विकास की शारीरिक संज्ञानात्मक एवं सामाजिक – भावनात्मक प्रक्रियाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए । Write a short note on Physical cognitive and social emotional processes of development.
प्रश्न – विकास की शारीरिक संज्ञानात्मक एवं सामाजिक – भावनात्मक प्रक्रियाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए । Write a short note on Physical cognitive and social emotional processes of development.
या
निम्न का संक्षेप में उत्तर दीजिए – Answer briefly:
1) सामाजिक भावनात्मक विकास की अवधारणा ।
Concept of Socio Emotional Development.
2) ‘खेल’ की विशेषताएँ | Characteristics of ‘Play’.
उत्तर – शारीरिक, संज्ञानात्मक और सामाजिक भावनात्मक प्रक्रियाएँ
- शारीरिक प्रक्रियाएँ – स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है। इसके लिए व्यक्ति का शारीरिक विकास अनिवार्य है। शारीरिक विकास के अन्तर्गत बालक के सम्पूर्ण शारीरिक अंगों में अभिवृद्धि, आकार परिवर्तन और • परिपक्वता को सम्मिलित किया जाता है। शारीरिक विकास बालक के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है, जो कास के अन्य पहलुओं को भी प्रभावित करती है।
मेयरडिथ के अनुसार, “अभिवृद्धि विकास एवं परिपक्वता एक दूसरे के पर्याय हैं। उन्होनें आगे लिखा है कि गर्भावस्था के आरंभ से लेकर परिपक्वता के दौरान शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों एवं दैहिक परिवर्तनों के समूह (cluster) को शारीरिक विकास कहा जाता है। शारीरिक विकास की गति विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होती है। शारीरिक विकास, बालक के व्यवहार को गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों प्रकार से प्रभावित करता है।” शारीरिक प्रक्रियाएँ व्यक्ति के शरीर में बदलाव लाती हैं। माता-पिता से विरासत में पाए आनुवांशिक गुणसूत्र हमारे मस्तिष्क का विकास, ऊँचाई एवं वज़न का बढ़ना अंगों के संचालन का कौशल और किशोरावस्था में हार्मोनों के कारण होने वाले परिवर्तन, ये सभी विकास में शारीरिक प्रक्रियाओं की भूमिका दर्शाते हैं।
- संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ-संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बौद्धिक क्षमता में विकास और विभिन्न प्रकार के वातावरण में समायोजित होने की शक्तियों से है। जन्म के समय बालक का मस्तिष्क पूर्णतया अविकसित होता है। जैसे-जैसे बालक की उम्र बढ़ती जाती है, उसका मानसिक विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। बालकों की समान आयु में भी मानसिक क्षमताओं में अंतर पाया जाता है। बालक अपने पारिवारिक सदस्यों एवं सामाजिक वातावरण से बहुत कुछ सीखता है। मानसिक विकास में अवबोध, स्मरण, कल्पना, ध्यान, प्रत्यक्षीकरण, विचार, निर्णय, चिंतन, तर्क तथा समस्या समाधान आदि पक्षों को सम्मिलित किया जाता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “नाड़ी-मंडल की संरचना, व्यक्ति की भौतिक दशाएं और सामाजिक वातावरण मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं।” संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ वे हैं जिनके कारण व्यक्ति के विचारों, बुद्धि और भाषा में परिवर्तन होते हैं । जब कोई शिशु पालने के ऊपर झूलता हुआ कोई खिलौना लटकता देख रहा होता है या थोड़ा बड़ा होकर दो शब्दों को जोड़कर छोटे वाक्य बनाता है, कविता याद करता है तो यह उसकी संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ होती हैं। थोड़ा और बड़ा होकर बच्चा गणित का सवाल हल करता है, कल्पना करता है कि फिल्मी सितारा बनना कैसा लगता होगा तो इन सभी कार्यों के पीछे संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ होती हैं।
- सामाजिक-भावनात्मक प्रक्रियाएँ- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन जन्म के समय वह केवल एक जैविकीय पिण्ड होता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह दूसरों पर निर्भर रहता है परंतु उसमें सामाजिकता नाम की कोई जानकारी नहीं होती है। सामाजिक निरपेक्ष की स्थिति बालक के शारीरिक व मानसिक विकास के साथ ही अतिशीघ्र परिवर्तित हो जाती है। परिवार के सदस्यों के बीच रहकर वह सहयोग, प्रेम, सहानुभूति आदि गुण सीखने लगता है। इस प्रकार परिवार सामाजिक विकास की पहली संस्था होती है। सोरेन्सन के अनुसार, “दूसरों के साथ समायोजन करने की क्षमता को सामाजिक विकास कहा जाता है। सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में वंशानुक्रम, पारिवारिक स्थिति, भौतिक वातावरण, सामाजिक व्यवस्था आर्थिक स्तर संवेगात्मक विकास, खेल-कूद, लिंग-भेद, शैक्षिक माहौल, पालन-पोषण की विधियाँ आदि प्रमुख हैं। मानव जीवन में संवेगों का अत्यधिक महत्त्व होता है।
ब्रिजेज के अनुसार, “शिशु के जन्म के समय केवल उत्तेजना होती है, संवेगों का विकास तो बाद के वर्षों मे होता है।” संवेगों की अभिव्यक्ति से ही व्यक्ति की समाज में पहचान होती है।वुडवर्थ के शब्दों में, “संवेग, व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।” संवेगात्मक विकास परिपक्वता को दर्शाता है और व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। सामाजिक-भावनात्मक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत व्यक्ति के दूसरे व्यक्तियों के साथ सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन, भावनाओं के परिवर्तन एवं व्यक्तित्व में होने वाले बदलाव आते हैं।माँ के स्पर्श के उत्तर में किसी शिशु का मुस्कुराना, किसी बच्चे का खेल में अपने साथी पर हमला करना, किसी साथी में अपना अधिकार जताने की भावना का विकास या किसी किशोरी में छलकता किसी मांगलिक आयोजन का उल्लास, ये सभी सामाजिक भावनात्मक विकास के परिचायक हैं। शारीरिक, संज्ञानात्मक और सामाजिक भावनात्मक प्रक्रियाएँ आपस में रस्सी के सूत्रों जैसी बारीकी से गुथी हुई होती हैं।
उदाहरण के लिए- माँ के स्पर्श से एक शिशु के चेहरे पर मुस्कान आती है। यह सहज छोटी-सी प्रतिक्रिया भी उपर्युक्त तीनों प्रकार की प्रक्रियाओं पर निर्भर हैं-
- शारीरिक प्रक्रियाएँ – स्पर्श एवं उसकी प्रतिक्रिया में निहित शारीरिक कृत्य ।
- संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ- जानकर किए गए कृत्यों को ‘ समझने की क्षमता।
- सामाजिक – भावनात्मक प्रक्रियाएँ – मुस्कराना अच्छे विधायक भाव का लक्षण है। इससे शिशुओं को दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्ध जोड़ने में सहायता मिलती है।
खेलों की विशेषताएँ (Characteristics of Sports)
- सक्रियता-खेल खेलते समय छात्रों में सक्रियता का विकास होता है क्योंकि वे अपने शरीर एवं मन को पर्यावरण, सामग्री एवं अन्य लोगों के साथ परस्पर सम्पर्क स्थापित करते हैं।
- साहसिक एवं खतरनाक इस प्रकार के खेल में बच्चों के नई व अनजान अवधारणाओं की खोज करना सम्मिलित होता है। जब बच्चे साहसी एवं खतरनाक खेलों में संलग्न रहते हैं तो वे इन अवधारणाओं को एक सुरक्षा घेरे के दायरे में देख सकते हैं।
- संवादात्मक – खेल प्रायः संवादात्मक होते हैं। खेल बच्चों को सूचनाएँ एवं ज्ञान प्रदान करने हेतु एक प्राकृतिक वातावरण प्रस्तुत करते हैं। बच्चे मौखिक रूप से, शब्दों द्वारा या अपने शरीर की स्थिति और अन्य गैर मौखिक संकेतों का प्रयोग करके मौखिक रूप से संवाद कर सकते हैं और ये संदेश सरल या अधिक जटिल हो सकते हैं।
- आनन्ददायक – साधारण शब्दों में खेल अत्यधिक मजेदार होते हैं। बच्चे को खेल तो स्वयं आनन्दपूर्वक खेलना चाहिए तथा उन्हें खेल के माध्यम से उत्तेजना और हास्य प्राप्त हो सकता है। जीतने के लिए खेलने के बजाय बच्चों को मनोरंजन के लिए खेलना चाहिए।
- अर्थपूर्ण – खेल बालकों को संसार की समझ विकसित करने के अवसर प्रदान करते हैं। खेल के माध्यम से बच्चे उन वस्तुओं को प्रक्रिया में लाते हैं जो उन्होंने देखी या सुनी है। यह ज्ञान छात्रों को वर्तमान ज्ञान निर्माण, नए सिद्धान्तों की भूमिकाओं का परीक्षण करते हैं तथा उनके ज्ञान, समझ एवं कौशल विकसित करते हैं।
- सामाजिक एवं इंटरैक्टिव- हालांकि बच्चों का स्वतन्त्र रूप से खेलना उनके लिए स्वास्थ्यवर्धक एवं आवश्यक है। कम से कम समय में, खेल बच्चों को सामाजिक सम्बन्धों में संलग्न होने और अन्य बच्चों और वयस्कों के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए अनोखा और मौलिक अवसर प्रस्तुत करता है।
- प्रतीकात्मक- बच्चे भूमिकाओं भावनाओं, व्यवहारों और रिश्तों का परीक्षण करने में सक्षम होते हैं। उन चीजों को पुनः दोहराएँ जो उनमें समझ विकसित करने के लिए पहले हो चुकी हैं। सांकेतिक खेल ढोंग जैसे हो सकते हैं परन्तु यह वास्तविक रूप में उन्हें स्वयं एवं वृहद् संसार को समझने की नींव रखते हैं।
- चिकित्सीय – जब खेल मनोरंजक, आकर्षक, एवं सार्थक होते हैं तो यह बच्चों के लिए अत्यधिक चिकित्सीय हो सकता है। खेल बच्चों के तनाव को कम करने और विभिन्न भावनाओं और अनुभवों के माध्यम से काम करने का एक स्वाभाविक तरीका हो सकते हैं।