1st Year

विद्यालय का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए। -विद्यालय की आवश्यकता, महत्त्व एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए । Write the Meaning and Definitions of School. Highlight the Need, Importance and Functions of School.

प्रश्न – विद्यालय का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए। -विद्यालय की आवश्यकता, महत्त्व एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए । Write the Meaning and Definitions of School. Highlight the Need, Importance and Functions of School.
उत्तर- विद्यालय का अर्थ एवं परिभाषाएँ
  1. पाश्चात्य दृष्टि से विद्यालय का अर्थ-पाश्चात्य दृष्टि से देखा जाए तो विद्यालय School शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। School शब्द अंग्रेजी भाषा का शब्द है परन्तु इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के Schola या Skhole शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- ‘अवकाश’ (Leisure)। अवकाश शब्द एक विचित्रता प्रकट करता है इसे स्पष्ट करते हुए लीच महोदय लिखते हैं कि, “एथेन्स के युवक जिन स्थानों पर अपने अवकाश के समय को विचार-विमर्श, वाद-विवाद, खेलकूद आदि में व्यतीत करते थे, वे स्थान शनैः-शनैः दर्शन एवं उच्च कलाओं के स्कूलों में बदल गए। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्कूल संस्थागत केन्द्र हैं जहाँ शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होती है।”
  2. भारतीय दृष्टि से विद्यालय का अर्थ – विद्यालय शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के योग से हुआ है विद्या + आलय अर्थात् वह स्थान जहाँ विद्या प्राप्त हो । इस प्रकार विद्यालय वह स्थान है जहाँ ज्ञान प्राप्त होता है। यह एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिसमें बालक एक निश्चित अवधि में निश्चित पाठ्यक्रम पूरा करता है।
  3. वास्तविक अर्थ – भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के मतों को जानने के पश्चात् यह आवश्यक है कि विद्यालय के वास्तविक अर्थ को जाना जाए। वस्तुतः विद्यालय का तात्पर्य उस स्थान, • साधन या संस्था से है जहाँ पर देश तथा समाज की प्रत्येक नवजात पीढ़ी को उनकी क्षमता एवं बुद्धि के अनुरूप निश्चित विधि से सुप्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा उस राष्ट्र और समाज के विज्ञानं कला- कौशल, धर्म नैतिकता एवं दर्शन आदि को जीवन में प्रयोग करने का ज्ञान कराया जाता है ।
जॉन ड्यूवी के अनुसार, “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ जीवन के कुछ गुणों एवं कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो ।”
जे. एस. रॉस के अनुसार, “विद्यालय वे संस्थाएँ है जिनको सभ्य मनुष्य द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित और योग्य सदस्यता के लिए बालकों को तैयारी में सहायता मिले।”

विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्त्व

  1. विद्यालय बहुमुखी प्रतिभा के लिए उत्तम स्थान – घर व परिवार को बालक की प्रथम पाठशाला कहा गया है फिर भी जो शिक्षा बालक घर पर प्राप्त करता है वह बहुत ही संकुचित होती है। इस शिक्षा के द्वारा बालक को वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता जो ज्ञान उसे विद्यालयों में प्राप्त होता है। विद्यालय में बालक को बहुमुखी शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो सके। विद्यालय में बालक किसी भी विषय का विशिष्ट एवं विस्तृत ज्ञान प्राप्त करता है, इसलिए बालक की शिक्षा के लिए घर की अपेक्षा विद्यालय अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  2. विद्यालय पारिवारिक जीवन एवं वाह्य जीवन को जोड़ने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है – बालक परिवार में जन्म लेता है और वहीं उसका प्रारम्भिक विकास होता है। परिवार में रहकर वह सेवा, प्रेम, सहयोग, आज्ञापालन एवं अनुशासन आदि आदर्शगुणों को सीखता है। परिवार के दायरे से निकलकर जब बालक विद्यालय आते हैं तो उन्हें विभिन्न घरों, धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के बालकों के साथ रहना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है तथा उसमें सामाजिकता के गुणों का विकास होने लगता है। अब वह अपने पारिवारिक जीवन तक ही सीमित नहीं रहता • बल्कि बाह्य जीवन की क्रियाओं में भी रुचि लेता है।
  3. विद्यालय सामाजिक विरासत की सुरक्षा एवं हस्तान्तरण का प्रमुख साधन- प्रत्येक समाज की प्रगति एवं विकास वहाँ की संस्कृति पर निर्भर है। इसलिए प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को सुरक्षित रख चाहता है तथा उसे अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित करना चाहता है लेकिन यह कार्य इतना सरल नहीं है जो किसी व्यक्ति विशेष अथवा अन्य किसी संस्था के द्वारा किया जा सके। यह कार्य विद्यालय द्वारा किया जा सकता है। विद्यालय के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए टी.पी. नन ने कहा है, “विद्यालय को समस्त संसार का नहीं, वरन् समस्त मानव-समाज का लघु रूप होना चाहिए ।
  4. व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण समाज एवं धर्म आदि शिक्षा के विकास-परिवार, घर, उत्तम साधन हैं लेकिन न तो इनका कोई निश्चित उद्देश्य होता है और न ही पूर्व–नियोजित कार्यक्रम | कभी-कभी बालक के व्यक्तित्व पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, विद्यालय का एक निश्चित उद्देश्य और पूर्व नियोजित कार्यक्रम होता है जिसका बालक के व्यक्तित्व पर व्यवस्थित रूप से प्रभाव पड़ता है तथा बालक के व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास होता है ।
  5. आदर्शों व विचारधाराओं का प्रसार – विश्व के आदर्शों एवं विचारधाराओं का प्रसार करने के लिए विद्यालय को अति महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है, इसीलिए सभी स्थानों एवं राज्यों में विद्यालय का स्थान सर्वोपरि एवं गौरवपूर्ण है।
  6. शिक्षित नागरिकों का निर्माण – विद्यालय ही एकमात्र वह साधन है, जिसके द्वारा शिक्षित नागरिकों का निर्माण किया जा सकता है। यदि एक देश के समस्त बालकों को एक निश्चित आयु तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाती है तो स्थाई रूप से साक्षर हो जाते हैं। साक्षर होने के साथ-साथ उनमें धैर्य, सहयोग, उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास होता है, इस प्रकार एक बालक बड़ा होकर राज्य एवं समाज का आदर्श नागरिक बनता है।
  7. प्रगति एवं विकास के लिए उपयुक्त वातावरण-विद्यालय बालक की प्रगति एवं विकास के लिए उपयुक्त एवं सन्तुलित वातावरण प्रस्तुत करता है । अज्ञानता, निर्धनता, निवास की कमी, मशीनों की गड़गड़ाहट, भीड़-भाड़, सामाजिक बुराइयाँ आदि के कारण घर तथा पड़ोस का वातावरण अनैतिक, कोलाहल युक्त, अव्यवस्थित एवं अशुद्ध होता है, जिसमें बालकों का शिक्षा प्राप्त करना अनुपयुक्त ही नहीं बल्कि असम्भव भी होता है। विद्यालय बालकों की शिक्षा के लिए उपयुक्त सरल, शुद्ध एवं सन्तुलित वातावरण प्रस्तुत करते हैं।
  8. समाज की निरन्तरता बनाए रखने में सहायक – विद्यालय समाज का एक लघु रूप है। इसमें सामाजिक विरासत को सुरक्षित रखा जाता है तथा आगे आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है। विद्यालय में बालकों को वहीं ज्ञान प्रदान किया जाता है जो व्यक्ति और समाज दोनों की प्रगति एवं विकास में सहायक हो . तथा इसकी निरन्तरता को बनाए रख सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विद्यालय समाज की एक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण संस्था है ।
  9. आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक–मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। विद्यालय में बालक की रुचि एवं आवश्यकता के अनुकूल शैक्षिक वातावरण बनाया जाता है जिससे वह तरह- तरह का ज्ञान प्राप्त करके अपनी तथा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ।
  10. विशाल सांस्कृतिक विरासत में सहायक-वर्तमान समय की सांस्कृतिक विरासत बहुत विस्तृत हो गई है इसमें अनेक प्रकार के ज्ञान, कुशलताओं और कार्य करने की विधियों का समावेश हो गया है। ऐसी विरासत की शिक्षा देने में व्यक्ति अपने को असमर्थ पाते हैं। अतः उन्होंने यह कार्य विद्यालय को सौंप दिया।
विद्यालय के कार्य (Functions of School)
  1. बौद्धिक विकास का कार्य विद्यालय का प्रथम व प्रमुख कार्य बालकों का बौद्धिक विकास करना है। छात्रों की मानसिक क्रियाओं को, जैसे- समझ, स्मृति, कल्पना, तर्क . चिन्तन आदि का विकास विद्यालय में विभिन्न विषयों के अध्ययन के द्वारा कराया जाता है। वास्तव में विद्यालय वह स्थान है जहाँ बालक का मन, मस्तिष्क तथा कर्मेन्द्रियाँ प्रशिक्षित होती हैं।
  2. शारीरिक विकास का कार्य – विद्यालय बालकों के मानसिक विकास के साथ-साथ उनके शारीरिक विकास और स्वास्थ्य के लिए भी प्रशिक्षित करता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है। विद्यालय में बालक के शारीरिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार के खेल-कूद, पी.टी. योगाभ्यास, पौष्टिक भोजन की व्यवस्था विद्यालयों में की जाती है। छात्रों के स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए विद्यालय में प्राथमिक चिकित्सा व दवाओं आदि की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।
  3. चारित्रिक व नैतिक विकास – बालक अपने परिवार से चारित्रिक एवं नैतिक गुणों को बीज रूप में लेकर विद्यालय में प्रवेश करता है। इन गुणों के अंकुरण एवं व्यापक सन्दर्भ में विकसित करने का कार्य विद्यालय करता है, जैसेईमानदारी, सत्यता, सहयोग, प्रेम, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व आदि मानवीय गुणों का विकास विद्यालय में होता है तथा इनका प्रयोग वे व्यापक सामाजिक सन्दर्भों में करते हैं।
  4. सांस्कृतिक विकास – विद्यालय का मुख्य कार्य समाज की सभ्यता, संस्कृति, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का संरक्षण तथा भावी – पीढ़ी को हस्तान्तरित करने के साथ-साथ विद्यालय नवीन सामाजिक मूल्यों का विकास करना भी है।, इसीलिए विद्यालय को समाज का लघु रूप कहा जाता है। जिसमें उसकी सांस्कृतिक विशेषताएँ शुद्ध रूप से परिलक्षित होती हैं। विद्यालय में समाज के विभिन्न वर्गों समुदायों एवं धर्म आदि को मानने वाले छात्र व अध्यापक होते हैं लेकिन विद्यालय इन सबको मिलाकर एक विशिष्ट संस्कृति को विकसित करता है जो सभी लोगों को ग्राह्य होती है जिसकी अमिट छाप बालक के व्यक्तित्व पर पड़ती है।
  5. राष्ट्रीय कार्य – वर्तमान समय में विद्यालय सामान्यतया राज्य या केन्द्र द्वारा संचालित होते हैं । अतः विद्यालय का प्रमुख कार्य राष्ट्रीय नीतियों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं को कार्यान्वित करने में सहायता करना होता है। भावी नागरिकों को राज्य की नीतियों एवं आकांक्षाओं के अनुरूप प्रशिक्षित करना तथा राष्ट्रीय जीवन के लिए तैयार करना विद्यालयों का प्रमुख राष्ट्रीय दायित्व है।
  6. औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना-प्राचीन काल में परिवार के द्वारा नई पीढ़ी को पारम्परिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हो जाती. लेकिन आधुनिक युग में जीविकोपार्जन के लिए विशिष्ट तकनीकी ज्ञान एवं कौशल की शिक्षा आवश्यक हो गई है। वर्तमान समय में बालक को अपना व्यवसाय पारम्परिक ढंग से न चुनकर अपनी योग्यता या रुचि के अनुसार चुनने की स्वतन्त्रता है। अतः विद्यालय का एक आवश्यक कार्य बालकों को औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करके जीविकोपार्जन के योग्य बनाना है।
  7. उसके क्या कर्तव्य नागरिकता के गुणों का विकास – विद्यालय बालक को समाज व राष्ट्र के नागरिक के रूप व अधिकार हैं, इसकी शिक्षा प्रदान करता है। बालक से समय-समय पर विभिन्न सामुदायिक कार्य, जैसे- सड़के बनाना, मुहल्ले की सफाई करना, पेड़ लगाना, जन–शिक्षा-प्रसार आदि कराए जाते हैं। इन कार्यों के द्वारा बालकों में नागरिकता के गुणों का विकास होता है। इस प्रकार विद्यालय का एक प्रमुख कार्य नागरिकता के गुणों को विकास करना भी है।
  8. सामाजिक प्रगति का कार्य विद्यालय का एक प्रमुख कार्य सामाजिक प्रगति में सहायता करना है। विद्यालय समाज की बुराइयों एवं कुरीतियों के विरुद्ध जनमत तैयार करता है। सामाजिक सुधार के लिए शिक्षा प्रदान करता है जिसे हम सामाजिक पुनर्रचना का कार्य भी कह सकते हैं। इस प्रकार विद्यालय का प्रमुख कार्य सामाजिक प्रगति करना भी है।
  9. नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण – विद्यालय ऐसे नेता का सृजन कर सकता है जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, नैतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में योग्य हो, परन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है जब शिक्षा संस्थाओं में विभिन्न प्रकार की सहायक पाठ्य-क्रियाओं की व्यवस्था हो एवं बालकों को उसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाए।
  10. मानसिक स्वास्थ्य के विकास का प्रमुख साधन – बालकों का मानसिक स्वास्थ्य कई कारणों से बिगड़ जाता है। जैसे- आर्थिक कारण, घरेलू वातावरण, शारीरिक कमजोरी आदि । अतः विद्यालय के अन्तर्गत शिक्षकों का यह दायित्व है कि वह बालक के असामान्य व्यवहार के कारणों का पता लगाकर उसका समाधान करे।
इस प्रकार विद्यालय के उपर्युक्त कार्यों का विश्लेषण करते हुए बूबेकर महोदय ने विद्यालय के मुख्य तीन कार्य बताए हैं, जैसे- संरक्षण का कार्य, प्रगतिशील कार्य एवं निष्पक्ष कार्य । विद्यालय, संस्कृति के संरक्षण और विकास के कार्य को करते हुए निष्पक्ष भाव से सरकारी नीतियों, सामाजिक प्रचलनों एवं सिद्धान्तों की आलोचना भी कर सकता है।

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