लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में परिवार, विद्यालय, औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन की भूमिका का सविस्तार वर्णन कीजिए।
प्रश्न – लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में परिवार, विद्यालय, औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन की भूमिका का सविस्तार वर्णन कीजिए।
Describe in detail the role of Family, Schools, Formal and NonFormal Organisations in Gender Identity and Socialisation Practices.
या
लिंग पहचान बनाने में परिवार की भूमिका का विवरण कीजिए ।
Describe the role of family in the construction of gender identity.
नोट– लिंग पहचान बनाने में परिवार की भूमिका का वर्णन दिया गया है।
उत्तर- परिवार, विद्यालय, औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन में लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाएँ (Gender Identity and Socialisation Practices in Schools, Family, Formal and Non-Formal Organisations)
एक सामाजिक प्राणी होने कारण मनुष्य इसी समाज में रहते हुए अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। वह समाज में जन्म लेता है, यहीं पर उसका विकास होता है और यहीं पर वह सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बानें में उलझा रहता है। समाज के यही ताने-बाने मनुष्य को सामाजिक बनाते हैं। समाज में जिस प्रक्रिया के अधीन बालक का समाजीकरण होता है, उसे समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है। परिवार में सर्वप्रथम बच्चा अनुकरण के माध्यम से सीखता है। तदुपरान्त विद्यालय एवं औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन समाजीकरण की प्रक्रिया को आगे ले जाता है। अतः समाजीकरण प्रक्रिया में इनकी महती भूमिका है। समाजीकरण प्रथाओं में विद्यालय, परिवार, औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन की भूमिका का वर्णन इस प्रकार है-
लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में परिवार का योगदान
- समान शिक्षा की व्यवस्था (Arrangement of Equal Education) – प्रायः परिवारों में देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था में भेद-भाव देखने को मिलता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जिस कारण वे स्वावलम्बी नहीं बन पाती हैं। अतः समाजीकरण की प्रथाओं एवं लैंगिक भेदभाव कम करने के लिए लड़कों के समान ही लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
- समानता का व्यवहार (Behaviour of Equality) परिवार में यदि लड़के एवं लड़कियों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाता है तो ऐसे परिवारों में लिंग सम्बन्धी भेदभाव कम होते हैं। समानता के व्यवहार के अन्तर्गत लड़के एवं लड़कियों को पारिवारिक कार्यों में समान स्थान, समान शिक्षा, समान रहन-सहन आदि प्रदान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही परिवार के सदस्यों को ध्यान रखना चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव, शाब्दिक निन्दा आदि न करें।
- सर्वांगीण विकास कार्य (Work of Allround Development)- सर्वागीण विकास से तात्पर्य सभी पक्षों के विकास से है इसके अन्तर्गत शरीर, मन तथा बुद्धि का समन्वयकारी विकास किया जाता है। परिवार के सभी बच्चों का विकास समान रूप से किया जाना चाहिए जिससे उनमें हीनता की भावना न व्याप्त हो जाए।
- उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण- परिवार को अपने सभी सदस्यों के चरित्र तथा उनके व्यक्तित्व विकास के निर्माण पर बल देना चाहिए। अनेक परिवारों में बालिकाओं एवं स्त्रियों को बहुत अनुशासन में रखा जाता है वहीं लड़कों के लिए हर बात में छूट रहती है। ऐसी ही स्थितियों में लैंगिक भिन्नता उत्पन्न हो जाती है। अतः परिवार को चाहिए कि लड़कों एवं लड़कियों दोनों में समान रूप से चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण करें।
- पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता – परिवार के सभी सदस्यों के कार्यों का विभाजन उनकी रुचि के आधार पर किया जाना चाहिए न कि उनके लिंग के आधार पर । कई परिवारों में बाहरी कार्यों को लड़कों को एवं घर के कार्यों के लिए लड़कियों को दिया जाता है। इससे लड़कियाँ बाहरी कार्यों को करने में स्वयं को असहज महसूस करने लगती है अतः अभिभावकों को चाहिए कि वे बालिकाओं को बाहरी कार्य दें तथा लड़कों को घर के कार्यों में सम्मिलित करें ।
- अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार – हमारे समाज एवं परिवार में लड़के-लड़कियों से सम्बन्धित अनेक अन्धविश्वास एवं जड़ परम्पराएं व्याप्त है। लड़कों को वंश बढ़ाने वाला, पैतृक कर्मों, सम्पत्ति का अधिकारी, अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान करने वाला आदि कार्यों का अधिकारी माना जाता है। परिवार को इन जड़ परम्पराओं, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। जब सभी लोग इसके प्रति जागरूक रहेंगे तो स्त्रियों की स्थिति में स्वतः ही सुधार होने लगेगा क्योंकि ये प्रथाएँ तार्किक कसौटी पर सही नहीं होती हैं ।
- जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरण – परिवार में स्त्रीपुरुष, लड़के-लड़कियों के मध्य लिंग के आधार पर भेदभाव न करके सभी की सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ बिना भेदभाव के प्रदान करनी चाहिए जिससे लैंगिक भेदभावों में कमी आएगी।
- बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना- परिवार को चाहिए कि वह अपने बालकों को बालिकाओं के महत्त्व से परिचित कराएं जिससे वे इन पर अपना आधिपत्य जमाने के बजाए उनका सम्मान करना सीखें । बालिकाएँ ही माता, बहन, पत्नी आदि हैं, इसके इन रूपों की उपेक्षा करके पुरुष का जीवन अपूर्ण रह जाएगा।
- सामाजिक वातावरण में बदलाव – परिवार में लड़के-लड़कियों के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। उन पारिवारिक रीतियों को परिवर्तित करने का प्रयास करना चाहिए जिनके द्वारा समाज में पिछड़ापन आता है। कई परिवार मिलकर आपस में एक समाज का निर्माण करते हैं। अतः समाज सुधार की पहल परिवार से ही करनी चाहिए। परिवार को लैंगिक भेदभावों तथा महिलाओं की उन्नत स्थिति हेतु कृत संकल्प होना चाहिए जिससे सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव पूर्ण व्यवहार को समाप्त किया जा सके।
- बालिकाओं को आत्मप्रकाशन के अवसरों की प्रधानता – परिवार में बालकों के साथ-साथ बालिकाओं को भी अपने विचारों को प्रकट करने के समान अवसर दिए जाने चाहिए जिससे वे अपने आप को हीन न समझें। आत्म-प्रकाशन का अवसर दिए जाने से उनमें हीन भावना नहीं उत्पन्न होगी। अतः परिवार को लैंगिक भेद-भाव में कमी लाने के लिए बालिकाओं एवं स्त्रियों को पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए।
- सशक्त बनाना-कई परिवारों में लड़कियों को बार-बार यह स्मरण कराया जाता है कि वे लड़कियाँ हैं उन्हें एक सीमा में रहकर कार्य करना चाहिए। परिवार के सदस्यों का ऐसा व्यवहार उनमें निराशा एवं कुण्ठा का भाव उत्पन्न कर देती है। अतः परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे स्त्रियों को कमजोर न समझे बल्कि उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ने के अवसर दे ।
- साथ – साथ रहने कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास- परिवार में ही बालक साथ-साथ रहने एवं कार्य करने की प्रवृत्तियों को सीखता है। जब घर के सभी सदस्य समान कार्य करते हैं तो उनमें एक-दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की भावना विकसित होती है। परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे चाहे पुरुष हों या स्त्री, सभी को साथ मिलकर ही कार्य करना चाहिए ।
- व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा – परिवार को चाहिए उसके सभी सदस्य चाहे वे स्त्रियाँ/बालिकाएँ हो या पुरुष सभी योग्य, कुशल एवं आत्मनिर्भर हों। इसके लिए उन्हें व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। यह शिक्षा परिवार के लिए औपचारिक या अनौपचारिक दोनों प्रकार से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग निषेध- परिवार में जैसा व्यवहार सभी सदस्यों द्वारा किया जा रहा है बालक उसी प्रकार के व्यवहार का अनुकरण करता है। यदि सदस्यों द्वारा ऐसी भाषा का प्रयोग किया जा रहा है जो अनुचित है तो बालक वैसी ही भाषा सीख जाता है। अतः परिवार को चाहिए कि वह सभी के लिए चाहे वह स्त्री हो या पुरुष सभी के लिए शिष्ट भाषा का प्रयोग करें।
लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में विद्यालय
- पाठ्यचर्या सम्बन्धी असमानताएँ – विद्यालयी स्तर पर पाठ्यचर्या सम्बन्धी अनेक असमानताएँ देखी जा सकती हैं, जैसे- बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान, सिलाई-कढ़ाई तथा नृत्य सम्बन्धी पाठ्यचर्या तैयार की जाती है तथा उन्हें इन्हीं से प्रतिभाग करने का परामर्श भी दिया जाता है चाहे बालिका की रुचि इन विषयों में हो या न हो क्योंकि हो सकता है कि बालिका की रुचि गणित तथा विज्ञान जैसे विषयों में हो। कुछ पाठ्यक्रम तथा विषय मात्र बालकों के लिए ही होते हैं। अतः विद्यालयी स्तर पर पाठ्यचर्या सम्बन्धी अनेक असमानताएँ दिखाई पड़ती है।
- कक्षा प्रबन्धन में असमानताएँ – विद्यालय में कक्षा-कक्ष प्रबन्धन में असमानता की स्थिति देखी जाती है। कक्षा-कक्ष में कक्षा मॉनीटर की भूमिका में प्रायः बालकों को ही देखा जाता है। अतः इस सन्दर्भ में अध्यापकों से प्रायः उदासीनता देखी जाती कि वह बालिकाओं को इस कार्य के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं। कभी-कभी यदि कोई अध्यापक बालिका को मॉनीटर बनाना भी चाहता है तो बालिका स्वयं इन्कार कर देती है।
- आन्तरिक गतिविधियों में असमानताएँ – विद्यालय में होने वाली विभिन्न आन्तरिक गतिविधियों, जैसे- नृत्य, संगीत, नाटक आदि में पर्याप्त असमानता की स्थिति देखी जा सकती है। इन कार्यक्रमों में बालिकाओं की सहभागिता अधिक होती है क्योंकि ये बालिकाओं से सम्बन्धित गतिविधियाँ मानी जाती है। इसी प्रकार ऊँची कूद तथा लम्बीकूद प्रतियोगिताओं में बालकों की सहभागिता अधिक देखी जाती है।
- निर्देशन तथा परामर्श सम्बन्धी असमानताएँ – विद्यालय में निर्देशन तथा परामर्श सम्बन्धी असमानताएँ भी व्यापक रूप से देखी जाती है, जैसे- यदि कोई बालिका किसी ऐसी सेवा में जाना चाहती है, जिन सेवाओं में मात्र बालकों की उपस्थिति ही स्वीकार्य होती हैं तो ऐसी स्थिति में अभिभावकों की अनुशंसा पर अध्यापक उन सेवाओं में जाने का बालिकाओं को निर्देशन व परामर्श नहीं देते तथा न ही उन्हें प्रोत्साहित करते हैं।
- नामांकन सम्बन्धी असमानताएँ – विद्यालयों में बालक एवं बालिकाओं के नामांकन में भी असमानताएँ दृष्टिगत होती है। इस स्तर पर बालिकाओं का नामांकन कम देखा जाता है। जबकि बालकों का नामांकन अधिक देखा जाता है। इसका कारण यह है कि अभिभावक बालिकाओं को, बालकों की तुलना में विद्यालय कम भेजना चाहते हैं । उनका विचार है कि बालिकाओं को गृहकार्य में लगाना अधिक उचित है। अभिभावकों की इस रूढ़िवादी सोच को विद्यालयी व्यवस्था द्वारा भी परिवर्तित नहीं किया जाता।
- उच्च शिक्षा सम्बन्धी असमानताएँ- प्रायः बालिकाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर कम प्राप्त होते हैं क्योंकि बालिकाओं को अभिभावकों तथा अध्यापकों का पर्याप्त सहयोग प्राप्त नहीं होता है। बालकों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में अभिभावक तथा अध्यापक दोनों का ही सहयोग प्राप्त होता है। बालिका की उच्च शिक्षा के प्रति अध्यापकों का यह सोच भी होती है कि यदि अभिभावक ही अपनी बालिका को महाविद्यालय नहीं भेजना चाहते तो मैं क्या कर सकता हूँ। इसी कारण उच्च शिक्षा पर प्रायः बालकों का आधिपत्य रहता है ।
- बाह्य गतिविधियों में असमानताएँ – सह शिक्षा वाले विद्यालयों में बालिकाओं को शैक्षिक भ्रमण पर ले जाने के लिए एक ओर जहाँ अध्यापकों के मन में एक भय उत्पन्न होता है वहीं दूसरी ओर अभिभावक भी बालिकाओं को भेजना नहीं चाहते। इस प्रकार बालिकाओं में संकोच की भावना बनी रहती है तथा वे बाह्य गतिविधियों में सहभागिता का प्रदर्शन नहीं कर पाती हैं।
- जागरूकता सम्बन्धी असमानताएँ – बालिकाओं को प्रायः अपने परिवार से लेकर विद्यालय तक एक अनुशासित जीवन ही व्यतीत करना पड़ता है। इसलिए उनको मात्र अपने जीवन में लगाए गए प्रतिबन्ध ही याद रहते हैं। वे अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हो पाती जिसके कारण वह आगे चलकर शोषण का शिकार होती है।
लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में विद्यालय की भूमिका
- अभिभावक शिक्षक संघ का निर्माण (Construction of Teacher-Parents Association ) – लैंगिक समानता को सुदृढ़ बनाने के लिए विद्यालय में अभिभावक शिक्षक संघ का निर्माण किया जाना चाहिए तथा इसके निर्माण में माताओं को आगे लाना चाहिए । अभिभावक शिक्षक बैठक का आयोजन 15 दिन पर या महीने में एक बार होना चाहिए जिसमें बालक एवं बालिकाओं से सम्बन्धित विविध प्रकार की समस्याओं पर गहनता से विचार विमर्श होना चाहिए। यदि अभिभावक द्वारा बालक व बालिका में किसी प्रकार का भेदभाव किया जाता है तो उस पर भी इन बैठकों में विचार-विमर्श होना चाहिए ताकि लैंगिक समानता स्थापित हो सके।
- नामांकन में समानता- विद्यालयों में अपने क्षेत्र विशेष में सर्वेक्षण कराते हुए विद्यालय जाने वाले 6 से 14 वर्ष के बालक व बालिकाओं का नाम अंकित करते हुए एक अभिलेख तैयार करना चाहिए तथा जो भी अभिभावक अपने पाल्य का विद्यालय में नामांकन नहीं कराते विद्यालय प्रबन्धन को उनके घर जाकर सम्पर्क करना चाहिए। सभी बालक एवं बालिकाओं का विद्यालय में नामांकन कराने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए ताकि शत्-प्रतिशत नामांकन की स्थिति लाई जा सके।
- कक्षा – कक्ष प्रबन्धन में समानता – कक्षा-कक्ष प्रबन्धन में बालक एवं बालिकाओं को समान अवसर प्रदान करने चाहिए। मॉनीटर के पद पर कार्य करने के लिए दोनों को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। बालिकाओं को नेतृत्व सम्बन्धी कार्यों के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इन कार्यों में यदि छात्राओं में आत्मविश्वास की कमी दिखाई दे तो विद्यालय प्रबन्धन द्वारा उनमें आत्मविश्वास जागृत करना चाहिए ।
- आन्तरिक एवं बाह्य गतिविधियों में समानता – विद्यालय में आन्तरिक गतिविधियों में समानता की स्थिति होनी चाहिए। यदि किसी बालिका की रुचि ऊँची कूद व लम्बीकूद जैसी प्रतियोगिता में भाग लेने की हो तो उसको यह अवसर प्रदान करने चाहिए यदि किसी बालक की रुचि लोक नृत्य, संगीत, लोक नाट्य आदि में भाग लेने की हो तो उसको भी यह अवसर मिलना चाहिए। अतः इन आन्तरिक गतिविधियों में बालक व बालिकाओं का पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए जिससे वह उचित आन्तरिक गतिविधि का चयन कर सके एवं लैंगिक समानता स्थापित हो सके। विभिन्न बाह्य गतिविधियों जैसे शैक्षिक भ्रमण, खेल प्रतियोगिताएँ तथा एन.सी.सी. आदि में भी समानता होनी चाहिए।
- निर्देशन एवं परामर्श में समानता – विद्यालय में बालक एवं बालिकाओं को निर्देशन एवं परामर्श देते समय किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए बल्कि बालक एवं बालिकाओं को उनकी योग्यता, रुचि एवं क्षमता को देखते हुए उन्हें निर्देशन व परामर्श देना चाहिए। इसी से प्रत्येक बालक व बालिकाओं को शैक्षिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में सर्वोत्तम उन्नति करने के अवसर प्राप्त होंगे।
- शैक्षिक गतिविधियों में समानता – शैक्षिक गतिविधियों में बालक एवं बालिकाओं में कोई विभेद नहीं होना चाहिए। बालक एवं बालिकाओं की रुचि के अनुसार उन्हें पाठ्यक्रम उपलब्ध कराना चाहिए।
- विद्यालय प्रबन्ध समिति में लैंगिक समानता पर विचार-विमर्श – किसी भी विद्यालय की प्रबन्ध समिति में स्त्री एवं पुरुष दोनों ही होते हैं। अतः बैठक में लैंगिक असमानता से होने वाली हानियों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर समाजशास्त्रियों व दार्शनिकों को भी बैठक में आमन्त्रित किया जाना चाहिए।
- सकारात्मक सोच का विकास – विद्यालयी व्यवस्था में प्रायः नकारात्मक एवं रूढ़िवादी विचारों वाले अध्यापक होते है। ऐसे अध्यापक छात्राओं को सलाह देने में भी संकोच करते हैं। परन्तु विद्यालय प्रबन्ध समिति में अभिभावकों के समक्ष सभी पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए । इसमें समिति को समझना चाहिए कि बालक व बालिकाएँ किसी भी रूप में एक-दूसरे से भिन्न नहीं है तो विद्यालय में प्रत्येक शिक्षक प्रधानाध्यापक, बालक व बालिकाओं में सकारात्मक सोच का विकास होगा व लैंगिक समानता की स्थापना हो सकेगी।
लिंग पहचान एवं समाजीकरण प्रथाओं में औपचारिक एवं अनौपचारिक संस्थाओं की भूमिका
- धार्मिक संस्थाओं की भूमिका (Role of Religious Organisations) – वस्तुतः धर्म मानव की नैतिक चारित्रिक, धैर्यवान कर्त्तव्यपरायण विवेक सम्पन्न तथा उदार बनाता है। अतः समाजीकरण की प्रथाओं में धार्मिक संस्थाएँ भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं-
- धार्मिक कार्यों में महिलाओं की सहभागिता के सुनिश्चितीकरण के द्वारा लिंग भूमिकाओं की चुनौतियों का सामना करना चाहिए।
- परिवार, विद्यालय समाज समुदाय व राज्य आदि अभिकरणों से सहयोग प्राप्त करके धर्म को लैंगिक भेदभावों की समाप्ति का प्रयास करना चाहिए।
- स्त्री-पुरुष दोनों की समान सहभागिता लाने तथा लैंगिक भेदभावों में कमी लाने के लिए धर्म को आर्थिक स्वावलम्बन एवं कर्म के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए ।
- बालिका शिक्षा व स्त्रियों को समानता दिलाने के लिए धर्म को अपने मतानुयायियों का आह्वान करना चाहिए।
- धार्मिक संस्थाओं को अपने सभी व्यक्तियों की बुरी प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करना चाहिए ताकि वे अनैतिक कार्यों में संलिप्त न हो जाए।
- प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना में धर्म को सहयोग करना चाहिए।
- धार्मिक संस्थाओं को अपने सभी व्यक्तियों तथा अनुयायियों को सत्य की खोज के लिए प्रवृत्त करना चाहिए ताकि अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों की समाप्ति की जा सके।
- धार्मिक संस्थाओं को अपनी शक्तियों उपयोग समाज में जागरूकता लाने के लिए करना चाहिए ।
- धार्मिक उपाख्यानों द्वारा महिलाओं के आदर्श चरित्र एवं महत्त्व से अवगत कराकर महिलाओं के प्रति समुचित भाव को उत्पन्न करना चाहिए।
- धार्मिक संस्थाओं को चारित्रिक विकास एवं नैतिकता के विकास के कार्य करके असमानता का भाव कम करना चाहिए ।
- सामाजिक संस्थाओं की भूमिका (Role of Social Organisations) – समाज में रहकर मनुष्य बहुत से सामाजिक गुणों को सीखता है। समाज में रहकर मनुष्य सामाजिक मूल्य एवं सामाजिक परम्पराओं को सीखता है । अतः समाजीकरण व्यवस्था में सामाजिक संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ इस प्रकार निभा सकती हैं –
- सामाजिक मूल्यों की स्थापना में सामाजिक संस्थाओं द्वारा सहयोग किया जाना चाहिए।
- सामाजिक कार्यों में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा देना चाहिए तथा सामाजिक कार्यों में महिलाओं की सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए भूमिकाओं की चुनौतियों का सामना करना चाहिए ।
- स्त्री-पुरुष दोनों को समाज में समान स्थान प्रदान करने के लिए सामाजिक रुढ़ियों को दूर करके लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए तथा सामाजिक एकता लाने का प्रयास करना चाहिए ।
- बालिका शिक्षा व स्त्रियों को समानता प्रदान करने वाली सामाजिक संस्थाओं को अपने मतानुयायियों का आह्वान करना चाहिए ।
- सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाज में फैली हुई करना सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास चाहिए। ताकि समाज में फैली हुई लैंगिक विषमताओं को दूर किया जा सके।
- सामाजिक संस्थाओं द्वारा ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों का उदाहरण देकर महिलाओं के आदर्श चरित्र एवं उनके महत्त्व के विषय में समाज को अवगत कराकर महिलाओं के प्रति समुचित भाव उत्पन्न करना चाहिए ।
- सामाजिक संस्थाओं द्वारा लोगों को उन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं एवं सुविधाओं से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि समाज में समानता का भाव उत्पन्न करके समाजीकरण किया जा सके ।
- जिस समाज में सामाजिक संस्थाएँ शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करती हैं। उस समाज में शिक्षा की स्थिति सर्वोत्तम होती है। उस समाज में बालक-बालिकाओं में विभेद नहीं किया जाता है।
- सामाजिक संस्थाओं द्वारा लैंगिक भेदभाव दूर करने के लिए अभिभावकों को जागरूक करना चाहिए।
- समाज में स्त्रियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए जिससे सामाजिक संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
- स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका (Role of Voluntary Institutions) – समाजीकरण में अनौपचारिक संस्था के रूप स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका निम्नलिखित प्रकार से हैं –
- स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा समाज में फैले हुए लिंग भेद की भावना को समाप्त करके समानता का स्वरूप स्थापित करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।
- स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा जिन निजी सार्वजनिक साझेदारियों को प्रोत्साहन मिला है उन्हें समाजीकरण व्यवस्था की सफलता सुनिश्चित करने में सहायक सिद्ध होना चाहिए ।
- स्वयंसेवी संस्थाओं का समाज पर विभिन्न तरीके से प्रभाव पड़ा है। स्त्रियों में सामाजिक एवं शैक्षिक जागरूकता बढ़ गई है। कुपोषण घटा है तथा सभी जातियों के बालक-बालिकाओं को एक साथ घुल-मिलकर रहने के लिए प्रयास किया गया है।
- स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा निश्चित आचार संहिता एवं नियमों का निर्धारण करना चाहिए ताकि प्रत्येक स्त्री एवं पुरुष अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य कर सके ।
- स्वयंसेवी संस्थाओं का उद्देश्य समाज में जागरूकता एवं समाज सुधार होना चाहिए ।
- स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा शिक्षाशास्त्रियों एवं आदर्शवादी नागरिकों को उचित स्थान प्रदान करना चाहिए जिससे समाज में फैली हुई लैंगिक भेद जैसी विषम स्थितियों में भी उचित निर्णय लिया जा सके।
- स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सभी व्यक्तियों को संमार्ग के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि समाज में फैली हुई अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों को दूर किया जा सके।
- औद्योगिक संस्थाओं की भूमिका (Role of Industrial Institutions)—औद्योगिक संस्थाओं में स्त्री एवं पुरुष समान रूप से कार्य करते हैं। अतः समाजीकरण की प्रथाओं में औद्योगिक संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन निम्नलिखित प्रकार से कर सकती हैं –
- मशीनी आविष्कार तथा विभिन्न प्रकार की मशीनों ने औद्योगीकरण को जन्म दिया है। औद्योगिक संस्थाओं द्वारा औद्योगीकरण के माध्यम से स्त्री पुरुषों के कार्यों में समानता लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
- औद्योगिक संस्थाओं द्वारा गृह उद्योगों का विकास करके आर्थिक क्षेत्र में समानता लाने का प्रयास करना चाहिए।
- समाज में व्याप्त मान्यता के अनुरूप यह माना जाता है कि स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कम शक्ति होती है जिसके परिणामस्वरूप वह कम कार्य कर पाती है। इन भावनाओं को औद्योगिक संस्थाओं द्वारा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्शित करके दूर करने का प्रयास किया जा सकता है।
- औद्योगिक संस्थाओं द्वारा कार्यक्षेत्र में स्त्रियों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए जिससे वे आत्म निर्भर बन सकें ।
- स्त्री-पुरुष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करना चाहिए जिससे लिंग भेदभाव न उत्पन्न हो सके ।
- उद्योग संस्थाओं द्वारा विभिन्न उद्योग में स्त्रियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहारों को रोकने का प्रयास करना चाहिए जिससे उनके शारीरिक एवं आर्थिक शोषण को रोका जा सके।
- औद्योगिक संस्थाओं द्वारा अपने उद्योगों में चरित्रवान एवं आदर्श व्यक्तियों को सम्मिलित करना चाहिए तथा उन्हें आदर्शगुणों से अवगत कराकर महिलाओं के प्रति समुचित भाव को उत्पन्न कराना चाहिए।
- औद्योगिक संस्थाओं द्वारा स्त्री-पुरुषों को रोजगार प्रदान करके समाज में समानता लाने का प्रयास करना चाहिए ।