S-9

विज्ञान का शिक्षणशास्त्र (उच्च-प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi

विज्ञान का शिक्षणशास्त्र (उच्च-प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi

S-9B                विज्ञान का शिक्षणशास्त्र (उच्च-प्राथमिक स्तर)
प्रश्न 1. विज्ञान शिक्षण में आईसीटी के उपयोग का वर्णन करें।
उत्तर—जब से सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को एक शिक्षण माध्यम के रूप में उपयोग
किया गया है, इसने एक त्रुटिहीन प्रेरक साधन के रूप में कार्य किया है। इसमें वीडियो,
टेलिविजन, मल्टी मीडिया, कम्यूसने टर सॉफ्टवेयर, इंटरनेट का उपयोग शामिल है जिसमें ध्वनि
और दृश्य तथा लिखित सामग्री निहित है । इससे छात्र सीखने की प्रक्रिया में गहराई से जुड़ते
हैं। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा आपूर्ति (दृश्य-श्रव्य साधन) से सभी
सीखने वाले और अनुदेशक को एक भौतिक स्थापन पर होने की आवश्यकता समाप्त हो
जाती है।
      सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की सर्वाधिक अनोखी विशेषता यह है कि इसे समय और
स्थान में समायोजित किया जा सकता है। इसे ध्यान में रखते हुए सूचना और संचार
प्रौद्योगिकी ने डिजिटल अभिगम्यता (सीखना) को संभव बनाया है। अब छात्र किसी भी
समय अपनी सुविधानुसार ऑनलाइन अध्ययन पाठ्यक्रम सामग्री को देख पढ़ सकते हैं।
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की सहायता से छात्र अब ई-पुस्तकें, परीक्षा के नमूने वाले प्रश्न
पत्र, पिछले वर्षों के प्रश्न पत्र, वैज्ञानिक प्रयोग, वस्तुओं की बनावट, कार्यप्रणाली आदि देखने
के साथ संसाधन व्यक्तियों, मेंटर, विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और साथियों से दुनिया के किसी
भी कोने पर आसानी से संपर्क कर सकते हैं।
          इंटरनेट व्यापक संभावनाओं के द्वार खोलता है। यह पाठ्यचर्या व सह-पाठ्यचर्या के
संगत विषयों पर बच्चों के लिए इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म का कार्य कर सकता है। जहाँ शिक्षक
और बच्चे प्रश्न पूछने, उत्तर देने, बहस करने की अतिरिक्त विशेषज्ञों से भी राय ले सकते
हैं। स्वूफली बच्चों के लिए इस तरह की व्यवस्था (हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर को मिलाकर)
विकसित की जा सकती है जिसमें वे अपने शारीरिक और अन्य लक्षणों (मसलन, तापमान,
प्रकाश की तीव्रता, आर्द्रता आदि) को माप सकते हैं और उन्हें नियंत्रित करने का भी अवसर
प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी व्यवस्था कम्प्यूटर का उद्योग, प्रयोगशाला, संप्रेषण आदि में भूमिका
के बारे में भी परिचय दे सकती है।
           तकनीक की बढ़ती पहुँच और समाज में लगातार सूचना-समाज के रूप में हो रहे
परिवर्तन ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि स्कूलों में आई. सी. टी. का उपयोग कर बच्चों
को उक्त स्थिति से सामना करने व उसमें टिके रहने के लिए तैयार करने का प्रयास किया
ही जाना चाहिए।
प्रश्न 2. विज्ञान शिक्षण में मूल्यांकन एवं आकलन की अवधारणा व उद्देश्यों का
वर्णन करें।
उत्तर―आकलनों का महत्व मूल्यांकन करने के औजारों की तरह है क्योंकि ये
शैक्षणिक प्रक्रियाओं तथा उनके परिणामों के बारे में बुनियादी सवालों-हम कक्षाओं में क्या
पड़ा रहे हैं, विद्यार्थी विज्ञान सीखने की सामग्री के साथ किस तरह काम कर रहे हैं,स्कूल
के परिवेश में कैसा ज्ञान दिया जा रहा है, सीखी गई बातों को विद्यार्थी किस तरह आत्मसात
और उपयोग कर रहे हैं, संसार के जानकार तथा फिक्रमन्द नागरिकों के रूप में विद्यार्थी
कैसे विकसित हो रहे हैं ? के उत्तर देने में मदद करते हैं। आकलन रचनात्मक मूल्यांकन,
अर्थात् रोजमर्रा के अध्यापन का सतत् चलने वाला ऐसा हिस्सा जिसके माध्यम से शिक्षक
विद्यार्थियों के साथ की जाने वाली अपनी गतिविधियों में संशोधन करते हैं। शिक्षण अधिगम
प्रक्रिया में आकलन एक आवश्यक घटक है। यह ना केवल विद्यार्थियों के अधिगम की सीमा
का आकलन करता है बल्कि शिक्षक के कार्य को भी प्रतिबिंबित करता है। इस प्रकार यह
चिंतन (विद्यार्थी के प्रदर्शन) तथा एक आत्ममंथन प्रक्रिया (शिक्षक का प्रदर्शन) दोनों हैं।
आत्ममंथन मूल्यांकन तब होता है जब शिक्षक पाठ अथवा पाठों की श्रेणी को पुनः देखता
है तथा विश्लेषण करता है कि क्या सही हुआ तथा कहाँ सुधार की आवश्यकता है।
    उसी प्रकार मूल्यांकन अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह पढ़ाने
में शिक्षकों की तथा सीखने में विद्यार्थियों की मदद करता है। मूल्यांकन एक निरंतर चलने
वाली प्रक्रिया है न कि आवधिक । यह मूल्य निर्धारण में शैक्षिक स्तर अथवा विद्यार्थियों की
उपलब्धियों को जानने में सहायक होता है। अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में मूल्यांकन की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नए उद्देश्यों को तय करने, अधिगम अनुभव प्रस्तुत करने और
विद्यार्थी की संप्राप्ति की जाँच में मूल्यांकन अधिगम काफी योगदान देता है। इसके
अतिरिक्त शिक्षण और पाठ्य विवरण सुधारने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
आकलन अथवा मूल्यांकन के उद्देश्य―
क. बच्चों में अपेक्षित व्यवहार, वैज्ञानिक सोच एवं अवधारणा के विकास की जांच करना।
ख. यह जांचना के बच्चों ने वैज्ञानिक तथ्यों, घटनाओं आदि को कितना ग्रहण किया है।
ग. बच्चों को सीखने की सभी कठिनाइयों का निर्धारण करना तथा दोषों को जानना,
उनमें सुधार का प्रयास करना ।
घ. उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना।
च. बच्चों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्क एवं ज्ञान के विकास को निरंतर गति प्रदान करना ।
छ. इससे अध्ययन और अध्यापन दोनों का मापन कर सकते हैं।
ज. मूल्यांकन का प्रयोजन शिक्षण विधियों की उपयोगिता एवं विद्यालय के समस्त
क्रियाओं का अंकन करना है।
झ. छात्रों का व्यक्तिगत मार्गदर्शन कर उन्हें अध्ययन की ओर अग्रसारित करना, आदि।
प्रश्न 3. विज्ञान की विधियों का वर्णन करें।
उत्तर―प्रकृति के तथ्यों, रहस्य और उसकी घटनाओं को क्रमबद्ध सुसंगठित, व्यवस्थित
एवं तार्किक ढंग से अध्ययन करके निश्चित नियम एवं सिद्धान्त को प्रतिपादित करने की विधि
को विज्ञान विधि कहते हैं । यह ऐसी प्रणाली या प्रक्रिया है जो समस्याएं हल करने के लिए
इन पद्धतियों को चुनती है। वैज्ञानिक विधि 5 चरणों में संपन्न होती है-
           क. समस्या― किसी भी समस्या के निराकरण में नया वैज्ञानिक कार्य प्रारंभ होता है।
क्यों और किसके द्वारा खोजते हैं ? बादल कैसे बनता है ? पानी कैसे बरसता है ? रोग क्यों
हुआ? आदि।
        ख. परिकल्पना―किसी समस्या पर वैज्ञानिकों द्वारा एक या अनेक मत या विचार
व्यक्त किए जाते हैं। प्रत्येक विचार के पीछे कुछ आधार भी होता है जो सही या गलत
भी हो सकता है। यही विचार परिकल्पनाएं कहलाती हैं।
        ग. प्रयोगिकरण–परिकल्पना की सत्यता को सिद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के
प्रयोग या प्रेक्षण विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा किये जाते है। यदि वह परिकल्पना उन प्रयोगों द्वारा
सही सिद्ध होती है तो ठीक है अन्यथा अस्वीकार कर दिया जाता है।
        घ. प्रेक्षण―प्रयोगों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर समीक्षा की जाती है तथा तथ्यों
की वास्तविकता का गहन चिंतन करते हैं।
       ङ. निष्कर्ष―नियंत्रित प्रयोगों द्वारा परिकल्पनाओं की वास्तविकता की परीक्षा की जाती
है। कोई परिकल्पना कितनी भी वास्तविक क्यों ना हो, प्रयोगों द्वारा उनकी सत्यता की परीक्षा
अवश्य की जाती है। यदि प्रयोगों के परिणाम परिकल्पना का समर्थन करते हैं तो परिकल्पना
को सिद्धान्त का रूप दे दिया जाता है। वही नियम बन जाता है।
प्रश्न 4. विज्ञान में प्रयोग एवं अवलोकन के बुनियादी महत्व के आलोक में बच्चों
के प्रयोगात्मक एवं अवलोकन कौशलों का आकलन किस प्रकार करेंगे? वर्णन
करें।
उत्तर―प्रयोग–प्रायोगिक कार्य विज्ञान शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसमें
अनेक गतिविधियां शामिल होती हैं तथा इसका प्रयोग अनेक उद्देश्यों के लिए किया जाता
है, जैसे― किसी अवधारणा या विचार को स्पष्ट करना जिससे ज्ञान के सृजन की प्रक्रिया
के दौरान प्राप्त साक्ष्य से विद्यार्थियों को तर्क-वितर्क विकसित करने में मदद की जा सके।
व्यवहारिक, बुद्धिमत्तायुक्त प्रयोगशाला कौशल सीखना तथा माइक्रोस्कोप जैसे विज्ञान
के उपकरणों के प्रयोगं को सीखना ।
        अवलोकनात्मक कौशलों को सीखना, जैसे कोशिका की संरचना या रसायन को गर्म
करने पर परिवर्तनों का अवलोकन करना।
         विशिष्ट विज्ञान पूछताछ कौशल विकसित करना जैसे उपयुक्त परीक्षण तैयार करना या
साक्ष्य की समालोचनात्मक परीक्षण करना (विज्ञान में खोज)।
          ‘विज्ञान की प्रकृति’ तथा वैज्ञानिक किस प्रकार से काम करते हैं, इसका अनुभव और
समझ विकसित करना।
         विद्यार्थियों के प्रयोगात्मक कौशलों के आकलन के निम्नलिखित तरीके हैं―
क. खोज संबंधी प्रायोगिक कार्य में प्रश्न पूछे जाते हैं कि ‘कौन से कारक प्रभावित करते
हैं…?’, ‘क्या इसके बीच कोई संबंध है…?’, ‘… के संभावित कारण क्या हो सकते हैं.. ?’
खोज संबंधी कार्य को निष्पादित करने के लिए, विद्यार्थियों को संबंधित विज्ञान अवधारणाओं
के बारे में सोचना और उन्हें लागू करना है, और साथ ही विज्ञान संबंधी कौशलों और
तकनीकों को इस्तेमाल करना होता है।
      ख. यह देखना कि प्रत्येक के द्वारा निर्देशों के सेट का अनुपालन किया जा रहा है और
अपेक्षित परिणाम प्राप्त किए जा रहे हैं?
ग. यह देखना कि क्या विद्यार्थी अवलोकन को देखकर आश्चर्यचकित हैं कि क्या हो
रहा है? क्या इस संबंध में उन्हें अपनी समझ पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है?
घ. विद्यार्थियों से उनके प्रायोगिक कार्य करने के दौरान प्रश्न पूछने होंगे एवं अवलोकन
द्वारा यह देखना होगा कि क्या वे सीख पा रहे हैं कि किसी खास तकनीक का निष्पादन कैसे
किया जाए।
        अवलोकन–विद्यार्थियों में सूक्ष्म अवलोकन करने की क्षमता विकसित करना प्रभावी
विज्ञान शिक्षण का बुनियादी हिस्सा है। बच्चे स्वभाव से ही जिज्ञासु होते हैं और वे जानना
चाहते हैं कि दुनिया कैसे काम करती है । इस प्रकार अवलोकन उनके लिए एक स्वाभाविक
गतिविधि है।
विद्यार्थियों के अवलोकन कौशल के आकलन के निम्नलिखित तरीके हैं―
क. जब कोई नया विषय या सामग्री प्रस्तुत की जाती है, तो शिक्षक विद्यार्थियों को इसे
समझने के लिए मार्गदर्शन कर उनसे उस वस्तु से संबंधित प्रश्न पूछे कि उन्होंने वस्तु का
अवलोकन करके क्या देखा व समझा।
ख. अवलोकन के दौरान उनके विचार सुनने से शिक्षक न केवल उनको विषयवस्तु या
अवधारणा पर उनकी समझ जानने में समर्थ होते हैं, बल्कि इससे असाधारण या नवाचारों
के प्रति सतर्क भी होते हैं, जिसकी हो सकता है कि शिक्षक को अपेक्षा न रही हो। इससे
यह भी दिखाई देता है कि शिक्षक विद्यार्थियों के विचारों को महत्व देते हैं और इसलिए इस
बात को ज्यादा संभावना होती है कि वे सुविचारित मंतव्य देंगे। इस तरह उनके विचार
गलतफहमियों को निहाकित कर सकते हैं, जिन्हें ठीक करने की जरूरत होती है अथवा वे
एक नयी पहुंच व्यक्त कर सकते हैं, आदि ।
प्रश्न 5. विज्ञान में अवधारणा मानचित्रण की अवधारणा स्पष्ट करें। इसकी
सहायता से किस प्रकार प्रत्येक थीम और उससे संबंधित विषय वस्तु को समझा जाता
है?
उत्तर―अवधारणा नक्शा या वैचारिक आरेख, अवधारणाओं के बीच सुझाव दिया
संबंधों को एक चित्र द्वारा दर्शाता है। यह डिजाइनरों, इंजीनियरों, तकनीकी लेखक, और
दूसरों को संगठित करने और संरचना ज्ञान का उपयोग करने वाले एक ग्राफिकल उपकरण
है।
    एक अवधारणा नक्शा आम तौर पर विचारों एवं जानकारियों को श्रेणीबद्ध संरचना में
लेवल तीर के साथ जोड़ता है। अवधारणाओं के बीच संबंधों को वाक्यांशों को जोड़ने के
रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
         एक अवधारणा नक्शा एक वाक्य आरेख, विचारों तथा आलेखनों के बीच संबंधों का
प्रतिनिधित्व उसी तरह करता है जिस तरह एक वाक्य आलेखन व्याकरण के वाक्य को एक
रोड मैप राजमार्गों और कस्बों के स्थानों को और एक सर्किट आरेख के कामकाज एक
बिजली के उपकरण का प्रतिनिधित्व करता है। एक अवधारणा नक्शे में प्रत्येक शब्द या
वाक्यांश दूसरे को जुड़ा जोड़ता है, और मूल विचार से शब्द या वाक्यांश जुड़ा होता है।
अवधारणा नक्शे तर्कसम्मगत विचार और अध्ययन कौशल द्वारा छात्रों को विकसित करने
के लिए एक मौका देता है।
          उदाहरण के लिए जल प्रकरण के लिए अवधारणा मानचित्रण
ph
अवधारणा मानचित्र, देख कर सीखने वालों को विशेष रूप से आकर्षित करते हैं, पर
सभी विद्यार्थी इनके उपयोग से लाभान्वित हो सकते हैं, क्योंकि ये मानचित्र असल में एक
कार्यनीति है, जिसका उपयोग विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है । अवधारणा मानचित्र
में प्रयुक्त शब्दों के बीच में संपर्क बनाने पर बल देने से अपनी समझ को जानने में मदद
मिलती है। अवधारणा मानचित्र बहुत सरल भी हो सकते हैं और बहुत जटिल तथा
पदानुक्रमिक संरचना वाले भी, जिनमें सामान्य अवधारणाएं शीर्ष पर होती हैं और अधिक
विशिष्ट अवधारणाएं तल पर में होती हैं।
        उसी प्रकार सजीव वस्तुओं के प्रकरण से संबंधित अवधारणा मानचित्रण के लिए
ब्लेकबोर्ड पर नौ मुख्य शब्दों पर गोले खींचे–’सजीव वस्तुएँ’, ‘जानवर’, ‘पौधे’, ‘गाय’,
‘पेड’, ‘घास’, ‘जल’, ‘वायु’, और ‘मनुष्य’ । बच्चों को इससे संबंधित शब्दों के जोड़ों के
बीच संपर्क बनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करें। अवधारणा मानचित्र बनाने का कोई एक
सही तरीका नहीं है और किसी विषय या अवधारणा-समूह के लिए कोई एक सही मानचित्र
भी नहीं होता है। इस प्रकार, हर व्यक्ति या समूह द्वारा बनाया गया अवधारणा मानचित्र
अनूठा होता है। जब छात्र-छात्रा अवधारणा मानचित्रण के सिद्धान्त को समझ चुके हों, तो
सीखने-सिखाने की क्रिया में उपयोग हेतु यह एक बहुत सार्थक और उपयोगी तकनीक बन
जाएगी।
प्रश्न 6. विज्ञान शिक्षण में अवलोकन, प्रदर्शन, चर्चा, स्थानीय भ्रमण तथा
जांच-पड़ताल की समझ विकसित करें।
उत्तर―क. अवलोकन–सारी विज्ञान संबंधी पूछताछ अवलोकन के कौशल से शुरू
होती है। अवलोकन वैज्ञानिक पद्धति का एक बुनियादी हिस्सा है। यह विश्लेषण करने,
व्याख्या करने और निष्कर्ष निकालने में शामिल होता है। विद्यार्थियों में सूक्ष्म अवलोकन
करने की क्षमता विकसित करना प्रभावी विज्ञान शिक्षण का बुनियादी हिस्सा है। बच्चे स्वभाव
से ही जिज्ञासु होते हैं और वे जानना चाहते हैं कि दुनिया कैसे काम करती है। इस प्रकार
अवलोकन उनके लिए एक स्वाभाविक गतिविधि है। उदाहरण के लिए बहुत से विद्यार्थी
(और बड़े भी) समय और दिन के गुजरने का अंदाजा आसमान में देखकर लगाते हैं। लेकिन
अपने अवलोकनों के माध्यम से वे क्या पैटर्न देखते हैं ? इसका पता वे कैसे करते हैं कि
दिन और रात किस तरह होते हैं ? या छायाएं कैसे बनती हैं ? विद्यार्थी ज्यादा से ज्यादा सीख
सकें, इसके लिए समय के साथ-साथ पैटनों का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है, जिससे वे
धूप व और छाया का अवलोकन कर एवं उन्हें चित्र बनाकर या रिकॉर्ड रखकर पृथ्वी के
घूर्णन के कारण समय के बदलने को समझ सकें। क्योंकि यह―
1. विद्यार्थियों की स्वाभाविक जिज्ञासा और अवलोकन कौशल का उपयोग कर
ज्यादा महरी जिज्ञासा और जुड़ाव के लिए प्रेरित करता है।
2. अवलोकन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करता है, जिसमें उनके लिए
प्रत्यक्ष रूप से आगे के बारे में सोचना शामिल है।
3. विद्यार्थियों में दिन-प्रतिदिन होने वाली घटनाओं, छायाओं और रात व दिन की
वैज्ञानिक समझ विकसित करने में मदद कर सकता है।
         सावधानीपूर्वक अवलोकन करने पर आमतौर पर विद्यार्थी प्रश्न पूछेगे। यह वैज्ञानिक
अनुसंधान की शुरूआत है। बच्चों में अवलोकन कौशल का विकास करने के लिए उन्हें
व्यवस्थित ढंग से अवलोकन करने और उन्हें सावधानीपूर्वक रिकार्ड करने को प्रेरित करना
चाहिए । इसकी शुरूआत से पहले ही, क्या देखना, सुनना या अनुभव करना है, यह निर्धारित
कर लेना चाहिए, ताकि सभी लोग एक ही तरह से अवलोकन करें।
ख. प्रदर्शन―प्रदर्शन विधि वह शिक्षण विधि है जिसमें किसी संरचना कार्य प्रणाली,
तथ्य तथा दृश्य को स्पष्ट किया जा सकता है। इस विधि में छात्र इंद्रियों की सहायता से जटिल
प्रक्रिया का सरलता से बोध करते हैं । इस विधि द्वारा शिक्षण करने से मूर्त से अमूर्त शिक्षण
का अनुसरण किया जाता है। प्रदर्शन विधि में अध्यापक कक्षा में चार्ट, मॉडल, उपकरण
आदि का उपयोग करके संबंधित विषयवस्तु का स्पष्टीकरण करते हैं।
         उदाहरण के लिए यदि कक्षा में शिक्षक को पोटैशियम परमैग्नेट से ऑक्सीजन बनाने
की विधि का प्रयोग प्रदर्शित करना है तो वह प्रदर्शन विधि का प्रयोग कर सकते हैं तथा इसके
साथ ही अन्य प्रयोग जैसे विभिन्न प्रकार के पुष्प, विभिन्न प्रकार के बीच, जड़ों द्वारा पानी
का सोखना आदि को भी इस विधि द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। विधि में शिक्षण
कार्य करवाने पर समय कम लगता है। छात्रों के निरीक्षण, तर्क एवं विचार करने की शक्ति
का भी विकास होता है। इससे कठिन प्रयोगों को प्रदर्शित किया जा सकता है। इस विधि
के द्वारा छात्र स्वयं वैज्ञानिक तथ्यों को देख कर सीखते हैं। कक्षा में शिक्षक सैद्धान्तिक माग
का विवेचन करने के साथ इस विधि द्वारा उसका सत्यापन करते हैं तथा छात्र प्रयोग प्रदर्शन
का निरीक्षण करते हुए ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः इस विधि में छात्र एवं शिक्षक दोनों ही
सक्रिय रहते हैं।
     ग. चर्चा―’चर्चा’ एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ है, दो या अधिक लोगों के समूह
के बीच अन्वेषी अन्योन्यक्रिया (खोज करने की दिशा में लक्षित बातचीत एवं व्यवहार)।
‘बहस’ (वाद-विवाद) चर्चा का एक अधिक औपचारिक (और संभावित रूप से अधिक
गहन) रूप है जिसमें सामान्यत: दो भिन्न या परस्पर विरोधी दृष्टिकोण अथवा ‘पक्ष’ शामिल
होते हैं।
       प्रायः विद्यार्थियों से हमारी यह अपेक्षा रहती है कि वे वैज्ञानिक विचारों और प्रमाणों को
स्वीकार कर लें। अत: उन्हें इस बात पर विचार करने का अवसर देना चाहिए कि यह सत्य
है या नहीं। सत्य है तो किस प्रकार से सत्य है। कक्षा में चर्चा का उपयोग करने से विद्यार्थी
इससे संबंधित प्रमाणों पर विचार करते हैं, अपना मत कायम करते हैं और अपने दृष्टिकोण
का औचित्य सिद्ध करते हैं। ऐसा करने से उन्हें अपना वस्तुनिष्ठ चिंतन कौशल विकसित
करने में मदद मिलती है। चर्चा करना एक सक्रिय पद्धति है जो विद्यार्थियों को वैज्ञानिक
अवधारणाओं, मुद्दों एवं नैतिकता के अर्थ की रचना करने और उन्हें समझने में सहयोग देती
है। बातचीत के द्वारा ही बच्चे प्रायः विषय के बारे में अधिक गहराई से सोचना आरंभ करते
हैं। यह न केवल विद्यार्थियों को एक-दूसरे से सीखने में सक्षम बनाने में सहयोगी है, बल्कि
इससे वे गलतफहमी वाले विचार भी सामने आ जाते हैं जो उनके मन में हो सकते हैं, जिससे
बाद में प्रत्यक्ष रूप से सीखने के तरीके तैयार किये जा सकते हैं। प्रारंभिक अवस्था से ही विद्यार्थियों
की विज्ञान के बारे में बात करने और अपने विचारों को साझा करने में मदद करने एवं उन्हें
समर्थन देने से बाद के जीवन में अपनी बात के पक्ष में तर्क रखने में अधिक सक्षम हो जाएंगे।
घ. स्थानीय भ्रमण― स्थानीय भ्रमण द्वारा शिक्षण करने की विधि छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान
देने के सिद्धान्त पर आधारित है। इस विधि में छात्रों को कक्षा की चारदीवारी में नियंत्रित
शिक्षा ना देखकर स्थान विशेष पर ले जाकर शिक्षा दी जाती है। यह छात्रों को प्रत्यक्ष अनुभव
प्राप्त करने का अवसर देती है। इस विधि से विज्ञान की कक्षा में पढ़ी गई बातों, तथ्यों,
वस्तुओं, सिद्धान्तों एवं नियमों को बाह्य जगत में आकर स्पष्टीकरण करने का अवसर मिलता
है। भ्रमण द्वारा वस्तुओं को समीप से देखने और प्रत्यक्ष अनुभव करने से छात्रों को विषय
भली प्रकार समझ में आ जाता है। इस विधि ने विज्ञान शिक्षण को सरल, बोधगम्य तथा
आकर्षक बनाया है। इस विधि द्वारा शिक्षण से छात्रों में निरीक्षण करने की योग्यता का विकास
होता है। इसमें छात्र मिलकर काम कर सकते हैं। इस विधि में छात्र भ्रमण के साथ-साथ
मनोरंजन होने के कारण मानसिक रूप से थकते नहीं है।
ङ. जांच-पड़ताल (खोज)―विज्ञान में जांच पड़ताल स्वरूप और उद्देश्य से विविध
होते हैं। कुछ एक ‘सही’ उत्तर होते हैं, जबकि अन्य खुले और खोजपूर्ण होते हैं। कुछ
को एक सत्र मे समाप्त किया जा सकता है, जबकि दूसरों को एक विस्तृत समय के दौरान
संचालित करने की आवश्यकता होती है। कुछ खोज को शिक्षक द्वारा निर्देशित किया जा
सकता है और दूसरों को विद्यार्थियों द्वारा स्वयं ही निर्देशित किया जा सकता है।
         सभी जांच पड़तालों में यह समानता है कि अन्वेषण एक अवधि से प्रारंभ होते हैं और
धीरे-धीरे एक ऐसी समस्या अथवा प्रश्न से सम्बन्ध रखते हैं, जिसे हल करना अथवा जिसका
उत्तर देना आवश्यक होता है। जांच पड़ताल में प्रमाण को संकलित करना और उसका
विश्लेषण करना भी सम्मिलित होता है जिससे जिस प्रश्न की खोज की जा रही है, उसक
उत्तर दिया जा सके।
           प्रारंभिक विज्ञान केवल विज्ञान के सम्बन्ध में ज्ञान लाभ करने के बारे में ही नहीं है,
बल्कि यह विचारों की जांच पड़ताल कर अनुमान लगाने और परीक्षण करने के बारे में भी
है। विद्यार्थियों के वैज्ञानिक कौशलों के विकास के लिए प्रायोगिक सीखने का अनुभव सबसे
महत्वपूर्ण है । यह उन्हें आकर्षित करता है और विज्ञान के सम्बन्ध में कौतूहलता और जोश
को बताता है। केवल स्वयं जांच करके ही विद्यार्थी अपने आसपास दुनिया की एक अधिक
वैज्ञानिक समझ को विकसित करेंगे और विज्ञान के स्वरूप को समझना प्रारंभ करेंगे । अतः
विज्ञान के शिक्षक के रूप में हमारी भूमिका विद्यार्थियों को अवसर प्रदान करने की है, जिससे
वे खोज क्रियान्वित करने और स्वयं सरल समस्याओं को सुलझाने के रोमांच का अनुभव कर
पाएँ । जाँच पड़ताल विज्ञान की अवधारणाओं को सीखने और समझने में सहायता करता है।
यह विद्यार्थियों को प्रेरित करता है और दुनिया के बारे में उनकी जिज्ञासा को विकसित करता है।
प्रश्न 7. विज्ञान एक जाँच पड़ताल है, जिसमें हमारे आसपास प्रकृति में होने
वाली घटनाओं और परिघटना की व्यवस्थित जाँच पड़ताल कर सिद्धान्त विकसित
करना और उनकी व्याख्या करना शामिल है। कैसे? उदाहरण ।
उत्तर―किसी भी सिद्धान्त को विकसित करने और उसकी व्याख्या करने के लिए
विज्ञान में जांच-पड़ताल का एक व्यवस्थित क्रम होता है। मोटे तौर पर इसके कई चरण
हैं जो आपस में संबंधित हैं।
       गौर से निरीक्षण करना, नियमितताओं और पैटर्न की तलाश, संकल्पनाओं को गढ़ना,
गणितीय ढांचे तैयार करना फिर उनसे निष्कर्ष निकालना, नियंत्रित प्रयोग और निरीक्षण के
द्वारा उन निष्कर्षों के सही या गलत होने की जाँच करना और इस तरह उन सिद्धान्तों और
नियमों तक पहुंचना जो वैज्ञानिक जगत को नियमित करते हैं । इन विभिन्न चरणों में कोई
दृढ़ या निश्चित क्रम नहीं है । कभी कोई सिद्धान्त हमें नए प्रयोग के लिए रास्ता दिखा देता
है तो कोई प्रयोग किसी नए सिद्धान्त को बता जाता है। भव, प्रयोग व विश्लेषण की रोशनी
में इन नियमों में बदलाव आता रहता है।
            प्राकृतिक घटना की व्याख्या करने के लिए अवलोकन और प्रयोग की मदद ली जा
सकती है। जैसे-जैसे परिघटनाएँ बदलेगी, संभव है कि उनके कारण बदलें और साथ में ज्ञान
अर्जित करने के तरीके या ज्ञान की व्याख्याएँ बदले । यानि हम यह समझ सकते हैं कि विज्ञान
निरंतर बदलने वाला ज्ञान है । इसको समझने के लिए इसकी प्रकृति को समझने की जरूरत
होगी। इसके शाब्दिक अर्थ से चले तो एक कुम्हार, किसान, बुनकर आदि के अपने व्यवसाय
से जुड़ा ज्ञान विज्ञान है और तो और अन्य जीवों के अपने ज्ञान जैसे पक्षियों के घोंसले बनाने
का ज्ञान भी विज्ञान हैं । जैसे विकास का आधारभूत सिद्धान्त कैसे प्रतिपादित हुआ और वह
कैसे हमारी सोच को प्रभावित करता रहा है इस संदर्भ में हम प्रकृति विज्ञानी चार्ल्स डार्विन
और उनके खोज के बारे में पढ़ते हैं।
     कई जीवों में एवं कई प्राकृतिक इलाकों के विस्तृत अध्ययन के पश्चात् ही डार्विन अपने
अवलोकनों को सूचीबद्ध कर पाए थे । डार्विन ने कई प्रदत्तों के संग्रह, संकलन के पश्चात्
उनसे संबंधित जानकारी इकट्ठी की तब जाकर उन्होंने तथ्य का निरूपण किया । डार्विन द्धारा
एक भूभाग के जीवों का अध्ययन करके दूसरे भूभाग में पाए जाने वाले जीवों से तुलनात्मक
अध्ययन फिर उसके विशिष्ट लक्षण के साथ वर्गीकरण भी किया । कई जीवों के अवलोकन
एवं कई प्रमाण जुटाने के पश्चात् डार्विन और पैलेस मिलकर इस नतीजे पर पहुँचे कि-
1. जीवों में विविधता पाई जाती है जिसके कारण उनके जीने की क्षमता में भी थोड़े
बहुत अन्तर पाए जाते हैं। कोई कम जीता है तो कोई ज्यादा । जिसकी जीने की क्षमता ज्यादा
होती है वह परिवेश में ढलकर जीते हैं।
2. विश्व में प्रजातियों की रचना एक झटके में नहीं बल्कि पहले से मौजूदा प्रजातियों
से होती है।
3. विविध जीवों की उत्पत्ति किसी एक ही पूर्वज से हुई है इसलिए विकास की प्रक्रिया
को एक शाखित पेड़ के रूप में दर्शाया जा सकता है।
        इन प्रक्रियाओं द्वारा जो ज्ञान या जानकारी व्यक्ति प्राप्त करता है वह विज्ञान का उत्पाद
कहलाता है। व्यक्तियों द्वारा प्राप्त ज्ञान की गहराई और उसकी सत्यता उसके द्वारा प्रयुक्त
प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है। विज्ञान के उत्पाद के अन्तर्गत तथ्य, संकल्पनाएँ, नियम और
सिद्धान्त आते हैं।
प्रश्न 8. विज्ञान द्वारा कैसे जुड़ विचारों से मुक्ति एवं प्रगतिशील विचारों की ओर
बढ़ना संभव है?
उत्तर―आज समाज द्वारा उठाए गए कई सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक (मूल्यगत)
मुद्दे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र विज्ञान
की खोज से अछूता नहीं है। विज्ञान की शिक्षा ने महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा
देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संवैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत लैंगिक समानता,
वंचित व पिछड़े वर्गों की शिक्षा, अल्पसंख्यक व समावेशी शिक्षा तथा तृतीय लिंग हेतु विशेष
दर्जा दिया गया है। यह समाज में व्याप्त अंधविश्वास व पूर्वाग्रह को दूर करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभा रही है।
          आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह
अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप,
वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम
माने जाते थे। ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर इनकी जड़ें आज कमजोर हुई हैं । विज्ञान के
द्वारा दुनिया ऐसे विचारों से मुक्त होकर प्रगतिशील विचारों की ओर बढ़ चुकी है। विज्ञान
ने किसी घटना के घटित होने को समझाने की परिपाटी को बदल दिया है। आज विभिन्न
सिद्धान्तों की वैज्ञानिक प्रयोगों, जांच-पड़ताल एवं अवलोकनों द्वारा पुष्टि की जाती है तथा
उसमें निरंतर सुधार किया जाता है। हम कृत्रिम बुद्धि (A) के ऐसे युग में रहते हैं जिसने
हमें प्रोसेसिंग की जबर्दस्त शक्ति, भंडारण की क्षमता और सूचना तक पहुँचने की शक्ति
प्रदान की है। इसी प्रौद्योगिकी के बढ़ते विकास के पहले चरण में हमें चरखा, दूसरे चरण
में बिजली और औद्योगिक क्रांति के तीसरे चरण में कम्प्यूटर की सौगात मिली । मानव जीवन
की समस्याओं के समाधान में विज्ञान की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसका उपयोग संचार
यातायात, चिकित्सा, शिक्षा, कृषि, भवन निर्माण व वास्तुकला, मनोरंजन, दैनिक जीवन के
क्षेत्रों में हो रहा है। इसके प्रभाव से आज समाज में बड़ा परिवर्तन दिखाई दे रहा है।
प्रश्न 9. विज्ञान शिक्षण की विभिन्न विधियों एवं तकनीकों को समझा विकसित करें।
उत्तर―क. प्रयोगात्मक विधि-इस विधि के द्वारा किसी सूक्ष्म समस्या का समाध्यान
प्रस्तुत किया जाता है। इस विधि में अध्ययन नियंत्रित परिस्थितियों में किया जाता है। इस
कारण से इस विधि का प्रयोग व्यावहारिक दृष्टि से उचित है। प्रयोगात्मक विधि में किसी
समस्या के समाधान के लिए मात्र भूतकालीन घटनाओं अथवा स्थितियों को देखा जाता है।
इसमें पूर्ण नियंत्रित परिस्थितियों में प्रयोगात्मक चर में परिवर्तन लाकर यह निश्चित किया
जाता है कि कोई भी परिस्थिति अथवा घटना कब और क्यों अथवा किस प्रकार घटित होती
है? यहाँ पर प्रयोगात्मक अनुसंधान इस तथ्य का स्पष्टीकरण करता है कि जब सभी प्रकार
के संबंधित चरों या परिस्थितियों पर सावधानीपूर्वक नियंत्रण कर के प्रयोगात्मक चर में
परिवर्तन किया जाए तो उसका क्या निष्कर्ष प्राप्त होता है।
ख. प्रदर्शन विधि―प्रदर्शन विधि वह शिक्षण विधि है जिसमें किसी सरचना कार्य
प्रणाली, तथ्य तथा दृश्य को सष्ट किया जा सकता है। इस विधि में व्यत्र इदियों को सहायता
से जटिल प्रक्रिया का सरलता से बोध करते हैं । इस विधि द्वारा शिक्षण करने पर मूर्त से अमूर्त
शिक्षण का अनुसरण किया जाता है। प्रदर्शन विधि में अध्यापक कक्षा में चाई, मोडल का
आयोजन करके संबंधित विषय वस्तु का स्पष्टीकरण करता है। उदाहरण-यदि कक्षा में
शिक्षक को पोटेशियम परमैग्नेट से ऑक्सीजन बनाने की विधि का प्रयोग प्रदर्शित करना है
तो वह प्रदर्शन विधि का प्रयोग कर सकता है तथा इसके साथ ही में अन्य प्रयोग जैसे-
विभिन्न प्रकार को पुष्प, विभिन्न प्रकार के बीज जड़ों द्वारा पानी सोखना आदि।
ग. प्रोजेक्ट विधि―जिस विधि से छात्र किसी भी शैक्षणिक समस्या का हल स्वाभाविक
परिस्थिति में खोजने का प्रयास करता है, तर्क द्वारा जानकारी प्राप्त करता है और उस ज्ञान
के आधार पर अपने व्यवहार में परिवर्तन कर समस्या का समाधान करता है, उसे प्रोजेका
पद्धति कहते है। इस विधि में समस्या का हल खोजने के लिए प्रयोजन पूर्ण कार्य किये जाते
है। इसमें अनुभव की पूर्ति के लिए भौतिक साधनों तथा वस्तुओं का प्रयोग आवश्यक है।
इसमें जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का वास्तविक रूप में चयन करते है। समस्याओं के
लिए योजना तैयार की है। छात्रा अपनी समस्या के हल ढूँड़ने के लिए जो क्रियाएं करता
है, उन क्रियाओं को भली प्रकार पूरा करने के लिए अनेक सूचनायें एकत्रित करता है । च्या
को विषय ज्ञान-अनुभवों एवं क्रियाओं द्वारा प्राप्त होता है। अध्यापक का स्थान गौण होता
है। उसका कार्य निर्देशन देना होता है।
घ. सर्वेक्षण विधि―सर्वेक्षण एक वैज्ञानिक अध्ययन है, एक प्रक्रिया है जिसके द्धारा
किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में विश्वसनीय तथ्यों
का विस्तृत संकलन किया जाता है। इसकी सहायता से किसी भी पक्ष, विषय या समस्या
का खोजपूर्ण निरीक्षण किया जाता है तथा उससे संबंधित विश्वसनीय विस्तृत तथ्यों का
संकलन करके वास्तविक एवं प्रयोग से निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इन निष्कर्षों के आधार पर
रचनात्मक योजनाओं का निर्माण करके समाज सुधार और समाज कल्याण की दिशा में
महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं। Chaplin (1975) का मत है कि सर्वेक्षण विधि का तात्पर्य
निर्देशन तथा प्रश्नावली विधि द्वारा जनमत के मापन से है।”
ङ. समस्या― समाधान विधि–समस्या समाधान विधि विद्यार्थी को मानसिक क्रिया
आधारित है। क्योंकि इस विधि का चयन करके विद्यार्थी स्वयं के विचारों एवं तर्कशक्ति के
आधार पर मानसिक रूप से समस्या का हल ढूंढ कर नवीन ज्ञान प्राप्त करता है।
          सी. वी. गुड के शब्दों में “समस्या समाधान विधि में विद्यार्थी चुनौतीपूर्ण स्थितियों के
निर्माण द्वारा सीखने की ओर प्रेरित होते हैं। यह एक ऐसी विशिष्ट विधि है जिसमें लघु किंतु
संबंधित समस्याओं के सामूहिक समाधान के माध्यम से एक बड़ी समस्या का समाधान किया
जा सकता है।”
        वास्तव में समस्या उस परिस्थिति को कहते हैं जिसके लिए विद्यार्थियों के पास पहले
से तैयार कोई हल नहीं होता है। ऐसी परिस्थिति में उनको तुरंत ही उस समस्या का हल
प्राप्त करने के लिए साधन जुटाने पड़ते हैं। समस्या समाधान विधि में मानसिक निष्कर्षों पर
अधिक बल दिया जाता है। इसमें किसी समस्या या प्रश्न को एक विशेष स्थिति में वैज्ञानिक
ढंग से हल किया जाता है, परंतु इसके प्रयोग में इस बात पर बल दिया जाता है कि छात्र
समस्या को अपना समझ कर हल करने के लिए तैयार रहे । दूसरे शब्दों में विद्यार्थियों को
समस्या में अपनत्व अनुभव करना चाहिए।
प्रश्न 10. विज्ञान के बढ़ते ज्ञान की सहायता से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उपयोगी तकनीकी
का उत्तरोत्तर विकास कैसे हुआ है ? इसकी समझ विकसित करें।
                                               अथवा
कृषि, चिकित्सा, संचार, उद्योग आदि क्षेत्रों में विज्ञान के बढ़ते ज्ञान की सहायता
से उपयोगी तकनीकी का उत्तरोत्तर विकास कैसे हुआ है ? इसको समझ विकसित करें।
उत्तर―विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में नए अविष्कारों ने लोगों को दैनिक जीवन-शैली
को आधुनिक और उन्नत बनाने में महान भूमिका निभाई है। बहुत से क्षेत्रों में विज्ञान और
तकनीकी की उन्नति ने लोगों के जीवन को प्राचीन समय से अधिक उन्नत बना दिया है।
हमने अपने दैनिक जीवन में जो कुछ भी सुधार देखे हैं,वो सब केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी
के विकास के कारण है। इसे हम निम्नलिखित क्षेत्रों में हुए तकनीकी के उत्तरोत्तर विकास
से समझ सकते हैं―
       शिक्षा के क्षेत्र में― प्राचीन काल में शिक्षा के साधन सीमित थे तथा शिक्षा परंपरागत
तरीकों से प्रदान की जाती थी, लेकिन वर्तमान संदर्भ में दूरदर्शन, कम्प्यूटर, इंटरनेट तथा
उपग्रह प्रणाली के आविष्कार हो जाने से शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आया है।
इंटरनेट जैसे माध्यम के विकसित हो जाने से हम घर बैठे किसी भी क्षेत्र में, जैसे वैज्ञानिक
अनुसंधान तथा शैक्षणिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कम्प्यूटर तथा कैलकुलेटर जैसे
उपकरण विकसित हो जाने से हम गणित के कठिन प्रश्नों की सीमित समय में हल कर सकते हैं।
       स्वास्थ्य के क्षेत्र में― स्वास्थ्य के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का व्यापक रूप से
प्रयोग होने लगा है। इसके माध्यम से औषधियों एवं टीके की खोज की जाने लगी, जिससे
हमें अनेक खतरनाक रोगों (स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, चेचक) से छुटकारा मिल रहा है।
वर्तमान में शरीर की स्कैनिंग, माइक्रो सर्जरी, टेलीमेडिसिन तथा ऑनलाइन तरीके से
देश-विदेश से चिकित्सा परामर्श जैसी सुविधाएं मिली हैं। जीव विज्ञान की एक महत्वपूर्ण
खोज ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ के कारण अनेक आनुवंशिक रोगों के इलाज की संभावनाएं
बढ़ गई हैं।
        कृषि के क्षेत्र में― कृषि के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के द्वारा विभिन्न फसलों की
अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का विकास, मृदा जल प्रबंधन, जैव उर्वरकों का
अधिकाधिक प्रयोग, फसल सुरक्षा, कीटनाशक रसायनों का प्रयोग आदि में उल्लेखनीय प्रगति
हुई है।
      उद्योग एवं व्यापार के क्षेत्र में― प्राचीन समय से भारत में हस्तशिल्प प्रमुख उद्योग
था। उस समय इस उद्योग में किसी भी प्रकार की प्रौद्योगिकी की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन
जैसे-जैसे देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई वैसे-वैसे औद्योगिक
क्षेत्र में वृद्धि होती गई। आज देश में बड़ी-बड़ी मशीनों के प्रयोग से कम-से-कम लागत
पर अधिक से अधिक उत्पादन किया जा रहा है। वर्तमान में सड़क परिवहन के विकास से
व्यापार के क्षेत्र को बढ़ावा मिल रहा है। आज देश में 50% से अधिक व्यापार कम्प्यूटर
के द्वारा होने लगा है। इसके अलावा ई-कॉमर्स ने व्यापार के क्षेत्र को नया आयाम प्रदान
किया है।
        संचार के क्षेत्र में― आज के दौर में दूरसंचार सेवाओं को किसी भी राष्ट्र के
सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण साधन माना जाता है। वैश्विक स्तर पर
दूरसंचार के उपयोग ने मानव को अत्यधिक प्रभावशाली एवं विकसित बना दिया है। टेलीग्राफ
के आविष्कार के साथ ही मानव एक ऐसे युग में प्रवेश कर गया जो स्वर्णिम था। तत्पश्चात्
विद्युत की खोज होने के साथ-साथ तांबे से भाषिक संकेतों को प्रेषित करने के प्रयास में
एलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने टेलीफोन का आविष्कार कर दिया । विकास के इस क्रम में 20वीं
शताब्दी में मोबाइल संचार का मार्ग प्रशस्त हुआ और अब 21वीं शताब्दी तक आते-आते
दूरसंचार मानव के दैनिक क्रियाकलापों के साथ-साथ विकास की प्रक्रिया में अभिन्न हिस्सा
बन गया है। दूरसंचार, संचार प्रौद्योगिकी का मुख्य रूप है, जिसमें सूचनाओं का संप्रेषण
विद्युत चुंबकीय माध्यम द्वारा होता है। दूरसंचार के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं,
जैसे-ध्वनि एवं संगीत, चित्र व वीडियो, कम्प्यूटर फाइलों आदि को संप्रेषित किया जा सकता
है। पिछले दशक के दौरान दूरसंचार क्षेत्र में विशाल प्रगति ने दूरसंचार उपकरणों के विनिर्माण
और अन्य समर्थित उद्योगों ने देश के विकास को दिशा दी है ।
प्रश्न 11. विज्ञान में विकसित सिद्धांतों के प्रयोग एवं अवलोकन द्वारा जाँच पड़ताल, पुष्टि
एवं सुधार का एक उदाहरण दें।
उत्तर–उदाहरण के लिए यह जाँच करना कि अवतल दर्पण की के ध्रुव से फोकस
बिन्दु की दूरी, फोकस दूरी (f) कहलाती है जो वक्रता क्रिया की आधी होती है । इस सिद्धान्त
की पुष्टि के लिए निम्न प्रयोग कर उसका अवलोकन एवं जाँच पड़ताल करते हैं―
एक अवतल दर्पण को सूर्य की किरणों के सामने रखेंगे।
ph
अवतल दर्पण के वक्रता केन्द्र (उसे जिस गोले को काटकर बनाया गया है उसका केन्द्र)
से दर्पण के ध्रुव (P) की दूरी को वक्रता त्रिज्या (r) कहते हैं। समानांतर आती हुई किरणे
(दूर से आती हुई किरणें समानांतर होती है) अवतल दर्पण के चमकीली सतह से टकराकर
एक ही बिन्दु पर मिलती है इस बिन्दु को फोकस (F) बिन्दु कहते हैं।
        जहाँ सूर्य की किरणें आ रही हों वहाँ काले कागज को पत्थर के टुकड़ों से दबाकर रख
देंगे। अब अवतल दर्पण पर किरणों को पड़ने देंगे (दूर से आने वाली किरणें समानांतर होंगी)
तथा परावर्तित किरणों को काले कागज पर फोकस करेंगे । इस हेतु अवतल दर्पण को
आगे-पीछे करते हुए इस प्रकार रखेंगे कि काले कागज पर परावर्तित किरणों से सूर्य का
प्रतिबिम्ब बिल्कुल बिन्दु के आकार का बने । हम देखेंगे कि थोड़ी देर बाद कागज के उस
बिन्दु से धुंआ निकलना प्रारंभ हो जाता है क्योंकि जब फोकस बिन्दु पर सभी किरणें एकत्र
हो जाती है तो वहाँ का ताप बढ़ जाता है और कागज जलने लगता है । किरणों के फोकस
होने से काले कागज के जल उठने तक का समय नोट कर लेंगे।
        दर्पण के ध्रुव से कागज के तल पर बिन्दु के आकार के बनने वाले फोकस बिन्दु तक
की दूरी को स्केल से माप कर इस प्रयोग से अवतल दर्पण के अनुमानित फोकस दूरी (f)
को मापा जा सकता है।
इस प्रयोग के अवलोकन एवं जाँच पड़ताल द्वारा अवतल दर्पण के ध्रुव एवं फोकस के
बीच की दूरी के सिद्धान्त की पुष्टि हो जाती है जिसकी प्रयोग के बाद पुष्टि की जा सकती है।
प्रश्न 12. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के आलोक में उच्च प्राथमिक
स्तर पर विज्ञान की समझ विकसित करें।
उत्तर―NCF 2005 में विज्ञान विषय के छ: वैध मानकों की चर्चा की गई है। इसमें
से पहला वैघ मानक है―
        “संज्ञानात्मक वैधता के लिए आवश्यक है कि पाठ्यचर्या की विषयवस्तु, प्रक्रिया, भाषा
व शिक्षा शास्त्रीय अभ्यास आयु के अनुरूप हो और बच्चे की संज्ञानात्मक पहुंच के भीतर
आए I NCF 2005 में दूसरे मानक के रूप में महत्वपूर्ण विषय को सरल रूप में पहुँचने
की बात की गई है।
      तीसरे मानक के रूप में प्रक्रिया की वैधता है जिसके अन्तर्गत प्रणालियों एवं प्रक्रियाओं
में विद्यार्थियों को व्यस्त रखता है जो उन्हें वैज्ञानिक जानकारी के पुष्टिकरण व सृजन करने
की ओर ले जाए । विज्ञान में बच्चे की स्वाभाविक जिज्ञासा एवं सृजनशीलता का पोषण हो
सके | NCF 2005 में चौथा वैध मानक ऐतिहासिक वैधता है जो समय के साथ विकसित
हुई और यह कि एक सामाजिक उद्यम है कि समझ । साथ ही सामाजिक घटक विज्ञान को
कैसे प्रभावित करते हैं।
        पाँचवें मानक के रूप में पर्यावरणीय वैधता जो स्थानीय तथा वैश्विक दोनों के संदर्भ
में हो। यह मुद्दों को तकनीक व समाज के पारस्परिक संवाद के क्रम में समझ सके तथा
कार्यक्षेत्र में आवश्यक ज्ञान व कौशल का पोषक हो । छठवाँ मानक नैतिक वैधता के लिए
जरूरी है कि पाठ्यचर्या, ईमानदार, वस्तुपरकता, सहयोग, भय व पूर्वाग्रह से मुक्ति जैसे मूल्यों
का विकास तथा विद्यार्थी में पर्यावरण व जीवन के संरक्षण के प्रति चेतना विकसित हो।
       राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में उल्लेख है कि उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चों
को विज्ञान के सरल सिद्धान्तों की जानकारी देनी चाहिए लेकिन ऐसा आस-पास के परिचित
दुनिया के माध्यम से होना चाहिए। साथ ही इसे तकनीकी इकाइयाँ, मॉड्यूल बनाने और
सर्वे व अन्य कार्यकलापों के माध्यम से पर्यावरण तथा स्वास्थ्य के बारे में ज्यादा से ज्यादा
जानने की ओर प्रेरित करना चाहिए । वैज्ञानिक सिद्धान्तों के बारे में जानकारी, प्रयोगों व
कार्याकलापों के माध्यम से ही उचित है। विज्ञान की विषय-वस्तु इस स्तर पर माध्यमिक
स्तर के विज्ञान का हल्का रूप नहीं होनी चाहिए। सामूहिक कार्यकलाप, साथियों और
शिक्षकों के साथ विचार-विमर्श, आंकड़ों के संग्रह और स्कूल एवं पड़ोस में इन सबका
प्रदर्शनी के माध्यम से डिसप्ले, शिक्षण के महत्वपूर्ण अवयव होने चाहिए। नियमित व
सर्वाधिक मूल्यांकन (इकाई एवं सत्रांत परीक्षाएँ) शुरू कर देना चाहिए।
        (नोट-राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में उल्लिखित विज्ञान शिक्षण के निर्देशों
को ही थोड़े बहुत बदलावों के साथ बिहार के परिप्रेक्ष्य में बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा
2008 में शामिल किया गया है।)
प्रश्न 13. वैज्ञानिक विधि क्या है ? इस विधि के चरणों की व्याख्या करें।
उत्तर―वैज्ञानिक विज्ञान का अध्ययन करने में या खोज करने में तर्कपूर्ण ढंग से जिस
विधि को अपनाता है उसे “वैज्ञानिक विधि” कहते है । वैज्ञानिक विधि खोज विषि का ही
एक रूप है । इस विधि से छात्रों में तर्कशक्ति, समीक्षात्मक चिन्तन, रचनात्मक अभिवृद्धि
विकसित की जाती है। वैज्ञानिक विधि के मुख्य चरण―
1. समस्या का निर्धारण―सर्वप्रथम हमारे सामने अनेक समस्याएं आती हैं। जिनके
समाधान हेतु विचार-विमर्श करके निर्णय लेना पड़ता है। समस्या को सूक्ष्म दृष्टि से देखने
पर कई प्रश्न मस्तिष्क में उठते है जैसे—वस्तुएं नीचे क्यों गिरती हैं, हवा क्यों चलती है ?
आदि इन प्रश्नों की व्याख्या की जाती है तथा समस्या का निर्धारण होता है।
2. समस्या से संबंधित तथ्यों को एकत्रकर उनका वर्गीकरण करना—समस्या के
निर्धारण के पश्चात् विभिन्न स्रोतों, पुस्तकालयों, मॉडल, क्षेत्रीय प्रमण के द्वारा समस्या से
संबंधित आंकड़े एकत्रित किये जाते है तथा सावधानी व सूझबूझ से उनका वर्गीकरण किया
जाता है।
3. परिकल्पना का निर्माण-तथ्यों व आंकड़ों के एकत्रीकरण के पश्चात् समस्या के
सम्भावित समाधान ढूंढे जाते है जिन्हें परिकल्पना कहते है । प्रयोग परिकल्पना की पुष्टि की
जाती है। जैसे—पृथ्वी बल द्वारा वस्तुओं को अपनी और खींचती है।
4. प्रयोग के आधार पर परिकल्पना की सत्यता की जांच करना―परिकल्पना
की सत्यता की जांच के लिए अनेक प्रयोग किये जाते है तथा उचित परिकल्पना की एक-एक
जांच की जाती है। उचित विश्लेषण के आधार पर किसी एक परिकल्पना को निष्कर्ष रूप
में चुना जाता है।
5.स्वीकृत परिकल्पना या निष्कर्ष का सामान्यीकरण—जो परिकल्पना या निष्कर्ष
स्वीकृत कर लिया जाता है उसे वैसी ही परिस्थितियों में वैसी ही अन्य समस्याओं के हल
के लिए प्रयुक्त करके देखा जाता है किसी एक घटना को जो कारण तलाश किया जाता
है उसे फिर अन्य ऐसी ही घटनाओं को घटित होने के कारणों का समझने में प्रयोग में लाया
जाता है और अगर वह अपने इस परीक्षण में सफल होता है तो इस परिकल्पना को एक
सामान्य निष्कर्ष या नियम के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है जैसे—न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण
का नियम।
6. नवीन परिस्थितियों में ज्ञान का उपयोग कक्षा-कक्ष परिस्थिति या वास्तविक
जीवन में परिस्थिति का दूर करने के लिए छात्र को सिद्धान्त या नियम को दैनिक जीवन में
उपयोग करना चाहिए।
प्रश्न 14. कक्षा-7 के विज्ञान विषय से संबंधित किसी एक अवधारणा का चयन
करते हुए उसके शिक्षण अधिगम के लिए सीखने की योजना का निर्माण कीजिए।
उत्तर―शिक्षक का नाम―              कक्षा–7
कलांश―                   तिथि―
विषय-विज्ञान              इकाई–1
विषयवस्तु जल और जंगल
विषय वस्तु से संबंधित पूर्व समीक्षा (शिक्षण से पहले किया जाने वाला कार्य):
1. यह विषय वस्तु इस कक्षा के पाठ्यचर्या/पाठ्यक्रम में उल्लिखित किन किन
उद्देश्यों बिंदुओं से जुड़ा हुआ है ?
        यह विषयवस्तु बच्चों को जल एवं जंगल के महत्व एवं उनके बचाव के प्रति जागरूक
कर उनमें वैज्ञानिक तर्क एवं सोच का विकास करती है।
2. क्या यह विषय वस्तु पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है? कैसे? यह
विषय वस्तु इस कक्षा की और किन-किन इकाइयों से जुड़ा हुआ है ? क्या मैंने इस विषय
वस्तु का पहले शिक्षण किया है ? क्या मुझे विषय वस्तु से संबर्बोधत पर्याप्त समझ है ?
      हाँ, यह विषयवस्तु पूर्वत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है। जिसमें जल एवं पेड़
पौधों का वर्णन किया गया है। जहाँ-जहाँ जल एवं जंगल की उपयोगिता की चर्चा होगी
उससे यह विषयवस्तु स्वतः जुड़ जायेगी। हाँ, मैंने इस विषयवस्तु का पहले शिक्षण किया
है। मुझे इसकी पर्याप्त जानकारी है।
3. विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण
यह विषयवस्तु बच्चों को जल एवं जंगल की उपलब्यता, उपयोगिता एवं खाद्य श्रृंखला
की जानकारी देकर उसके प्रति संवेदनशीलता का विकास करती है।
4. सीखने-सिखाने की विधियाँ । इन विधियों को क्यों चुना गया ?
विषयवस्तु को पढ़ाने के लिए सामूहिक चर्चा, अवलोकन, निरीक्षण, प्रदर्शन एवं
प्रश्नोत्तरी विधि का प्रयोग किया जायेगा । सामूहिक चर्चा द्वारा बच्चे अपने अनुभव को
विषयवस्तु से जोड़ पायेंगे। अवलोकन तथा निरीक्षण के द्वारा वे जल एवं जंगल की उपयोगिता
तथा महत्व को जानेंगे । प्रदर्शन विधि द्वारा उनमें विषय की मूर्त समझ एवं वैज्ञानिक दृष्टीकोण
विकसित होगा। प्रश्नोत्तरी द्वारा उनके सीखने का मूल्यांकन किया जायेगा।
5. सीखने की योजना
40 मिनट की इस कक्षा में सर्वप्रथम 10 मिनट सामूहिक चर्चा द्वारा बच्चों को उनके
अनुभवों से जल एवं जंगल की उपयोगिता तथा महत्व को समझाया जायेगा। इसके बाद
अगले 10 मिनट जल संरक्षण की विधियों को चित्र एवं चलचित्र के माध्यम से उन्हें दिखाया
जायेगा। बच्चों को अवलोकन एवं निरीक्षण के कार्यों द्वारा अपने आस-पास के भौमजल
स्तर, उसके स्रोत एवं उसके गिरने के कारणों का पता लगाने को कहा जायेगा । अगले 10
मिनट उनसे जंगल की उपयोगिता तथा महत्व को बताने का कार्य कराया जायेगा । इसी दौरान
खाद्य श्रृंखला की चर्चा एवं उसके प्रभाव को भी बताया जायेगा। अन्त के 10 मिनट में
प्रश्नोत्तरी विधि द्वारा उनकी समझ का मूल्यांकन किया जायेगा।
शिक्षक द्वारा स्व मूल्यांकन के सुझाव बिंदु (शिक्षण के बाद किया जाने वाला कार्य):
1. क्या विद्यार्थी ने उन उद्देश्यों को समझा जिसके लिए यह विषय वस्तु थी ?
इसका मूल्यांकन किया गया कि नहीं?
हाँ, विद्यार्थियों ने उद्देश्य को समझा । यह उनके मूल्यांकन से स्पष्ट हो गया।
2. क्या इस विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता है ? क्यों
या क्यों नहीं?
      नहीं, इस विषयवस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। बच्चे
इसकी अवधारणा समझ गये हैं।
3. साथियों द्वारा पूछे गए प्रमुख सवाल क्या थे ? कितने विद्यार्थियों ने सवाल पूछे ?
तीन-चार विद्यार्थियों ने ह्यूमस तथा खाद्य श्रृंखला से संबंधित प्रश्न पूछे।
4. आपने उन सवालों को कैसे समझाया ? क्या विद्यार्थियों को स्वयं उन सवालों का हल
करने का मौका मिला?
उन्हें उससे संबंधित उदाहरण देकर समझाया गया।
फिर विद्यार्थियों ने वैसे प्रश्नों को हल किया।
5. विषय वस्तु की सीखने-सिखाने में किस प्रकार के संसाधनों (T LM) का प्रयोग
किया गया? उनकी उपयोगिता क्या रही।
चित्र, आई सी टी, आदि का प्रयोग किया गया जो उपयोगी सिद्ध हुए।
6. इस विषय वस्तु को यदि दोबारा पढ़ाना हो तो आप सीखने-सिखाने की योजना में
क्या बदलाव करेंगे?
यदि इस विषयवस्तु को दुबारा पढ़ाना हो तो सीखने की योजना में कोई बदलाव नहीं
करेंगे।
7. इस विषय वस्तु से संबंधित कोई ऐसा सवाल जिसे आपको अपने संस्थान के विषय
विशेषज्ञ तथा मेंटर से चर्चा करने की अपेक्षा है?
नहीं।
8. कोई अन्य टिप्पणी।
नहीं।
प्रश्न 15. बच्चों में वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास करने के तरीके कौन-कौन से है।
                                            अथवा
बच्चों में वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास आप किस तरह करेंगे?
उत्तर―विज्ञान, प्रकृति का विशेष ज्ञान है । सत्य को असत्य व भ्रम से अलग करने
के लिए अब तक आविष्कृत तरीकों में वैज्ञानिक विधि सर्वश्रेष्ठ है। अत: बच्चों में वैज्ञानिक
अभिवृत्ति का विकास किया जाना आवश्यक है। बच्चों में वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास
निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है―
क. अवलोकन―अवलोकन विज्ञान की एक मूलभूत प्रक्रिया है तथा वैज्ञानिक खोजों
के लिए एक आधार तैयार करती है। विद्यार्थियों को बताया जाए कि अवलोकन करने का
अर्थ प्रायोगिक घटना या वस्तु के बारे में हमारी विविध इंद्रियों का उपयोग करके सूचना
(आंकड़े) एकत्रित करना है । जैसे लिटमस विलियन में रंग के परिवर्तन को देखना, चिमटे
के कंपन को छूकर महसूस करना, रसायनिक क्रिया के दौरान निकलने वाली गैस की गंध
को सूंघना, संगीत वाद्ययंत्र की ध्वनि के उतार-चढ़ाव में परिवर्तन को सुनना तथा विलियन
को चखकर देखना है कि यह मीठा है या नमकीन । अवलोकन करने के लिए शिक्षार्थियों
को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि एक अच्छा अवलोकनकर्ता बने । इसके लिए उन्हें
अधिक से अधिक अवलोकन आधारित गतिविधियां प्रदान कर उनकी सहायता करने की
आवश्यकता है।
ख. निरीक्षण (observation)― जिस प्राकृतिक वस्तु या घटना का अध्ययन करना हो,
सबसे पहले उसका ध्यानपूर्वक निरीक्षण आवश्यक है। यदि कोई घटना क्षणिक हो, तो उसका
चित्रण कर लेना आवश्यक है, ताकि बाद में उसका निरीक्षण हो सके, जैसे ग्रहण । बच्चों
में वैज्ञानिक अभिवृत्ति के विकास के लिए उन्हें निरीक्षण करने को प्रेरित करना चाहिए।
ग. वर्णन (description)― निरीक्षण के साथ ही साथ, या तुरंत बाद, निरीक्षित वस्तु
या घटना का वर्णन होना चाहिए। जिसे आपस में चर्चा द्वारा भी किया जा सकता है। इसके
लिए नपे-तुले शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे पढ़ने वाले के सामने निरीक्षित वस्तु
का चित्र खिंच जाए । जहाँ कहीं आवश्यकता हो, अनुमान के द्वारा अंकों में वस्तु के
गुणविशेष की माप दे देनी चाहिए, किंतु यह तभी करना चाहिए जब वैसा करना बाद में
उपयोगी सिद्ध होने वाला हो । फूलों के रंगों का वर्णन या उनपर चर्चा करते समय अनुमानित
तरंगदैर्ध्य देना व्यर्थ है, किन्तु किसी वस्तु की कठोरता की तुलना अन्य वस्तु की अपेक्षा अंकों
में देना ही ठीक है। व्यर्थ के ब्यौरे न दिए जाए और भाषा सरल तथा सुबोध हो ।
घ. कार्य-कारण-विवेचन (cause and effect)― प्रकृति के रहस्योद्घाटन में कार्यकरण
का विवेचन महत्वपूर्ण है । यह बच्चों के वैज्ञानिक अभिवृत्ति के विकास के लिए आवश्यक
है। वर्षा का होना, बादल की गरज, बिजली की चमक, आँधी और तूफान आदि घटनाओं
के कार्य-कारण को जानने के लिए उन्हें प्रेरित करना चाहिए। साथ ही विभिन्न कारणों का
तारतम्य भी बाँधकर रखना चाहिए। ये सब बातें घटना को समझने में सहायक होती हैं।
ङ. प्रयोगीकरण (experimentation)― विज्ञान की इस युग में जो भी शीघ्र उन्नति
हो पाई, उसका एकमात्र श्रेय इस विधि को ही है, क्योंकि अन्य विधियाँ तो इसी मुख्य विधि
के इर्द गिर्द संजोई गई हैं। यह तकनीक इस युग की देन है। प्राचीन समय में इसी के अभाव
में विज्ञान की प्रगति नहीं हो पाई थी। अंतरिक्ष यात्रा एवं परमावणवीय शक्ति का विकास,
इसी प्रयोगीकरण के कारण, संभव हो सका है। प्रयोग करने से बच्चों में वैज्ञानिक घटनाओं,
सिद्धान्तों, कारणों की व्यावहारिक समझ बनती है तथा वे प्रासंगिक स्थितियों में विज्ञान सीखते
है।
च. परिकल्पना (hypothesis)― प्रयोग करने का एक मात्र उद्देश्य प्रकृति के किसी
रहस्य का उद्घाटन होता है । कोई घटना क्यों और कैसे घटित होती है, इसको समझना पड़ता
है। वर्षा क्यों होती है ? इंद्रधनुष कैसे बनता है ? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए
एक परिकल्पना की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों के अंदर भी घटनाओं को जानने, समझने
और सीखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है जिसके कारण परिकल्पना द्वारा उनकी वैज्ञानिक
अभिवृत्ति का विकास स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है। यदि परिकल्पना ठीक है, तो
वह जाँच में ठीक बैठेगी। परिकल्पना की जाँच के लिए विभिन्न प्रयोग किए जा सकते हैं।
आगे चलकर ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आते हैं जो उस परिकल्पना की पुष्टि कर सकते हैं।
न्यूटन के गति के नियम और आइन्स्टान का सापेक्षवाद का सिद्धान्त इसके उदाहरण हैं।
प्रश्न 16. निम्नलिखित पर टिप्पणी करें―
क. सरल सूक्ष्मदर्शी
ख. प्रकाश का परावर्तन
ग. पृथक्करण
घ. विज्ञान किट
उत्तर–क. सरल सूक्ष्मदर्शी―सरल सूक्ष्मदर्शी कम फोकस दूरी का उत्तल लेंस होता
है, इसमें वस्तु का आकार वस्तु द्वारा नेत्र पर बनाए गए दर्शन कोण पर निर्भर करता है।
दर्शन कोण जितना छोटा होता है, उतनी ही वस्तु छोटी दिखाई पड़ती है। यह एक निश्चित
दूरी पर स्थित दो उत्तल लेंसों के संयोजन से बना होता है । पदार्थ की तरफ लगे लेंस को
अभिदृश्यक (Objective) लेंस और आँख के पास लगे लेंस को ‘अभिनेत्र लेंस’ (eye &
lens) कहते हैं। ऐसे सूक्ष्मदर्शी का दृष्टिक्षेत्र (field of view) सीमित होता है। सरल
सूक्ष्मदर्शी की आर्वधन क्षमता है―
M= 1+D/f होती है। जहाँ D = 25 cm तथा f= लेंस की फोकस दूरी है।
ph
ख. प्रकाश का परावर्तन-जब कोई प्रकाश की किरण किसी माध्यम से टकराकर
पुनः उसी माध्यम में वापस लौट जाती है तो इस घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते है।
      दो माध्यमों के मिलान तल पर पहुँचकर किसी तरंग का पुन: उसी माध्यम में पीछे लौट
जाना परावर्तन कहलाता है। उदाहरण के लिए, जल की तरंगों, ध्वनि, प्रकाश तथा अन्य
विद्युत चुम्बकीय तरंगों का परावर्तन । दर्पण में हम अपना जो प्रतिविम्ब देखते हैं वह परावर्तन
के कारण ही बना होता है। अर्थात् जब कोई प्रकाश किरण एक माध्यम से चलकर दूसरे
माध्यम की सतह से टकराकर वापस उसी माध्यम में लौट आये तो इस घटना अथवा क्रिया
को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।
परावर्तन के नियम―
1. आने वाले किरण (आपातीत किरण) परावर्तित किरण (जाने वाली किरण) एवं
अभिलम्ब तीनों एक ही तल में होता है।
2.आपतन कोण (प) परावर्तन कोण (त) के बराबर होता है। अत: प = त इसका
अर्थ यह निकलता है कि जितने कोण पर कोई प्रकाश किसी आईने पर गिरेगी उतने ही कोणी
से गिरने पश्चात् वापस चली जायेगी।
3. परावर्तन की क्रिया में प्रकाश की आवृत्ति एवं चाल परिवर्तित नहीं होती अर्थात्
प्रकाश की ऊर्जा नहीं कम होती है।
4. नियम 2 से कहा जा सकता है कि यदि आपतन कोण शून्य हो तो परावर्तन कोण
भी शून्य होगा। इस स्थिति में प्रकाश जिस मार्ग से आती है उसी मार्ग से वापस चली जाती
है या इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अभिलम्बवत् आपतन की स्थिति में प्रकाश अपने
आगमन मार्ग से परावर्तित हो जाती है।
व्यावहारिक उदाहरण―
जब हम आईने में अपना चेहरा देखते है तो हमारे चेहरे से प्रकाश चलकर आईने पर
गिरता है और प्रकाश आईने से परावर्तित होकर वापस उसी मार्ग से लौटकर नेत्र की रेटिना
पर गिरती है जिससे हमारा चेहरा दिखाई देता है।
      मोटर साइकिलों, ट्रकों, बसों, में ड्राइवर के पास लगे साइड मिरर में भी यही क्रिया होती
है अर्थात् पीछे कि या बगल की वस्तुएँ परावर्तन के कारण ही दिखाई देती है।
ph
ग. पृथक्करण― अनेक पदार्थों को यदि एक दूसरे में मिला दिया जाये और उनमें कोई
रसायनिक क्रिया न हो तो इन पदार्थों का एक मिश्रण बन जाता है । रसायनिक क्रिया होने
पर मिश्रण नहीं बनता बल्कि एक नया पदार्थ ही बन जाता है । मिश्रण में जितने भी पदार्थ
मिले हुए होते हैं उन सभी के गुण हम अलग-अलग देख सकते हैं । उदाहरण के लिए यदि
पानी के एक गिलास में हम नमक मिला और उसे चख कर देखें तो पानी में नमक का
स्वाद आयेगा। इसके बाद उसमें चीनी भी मिला दें तो नमक और चीनी दोनों का स्वाद
आयेगा । प्रकृति में हमें अनेक मिश्रण दिखाई देते हैं । तालाब के पानी में अनेक पदार्थ मिले
हुए होते हैं। इसी प्रकार मिट्टी भी अनेक पदार्थों का मिश्रण है।
         किसी मिश्रण में मिले हुए पदार्थों को अलग करने को ही पदार्थों का पृथक्करण कहा
जाता है। इसकी अनेक विधियाँ है―
         बीनना, चालना, फटकना, उड़ावनी (हवा द्वारा), चुम्बकीय पृथक्करण, निथारना, दो
अविलेय द्रवों को पृथक्कारी कीप से अलग करना, अपकेंद्रण, छानना, वाष्पीकरण, आसवन,
क्रिस्टीलीकरण, ऊर्धवपातन आदि ।
घ. विज्ञान किट―विज्ञान किट विज्ञान प्रसार द्वारा विकसित सामग्रियों, उपकरणों और
खिलौनों को इस प्रकार से विकसित और निर्मित किया जाता है कि बच्चें स्वयं अपने आप
से प्रयोगों एवं गतिविधियां को संपन्न कर सकें। इनको स्थानीय रूप से उपलब्ध और आसानी
से प्राप्त हो सकने वाली सामग्री का उपयोग करके विकसित किया जाता है। ऐसी किटों को
विकसित करने के साथ ही कई क्षेत्रों में विज्ञान के मूलभूत सिद्धान्तों को इनके माध्यम से
समझाया जा सकता है। इनकी गतिविधियों के प्रदर्शन के माध्यम से विज्ञान की बुनियादी
अवधारणाओं को समझाया जाता है।
        सामग्री― विज्ञान किट में कई प्रकार की सामग्री रखी जाती है जिसमें माइक्रोस्कोप,
महत्वपूर्ण केमिकल्स, दर्पण लैंस, स्क्रू गेज, स्केल, लिटमस पेपर आदि सहित कई महत्वपूर्ण
उपकरण शामिल रहते हैं।
       उपयोग–वैज्ञानिक सिद्धान्तों को प्रायोगिक तरीके से समझाने से विद्यार्थियों को कई
लाभ होंगे। इससे विद्यालयों में विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों को समझने में आसानी होगी।
प्रयोगशाला में होने वाली बोरियत कम हो जाएगी। किट के प्रयोग से विद्यार्थियों की रुचि
बढ़ेगी । ज्ञान के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण में भी वृद्धि होगी।
प्रश्न 17. जिज्ञासा एवं शंका विज्ञान की बुनियाद है । कैसे ?
उत्तर―मनुष्य हमेशा से अपने परिवेश के प्रति जिज्ञासु रहा है । खोजी व कल्पनाशील
मानव-मस्तिष्क ने प्रकृति की विचित्र व अचरज भरी घटनाओं को विभिन्न तरीकों से समझने
का प्रयास किया। उनमें से जो एक तरीका शुरू से ही बरकरार रहा है वह है—आसपास
के जीव-जगत व भौतिक-जगत को गौर से देखना और उसी के अनुसार अर्थपूर्ण पैटर्न एवं
संबंधों को खोजने का प्रयास, प्रकृति से जूझने के लिए नए-नए औजारों का निर्माण और
इसे समझने के लिए सैद्धांतिक ढाँचे को विकसित करने की ओर अग्रसर होना । यही मानव
प्रयास विज्ञान है । विज्ञान एक जीवंत, नए से नए अनुभवों के अनुसार विस्तार पाता हुआ
गतिमान ज्ञान है लेकिन सवाल है कि यह ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है ? आखिर क्या है
वैज्ञानिक पद्धति ? अन्य कई जटिल चीजों की भाँति वैज्ञानिक पद्धति को भी हम सभी जगह
पाते हैं, इसकी बात तो सभी जगह होती है, लेकिन इसे परिभाषित करना अपेक्षाकृत कठिन
साबित हुआ है । मोटे तौर पर इसके कई चरण हैं जो आपस में संबंधित हैं—गौर से निरीक्षण
करना, नियमितताओं और खास पैटर्न की तलाश, संकल्पनाओं को गढ़ना, गणितीय ढाँचे
तैयार करना, फिर उनसे निष्कर्ष निकालना, नियंत्रित प्रयोग और निरीक्षण के द्वारा उन निष्कर्षों
के सही या गलत होने की जाँच करना और इस तरह अंततः सिद्धान्तों और नियमों तक
पहुँचना जो भौतिक जगत को नियंत्रित करते हैं। इन विभिन्न चरणों में कोई दृढ़ या निश्चित
क्रम नहीं है। कभी कोई सिद्धान्त हमें नए प्रयोग के लिए रास्ता दिखा देता है, तो कभी कोई
प्रयोग किसी नए सिद्धान्त को बता जाता है। विज्ञान में अनुमान और अटकलों के लिए भी
जगह है, लेकिन अंततः किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त को सर्वसम्मति से स्वीकार्य होने के लिए
उसे उपयुक्त प्रयोगों अथवा निरीक्षणों की कसौटी पर खरा उतरना ही पड़ता है।
         विज्ञान एक संकल्पना है और जिज्ञासा विज्ञान की जननी है। इसी परिकल्पना का
भौतिक प्रकटीकरण प्रौद्योगिकी के रूप में समाज का उद्धार करता है। बच्चों में अनंत
जिज्ञासा और उत्सुकता होती है। कभी जल उनकी जिज्ञासा को जगाता है कभी हवा उसे
झकझोरती है। पृथ्वी के घूमने से लेकर पृथ्वी की गहराई तक के विचार उसे सोचने को
मजबूर करते हैं। मौसम का बदलना, ऋतुओं का आना-जाना, चंक्रमा की कलाओं का
घटना-बढ़ना, आँधी, तूफान, भूकंप का होना आदि । यह सब क्या है जैसे प्रश्न उसके मन
को जग झकझोते हैं एवं उनमें जानने की इच्छा एवं शंका पैदा करते हैं। यही रहस्य उन्हें
प्रकृति से जोड़ती है। बच्चे रह-रहकर प्रकृति के रहस्य को जानने, समझने के लिए उत्सुक
रहते हैं। उनकी यही जिज्ञासा एवं शंका विज्ञान के जुड़ने की बुनियाद बनती है।
प्रश्न 18. चुंबक क्या है ? इसका सिद्धान्त, बनाने की विधि एवं उपयोग का
वर्णन करें।
उत्तर―चुम्बक (मैग्नेट) वह पदार्थ या वस्तु है जो चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करता है।
चुम्बकीय क्षेत्र अदृश्य होता है और चुम्बक का प्रमुख गुण आस-पास की चुम्बकीय पदार्थों
को अपनी ओर खींचने एवं दूसरे चुम्बकों को आकर्षित या प्रतिकर्षित करना होता है । चुंबक
दो प्रकार के होते हैं।
क. स्थायी चुंबक―इनके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र बिना किसी बाह्य विद्युत धारा
के ही प्राप्त होता है और सामान्य परिस्थितियों में बिना किसी कमी के बना रहता है। ये
कठोर (हार्ड) चुम्बकीय पदार्थ से बनाये जाते हैं।
ख. अस्थायी चुंबक ये शुम्बक तभी चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करते हैं जब इनके प्रयुक्त
तारों से होकर विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है । धारा के समाप्त करते ही इनका चुम्बकीय
क्षेत्र लगभग शून्य हो जाता है। इसीलिए इन्हें विद्युत चुम्बक (एलेक्ट्रोमैग्नेट) भी कहते हैं।
इनमें किसी मृदु या नरम (सॉफ्ट) चुम्बकीय पदार्थ का उपयोग किया जाता है जिसके चारों
ओर तार की कुण्डली लपेटकर उसमें धारा प्रवाहित करने से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है।
        सिद्धान्त―चुंबकत्व यानी चुंबक का वह गुण जिससे वह लोहे की ओर आकर्षित होता
है जो इलेक्ट्रिकली चार्ज हुए कणों के कारण पैदा होता है। परंपरागत भौतिकी के अनुसार
चुंबकीय क्षेत्र इसलिए पैदा होता है क्योंकि चुंबकीय कणों के फैलने से उनकी ऊर्जा दूसरी
चुंबकीय वस्तुओं को खींचती या धकेलती है।
बनाने की विधि―चुंबक बनाने की दो विधि है―
क. साधारण चुंबक―एक चुंबक को किसी दूसरे चुंबकीय पदार्थ से आपस में रगड़ने
से चुंबक बनता है। इस यांत्रिक क्रिया के अनुसार जब एक चुंबकीय पदार्थ को किसी दूसरे
चुंबक पर एक निश्चित दिशा की ओर बार-बार रगड़ कर उसका चुंबकीकरण किया जाता
है तो यह चुंबकीय पदार्थ दूसरे चुंबक का गुण ले लेता है और चुंबक बन जाता है । चुंबक
के दोनों ओर किनारे पर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव बन जाते हैं । इस तरह से बनाए गए चुंबक
निम्न आकर्षण शक्ति वाले होते हैं।
ख. विद्युत चुंबक―
आवश्यक सामग्री : एक बड़ा वाला टॉर्च सेल, 1 लोहे की 3 इंची कील, तांबे की
तार (जिस पर कपड़ा चढ़ा हुआ हो), स्टेपर पिन और आल पिन ।
    विद्युत चुम्बक के सिद्धान्त के अनुसार जब किसी लोहे की किल या रोड पर किसी मेटल
की तार को लपेटा जाता है और फिर उसमें बैटरी द्वारा विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो
वो किल चुंबक की तरह काम करने लगती है और अपने आसपास की चुंबक या लोहे की
चीजों को अपनी ओर खींचने लगती है। इसे ही विद्युत चुम्बकत्व कहा जाता है।
उपयोग―
● चुम्बकीय रिकार्डिंग के विभिन्न माध्यमों में, जैसे : फ्लॉपी डिस्क, हार्ड डिस्क, ऑडियो
टेप, आदि।
● क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, एटीएम कार्ड आदि में एक चुम्बकीय पट्टी उपयोग में
लायी जाती है । इस पट्टी पर कुछ आंकड़े और सूचनाएँ दर्ज की गयी होती है।
● परम्परागत टीवी एवं कम्प्यूटर के मॉनिटर में : इलेक्ट्रॉन बीम को उपर-नीचे एवं
अगल-बगल मोड़ने के लिये विद्युत चुम्बक का प्रयोग होता है। इसी से
छवि-निर्माण सम्भव हो पाता है।
● लाउडस्पीकर एवं माइक्रोफोन में
● विद्युत मोटर एवं विद्युत जनित्र में
● चुम्बकीय दिक्सूचक (कम्पास) में इसमें एक हल्का सा स्थायी चुम्बक होता है
जो क्षैतिज तल में घूमने के लिये स्वतन्त्र होता है। यह उत्तर-दक्षिण दिशा में ही
स्थिर होता है और इस प्रकार दिशा बताने में सहायता करता है।
● बहुत से खिलौनों में
● किसी कबाड़ से चुम्बकीय पदार्थों (लोहा, निकिल, स्टली आदि) एवं अचुम्बकीय
पदार्थों (एल्युमिनियम, ताँबा, आदि) को अलग करने हेतु, आदि ।
ph
प्रश्न 19. विद्युत मोटर क्या है ? इसके सिद्धान्त, बनाने की विधि एवं उपयोग
का वर्णन करें।
उत्तर―विद्युत मोटर (electric motor) एक विद्युतयांत्रिक मशीन है जो विद्युत ऊर्जा
को यांत्रिक ऊर्जा में बदलती है। अर्थात् इसे उपयुक्त विद्युत स्रोत से जोड़ने पर यह घूमने
लगती है जिससे इससे जुड़ी मशीन या यन्त्र भी घूमने लगती है। अर्थात् यह विद्युत जनित्र
का उल्टा काम करती है जो यांत्रिक ऊर्जा लेकर विद्युत ऊर्जा पैदा करता है। कुछ मोटरें
अलग-अलग परिस्थितियों में मोटर या जनरेटर (जनित्र) दोनों की तरह भी काम करती है।
        सिद्धान्त–विद्युत मोटरों का मूल उद्देश्य विद्युतचुम्बकीय बल/बलापूर्ण उत्पन्न करके
स्टेटर और रोटर के बीच आपेक्षिक गति (अर्थात् किसी बाह्य बल/बलाघूर्ण के विरुद्ध
बल/बलाघूर्ण लगतो हुए तथा रैखिक गति/घूर्णी गति करना) पैदा करना है। इस प्रकार विद्युत
मोटर, विद्युत ऊर्जा लेकर यांत्रिक कार्य करती है।
बनाने की विधि―
        आवश्यक सामग्री-दो बेलनाकार चुंबक, एक तांबे का तार, एक 1.6 वोल्ट का शुष्य
सेल।
          शुष्क सेल को चुंबकों के ऊपर खड़ा कर देते हैं और तांबे के तार का लूप बनाकर
सेल की पीतल की टोपी के ऊपर रख देते हैं। नीचे से खुले तार का हृदयाकार लूप चुंबकीय
क्षेत्र में उत्पन्न बल से वृत्ताकार घूमने लग जाता है।
चुंबक की धातु विद्युत को सुचालक है और तार भी । जब परिपथ पूरा हो जाता है यानी
तार का सिरा चुंबक से स्पर्श करता है तो समान धुवों के आकर्षण के कारण दूसरा सिरा
आकर्षित हो जाता है। यह क्रिया बार-बार दोहराई जाती है और तूप घूमने लगता है।
          उपयोग–विद्युत मोटर (Electric Motor) उद्योगों में एक आदर्श प्रधान चालक
(prime mover) है। अधिकांश मशीनें विद्युत मोटरों द्वारा ही चलाई जाती है। इसका मुख्य
कारण यह है कि विद्युत मोटरों की दक्षता दूसरे चालकों की तुलना में ऊँची होती है। उद्योगों
के अतिरिक्त ये कृषि में भी, खेतों के जोतने, बोने तथा काटने की मशीनों को और सिंचाई
के पम्पों को चलाने के लिए, प्रयुक्त होते हैं। घरों में प्रशीतन, धोवन, तथा अन्य विभिन्न
कामों की मशीनें भी इनसे चलाई जाती हैं।
ph
प्रश्न 20. कैलिडोस्कोप क्या है ? इसका सिद्धान्त, बनाने की विधि एवं उपयोग
का वर्णन करें।
उत्तर―कैलिडोस्कोर एक वैज्ञानिक उपकरण है। कैलिडोस्कोप भिन्न-भिन्न प्रकार की
रेखागणितीय आकृतियों को देखने के काम आने वाला उपकरण है। यह एक बहुबिम्बदर्शी,
एक प्रकाशिक उपकरण जिसमें प्रवर्तन द्वारा कांच आदि के टुकड़ों के बहुत से सममित
प्रतिबिम्बि मिलकर सुंदर आकृतियाँ बनाते हैं। यह एक ऐसा खिलौना है जिसमें नाना प्रकार
के रंग व रूप (प्रतिबिम्ब) दिखाई पड़ते हैं।
      सिद्धान्त― कैलिडोस्कोप बहुपरावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है, जहाँ दो और दो
से ज्यादा परावर्तक दर्पण एक दूसरे के सामने कोण पर रखे होते हैं। जब एक आँख को
एक परावर्तक पर रखा जाता है तो छिद्र से दूसरी तरफ का वास्तविक दृश्य सम्मित रूप से
कई गुना होकर विभिन्न प्रकार के पैटर्न बनाता है। तीन दर्पण वाला संबाहु त्रिभुज जैसा
कैलिडोस्कोप अनगिनत पैटनों वाले दृश्य क्षेत्र का निर्माण करता है।
        बनाने की विधि―इसमें तीन समान आकार के परावर्तक दर्पण का उपयोग किया जाता
है जो आपस में मिलकर एक ट्यूब का निर्माण करते हैं, जिसके एक सिरे पर रंगीन कांच
के टुकड़े या दूसरे पारदर्शी अथवा अपारदर्शी वस्तुओं को रखकर ट्यूब को बंद कर दिया जाता
है दूसरी ओर से देखने पर यह वस्तुएँ कई गुना होकर सम्मित पैटर्न बनाती हैं।
उपयोग―
क. बुनकरों द्वारा विभिन्न प्रकार के रंगीन डिजाइन देखने के लिए कैलिडोस्कोप का
उपयोग किया जाता है।
ख. इसका उपयोग बच्चों के खिलौनों के रूप में किया जाता है।
ph
प्रश्न 21. पिन होल कैमरा क्या है ? इसका सिद्धान्त, बनाने की विधि एवं
उपयोग का वर्णन करें।
उत्तर―पिन्होल कैमरा बिना लेंस का एक साधारण कैमरा (या बक्सा) है जिसमें एक
छोटा छिद्र होता है। इस छिद्र से एक तरफ वस्तु से आने वाला प्रकाश गुजरता है और कैमरा
के अंदर बक्से के दूसरी तरफ उल्टा प्रतिबिंब बनाता है। यह बॉक्स या कैमरा पूरी तरह से
प्रकाश रोधी (काला) होता है।
          सिद्धान्त―यदि किसी बंद बॉक्स या कमरे की एक दीवार पर सूक्ष्म (बहुत छोटा) छिद्र
कर दिया जाए, तब उस छिद्र के सामने वाली दीवार पर बाहर की वस्तुओं का प्रतिबिंब बन
जाता है। इस प्रकार प्रतिबिम्ब बनने का सिद्धान्त ‘पिन होल सिद्धान्त’ कहलाता है।
फोटोग्राफी से पहले भी इसी सिद्धान्त का उपयोग कर कैमरा ओब्सक्यूरा के द्वारा पेंटिंग की
आउटलाइन्स तैयार की जाती थीं। कैमरा ओब्सक्यूरा कक्ष के आकार का बड़ा बॉक्स होता
था जिस को एक दीवार में छोटा छिद्र कर देते थे, उसके सामने व्यक्ति को खड़ा कर के
उसके प्रतिबिम्ब की आउटलाइन खींच कर उसमें रंग भर देते थे।
        बनाने की विधि―पिनहोल कैमरा या काला कैमरा बिना लैंस का एक साधारण कैमरा
है । इसे बनाने के लिए एक पुराने गत्ते का डिब्बा (25x15x10 सेमी.) काला कागज, बटर
पेपर, एक सुई और एक मोमबत्ती की जरूरत होगी। पहले बॉक्स के ऊपर की सतह पर
एक बड़ी खिड़की काट लें । खिड़की के आकार से थोड़ा बड़ा पेपर लें । खिड़की के फ्रेम
पर गोंद लगाएं और बटर पेपर उस पर चिपका दें। बटर पेपर कैमरा स्क्रीन का काम करेगा।
          फिर काले कागज से बॉक्स के बाकी हिस्से को कवर कर दें। यह इसलिए जरूरी है
ताकि कैमरा बॉक्स में कहीं ओर से प्रकाश न जा पाए । उसके सारे जोड़ भी बंद होने चाहिए।
ब्लैक बॉक्स के केंद्र में एक निशान लगाए और फिर सुई से एक छोटा-सा छेद बनाए । बॉक्स
का खड़ा करें। उससे थोड़ी दूरी पर एक मोमबत्ती जलाए । मोमबत्ती की रोशनी छेद के
माध्यम से प्रवेश करेगी और बटर पेपर स्क्रीन पर मोमबत्ती की लौ की उल्टी छवि दिखाई
देगी।
      उपयोग― शुरू के दिनों में पिन होल कैमरे का उपयोग सूर्य और चंद्र के ग्रहणों को
देखने के लिए किया जाता था। बाद में वैज्ञानिकों ने यह भी सोचा कि पिन होल कैमरे का
उपयोग एक्स-रे और गामा रे के चित्र खींचने में भी किया जा सकता है जो कि साधारण
लेंसों द्वारा सोख लिए जाते रहे हैं।
ph
प्रश्न 22. उच्च प्राथमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षण के उद्देश्यों को लिखें।
उत्तर―उच्च प्राथमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं―
क. वस्तुओं, तों, घटनाओं, नियमों, सिद्धान्तों के कार्य कारण को समझना ।
ख. विज्ञान की प्रक्रिया अवलोकन, संकलन, वर्गीकरण, परिकल्पना, प्रयोग, निष्कर्ष,
सत्यापन या परीक्षण को समझना।
ग. आसपास की परिघटनाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से समझना ।
घ. मन में उठने वाली जिज्ञासा, वैज्ञानिक चेतना, वैज्ञानिक चिंतन, वैज्ञानिक अभिवृत्ति
एवं सृजनशीलता के लिए खोज करना ।
ङ. अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों से मुक्त करना और समाजोपयोगी इंसान बनाना ।
च. अधिकतम संभव आयामों या तरीकों से किसी घटना को समझना।
छ. खोजपरक, जिज्ञासापरक एवं युक्तिपूर्ण समाज विकसित कराना ।
ज. स्वस्थ समालोचनात्मक सोच एवं खुले दिमाग से सोचने की प्रवृत्ति जगाना ।
झ. अपने अनुभवों को समूह के अनुभवों से जोड़ना तथा किसी तथ्य या घटना से
संबंधित अवधारणात्मक कौशल का विकास करना ।
अ. विज्ञान को जीवन से जोड़ना और विज्ञान की सर्वव्यापकता को समझना ।
ट बच्चों में वैचारिक स्तर पर लचीलापन, नवाचार एवं रचनात्मकता जैसी प्रमुख
अभिवृत्ति का विकास करना।
उ. शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति में विज्ञान शिक्षण में अपनाई जाने वाली
प्रक्रियाओं की भूमिका को समझना, इत्यादि ।
प्रश्न 23. उच्च प्राथमिक स्तर पर विज्ञान पाठ्यक्रम के आधारभूत 7 प्रकरण
(theme) व उनके प्रमुख अवधारणात्मक स्तंभों की व्याख्या करें।
उत्तर―आज के दौर में उच्च प्राथमिक कक्षाओं में विज्ञान को “एकीकृत विज्ञान” के
रूप में तथा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर विभिन्न शास्रों, जैसे—भौतिकी शास्त्र,
रसायनशास्त्र, और जीवविज्ञान के रूप में पढ़ाया जाता है। उच्च प्राथमिक पाठ्यक्रमों में
शीर्षक (थीमों) जैसे—खाद्य पदार्थों, सजीव जगत, गतिशील वस्तुओं, व्यक्ति और विचार,
सौरमंडल, वस्तुओं का निर्माण तथा प्राकृतिक संसाधनों व प्राकृतिक घटना और परिघटना
इत्यादि पर केंद्रित होता है। इनका वर्णन निम्नलिखित है―
क. खाद्य पदार्थ― खाद्य वह सामग्री है जो अपने प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होती है,
इसे मानव द्वारा अपने विकास, पोषण और आनंद के लिए उपयोग किया जाता है। इसके
अलावा खाद्य वस्तुओं में खाद्यान्न (अनाज-गेहूँ, चावल, मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा
आदि), फलियां (दलहन-अरहर, उड़द, मूंग, बीन), बागवानी उत्पाद (फल, सब्जियां,
मसाले, गौण मसाले आदि), पशुधन उत्पाद (मांस, अंडे, दुग्ध आदि) और मछली (मछली,
झींगा, केकड़ा इस स्तर पर आदि) जैसे अनेक उत्पाद शामिल हैं। चाय, कॉफी, कोको आदि
जैसे पेय पदार्थ भी खाद्य के अंग हैं । खाद्य स्रोतों को प्राकृतिक रूप में उगाया, रखा, प्रग्रहण
या संवर्धित किया जाता है। खाद्य विज्ञान का शिक्षण जिसमें खाद्य की प्रकृति, उसमें होने
वाली विकृति के कारणों और खाद्य प्रसंस्करण के सिद्धान्तों को निर्धारित करने के लिए
जीव-विज्ञान, भौतिक विज्ञान तथा अभियांत्रिकी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा
फसलों के उत्पादन एवं प्रबंधन की भी अवधारणा पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है। इसमें
जल एवं जंगल की उपलब्धता, स्रोत, आवश्यकता एवं उनकी वैज्ञानिक विधि द्वारा संरक्षण
के उपाय भी शामिल किए जाते हैं।
    ख. सजीव जगत―सजीव जगत के पाठ्यक्रम में जीवों में विविधता की संकल्पना,
जीवधारियों का वर्गीकरण, जन्तुओं की संरचनात्मक संघटना, मानव कार्यिकी जैसे—पाचन
एवं अवशोषण, साँस लेना एवं श्वसन, प्रचलन एवं गति आदि, वनस्पतियों में विविधता
इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। जीव-जगत कौतुहल जैव विविधताओं से परिपूर्ण है।
यदि हम अपने आस-पास देखें तो आप जीवों की बहुत सी किस्में देखेंगे, ये किस्में गमले
में उगने वाले पौधे, कीट, पक्षी, पालतू अथवा अन्य प्राणी व पौधे हो सकते हैं। बहुत से
ऐसे जीव भी होते हैं जिन्हें आँखों की सहायता से नहीं देख सकते, लेकिन ये आसपास ही
हैं। इन सब की बनावट एवं गुणों का अध्ययन तथा पोषण आदि इस थीम के शिक्षण का
विषय है।
       ग. गतिशील वस्तुएँ―इसके पाठ्यक्रम के अंतर्गत गति के विभिन्न भौतिक सिद्धान्तों
का अध्ययन शामिल है जैसे बल, घर्षण, दूरी एवं मापन, जंतुओं में गति इत्यादि की
अवधारणा शामिल है। मानव शरीर व जीव-जंतुओं में गति से संबंधित संरचना का अध्ययन,
विद्युत धारा और इसके प्रभाव का अध्ययन भी शामिल है। बल की परिभाषा, घर्षण के
कारण, बल तथा दाब की अवधारणा इत्यादि से संबंधित अवधारणाओं द्वारा हमारे भौतिक
जगत को नियंत्रित करने वाले भौतिक नियमों को समझने को पाठ्यक्रम में शामिल किया
गया है।
घ. व्यक्ति और विचार–पाठ्यक्रम के इस थीम का सार है शिक्षार्थियों की मानवीय
मूल्यों, स्वच्छता, ईमानदारी, सहयोग, सत्य, सामाजिक अन्त:क्रिया, जीवन और पर्यावरण के
प्रति सजगता, आदि को आत्मसात करने में सहायता करना । सामूहिक गतिविधियाँ, कक्षाकक्ष
से बाहर गतिविधियों में शामिल करने के लिए परिस्थिति का निर्माण, प्रकृति से अन्तःक्रिया
करने के अवसर खेल इत्यादि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए । अपनी प्रकृति एवं पर्यावरण
के प्रति सजगता हेतु विभिन्न उपायों जैसे पर्यावरण प्रदूषण, कचरा प्रबंधन इत्यादि की समझ
इस पाठ्यक्रम की अवधारणा का आधार है।
ङ. सौरमंडल–पाठ्यक्रम के इस थीम में पृथ्वी, इसकी बनावट, उपयुक्त पर्यावरण
एवं पृथ्वी के आसपास हमारे सौरमंडल के अध्ययन खगोलीय पिंडों के विज्ञान का अध्ययन
शामिल है। हमारी पृथ्वी और उसकी विविधता, अन्य ग्रह तथा उनके उपग्रह, सूर्य, चंद्रमा
तथा अनेक गैलेक्सी (लाखों तारों का विशाल समूह) इन सबसे ब्रह्मांड का गठन हुआ है।
सूर्य के चारों ओर के घेरे में भी असंख्य क्षुद्र ग्रह (Asteroid एस्ट्रॉइड) तथा धूमकेतु
(comets) हैं । ये सभी ब्रह्मांड के ही भाग हैं । पृथ्वी अपने नीले आकाश, विशाल महासागर
और हरे-भरे जंगलों सहित अनेकों प्रकार के जीवों का निवास स्थल बनी । पृथ्वी का एक
अपना अनूठा वातावरण है। यह वातावरण आस-पास के तापमान को नियंत्रित करने में
सहायता करता है, जो जीवन को सहारा देने के लिए उपयुक्त है। इन सब खगोलीय पिंडों
का अध्ययन इसमें शामिल है।
च. वस्तुओं का निर्माण–पाठ्यक्रम के इस प्रकरण में विभिन्न वस्तुओं के निर्माण की
वैज्ञानिक विधि का अध्ययन किया जाता है जो कि बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन का स्रोत
है। इसके अंतर्गत वनों के रेशे से लेकर उत्पादन तक की प्रक्रिया का अध्ययन शामिल है।
छ. प्राकृतिक संसाधन― विभिन्न प्राकृतिक संसाधन जैसे—इंधन, जल, प्रकाश हमारे
लिए आवश्यक है। इनके प्राकृतिक तरीके से बनने की प्रक्रिया, इनकी उपयोगिता व इनका
प्रबंधन करना दैनिक जीवन में इनकी उपलब्धता बने रहने के लिए आवश्यक है। प्राकृतिक
संसाधन पृथ्वी पर ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत हैं। इनका संरक्षण आवश्यक है। अतः इस
प्रकरण में इनके बनने, इनके प्रबंधन व इनमें होने वाली समस्याओं के निपटान संबंधी उपायों
का अध्ययन वैज्ञानिक विधियों के द्वारा किया जाता है।
      ज, प्राकृतिक घटना एवं परिघटना―प्राकृतिक रूप से घटने वाली घटनाएं जिनका
जीव मंडल पर व्यापक रूप से प्रभाव पड़ता है जैसे—भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़, आगजनी
इत्यादि तथा प्राकृतिक परिघटनाएं जिनका प्रभाव लम्बे समय तक बने रहने पर परिलक्षित
होता है जैसे-जलवायु परिवर्तन, ध्रुवों पर बर्फ का पिघलना इत्यादि, जैसी घटनाओं के घटित
होने के वैज्ञानिक कारण, निवारण तथा बचाव एवं तैयारी के उपायों का अध्ययन इस प्रकरण
के अन्तर्गत आता है।
प्रश्न 24. सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्या है ? इसके साधन व तकनीकों का
वर्णन करें।
उत्तर―सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन शिक्षार्थी की क्षमताओं का आकलन, उसके प्रदर्शन
का विश्लेषण, शिक्षार्थी को उपयुक्त फीडबैक प्रदान करने तथा उसकी प्रगति में सहायता
करने का एक व्यवस्थित तरीका है। यह विद्यार्थियों को अपनी गलतियों से भी सीखने तथा
उन्हें अधिगम के लिए तैयार रहने के प्रोत्साहन देने में सहायता करता है।
     ‘सतत’ शब्द से तात्पर्य उस आकलन से है जो वर्ष पर्यंत बिना बाधा के जारी रहता है।
दूसरे शब्दों में शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी के अधिगम पैटर्न का लगातार अवलोकन करता है
तथा उसे गुणात्मक फीडबैक देता है। ‘व्यापक’ शब्द को थोड़ा विस्तार से समझने की
आवश्यकता है। व्यापक शब्द यह बताता है कि विज्ञान के आकलन के दौरान हमें बच्चे
की ना केवल वैज्ञानिक प्रगति, वैज्ञानिक ज्ञान तथा वैज्ञानिक अधिगम का परीक्षण करना
चाहिए बल्कि वे उनकी अपनी अभिवृत्ति, व्यवहार तथा मूल्यों में किस प्रकार योगदान करते
हैं, का भी हमें परीक्षण करना चाहिए। अत: व्यापक से तात्पर्य संपूर्ण अधिगम तथा आकलन
से है। इसमें छात्रों की वृद्धि और विकास के शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक दोनों ही पक्षों को
शामिल करने का प्रयास किया जाता है।
     मूल्यांकन की प्रविधियाँ (साधन व तकनीक)―
क. मौखिक परीक्षाएँ–इन परीक्षाओं द्वारा छात्रों की उपलब्धियों के उन पक्षों का
मूल्यांकन किया जाता है जिन्हें हम लिखित परीक्षा द्वारा नहीं माप सकते । इन परीक्षाओं में
मौखिक प्रश्न, वाद-विवाद, विचार विमर्श एवं प्रदर्शन आदि सम्मिलित हैं। लिखित परीक्षाओं
की कमियों की पूर्ति किसी सीमा तक मौखिक परीक्षाओं द्वारा संभव है।
ख. प्रयोगात्मक परीक्षाएँ―विज्ञान में रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान आदि विषयों में
अनेक ऐसे उप विषय होते हैं जिन्हें प्रयोगात्मक कार्य द्वारा प्रत्ययों एवं संकल्पनाओं का
स्पष्टीकरण कराया जा सकता है। क्षेत्रफल, चाई, दूरी, बनावट, रासायनिक अभिक्रियाओं
आदि विषयों में प्रयोगात्मक कार्य भतुत उपयोगी है।
ग. लिखि परीक्षाएँ―इन परीक्षाओं में निबंधात्मक प्रश्न तथा वस्तुनिष्ठ प्रश्न मुख्य
हैं। निबंधात्मक परीक्षा में छात्रों को विस्तारपूर्वक उत्तर लिखने होते हैं जबकि वस्तुनिष्ठ
परीक्षा में उत्तर लिखने का ढंग अत्यंत सरल एवं संक्षिप्त होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ दो
प्रकार के होते हैं—पहला प्रमाणित जिनके समान स्तर पहले से ही स्थापित किए होते हैं,
दूसरा अध्यापक निर्मित जिनमें प्रश्नों का निर्माण शिक्षक स्वयं करते हैं।
घ. चेक लिस्ट―इसका स्वरूप प्रश्नावली प्रविधि की तरह ही होता है। अंतर केवल
इतना है कि इसमें प्रश्नावली की अपेक्षा प्रश्न तथा कथन बहुत स्पष्ट होते हैं जिन्हें पढ़कर
विद्यार्थी केवल उनसे संबंधित सही उत्तर पर निशान लगाते हैं । इसमें उन्हें कुछ लिखना नहीं
पड़ता। चेक लिस्ट का उद्देश्य प्रश्नावली प्रविधि के ही समान होता है । यह आत्म मूल्यांकन
के लिए भी उपयोगी होती है।
ङ. अभिलेख― विद्यार्थियों की विज्ञान की पुस्तिका, अभिलेख संचिका इत्यादि के
अवलोकन से उनकी रुचि, दृष्टिकोण, अनुभूति इत्यादि का मूल्यांकन किया जा सकता है।
कक्षा में तथा घर पर किए गए कार्य की पुस्तिकाओं को भी अभिलेख का अंग माना जा
सकता है।
च. निरीक्षण―विज्ञान में निरीक्षण द्वारा छात्रों की उपलब्धियों के विषय में साधारण
जानकारी मिल सकती है। बालकों के संवेगात्मक स्थिरता, मानसिक परिपक्वता, आत्मविश्वास,
चिंतन, विवेक, कल्पना, तर्क, सूझ, भावात्मक विकास, वैज्ञानिक ढंग से सोचने के तरीकों
में यथार्तता की जानकारी कक्षा में प्रतिदिन निरीक्षण द्वारा प्राप्त हो सकती है। विद्यार्थी के
व्यवहार में परिवर्तन उसके प्रश्न हल करने की प्रक्रिया के निरीक्षण से भी किया जा सकता
है। जब विद्यार्थी प्रश्न हल करता है तो अध्यापक उनका अवलोकन करके यह देख सकते
है।
छ. प्रश्नावली—इसमें विद्यार्थियों को छपी हुई एक प्रश्न की सूची दे दी जाती है जिन
पर वह अपने उत्तर लिखकर अध्यापक को वापस कर देते हैं। इस प्रविधि द्वारा विद्यार्थियों
के विज्ञान में रुचि, दृष्टिकोण, अनुभूति, व्यक्तित्व के गुण तथा अन्य व्यावहारिक परिवर्तन
का मूल्यांकन हो सकता है।
ज. साक्षात्कार–साक्षात्कार द्वारा विद्यार्थियों की विज्ञान में रुचि का विकास, उपयुक्त
दृष्टिकोण, आत्मविश्वास, बौद्धिक स्तर, विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग इत्यादि का मूल्यांकन
किया जा सकता है। मौखिक परीक्षा तथा साक्षात्कार के उद्देश्यों में अधिक अंतर नहीं है।

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