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वनस्पति विज्ञान

वनस्पति विज्ञान

वनस्पति विज्ञान
◆ विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधों तथा उनकी क्रियाकलापों के अध्ययन को वनस्पति विज्ञान (Botany) कहते हैं ।
◆ थियोफ्रेस्ट्स (Theophrastus) को वनस्पति विज्ञान का जनक (Father of Botany) कहा जाता है।
वनस्पति विज्ञान की कुछ विशेष शाखाएँ
(i) शैवाल – विज्ञान (Algoloy or Phycology ) – शैवालों का अध्ययन।
(ii) कवक – विज्ञान (Mycology ) कवक, मोल्ड्स का अध्ययन।
(iii) जीवाणु – विज्ञान (Bacteriology) – जीवाणुओं का अध्ययन।
(iv) विषाणु – विज्ञान (Virology) – विषाणुओं का अध्ययन ।
(v) लाइकेन – विज्ञान (Lichenology ) – लाइकेन का अध्ययन |
(vi) पोमोलॉजी (Pomology ) फलों का अध्ययन।
(vii) पेडोलॉजी (Pedlogy) – मिट्टी का अध्ययन।
(viii) एन्थोलॉजी (Anthology) – फूलों का अध्ययन।
(ix) पोलेनोलॉजी (Polenology) – परागकणों का अध्ययन |
(x) बाह्य जीव विज्ञान (Exobiology) अंतरिक्ष के जीवन ।
(xi) डेन्ड्रोक्रोनोलॉजी (Dendrochronology) वार्षिक वलय (Annul Ring) की गणना करना ।
(xii) एग्रोस्टोलॉजी (Agrostology) – घासों का अध्ययन।
(xiii) ब्रायोलॉजी (Bryology) – ब्रायोफाइट्स का अध्ययन ।
(xiv) टेरिडोलॉजी (Pteridology) – टेरिडोफाइट्स का अध्ययन |
( xv ) पादप प्रजनन (Plant Breeding) – संकरण की विधि का अध्ययन |
1. पौधों का वर्गीकरण (Classification of Plant)
◆ संसार में 3,43,225 के आसपास विभिन्न प्रकार पौधे हैं जो रूप, संरचना और आकार में एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। वर्गीकरण की तीन पद्धतियाँ कृत्रिम प्राकृतिक और जातिवृत्तीय (Phylogenetic) प्रचलित हैं, किन्तु आज सर्वाधिक मान्यता जातिवृत्तीय वर्गीकरण पद्धति को है।
◆ 1883 ई. में एकलर (Eichler) ने वनस्पति जगत का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप से किया
अपुष्पोद्भिद पौधा (Cryptogames) 
◆ इस वर्ग के पौधों में पुष्प तथा बीज नहीं होता है। इन्हें निम्न समूह में बाँटा गया है –
थैलोफाइटा (Thalophyta)
◆ यह वनस्पति जगत का सबसे बड़ा समूह है।
◆ इस समूह के पौधों का शरीर सूकाय (Thalus) होता है, अर्थात् पौधे, जड़, तना एवं पत्ती आदि में विभक्त नहीं होते।
◆ इसमें संवहन उत्तक नहीं होता है।
शैवाल (Algae)
◆ शैवालों के अध्ययन को फाइकोलॉजी (Phycology) कहते हैं।
◆ शैवाल प्रायः पर्णहरितयुक्त (Chlorphyllous), संवहन ऊतक रहित (Non-Vascular), आत्मपोषी (Autotrophic) तथा सेलूलोज भित्ति वाले होते हैं।
◆ शैवालों का शरीर सूकाय सदृश (Thalloid) होता है, अर्थात् जड़, तना एवं पत्तियों में विभक्त नहीं होता है।
लाभदायक शैवाल
(i) भोजन के रूप में : फोरफाइरा, अल्बा, सरगासन, लेमिनेरिया, नॉस्टक आदि ।
(ii) आयोडीन बनाने में : लेमिनेरिया, फ्यूकस, एकलोनिया आदि ।
(iii) खाद के रूप में: नॉस्टॉक, एनाबीना, केल्प आदि ।
(iv) औषधियाँ बनाने में : क्लोरेला से क्लोरेलिन नामक प्रतिजैविक एवं लेमिनेरिया से टिंचर आयोडीन बनायी जाती है।
(v) अनुसंधान कार्यों में : क्लोरेला एसीटेबुलेरिया, बेलोनिया आदि।
नोट : क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल को अंतरिक्षयान के केबिन के हौज में उगाकर अंतरिक्ष यात्री को प्रोटीनयुक्त भोजन, जल और ऑक्सीजन उपलब्ध कराया जाता है।
कवक (Fungi)
◆ इसके अध्ययन को कवक विज्ञान (Mycology) कहा जाता है।
◆ कवक पर्णहरित रहित संकेन्द्रीय संवहन ऊतकरहित थैलोफाइट है।
◆ कवक में संचित भोजन ग्लाइकोजन (glycogen) के रूप में रहता है।
◆ इनकी कोशिकाभित्ति काइटिन (Chitin) की बनी होती है।
◆ कवक पौधों में गंभीर रोग उत्पन्न करते हैं। सबसे अधिक हानि रस्ट (Rust) और स्मट (Smut ) से होती है। पौधों में कवक के द्वारा होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं –
(a) सरसों का सफेद रस्ट (White Rust of Crucifer)
(b) गेहूँ का ढीला स्मट (Loose Smut of Wheat)
(c) गेहूँ का किट्टू रोग (Rust of Wheat)
(d) आलू की अंगमारी (Blight of Potato)
(e) गन्ने का लाल अपक्षय (Red Rot of Sugarcane)
(f) मूँगफली का टिक्का रोग (Tikka Disease of Groundnut)
(g) आलू का मस्सा रोग (Wart Diseases of Potato)
(h) धान की भूरी अर्ज चित्ति ( Brown Leaf Spot of Rice)
(i) आलू की पछेला अंगमारी ( Late Blight of Potato)
(j) प्रांकुरों का डेपिंग रोग (Damping off of Seedlings)
कवक से मुनष्यों में होने वाले रोग
रोग कवक
दमा एस्परजिलस फ्यूमिगेटस (Aspergillus Fumigaths )
एथलीट फूट टीनिया पेडिस (Tineapedis)
खाज एकेरस स्केबीज (Acarus Scabies)
गंजापन टीनिया केपिटिस (Taenia Capitis)
दाद ट्राइकोफाइटान (Trichophyton )
जीवाणु (Bacteria)
◆ जीवाणु की खोज 1653 ई. में हॉलैंड के एण्टोनीवान ल्यूवेनहॉक ने की। इसी कारण इन्हें जीवाणु विज्ञान का पिता (Fater of Bacteriology) कहते हैं।
◆ एहरेनवर्ग (Ehrenberg) ने 1829 ई. इन्हें जीवाणु नाम दिया।
◆ 1843-1910 ई. में रॉबर्ट कोच (Robert Koch) ने हैजा (Cholera) तथा तपेदिक (Tuberculosis) के जीवाणुओं की खोज की तथा रोग का जर्म सिद्धान्त (Germ Theory of Disease) प्रतिपादित किया।
◆ 1812-1892 ई. में लुई पाश्चर ने रेबीज का टीका और दूध के पाश्चुराइजेशन (Pasteurization) की खोज की।
◆ आकृति के आधार पर जीवाणु कई प्रकार के होते हैं –
(i) छड़ाकार ( Bacillus) : ये छड़नुमा या बेलनाकार होते हैं।
(ii) गोलाकार (Cocus) : ये गोलाकार एवं सबसे छोटे जीवाणु होते हैं।
(iii) सर्पिलाकार ( Spirillum) : ये स्प्रिंग या स्क्रू के आकार के होते हैं।
(iv) कोमा आकार (Comma Shaped) या विब्रियो (Vibrio) : ये अंग्रेजी के चिह्न कोमा (,) के आकार के होते हैं। उदाहरणार्थ- विब्रियो कॉलेरी |
◆ ऐजोटोबैक्टर (Azotobacter), एजोसपाइरिलम (Azospirillum) तथा क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium) जीवाणु की कुछ जातियाँ स्वतन्त्र रूप से मिट्टी में निवास करती हैं व मिट्टी के कणों के बीच स्थित वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती है।
◆ एनबीना (Anabaena) तथा नॉस्टॉक (Nostoc) नामक सायनोबैक्टीरिया वायुमंडल की N2 का स्थिरीकरण करते हैं।
◆ राजोबियम (Rhizobium) तथा ब्रैडीराइजोबियम (Brdyrhizobium) इत्यादि जीवाणु की जातियाँ लैग्यूमिनोसी (मटर कुल) के पौधे की जड़ों में रहती हैं और वायुमंडलीय N2 का स्थिरीकरण करती हैं।
◆ दूध को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने के लिए इसका पाश्चुरीकरण (Pasteurization) करते हैं। इसकी दो विधियाँ हैं –
(i) LTH Method (Low Temperature Holding Method) : दूध को 62.5°C पर 30 मिनट तक गरम करते हैं।
(ii) HTST Method (High Temperature Short Time Method) : दूध को 71.7° पर 15 सेकंड तक गरम करते हैं।
◆ चर्म उद्योग में चमड़े से बालों और वसा हटाने का कार्य जीवाणुओं के द्वारा होता है। इसे चमड़ा कमाना (Tanning) कहते हैं ।
◆ आचार, मुरब्बे, शर्बत को शक्कर की गाढ़ी चासनी में या अधिक नमक में रखते हैं ताकि जीवाणुओं का संक्रमण होते ही जीवाणुओं का जीव द्रव्यकुंचन (Plasmolyis) हो जाता है तथा जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, इसलिए आचार, मुरब्बे बहुत अधिक दिनों तक खराब नहीं होते हैं।
◆ शीत भंडार (Cold Storage) में न्यूनताप (-10°C से – 18°C) पर सामाग्री का संचय करते हैं।
ब्रायोफाइटा (Bryophyta )
◆ यह सबसे सरल स्थलीय पौधों का समूह है। इस समूह में लगभग 25000 जातियाँ सम्मिलित की जाती हैं।
◆ इसमें संवहन ऊतक अर्थात् जाइलम एवं फ्लोएम का पूर्णतः अभाव होता है।
◆ इस समुदाय को वनस्पति जगत का एम्फीबिया वर्ग भी कहा जाता है।
◆ इस समुदाय के पौधे मृदा अपरदन (Soil Erosion) को रोकने में सहायता प्रदान करते हैं।
◆ स्फेगनम (Sphagnum) नामक मॉस (Moss) अपने स्वयं के भार से 18 गुना अधिक पानी सोखने की क्षमता रखता है। इसलिए माली इसका उपयोग पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय सूखने से बचाने के लिए करते हैं ।
◆ स्फेगनम मॉस का प्रयोग ईंधन (Fuel) तथा ऐन्टिसेप्टिक (Antiseptic) के रूप में भी किया जाता है।
टेरिडोफाइटा (Pteridophyta )
◆ इस समूह के पौधे नमी, छायादार स्थानों, जंगलों एवं पहाड़ों पर अधिकता से पाये जाते हैं।
◆ पौधे का शरीर जड़, तना, शाखा एवं पत्तियों में विभेदित रहता है। तना साधारण राइजोम के रूप में रहता है।
◆ पौधे बीजाणु जनक होते हैं और जनन की क्रिया बीजाणु के द्वारा होती है।
◆ इस समुदाय के पौधों में संवहन ऊतक पूर्ण विकसित होते हैं, परन्तु जाइलम में सेल (Vessels) एवं फ्लोएम (Phloem) में सहकोशाएँ (Companion Cell) नहीं होती हैं।
पुष्पोदभिद् / फूलों वाला पौधा (Phanerogamus)
◆ इस समूह के पौधे पूर्ण विकसित होते हैं। इस समूह के सभी पौधों में फूल, फल तथा बीज होते हैं। इस समूह के पौधों को दो उप-समूहों में बाँटा गया है- नग्नबीजी/अनावृत्त बीजी (Gymnosperm) व आवृत्तबीजी (Angiosperm) ।
नग्नबीजी/ अनावृत्त बीजी (Gymnosperm)
◆ इनके पौधे वृक्ष, झाड़ी या आरोही के रूप में होते हैं।
◆ पौधे काष्ठीय, बहुवर्षी और लंबे होते हैं।
◆ इनकी मुसला जड़ें पूर्ण विकसित होती हैं।
◆ परागण की क्रिया वायु द्वारा होती है।
◆ ये मरूद्भिद (Xerophytic) होते हैं।
◆ वनस्पति जगत का सबसे ऊँचा पौधा सिकोया संम्परविरेंस इसी के अन्तर्गत आता है। इसकी ऊँचाई 120 मीटर है। इसे कोस्ट रेडबुक ऑफ कैलीफीर्निया भी कहा जाता है।
◆ सबसे छोटा नग्नबीजी पौधा जैमिया पिग्मिया है।
◆ जीवित जीवाश्म साइकस (Cycas), जिंगो बाइलोबा (Ginkgo biloba) व मेटासिकाया (Metasequoia) है।
◆ जिंगो बाइलोबा (Ginkgo biloba) को मेडन हेयर ट्री (Maiden Hair Tree) भी कहते हैं।
◆ साइकस (Cycas) के बीजाण्ड (Ovules) एवं नरयुग्मक (Antherogoids) पादप जगत में सबसे बड़े होते हैं।
◆ पाइनस के परागकण इतनी तादाद में होते हैं कि पीले बादल (Sulpher Showers) बन जाते हैं।
नग्नबीजी पौधों का आर्थिक महत्त्व
(i) भोजन के रूप में : साइकस के तनों से मंड निकालकर खाने वाला साबूदाना (Sago) बनाया जाता है। इसलिए साइकस को सागोपाम कहते हैं।
(ii) लकड़ी : चीड़ (Pine), सिकोया, देवदार, स्प्रूस आदि की लकड़ी से फर्नीचर बनते हैं।
(iii) वाष्पीय तेल : चीड़ के पेड़ से तारपीन का तेल, देवदार की लकड़ी से सेड्स तेल (Cedrus Oil) तथा जूनीपेरस की लकड़ी से सेडस्काष्ठ तेल मिलता है।
(iv) टेनिन : चमड़ा बनाने (Tanning) तथा स्याही बनाने के काम आता है।
(v) रेजिन : कुछ शंकु पौधों से रेजिन निकाला जाता है। जिसका प्रयोग वार्निश, पॉलिश, पेंट आदि बनाने में होता है।
आवृत्तबीजी (Angiosperm )
◆ आवृत्तबीजी का अर्थ है ‘ढका हुआ बीज’ क्योंकि इस वर्ग के पौधों में बीज अंडाशय (Ovary) में बनता है। अर्थात् इस उपसमूह के पौधों में बीच फल के अंदर होते हैं।
◆ इनके पौधों में जड़, पत्ती, फूल, फल एवं बीज सभी पूर्ण विकसित होते हैं।
◆ इस समूह के पौधों में बीजपत्र होते हैं। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर इस समूह के पौधों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है
1. एकबीजपत्री (Monocotyledonae)
2- द्विबीजपत्री ( Dicotyledonae)
◆ एकबीजपत्री पौधे (Monocotyledonae) : उन पौधों को कहते हैं, जिनके बीज में सिर्फ एकबीजपत्र होता है। इनके कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में वर्णित है –
क्र. कुल का नाम प्रमुख पौधों के नाम
1. लिलिएसी(Liliaceae) लहसुन, प्याज
2. म्यूजेसी (Musaceae) केला
3. पाल्मी (Palmae) सुपारी, ताड़, नारियल, खजूर
4. ग्रेमिनेसी (Gramineceae) गेहूँ, मक्का, बाँस, गन्ना, चावल, ज्वार, बाजरा, जौ, जई आदि।
◆ द्विबीजपत्री पौधे (Dicotyledonae) : इस वर्ग में वे पौधे आते हैं, जिनके पौधों के बीजों में दो पत्र होते हैं। इस कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में वर्णित है –
क्र. कुल का नाम प्रमुख पौधों के नाम
1. क्रूसीफेरी (Cruciferae) शलजम, सरसों, मूली
2. मालवेसी (Malvaceae) कपास, भिन्डी, गुड़हल
3. लेग्यूमिनोसी (Leguminasae) बबूल, छुईमुई, कत्था, गुलमोहर, अशोक, कचनार, इमली तथा सभी दलहन वाली फसलें।
4. कम्पोजिटी (Compositae) सूरजमुखी, भृंगराज, कुसुम, गेंदा, सलाद, जीनीया, डहेलिया आदि ।
5. रुटेसी (Rutaceae) नींबू, चकोतरा, सन्तरा, मुसम्मी, बेल, कैथ, कामिनी आदि।
6. कुकुबिटेसी (Cucurbitaceae) तरबूज, खरबूजा, टिन्डा, कद्दू, लौकी, जीरा, ककड़ी, परवल, चिचिन्डा, करेला आदि।
7. रोजेसी (Rosaceae) स्ट्राबेरी, सेब, बादाम, नाशपाती, खुबानी, आडू, गुलाब, रसभरी आदि।
8. मिरटेसी (Myrtaceae) अमरूद, यूकेलिप्टस, जामुन, मेंहदी।
9. अम्बेलीफेरी (Umbelliferae) धनिया, जीरा, सौंफ, गाजर आदि ।
10. सोलेनेसी (Solanaceae) आलू, मिर्च, बैंगन, मकोय, धतूरा, बैलाडोना, टमाटर आदि।
2. पादप आकारिकी (Plant Morphology )
◆ आकारिकी के अन्तर्गत हम पौधों के शरीर की बाह्य रचना का अध्ययन करते हैं। जड़, तना, पत्ती, पुष्प, पुष्पक्रम, फल आदि के रूपों तथा गुणों के अध्ययन को आकारिकी कहते हैं।
जड़ (Root)
◆ जड़ पौधों का अवरोही भाग है, जो मूलांकुर से विकसित होता है।
◆ जड़ सदैव प्रकाश से दूर भूमि में वृद्धि करती है।
◆ जड़ें दो प्रकार की होती है –
(i) मूसला जड़ (Tap Root) तथा
(ii) अपस्थानिक जड़ ( Adventitious Root)
मूसला जड़ों का रूपांतरण
जड़ें उदाहरण
शंकु आकार (Conical) गाजर
कुंभी रूप (Napiform) चुकंदर, शलजम
तर्कु रूपी (Fusiform) मूली
श्वसन-मूल (Pneumatophores) मेन्ग्रूव वनस्पति
तना ( Stem )
◆ यह पौधे का वह भाग है, जो प्रकाश की ओर वृद्धि करता है।
◆ यह प्रांकुर से विकसित होता है। यह पौधे का प्ररोह तन्त्र बनता है।
तनों का रूपांतरण
भूमिगत तने उदाहरण
कंद ( Tuber) आलू
घनकंद (Corm) बन्डा, केसर
शल्ककंद (Bulb ) प्याज
प्रकंद (Rhizome) हल्दी, अदरक
पत्ती (Leaf)
◆ यह हरे रंग की होती है। इसका मुख्य कार्य प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया के द्वारा भोजन बनाना है।
पुष्प (Flower)
◆ यह पौधे का जनन अंग है।
◆ पुष्प में बाह्य दलपुंज ( Calyx), दलपुंज (Corolla), पुमंग (Androecium) और जायांग (Gynoecium) पाये जाते हैं। इनमें से पुमंग नर जननांग तथा जायांग मादा जननांग है।
◆ पुमंग (Androecium) : इसमें एक या एक से अधिक पुंकेसर (Stamens) होते हैं। पुंकेसर में परागकण (Pollen Grains) पाये जाते हैं।
◆ जायांग (Gynoecium) : इसमें अंडप (Carpels) होते हैं। अंडप के तीन भाग होते हैं- (i) अंडाशय (Ovary) (ii) वर्तिका ( Style) एवं (iii) वर्तिकाग्र (Stigma)।
◆ परागण (Pollinaion) : परागकोष (Anther) से निकलकर अंडप के वर्तिकाग्र पर परागकणों के पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। परागण दो प्रकार के होते हैं- (i) स्व-परागण (SelfPollination) (ii) पर-परागण (Cross – Pollination ) |
◆ निषेचन (Fertilization) : परागनली बीजाण्ड में प्रवेश करके बीजाण्डकाय को भेदती हुई भ्रूणकोष तक पहुँचती है और परागकणों को वहाँ छोड़ देती है। इसके बाद एक नर युग्मक एक अण्डकोशिका से संयोजन करता है। इसे निषेचन कहते हैं। निषेचित अण्ड युग्मनज (Zygote) कहलाता है।
◆ आवृत्तबीजी (Angiosperm) में निषेचन त्रिक-संलयन (Tripple Fusion) जबकि अन्य वर्ग के पौधों में द्वि-सलंयन (Double-Fusion) होता है।
◆ अनिषेक फलन (Partheno Carpy) : कुछ पौधों में बिना निषेचन हुए ही अंडाशय से फल बन जाता है। इस तरह बिना निषेचन हुए फल के विकास को अनिषेक फलन (Pharthenocarpy) कहते हैं। इस प्रकार के फल बीजरहित होते हैं। जैसे- केला, पपीता, नारंगी, अंगूर, अनन्नास आदि ।
फलों का निर्माण
◆ फल का निर्माण अंडाशय से होता है।
◆ सम्पूर्ण फलों को तीन भागों में विभाजित किया गया है –
(i) सरल फल (Simple Fruit ) : जैसे- अमरूद, केला आदि।
(ii) पुंज फल (Aggregate Fruit ) : जैसे- स्ट्राबेरी, रसभरी आदि ।
(iii) संग्रथित फल (Composit Fruit) : जैसे- कटहल, शहतूत आदि।
◆ कुछ फलों के निर्माण में बाह्य दलपुंज, दलपुंज या पुष्पासन आदि भाग लेते हैं, ऐसे फलों को असत्य फल (False Fruit ) कहते हैं। जैसे- सेब, कटहल आदि ।
कुछ फल तथा उनके खाने योग्य भाग
फल के नाम फल का प्रकार खाने योग्य भाग
सेब (Apple) पोम गूदेदार पुष्पासन
नाशपाती (Pear) पोम गूदेदार पुष्पासन
आम (Mango) डुप मध्य फलभित्ति
बेर (Chinese Date) अष्ठिल बाह्य एवं मध्य फलभित्ति
अमरूद (Guava) बेरी फलभित्ति एवं बीजाण्डसन
अंगूर (Grapes) बेरी फलभित्ति एवं बीजाण्डसन
पपीता (Papaya) बेरी मध्य फलभित्ति
नारियल (Coconut) अष्ठिल भ्रूण पोष
टमाटर (Tomato) बेरी फलभित्ति एवं बीजाण्डसन
केला (Banana) बेरी मध्य एवं अन्तः फलभित्ति
बेल (Wood Apple) बेरी मध्य एवं अन्तः फलभित्ति बीजाण्डसन
तरबूज (Watermelon ) पीपो मध्य एवं अन्तः फलभीत्ति
नींबू (lemon) हेस्पिरिडियम अन्तः भित्ति से विकसित एक कोशिकीय रसीले रोम, रसदार बीजाण्डसन
अनार (Pomegranate) बलौस्टा सीले बीजचोल
गेहूँ (Wheat) कैश्योसिस भ्रूणपोष एवं भ्रूण
काजू (Cashewnut) नट पुष्पवृन्त एवं बीजपत्र
लीची (Litchi) नट गूदेदार एरिल
सिंघाड़ा (Water Chest Nut) नट बीजपत्र
चना (Gram) संपुटी फली बीजपत्र एवं भ्रूण
सेम (Kidney Bean) संपुटी फली बीजपत्र एवं भ्रूण
भिन्डी (Lady’s Finger) केप्सूल सम्पूर्ण फल
इमली (Tamarind) लोमेन्टम मध्य फलभित्ति
मूँगफली (Groundnut) लोमेन्टम बीजपत्र एवं भ्रूण
धनियाँ (Coriander) क्रीमोकार्प पुष्पासन एवं बीज
शरीफा (Custurd Apple) बेरी का पुंज गूदेदार फलभित्ति
शहतूत (Mulberry) सोरोसिस रसीले परिदल पुंज
कटहल (Jack Fruit) सोरोसिस सहपत्र, परिदल एवं बीज
अनन्नास (Pineapple) सोरोसिस सहपत्र, परिदल, रेकिस व फलभित्ति
3. पादप ऊतक (Plant Tissue)
◆ समान उत्पत्ति, संरचना एवं कार्यों वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक (Tissue) कहते हैं।
◆ विभज्योतकी ऊतक (Meristematic Tissue) : पौधे के वर्धी क्षेत्रों (Growing Regions) को विभज्योतकी (Meristem) कहते हैं। इनसे बनी संतति कोशिकाएँ वृद्धि करके पौधे के विभिन्न अंगों का निर्माण करती हैं। यह प्रक्रिया पौधे के जीवनपर्यंत चलती है। विभज्योतकी ऊतक के विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित हैं –
(i) ये गोल अंडाकार या बहुभुजाकार होती है।
(ii) इनकी भित्तियाँ पतली तथा एकसार (Homogeneous) होती है।
(iii) जीवद्रव्य सघन, केन्द्रक बड़े तथा रसधानी छोटी होती है।
(iv) कोशिकाओं के बीच अंतरकोशिकीय स्थानों का अभाव होता है।
◆ शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical Meristems) : ये ऊतक जड़ों अथवा तनों के शीर्षों पर पाये जाते हैं तथा पौधे की प्राथमिक वृद्धि (विशेषकर लंबाई में) इन्हीं के कारण होती है।
◆ पाश्वर विभज्योतक (Lateral Meristems) : इनमें विभाजन होने से जड़ तथा तने के घेरे (girth) में वृद्धि होती है। अर्थात् इससे तना एवं जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है।
◆ अन्तर्वेशी विभज्योतक (Intercalary Meristems) : यह वास्तव में शीर्षस्थ विभज्योतक का अवशेष है जो बीच में स्थाई ऊतकों के आ जाने से अलग हो गये हैं। इनकी क्रियाशीलता से भी पौधा लंबाई में वृद्धि करता है। इसकी महत्ता वैसे पौधे के लिए है, जिसके शीर्षाग्र को शाकाहारी जानवर खा जाते हैं। शीर्षाग्र खा लिए जाने पर ये पौधे अन्तर्वेशी विभज्योतक की सहायता से ही वृद्धि करते हैं। जैसे- घास |
◆ स्थायी ऊतक (Permanent Tissue) : स्थायी ऊतक उन परिपक्व कोशिकाओं के बने होते हैं, जो विभाजन की क्षमता खो चुकी हैं तथा विभिन्न कार्यों को करने के लिए विभेदित हो चुकी हैं। ये कोशिकाएँ मृत अथवा जीवित हो सकती है।
◆ सरल ऊतक (Simple Tissue) : यदि स्थायी ऊतक एक ही प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें सरल ऊतक कहते हैं।
◆ जटिल ऊतक (Complex Tissue) : यदि स्थायी ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें जटिल ऊतक कहते हैं।
◆ जाइलम (Xylem) : इसे प्रायः काष्ठ (Wood) भी कह देते हैं। यह संवहनी ऊतक है। इसके मुख्यतः दो कार्य हैं –
(i) जल एवं खनिज लवणों का संवहन एवं
(ii) यान्त्रिक दृढ़ता प्रदान करना ।
◆ पौधे की आयु की गणना जाइलम ऊतक के वार्षिक वलय (Annual Rings) को गिनकर ही की जाती है। पौधे की आयु के निर्धारण की यह विधि डेन्ड्रोक्रोनोलॉजी (Dendrochronology) कहलाती है।
◆ फ्लोएम (Phloem) : यह भी एक संवहन ऊतक है। इसका मुख्य कार्य पत्तियों द्वारा बनाये गये भोजन को पौधे के अन्य भागों में पहुँचाना है।
4. प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis)
◆ पौधों में जल, प्रकाश, पर्णहरित (Chlorophyll) तथा कार्बन डाइऑक्साइड की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट के निर्माण को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। इसे नीचे दिये गये सूत्र से व्यक्त किया जा सकता है –
◆ कार्बन डाइऑक्साइड, पानी, पर्णहरित और सूर्य का प्रकाश, प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक है।
◆ पत्ती की कोशिकाओं में जल शिरा से परासरण (Osmosis) द्वारा एवं CO2 वायुमंडल से विसरण (Diffusion) द्वारा जाता है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक जल पौधों की जड़ों के द्वारा अवशोषित किया जाता है एवं प्रकाश-संश्लेषण के दौरान निकलने वाला ऑक्सीजन इसी जल के अपघटन से प्राप्त होता है।
◆ पर्णहरित (Chlorophyll) पत्तियों में हरे रंग का वर्णक है। इसके चार घटक हैं- क्लोरोफिल a, क्लोरोफिल b, कैरोटीन तथा जैथोंफिल। इनमें क्लोरोफिल a एवं b हरे रंग का होता है और ऊर्जा स्थानांतरित करता है। यह प्रकाश संश्लेषण का केन्द्र होता है।
◆ क्लोरोफिल के केन्द्र में मैग्नीशियम (Mg) का एक परमाणु होता है।
◆ क्लोरोफिल प्रकाश में बैंगनी, नीला तथा लाल रंग को ग्रहण करता है।
◆ प्रकाश की दर लाल रंग के प्रकाश में सबसे अधिक एवं बैंगनी रंग के प्रकाश में सबसे कम होती है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया एक उपचयन-अपचयन (Oxidation-Reduction) की क्रिया है। इसमें जल का उपचयन (Oxidation) ऑक्सीजन बनने में तथा कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन (Reduction) ग्लूकोज / शर्करा के निर्माण में होता है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया की दो अवस्थाएँ होती हैं –
(i) प्रकाश रासायनिक क्रिया (Photochemical Reaction) : यह क्रिया क्लोरोफिल के ग्राना (Grana) में होती है। इसे हिल क्रिया (Hill Reaction) भी कहते हैं। इस क्रिया में जल का अपघटन होकर हाइड्रोजन आयन तथा इलेक्ट्रॉन बनता है। जल के अपघटन के लिए ऊर्जा प्रकाश द्वारा मिलती है। इस प्रक्रिया के अंत में ऊर्जा के रूप में ATP तथा NADPH निकलता है, जो रासायनिक प्रकाशहीन प्रतिक्रिया संचालित करने में मदद करता है।
(ii) रासायनिक प्रकाशहीन क्रिया (Chemical Dark Reaction) : यह क्रिया क्लोरोफिल के स्ट्रोमा में होती है। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन होकर शर्करा, स्टार्च आदि बनता है।
5. पादप हार्मोन (Plant Hormones)
◆ हार्मोन विशेष कार्बनिक यौगिक है जो बहुत लघु मात्रा में वृद्धि एवं उपायचयी क्रियाओं को प्रभावित व नियंत्रित करते हैं। इन्हें वृद्धि नियंत्रक पदार्थ (Growth Regulator Substance) भी कहते हैं।
◆ पौधों में पाये जाने वाले हार्मोंस निम्नलिखित हैं –
(i) ऑक्सिन्स ( Auxins)
◆ इसकी खोज 1880 ई. में डार्विन ने की थी।
◆ यह पौधे की वृद्धि को नियंत्रित करने वाला हार्मोन है।
◆ इसका निर्माण पौधे के ऊपरी हिस्सों में होता है।
◆ इसके मुख्य कार्य निम्न हैं –
(a) इसके कारण पौधों में शीर्ष की प्रमुखता हो जाती है और पावय कक्षीय कलिकाओं की वृद्धि रूक जाती है।
(b) यह पत्तियों का विलगन रोकता है।
(c) यह खर-पतवार को नष्ट कर देता है।
(d) इसके द्वारा अनिषेक फल प्राप्त किये जाते हैं।
(e) यह फसलों को गिरने से बचाता है।
(ii) जिबरेलिन्स (Gibberellins)
◆ इसकी खोज जापानी वैज्ञानिक कुरोसावा (Kurosawa) ने 1926 ई. में की।
◆ यह बौने पौधों को लंबा कर देता है। यह फूल बनने में भी मदद करता है।
◆ यह बीजों की प्रसुप्ति भंग कर उनको अंकुरित होने के लिए प्रेरित करते हैं।
◆ ये काष्ठीय पौधों में एधा (Cambium) की सक्रियता को बढ़ाते हैं।
◆ इसके छिड़काव द्वारा बृहत् आकार के फल तथा फूलों का उत्पादन किया जा सकता है।
(iii) साइटोकाइनिन (Cytokinins)
◆ इसकी खोज मिलर ने 1955 ई. में की थी, परन्तु इसका नामकरण लिथाम ने किया।
◆ यह प्राकृतिक रूप से ऑक्जिन के साथ मिलकर काम करता है।
◆ यह ऑक्जिन की उपस्थिति में कोशिका विभाजन और विकास में मदद करता है।
◆ यह हार्मोन जीर्णता को रोकता है।
◆ यह RNA एवं प्रोटीन बनाने में सहायक है।
(iv) एबसिसिक एसिड (Abscisic Acid -ABA )
◆ इस हार्मोन की खोज पहले 1961-1965 ई. में कार्न्स एवं एडिकोट तथा बाद में वेयरिंग ने की ।
◆ यह वृद्धिरोधक हार्मोन है।
◆ यह बीजों को सुषुप्तावस्था में रखता है।
◆ यह पत्तियों के विलगन में मुख्य भूमिका अदा करता है ।
◆ यह पुष्पन में बाधक होता है।
(v) इथीलीन (Ethylene)
◆ यह एकमात्र ऐसा हार्मोन है जो गैसीय रूप में पाया जाता है।
◆ 1962 ई. में बर्ग (Burg) ने इसे हार्मोन के रूप में प्रमाणित किया ।
◆ यह भी वृद्धिरोधक हार्मोन है।
◆ यह फलों को पकाने में सहायता करता है।
◆ यह मादा पुष्पों की संख्या में वृद्धि करता है।
◆ यह पत्तियों, पुष्पों व फलों के विलगन को प्रेरित करता है।
(vi) फ्लोरिजेन्स (Florigens)
◆ ये पत्ती में बनते हैं, लेकिन फूलों के खिलने में मदद करते हैं। इसलिए इन्हें फूल खिलाने वाले हार्मोन (Flowering Hormones) भी कहते हैं।
(vii) ट्राउमैटिन (Traumatin)
◆ यह एक प्रकार का डाइकार्बोक्सिलिक अम्ल (Dicarbozylic Acid) है। इसका निर्माण घायल कोशिका में होता है, जिससे पौधों के जख्म भर जाते हैं ।
6. पादप गतियाँ (Plant Movement)
◆ पौधों में गति गुरुत्वबल, प्रकाश, ताप तथा संवेदन से प्रेरित होती है।
◆ गुरुत्वबल के कारण ही जड़ें हमेशा जमीन की तरफ तथा तना हमेशा जमीन से विपरीत दिशा में जाता है। इसी प्रकार प्रकाश के प्रभाव से जड़ें प्रकाश के विपरीत तथा तना प्रकाश की दिशा में जाना चाहता है ।
◆ पादप की कुछ विशेष गतियाँ निम्नलिखित प्रकार से होती हैं –
(i) स्पर्शानुर्वन (Thigmotropism) : उदाहरण- लौकी, ककड़ी आदि का प्रतान हमेशा दूसरे वस्तु से लिपटकर आग बढ़ते रहते हैं। उद्दीपन घर्षण से प्रेरित होता है।
(ii) कंपानुकुंचनी गति (Seismonastic Movement) : उदाहरण- छुई-मुई (Mimosapudica) की पत्तियाँ छूते ही झुक जाती है।
(iii) प्रकाशनुकुंचनी गति ( Photonastic Movement) : उदाहरण- सूर्यमुखी का फूल हमेशा सूर्य के प्रकाश की ओर रहता है।
7. पादप रोग (Plant Diseases)
(i) विषाणुजनित रोग (Viral Diseases)
(a) तंबाकू का मोजेक रोग : इस रोग में पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा छोटी हो जाती हैं। पत्तियों में क्लोरोफिल नष्ट हो जाता है। इस रोग का कारक टोबैको मोजेक वायरस (TMV) है ।
नियंत्रण : रोग से प्रभावित पौधों को इकट्ठा करके जला देना चाहिए। फसल परिवर्तन विधि को अपनाना चाहिए। रोगरोधी प्रजाति बोना चाहिए।
(b) पोटेटो मोजेक (Potato Mosaic) : यह रोग पोटेटो वाइरस – x (Potato Vtus-x) से होता है। इसमें पत्तियों में चितकबरापन तथा बौनापन के लक्षण दिखायी देते हैं।
(c) बंकी टाफ ऑफ बनाना (Bunchy Top of Banana): यह रोग बनाना वाइरस – 1 (Banana Virus – 1) द्वारा होता है। इस रोग में पौधे बौने तथा सभी पत्तियाँ शिखा पर गुलाबवत् एकत्रित हो जाती हैं।
(d) रंग परिवर्तन (Colour Change) : हरिमाहीनता एक विषाणुजनित रोग है। इस रोग में पूरी पत्ती का रंग पीला, सफेद या मोजेक पैटर्न का हो जाता है।
(ii) जीवाणुजनित रोग (Bacterial Diseases)
(a) आलू का शैथिल रोग (Wilt Diseases of Potato) : इसको रिंग रोग ( Ring Disease) के नाम से भी जानते हैं क्योंकि जाइलम पर भूरा रंग बन जाता है। इस रोग का कारक स्यूडोमोनास सोलेनेसियेरम (Pseudomonas Solana Cearum) नामक जीवाणु है । यह रोग मिट्टी से फैलता है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है। इस रोग से 70% का नुकसान हो सकता है।
(b) ब्लैक आर्म / एंगुलर लीफ स्पॉट ऑफ काटन (Black Arm / Angular Leaf Spot of Cotton) : इस रोग का कारक जैन्थोमोनास (Xaznthomonas) नामक जीवाणु है। इस रोग में पत्ती पर छोटी-सी जलाद्र संरचना (भूरा रंग) हो जाती है।
(c) धान का अंगमारी रोग (Bacterial Blight of Rice) : यह रोग जैन्थोमोनास ओराइजी (Xaznthomonas Oryzae) नामक जीवाणु से होता है। इसमें पत्तियों की एक या दोनों सतहों पर पीला-हरा स्पॉट दिखायी देता है। इस रोग का संचरण बीज के माध्यम से होता है।
(d) साइट्स कैंकर (Sitrus Canker) : इस रोग का कारक जैन्थोमोनास सीट्री (Xaznthomonas Citri) नामक जीवाणु है। यह रोग नींबू उत्पादन के लिए गंभीर समस्या पैदा करता है। इस रोग की उत्पत्ति चीन में हुई थी।
(e) गेहूँ का टून्डू रोग (Tundu Disease of Wheat) : इस रोग में पत्तियों के नीचे का भाग मुरझाकर मुड़ जाता है। यह रोग फसल पकने पर दिखायी देता है। इस रोग का कारक कोरीनोबेक्टिरियम ट्रिटिकी (Corynebacterium Tritici) नामक जीवाणु तथा एन्जूइना ट्रिटिकी (Anguina Tritici) नामक नेमैटोड है । इस रोग पर नियंत्रण रोग से मुक्त बीज बोकर किया जा सकता है।
(iii) कवकीय रोग (Fungal Diseases)
(a) आलू का वार्ट रोग (Wart Disesae of Potato) : इस रोग में आलू के टयूबर में काले धागे जैसी संरचना बन जाती है और कभी-कभी पूरा आलू सड़ जाता है। इसका कारक सिनकीट्रियस इन्डोबायोटिकम (Synchyrium Endobioticum) नामक कवक है ।
(b) डैम्पिंग ऑफ (Damping – Off) / आर्द्र-गलन : बीज इस रोग से प्रभावित भूमि में उगने में असमर्थ होते हैं या उगते ही मर जाते हैं। जड़ों में कवकों का प्रभाव होता है। इस रोग का कारण पाइथीयम (Pythium sp.) नामक कवक है।
(c) आलू का उत्तरभावी अंगमारी रोग (Late Blight of Potato) : इस रोग में पत्तियों पर सर्वप्रथम भूरे धब्बे पड़ते हैं जो कि अनुकूल मौसम में बढ़कर बड़े-बड़े काले धब्बे में बदल जाते हैं। अन्त में पत्तियाँ पूरी तरह झुलस जाती है और पौधा सूख जाता है। इस रोग का कारक फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स (Phytophthora Infestans) नामक कवक है।
(d) बाजरा का ग्रीन इयर रोग (Green Ear Disease of Millet) : इस रोग को डाउन मिल्ड्यू (Down Mildew) रोग भी कहते हैं। इसमें बाजरे की बालियों में हरे रंग के रेशे निकल जाते हैं। जो बाद में काले रंग के पाउडर में बदल जाते हैं। इस रोग का कारक स्केलेरोस्पोरा ग्रेमिकोला (Sclerospora Gramicola) नामक कवक है।
(e) गेहूँ का किट्टू रोग (Rust of Wheat) : इसमें लाल भूरी जंग के समान स्फोट तने और पत्तियों पर दिखायी देता है। इस रोग का कारण पक्सिनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिकी (Puccinia Graminis Tritici) नामक कवक है। इस कवक में पाँच तरह के स्पोर पाये जाते हैं जिसमें से टेल्यूटोस्पोर (Teleutospore) अधिक हानिकारक होते हैं।
(f) गेहूँ का ढीला कंड (Loose Smut of Wheat) : इस रोग में गेहूँ की बालियों में कालिख के समान पाउडर जैसा पदार्थ भर जाता है। इस रोग का कारक अस्टिलागो नूडा ट्रिटिकी (Ustilogo Nuda Tritici) नामक कवक है। यह रोग बीज द्वारा संक्रमित होता है।
(g) ब्लास्ट ऑफ राइस (Blast of Rice) : इस रोग में धान की पत्तियों पर तुर्क आकर के क्षत चिह्न किनारे पर भूरे तथा बीच में राख जैसा हो जाता है। दाने खोखले हो जाते हैं तथा अंकुरों की मुरझान दिखायी पड़ती है।
(h) मूँगफली का टिक्का रोग (Tikka Disease of Groundnut) : पत्ती की दोनों सतहों पर गोल-गोल धब्बे पड़ जाते हैं। इसका कारक सर्कोस्पोरा पर्सोनेटा (Corcospora Personata) नामक कवक है।
(i) गन्ने का रेड राट (Red Rot of Sugarcane) : गन्ने के तने और पत्तियों में लाल धारियाँ हो जाती हैं। तने का छोटा होना, पत्ती का मुरझाना तथा गन्ने का फटना इसका मुख्य लक्षण है। गन्ने के रस में से शराब जैसी गंध आती है। इस रोग का कारण कोलेटोट्रिक्स फालकेटम (Colletotrichum Falcatum) नामक कवक है। नियंत्रण के लिए स्वस्थ गन्ने की बुआई करनी चाहिए।
(j) ब्राउन लीफ स्पाट ऑफ राइस (Brown Leaf Spot of Rice) : इस रोग में पत्तियों पर गोल भूरे चिह्न होते हैं जिनमें बीच में काला पड़ जाता है। इसे रोग का कारक हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी (Helminthosporium Oryzea) नामक कवक है। रोग के नियंत्रण के लिए बोडियेक्स मिक्चर, डाइथेन जेड – 78 का छिड़काव करना चाहिए।
(k) बाजरे का इरगाट (Ergot of Millet) : यह रोग क्लेवीसेप्स माइक्रोसेफेला नामक कवक द्वारा होता है।
(l) बाजरे का स्मट (Smut of Millet) : यह रोग टोलीपोस्पोरियम नामक कवक द्वारा होता है।
(m) अरहर का झुलसा रोग (Wilt of Arhar ) : यह रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरियम नामक कवक द्वारा होता है।
(n) कॉफी रस्ट (Coffee Rust ) : यह रोग हेमोलिया बेस्ट्रोफिक्स नामक कवक द्वारा होता है।
(o) गेहूँ का पाउडरी मिल्ड्यू रोग (Powdery Mildwe of Wheat) : इस रोग का कारक इरीसिफे ग्रेमिनिस ट्रिटिकी (Erysiphe Graminis Tritici) नामक कवक है।
(p) राई का इरगाट रोग (Ergot of Rye) : इस रोग का कारक क्लेवीसेप्स परपूरिया (Claviceps purpurea) नामक कवक है।
(q) सरसो का श्वेत गैरिक रोग (White Rust of Mustard) : इस रोग का कारक सिस्टोपस नामक कवक है।
(r) आडू का लीफ कर्ल रोग (Leaf Curl of Peach) : इस रोग का कारक टेफ्रिना डेफार्मेन्स नामक कवक है।
(s) तीसी का रस्ट (Rust of Linseed) : इस रोग का कारक मेलेम्पसोरा लिनी नामक कवक है।
(t) धनिए का स्टेम गाल रोग (Stem Gall of Coriander) : इस रोग का कारक प्रोटोमाइसीज मेक्रोस्पोरस नामक कवक है।
(u) अजैविक रोग (Abiotic Disease) : यह रोग पौधों में विभिन्न तत्वों की कमी से उत्पन्न होता है।
पौधों में तत्त्वों की कमी से उत्पन्न रोग
रोग / लक्षण किस तत्त्व की कमी से रोग / लक्षण किस तत्त्व की कमी से
आम एवं बैगन में लिटिल लीफ जस्ता लीची में पत्ती का जलना पोटैशियम
नींबू में डाईबैक ताँबा आँवले में निक्रोसिस बोरीन
नींबू में लिटिल लीफ ताँबा शलजम में वाटर कोर मैंगनीज
फूलगोभी में ब्राउनिंग बोरोन
मटर में मार्श रोग मैंगनीज  गाजर में कोटर स्पॉट कैल्शियम
आलू का ब्लैक हट रोग भंडारण में O2 की कमी मक्का में White Bud जस्ता
धान में खैरा रोग जस्ता चुकन्दर में हट रॉट बोरोन

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