शिक्षण प्रक्रिया के विभिन्न चरों के नाम बताइए तथा उनमें से किसी एक चर की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए ।
- शिक्षक (Teacher) – जिसे स्वतन्त्र चर ( Independent Variable) कहा जाता है जो शिक्षण की व्यवस्था, नियोजन एवं उनका परिचालन करता है ।
- छात्र (Pupil) शिक्षण प्रक्रिया में छात्र को आश्रित चर (Dependent Variable) कहा जाता है क्योंकि उसे शिक्षण के नियोजन, व्यवस्था प्रस्तुतीकरण तथा परिचालन के अनुरूप क्रियाशील रहना पड़ता है।
- पाठ्यवस्तु या पाठ्यक्रम (Curriculum)- इसको हस्तक्षेप चर (Intervening Variable) माना गया है। इसके द्वारा शिक्षक व छात्र के मध्य अन्तःप्रक्रिया होती है। शिक्षण सामग्री का स्वरूप, शिक्षण विधियाँ आदि शिक्षक तथा छात्र के मध्य अनुक्रिया कर हस्तक्षेप करती हैं।
इस प्रक्रिया को पूर्ण होने के लिए शिक्षक एवं शिक्षार्थी के साथ पाठ्यवस्तु का उपलब्ध होना अति आवश्यक होता है। पाठ्यवस्तु के अभाव में शिक्षण को सही दिशा देना कठिन होता है । अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षण एक त्रिध्रुवीय प्रक्रिया है।
शिक्षक को यह ज्ञान होना आवश्यक है कि वह विद्यार्थी के जिस व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन करना चाहता है वह व्यवहार स्वयं में क्या है, तभी वह शिक्षण योजना (Plan) बनाई जा सकती है, जिससे विद्यार्थी के वर्तमान व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके। यह शिक्षण का कार्य विद्यार्थी को उसके प्रारम्भिक व्यवहार से अन्तिम व्यवहार तक पहुँचाता है। यहाँ पर विद्यार्थियों के प्रारम्भिक व्यवहार के विषय में जानना आवश्यक होगा।
इस विषय में अध्ययन करने के पश्चात् स्पष्ट होता है कि कोई भी विद्यार्थी चाहे किसी भी स्तर या कक्षा आयु से सम्बन्धित हो, जब भी उसे किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त करने की परिस्थिति में रखा जाता है तो उसके पास उस विषय से सम्बन्धित कुछ स्वयं के पूर्वानुभव भी होते हैं।
- विद्यार्थी का अधिगम का तरीका, जैसे-सीखने में सक्रिय या निष्क्रिय रहना, ज्ञान तथा चिन्तन स्तर पर अधिगम प्राप्त करना, अनुसन्धानात्मक तथा रचनात्मक अधिगम के प्रति झुकाव आदि का ध्यान रखना चाहिए।
- विद्यार्थी के पूर्वानुभावों जो अधिगम से जुड़े होते हैं की जानकारी होनी चाहिए।
- शिक्षक को विद्यार्थी की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक स्तर से परिचित होना चाहिए ।
- विद्यार्थी में विषय के प्रति रुचि तथा अभिरुचि की प्रकृति को समझना चाहिए ।
- उसके व्यक्तित्व विकास में मुख्यतः उन गुणों का अध्ययन करना चाहिए जिनसे उनका समायोजन तथा अधिगम प्रभावित होता है।
- शिक्षक को विद्यार्थी के संवेगात्मक तथा क्रियात्मक स्तर से परिचित होना चाहिए।
- शिक्षा के प्रति आकर्षण ( Attraction towards Education) – शिक्षा के प्रति आकर्षण से शिक्षार्थी की पहचान लगायी जा सकती है जो शिक्षा को पूर्णमनोयोग और रुचि के साथ ग्रहण करने के लिए तत्पर हो वही सच्चा शिक्षार्थी होता है। जिस बालक को जबर्दस्ती स्कूल भेजा जाए और वह स्कूल में पढ़ने-लिखने के स्थान पर अनुशासनहीनता प्रदर्शित करे तो हमें उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उसकी समस्याओं को समझकर तथा उसका समाधान करके उस बालक में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करना चाहिए। जो व्यक्ति शिक्षार्थी के रूप में अपनी शिक्षा के विषयों का उत्साह और रुचि के साथ अध्ययन किया है वे अपने-अपने क्षेत्र के सफल व्यक्ति कहलाते हैं। किसी छात्र पर अभिभावक दबाव डालकार कोई विषय पढ़ने के लिए विवश करें तो उनके दबाव का यह प्रभाव शिक्षार्थी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। छात्र रुचि के साथ शिक्षा प्राप्त नहीं करेगा और अयोग्य छात्र बनकर रह जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यदि कोई बालक या व्यक्ति रुचि, मनोयोग और उत्साह के साथ शिक्षा प्राप्त कर रहा है तो उसकी पहचान शिक्षार्थी के रूप में निर्धारित करने वाला प्रमुख कारक है।
- व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुण ( Individual and Social Features)—व्यक्तिगत तथा सामाजिक गुणों के आधार पर भी शिक्षार्थी की पहचान निर्धारित की जा सकती है क्योंकि कारण प्रत्येक व्यक्ति का गुण ही उसकी पहचान का प्रमु होता है। ये गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं। प्रेम, सहयोग, क्षमा, परोपकार तथा बन्धुत्व जैसे सामाजिक गुण शिक्षार्थी के आभूषण होने चाहिए साथ ही परिश्रमी, लगनशील, अच्छे स्वास्थ्य और कर्त्तव्यनिष्ठा जैसे व्यक्तिगत गुणों से भी उसे सुसज्जित होना चाहिए। यदि शिक्षार्थी में ये गुण न हों तो उनका शिक्षा प्राप्त करना व्यर्थ है और न ही उसे वास्तविक शिक्षार्थी माना जाएगा।
- शिक्षार्थी के कार्य (Functions of Student ) – जब कोई बालक या व्यक्ति समाज सेवा या समाज के सदस्यों के हित का कार्य करता है तो उसके इस कार्य से उसके शिक्षार्थी होने की पहचान की जा सकती है। सामाजिक कार्यों के प्रति उदासीन व्यक्ति सच्चा शिक्षार्थी नहीं बन सकता है। विद्यालय में समाजोपयोगी उत्पादक कार्यों के द्वारा शिक्षार्थी को समाज सेवा सम्बन्धी कार्यों के प्रति आकर्षित किया जाता है। यदि छात्र किसी असहाय व्यक्ति या जीव की सहायता करता है तो यह उसके शिक्षार्थी होने का प्रमुख लक्षण है। शिक्षा हमें समाज के उत्थान का मार्ग दिखाती है। इसलिए वास्तविक शिक्षार्थी वही है जो समाज के हित सम्बन्धी कार्य को प्रमुखता देकर शिक्षा प्राप्त कर रहा है। सामाजिक कार्यों का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सहज रूप से प्रभाव पड़ता है।
- शिक्षार्थी का व्यवहार (Behaviour of Student) – शिक्षार्थी का व्यवहार तथा वातावरण एवं समाज में समायोजन की क्षमता उसकी पहचान को निर्धारित करने का प्रमुख कारण है। शिक्षा व्यक्ति को परिस्थितियों से संघर्ष करने के योग्य बनाती है। यदि कोई बालक शिक्षा प्राप्त करते समय अनुचित संगत के कारण वह अपने व्यवहार को असंतुलित कर लेता है तो उसका शिक्षा प्राप्त करना सार्थक नहीं माना जाएगा। अपने व्यवहार और आचरण से विद्यार्थी को दूसरों का भला करने वाला होना चाहिए कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आपको समायोजित कर सके।
- सामाजिकता- विद्यालय की गणना एक सामाजिक संस्था के रूप में होती है क्योंकि विद्यालय में समाज के भावी भाग्य निर्माता तैयार होते है शिक्षक समाज का एक उपयोगी सदस्य तथा मान्य मार्गदर्शक है। शिक्षक को मिलनसार, गणतंत्रवादी, सहयोगी, उपकारी होना चाहिए वह सामाजिक कार्यों में उत्साहपूर्वक भाग ले सके व समाज की सेवा करने को हमेशा तत्पर रहे, आवश्यकता पड़ने पर समाज का नेतृत्व भी कर सके, ऐसा शिक्षक ही सफल, लोकप्रिय, उपयोगी व प्रभावशाली होता है।
- धैर्य व सहनशीलता – शिक्षक मे धैर्य व सहनशीलता के गुण का होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि धैर्यशील होने पर शिक्षक छात्र को विषय-वस्तु समझ न आने तक बार-बार समझाएगा परन्तु धैर्यविहीन होकर वह बिना कारण ही छात्र का अहित कर सकता है। धैर्य व सहनशील होने की स्थिति में शिक्षक प्रतिकूल परिस्थिति का सामना भी सहजता से कर सकता है। वह छात्रों में भी धैर्य व सहनशीलता के गुण को विकसित करने मे आदर्शता का कार्य कर सकता है।
- व्यावसायिक दक्षता आदर्श व उत्तम शिक्षक मे व्यावसयिक दक्षता का होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि व्यावसायिक रूप से दक्ष होने पर वह अपने विषय को प्रभावशाली ढंग से छात्रों तक पहुँचा सकता है, प्रशिक्षण द्वारा शिक्षण में व्यावसायिक दक्षता आत्मविश्वास, विभिन्न विधियों को व्यवहार में लाने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है शिक्षण के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान भी सहजता पूर्वक हो जाता है।
- असाम्प्रदायिकता और जाति निरपेक्षता – वर्तमान में साम्प्रदायिकता एक बहुत व्यापक समस्या का रूप ले कर उभरी है। जातीयता का स्तर तो और भी भयानक स्थिति में है। इसलिए शिक्षक को इन सबसे ऊपर उठकर अपने छात्रों में इन अवगुणों को पनपने नहीं देना चाहिए। उन्हें केवल देशभक्ति व उसके अवयवों के लिए हानिकारक तत्त्वों से छात्रों को अवगत कराना है।
- मौलिकता – शिक्षक मे अपनी बात को मौलिक ढंग से रखने व मौलिक विचार देने की क्षमता होनी चाहिए ऐसा करने से शिक्षक सदैव नवीनता व आकर्षण का केन्द्र बना रहता है।
- बाल मनोविज्ञान का ज्ञान वर्तमान शिक्षा बालकेन्द्रित है व शिक्षक एक सहायक व पथ प्रदर्शक के रूप में होता है। अतः शिक्षक को बाल मनोविज्ञान का ज्ञान एक सफल-अधिगम संचालन हेतु आवश्यक होता है। बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर शिक्षक बालक के मानसिक, स्तर, रुचि, अधिगम- वातावरण, आयु अभिरुचि, अभिप्रेरणा इत्यादि तथ्यों को ध्यान में रख कर पढ़ाई हेतु वातावरण निर्माण कर शिक्षक कार्य को सम्पन्न करता है।
- नवीन तकनीकों का ज्ञान-नयी तकनीकियों का ज्ञान होने पर शिक्षक अपने शिक्षण मे इन तकनीकों जैसे स्मार्ट बोर्ड प्रजन्टेशन, एल. सी. डी. प्रोजेक्टर, इंटरनेट इत्यादि का प्रयोग कर, बालक की अधिकाधिक इन्द्रियों को सक्रिय करते हुए शिक्षण को नवीनता से जोड़ते हुए शिक्षण को बालकों के मस्तिष्क में स्थायी कर सकता है।
- सन्तुलित व्यक्तित्व- शिक्षक यदि अपने विषय का गहन जानकार है परन्तु व्यक्तित्व प्रभावकारी व संतुलित नहीं है तो शिक्षक प्रभावोत्पादक शिक्षण नहीं कर सकता। अतः इस हेतु शिक्षक को संतुलित व्यक्तित्व का स्वामी होना भी आवश्यक है।
- कुशल वक्ता – अध्यापक के कुशल वक्ता होने से वह अपने विचार छात्रों तक प्रभावशाली ढंग से पहुँचा सकता है। भाषण कला द्वारा वह छात्रों का ध्यान भली प्रकार विषय-वस्तु पर केन्द्रित कर सकता है।
- समय – पाबंद – शिक्षक अध्यापन कार्य करते हुए अपने समय पर आवश्यक रूप से नियंत्रण रखे। समय पर नियंत्रण न होने की स्थिति में शिक्षक समय के भीतर अपना पाठ समाप्त नहीं कर पाते, ऐसा होना बहुत ही दुखद व छात्रों के लिए अहितकर है। सफल शिक्षक ऐसा कभी नहीं करेगा। वह निश्चित समय में अपना शिक्षण करता है, ऐसा करने के लिए वह पूर्व योजना बनाता है।
- जनतन्त्रात्मक अन्तःक्रियात्मक शिक्षण शैली (Democratic or Interactive Teaching Style) – इस शिक्षण शैली में शिक्षक को जनतान्त्रिक तथा अन्तः क्रियात्मक रूप में देखा जाता है। इसमें शिक्षण कार्य विषय केन्द्रित न होकर विद्यार्थी केन्द्रित होता है। शिक्षण कार्य में जो भी मूल्याकन या क्रियान्वयन सम्बन्धी कार्य होते हैं उनमें विद्यार्थियों के हितों को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। इस शैली में विद्यार्थी और शिक्षक के मध्य की अन्तःक्रिया को अमिकता दी जाती है।
- विरक्त या अनासक्त शिक्षण शैली (Detached Teaching Style)यह शिक्षण शैली अविचारित और गैर जिम्मेदारीपूर्ण होती है। इसमें शिक्षकों को अपने शिक्षण कार्य में कोई विशेष रुचि नहीं होती है। इस प्रकार की शिक्षण शैली में शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य अन्तःक्रिया अनुपस्थित नहीं होती परन्तु तुलनात्मक रूप में शून्य होती है। अध्यापक को स्वयं में प्रतिभाशाली अध्यापक बनने की लालसा नहीं होती है।
- तानाशाही या प्रभुत्ववादी शिक्षण शैली (Authoritarian or Autocratic Teaching Style)- इस प्रकार की शिक्षण शैली के अन्तर्गत शिक्षण पूर्णतः शिक्षक केन्द्रित तथा शिक्षक नियमित होता है। शिक्षक अपने शिक्षण कार्य में यह आशा रखते हैं उनके इस कार्य के दौरान विषय से सम्बन्धित शब्दों पर कोई टिप्पणी या विद्यार्थी द्वारा प्रश्न न किया जाए। इस शिक्षण शैली में शिक्षक अपनी कमियों को छिपाने हेतु प्रभुत्ववादी व्यवहार अपनाते हैं। यथार्थता यह शिक्षण शैली मनोवैज्ञानिक हीनता से युक्त शिक्षक अपनाते हैं।
- प्रबन्धकीय एवं आधिकारिक शिक्षण शैली (Managerial and Authoritative Teaching Style)- इस शिक्षण शैली में शिक्षक का शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में पूरा नियन्त्रण होता है। शिक्षक स्वयंसेवी नियोजन संगठन, मूल्यांकन, क्रियान्वयन आदि सभी गतिविधियों का संचालन करता है। इस कार्य में शिक्षक का स्वभाव तानाशाहीपूर्ण हो ऐसा आवश्यक नहीं होता है क्योंकि वह अपने कार्य को एक अच्छे प्रबन्धकर्ता के रूप में भी करता है। इस शिक्षण शैली में सबसे अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों के मध्य अन्तःक्रिया होती है। अतः स्पष्ट है कि यह शिक्षण शैली अनासक्त शिक्षण शैली के विपरीत है।
- स्वतन्त्र एवं मित्रतापूर्ण शिक्षण शैली (Free and Friendly Teaching Style)- इस प्रकार की शैली में शिक्षक विद्यार्थियों को उन्हें अपने अधिगम अर्जन हेतु परम मित्र के रूप में स्वतन्त्रता देने के पक्ष में होते हैं। अध्यापक के शिक्षण कार्य में यह व्यक्त करते हुए देखा जाता है कि एक साथ प्रश्न पूछने के बजाए बारी-बारी से पूछें परन्तु प्रायः ये बातें अनसुनी रह जाती हैं। शिक्षण कार्य में अध्यापक द्वारा उचित कक्षा प्रबन्धन सम्बन्धी कार्य में मित्रता के बजाए बढाने सम्बन्धी बातों को माना जाता है लेकिन इस कारण शिक्षक के व्यवहार से उसकी साधन सम्पन्नता तथा अभिक्षमता पर संदेह स्पष्ट होता है।
