1st Year

शिक्षण सूत्रों से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए । What do you mean by Maxims of Teaching? Describe Maxims of Teaching with examples.

प्रश्न – शिक्षण सूत्रों से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए । What do you mean by Maxims of Teaching? Describe Maxims of Teaching with examples.
या
शिक्षण सूत्र क्या हैं? उदाहरण के साथ व्याख्या करें ।  What are maxims of Teaching? Explain with examples.
उत्तर- शिक्षण के सूत्र (Maxims of Teaching)
  1. ज्ञात से अज्ञात  की ओर  (From Known  Unknown) – हमें बालक को नवीन ज्ञान देने से पहले उस शिक्षण बिन्दु से सम्बन्धित सामान्य जानकारी बच्चों को देनी चाहिए व उससे सम्बन्धित ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए जिनका पूर्व ज्ञान छात्रों को हो । अन्य शब्दों में शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि किसी विषय को पढ़ाने से पहले वह इस बात को ज्ञात कर ले कि छात्र को उस विषय का कितना पूर्व ज्ञान है अर्थात् उसे क्या ज्ञात है। शिक्षक को इस पूर्व ज्ञान (ज्ञातपर) ही नए ज्ञान (अज्ञात) को आधारित करना चाहिए ।
  2. अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Uncertainty to Certainty)- प्रारम्भिक स्तर पर बालक का ज्ञान अनिश्चित और अस्पष्ट होता है। शिक्षक को बालक के इसी अनिश्चित ज्ञान को शिक्षण का प्रारम्भिक बिन्दु मानना चाहिए और फिर उसका विस्तार करते हुए धीरे-धीरे उसे निश्चित रूप देना चाहिए। उड़ने वाले पक्षी, तोता, कौआ आदि के बारे में बालक की धारणा अनिश्चित होती है। इनकी शारीरिक बनावट, घोंसला बनाना, खाना इत्यादि के बारे में ज्ञान अस्पष्ट होता है। शिक्षक इनके बारे में उचित ज्ञान देकर छात्रों के ज्ञान को निश्चित व स्थायी बनाता है।
  3. सुगम से जटिल की ओर (From Easy to Difficult) शिक्षक को अपने विषय को पढ़ाने की समय-सारणी बनाते समय पाठ्य विषय का इस प्रकार विभाजन करना चाहिए कि पहले सुगम पाठ या विषय पढ़ाए जाएं उसके बाद कठिन पाठ या विषय पढ़ाए जाए जिससे छात्र आसानी से अधिगम कर सके। प्रारम्भ में ही कठिन पाठों का शिक्षण कराने से छात्रों में यह विचार उत्पन्न हो जाता है कि यह विषय कठिन है और विषय में छात्र की रुचि कम होने लगती है।
  4. स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrete to Abstract)—प्रारम्भ में बालक वस्तुओं के केवल स्थूल रूप को ही जानता है। जैसे-जैसे उसका विकास होता है उसमें उससे सम्बन्धित सूक्ष्म बातों को समझने की शक्ति का विकास होता जाता है। उदाहरण के लिए छात्रों को हिन्दी का अक्षर ज्ञान कराते समय अ के साथ अनार या उसका चित्र दिखाकर अक्षर का बोध कराना और कुछ समय बाद चित्र को हटाकर केवल अ आ आदि का ज्ञान कराना। अतः यह आवश्यक है कि छोटे बालकों को पढ़ाते समय प्रारम्भ में केवल स्थूल वस्तुओं का प्रयोग किया जाए और उनकी सहायता से सूक्ष्म बातों का ज्ञान कराया जाए।
  5. पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Parts ) – गेस्टाल्टवादियों ने बालक को सिखाने या पढ़ाने के लिए पहले पूर्ण उसके बाद उसके भागों की जानकारी देना अधिक उपयुक्त माना है। जैसे पालतू पशुओं का पाठ पढ़ाते समय पहले गाय, भैंस आदि का चित्र दिखाना या इन पशुओं को दिखाकर उसके बाद इनके अन्य भागों के बारे में दिया जाने वाला ज्ञान अधिक उपयोगी होता है। इस विधि से बालक सरलता से सीख लेता है। अतः शिक्षक को शिक्षण पूर्ण वस्तु से प्रारम्भ करना चाहिए और बाद में उसके भागों के बारे में बताना चाहिए।
  6. विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General) – शिक्षक को पहले छात्रों के सामने विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए और फिर उन्हीं उदाहरणों के माध्यम से सामान्य सिद्धान्त या सामान्य नियम निकलवाने. चाहिए। दूसरे शब्दों में शिक्षक इसमें आगमन विधि का प्रयोग किया जाता है। पहले बहुत से उदाहरण दिए जाते हैं। उदाहरणों के उपरान्त नियम बताया जाता है या सामान्य जानकारी दी जाती है अथवा छात्र उदाहरणों के सिद्ध होने पर स्वयं ही उनसे सम्बन्धित सामान्य नियम निकाल लेते हैं।
  7. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From Seen to Unseen) – बालक को पहले उन वस्तुओं का ज्ञान देना चाहिए जो उपलब्ध है और जिन्हें हम दिखा सकते हैं उसके बाद उन वस्तुओं का ज्ञान देना चाहिए जिन्हें हम दिखा नहीं सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पहले बालक को वर्तमान की बातें बतानी चाहिए और उसके बाद भूत और भविष्य की प्रत्यक्ष का ज्ञान सरलता से हो जाता है। अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष वस्तुओं को शिक्षण के समय प्रत्यक्ष तथ्यों, वस्तुओं और उदाहरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए। उनको समझने के बाद बालक के लिए अप्रत्यक्ष बातों को समझना आसान हो जाता है।
  8. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to Synthesis) – विश्लेषण में पहले सम्पूर्ण वस्तु का अध्ययन किया जाता है फिर उसके विभिन्न भागों को बताया जाता है। उदाहरण के लिए संसद का अध्ययन कराना है तो सर्वप्रथम बालक को बताया जाना चाहिए कि भारत की एक संसद है। उसके बाद उसके भागों- राज्य सभा, लोक सभा के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए तथा उसके उपरान्त इनके भी विभिन्न भागों के बारे में बताया जाना विश्लेषण विधि है। विश्लेषण के बाद जब हम उसके सभी भागों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब हमें पुनः संश्लेषण करना आवश्यक होता है। जैसे संसद के सभी भागों का विस्तृत ज्ञान कराने के बाद उनकी तुलना अन्य देशों की संसद के भागों से करने के बाद अन्त में स्पष्ट किया जाता है कि इन भागों से भारत की संसद बनती है। यह संश्लेषण विधि है।
  9. मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर (From Psychological to Logical)- इसके अनुसार बालक को कोई विषय उनकी रुचि, आयु, जिज्ञासा शारीरिक और मानसिक शक्ति को ध्यान में रखते हुए पढ़ाया जाना चाहिए। अर्थात् विषय या पाठ्यवस्तु को प्रधानता न देते हुए बालक की रुचि, स्तर आदि को वरीयता दी जानी चाहिए तभी शिक्षण अधिक होगा। साथ ही विषय को रुचिपूर्ण बनाते हुए एक स्वाभाविक विकास क्रम में आगे बढ़ना चाहिए। विषय जिस रूप में प्रारम्भ होता है और आगे बढ़ता है, उसी रूप और उसी क्रमबद्धता से उसका ज्ञान छात्रों को कराया जाना चाहिए।
  10. अनुभव से युक्ति की ओर (From Empirical to Rational)- प्रारम्भिक अवस्था में बालक की मानसिक शक्तियाँ या जिज्ञासाएँ इतनी तेज होती हैं कि वह बहुत सा ज्ञान देखकर व अनुभव करके प्राप्त करता है परन्तु वह प्राप्त ज्ञान तर्क पर आधारित नहीं होता है। बालक को ज्ञान तो होता है पर वह उस ज्ञान को तर्क का प्रयोग करके सत्य सिद्ध नहीं कर पाता है। अध्यापक को शिक्षण कार्य करते समय इसी क्रम को आगे बढ़ाना है उसे उस ज्ञान को युक्ति संगत बनाना है। जिससे बालक में समझने व तर्क करने की शक्ति का विकास हो सके।

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