 88
50 133 90
55 138 92
3. उत्सर्जन तंत्र ( Excretory System)
◆ जीवों के शरीर की कोशिकाओं से अपशिष्ट पदार्थों (Waste Products) के निष्कासन की क्रियाविधि, उत्सर्जन (Excretory) कहलाता है। साधारणतः उत्सर्जन का तात्पर्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों, जैसे- यूरिया, अमोनिया, यूरिक अम्ल आदि के निष्कासन से है।
◆ मनुष्य के प्रमुख उत्सर्जी अंग हैं- (i) वृक्क (Kidneys), (ii) त्वचा (Skin), (iii) यकृत (Liver), (iv) फेफड़ा (Lungs)।
(i) वृक्क (Kidney) : मनुष्य एवं अन्य स्तनधारियों में मुख्य उत्सर्जी अंग एक जोड़ा, सेम के बीज के आकार का लगभग 5 इंच लंबा वृक्क है। वृक्क का वजन 140 ग्राम होता है। वृक्क के दो भाग होते हैं, बाहरी भाग को कोर्टेक्स (Cortex) तथा भीतरी भाग को मेडुला (Medulla) कहते हैं। वृक्क की कार्यात्मक इकाई (Functional Unit) नेफ्रॉन (Nephron) या वृक्क नलिकाएँ (Uriniferous Tubules) होती है। प्रत्येक नेफ्रॉन द्विभित्ति (Doublelayer), प्याले के आकार के बोमन-सम्पुट (Bowman’s Capsule) का बना होता है।
◆ बोमन – सम्पुट (Bowman’s Capsule) में पतली रुधिर कोशिकाओं (Capillaries) का केशिकागुच्छ (Glomerulus) पाया जाता है, जो दो प्रकार की धमनिकाओं (Arterioles) से बनता है –
(a) चौड़ी अभिवाही धमनिका (Afferent Arteriole) : यह रुधिर को केशिकागुच्छ में पहुँचती है।
(b) पतली अपवाही धमनिका (Efferent Arteriole) यह रक्त को केशिकागुच्छ से वापस लाती है।
◆ केशिकागुच्छ (Glomerulus) की कोशिकाओं से द्रव से छनकर बोमन सम्पुट की गुहा में पहुँचने की प्रक्रिया को परानिष्यंदन (Ultrafiltration) कहते हैं।
◆ वृक्कों का प्रमुख कार्य रक्त की प्लाज्मा को छानकर शुद्ध बनाना अर्थात् इसमें से अनावश्यक और अनुपयोगी पदार्थों को जल की कुछ मात्रा के साथ मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर निकालना है।
◆ वृक्कों के रुधिर की आपूर्ति अन्य अंगों की तुलना में बहुत अधिक होती है।
◆ वृक्क में प्रति मिनट औसतन 125 मिली अर्थात् दिन भर में 180 लीटर रक्त निष्यंद (Filtrate) होता है। इसमें से 1.45 लीटर मूत्र रोजाना बनता है, बाकी निष्यंद वापस रक्त में अवशोषित हो जाता है।
◆ सामान्य मूत्र में 95% जल, 2% लवण, 2.7% यूरिया एवं 0.3% यूरिक अम्ल होते हैं।
◆ मूत्र का रंग हल्का पीला उसमें उपस्थित वर्णक (Pigment) यूरोक्रोम (Urochrome) के कारण होता है। यूरोक्रोम हीमोग्लोबिन के विखंडन से बनता है।
◆ मूत्र अम्लीय होता है, इसका pH मान 6 होता है।
◆ वृक्क के द्वारा नाइट्रोजनी पदार्थों के अतिरिक्त पेनिसिलिन और कुछ मसालों का भी उत्सर्जन होता है।
◆ वृक्क के बनने वाला पथरी कैल्शियम ऑक्जलेट का बना होता है।
(ii) त्वचा (Skin) : त्वचा एक उत्सर्जी अंग के रूप में कार्य करती है। इसमें पायी जाने वाली तैलीय ग्रन्थियाँ एवं श्वेद ग्रन्थियाँ (Sweat Glands) क्रमश: सीबम एवं पसीने का स्रवण करती है।
(iii) यकृत (Liver) : यकृत कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्ल (Amino Acid) तथा रुधिर की अमोनिया को यूरिया (Urea) में परिवर्तित करके उत्सर्जन में मुख्य भूमिका निभाता है।
(iv) फेफड़े (Lungs) : फेफड़ा दो प्रकार के गैसीय पदार्थ काबर्न डाइऑक्साइड और जलवाष्प का उत्सर्जन करता है। कुछ पदार्थ जैसे- लहसुन, प्याज और कुछ मसाले जिसमें वाष्पशील घटक होते हैं, का उत्सर्जन फेफड़ों के द्वारा ही होता है।
विभिन्न जन्तु एवं उनमें उत्सर्जन
क्र.सं. जन्तु उत्सर्जन
1. एक कोशिकीय जन्तु विसरण के द्वारा
2. पोरीफेरा संघ के जन्तु विशिष्ट नलिकातंत्र द्वारा
3. सीलेन्ट्रेट्स सीधे कोशिकाओं द्वारा
4. चपटे कृमि ज्वाला कोशिकाओं द्वारा
5. एनेलिडा संघ के जन्तु वृक्क (Nephridia) द्वारा
6. आर्थोपोड्स मैल्पीधियन नलिकाओं द्वारा
7. मोलस्का मूत्र अंग द्वारा
8. केशरुकी मुख्यतया वृक्क द्वारा
4. श्वसन तंत्र (Respiratory System)
◆ मनुष्य के श्वसन तंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग फेफड़ा या फुफ्फुस (Lungs) होता है, जहाँ पर गैसों का आदान-प्रदान होता है। इसलिए इसे फुफ्फुसीय श्वसन भी कहते हैं।
◆ श्वास के माध्यम से शरीर के प्रत्येक भाग में ऑक्सीजन पहुँचता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलता है। रक्त श्वसन तंत्र में सहायता करता है।
◆ श्वसन तंत्र के अन्तर्गत वे सभी अंग आते हैं, जिससे होकर वायु का आदान-प्रदान होता है। जैसे- नासामार्ग, ग्रसनी, लैरिंक्स या स्वर यंत्र, ट्रैकिया तथा फेफड़ा आदि ।
नासामार्ग (Nasal Passage) : इसका मुख्य कार्य सूँघने से सम्बन्धित है। यह श्वसन नाल के द्वार का भी कार्य करता है। इसके भीतर की गुहा म्यूकस कला (Mucous Membrane) में स्तरित होती है। यह स्तर लगभग 1/2 लीटर म्यूकस प्रतिदिन स्रावित करती है। यह स्तर धूल-कण, जीवाणु या अन्य सूक्ष्म जीव को शरीर के अंदर प्रवेश करने से रोकती है। यह शरीर में प्रवेश करने वाली वायु को नम एवं शरीर के ताप के बराबर बनाती है।
ग्रसनी (Pharynx) : यह नासा गुहा के ठीक पीछे स्थित होता है।
लैरिंक्स या स्वर यंत्र ( Larynx or Voice Box) : श्वसन मार्ग का वह भाग जो ग्रसनी को ट्रेकिया (Trachea) से जोड़ता है, लैरिंक्स या स्वर यंत्र कहलाता है। इसका मुख्य कार्य ध्वनि उत्पादन है। लैरिंक्स प्रवेश द्वार पर एक पतला, पत्ती समान कपाट होता है जिसे इपिग्लॉटिस (Epiglottis) कहते हैं। जब कुछ भी निगलना होता है तो यह इपिग्लॉटिस द्वारा बंद कर देता है, जिससे भोजन श्वास नली में प्रवेश नहीं कर पाता।
ट्रैकिया (Trachea) : यह वक्ष गुहा ( Thoracic Cavity) में प्रवेश करती है। ट्रैकिया की दोनों प्रमुख शाखाओं को प्राथमिक ब्रोंकियोल कहते हैं। दायीं ब्रोकियोल तीन शाखाओं में बँट कर दायीं ओर के फेफड़े में प्रवेश करती है। बायाँ ब्रोकियोल केवल दो शाखाओं में बँट कर बायें फेफड़े में प्रवेश करती है।
फेफड़ा (Lungs) : वक्ष गुहा में एक जोड़ी फेफड़े होते हैं। इनका रंग लाल होता है और इनकी रचना स्पंज के समान होती है। दायाँ फेफड़ा बायाँ फेफड़ा की तुलना में बड़ा होता है। प्रत्येक फेफड़ा एक झिल्ली द्वारा घिरा रहता है, जिसे प्लूरल मेम्ब्रेन (Pleural Membrane) कहते हैं। फेफड़े में रुधिर कोशिकाओं का जाल बिछा रहता है। यहाँ O2 रुधिर में चली जाती है और CO2 बाहर आ जाती है।
◆ श्वसन की पूरी प्रक्रिया को चार भागों में बाँटा जा सकता है- 1. बाह्य श्वसन (External Respiration) 2. गैसों का परिवहन (Transportation of Gases) 3. आंतरिक श्वसन (Internal Respiration) 4. कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration)।
1. बाह्य श्वसन (External Respiration ) : स्तनधारियों में बाह्य श्वसन दो निम्न रूपों में होता है –
(a) श्वासोच्छ्वास (Breathing) : फेफड़ों में निश्चित दर से वायु भरी तथा निकाली जाती है, जिसे साँस लेना अथवा श्वासोच्छ्वास कहते हैं। श्वास लेने की प्रक्रिया दो चरणों में पूरी होती है
(i) निश्वसन ( Inspiration ) : इस अवस्था में वायु वातावरण से वायु पथ द्वारा फेफड़े में प्रवेश करती है। फलतः वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है एवं फेफड़ों में एक निम्न दाब का निर्माण हो जाता है। यह हवा तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक कि वायु का दाब शरीर के भीतर एवं बाहर बराबर न हो जाये ।
(ii) निःश्वसन / उच्छ्रश्वसन (Expiration) : इसमें श्वसन के पश्चात् वायु उसी वायु पथ के द्वारा फेफड़े से बाहर निकलकर वातावरण में पुनः लौट जाती है, जिस पथ से वह फेफड़े में प्रवेश करती है।
श्वासोच्छ्वास में वायु का संगठन
श्वास लेने की प्रक्रिया नाइट्रोजन ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड
अंदर ली गयी वायु ( Inspired Air ) 79% 21% 0.03%
बाहर निकाली गयी वायु (Expired Air) 79% 17% 4%
(b) गैसों का विनिमय (Exchange of Gases): गैसों का विनिमय, फेफड़े (Lungs) के अंदर होता है। यह गैसीय विनिमय घुली अवस्था में या विसरण प्रवणता (Diffusion Gradient) के आधार पर साधारण विसरण (Simple Diffusion) द्वारा होती है। फेफड़े में ऑक्सीजन (O2) तथा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) गैसों का विनिमय उनके दाबों के अंतर के कारण होता है। अतः इन दोनों गैसों (O2 एवं CO2 ) की विसरण (Diffusion) की दिशा, एक-दूसरे के विपरीत होती है।
2. गैसों का परिवहन (Transportation of Gases) : गैसों का (CO2 एवं O2) फेफड़े से शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचना तथा पुनः फेफड़े तक वापस आने की क्रिया को गैसों का परिवहन कहते हैं। इस प्रकार इन दोनों गैसों का परिवहन एक निश्चित क्रम में होता है।
◆ ऑक्सीजन का परिवहन मुख्यतः रुधिर में पाये जाने वाले लाल वर्णक (Pigment) हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) के द्वारा होता है। हीमोग्लोबिन रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) के अंदर उपस्थित रहता है। इसकी अनुपस्थिति में श्वसन क्रिया असंभव है।
◆ कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कोशिकाओं से फेफड़े तक हीमोग्लोबिन के द्वारा केवल 10 से 20% तक ही हो पाता है। अतः कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन रक्त परिसंचरण के द्वारा अन्य प्रकारों से भी होता है, जो निम्न है –
(i) प्लाज्मा में घुलकर (Dissolved in Plasma ) : CO2 प्लाज्मा में घुलकर कार्बोनिक अम्ल (Carbonic Acid) बनाती है। कार्बोनिक अम्ल के रूप में CO2 का लगभग 7% परिवहन होता है।
(ii) बाईकार्बोनेट्स के रूप में (As Bicarbonates) : बाईकार्बोनेट्स के रूप में CO2 की अधिकांश मात्रा ( लगभग 70% ) का परिवहन होता है। यह रुधिर के पोटैशियम तथा प्लाज्मा के सोडियम के साथ मिलकर क्रमश: पोटैशियम बाईकार्बोनेट्स (KHCO3) एवं सोडियम बाईकार्बोनेट्स (NaHCO3) का निर्माण कराती है।
(iii) कार्बोमिनों यौगिकों के रूप में (As Carbomino Compounds) : कार्बन डाइऑक्साइड, हीमोग्लोबिन के अमीनों (NH2) समूह से संयोजन के फलस्वरूप कार्बोऑक्सीहीमोग्लोबिन (Carboxy Haemoglobin) के रूप में तथा प्लाज्मा-प्रोटीन से संयोग कर कार्बोमीनोहीमोग्लोबिन (Carbomino-Haemoglobin) बनाती है। इस प्रकार यह लगभग 23% कार्बन डाइऑक्साइड ले जाती है।
3. आंतरिक श्वसन ( Internal Respiration ) : शरीर के अंदर रुधिर एवं ऊतक द्रव्य (Tissue – Fluid) के बीच गैसीय विनिमय होता है, उसे आंतरिक श्वसन कहते हैं ।
नोट: फेफड़े में होने वाले गैसीय विनिमय को बाह्य श्वसन (External Respiration) कहते हैं, जबकि ऊतक द्रव्य या कोशिका द्रव्य में होने वाले गैसीय विनिमय को आंतरिक श्वसन (Internal Repiration) कहते हैं।
◆ आंतरिक श्वसन में निम्न क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं –
(i) ऑक्सीहीमोग्लोबिन का विघटन (Dissociation of Oxyhaemoglogin): रक्त परिसंचरण के फलस्वरूप ऑक्सीहीमोग्लोबिन कोशिकाओं में पहुँचता है, जहाँ पर ऑक्सीजन का दाब रुधिर के दाब से कम होता है। अत: ऑक्सी हीमोग्लोबिन का ऑक्सीजन में विघटन हो जाता है। इस प्रकार मुक्त हुई ऑक्सीजन ऊतक द्रव्य तथा कोशिकाओं में पहुँच जाती है। इस प्रकार से लगभग 25% ऑक्सीजन ऊतकों में पहुँच जाती है।
(ii) खाद्या पदार्थों का ऑक्सीकरण (Oxidation of Food Stuff) : कोशिका द्रव्य में ऑक्सीजन की उपस्थिति में ऑक्सीकरण या जारण होता है, जिससे ऊर्जा मुक्त होती है। इस तरह प्राप्त ऊर्जा शरीर की विभिन्न क्रियाओं में प्रयोग की जाती है।
4. कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration ) : भोज्य पदार्थों के पाचन के फलस्वरूप प्राप्त ग्लूकोज का कोशिका में ऑक्सीजन द्वारा ऑक्सीकरण (Oxidation) या जारण (Combustion) किया जाता है। इस क्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं। यह एक रासायनिक क्रिया है जिसके फलस्वरूप ऊर्जा मुक्त होती है। कोशिकीय श्वसन दो प्रकार के होते हैं- (i) अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic Respiration) (ii) ऑक्सी श्वसन (Aerobic – Respiration ) ।
(i) अनॉक्सी श्वसन ( Anaerobic Respiration ) : जो श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, उसे अनॉक्सी श्वसन कहते हैं। इसमें ग्लूकोज बिना ऑक्सीजन के मांसपेशियों में लैक्टिक अम्ल (Lactic Acid) और बैक्टीरिया एवं यीस्ट की कोशिकाओं में इथाइल अल्कोहल में विघटित हो जाता है। इसे शर्करा किण्वन (Sugar Fermentation) भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत होने वाले पूरे प्रक्रम को ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) कहते हैं।
◆ अनॉक्सी श्वसन के अंत में पाइरूविक अम्ल (Pyruvic Acid) बनता है।
◆ अनॉक्सी श्वसन प्रायः जीवों में गहराई पर स्थित ऊतकों में अंकुरित होते बीजों में एवं फलों में थोड़े समय के लिए होता है। परन्तु यीस्ट एवं जीवाणु में यह प्रायः पाया जाता है।
(ii) ऑक्सी श्वसन (Aerobic Respiration) : यह ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती है। इसमें श्वसनी पदार्थ का पूरा ऑक्सीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप CO2 एवं H2O बनते हैं तथा काफी मात्रा में ऊर्जा विमुक्त होती है। इसे निम्नलिखित सूत्र से व्यक्त किया जा सकता है
C6H1206+602→6CO2 +6H2O+2830KJ ऊर्जा
◆ कोशिकीय श्वसन में होने वाली जटिल प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा गया है(a) ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) (b) क्रेब्स चक्र (Kreb’s Cycle)।
(a) ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis)
◆ इसका सर्वप्रथम अध्ययन एम्बडेन मेयरहाफ, पारसन (Embden-Meyerhof Parson) ने किया था। इसलिए इसे EMP पथ भी कहते हैं।
◆ इसको अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic Respiration) या शर्करा किण्वन (Sugar Fermentation) भी कहा जाता है।
◆ इसमें ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ऊर्जा मुक्त होती है।
◆ यह अवस्था ऑक्सी (Aerobic) एवं अनॉक्सी (Anaerobic) दोनों प्रकार के श्वसन में उपस्थित रहती है।
◆ एक ग्लूकोज अणु के ग्लाइकोलिसिस में विघटन के फलस्वरूप पाइरूविक अम्ल (Pyruvic Acid) के दो अणु बनते हैं।
◆ इस अभिक्रिया को आरंभ करने के लिए 2 अणु ATP (Adinosin Triphosphate) व्यय होते हैं किन्तु प्रक्रिया के अंत में 4 अणु ATP के प्राप्त होते हैं। अतः ग्लाइकोलिसिस के फलस्वरूप 2 अणु ATP का शुद्ध लाभ होता है अर्थात् 16000 कैलोरी ( 2X8000) ऊर्जा प्राप्त होती है।
◆ इस अभिक्रिया में हाइड्रोजन के 4 परमाणु बनते हैं जो NAD को 2NADH2 में बदलने में काम आते हैं।
◆ इस अभिक्रिया में ऑक्सीजन का कहीं भी प्रयोग नहीं किया जाता, अतः यह अनॉक्सी (Anaerobic) अवस्था में होती है।
(b) क्रेब्स चक्र (Kreb’s Cycle)
◆ इसका वर्णन हैन्स क्रेब (Hans A Krebs) ने 1937 ई. में किया था, इसलिए इसे क्रेब्स चक्र कहते हैं।
◆ इसे साइट्रिक अम्ल चक्र (Citric Acid Cycle) या ट्राइकार्बोक्सेलिक चक्र (Tricarboxylic Cycle) भी कहते हैं।
◆ यह पूरा चक्र माइटोकॉन्ड्रिया के अंदर विशेष एन्जाइम की उपस्थिति में ही सम्पन्न होता है।
◆ ADP के 2 अणु ATP के 2 अणु में बदलते हैं ।
◆ इस चक्र में हाइड्रोजन के 2-2 परमाणु 5 बार मुक्त होते हैं।
◆ पूरे चक्र में दो अणु पाइरूलिक अम्ल (Pyruvic Acid) के होते हैं। अतः कुल 6 अणु कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बनते हैं।
◆ हमारे तंत्र में अधिकतम ATP अणुओं का निर्माण क्रेब्स चक्र के दौरान होता है।
श्वसन क्रिया से सम्बन्धित अन्य बातें
◆ कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीन प्रमुख श्वसनी पदार्थ हैं। सबसे पहले कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का भंडार समाप्त होने के बाद ही प्रोटीन का श्वसन होता है।
◆ श्वसन एक अपचयी क्रिया (Catabolic Process ) है। इससे शरीर के भार में भी कमी होती है।
5. तंत्रिका तंत्र (Nervous System )
◆ तंत्रिका तंत्र शरीर में दूरसंचार की भाँति काम करता है। सारे शरीर में महीन धागे के समान तंत्रिकाएँ फैली होती हैं जो वातावरणीय परिवर्तनों की सूचनाओं को संवेदी अंगों से प्राप्त करके विद्युत आवेगों (Electrical Impulses) के रूप में इनका प्रसारण करती हैं साथ ही शरीर के विभिन्न भागों के बीच कार्यात्मक समन्वय स्थापित करती है।
◆ तंत्रिका तंत्र की क्रिया की प्रकृति प्रतिवर्त / प्रतिक्षेप (Reflex) प्रकार की होती है।
◆ मनुष्य के तंत्रिका तंत्र को तीन भागों में बाँटा गया है –
1. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र ( Central Nervous Systeem)
2. परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral Nervous System)
3. स्वायत या स्वाधीन तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System)
1. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System)
◆ तंत्रिका तंत्र का वह भाग जो सम्पूर्ण शरीर तथा स्वयं तंत्रिका तंत्र पर नियंत्रण रखता है, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र कहलाता है। मनुष्य का केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र दो भागों से मिलकर बना होता है –
(i) मस्तिष्क (Brain) और (ii) मेरुरज्जु (Spinal Cord)।
(i) मस्तिष्क (Brain) : इसके तीन भाग होते हैं-
(a) प्रमस्तिष्क या सेरिब्रम (Cerebrum)
(b) अनुमस्तिष्क या सेरिबेलम (Cerebellum) और
(c) अंतस्था या मेड्युला (Medulla)।
(a) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) : मस्तिष्क के अगले भाग को प्रमस्तिष्क कहा जाता है। इसका आकार सबसे बड़ा तथा झुर्रियों (Wrinkles) और कुंडलियों (Convolution) से भरा होता है। इसका बाहरी भाग धूसर (Gray) और भीतरी भाग श्वेत पदार्थों का बना होता है। यह सभी संवेदनाओं, ऐच्छिक क्रियाओं और बुद्धि – विवेक आदि का नियंत्रण करता है।
(b) अनुमस्तिष्क (Cerebellum) : प्रमस्तिष्क के पिछले भाग को अनुमस्तिष्क कहा जाता है। उसमें प्रमस्तिष्क की अपेक्षा कम झुर्रियाँ रहती है तथा धूसर पदार्थ की मात्रा भी कम रहती है। यह मांसपेशी तंत्र और शरीर के संतुलन का भी नियंत्रण करता है। यह ऐसी क्रियाओं का भी नियंत्रण करता है जो आगे चलकर आदत का रूप ले लेती है।
(c) अंतस्था (Medulla): मेरुरज्जु के सिरे पर एक छोटी-सी गाँठ जैसा अवयव है, जिसे अंतस्था कहते हैं। यह अनैच्छिक (Involuntary) और स्वचालित (Automatic) क्रियाओं को नियंत्रित करता है। इसका सम्बन्ध फुफ्फुस, हृदय, पाचन-तंत्र, रक्त प्रणाली आदि कार्यों से होता है।
(ii) मेरुरज्जु (Spinal Cord) : अंतस्था (Medulla) का पिछला भाग ही मेरुरज्जु बनता है। इसका मुख्य कार्य निम्नलिखित है –
(a) प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reffex Action) का नियंत्रण एवं समन्वय करना अर्थात् यह प्रतिवर्ती क्रिया के केन्द्र का कार्य करता है।
(b) मस्तिष्क से आने-जाने वाले उद्दीपनों का संवहन करना ।
नोट : मार्शल हाल नामक वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex Actions) का पता लगाया था।
2. परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral Nervous System)
◆ परिधीय तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु से निकलने वाली तंत्रिकाओं का बना होता है। इन्हें क्रमशः कपाल (Cranial) एवं मेरुरज्जु (Spinal Cord) तंत्रिकाएँ कहते हैं। मनुष्य में 12 जोड़ी कपाल तंत्रिकाएँ और 31 जोड़ी मेरुरज्जु तंत्रिकाएँ पायी जाती हैं।
◆ तंत्रिका ऊतक की इकाई को न्यूरॉन (Neuron) या तंत्रिका कोशिका (Nerve Cell) कहते हैं। न्यूरॉन दो भागों से मिलकर बना होता है। पहला साइटॉन (Cyton) जो गोल व अंडाकार तथा केन्द्रक सहित होता है। दूसरा एक्सॉन (Axon) जो लंबाई में काफी बड़ा होता है। एक्सॉन भरा द्रव एक्सोप्लाज्म (Axoplasm) कहलाता है।
3. स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System)
◆ स्वायत्त तंत्रिका तंत्र कुछ मस्तिष्क एवं कुछ मेरुरज्जु तंत्रिकाओं का बना होता है। यह शरीर के सभी आंतरिक अंगों व रक्त वाहिनियों को तंत्रिकाओं की आपूर्ति करता है। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की अवधारणा को सर्वप्रथम लैंगली ने 1921 ई. में प्रस्तुत किया। स्वायत्त तंत्र के दो भाग होते हैं- (i) अनुकंपी तंत्रिका तंत्र (Symphathetic Nervous System) (ii) परानुकंपी तंत्रिका तंत्र (Parasymphathetic Nervous System ) ।
अनुकंपी तंत्रिका तंत्र के कार्य
(a) यह त्वचा में उपस्थित रुधिर वाहिनियों को संकीर्ण करता है।
(b) इसकी क्रिया से बाल खड़े हो जाते हैं।
(c) यह लार ग्रन्थियों के स्राव को कम करता है।
(d) यह हृदय स्पंदन को तेज करता है।
(e) यह श्वेद ग्रन्थियों (Sweat Glands) के स्राव को प्रारंभ करता है।
(f) यह आँख की पुतली को फैलाता है।
(g) यह मूत्राशय की पेशियों का विमोचन करता है।
(h) यह आँत्र में क्रमाकुंचन गति को कम करता है।
(i) इसके द्वारा श्वसन दर तीव्र हो जाती है।
(j) यह रक्त दाब को बढ़ाता है।
(k) यह रक्त में शर्करा के स्तर को बढ़ाता है।
(l) यह रक्त में लाल रुधिर कणिकाओं (RBC) की संख्या में वृद्धि करता है।
(m) यह रक्त के थक्का (Clotting) बनाने में मदद करता है।
(n) इसके सामूहिक प्रभाव से भय, पीड़ा तथा क्रोध पर प्रभाव पड़ता है।
परानुकंपी तंत्रिका तंत्र के कार्य
(a) यह रुधिर – वाहिनियों की गुहा को चौड़ा करता है, किन्तु कोरोनरी रुधिर वाहिनियों (Coronary Artery) को छोड़कर।
(b) यह लार के स्राव में तथा अन्य पाचक रसों में वृद्धि करता है।
(c) यह नेत्र की पुतली का संकुचन करता है।
(d) यह मूत्राशय की अन्य पेशियों में संकुचन उत्पन्न करता है।
(e) यह आंत्रीय भित्ति में संकुचन एवं गति उत्पन्न करता है ।
(f) इस तंत्रिका तंत्र का प्रभाव सामूहिक रूप से आराम और सूख की स्थितियाँ उत्पन्न करना है।
6. विशिष्ट ज्ञानेन्द्रिय तंत्र ( Special Sense Organs System)
◆ जिन अंगों से हमें पर्यावरण एवं बाहरी परिवेश का ज्ञान होता है। वे विशिष्ट ज्ञानेन्द्रियाँ कहलाती · हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों का सम्बन्ध मस्तिष्क से बना रहता है। विशिष्ट ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं- (i) नेत्र (ii) कर्ण (iii) त्वचा (iv) नासिका (v) जिह्वा ।
(i) नेत्र (Eyes) : पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में नेत्र का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। नेत्र गोलाकार होता है तथा इसका व्यास लगभग एक इंच होता है। नेत्र के प्रमुख अंग अक्षिगोलक (Eyeball), दृष्टि तंत्रिका (Optic Nerve) और मस्तिष्क में स्थित दृष्टि केन्द्र (Visual Centres) तथा कुछ और उपांग भी होते हैं। नेत्र के सहायक अंगों में भौं (Eye Brow), पलकें (Eye Lids), नेत्र श्लेष्मला (Conjuctiva), अश्रु उपकरण (Lacrimal Apparatus) तथा पेशियाँ होती हैं।
नोट : अश्रु का स्राव अश्रुवाहिनी (Lactrimal Duct) से होता है। अश्रु कुछ क्षारीय, सोडियम क्लोराइड (NaCl) युक्त जलीय द्रव है। अश्रु में लाइसोजाइम भी होता है।
(ii) कर्ण (Ears) : कर्ण से ध्वनि का बोध होता है। कर्ण के तीन भाग होते हैं- बाह्य कर्ण, मध्य कर्ण तथा अंत: कर्ण | बाह्य कर्ण ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके आगे बढ़ाते हैं। डॉक्टर कर्णदर्शक यंत्र जिसे ऑरोस्कोप (Auroscope) कहते हैं से बाह्य में स्थित कर्ण पटल (Tympanic Membrane) देखते हैं। मध्य कर्ण कपाल के अंदर होता है। अंतः कर्ण ध्वनिग्राही अंग में स्थित होता है।
नोट : वृद्धावस्था में मध्य कर्ण की अस्थियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं जिससे व्यक्ति को ऊँचा सुनायी देता है।
(iii) त्वचा (Skin) : त्वचा के द्वारा स्पर्श, ताप, पीड़ा, शीत, दबाव, भारी, हल्का, चिकना, खुरदरा आदि का बोध होता है। त्वचा के विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं के लिए विशिष्ट प्रकार के संग्राहक अंग होते हैं। दाब के लिए विशिष्ट प्रकार के संग्राहक अंग होते हैं । दाब के लिए पेसिनी कणिका (Pacinian Corpuscies), स्पर्श के स्पर्श कणिका (Tactile Corpuscies), शीत के लिए क्रौजन्कन्द (Krausebulb ), ताप के लिए गोल्गी मेजोनी तथा रफीनी (Golgi-Mazzoni and Ruffini) आदि कुछ विशिष्ट संग्राहक अंग हैं।
(iv) नासिका (Nose) : इसके द्वारा कोई भी गंधयुक्त पदार्थ जो गैस के रूप में हमारी नासिका में पहुँचकर स्थानीय स्राव में घुल जाता है और घ्राण क्षेत्र की कोशिकाओं (Olfactory Cells) को उद्दीप्त करता है जिससे हमें उसकी गंध का अनुभव होता है। –
(v) जिह्वा ( Tongue) : स्वाद का बोध हमें स्वाद संवेदनाओं के माध्यम से होता है। स्वाद मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं- मीठा, नमकीन, कड़वा तथा खट्टा। जिह्वा पर नन्हें उभार होते हैं जिन्हें जिह्वांकुर (Papillate) कहते हैं। इन्हीं के द्वारा स्वाद की अनुभूति होती है। हमारे शरीर में लगभग 10000 स्वाद कलिकाएँ होती हैं ।
7. कंकाल – तंत्र (Skeleton System)
◆ मानव शरीर छोटी-बड़ी कुल 206 अस्थियों से मिलकर बना हुआ है। अस्थियों से बने ढाँचे को कंकाल-तंत्र कहते हैं। अस्थियाँ आपस में संधियों के द्वारा जुड़ी रहती हैं। सिर की हड्डी को कपाल गुहा कहते हैं। इन अस्थियों में 50% जल तथा 50% ठोस पदार्थ होता है। ठोस पदार्थ में 33% अकार्बनिक पदार्थ तथा 67% कार्बनिक पदार्थ पाये जाते हैं।
◆ मनुष्य का कंकाल तंत्र दो भागों में बना होता है –
(i) अक्षीय कंकाल (Axial Skeleton) ।
(ii) उपांगीय कंकाल (Appendicular Skeleton)।
(i) अक्षीय कंकाल (Axial Skeleton) : शरीर का मुख्य अक्ष बनाने वाले कंकाल को अक्षीय कंकाल कहते हैं। इसके अन्तर्गत खोपड़ी, कशेरुकदण्ड तथा छाती की अस्थियाँ आती हैं –
(a) खोपड़ी (Skull) : मनुष्य के सिर (Head) के अंतःकंकाल के भाग को खोपड़ी कहते हैं। इसमें 29 अस्थियाँ होती हैं। इनमें 8 अस्थियाँ संयुक्त रूप से मनुष्य के मस्तिष्क को सुरक्षित रखती हैं। इन अस्थियों से बनी रचना को कपाल (Cranium) कहते हैं। कपालों की सभी अस्थियाँ सियनों / टाँकों (Sutures) के द्वारा दृढ़ता से जुड़ी रहती हैं। इनके अतिरिक्त 14 अस्थियाँ चेहरे को बनाती हैं। 6 अस्थियाँ कान को। हॉयड नामक एक और अस्थि खोपड़ी में होती है।
(b) कशेरुक दण्ड (Vertebral Column) : कशेरुक दण्ड हमारे शरीर के कंकाल का मुख्य आधार है, जो मध्य में स्थित होता है। यह सिर को सहारा देता है। इसमें छोटी-छोटी 33 हड्डियाँ होती हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से कशेरुक कहते हैं।
कशेरुक दण्ड के मुख्य कार्य
◆ यह सिर को साधे रहता है।
◆ यह गर्दन तथा धड़ को आधार प्रदान करता है।
◆ यह मनुष्य को खड़े होकर चलने खड़े होने आदि में मदद करता है।
◆ यह गर्दन तथा धड़ को लचक प्रदान करते हैं, जिससे मनुष्य किसी भी दिशा में अपनी गर्दन और धड़ को मोड़ने में सफल होता है।
◆ यह मेरुरज्जु (Spinal Cord) को सुरक्षा प्रदान करता है।
(ii) उपांगीय कंकाल (Appendicular Skeleton) : इसके अन्तर्गत निम्नलिखित भाग आते हैं –
(a) पाव अस्थियाँ: दोनों हाथ और पैर मिलाकर 118 अस्थियाँ होती हैं।
(b) मेखलाएँ : मनुष्य के अग्रपाद तथा पश्चपाद को अक्षीय कंकाल पर साधने के लिए दो चाप पाये जाते हैं, जिन्हें मेखलाएँ (Girdles) कहते हैं ।
◆ अग्रपाद की मेखला को अंश मेखला ( Shoulder Girdle) तथा पश्च पाद की मेखला को श्रेणी मेखला (Pelvic Girdle) कहते हैं।
◆ अंश मेखला से अग्रपाद की अस्थि ह्यूमरस (Humerus) एवं श्रेणी मेखला से पश्च पाद की हड्डी फीमर (Femur) जुड़ी होती है।
कंकाल तंत्र के मुख्य कार्य
◆ शरीर को निश्चित आकार प्रदान करना ।
◆ शरीर के कोमल अंगों की सुरक्षा प्रदान करना ।
◆ पेशियों को जुड़ने का आधार प्रदान करना ।
◆ श्वसन एवं पोषण में सहायता प्रदान करना ।
◆ लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण करना ।
कंकाल तंत्र से सम्बन्धित अन्य बातें
◆ मनुष्य के शरीर में कुल हड्डियों की संख्या-206
◆ बाल्यावस्था में कुल हड्डियों की संख्या – 208
◆ सिर की कुल हड्डियों की संख्या – 29
◆ रीढ़ की कुल हड्डियों की संख्या ( प्रारंभिक काल में ) – 33
◆ रीढ़ की कुल हड्डियों की संख्या (विकसित होने पर ) – 26
◆ पसलियों की कुल हड्डियों की संख्या – 24
◆ शरीर की सबसे बड़ी हड्डी- फीमर (Femur), जाँघ की हड्डी ।
◆ शरीर की सबसे छोटी हड्डी स्टेप्स (Steps), कान की हड्डी ।
◆ मांसपेशी एवं अस्थि के जोड़ को टेण्डन (Tendon) कहते हैं ।
◆ अस्थि से अस्थि के जोड़ को लिगामेंटस (Ligaments) कहते हैं।
कुछ विशेष स्थानों की अस्थियों के नाम एवं संख्या
क्र. स्थान अस्थियों के नाम संख्या
1. कान मैलियस 2
अस्थियाँ इन्कस 2
स्टैप्स 2
2. ऊपरी बाहु ह्यूमरस
3. अग्रबाहु रेडियोअलना
कलाई कार्पल्स
5. हथेली मेटाकार्पल्स
6. अंगुलियाँ फैलेन्जेज
7. जाँघ फीमर
8. पिंडली टिबियो फिबुला
9. घुटना पटेला
10. टखना टार्सल
11. तलवा मेटाटार्सल्स
8. लसीका तंत्र (Lymphatic System)
◆ रक्त और ऊतकों (Tissues) के बीच पोषक तत्त्वों, ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य अपशिष्ट पदार्थों (Waste Products) का आदान-प्रदान निरंतर चलता रहता है। लसीका का निर्माण इसी क्रिया (Metabolic Interchange) के क्रम में होता है।
◆ लसीका एक प्रकार का पीला द्रव्य है, जिसकी रचना लगभग रक्त प्लाज्मा जैसी ही होती है, जिसमें पौष्टिक पदार्थ ऑक्सीजन तथा कई अन्य पदार्थ मौजूद रहते हैं।
◆ लसीका में पायी जाने वाली कणिकाएँ लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) कहलाती हैं। ये वास्तव में श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBC) होती हैं।
◆ लसीका ऊतक से हृदय की ओर केवल एक ही दिशा में बहता है ।
लसीका के मुख्य कार्य
◆ लसीका में उपस्थित लिम्फोसाइट्स हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण करके रोगों की रोकथाम में सहायक होता है।
◆ लसीका, लिम्फोसाइट्स का निर्माण करती है।
◆ लसीका के नोड, जिन्हें लिम्फनोड कहते हैं, मनुष्य के शरीर में छन्ने का कार्य करते हैं। धूल के कण, जीवाणु कैंसर कोशिकाएँ इत्यादि लिम्फनोड में फँस जाते हैं।
◆ लसीका घाव भरने में सहायता करती है।
◆ लसीका ऊतकों से शिराओं में विभिन्न जन्तुओं का परिसंचरण करती है।
9. त्वचीय तंत्र (Cutaneous System)
◆ शरीर की रक्षा करने के लिए त्वचा से ढका सम्पूर्ण शरीर त्वचीय तंत्र कहलाता है। त्वचा का बाहरी भाग स्तरित उपकला (Stratified Epithelium) के कड़े स्तरों से बना रहता है। बाह्य संवेदनाओं का अनुभव करने के लिए तंत्रिका के स्पर्शकण (Tactile-buds) होते हैं।
10. पेशी तंत्र (Muscular System)
◆ पेशियाँ त्वचा के नीचे का मांस होती हैं। सम्पूर्ण शरीर में 500 से अधिक पेशियाँ हैं। पेशियाँ प्रेरक उपकरण (Motor Apparatus) का सक्रिय भाग हैं। इनके संकुचन के फलस्वरूप विभिन्न गतिविधियाँ होती हैं। कार्य के आधार पर पेशियाँ को दो वर्गों में बाँटा गया है
(i) ऐच्छिक पेशियाँ (Voluntary Muscles) : ये रेखित पेशी ऊतक (Striated Muscles Tissue) से बनी होती है तथा मनुष्य के इच्छानुसार संकुचित हो जाती हैं। इस वर्ग में सिर, धड़, अग्रांगों (Extremities) की पेशियाँ अर्थात् कंकाल पेशियाँ (Skeleton Muscle) और शरीर के कुछ आंतरिक अंगों, जैसे- जीभ, स्वर यंत्र आदि की पेशियाँ आती हैं।
(ii) अनैच्छिक पेशियाँ (Involuntary Muscles) : ये पेशियाँ कोमल और आरेखित (NonStriated) पेशी ऊतक की बनी होती हैं। ये आंतरिक अंगों, रुधिर वाहिकाओं तथा त्वचा की दीवारों में पायी जाती है। इन पेशियों का संकुचन मनुष्य की इच्छा द्वारा नियंत्रित नहीं होता है।
पेशियों के मुख्य गुण
◆ पेशी ऊतकों में अन्य ऊतकों की भाँति उत्तेजनशीलता अर्थात् उद्दीपन के प्रत्युत्तर में कार्य करने का गुण होता है।
◆ पेशी ऊतक की प्रमुख विशेषता इसकी संकुचन क्षमता है, जो इसे अन्य पेशियों से अलग करती है। पेशी संकुचित अवस्था में छोटी और मोटी हो जाती है। यह अपना कार्य संकुचन की अवस्था में ही करती है ।
◆ केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र प्रेरक तंत्रिकाओं के माध्यम से पेशियों को कार्य करने का आदेश, तंत्रिका – आवेग (Nerve Impulses) के रूप में देता है, जिसके फलस्वरूप पेशियाँ सक्रिय हो जाती हैं और अपना कार्य करने लगती हैं।
◆ रेखित पेशियों (Striated Muscles) का संकुचन ऐच्छिक क्रियाओं द्वारा और आरेखित पेशियों (Non-striated Muscles) का नियंत्रण अनैच्छिक क्रियाओं द्वारा होता है।
◆ पेशियों में एक निश्चित सीमा तक फैलाव होता है। पेशियों में जिस कारण से प्रसार होता है, उसके समाप्त होते ही, पेशियाँ पूर्व अवस्था में आ जाती हैं। इसे लोचकता का गुण कहा जाता है।
11. अंतःस्रावी तंत्र (Endocrine System)
◆ शरीर के विभिन्न भागों में उपस्थित नलिका विहीन ( Ductless ) ग्रन्थियों को अंतःस्रावी तंत्र कहते हैं। इनमें हार्मोन बनता है और शरीर की सभी रासायनिक क्रियाओं का नियंत्रण इन्हीं हार्मोनों द्वारा होता है। जैसे- पीयूष ग्रन्थि, अवटु ग्रन्थि, पराअवटु ग्रन्थि, थाइमस ग्रन्थि आदि ।
1. पीयूष ग्रन्थि (Pituitory Gland)
◆ यह कपाल (Skull) की स्फेनॉयड (Sphenoid) हड्डी में सेलाटर्सिका (Sellaturcica) नामक गड्ढे में उपस्थित रहती है ।
◆ इसका वजन लगभग 0.6 ग्राम होता है, लेकिन स्त्रियों में गर्भावस्था में यह कुछ बड़ी हो जाती है।
◆ पीयूष ग्रन्थि को मास्टर ग्रन्थि कहा जाता है, क्योंकि यह अन्य अंतःस्रावी ग्रन्थियों के प्रावण का नियंत्रण करती है। यह व्यक्ति के स्वभाव, स्वास्थ्य, वृद्धि एवं लैंगिक विकास को भी प्रेरित करती है। इसलिए पीयूष ग्रन्थि को मास्टर ग्रन्थि (Master Gland) कहा जाता है।
पीयूष ग्रन्थि से स्रावित हार्मोन एवं उनके कार्य
(i) STH हार्मोन (Somatotrophic Hormone) : इस हार्मोन को वृद्धि हार्मोन (Growth Hormone-GH) भी कहा जाता है। यह हार्मोन शरीर की वृद्धि, विशेषता हड्डियों की वृद्धि को नियंत्रित करती है। STH की अधिकता से भीमकायत्व / महाकायता (Gigantism) तथा एक्रोमिगेली (Acromegaly) नामक विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मनुष्य की लंबाई सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है । STH की कमी से मनुष्य में बौनापन (Dwarfism) होता है।
(ii) TSH हार्मोन (Thyroid Stimulating Hormone) : यह हार्मोन थाइरॉइड ग्रन्थि के कार्यों को उद्दीपित करता है। यह थॉइरॉक्सिन (Thyroxin) हार्मोन के स्रवण को भी प्रभावित करता है।
(iii) ACTH हार्मोन ( Adrenocorticotropic Hormone) : यह हार्मोन एड्रीसन ग्रन्थि के कार्टेक्स को प्रभावित कर उससे निकलने वाले हार्मोन को भी प्रेरित करता है।
(iv) GTH हार्मोन (Gonadotropic Hormone) : यह जनन अंगों के कार्यों को नियंत्रित करता है। यह दो प्रकार का होता है-
(a) FSH हार्मोन (Follicle Stimulating Hormone) : पुरुषों में यह हार्मोन शुक्रकीट निर्माण (Spermatogenesis) को उद्देपित करता है, जबकि स्त्रियों में यह हार्मोन अण्डाशय से अण्डोत्सर्ग (Ovulation) को प्रेरित करता है।
(b) LH हार्मोन (Luteiniging Hormone) : पुरुषों में यह अंतराली कोशिकाओं (Interstial Cells) को प्रभावित कर नर हार्मोन (Testosteron) को प्रेरित करता है, जबकि स्त्रियों में यह कार्पस ल्यूटियम (Corpus Luteum) को प्रेरित करता है।
(v) LTH हार्मोन (Lactogenic Hormone) : यह हार्मोन स्तन वृद्धि एवं दुग्ध के स्राव को कायम रखता है। इस हार्मोन की कमी से दुग्ध स्राव नहीं होता है।
(vi) ADH हार्मोन (Antidiuretic Hormone) : इसके कारण छोटी-छोटी रक्त धमनियों का संकीर्णन होता है एवं रक्तदाब बढ़ जाता है। यह शरीर के जल संतुलन में सहायक होता है।
2. अवटु ग्रन्थि (Thyriod Gland)
◆ यह ग्रन्थि मनुष्य में गर्दन के भाग में श्वासनली (Trachea) के दोनों ओर तथा स्वरयंत्र (Larynx) के जोड़ के अधर तल पर स्थित होती है। यह संयोजी ऊतक (Connective Tissues) की पतली अनुप्रस्थ पट्टी से जुड़ी रहती है, जिसे इस्थमस (Isthmus) कहते हैं।
◆ इस ग्रन्थि से निकलने वाले हार्मोन थाइरॉक्सिन (Thyroxine) एवं ट्रायोडोथाइरोनिन (Triodothyronine) हैं, जिनमें आयोडीन (Iodine) अधिक मात्रा में रहता है।
थाइरॉक्सिन (Thyroxine) के कार्य
◆ यह कोशिकीय श्वसन की गति को तीव्र करता है ।
◆ यह शरीर की सामान्य वृद्धि विशेषतः हड्डियों, बाल इत्यादि के विकास के लिए अनिवार्य है।
◆ जनन अंगों के सामान्य कार्य इन्हीं की सक्रियता पर आधारित होते हैं।
◆ पीयूष ग्रन्थि के हार्मोन के साथ मिलकर यह शरीर के जल संतुलन का नियंत्रण करते हैं।
थाइरॉक्सिन (Thyroxine) की अधिकता से होने वाले रोग
(i) एक्सोप्थैलमिक ग्वायटर (Exophthalmic Goitre) : इसमें आँखें फूलकर नेत्र कोटर से बाहर आती हैं। नेत्र गोलक के नीचे श्लेष्मा जमा हो जाता है।
(ii) ग्रेब्स रोग ( Grave’s Disease) : इसमें थायरॉइड ग्रन्थि के आकार में वृद्धि हो जाती है।
(iii) प्लूमर रोग (Plum mer’s Disease) : इसमें थाइरॉइड ग्रन्थि में जगह-जगह गाँठें बन जाती हैं।
(iv) टॉक्सिक ग्वायटर (Toxic Goitre) : इसमें हृदय गति तीव्र हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, श्वसन दर तीव्र हो जाती है।
थाइरॉक्सिन (Thyroxine) की कमी से होन वाले रोग
(i) जड़वामनता ( Cretinism) : यह रोग बच्चों में होता है। ऐसे बच्चे बौने, कुरूप, पेट बाहर निकला हुआ, जीभ मोटी व बाहर निकली हुई, जननांग अल्पविकसित तथा त्वचा सूखी हुई होती है। ये मानसिक रूप से अल्प विकसित होते हैं।
(ii) मिक्सीडेमा (Myxoedema) : यौवनावस्था में होने वाले इस रोग में उपापचय भली-भाँति नहीं हो पाता, जिससे हृदय स्पंदन तथा रक्तचाप कम हो जाता है।
(iii) हाशीमोटो रोग (Hashimoto’s Disease) : यह रोग शरीर में थाइरॉक्सिन की अत्यधिक कमी से हो जाता है।
(iv) घेंघा (Goitre) : थाइरॉक्सिन हार्मोन में अधिकांश मात्रा में आयोडीन (lodine) होती है।
अतः आयोडीन की कमी से यह रोग हो जाता है । इस रोग में थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid Gland) के आकार में बहुत वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप गर्दन फूल जाती है।
3. पराअवटु ग्रन्थि (Parathyroid Gland)
◆ यह ग्रन्थि थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid Gland) के ठीक पीछे अवस्थित होती है। इसका मुख्य कार्य रक्त में कैल्शियम की मात्रा को नियंत्रित करना है। इस ग्रन्थि से दो हार्मोन स्रावित होते हैं –
(i) पैराथाइरॉइड हार्मोन (Parathyroid Hormone) : यह हार्मोन तब स्रावित होता है, जब रुधिर में कैल्सियम की कमी हो जाती है। कैल्सियम की कमी से टिटनेस (Tetanus) तथा हाइपोकैल्सिमिया (Hypocalcemia) नामक रोग होते हैं।
(ii) कैल्सिटोनिन हार्मोन (Calcitonin Hormone) : जब रुधिर में कैल्सियम की मात्रा अधिक होती है, तब यह हार्मोन मुक्त होता है। कैल्सियम की अधिकता से ओस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis), हाइपरकैल्सिमिया (Hyporcalcemia) तथा गुर्दे की पथरी ( Kidney Stonel) नामक रोग होते हैं।
4. एड्रीनल ग्रन्थि (Adrenal Gland)
◆ यह ग्रन्थि प्रत्येक वृक्क के ऊपरी सिरे पर अंदर की ओर स्थित रहती है। यह वृक्क (Kidney) की टोपी के समान गाढ़े भूरे रंग की होती है। एड्रीनल ग्रन्थि के दो भाग होते हैं- (i) बाह्य भाग कार्टेक्स (Cortex) (ii) आंतरिक भाग मेडुला (Medulla) |
कार्टेक्स (Cortex) से स्रावित हार्मोन एवं उनके कार्य
(i) ग्लूको कॉर्टिक्वायड्स (Gluco Corticoids) : यह हार्मोन कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा के उपापचय का नियंत्रण करते हैं।
(ii) मिनरेलो कॉर्टिक्वायड्स (Mineralo Corticoids) : ये हार्मोन्स शरीर में खनिज आयनों (Mineral Ions) की मात्रा का नियंत्रण करते हैं, जिससे सोडियम, पोटैशियम, क्लोराइड आयन तथा जल की उपयुक्त मात्रा बनी रहती है।
(iii) एड्रीनल लिंग-हार्मोन्स (Adrenal Sex Hormones) : यह हार्मोन पेशियों तथा हड्डियों के परिवर्द्धन, बाह्यलिंग, बालों के उगने एवं यौन-आचरण का नियंत्रण करते हैं। ये हार्मोन मुख्यतः नर हार्मोन एन्ड्रोजन्स (Androgens) तथा मादा हार्मोन (Estrogen) होते हैं।
नोट : कार्टेक्स (Cortex) जीवन में नितांत आवश्यक है। यदि इसे शरीर से बिल्कुल निकाल दिया जाये तो मनुष्य केवल एक या दो सप्ताह ही जीवित रह सकेगा। कार्टेक्स (Cortex) के विकृत हो जाने पर उपापचयी प्रक्रमों (Metabolism Process) में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। इस रोग को एडीसन रोग (Addison’s Disease) कहते हैं।
मेडुला (Medulla) से स्रावित हार्मोन एवं उनके कार्य
(i) एड्रीनेलीन (Adrenaline) : यह हार्मोन मेडुला से स्रावित हार्मोन का अधिकांश भाग होता है। यह हार्मोन क्रोध, डर, मानसिक तनाव, अपमान एवं व्यग्रता की अवस्था में अत्यधिक स्रावित होने लगता है, जिससे इन संकटकालीन परिस्थितियों में उचित कदम उठाने का निर्णय लिया जा सकता है। यह हृदय स्पंदन (Heart Beat ) की दर को बढ़ाता है, रोंगटे खड़े होने के लिए प्रेरित करता है तथा आँख की पुतलियों को फैलाता है। यह एक एमीनो अम्ल है।
(ii) नॉरएपीनेफ्रीन (Norepinephrine) : यह हार्मोन शरीर की समस्त रुधिर वाहिनियों को संकुचित करता है, जिससे रुधिर दाब बढ़ जाता है। यह भी एक एमीनो अम्ल है। नोट : उपर्युक्त दोनों हार्मोनों के समान कार्य हैं। ये सामान रूप से हृदयपेशियों की उत्तेजनशीलता एवं संकुचनशीलता में वृद्धि करते हैं, फलस्वरूप रक्तचाप बढ़ जाता है।
◆ एपीनेफ्रीन (Epinephrine) हृदय स्पंदन ( Heart Beat) एकाएक रूक जाने पर उसे पुनः चालू करने में सहायक है।
◆ एड्रीनल ग्रन्थि (Adrenal Gland) से निकलने वाले हार्मोन को लड़ों एवं उड़ो (Fight and Fleight) हार्मोन कहा जाता है।
◆ उत्तेजना के समय (क्रोध, भय एवं खतरे के समय) एड्रीनेलीन हार्मोन (Adrenaline Hormone) अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है।
5. थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland)
◆ यह ग्रन्थि वक्ष में हृदय से आगे स्थित होती है। यह वृद्धावस्था में लुप्त हो जाती है। यह गुलाबी, चपटी, द्विपालित (Bilobed) ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि से निम्न हार्मोन स्रावित होते हैं – (i) थाइमोसीन (Thymosin) (ii) थाइमीन-I (Thymine-I) (iii) थाइमीन-II (Thymine-II)।
थाइमस ग्रन्थि से स्रावित हार्मोन के कार्य
◆ ये हार्मोन शरीर में लिम्फोसाइट कोशिकाएँ (Lymphocytes Cells) बनाने में सहायक होता है। ये इन लिम्फोसाइट को जीवाणुओं (Bacteria) तथा एंटीजन्स (Antigens) को नष्ट करने के लिए प्रेरित करते हैं।
◆ यह हार्मोन शरीर में एंटीबॉडी (Antibody) बनाकर शरीर को सुरक्षा तंत्र स्थापित करने में सहायता करते हैं।
6. जनन – ग्रन्थि ( Gonads)
◆ जनन- ग्रन्थियाँ, जनन कोशिकाओं के निर्माण के अतिरिक्त अंतःस्रावी ग्रन्थियों के रूप में भी कार्य करती हैं, जो निम्नलिखित है –
(i) अंडाशय (Ovary) : यह मादा के उदर गुहा में स्थित होता है। इनके द्वारा स्रावित हार्मोन निम्नलिखित है-
(a) एस्ट्रोजन (Estrogen) : यह यौवनावस्था में यौन लक्षणों, जैसे- गर्भाशय, योनि, भगशिशन व स्तनों के विकास को प्रेरित करता है।
(b) प्रोजेस्ट्रॉन (Progesterone) : इसका स्राव कार्पस ल्यूटियम (Corpus Luteum) द्वार होता है। यह स्तन के विकास एवं दुग्ध ग्रन्थियों को सक्रिय करता है। यह हार्मोन गर्भधारण के निर्धारण वाला हार्मोन कहलाता है। यह गर्भावस्था एवं प्रसवपीड़ा में होने वाले परिवर्तनों से भी सम्बद्ध है।
(c) रिलैक्सिन ( Relaxin) : यह हार्मोन भी कार्पस ल्यूटियम (Corpus Luteum) द्वारा स्रावित होता है। इसका निर्माण बच्चे के जन्म के समय होता है। यह हार्मोन प्यूबिक संध ान (Pubic Symphysis) नामक जोड़ तथा यहाँ की पेशियों को लचीला बनाता है, जिससे जनन नाल (Birth Canal) चौड़ी हो जाती है। इससे बच्चे के जन्म में सहायता होती है।
(ii) वृषण (Testes) : यह नर जनन अंग है। यह शरीर से बाहर स्क्रोटल कोष (Scrotal Sec ) में स्थित होते हैं। वृषण के अंदर अंतराली कोशिकाओं (Interstitial Cells) या लीडिंग कोशिकाओं (Leyding Cells) से नर हार्मोन स्रावित होते हैं, जिन्हें एन्ड्रोजन्स (Androgens) कहते हैं।
(iii) एन्ड्रोजन्स (Androgens) : यह हार्मोन नर के गौण लैंगिक लक्षणों के लिए उत्तरदायी होते हैं। यह शिशन (Penis), अधिवृषण (Epididymis), शुक्रवाहिनी (Vasdeferens) तथा शुक्राशय (Seminalvesicle) के विकास को प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही ये गौण लैंगिक लक्षणों के विकास का नियंत्रण करते हैं।
12. प्रजनन तंत्र ( Reproduction System)
1. पुरुष प्रजनन तंत्र (Male Reproduction System) : पुरुष के प्रजनन अंग में अधिवृषण (Epididymis), वृषण (Testes), शुक्रवाहिका (Vasdeferens), शुक्राशय (Seminalvesicle), पुर:स्थ (Prostate), शिशन (Penis) आदि प्रमुख हैं।
(i) वृषण (Testes): वृषण नर जनन ग्रन्थियाँ हैं, जो अंडाकार होती हैं। इनकी संख्या दो होती है। वृषण का कार्य शुक्राणु (Sperms) उत्पन्न करना है। एक औसतन स्खलन में लगभग एक चम्मच शुक्र का स्राव होता है। इसमें शुक्राणुओं की संख्या 20 से 20 लाख तक होती है।
(ii) शुक्राणु (Sperm ) : शुक्राणु की लंबाई 5 माइक्रान होती है। यह तीन भाग में बँटा रहता है- सिर, ग्रीवा और गुच्छ । शुक्राणु शरीर में 30 दिन तक जीवित रहते हैं, जबकि मैथुन के बाद स्त्रियों में केवल 72 घंटे तक जीवित रहते हैं।
(iii) शिशन (Penis) : शिशन पुरुषों का संभोग करने वाला अंग है। शिशन के माध्यम से शुक्राणु स्त्री के प्रजनन तंत्र में पहुँचते हैं। शिशन हर्षण ऊतक का बना होता है। शिशन के तीन भाग होते हैं- शिशनमुण्ड (Glans), पिण्ड (Body) और मूल (Root) शिशन में खाली स्थान होता है, जिसमें कोशिकाएँ और सूक्ष्म धमनियाँ रहती हैं। खाली स्थानों में रक्त भरने से शिशन फूल जाता है।
2. स्त्री प्रजनन तंत्र (Female Reproductive System) : स्त्री के प्रजनन तंत्र में शर्त शेल (Mons Veneris), वृहत् भगोष्ठ (Labia Majora), लघु भगोष्ठ (Labia Minora) भगशिशन (Clitoris), योनि (Vagina), अंडाशय (Ovaries), डिम्बवाहिनी नली (Fallopian Tube ) तथा गर्भाशय ( Uterus) आदि प्रमुख हैं।
(i) अंडाशय (Ovaries) : स्त्रियों में दो अंडाशय बादाम के आकार के भूरे रंग के होते हैं। इनका मुख्य कार्य अंडाणु (Ovum) पैदा करना है। अंडाशय से दो हार्मोन एस्ट्रोजन (Estrogen) तथा प्रोजेस्ट्रॉन (Progesterone) का स्राव होता है, जो ऋतुस्राव (Menstruation) को नियंत्रित करते हैं।
(ii) अंडाणु (Ovum): अंडाणु स्थिर, गोलाकार एवं निष्क्रिय होता है। इसकी परिधि 100-125 मिमी तक होती है।
(iii) डिम्बवाहिनी नली (Fallopian Tube) : इस नली से डिम्ब (Ovum) अंडाशय से गर्भाशय में जाता है। इसकी संख्या दो होती है।
(iv) गर्भाशय (Uterus): गर्भाशय मूत्राशय के पीछे और मलाशय के आगे स्थिर होता है। यह नाशपाती के आकार का होता है। गर्भाशय की पेशी को गर्भाशय पेशी (Myometrium) तथा श्लेष्मिक कला को इन्डोमेट्रियम (Endometrium) कहते हैं। गर्भाशय में निषेचित डिम्ब का विकास होता है।
(v) निषेचन (Fertilization) : शुक्राणु (Sperm) और डिम्ब (Ovum) के मिलने को निषेचन कहते हैं। इसके फलस्वरूप युग्मनज (Zygote) बनता है। बाद में चलकर यही युग्मनज भ्रूण (Foetus) के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जो एक नये बच्चे के रूप में जन्म लेता है।
(vi) अपरा (Placentra): भ्रूण और स्त्री के गर्भाशय की दीवार के बीच रक्तधनी तंतुओं जैसी रचना को अपरा कहते हैं। इन्हीं अपरा कोशिकाओं के द्वारा भ्रूण को गर्भाशय में अपना पोषक तत्त्व प्राप्त होता है। बच्चा पैदा होने के बाद अपरा को काटकर अलग किया जाता है।
(vii) ऋतुस्राव ( Menstruation ) : इसे ऋतुकाल, रजोधर्म, आर्तव या मासिक धर्म भी कहते हैं। यह स्त्रियों में प्रायः 12-14 वर्ष की अवस्था में शुरू होकर 45-50 वर्ष की आयु तक होता है। संगर्भता में ऋतुस्राव नहीं होता है। इसमें स्त्री को प्रजनन काल में प्रति 26 से 28 दिनों की अवधि पर गर्भाशय से श्लेष्मा तथा रक्त का स्राव होता है । यह स्राव 3-4 दिनों तक होता है।

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