वृद्धि और विकास से आप क्या समझते हैं? वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्वों की व्याख्या कीजिए। What do you understand by Growth and Development? Describe the factors influencing growth and development.
प्रश्न – वृद्धि और विकास से आप क्या समझते हैं? वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्वों की व्याख्या कीजिए। What do you understand by Growth and Development? Describe the factors influencing growth and development.
या
वृद्धि और विकास के सिद्धान्त क्या हैं? वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए । What are the principles of Growth and Development? Describe factors affecting growth and development.
या
वृद्धि एवं विकास को परिभाषित कीजिए। वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त क्या हैं? विवेचना कीजिए। Define Growth and Development. What are the principles of Growth and Development? Discuss.
उत्तर – वृद्धि और विकास का अर्थ
गेसेल के अनुसार, “विकास केवल एक प्रत्यय (विचार) ही नही है, इसे देखा जाँचा और किसी सीमा तक तीन विभिन्न दिशाओं शरीर अंग विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है। इन सब में व्यवहार ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर तथा विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।”
मेरीडिथ के अनुसार, “कुछ लेखक अभिवृद्धि का प्रयोग केवल आकार की वृद्धि के अर्थ में करते हैं और कुछ विकास का भेदीकरण या विशिष्टीकरण के अर्थ में।”
According to Meredith, “Some writers reserve the use of ‘development’ of mean differentiation.”
अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त
- परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of InterRelationship ) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं। शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास में एक प्रकार का सहसम्बन्ध पाया जाता है। बालक के जब किसी एक गुण में विकास होता है तो अन्य गुणों का विकास भी उसी अनुपात में होता है। उदाहरण के लिए तीव्र बौद्धिक विकास वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तीव्र गति से होता है। तीव्र तथा मंद बुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास भी मन्द गति से होता है।
- व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences ) – इस सिद्धान्त के अनुसार, बालकों के विकास का क्रम तो समान रहता है परंतु विकास की गति में भिन्नताएँ पाई जाती हैं अर्थात् उनकी वृद्धि एवं विकास वैयक्तिक भिन्नता लिए होता है। सभी बालकों में शारीरिक व मानसिक विकास की अपनी एक स्वाभाविक गति होती है। यह आवश्यक नहीं है कि एक निश्चित अवधि में सभी बालकों में विकास भी समान गति से ही हो । बालक और बालिकाओं में भी विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। डगलस और हॉलैण्ड के अनुसार, “विकास की यह भिन्नता व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवनकाल में बनी रहती है।”
- वंशानुक्रम और वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Environment and Heredity) – मानव विकास, वंशानुक्रम और वातावरण का योग होता है। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम में व्यक्ति की जन्मजात विशेषताएँ प्रखर होती हैं। वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्त्व होने के कारण व्यक्ति के मौलिक स्वभाव तथा उसके जीवन चक्र की गति को नियंत्रित करती हैं। वातावरण में वे समस्त बाहय परिस्थितियाँ सम्मिलित होती हैं, जो मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं। स्किनर के अनुसार, “वंशानुक्रम विकास की सीमाओं का निर्धारण करता है और वातावरण व्यक्ति की मौलिक शक्तियों को प्रभावित करता है। “
- समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)- गैसेल और हरलॉक द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार एक जाति के जीवों में विकास का क्रम एक समान पाया जाता है। उदाहरण के लिए सभी बालकों का जन्म के बाद विकास सिर से पैरों की ओर होना। बालक का गत्यात्मक एवं भाषा संबंधी विकास भी एक निश्चित क्रम के अनुसार ही होता है। गैसेल ने बताया कि कोई भी दो बालक एक जैसे नहीं होते लेकिन उनके विकास का क्रम समान होता है। हरलॉक के अनुसार, “प्रत्येक मनुष्य एवं पशु अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करते हैं।”
- सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses)- बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सबसे पहले सामान्य अनुक्रिया होती है बाद में विशिष्ट अनुक्रियाएँ प्रारम्भ होती हैं। हरलॉक इस सिद्धान्त के समर्थक थे। जन्म के उपरांत प्रारम्भ में किसी वस्तु को पकड़ने के लिए बालक शरीर के सभी अंगों का प्रयोग करता है लेकिन बड़े होने पर उसी अनुक्रिया के लिए वह अंग विशेष का प्रयोग करना शुरू कर देता है। शारीरिक विकास की ही तरह संवेगात्मक अभिव्यक्ति के लिए भी छोटा बच्चा केवल सामान्य संवेगात्मक उत्तेजना प्रदर्शित करता है। भय, प्रेम, क्रोध जैसे संवेगों की स्पष्ट अभिव्यक्ति मानसिक विकास के होने के पश्चात् ही होती है।
- विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of Direction of Development) – इस सिद्धान्त को केन्द्र से परिधि की ओर सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसके अनुसार बालक के विकास का क्रम सिर से पैरों की ओर होता है। व्यक्ति के सिर का विकास सर्वप्रथमं होता है फिर यह पैरों की ओर बढ़ता है अर्थात् जो अंग सिर से जितना अधिक दूर होगा उसका विकास उतना ही बाद में होगा। बालक का सिर पहले विकसित होता है और पैर बाद में। यही बात बालक के अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयास करता है। 9 माह की आयु में सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे खिसककर चलता है और 1 वर्ष की आयु में वह खड़ा हो जाता है।
- सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Development)-इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का क्रम गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक निरन्तर चलता रहता है। बालक के जन्म के शुरुआती तीन-चार साल में विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है, जो बाद में मंद होती जाती है। इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थक स्किनर अनुसार, “किसी भी व्यक्ति में आकस्मिक कोई परिवर्तन नहीं होता। विकास एकाएक न होकर सतत् होता है। उदाहरण के लिए- दाँतों का विकास भ्रूणावस्था में प्रारम्भ होता है, जो जन्म के 6 महीने बाद ही मसूढ़ों से बाहर निकलते हैं।
- रेखीय न होकर पेंचदार विकास का सिद्धांत (Principle of Spiral Development)- व्यक्ति में विकास एकरेखीय न होकर पेंचदार होता है। विकास एक सीधी रेखा में न होकर कई कड़ियों में विभक्त रहता है जो आगे-पीछे बढ़ते हुए परिपक्वता को प्राप्त करता है। विकास के कई पहलू होते हैं तथा उनके विकसित होने की गति और प्रक्रिया भी विशिष्ट होती है।
- पूर्वानुमानता का सिद्धान्त (Principle of Predictability)- व्यक्ति में विकास का क्रम समान रहता है लेकिन उसकी गति भिन्न होती है फिर भी मनोवैज्ञानिक बालकों पर परीक्षण करके उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इससे व्यक्ति की रुचि एवं व्यवहार का अनुभव कर भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जाता है। ओवेन ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया कि तर्क एवं बौद्धिक प्रकार्यों में विकास के प्रतिमानों की भविष्यवाणी संभव है।
- विकास-क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence) – व्यक्ति का विकास एक निरन्तर एवं क्रमिक रूप से चलने वाली प्रक्रिया है। विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है जिनकी अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। विकास की सभी अवस्थाओं में सम्बन्ध पाया जाता है फिर भी उनके लक्षणों के आधार पर उनको अलग-अलग किया जा सकता है। बालक का विकास प्रतिमान सामान्य होता है और विकास की प्रत्येक अवस्था आगे आने वाली अवस्था के लिए आधार प्रस्तुत करती है। विकास की इस प्रक्रिया में प्रत्येक अवस्था के अनुभवों का विशेष महत्त्व होता है, जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती।
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्त्व
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त से हमें यह ज्ञात होता है कि वृद्धि तथा विकास की गति तथा मात्रा सभी बालकों में एक समान रूप से नहीं पाई जाती है। अतः सभी बालकों से एक जैसी वृद्धि तथा विकास की आशा नहीं करनी चाहिए, व्यक्तिगत अन्तरों को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है।
- बालकों में वृद्धि तथा विकास की भविष्य में होने वाली प्रगति का अनुमान लगा लेने से हमें यह लाभ होता है कि भविष्य में जो बालक जैसा कर सकता है या जैसा बन सकता है, उसी को ध्यान में रखकर हम अपने प्रयास करते हैं। परिणामस्वरूप हम अपने आपको अनावश्यक परिश्रम और निराशाओं से मुक्त रख सकते हैं।
- वृद्धि तथा विकास के विभिन्न पहलू जैसे, मानसिक विकास, शारीरिक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास आदि एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित होते हैं। इससे हमें बालक के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देने की प्रेरणा मिलती है। वृद्धि तथा विकास का प्रत्येक पहलू एक दूसरे से सम्बन्धित है। अतः यदि किसी एक पहलू पर ध्यान न दिया जाए तो विकास का प्रत्येक पहलू प्रभावित होगा।
- भविष्य में होने वाली वृद्धि तथा विकास को ध्यान में रखते हुए क्या-क्या विशेष परिवर्तन होंगे इस बात की जानकारी इन सिद्धान्तों के आधार पर हो सकती है। इससे न केवल माता-पिता तथा अध्यापकों को विशेष रूप से तैयार होने के लिए आधार मिलता है, अपितु वे होने वाले परिवर्तनों तथा समस्याओं के लिए अपने-आप को तैयार करने में समर्थ हो जाते हैं।
- बालक की वृद्धि और विकास के लिए वंशानुक्रम तथा वातावरण समान रूप से उत्तरदायी हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हमें बालकों को अधिक से अधिक कल्पना के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस प्रकार से वृद्धि तथा विकास सम्बन्धी सिद्धान्त बालक की वृद्धि तथा विकास को उचित दिशा में बनाए रखने के लिए हमें आधार प्रदान करते हैं ।
वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Growth and Development)
- वंशानुक्रम (Heredity)
- जैविक कारक (Biological Factor)
- पर्यावरण (Environment)
- शारीरिक कारक (Physical Factor)
- अन्य कारक (Other Factors)
वंशानुक्रम (Heredity)
- शारीरिक विकास पर प्रभाव – डिक मेयर के अनुसार, , वंशानुगत कारक जन्मगत विशेषताएँ होती हैं जो बालक के अन्दर जन्म से ही पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट किया है कि गर्भाधान के समय स्त्री पुरुष के जिस प्रकार के शरीर सम्बन्धी पित्रैक (Genes) का संयोग होता है। बच्चे के शरीर के विविध अंगों का विकास उसके अनुसार ही होता है। पित्रैकों के माध्यम से ही शारीरिक रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होते हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि गर्भस्थ बच्चे के विकास में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (Endocrine Glands) का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
- मानसिक विकास पर प्रभाव – क्लिनबर्ग के अनुसार, “बुद्धि प्रजाति पर निर्भर करती है। वंशानुक्रम सम्बन्धी जितने भी प्रयोग किए गए हैं उनसे यह ज्ञात होता है कि बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे भी बुद्धिमान होते हैं। कम बुद्धि वाले माता-पिता के बच्चे भी कम बुद्धि के होते हैं। ” अतः व्यक्ति के मानसिक विकास का आधार भी वंशानुक्रम होता है, परन्तु कभी-कभी इसके अपवाद भी होते हैं ऐसा इसलिए होता है कि बालक माता-पिता के अलावा अपने पूर्वजों से भी गुण हस्तान्तरित करता है।
- संवेगात्मक विकास पर प्रभाव- किसी भी व्यक्ति की संवेगात्मक स्थिति उसके शरीर एवं मस्तिष्क पर निर्भर करती है इसलिए मनुष्य के संवेगात्मक विकास में भी वंशानुक्रम का प्रभाव होता है। संवेदी माता-पिता की संतानें भी संवेदना के भाव से परिपूर्ण होती हैं ।
- सामाजिक विकास का प्रभाव – व्यक्ति में सामूहिकता की मूल प्रवृत्ति का निवास होता है। यही प्रवृत्ति व्यक्ति को समूह में रहने की प्रेरणा देती है। इस प्रवृत्ति की तीव्रता जिस व्यक्ति में अधिक होती है वह उतनी ही तीव्रता से विविध प्रकार के समाजों में समायोजित हो जाता है। जिन परिवारों में सामाजिकता को महत्त्व दिया जाता है उन परिवारों के बच्चे सामाजिक क्रियाकलापों में भागीदारी करते हैं और सामाजिक नियमों एवं परम्पराओं का निर्वहन करते हैं।
- स्वभाव पर प्रभाव – व्यक्ति का स्वभाव मुख्यतः उसके • सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास पर निर्भर करता है। स्वभाव के विकास में सबसे अधिक भूमिका अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की होती है।
- चरित्र के विकास पर प्रभाव व्यक्ति का चारित्रिक विकास भी उसके वंशानुक्रम पर निर्भर करता है। इसका निष्कर्ष डगडेल ने चरित्रहीन ड्यूक के वंश के अध्ययन के आधार पर किया ।
जैविक कारक (Biological Factors)
- बहिस्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands) -ये नलिका युक्त ग्रन्थियाँ होती हैं और अपने स्राव को नलिका (Duct) द्वारा शरीर के बाहर निकाल देती हैं।
- अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands ) – ये नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ अपना स्राव सीधे रक्त में डालती हैं। वस्तुतः कभी-कभी हम बहुत सक्रिय तथा कभी-कभी, निष्क्रिय हो जाते हैं व कभी-कभी उदास (depressed) हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि शरीर में कुछ ऐसे रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिनका नियन्त्रण कुछ ग्रन्थियों द्वारा होता है। उन ग्रंथियों का वर्णन निम्नलिखित है
- पीयूष ग्रन्थि (Pituitary Gland) — इसका स्थान मस्तिष्क में होता है तथा अधिक हार्मोन्स (Hormones) स्रावित होने से व्यक्ति के शरीर की लम्बाई अधिक व कम होने से व्यक्ति बौना जाता है। इस ग्रन्थि के अग्रभाग से सोमेंटोट्रोकिन नामक हार्मोन्स स्रावित होता । इस हार्मोन्स के सहारे पीयूष ग्रन्थि अन्य ग्रन्थियों जैसे— एड्रीनल ग्रन्थि, गल ग्रन्थि (thyroid) आदि के कार्यों पर अपना नियंत्रण रखती है।
- अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal Gland) – इस ग्रन्थि का स्थान वृक्क (kidney) के ऊपर होता है। इसके द्वारा ही व्यक्ति की सांवेगिक स्थिति का नियंत्रण होता है । भय, क्रोध, आदि संवेग में इस ग्रन्थि में बनने वाले हार्मोन्स का अधिक महत्त्व है, इसलिए इन्हें आपातकालीन हार्मोन्स (Emergency Hormones) भी कहा जाता है।
- गलग्रन्थि (Thyroid Gland) – गलग्रन्थि का व्यक्तित्व पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसके नष्ट हो जाने पर श्लेष्मकाय (Myxoedema) नामक रोग हो जाता है। इस रोग में व्यक्ति के शरीर में शिथिलता आ जाती है। मस्तिष्क एवं पेशियों की क्रिया मन्द पड़ जाती है, शरीर पर सूजन आ जाती है, स्मृति मन्द होने लगती है, ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता, चिन्तन करना कठिन हो जाता है। जन्म से ही इस ग्रन्थि के न होने पर बालक की बुद्धि का विकास नहीं हो पाता। अजाम्बुक बालक (Cretins), बौने, कुरूप और मूढ़बुद्धि (Imbecile) बालक इसी ग्रन्थि के प्रभाव का परिणाम हैं। इस ग्रन्थि के बहुत अधिक क्रियाशील होने पर व्यक्ति में तनाव, अशान्ति, चिड़चिड़ापन, चिन्ता और अस्थिरता दिखाई पड़ती है। वृद्धि के काल में गलग्रन्थि की क्रिया अधिक होने पर शारीरिक विकास, विशेषतया लम्बाई के विकास में अधिक तेजी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार संक्षेप में, गलग्रन्थि की क्रिया की अधिकता और कमी के साथ-साथ शरीर की क्रिया में अधिकता और कमी दिखाई पड़ती है। यद्यपि अन्य प्रभावों के कारण भी शरीर में यही परिवर्तन देखा जा सकता है।
- यौन ग्रंथि (Sex Gland) – इस ग्रंथि के विकास से स्त्रियों में स्त्रियोचित गुणों तथा पुरुषों में पुरुषोचित गुणों का विकास होता है।
पर्यावरण (Environment)
- मूलभूत आवश्यकताएँ – मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान हैं। ये सुविधाएँ व्यक्ति के विकास को प्रभावित करती हैं। व्यक्ति के विकास के लिए ये सुविधाएँ जितनी उत्तम होंगी उसका विकास भी उतना ही उत्तम होगा।
- पारिवारिक परिवेश-व्यक्ति के विकास को उसका पारिवारिक वातावरण / परिवेश विशेष रूप से प्रभावित करता है। आर्थिक रूप से सम्पन्न तथा सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार में पलने वाले बालकों का विकास अच्छा होता है। परिवार में उन्हें स्वस्थ वातावरण प्राप्त होता है जिससे बालक का विकास प्रभावित होता है।
- रोग तथा दुर्घटना- रोग, चोट या दुर्घटना के कारण बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रभावित होता है। गम्भीर रोग में दी जाने वाली दवाओं के कुप्रभाव (Side effect) के कारण बालकों का विकास बाधित होता है।
- विद्यालय ( School) – विद्यालय का वातावरण तथा विद्यालय से प्राप्त होने वाली सुविधाओं का प्रभाव बालक के विकास पर पड़ता है। जिन विद्यालयों में बालक के सर्वांगीण विकास हेतु समस्त साधनों, सुविधाओं एवं अवसरों की समुचित व्यवस्था होती है उनमें अध्ययनरत छात्रों का विकास अच्छी प्रकार होता है। विद्यालयों में अध्यापकों का व्यवहार बालक के विकास को मुख्य रूप से प्रभावित करता है। जिन विद्यालयों में शिक्षक स्नेहपूर्ण एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं तथा विद्यार्थियों को उनकी समस्याओं के समाधान हेतु निर्देशन एवं परामर्श देते हैं उन स्कूलों पढ़ने वाले विद्यार्थियों का विकास अच्छी प्रकार होता है।
- समाज एवं संस्कृति (Society and Culture ) – व्यक्ति का विकास समाज एवं संस्कृति द्वारा प्रभावित होता है। मनुष्य एवं सामाजिक प्राणी है” समाज के दुःख सुख उसके अपने दुःख-सुख हैं। उपरोक्त कथन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि मनुष्य का व्यवहार, कार्य एवं भाव समाज द्वारा प्रभावित होता है। समाज के रीति रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं एवं नैतिक मूल्यों द्वारा मानव के विकास का नियंत्रण एवं निर्धारण होता है।
अन्य कारक (Other Factors )
- बुद्धि – बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बुद्धि का बालक के विकास पर अधिक प्रभाव पड़ता है। कुशाग्र बुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तीव्र गति से होता है जबकि मन्द बुद्धि के बालकों का मानसिक विकास मन्द गति से होता है । मन्द बुद्धि के बालकों का शारीरिक विकास भले ही हो जाए किन्तु उनका सामाजिक, नैतिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास की गति अत्यन्त धीमी रहती है। कुशाग्र बुद्धि के बालक शीघ्र ही चलना एवं बोलना सीख लेते हैं वहीं . मन्द बुद्धि बालक देर से चलना व बोलना सीख पाते हैं।
टर्मन ने अपने अध्ययन (जिसमें बालक के पहली बार बोलने और चलने का अध्ययन किया ) के माध्यम से यह निष्कर्ष निकाला कि 13 वें मास में चलने वाले बालक प्रखर बुद्धि, 14 वें मास में चलने वाले सामान्य बुद्धि, 22 वें मास में चलने वाले मन्द बुद्धि और 23 वें मास में चलने वाले बालक मूढ़ होते हैं इसी प्रकार बोलने की प्रक्रिया में क्रमशः 11, 16, 34, 51 मास वाले बालक प्रखर बुद्धि, सामान्य, मन्द एवं मूढ़ बुद्धि वाले होते हैं।
- लिंग भेद – लिंग-भेद भी बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में प्रभावशाली कारक हैं। इसका प्रभाव बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर पड़ता है। अध्ययन में यह देखा गया कि जन्म के समय बालक का आकार, बालिकाओं की अपेक्षा बड़ा होता है परन्तु बाद में बालिकाओं का शारीरिक विकास बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता है। बालकों का मानसिक विकास, बालिकाओं की अपेक्षा देर से होता है। बालिकाओं में यौन-परिपक्वता भी बालकों की अपेक्षा जल्दी आती है।
- पोषण- बालक के विकास का एक अन्य प्रभावी कारक उचित पोषण है। पोषण का बालक के विकास पर पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। उचित पोषण से बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास उचित ढंग से होता है। बालक के लिए सिर्फ भोजन ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस भोजन में उचित सन्तुलित पोषण का होना भी अनिवार्य है। सन्तुलित पोषण तत्त्वों को ग्रहण करने से बालक शारीरिक रूप से सुदृढ़ होते हैं और मानसिक रूप से भी उनका विकास उचित रूप से होता है।
- शुद्ध जल, वायु एवं प्रकाश – शुद्ध जल, वायु एवं प्रकाश भी बालक विकास के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। जीवन के आरम्भिक दिनों में बालक को शुद्ध वायु तथा प्रकाश ( धूप) की नितान्त आवश्यकता होती है। शुद्ध जल, वायु एवं प्रकाश के अभाव में जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है। इससे उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
- प्रजाति – प्रजाति भी बालक के विकास को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। क्लिनबर्ग का मत है कि बुद्धि की श्रेष्ठता का कारण प्रजाति है। यही कारण है कि अमेरिका की श्वेत प्रजाति, नीग्रो प्रजाति से श्रेष्ठ है । अध्ययन से यह स्पष्ट हुा है कि यूरोप की तुलना में भूमध्यसागरीय प्रदेशों के बालकों का शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है।
- आर्थिक स्थिति बालक विकास का अन्य प्रभावशाली कारक परिवार की आर्थिक स्थिति भी है। सम्पन्न परिवार के बालक मानसिक रूप से पूर्णतः सन्तुष्ट रहते हैं जिस कारण उनका समुचित शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है। इसके ठीक विपरीत आर्थिक रूप से कमजोर बालक स्वयं से असन्तुष्ट रहते हैं और उनके मानसिक एवं शारीरिक विकास की गति धीमी रहती है।