वायुमंडल
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वायुमंडल
◆ पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त गैसीय आवरण को वायुमंडल (Atmosphere) कहते हैं।
◆ वायुमंडल की ऊपरी परत के अध्ययन को वायुर्विज्ञान (Aerology) और निचली परत को अध्ययन को ऋतु विज्ञान (Meterology) कहते हैं।
◆ वायुमंडल के अभाव में चन्द्रमा पर दिन के समय का तापमान 100° से.ग्रे. तक पहुँच जाता है, जबकि रात में यह कम होकर – 100° से.ग्रे. पर आ जाता है। इतने अधिक तापांतर पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
◆ वायुमंडल अनेक गैसों का मिश्रण है और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही इससे बँधा हुआ है।
◆ धरातल के समीपवर्ती भाग में नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन गैस प्रमुखता से मिलती है। सम्पूर्ण वायुमंडलीय आयतन का लगभग 99 प्रतिशत भाग इन्हीं से निर्मित है।
◆ वायुमंडल में उपस्थित पाँच गैसों- नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड एवं हाइड्रोजन को भारी गैस कहा जाता है।
◆ वायुमंडल के संगठन में जलवाष्प एक महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में विद्यमान रहता है और यही समस्त वायुमंडीय घटनाओं के लिए उत्तरदायी भी माना जाता है।
वायुमंडल की गैसीय संरचना
क्र. | गैसें | प्रतिशत आयतन |
1. | नाइट्रोजन | 78.03/78.07 |
2. | ऑक्सीजन | 20.99 |
3. | ऑर्गन | 0.93 |
4. | कार्बन डाइऑक्साइड | 0.03 |
5. | हाइड्रोजन | 0.01 |
6. | नियॉन | 0.0018 |
7. | हीलियम | 0.0005 |
8. | क्रिप्टॉन | 0.0001 |
9. | जिनॉन | 0.000,005 |
10. | ओजोन | 0.000,001 |
वायुमंडल में पाये जाने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण गैस
1. नाइट्रोजन : इसकी प्रतिशत मात्रा सभी गैसों से अधिक है। इसकी उपस्थिति के कारण ही वायुदाब, पवनों की शक्ति तथा प्रकाश के परावर्तन का आभास होता है। इस गैस का कोई रंग, गंध स्वाद नहीं होता । नाइट्रोजन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह वस्तुओं को तेजी से जलने से बचाती है।
2. ऑक्सीजन : यह अन्य पदार्थों के साथ मिलकर जलने का कार्य करती है। ऑक्सीजन के अभाव में हम ईंधन नहीं जला सकते हैं। अतः यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत है।
3. कार्बन डाइऑक्साइड : यह सबसे भारी गैस है और इस कारण यह सबसे निचली परत में मिलती है, फिर भी इसका विस्तार 32 किमी की ऊँचाई तक है। यह गैस सूर्य से आने वाली विकिरण के लिए पारगम्य तथा पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विकिरण के लिए अपारगम्य है। अत: यह काँच घर या पौधा घर (Green House) प्रभाव के लिए उत्तरदायी है और वायुमंडल के निचली परत को गर्म रखती है।
4. ओजोन : ओजोन गैस (O3) ऑक्सीजन का ही एक विशेष रूप है। यह वायुमंडल में अधिक ऊँचाइयों पर ही अति न्यून मात्रा में मिलती है। यह सूर्य से आने वाली तेज पराबैंगनी विकिरण (Ultraviolet Radiations) के कुछ अंश को अवशोषित कर लेती है। यह 10 से 50 किमी की ऊँचाई तक केन्द्रित है। वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में कमी होने से सूर्य की पराबैंगनी विकिरण अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पहुँचकर कैंसर जैसी भयानक बीमारियाँ फैला सकती हैं
◆ गैसों के अतिरिक्त वायुमंडल में जलवाष्प तथा धूल के कण भी उपस्थित हैं।
◆ आकाशगंगा का रंग नीला धूलकण के कारण ही दिखायी देता है।
◆ वायुमंडल में जलवाष्प सबसे अधिक परिवर्तनशील तथा असमान वितरण वाली गैस है।
◆ पृथ्वी के ताप को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी हैं- CO2 एवं जलवाष्प।
वायुमंडल की परतें
◆ वायुमंडल को निम्न परतों में बाँटा गया है- 1. क्षोभमंडल 2. समताप मंडल 3. मध्यमंडल 4. आयन मंडल 5. बहिर्मंडल/बाह्यमंडल।
1. क्षोभमंडल (Troposphere)
◆ यह पृथ्वी की सतह के सबसे नजदीक अर्थात् वायुमंडल की सबसे नीचे की परत है। सभी मौसमी घटनाएँ इसी परत में सम्पन्न होती है।
◆ यह अन्य सभी परतों से घनी है और यहाँ पर जलवाष्प, धूलकण, आर्द्रता आदि मिलते हैं। मौसम सम्बन्धी अधिकांश परिवर्तनों के लिए क्षोभमंडल ही उत्तरदायी है।
◆ इस परत में ऊँचाई के साथ-साथ तापमान घटता है। प्रत्येक 165 मीटर पर 1°C तापमान की कमी हो जाती है। इसे सामान्य ताप ह्रास दर (Normal Lapse Rate of Temperature) कहते हैं।
◆ इस मंडल को संवहन मंडल कहते हैं, क्योंकि संवहन धाराएँ इसी मंडल की सीमा तक सीमित होती हैं। इस मंडल को अधोमंडल भी कहते हैं।
◆ क्षोममंडल के ऊपरी शीर्ष पर स्थित क्षोभमंडल सीमा (Tropopause) इसे समताप मंडल से अलग करती है।
2. समताप मंडल (Stratosphere)
◆ क्षोभ सीमा के ऊपर औसत 50 किमी. की ऊँचाई तक समताप मंडल का विस्तार पाया जाता है।
◆ इसकी निचली सीमा अर्थात् 20 किमी. की ऊँचाई पर तापमान अपरिवर्तित रहता है किन्तु ऊपर की ओर जाने पर उसमें वृद्धि होती रहती है। ऊपर की ओर तापमान की इस वृद्धि का कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet Radiations) का अवशोषण करने वाली ओजोन गैस (O3) की उपस्थिति है।
◆ इस मंडल में बादलों का अभाव पाया जाता है तथा धूलकण एवं जलवाष्प भी नाममात्र को ही मिलते हैं।
◆ यह परत / मंडल वायुयान चालकों के लिए आदर्श होती है।
◆ समताप मंडल के सबसे निचले भाग में प्राय: 15 से 35 किमी. की ऊँचाई पर ओजोन मंडल की उपस्थिति पायी जाती है। ध्यान रहे कि ओजोन गैस में ऑक्सीजन के 3 अणु (O3) पाये जाते हैं। ओजोन गैस पृथ्वी के रक्षा आवरण का काम करती है क्योंकि इसके द्वारा सूर्य से आने वाली तीव्र पराबैंगनी किरणों का अवशोषण कर लिया जाता है एवं पृथ्वी इसके हानिकारक प्रभाव से बच जाती है।
3. मध्य मंडल (Mesosphere)
◆ इस मंडल की ऊँचाई 50 से 80 किमी. होती है।
◆ इसमें ऊँचाई के साथ तापमान में गिरावट होती है और 80 किमी की ऊँचाई (Mesopause) पर तापमान – 100°C हो जाता है।
4. आयन मंडल (Ionosphere)
◆ इसकी ऊँचाई 60किमी. से 640 किमी. तक होती है। यह भाग कम वायुदाब तथा पराबैंगनी किरणों द्वारा आयनीकृत होता है।
◆ इस मंडल में सबसे नीचे स्थित D-layer से Long Radio Waves एवं E1, E2, और F1, F2 परतों (Layers) से Short Ratio Waves परावर्तित होती है, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी पर रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन आदि की सुविधा प्राप्त होती है।
◆ यह परत पृथ्वी की हानिकारक विकिरण से भी रक्षा करता है। इससे इसमें ऊँचाई के साथ तापमान में वृद्धि होती है।
◆ आसमान से पृथ्वी की ओर गिरने वाले उल्कापिण्ड (Meteors) इस मंडल में आकर जल जाते हैं। इस प्रकार यह पृथ्वी की उल्काओं आदि से भी रक्षा करता है।
5. बाह्य मंडल (Exosphere)
◆ यह वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत है।
◆ 640 किमी. से ऊपर के भाग को बाह्य मंडल कहा जाता है।
◆ इस मंडल की बाह्य सीमा अनिश्चित है। इसे अंतरिक्ष व पृथ्वी के वायुमंडल की सीमा माना जा सकता है। इसके बाद अंतरिक्ष का विस्तार है।
◆ इसमें हाइड्रोजन व हीलियम गैसों की प्रधानता होती है।
◆ ऊँचाई के साथ आयनीकृत अणुओं में वृद्धि होती जाती है। इसकी ऊपरी सतह में अत्यधिक आयनीकृत अणुओं की दो परतें पायी जाती हैं जो ‘वॉन ऐलेन की विकिरण परत’ (Van Allen’s Radiation Belts) कहलाती हैं ।
सूर्यातप (Insolation)
◆ सूर्य से पृथ्वी तक पहुँचने वाले सौर विकिरण (Solar Radiation) को सूर्यातप कहते हैं। यह ऊष्मा या ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी पर पहुँचती है और हमारी पृथ्वी का धरातल इसी विकिरित ऊर्जा को 2 कैलोरी प्रति वर्ग से.मी. की दर से प्राप्त करता है।
◆ वायुमंडल की सबसे बाह्य परत पर पहुँचने वाली कुल सौर विकिरित ऊर्जा का 51% भाग ही पृथ्वी को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है जबकि शेष 49% भाग वायुमंडल से गुजरते समय गैस कणों एवं धूलकणों से बिखरकर बादलों से परावर्तित होकर तथा जलवाष्प द्वारा अवशोषित हो जाता है।
◆ किसी भी सतह को प्राप्त होने वाली सूर्यातप की मात्रा एवं उसी सतह से परावर्तित की जाने वाली सूर्याताप की मात्रा के बीच का अनुपात एल्बिडो (Albedo) कहलाता है।
वायुमंडल का गर्म एवं ठंडा होना
◆ वायुमंडल निम्न तीन विधियों से गर्म एवं ठंडी होती है –
(i) विकिरण (Radiation) : किसी भी पदार्थ के ऊष्मा तरंगों के सीधे संचार द्वारा गर्म होने की क्रिया विकिरण कहलाती है। यही एकमात्र ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ऊष्मा बिना किसी माध्यम के शून्य से होकर भी यात्रा कर सकती है। पृथ्वी पर आने तथा वापस जाने वाली सूर्यातप की विशाल मात्रा इसी प्रक्रिया का अनुसरण करती है।
(ii) संचालन (Conduction) : जब असमान तापमान वाली दो वस्तुएँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आती तब अपेक्षाकृत गर्म वस्तु से ठंडी वस्तु में ऊष्मा का थानांतरण होता है। ऊष्मा का यह स्थानांतरण तब तक क्रियाशील रहता है जब तक कि दोनों वस्तुओं का तापमान एक समान नहीं हो जाता या दोनों वस्तुओं के बीच का सम्पर्क टूट नहीं जाता। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि विभिन्न वस्तुओं में ऊष्मा के आदान-प्रदान की क्षमता में भी विभिन्नता पायी जाती है। एक तरफ जहाँ वस्तुएँ ऊष्मा की अच्छी सुचालक होती हैं वहीं लकड़ी, वायु आदि इसके कुचालक हैं। ऊष्मा के संचालन की यह प्रक्रिया वायुमंडल के निचले भागों में अधिक होती है, जहाँ हवा का धरातल से सीधा सम्पर्क होता है। यद्यपि वायुमंडल में ऊष्मा के स्थानांतरण में संचालन की क्रिया सबसे कम महत्त्वपूर्ण है।
(iii) संवहन (Convection) : किसी पदार्थ में एक भाग से दूसरे भाग की ओर उसके तत्त्वों के साथ ऊष्मा के संचार की क्रिया संवहन कहलाती है। यह क्रिया केवल तरल तथा गैसीय पदार्थों में ही संभव होती है, क्योंकि इनके बीच स्थित अणुओं का पारस्परिक सम्बन्ध कमजोर होता है।
समताप रेखा
◆ समान तापमान वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समताप रेखा (Isotherms) के नाम से जाना जाता है। समताप रेखाओं के तीन सामान्य लक्षण होते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
(i) समताप रेखाएँ अधिकतर पूर्व-पश्चिम दिशा में अक्षांश रेखाओं का अनुसरण करती हुई मिलती हैं।
(ii) जहाँ स्थल एवं जल की विषमता के कारण तापांतर अधिक पाया जाता है, वहाँ ये अकस्मात् मुड़ जाती हैं।
(iii) समताप रेखाओं की परस्पर दूरी से अक्षांशीय ताप-प्रवणता या तापांतर दर की तीव्रता का पता चलता है।
तापांतर (Range of Temperature)
◆ अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अंतर को तापांतर (Range of Temperature) कहते हैं। तापांतर दो प्रकार का होता है –
(i) दैनिक तापांतर: किसी स्थान पर किसी एक दिन के अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान अंतर को वहाँ का दैनिक तापांतर कहते हैं। ताप में आये इस अंतर को ताप परिसर कहते हैं।
(ii) वार्षिक तापांतर: जिस प्रकार दिन तथा रात के तापमान में अंतर होता है, उसी प्रकार ग्रीष्म तथा शीत ऋतु के तापमान में भी अंतर होता है। अतः किसी स्थान के सबसे गर्म तथा सबसे ठंडे महीने के मध्यमान तापमान के अंतर को वार्षिक तापांतर कहते हैं। विश्व में सबसे अधिक वार्षिक तापांतर 65.5°C बरखोयांस्क साईबेरिया में स्थित नामक स्थान का है।
◆ किसी भी स्थान विशेष के औसत तापक्रम तथा उसके अक्षांश के औसत तापक्रम के अंतर को तापीय विसंगति (Temperature Anamoly) कहते हैं। तापीय विसंगति की स्थिति औसत से विचलन की मात्रा एवं दिशा को दर्शाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में अधिकतम तापीय विसंगति पायी जाती है, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में यह न्यूनतम पायी जाती है।
◆ समान तापीय विसंगति वाले स्थानों को मिलाते हुए मानचित्र पर खींची जाने वाली रेखा को समताप विसंगति रेखा ( Isonomals) कहते हैं ।
◆ नगरों के केन्द्रीय व्यावसायिक क्षेत्रों (Central Business Districts or CBD) या चौक क्षेत्रों में वर्ष भर सामान्य रूप से मिलने वाला उच्च तापमान का क्षेत्र ऊष्मा द्वीप के नाम से जाना जाता है। इसके कारण नगर विशेष तथा उसके चारों ओर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में तापीय विसंगति की स्थिति पायी जाती है।
वायुमंडलीय दाब, पवन एवं वायु राशियाँ
◆ पृथ्वी की एक निश्चित इकाई या क्षेत्रफल पर वायुमंडल की सभी परतों द्वारा पड़ने वाला दबाव, वायुमंडलीय दाब (Atmospheric Pressure) कहलाता है। इसे वायुदाबमापी (Barometer) से मापा जाता है। वायुमंडलीय दाब को मौसम के पूर्वानुमान के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचक माना जाता है।
◆ वायुमंडलीय दाब की इकाई बार (bar) है। 1 bar = 10s N/m2 होता है।
◆ किसी मानचित्र पर समुद्रतल के बराबर घटाये हुए वायुदाब से तुलनात्मक रूप में समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाकर खींची जाने वाली कल्पित रेखा, समताब रेखा (Isobar) कहलाती है। वायुदाब को मानचित्र पर समदाब रेखा द्वारा दर्शाया जाता है।
◆ किन्हीं भी दो समदाब रेखाओं की पारस्परिक दूरियाँ वायुदाब में अंतर की दिशा एवं उसकी दर को दर्शाती है, जिसे दाब- प्रवणता ( Pressure Gradient) कहते हैं। पास-पास स्थित समदाब रेखाएँ तीव्र दाब – प्रवणता की सूचक होती हैं, जबकि दूर दूर स्थित समदाब रेखाएँ मंद दाब- प्रवणता की।
वायुदाब पेटियाँ
◆ पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब को वायुदाब पेटियों ( Pressure Belts) के आधार पर दर्शाया गया है। पृथ्वी के धरातल पर चार वायुदाब पेटियाँ हैं, जो निम्नलिखित प्रकार से हैं –
1. विषुवत रेखीय निम्न वायुदाब पेटी (Equatorial Low Pressure Belt)
◆ इसका विस्तार दोनों गोलार्द्ध में 0° अक्षांश से 5° अक्षांश तक है।
◆ यहाँ अधिकतम सूर्यातप (Insolation) प्राप्त होता है, अतः वायु गर्म होकर हल्की हो जाती है और ऊपर उठने लगती है। इससे यहाँ निम्न दाब उत्पन्न हो जाता है।
◆ इस क्षेत्र में वायु लगभग गतिहीन या शांत होती है। अतः इसे शांत कटिबंध (Doldrum) भी कहते हैं।
2. उपोष्ण कटिबंधीय उच्चदाब पेटी (Tropical Subtropical High Pressure Belt )
◆ इसका विस्तार दोनों गोलार्द्धों में 30°-35° अक्षांश तक है। अधिक तापमान रहते हुए भी यहाँ उच्च वायुदाब रहता है। इसका कारण पृथ्वी की दैनिक गति एवं वायु में अवकलन एवं अपसरण है।
◆ भूमध्य रेखा से लगातार हवा उठकर यहाँ एकत्रित हो जाती हैं, साथ ही उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी से हवाएँ यहाँ एकत्रित होती हैं। इस कारण यहाँ वायुदाब अधिक होता है।
◆ इस पेटी को अश्व अक्षांश (Horse Latitude) भी कहते हैं क्योंकि प्राचीनकाल में नाविकों को इस क्षेत्र में उच्च वायुदाब के कारण काफी कठिनाई होती थी। अतः उन्हें जलयानों का बोझ हल्का करने के लिए जलयानों से कुछ घोड़ों को समुद्र में डालना पड़ता था।
3. उपध्रुवीय निम्न दाब पेटी (Sub – Polar Low Pressure Belt)
◆ इसका विस्तार दोनों गोलार्द्धों में 60°-65° अक्षांश तक है ।
◆ यहाँ तापमान कम होने के बावजूद भी दाब निम्न है क्योंकि पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण यहाँ से वायु बाहर की ओर फैलकर स्थानांतरित हो जाती है, अतः वायुदाब कम हो जाता है।
◆ इसका दूसरा कारण ध्रुवों पर उच्च दाब की उपस्थिति है।
4. ध्रुवीय उच्चदाब पेटी (Polar High Pressure Belt )
◆ 80° उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों ध्रुवों पर अत्यधिक कम तापमान उच्च वायुदाब की पेटियों की उपस्थिति पायी जाती है।
◆ यह उच्च वायुदाब तापजन्य ही होता है, क्योंकि पृथ्वी की घूर्णन गति का प्रभाव तापमान के बहुत ही कम होने के कारण नगण्य हो जाता है।
◆ इन क्षेत्रों में न्यूनतम तापमान मिलने के कारण ही ठंडी एवं भारी हवा नीचे उतरती है और ध्रुवीय उच्च वायुदाब की पेटियों का निर्माण करती है। इन पेटियों का विस्तार दोनों ध्रुवों के चारों ओर बहुत कम क्षेत्रफल पर सीमित होता है ।
पवन
◆ पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब के क्षेत्रों से निम्न वायुदाब के क्षेत्रों की ओर संचालित होती है।
◆ क्षैतिज रूप में गतिशील होने वाली हवा को ही पवन (Wind) कहते हैं।
◆ वास्तव में वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दिशा में पवन प्रकृति का एक स्वाभाविक प्रयास है।
◆ पवन की दिशा एवं गति को प्रभावति करने वाले प्रमुख कारक इस प्रकार हैं- (i) दाब प्रवणता (ii) पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (iii) कोरिआलिस बल का प्रभाव (iv) अभिकेन्द्रीय त्वरण तथा (v) भूतल से घर्षण एवं उससे उत्पन्न होने वाल गतिरोध
(i) प्रचलित पवन : पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्र पर एक ही दिशा में वर्ष भर चलने वाली पवन को प्रचलित या स्थायी पवन (Prevailing or Permanent Wind) कहा जाता है। ये पवन एक वायुभार कटिबंध से दूसरे वायुभार कटिबंध की ओर नियमित रूप से चला करती है। इसके उदाहरण हैं- (a) पछुआ पवन (b) व्यापारिक पवन, और (c) ध्रुवीय पवन ।
(a) पछुआ पवन : दोनों गोलाद्धों में उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर चलने वाली स्थायी हवाओं को इनकी पश्चिमी दिशा के कारण पछुआ पवन (Westerlies) कहा जता है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। पछुआ पवन का सर्वश्रेष्ठ विकास 40° से 65° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य पाया जाता है. क्योंकि यहाँ जलराशि के विशाल विस्तार के कारण पवन की गति अपेक्षाकृत तेज तथा दिशा निश्चित होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी प्रचण्डता के कारण ही 40° से 50° दक्षिणी अंक्षाश के बीच इन्हें ‘गरजती चालीसा (Roaring Forties) 50° दक्षिणी अक्षांश के समीपवर्ती भाग में ‘प्रचण्ड पचासा’ (Furious Fifties) तथा दक्षिणी अक्षांश के पास ‘चीखती साठा’ (Shrieking Sixties) कहा जाता है।
(b) व्यापारिक पवन : लगभग 30° उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के क्षेत्रों या उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलार्द्ध में वर्ष भर निरंतर प्रवाहित होने वाले पवन को व्यापारिक पवन (Trade Wind) कहा जाता है। कारिऑलिस बल और फेरल के नियम के कारण व्यापारिक पवन उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाता है।
(c) ध्रुवीय पवन : ध्रुवीय उच्च वायुदाब की पेटियों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की पेटियों की ओर प्रवाहित होने वाले पवनों को ध्रुवीय पवन (Ploar Wind) के नाम से जाना जाता है। इन पवनों की वायु राशि अत्यधिक ठंडी एवं भारी होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर होती है। कम तापमान के क्षेत्रों से अधिक तापमान वाले क्षेत्रों की ओर प्रवाहित होने के कारण ये पवनें प्रायः शुष्क होती हैं, क्योंकि इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता कम होती है।
(ii) सामयिक/मौसमी पवन : मौसम या समय के साथ जिन पवनों की दिशा में परिवर्तन पाया जाता है, उन्हें सामयिक या कालिक या मौसमी पवन कहा जाता है। पवनों के इस वर्ग में मानसूनी पवनें, स्थल एवं सागर पवन तथा पर्वत एवं घाटी पवन को शामिल किया जाता है।
(iii) स्थानीय पवन : स्थानीय धरातलीय बनावट, तापमान एवं वायुदाब की विशिष्ट स्थिति के कारण स्वभावतः प्रचलित पवनों के विपरीत प्रवाहित होने वाली हवाएँ स्थानीय हवाओं के रूप में जानी जाती है। इनका प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों पर पड़ता है तथा ये क्षोममंडल की सबसे निम्नवर्ती पर्तों में ही सीमित रहती हैं। इन हवाओं की स्वभावगत विशेषताएँ एवं इनके प्रभाव अलग-अलग प्रकार के होते हैं।
कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानीय पवनें
स्थानीय पवन | प्रकृति | स्थान का नाम |
लू (Loo) | गर्म व शुष्क | उत्तरी भारत-पाकिस्तान |
हबूब (Haboob) | गर्म | सूडान |
चिनूक (Chinook) या (Snow eater) | गर्म व शुष्क | रॉकी पर्वत |
मिस्ट्रल (Mistral) | ठंडी | स्पेन-फ्रांस |
हरमटन (Harmattan) (इसे गिनी डॉक्टर भी कहते हैं) | गर्म व शुष्क | पश्चिम अफ्रीका |
सिरोको (Sirocco) | गर्म व शुष्क | सहारा मरुस्थल |
सिमून (Simoon) | गर्म व शुष्क | अरब मरुस्थल |
बोरा (Bora) | ठंडी व शुष्क | इटली, हंगरी |
ब्लिजर्ड (Blizzard) | ठंडी | दुण्ड्रा प्रदेश |
लेवेन्टर (Levanter) | ठंडी | स्पेन |
ब्रिक फील्डर (Brick Fielder) | गर्म व शुष्क | ऑस्ट्रेलिया |
फ्राइजेम (Fryjeem) | ठंडी | ब्राजील |
पापागयो (Papagayo) | ठंडी व शुष्क | मैक्सिको |
खमसिन (Khamsin ) | गर्म व शुष्क | मिस्र |
सोलानो (Solano) | गर्म व आर्द्रतायुक्त | सहारा |
पुनाज (Punas) | ठंडी व शुष्क | एण्डीज पर्वत |
पुर्गा (Purga) | ठंडी | साइबेरिया |
नॉवेस्टर (Norwester) | गर्म | न्यूजीलैण्ड |
सान्ता एना (Santa Ana) | गर्म व शुष्क | कैलीफोर्निया |
शामल (Shamal) | गर्म व शुष्क | इराक, ईरान |
जोण्डा (Zonda) | गर्म व शुष्क | अर्जेन्टीना |
पैम्पेरो (Pampero) | ठंडी | पम्पास मैदान |
वायु राशियाँ (Air Masses)
◆ वायुमंडल का वह विशाल एवं विस्तृत भाग जिसमें तापमान तथा आर्द्रता के भौतिक लक्षण क्षैतिज दिशा में समरूप हों, वायु राशि कहलाता है। सामान्यतः वायु राशियाँ सैकड़ों किलोमीटर तक विस्तृत होती है। एक वायु राशि में कई परतें होती हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर क्षैतिज दिशा में फैली होती हैं। प्रत्येक परत में वायु के तापमान तथा आर्द्रता की स्थिति लगभग समान होती है । यह जलवायु तथा मौसम के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वाताग्र (Fronts)
◆ दो विभिन्न प्रकार की वायु राशियाँ सुगमता से आपस में मिश्रित नहीं होती हैं और तापमान तथा आर्द्रता सम्बन्धी अपना अस्तित्व बनाये रखने के प्रयास करती है। इस प्रकार दो विभिन्न वायु राशियाँ एक सीमातल द्वारा अलग रहती हैं। इस सीमातल को ही वाताग्र कहते हैं। जब गर्म वायु हल्की होने के कारण ठंडी तथा भारी वायु के ऊपर चढ़ जाती है तो उसे उष्ण वाताग्र (Warm Front) तथा जब ठंडी तथा भारी वायु उष्ण तथा हल्की वायु राशि के विरुद्ध आगे बढ़ती है तो इसे शीत वाताग्र (Cold Front ) कहते हैं ।
आर्द्रता (Humidity)
◆ वायुमंडल में विद्यमान अदृश्य जलवाष्प की मात्रा ही आर्द्रता कहलाती है। यद्यपि वायुमंडल में जलवाष्प कम ही मात्रा (0 से 4% ) में विद्यमान है, फिर भी यह मौसम एवं जलवायु के निर्णायक तत्त्व के रूप में हवा का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। यह तीन तरह की होती है।
(i) निरपेक्ष आर्द्रता (Absolute Humidity) : वायु के प्रति इकाई आयतन में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहा जाता है। इसे अधिकतर ग्राम प्रति घनमीटर (ग्राम / घनमीटर) के रूप में व्यक्त किया जाता है।
(ii) विशिष्ट आर्द्रता ( Specific Humidity) : हवा के प्रति इकाई भार में जलवाष्प के भार का अनुपात विशिष्ट आर्द्रता कहलाता है। इसे ग्राम प्रति किग्रा (ग्राम/किग्रा.) की इकाई में मापा जाता है।
(iii) सापेक्ष आर्द्रता (Relative Humidity) : एक निश्चित तापमान पर निश्चित आयतन वाली वायु की आर्द्रता सामर्थ्य तथा उसमें विद्यमान वास्तविक आर्द्रता के अनुपात को सापेक्ष आर्द्रता कहते हैं। वायु की सापेक्ष आर्द्रता वाष्पीकरण की मात्रा एवं उसकी दर का भी निर्धारण करती है । अतः यह जलवायु के एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में जानी जाती है। सापेक्ष आर्द्रता हवा में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा और उसी तापमान पर हवा की जलवाष्प धारण करने की क्षमता दोनों बातों पर निर्भर करती है।
◆ संतृप्त वायु की सापेक्ष आर्द्रता 100% होती है।
संघनन (Condensation)
◆ जल के गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होने की प्रक्रिया संघनन कहलाती है। यह वास्तव में वाष्पीकरण की विपरीत क्रिया है । संघनन की क्रिया वायुमंडल में विद्यमान सापेक्ष आर्द्रता पर आधारित होती है। संघनन दो कारकों पर निर्भर करता है – (i) तापमान में कमी तथा (ii) वायु की सापेक्ष आर्द्रता ।
ओसांक (Dew Point)
◆ वायु के जिस तापमान पर जल अपनी गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होता है, उसे ओसांक कहते हैं। ओसांक पर वायु संतृप्त हो जाती है और उसकी सापेक्ष आर्दता 100% होती है।
ओस (Dew)
◆ हवा में उपस्थित जलवाष्प जब संघनित होकर नन्हीं बूँदों के रूप में धरातल पर स्थित घास की नोकों तथा पौधों की पत्तियों पर जमा होने लगती है तब इसे ओस कहा जाता है। ओस निर्माण के लिए तापमान का हिमांक (0°C) से ऊपर होना आवश्यक होता है।
तुषार / पाला (Frost)
◆ जब संघनन की क्रिया हिमांक बिन्दु (Freezing Point) से नीचे सम्पन्न होती है तब अतिरिक्त जलवाष्प जलकणों के बजाय हिमकणों में परिवर्तित होकर जमा हो जाती है, जिसे तुषार या पाल कहते हैं। इसके निर्माण के लिए तापमान का हिमांक या उससे नीचे गिरना आवश्यक होता है।
कोहरा (Fog)
◆ वायुमंडल की निचली परतों में एकत्रित धूलकण, धुएँ के रज संघनित जल-पिण्डों को कोहरा कहते हैं। ओसांक से नीचे वायु का तापमान कम होने पर कोहरे का निर्माण होता है। इसमें दृश्यता एक किमी से कम होती है।
कुहासा / धुंध (Mist)
◆ हल्के-फुल्के कोहरे को कुहासा या धुंध कहते हैं। इसमें दृश्यता एक किमी से अधिक किन्तु दो किमी से कम होती है।
चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात
◆ अस्थिर एवं परिवर्तनशील हवाओं के वायुमंडलीय भंवर जिनके केन्द्र में निम्न वायुदाब और केन्द्र के बाहर उच्च वायुदाब होता है, चक्रवात (Cyclones) कहलाते हैं।
◆ चक्रवात के ठीक विपरीत प्रतिचक्रवात (Anticyclones) में निम्न वायुदाब के वृत्ताकार रेखाओं के केन्द्र में उच्च वायुदाब होता है। इस स्थिति में हवाएँ केन्द्र से बाहर की ओर चलती है।
◆ चक्रवात की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई की विपरीत (Anti-clockwise) होती है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई की दिशा में (Clockwise) होती है।
◆ प्रतिचक्रवात की दशा चक्रवात के ठीक विपरीत होती है, अर्थात् उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई के अनुकूल (Clokwise) एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई के विपरीत (Anti-clockwise) होती है।
◆ चक्रवात दो प्रकार के होते हैं- 1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात एवं 2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात ।
1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones)
◆ ये 30° से 65° अक्षांशों के मध्य उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर ध्रुवीय क्षेत्रों से आने वाली शीतल व भारी वायुराशि तथा अयनवर्ती क्षेत्रों से जाने वाली उष्ण वायु राशियों के मिलने से इन चक्रवातों की उत्पत्ति होती है।
2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone )
◆ इनका जन्म कर्क रेखा व मकर रेखा के बीच होता है। यहाँ पर अत्यधिक तापमान से निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है, जिससे इनकी उत्पत्ति होती है।
चक्रवातों के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न नाम
चक्रवात (Cyclone) | हिन्द महासागर |
हरीकेन (Hurricane) | कैरिबियन द्वीप समूह |
टायफून (Typhoon) | दक्षिणी चीन सागर |
विली – विलीज (Willy-Willies) | ऑस्ट्रेलिया |
टॉरनेडो (Tornadoes) | तटीय अमेरिका |
ट्विस्टर (Twister) | स्थलीय अमेरिका |
बादल (Clouds)
◆ पृथ्वी के धरातल से विभिन्न ऊँचाइयों पर वायुमंडल में मौजूद जलवाष्पों के संघनन से निर्मित जलकण की राशि को बादल (Clouds) कहते हैं।
◆ धरातल से जल का वाष्पीकरण लगातार होता रहता है। जब जलवाष्प युक्त वायु ऊपर उठती है, तो प्रसरण की प्रक्रिया से वह शीतल होकर संतृप्त हो जाती है। जब तापमान ओसांक (Dew Point) से नीचे पहुँचता है तो संघनन होकर जलवाष्प अत्यंत सूक्ष्म जलकणों में परिवर्तित हो जाती है। यह जलकणों की संघनित संरचना ही बादल के रूप में नजर आती है।
◆ बादलों की ऊँचाई, आकार आदि के आधार पर इसका निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया गया है –
(i) ऊँचे मेघ – ऊँचाई धरातल से 6,000 से 12,000 मीटर
(ii) मध्यम मेघ – ऊँचाई धरातल से 2,000 से 6,000 मीटर
(iii) निचले मेघ – ऊँचाई धरातल से 2,000 मीटर तक
◆ 1932 में अन्तरराष्ट्रीय ऋतु विज्ञान परिषद् द्वारा प्रस्तुत किया गया बादलों का वर्गीकरण उनके उपर्युक्त सभी आधारों को शामिल करके किया गया है, ये निम्नलिखित है –
1. पक्षाभ मेघ (Cirrus Clouds) : ये बादल आसमान में सबसे अधिक ऊँचाई पर (7,500 से 10,500 मीटर) सफेद रेशम की भाँति छितराये हुए कोमल एवं घने रूप में स्थित होते हैं। इनमें छोटे-छोटे हिमकणों की उपस्थिति पायी जाती है जिनके कारण चन्द्रमा तथा सूर्य की किरणें चमकती हैं। चूँकि ये अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित ठंडे बादल हैं, अतः इनसे वर्षा नहीं होती है।
2. पक्षाभ स्तरी मेघ (Cirro-Stratus Clouds) ; प्राय: 7500 मीटर की ऊँचाई तक मिलने वाले ये बादल एक चादर की भाँति सम्पूर्ण आकाश में फैले हुए होते हैं। इनका रंग सफेद दूधिया होता है और इनके कारण सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर प्रभामंडल (Halo) का निर्माण हो जाता है। ये प्रभामंडल निकट भविष्य में चक्रवात के आगमन के सूचक होते हैं।
3. पक्षाभ कपासी मेघ (Cirro-Cumulus Clouds) : इनकी ऊँचाई भी सामान्यतः 7,500 मीटर तक पायी जाती है। किन्तु ये बादल सफेद रंग के छोटे-छोटे गोलों की भाँति या लहरदार पाये जाते हैं। ये बादल पंक्तियों अथवा समूहों में मिलते हैं।
4. उच्चस्तरी मेघ (Alto-Stratus Clouds) : ऊपरी वायुमंडल में 5400 से 7,500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित भूरे तथा नीले रंग के लगातार चादर की भाँति फैले हुए छोटे स्तरों वाले बादल को उच्चस्तरी मेघ कहते हैं। सामान्यतया इनके आसमान में छाये रहने पर सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रकाश धुंधला एवं अस्पष्ट दिखाई देता है। इनसे विस्तृत क्षेत्रों पर लगातार वर्षा होती है।
5. उच्च कपासी मेघ (Alto-Cumulus Clouds) : श्वेत एवं भूरे रंग के पतले गोलाकार धब्बों की तरह दिखाई पड़ने वाले तथा 3,000 से 7,500 मीटर की ऊँचाई तक स्थित बादलों को उच्च कपासी बादल की संज्ञा दी जाती है। ये सम्पूर्ण आसमान में महीन चादर के रूप में बिखरे दिखाई देते हैं।
6. स्तरी कपासी मेघ (Strato-Cumulus Clouds) : ये हल्के भूरे रंग के गोलाकार भब्यों के रूप में मिलने वाले बादल होते हैं, जो साधारण रूप में 2,500 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक पाये जाते हैं। इनका आकार एक परत की भाँति होता है तथा जाड़े के मौसम में ये सम्पूर्ण आसमान को आवृत कर लेते हैं ।
7. स्तरी मेघ ( Stratus Clouds) : ये धरातल से 2,500 से 3,000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कुहरे के समान बादल हैं, जिनमें कई परतें पायी जाती है। इनकी संरचना सर्वत्र एक समान रहती है तथा ये आकाश में पूरी तरह से छाये रहते हैं। इनका निर्माण दो विपरीत स्वभाव वाली हवाओं के मिलने से शीत ऋतु में प्रायः शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में होता है।
8. वर्षा स्तरी मेघ (Nimbo-Stratus Clouds) : धरातल से 1,600 मीटर की ऊँचाई तक घने एवं काले पिण्ड के समान विस्तृत बादल इस श्रेणी में आते हैं। इनकी अधिक सघनता के कारण सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं पहुँच पाता, अतः इनके छा जाने पर अंधकार१- सा छा जाता है। इनके कारण वायुमंडल नम हो जाता है तथा शीघ्र वर्षा होती है।
9. कपासी मेघ (Cumulus Clouds) : सामान्यतया इनकी ऊँचाई 1,000 से 3,000 मीटर तक मिलती है। इनका आकार गुंबदाकार गोभी की भाँति होता है, लेकिन आधार क्षेत्र समतल पाया जाता है। ये प्रायः साफ मौसम की सूचना देते हैं।
10. कपासी वर्षा मेघ (Cumulo – Nimbus Clouds) : ये अत्यधिक गहरे काले रंग वाले सघन एवं भारी बादल हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर विशाल मीनार की भाँति उठे रहते हैं और इनका विस्तार काफी बड़े क्षेत्र पर होता है। इनका विस्तार ऊँचाई में भी काफी अधिक (7,500 मीटर ) पाया जाता है। इन बादलों से भारी वर्षा, ओला, तड़ित झंझा आदि आते हैं।
वर्षण (Precipitation)
◆ मेघों के भीतर तीव्र गति से संघनन होकर जलकणों का पृथ्वी पर बरसना वर्षण या वर्षा (Precipitation) : कहलाता है।
◆ उत्पत्ति के अनुसार या वर्षण में सहयोग करने वाली दशाओं के आधार पर वर्षा को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है –
1. संवहनीय वर्षा (Convectional Rainfall) : संवहनीय वर्षा का सबसे प्रमुख कारण गर्म एवं आर्द्र हवाओं का संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठना है। इस प्रकार की वर्षा अधिकतर जलवृष्टि (Rainfall) के रूप में ही होती है। विषुवतरेखीय प्रदेशों अथवा शांत पेटी (Doldrums) में वर्षा संवहनीय प्रकार की ही होती है। चूँकि इन क्षेत्रों में वर्ष भर उच्च तापमान रहता है। अतएव यहाँ वर्षा भी साल भर लगातार होती रहती है।
2. पर्वतीय वर्षा (Orographic Rainfall) : जब उष्ण व आर्द्र पवनों के मार्ग में कोई पर्वत आता है, तो ये पवनें उससे टकराकर ढाल के सहारे ऊपर उठकर ठंडी होती हैं एवं ढालों अपनी नमी को वर्षा के रूप में गिरा देती है। यह वर्षा पवनाभिमुख (Windward) पर होती है। प्रतिपवन ढाल (Leeward Side) पर वर्षा नहीं होती और यह वृष्टिछाया प्रदेश (Rain Shadow Region) कहलाता है। भारत में इसका सर्वोत्तम उदाहरण पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र में स्थित महाबलेश्वर (वर्षा 600 से.मी.) तथा पुणे (वर्षा 70 से.मी.) है, जो एक-दूसरे से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित हैं, किन्तु पुणे की स्थिति वृष्टिछाया प्रदेश (Rain Shadow Region) में पड़ती है जबकि महाबलेश्वर की पवनाभिमुख (Windward) ढाल पर पड़ती है।
3. चक्रवातीय / वाताग्री वर्षा (Cyclonic Rainfall) : धरातल पर चक्रवातों के कारण प्राप्त होने वाली वर्षा चक्रवातीय वर्षा के नाम से जानी जाती है। इस प्रकार की वर्षा तथा हिमवृष्टि विशेषकर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातीय क्षेत्रों में होती है। यहाँ गर्म एवं शीतल वायुराशियों के टकराने से भीषण तूफानी दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और गर्म वायुराशि, ठंडी वायुराशि के ऊपर चढ़ जाने से संघनित होकर वर्षा करती है। ऐसी स्थितियाँ प्रायः वाताग्री क्षेत्रों में ही उत्पन्न होती है।