1st Year

शिक्षा के सार्वभौमीकरण से आप क्या समझते हैं? प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिए |

प्रश्न – शिक्षा के सार्वभौमीकरण से आप क्या समझते हैं? प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिए |
What do mean by Universalisation of Education. Describe the Universalisation of . Elementary Education in detail.
या
प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की आवश्यकता एवं महत्त्व को बताइए |
Describe the need and importance of universalisation of Elementary Education.
या
स्कूली शिक्षा के वैश्वीकरण से आप क्या समझते हैं? सर्व शिक्षा अभियान (SSA) का विस्तृत वर्णन कीजिए। What do you mean by Universalisation of School Education? Discuss Sarva Shiksha Abhiyan (SSA) in detail. 
उत्तर- सार्वभौमीकरण का अर्थ
सार्वभौमीकरण अंग्रेजी शब्द यूनिवर्सलाइजेशन (Universalisation) का हिन्दी रूपान्तरण है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इंग्लैण्ड में किया गया । इंग्लैण्ड में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क किया गया तो उस समय उनका उद्देश्य शिक्षा को देश के एक निश्चित आयु वर्ग के सभी बच्चों को सुलभ कराना था। इसी के लिए उन्होंने ‘यूनिवर्सलाइजेशन’ अर्थात् सार्वभौमीकरण शब्द का प्रयोग किया। वर्तमान में सार्वभौमीकरण शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक हो गया है। भारतीय संविधान की धारा 45 में निर्देश है कि राज्य संविधान लागू होने के समय से 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा। भारत में शिक्षा के सार्वभौमीकरण से अभिप्राय है- कक्षा 1 से कक्षा 8 तक के बच्चों को शत्-प्रतिशत शिक्षा सुलभ कराना एवं बच्चे बीच में विद्यालय छोड़कर न जाएँ उन्हें शत्-प्रतिशत रोके रखना तथा शत्-प्रतिशत बच्चों को कक्षा 8 में उत्तीर्ण कराना है। इन्हीं उद्देश्यों को पूर्ण कर भारत में शिक्षा के सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया को सार्थक बनाया जा सकता है।
प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण
स्वतन्त्रोपरान्त 26 जनवरी, 1950 में भारत में नया संविधान लागू हुआ। संविधान की धारा 45 के अन्तर्गत, 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी छात्रों के लिए अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए कहा गया । अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य तभी पूरा किया जा सकता है जब शिक्षा सार्वभौमिक हो अर्थात् निश्चित आयु के सभी बच्चे, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या वर्ग के हों स्कूल जाए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने लिए 10 वर्षों का समय दिया गया था परन्तु दुर्भाग्यवश हम आज तक भी इस उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकें हैं।
प्रारम्भिक शिक्षा की सार्वभौमिकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ 
शिक्षा किसी भी व्यक्ति एवं समाज के समग्र विकास तथा सशक्तीकरण के लिए आधारभूत मौलिक अधिकार है। इससे समाज का भी विकास होता है। प्रारम्भिक शिक्षा की सार्वभौमिकता का अर्थ है कि प्रत्येक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए। भारत सरकार ने बालकों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम बनाया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षा को सभी बच्चों के लिए अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराना ही प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण कहलाता है। शिक्षा का सार्वभौमीकरण एक आधुनिक दृष्टिकोण है।
डा. राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षा केवल आजीविका कमाने का साधन नहीं है बल्कि यह विचारों की जन्मस्थली है। यह ना केवल नागरिकता का विद्यालय है बल्कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश का मार्ग है। मनुष्य अपनी आत्मा व सत्य की खोज के लिए इसमें प्रशिक्षण लेता है।
एस.एन. मुखर्जी के अनुसार, “शिक्षा की सरकारी मशीनरी ने कुछ तीव्र गति से काम शुरू कर दिया है परन्तु अभी बहुत से प्रयत्नों की आवश्यकता है। इससे नागरिकों को अनिवार्य शिक्षा के साथ जोड़ा जाए।”
पी. एम. सेन के अनुसार, “प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण ने ब्रिटिश संसद के डाव कोट में हलचल पैदा कर दी थी तथा भारत के राज्य स्तरीय सचिव ने भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में प्राथमिक शिक्षा की ओर ध्यान देने के लिए सबको अपनी ओर आकर्षित किया था । “
जे.पी. नायक के अनुसार, “प्रारम्भिक शिक्षा की प्रगति पूर्ण देश के सामाजिक, आर्थिक व सामान्य विकास का सूचक है। “

प्रारम्भिक शिक्षा एवं 86वाँ संविधान संशोधन (Elementary Education and 86th Constitution Amendment)

  1. 6-14 वर्ष की आयु के समस्त बालकों को उस तरह, जैसे कि राज्य कानून द्वारा निर्धारित करे, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए एक नए अनुच्छेद 21ए को सम्मिलित किया गया ।
  2. संविधान के वर्तमान अनुच्छेद 45 के अन्तर्गत प्रावधान किया गया कि “राज्य सभी बालकों को, जब तक कि वे 6 वर्ष के न हो जाएं, उनकी बाल्यावस्था की देख-भाल और उनकी शिक्षा की भी व्यवस्था करेगा।
  3. नागरिकों के मूल कर्तव्यों से सम्बन्धित अनुच्छेद 51ए में निम्नलिखित नई धारा को सम्मिलित किया जाए- माता-पिता या अभिभावक 6-14 वर्ष के बीच के अपने बालकों या उन पर आश्रित बालकों की शिक्षा अनिवार्य रूप से करेंगे ।
प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के चरण (Stages of Universalisation Elementary Education)
  1. व्यवस्था की सार्वभौमिकता- प्राथमिक विद्यालय, बालकों के घर के निकट होने चाहिए जिससे सभी बालक स्कूल जा सके। प्रत्येक ग्राम चाहे वह कितना भी छोटा हो उसमें प्राथमिक स्कूल खोले जाएं। प्राथमिक स्कूल ऐसी जगहों पर स्थापित किए जाए, जहाँ पहुँचने में छात्रों को कोई परेशानी न हो। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक प्राथमिक स्कूल खोले जा चुके हैं और शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने का कार्य काफी सीमा तक पूरा हो गया है।
  2. प्रवेश की सार्वभौमिकता- प्रवेश से अभिप्राय 6 से 14 वर्ष तक के सभी बालकों को प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने से है। साधारणतः देखा गया है कि अनेक बालक स्कूलों में प्रवेश नहीं लेते। यह अनुमान है कि 2% लड़के व 20% लड़कियाँ स्कूलों में प्रवेश नहीं लेती । विभिन्न राज्यों ने इस विषय में अधिनियम बनाए परन्तु उसके बावजूद भी इस उद्देश्य को पूर्णतया प्राप्त नहीं किया जा सका है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या और भी व्यापक हैं ।
  3. स्थिरता की सार्वभौमिकता- स्थिरता से अभिप्राय प्रवेश लेने के बाद प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति तक बालक के स्कूल में बने रहने से है । साधारणतः यह देखा गया है कि अनेक छात्र प्राथमिक शिक्षा पूरी किए बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं। जब तक प्राथमिक शिक्षा के दौरान स्कूल छोड़ जाने वाले छात्रों की संख्या में कमी नहीं लाई जाती तंब तक अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
प्रारम्भिक शिक्षा में सार्वभौमीकरण के प्रयास
भारत में प्रारम्भिक शिक्षा के स्तर के विकास हेतु उसका सार्वभौमीकरण किया गया । सार्वभौमीकरण के अन्तर्गत भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से परिवर्तन अधिनियम पारित कर 14 वर्ष तक की आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की। सरकार ने सन् 2009 में शिक्षा के अधिकार अधिनियम पारित कर 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए शिक्षा मौलिक अधिकार हो गई। प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण हेतु वर्ष 2001 में सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत की गई। प्रारम्भिक शिक्षा का महत्त्व वैदिक काल से ही रहा है। यही बालक के प्रगति का आधार होता है। प्रारम्भिक स्तर पर बालक की स्थित ही उसके आगे की शिक्षा का आधार, उसका भविष्य निर्माण एवं उत्तरोत्तर विकास में सहायक होती है। इसीलिए प्रारम्भिक शिक्षा को विकसित एवं विकासशील देशों ने महत्त्व देते हुए शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। स्वतन्त्र भारत में 1950 के संविधान को स्वीकार करने के बाद निःशुल्क, अनिवार्य एवं सार्वभौमिक शिक्षा की आवश्यकता प्रतीत हुई। भारत के संविधान धारा 45 के अन्तर्गत निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। यह शिक्षा नीति निर्देशक सिद्धान्त के अन्तर्गत की गई ।

धारा 45 के अन्तर्गत बालकों के लिए अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा का उपबन्ध, राज्य ने इसे संविधान के प्रारम्भ से दस वर्ष की अवधि के अन्दर सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु तक निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करने का प्रबन्ध किया गया । धारा के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि, राज्य दुर्बल वर्गों के विशिष्ट तथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष अभिवृद्धि करेगा। इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए 1992 में संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संकल्प व्यक्त किया गया कि 21 वीं शताब्दी से पूर्व 14 वर्ष की आयु तक के सभी बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगी। 2001 में सर्व शिक्षा अभियान तथा 2009 में शिक्षा अधिकार अधिनियम पारित किया गया

शिक्षा के सार्वभौमीकरण के उद्देश्य राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करना – शिक्षा के सार्वभौमीकरण के द्वारा समस्त देशों की शिक्षा में एकरूपता स्थापित होती है। देश के प्रत्येक क्षेत्रों की संस्कृति, रीति-रिवाज, शैली एवं भाषा का आदान-प्रदान होता है, इससे राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण का विकास होता है। शिक्षा के सार्वभौमीकरण से योग्य देश भक्त भावी नागरिकों का निर्माण होता है। इस प्रकार की शिक्षा राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखने में योगदान देती है तथा राष्ट्रीय विकास को महत्त्व देती है। औपनिवेशिक काल में भारत में निरक्षरता का बोलबाला था परन्तु धीरे-धीरे शिक्षा के प्रसार द्वारा भारतीयों में राष्ट्रीय एकता का विकास हुआ ।

इस प्रकार शिक्षा का सार्वभौमीकरण देश के नागरिकों में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने में सहायता प्रदान करती है।
  1. साम्प्रदायिकता की समाप्ति – शिक्षा के द्वारा ही एक बालक का सर्वांगीण विकास किया जाता है। बालक एक स्वच्छ समाज, समुदाय तथा देंश का निर्माण करता है। वह शिक्षा के द्वारा ही अपनी अच्छाइयों एवं बुराइयों तथा असामाजिक तत्त्वों का ज्ञान तथा उनमें भेद कर पाता है अर्थात् शिक्षा के सार्वभौमीकरण द्वारा ही सामाजिक जीवन में व्याप्त अराजकता, वैमनस्यता की भावना तथा साम्प्रदायिकता को समाप्त किया जा सकता है। इन सभी असमाजिक तत्त्व, कुरीतियों को समाप्त करने के लिए लोकव्यापी शिक्षा का प्रसार आवश्यक है ।
  2. राजनैतिक जागरूकता के लिए – शिक्षा का सार्वभौमीकरण नागरिकों में कर्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति उत्तरदायित्वों की भावना जागृत करती है। निरक्षर अथवा अशिक्षित व्यक्ति देश की राजनैतिक कल्याण को महत्त्व न देकर राजनीतिक बहकावे में आ जाते हैं तथा देश का विकास बाधित हो जाता है। इस प्रकार प्रजातन्त्र एवं एक अच्छे शासन अथवा स्वशासन की स्थापना के लिए शिक्षा का सर्वव्यापी होना अति आवश्यक है।
  3. जनतन्त्र को सफल बनाने के लिए – जनतन्त्र की सफलता के लिए सार्वभौमिक शिक्षा का बहुत अधिक महत्त्व है। किसी देश के जनतन्त्र विकास के लिए शिक्षा का अधिक से अधिक प्रसार एवं प्रचार आवश्यक है। जनतन्त्र की सफलता समाज में व्याप्त शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करती है। देश की सामाजिक तथा आर्थिक विकास की सफलता जनता की बुद्धिमत्ता और विवेक पर निर्भर करती है। प्राथमिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य देश के भावी नागरिकों को साक्षर बनाकर उन्हें अपने कर्तव्य, अधिकार एवं उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक बनाना जिससे उनमें जीवन की सामान्य समस्याओं के समाधान हेतु उनमें • सामर्थ एवं क्षमता का विकास हो सके।
  4. सामाजिक समानता तथा न्याय की स्थापना में सहायक – प्राचीन काल अथवा वैदिक काल से सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एवं न्यायिक क्षेत्र में बहुत असमानता थी । समाज में अनेक भेदभाव व्याप्त थे तथा कुछ व्यक्तियों को ही समान अधिकार प्राप्त थे। शिक्षा के सार्वभौमीकरण ने इसी असमानता को कम करने का प्रयास किया है। शिक्षा की इस व्यवस्था के कारण योग्य एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति राष्ट्र एवं समाज की उचित सेवा करने से वंचित रह जाते थे परन्तु वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने इसका समाधान कर जनसाधारण को सामाजिक समानता तथा न्याय को उपलब्ध कराने का कार्य किया ।
प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की आवश्यकता एवं महत्त्व 
  1. व्यक्ति का विकास – व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु शिक्षित होना आवश्यक है। उसे एक निश्चित आयु वर्ग तथा अवधि तक शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक होता है। व्यक्ति की जन्मजात मूल प्रवृत्तियों का शोधन एवं नियमन शिक्षा द्वारा ही सम्भव है अन्यथा वह पशुवत अनियन्त्रित स्वेच्छाचारी व्यवहार द्वारा असामाजिक प्राणी ही बना रहेगा।
  2. समाज का विकास – शिक्षित व्यक्ति अपने विकास के साथ ही समाज का विकास करता है। समाज के विकास हेतु व्यक्ति को न्यूनतम अर्थात् प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। एक शिक्षित व्यक्ति ही एक विकसित समाज की स्थापना कर सकता है। शिक्षा के द्वारा ही वह • अपना तथा समाज का विकास कर सकता है ।
  3. राष्ट्रीय विकास – व्यक्ति अपने शैक्षिक विकास के साथ ही अपने समाज, समुदाय तथा राष्ट्र का विकास करता है। राष्ट्र के नागरिक होने के कारण उसका यह कर्तव्य बनता है कि वह अपने अधिकार एवं कर्तव्यों को भली-भाँति समझने तथा उनके अनुकूल राष्ट्र के विकास में अपना योगदान देने हेतु उसे एक न्यूनतम शिक्षा की आवश्यकता होती है, इसलिए शिक्षा के विकास द्वारा राष्ट्रीय विकास को चरितार्थ करने के लिए शिक्षा का सार्वभौमीकरण आवश्यक है।
  4. लोकतन्त्रीय व्यवस्था – सही एवं विकास के लिए लोकतन्त्र की स्थापना शिक्षा के माध्यम से ही किया जा सकता है। शिक्षित व्यक्ति ही देश की आवश्यकता एवं महत्त्व को समझने के साथ ही वह प्रतिनिधित्व करने बाले व्यक्ति की योग्यता, क्षमता एवं उसके विकास सम्बन्धी मत को समझ सकता है । इस प्रकार सार्वभौमीकरण के द्वारा एक अच्छे लोकतन्त्रीय व्यवस्था की स्थापना की जाती है।
  5. व्यावसायिक प्रगति – शिक्षा के द्वारा व्यक्ति शिक्षित होकर अपने व्यवसाय में निपुणता प्राप्त करता है। इस निपुणता के द्वारा वह अपने व्यवसाय में कुशलता के द्वारा उत्पादन एवं लाभ की मात्रा में वृद्धि करता है। शिक्षित व्यक्ति अपने व्यवसाय में नवीन तकनीकी का तथा उपकरण का प्रयोग कर कार्यक्षमताओं में वृद्धि करता है।
  6. स्व – शिक्षा – प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर ही व्यक्ति वास्तविक जीवन से तालमेल स्थापित कर पाता है। शिक्षा के द्वारा वह अपनी अभिवृत्ति, कौशल, एवं आकांक्षा का विकास कर सकता है। इसको विकसित करने के लिए वह स्वध्याय की ओर प्रेरित होता है । अंशकालीन शिक्षा, पत्राचार द्वारा शिक्षा अथवा स्वयं पाठी के रूप में वह शिक्षा को ग्रहण करता है।
  7. दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु – शिक्षा की आवश्यकता इस बात से भी लगाई जा सकती है कि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी अपने दैनिक जीवन की पूर्ति निर्भर बन जाता है। वह अपने सगे-सम्बन्धियों को पत्र लिखने, मोबाइल, कम्प्यूटर संचालन, दैनिक पत्र पढ़ने, घर एवं व्यवसाय का हिसाब-किताब रखने, क्रय-विक्रय करने आदि दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
  8. माध्यमिक शिक्षा की तैयारी – प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाला ही माध्यमिक शिक्षा में प्रवेश ले सकता है। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने का साधन है। औपचारिक अथवा अनौपचारिक विधि से आगे की शिक्षा का आधार प्राथमिक शिक्षा ही है ।
  9. निरक्षर को साक्षर बनाने में सहायक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अपने साथ – साथ अपने परिवार के बच्चों को भी साक्षर बनाता है। वह शिक्षा के द्वारा अपने आस-पास, स्थानीय समुदाय तथा निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाने का कार्य करता है ।
  10. अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव का विकास – शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का निर्माण होता है। शिक्षा के द्वारा ही विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को अन्तर- निर्भरता एवं मानवतावादी कार्यों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास में प्राथमिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन द्वारा स्पष्ट है कि शिक्षा व्यक्ति, समाज, समुदाय तथा राष्ट्र के विकास के लिए अति आवश्यक है। शिक्षा के सार्वभौमीकरण द्वारा ही व्यक्ति अपने सामाजिक, आर्थिक एवं व्यावसायिक उद्देश्यों को प्राप्त करता है । इसलिए शिक्षा का सार्वभौमीकरण मानव कल्याण के साथ ही देश के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है ।

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